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चतुर्दशस्थानक-समवाय]
[३९ इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति तेरह पल्योपम कही गई है। पांचवी धूमप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति तेरह सागरोपम कही गई है। सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति तेरह पल्योपम कही गई है।
९१-लंतए कप्पे अत्थेगइआणं देवाणं तेरस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। जे देवा वज्जं सुवजं वज्जावत्तं [वज्जप्पभं] वज्जकंतं वज्जवण्णं वन्जलेसं वजरूवं वज्जसिंगं वज्जसिडें वन्जकूडं वज्जुत्तरवडिंसगं वरं वइरावत्तं वइरप्पभं वइरकंतं वइरवण्णं वइरलेसं वइररूवं वइरसिंगं वइरसिठं वइरकूडं वइरुत्तरवडिंसगं लोगं लोगावत्तं लोगप्पभं लोगकंतं लोगवण्णं लोगलेसं लोगरूवं लोगसिंगं लोगसिटुं लोगकूडं लोगुत्तरवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसिं णं देवाणं उक्कोसेणं तेरस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। ते णं देवा तेरसहिं अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा, उस्ससंति वा नीससंति वा । तेसिंणं देवाणं तेरसहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पज्जइ।
___ संतेगइया भवसिद्धिआ जीवा जें तेरसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति।
लान्तक कल्प में कितनेक देवों की स्थिति तेरह सागरापम कही गई है। वहां जो देव वज्र, सुवज्र, वज्रावर्त [वज्रप्रभ] वज्रकान्त, वज्रवर्ण, वज्रलेश्य, वज्ररूप, वज्रशृंग, वज्रसृष्ट, वज्रकूट, वज्रोत्तरावतंसक, वइर, वइरावर्त, वइरप्रभ, वइरकान्त, वइरवर्ण, वइरलेश्य वइररूप, वइरशृंग, वइरसृष्ट, वइरकूट, वइरोत्तरावतंसक; लोक, लोकावर्त, लोकप्रभ, लोककान्त, लोकवर्ण, लोकलेश्य, लोकरूप, लोकशृंग, लोकसृष्ट, लोककूट और 'लोकोत्तरावतंसक नाम के विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थित तेरह सागरोपम कही गई है। वे तेरह अर्धमासों (साढ़े छह मासों) के बाद आन-प्राणउच्छवास-नि:श्वास लेते हैं। उन देवों के तेरह हजार वर्ष के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो तेरह भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दु:खों का अन्त करेंगे।
॥त्रयोदशस्थानक समवाय समाप्त॥
चतुर्दशस्थानक-समवाय ९२-चउद्दस भूअग्गामा पण्णत्ता, तं जहा-सुहुमा अपज्जत्तया, सुहुमा पज्जत्तया, बादरा अपज्जत्तया, बादरा पज्जत्तया, बेइंदिया अपज्जत्तया, बेइंदिया पज्जत्तया, तेइंदिया अपज्जत्तया, तेइंदिया पज्जत्तया, चउरिदिया अपजत्तया, चउरिंदिया पज्जत्तया, पंचिंदिया असन्नि-अपज्जत्तया, पंचिंदिया असन्नि-पज्जत्तया, पंचिंदिया सन्नि-अपजत्तया, पंचिंदिया सन्नि-पज्जत्तया।
चौदह भूतग्राम (जीवसमास) कहे गये हैं। जैसे- सूक्ष्म अपर्याप्तक एकेन्द्रिय, सूक्ष्म पर्याप्तक एकेन्द्रिय, बादर अपर्याप्तक एकेन्द्रिय, बादर पर्याप्तक एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक, द्वीन्द्रिय पर्याप्तक, वीन्द्रिय अपर्याप्तक, त्रीन्द्रिय पर्याप्तक, चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक, चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक, पंचेन्द्रिय असंज्ञी अपर्याप्तक, पंचेन्द्रिय असंज्ञी पयाप्तिक, पंचेन्द्रिय संज्ञी अपर्याप्तक और पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक।