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सप्तदशस्थानक-समवाय] सायावेयणिज्जं जसोकित्तिनामं उच्चागोयं दाणंतरायं लाभंतरायं भोगंतरायं उवभोगंतरायं वीरिअअंतरायं।
समसाम्पराय भाव में वर्तमान समसाम्पराय भगवान केवल सत्तरह कर्म-प्रकतियों को बाँधते हैं, जैसे-१. आभिनिबोधिकज्ञानावरण, २. श्रुतज्ञानावरण, ३. अवधिज्ञानावरण, ४. मनःपर्ययज्ञानावरण, ५. केवलज्ञानावरण, ६. चक्षुर्दर्शनावरण,७. अचक्षुर्दर्शनावरण, ८.अवधिदर्शनावरण,९. केवलदर्शनावरण, १०. सातावेदनीय, ११. यशस्कीर्तिनामकर्म, १२. उच्चगोत्र, १३. दानान्तराय, १४. लाभान्तराय, १५. भोगान्तराय, १६. उपभोगान्तराय और १७. वीर्यान्तराय।
१२३--पंचमीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं उक्कोसेणं सत्तरस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। छट्ठीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं जहणणेणं सत्तरस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं सत्तरस पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं सत्तरस पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। महासुक्के कप्पे देवाणं उक्कोसेणं सत्तरस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता।
पांचवीं धमप्रभा पथिवी में कितनेक नारकों की उत्कष्ट स्थिति सत्तरह सागरोपम कही गई है। छठी पृथ्वी तमःप्रभा में किन्हीं-किन्हीं नारकों की जघन्य स्थिति सत्तरह सागरोपम है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति सत्तरह पल्योपम कही गई है। सौधर्म-ईशानकल्पों में कितनेक देवों की स्थिति सत्तरह पल्योपम कही गई है। महाशुक्र कल्प में देवों की उत्कृष्ट स्थिति सत्तरह सागरोपम कही गई है।
१२४-सहस्सारे कप्पे देवाणं जहण्णेणं सत्तरस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। जे देवा सामाणं सुसामाणं महासामाणं पउमं महापउमं कुमुदं महाकुमुदं नलिणं महानलिणं पोंडरीअं महापोंडरीअं सक्कं महासक्कं सीहं सीहकंतं सीहवीअंभाविअंविमाणं देवत्ताए उववण्णा.तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं सत्तरस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। ते णं देवा सत्तरसहिं अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा, उस्ससंति वा नीससंति वा। तेसि णं देवाणं सत्तरसहिं वाससहस्सेहिं आहारटे समुप्पज्जइ।
संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे सत्तरसहिं भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति।
सहस्रार कल्प में देवों की जघन्य स्थिति सत्तरह सागरोपम है। वहां जो देव, सामान, सुसामान, महासामान, पद्म, महापद्म, कुमुद, महाकुमुद, नलिन, महानलिन, पौण्डरीक, महापौण्डरीक, शुक्र, महाशुक्र, सिंह. सिंहकान्त. सिंहबीज. और भावित नाम के विशिष्ट विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति सत्तरह सागरोपम की होती है। वे देव सत्तरह अर्धमासों (साढ़े आठ मासों) के बाद आनप्राण या उच्छ्वास-निःश्वास लेते हैं। उन देवों के सत्तरह हजार वर्षों के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती
है।
कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो सत्तरह भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्वदुःखों का अन्त करेंगे।
॥सप्तदशस्थानक समवाय समाप्त ॥