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त्रयोदशस्थानक-समवाय]
[३७ इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति बारह पल्योपम कही गई है। पांचवीं धूमप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति बारह सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति बारह पल्योपम कही गई है। सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति बारह पल्योपम कही गई
८४-लंतए कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं बारस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। जे देवा महिंदं महिंदज्झयं कंबुं कंबुग्गीयं पुंखं सुपुंखं महापुंखं पुंडं सुपुंडं महापुंडं नरिदं नरिदकंतं नरिंदुत्तरवडिंसगं विंमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसिं णं देवाणं उक्कोसेणं बारस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। ते णं देवा बारसण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा, उस्ससंति वा नीससंति वा। तेसिं णं देवाणं बारसहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पज्जइ।
संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे बारसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति।
लान्तक कल्प में कितनेक देवों की स्थिति बारह सागरोपम कही गई है। वहां जो देव माहेन्द्र, माहेन्द्रध्वज, कम्बु, कम्बुग्रीव, पुंख, सुपुंख महापुंख, पुंड, सुपुंड, महापुंड नरेन्द्र, नरेन्द्रकान्त और नरेन्द्रोत्तरावतंसक नाम के विशिष्ट विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उनकी उत्कृष्ट स्थिति बारह सागरोपम कही गई है। वे देव बारह अर्धमासों (छह मासों) के बाद आन-प्राण या उच्छ्वास-निःश्वास लेते हैं। उन देवों के बारह हजार वर्ष के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है।
कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो बारह भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दु:खों का अन्त करेंगे।
॥ द्वादशस्थानक समवाय समाप्त १२॥
त्रयोदशस्थानक-समवाय ८५-तेरस किरियाठाणा पण्णत्ता, तं जहा-अत्थादंडे अणत्थादडे हिंसादण्डे अकम्हादंडे दिट्ठिविपरिआसिआदंडे मुसावायवत्तिए अदिन्नादाणवत्तिए अज्झत्थिए मानवत्तिए मित्तदोसवत्तिए मायावत्तिए लोभवत्तिए इरियावहिए नामं तेरसमे।
तेरह क्रियास्थान कहे गये हैं। जैसे- अर्थदंड, अनर्थदंड, हिंसादंड, अकस्मादंड, दृष्टि-विपर्यासदंड, मृषावादप्रत्ययदंड, अदत्तादानप्रत्ययदंड, आध्यात्मिकदंड, मानप्रत्ययदंड, मित्रद्वेष-प्रत्ययदंड, मायाप्रत्ययदंड, लोभप्रत्ययदंड और ईर्यापथिकदंड।
विवेचन-कर्मबन्ध की कारणभूत चेष्टा को क्रिया कहते हैं। उसके तेरह स्थान या भेद कहे गये हैं। अपने शरीर, कुटुम्ब आदि के प्रयोजन से जीव-हिसा होती है, वह अर्थदंड कहलाता है। बिना प्रयोजन जीव-=हिंसा करना अनर्थदंड कहलाता है। संकल्पपूर्वक किसी प्राणी को मारना हिंसादंड है। उपयोग के बिना अकस्मात् जीव-घात हो जाना अकस्मादंड है। दृष्टि या बद्धि के विभ्रम से जीव-घात हो जाना दृष्टिविपर्यासदंड है, जैसे मित्र को शत्रु समझ कर मार देना। असत्य बोलने के निमित्त से होने वाला जीव