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चतुर्दशस्थानक-समवाय]
[४१ क्रियाविशाल-पूर्व में अनेक प्रकार की कलाओं का तथा मानसिक, वाचनिक और कायिक क्रिया का सभेद विस्तृत निरूपण किया गया है। लोकबिन्दुसार में लोक का स्वरूप तथा मोक्ष के जाने के कारणभूत रत्नत्रयधर्म का सूक्ष्म विवेचन किया गया है।
९४-अग्गेणिअस्स णं पुव्वस्स चउद्दस वत्थू पण्णत्ता। समणस्सणं भगवओ महावीरस्स चउद्दस समणसाहस्सीओ उक्कोसिया समणसंपया होत्था। अग्रायणीय पूर्व के वस्तु नामक चौदह अर्थाधिकार कहे गये हैं। श्रमण भगवान् महावीर की उत्कृष्ट श्रमण-सम्पदा चौदह हजार साधुओं की थी।
९५ -कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउद्दस जीवट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा–मिच्छादिट्ठी, सासायणसम्मदिट्ठी, सम्मामिच्छदिट्ठी, अविरयसम्मदिट्ठी, विरयाविरए, पमत्तसंजय, अप्पमत्तसंजए, निअट्टिबायरे, अनिअट्टिबायरे, सुहुमसंपराए-उवसामए वा खवए वा, उवसंतमोहे, खीणमोहे, सजोगी केवली, अयोगी केवली।
कर्मों की विशुद्धि (निराकरण) की गवेषणा करने वाले उपायों की अपेक्षा चौदह जीवस्थान कहे गये हैं, जैसे-मिथ्यादृष्टि स्थान, सासादन सम्यग्दृष्टि स्थान, सम्यग्मिथ्यादृष्टि स्थान, अविरत सम्यग्दृष्टि स्थान, विरताविरत स्थान, प्रमत्तसंयत स्थान, अप्रमत्तसंयत स्थान, निवृत्तिबादर स्थान, अनिवृत्तिबादर स्थान, सूक्ष्मसाम्पराय उपशामक और क्षपक स्थान, उपशान्तमोह स्थान, क्षीणमोह स्थान, सयोगिकेवली स्थान और अयोगिकेवली स्थान।
विवेचन-सूत्र-प्रतिपादित उक्त चौदह जीवस्थान गुणस्थान के नाम से प्रसिद्ध हैं। उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है
१. मिथ्यादृष्टि गुणस्थान- अनादिकाल से इस जीव की दृष्टि, रुचि, प्रतीति या श्रद्धा मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के उदय से मिथ्या या विपरीत चली आ रही है। यद्यपि इस गुणस्थान वाले जीवों के कषायों की तीव्रता और मन्दता की अपेक्षा संक्लेश की हीनाधिकता होती रहती है, तथापि उनकी दृष्टि मिथ्या या विपरीत ही बनी रहती है। उन्हें आत्मस्वरूप का कभी यथार्थ भान नहीं होता। और जब तक जीव को अपना यथार्थ भान (सम्यग्दर्शन) नहीं होगा, तब तक वह मिथ्यादृष्टि ही बना रहेगा। फिर भी इसे गुणस्थान संज्ञा दी गई है, इसका कारण यह है कि इस स्थान वाले जीवों के यथार्थ गुणों का विनाश नहीं हुआ है, किन्तु कर्मों के आवरण से उनका वर्तमान में प्रकाश नहीं हो रहा है।
२.सासादन या सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान-जब कोई भव्य जीव मिथ्यात्वमोहनीय कर्म का और अनन्तानुबंधी कषायों का उपशम करके सम्यग्दृष्टि बनता है, तब वह उस अवस्था में अन्तर्मुहूर्त काल ही रहता है। उस काल के भीतर कुछ समय शेष रहते हुए यदि अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय आ जावे, तो वह नियम से गिरता है और एक समय से लेकर छह आवली.काल तक वमन किये गये सम्यक्त्व का कुछ आस्वाद लेता रहता है। इसी मध्यवर्ती पतनोन्मुख दशा का नाम सास्वादन गुणस्थान है तथा यह जीव सम्यक्त्व की आसादना (विराधना) करके गिरा है, इसलिए इसे सासादन सम्यग्दृष्टि भी कहते हैं।