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Eighteen types of Brahmacharya have been stated, such as:
- One does not indulge in worldly pleasures (of human and animal beings) with the mind, nor does one make others indulge in them with the mind, nor does one approve of others indulging in them with the mind (3).
- One does not indulge in worldly pleasures with speech, nor does one make others indulge in them with speech, nor does one approve of others indulging in them with speech (6).
- One does not indulge in worldly pleasures with the body, nor does one make others indulge in them with the body, nor does one approve of others indulging in them with the body (9).
- One does not indulge in divine pleasures (of gods and goddesses) with the mind, nor does one make others indulge in them with the mind, nor does one approve of others indulging in them with the mind (12).
- One does not indulge in divine pleasures with speech, nor does one make others indulge in them with speech, nor does one approve of others indulging in them with speech (15).
- One does not indulge in divine pleasures with the body, nor does one make others indulge in them with the body, nor does one approve of others indulging in them with the body (18).
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The Arhat Arishta-nemi had the excellent Shraman-sampada of eighteen thousand monks. The Shraman Bhagavan Mahavira has stated eighteen places for all the Shraman Nirgranthas, who are free from the subtle and gross, such as:
- Vrat-shatk (six vows) 6, Kay-shatk (six bodily actions) 12, Akalp (non-attachment) 13, Grihi-bhajan (household possessions) 14, Pariyank (bed) 15, Nisidya (sitting with a woman on the same seat) 16, Snana (bathing) 17, and Sobha-tyaga (renunciation of bodily beauty) 18.
Commentary:
There are two types of monks: those who are unmanifest and immature due to their vows (diksha-paryaya) and knowledge (shruta), and those who are manifest and mature due to both vows and knowledge. The unmanifest monk is called a Ksudraka or...
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[समवायाङ्गसूत्र अष्टादशस्थानक-समवाय १२५-अट्ठारसविहे बंभे पण्णत्ते, तं जहा-ओरालिए कामभोगे णेव सयं मणेणं सेवइ १,नोवि अण्णं मणेणं सेवावेइ २, मणेणं सेवंतं पि अण्णं न समणुजाणाइ ३, ओरालिए कामभोगे णेव सयं वायाए सेवइ ४, नोवि अण्णं वायाए सेवावेइ ५, वायाए सेवंतं पिअण्णं न समणुजाणाइ ६।ओरालिए कामभोगे णेव सयं काएणं सेवइ ७, णोवि य अण्णं काएणं सेवावेइ ८, काएणं सेवंतं पि अण्णं न समणुजाणाइ ९। दिव्वे कामभोगे णेव सयं मणेणं सेवइ १०, णोवि अण्णं मणेणं सेवावेइ ११, मणेणं सेवंतं पि अण्णं न समणुजाणाइ १२। दिव्वे कामभोगे णेव सयं वायाए सेवइ १३,णोवि अण्णं वायाए सेवावेइ १४, वायाए सेवंतं पि अण्णं न समणुजाणाइ १५। दिव्वे कामभोगे णेव सयं काएणं सेवइ १६, णोवि अण्णं काएणं सेवावेइ १७, काएणं सेवंतं पि अण्णं न समणुजाणाइ १८।
ब्रह्मचर्य अठारह प्रकार का कहा गया है, जैसे-औदारिक (शरीर वाले मनुष्य-तिर्यंचों के) काम-भोगों को न ही मन से स्वयं सेवन करता है, न ही अन्य को मन से सेवन कराता है और न मन से सेवन करते हुए अन्य की अनुमोदना करता है ३। औदारिक-कामभोगों को न ही वचन से स्वयं सेवन करता है, न ही अन्य को वचन से सेवन कराता है और न ही सेवन करते हुए अन्य की वचन से अनुमोदना करता है ६। औदारिक-कामभोगों को न ही स्वयं काय से सेवन करता है, न ही अन्य को काय से सेवन कराता है और न ही काय से सेवन करते हुए अन्य की अनुमोदना करता है ९ । दिव्य (देव-देवी सम्बन्धी) काम-भोगों को न ही स्वयं मन से सेवन करता है, न ही अन्य को मन से सेवन कराता है और न ही मन से सेवन करते हए अन्य की अनमोदना करता है १२ दिव्य-काम भोगों को न ही स्वयं वचन से सेवन करता है, न ही अन्य को वचन से सेवन कराता है और न ही सेवन करते हुए अन्य की वचन से अनुमोदना करता है १५ । दिव्य-कामभोगों को न ही स्वयं कास से सेवन करता है, न ही अन्य को काय से सेवन कराता है और न ही काय से सेवन करते हुए अन्य की अनुमोदना करता है १८ ।
१२६-अरहतो णं अरिट्ठनेमिस्स अट्ठारस समणसाहस्सीओ उक्कोसिया समणसंपया होत्था। समणेणं भगवया महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं सखुड्डयविअत्ताणं अट्ठारस ठाणा पण्णत्ता, तं जहा
वयछक्कं ६ कायछक्कं १२ अकप्पो १३ गिहिभायणं १४ ।
पलियंक १५ निसिज्जा १६ य सिणाणं १७ सोभवज्जणं १८ ॥१॥ अरिष्टनेमि अर्हत् की उत्कृष्ण श्रमण-सम्पदा अठारह हजार साधुओं की थी। श्रमण भगवान् महावीर ने सक्षुद्रक-व्यक्त-सभी श्रमण निर्ग्रन्थों के लिये अठारह स्थान कहे हैं, जैसे-व्रतषट्क ६, कायषट् १२, अकल्प १३, (वस्त्र, पात्र, भक्त-पानादि) गृहि-भाजन १४, पर्यङ्क (पलंग आदि) १५, निषद्या (स्त्री के साथ एक आसन पर बैठना) १६, स्नान १७ और शरीर-शोभा का त्याग १८।
विवेचन-साधु दो प्रकार के होते हैं - वय (दीक्षा पर्याय) से और श्रुत (शास्त्रज्ञान) से अव्यक्त-अपरिपक्व और वय तथा श्रुत दोनों से व्यक्त- परिपक्व। इनमें अव्यक्त साधु को क्षुद्रक या