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[समवायाङ्गसूत्र विवेचन–पर्याप्ति शब्द का अर्थ पूर्णता है। आहार, शरीर, इन्द्रियादि के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके उन्हें तद्रूप परिणत करने की योग्यता की पूर्णता पर्याप्ति कहलाती है। वे छह हैं - आहार शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मनःपर्याप्ति। जिन जीवों में जितनी पर्याप्तियां संभव हैं, उनकी पूर्णता जिन्होंने प्राप्त कर ली है वे पयाप्ति कहलाते हैं। जिन्हें वह पूर्णता प्राप्त नहीं हुई हो उन्हें अपर्याप्त कहते हैं। इनकी पूर्ति का काल अन्तर्मुहूर्त है। ९३-चउद्दस पुव्वा पण्णत्ता, तं जहा
उप्पायपुव्वयग्गेणियं च तइयं च वीरियं पुव्वं । अत्थीनत्थिपवायं तत्तो नाणप्पवायं च ॥१॥ सच्चप्पवास पुव्वं तत्तो आयप्पवायपुव्वं च ।। कम्मप्पवायपुव्वं पच्चक्खाणं भवे नवमं ॥२॥ विज्जाअनुप्पवायं अबंझपाणाउ बारसं पुव्वं ।
तत्तो किरियविसालं पुव्वं तह बिंदुसारं च ॥३॥ चौदह पूर्व कहे गये हैं, जैसे
उत्पाद-पूर्व, अग्रायणीय-पूर्व, वीर्यप्रवाद-पूर्व,अस्तिनास्ति प्रवाद-पूर्व, ज्ञानप्रवाद-पूर्व, सत्यप्रवादपूर्व, आत्मप्रवाद-पूर्व, कर्मप्रवाद-पूर्व, प्रत्याख्यानप्रवाद-पूर्व, विद्यानुवाद-पूर्व, अबन्ध्य-पूर्व, प्राणावायपूर्व, क्रियाविशाल-पूर्व तथा लोकबिन्दुसार-पूर्व।
विवेचन-बारहवें अंग दृष्टिवाद का एक विभाग पूर्व कहलाता है। पूर्व चौदह हैं। उनमें से उत्पाद-पूर्व में उत्पाद का आश्रय लेकर द्रव्यों के पर्यायों की प्ररूपणा की गई है। अग्रायणीय-पूर्व में द्रव्यों के अग्र-परिमाण का आश्रय लेकर उनका निरूपण किया गया है। वीर्यप्रवाद-पूर्व में जीवादि द्रव्यों के वीर्य-शक्ति का निरूपण किया गया है। अस्तिनास्तिप्रवाद पूर्व में द्रव्यों के स्वद्रव्य-क्षेत्र काल-भाव की अपेक्षा अस्तित्व का और परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा नास्तित्व धर्म का प्ररूपण किया गया है। ज्ञानप्रवादपूर्व में मतिज्ञानादि ज्ञानों के भेद-प्रभेदों का सस्वरूप निरूपण किया है। सत्यप्रवादपूर्व में सत्य-संयम, सत्य वचन तथा उनके भेद-प्रभेदों का और उनके प्रतिपक्षी असंयम, असत्य वचनादि का विस्तृत निरूपण किया गया है। आत्मप्रवाद-पूर्व में आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध कर उसके भेद-प्रभेदों का अनेक नयों से विवेचन किया गया है। कर्मप्रवाद-पूर्व में ज्ञानावरणादि कर्मों का अस्तित्व सिद्ध कर उनके भेद-प्रभेदों एवं उदय-उदीरणादि विविध दशाओं का विस्तृत वर्णन किया गया है। प्रत्याख्यानपूर्व में अनेक प्रकार के यम-नियमों का, उनके अतिचारों और प्रायश्चित्तों का विस्तृत विवेचन किया गया है। विद्यानुवादपूर्व में अनेक प्रकार के मंत्र-तंत्रों का, रोहिणी आदि महाविद्याओं का, तथा अंगुष्ठप्रश्नादि लघुविद्याओं की विधिपूर्वक साधना का वर्णन किया गया है। अबन्ध्यपूर्व में कभी व्यर्थ नहीं जाने वाले अतिशयों का, चमत्कारों का तथा जीवों का कल्याण करने वाली तीर्थंकर प्रकृति के बांधने वाली भावनाओं का वर्णन किया गया है। दि. परम्परा में इस पूर्व का नाम कल्याणवाद दिया गया है। प्राणायु या प्राणावाय-पूर्व में जीवों के प्राणों के रक्षक आयुर्वेद के अष्टांगों का विस्तृत विवेचन किया गया है।