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चतुर्दशस्थानक-समवाय]
[४३ ८.निवृत्तिबादर उपशामक क्षपक गुणस्थान-अनन्तानुबन्धी कषायाचतुष्क और दर्शनमोहत्रिक इन सात प्रकृतियों का उपशमन करने वाला जीव इस आठवें गुणस्थान में आकर अपनी अपूर्व विशुद्धि के द्वारा चारित्रमोह की शेष रही २१ प्रकृतियों के उपशमन की तथा उक्त सात प्रकृतियों का क्षय करने वाला क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव उक्त प्रकृतियों के क्षपण की आवश्यक तैयारी करता है। अत: इस गुणस्थानवाले समसमयवर्ती जीवों के परिणामों में भिन्नता रहती है और बादर संज्वलन कषायों का उदय रहता है, अतः इसे निवृत्तिबादर गुणस्थान कहते हैं।
९. अनिवृत्तिबादर उपशामक क्षपक गुणस्थान- इस गुणस्थान में आने वाले एक समयवर्ती सभी जीवों के परिणाम एक से होते हैं, उनमें निवृत्ति या भिन्नता नहीं होती, अतः इसे अनिवृत्तिबादर गुणस्थान कहा गया है। इस गुणस्थान में उपशम श्रेणीवाला जीव सूक्ष्म लोभ को छोड़कर शेष सभी
प्रकतियों का उपशम और क्षषक श्रेणीवाला जीव उन सभी का क्षय कर डालता है और दशवें गुणस्थान में पहुंचता है।
१०. सूक्ष्मसाम्पराय उपशामक-क्षपक गुणस्थान- इस गुणस्थान में आने वाले दोनों श्रेणियों के जीव सूक्ष्मलोभकषाय का वेदन करते हैं, अतः इसे सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान कहते हैं। सम्पराय नाम कषाय का है। उपशम श्रेणीवाला जीव उस सूक्ष्मलोभ का उपशम करके ग्यारहवें गुणस्थान में पहुंचता है और क्षपक श्रेणी वाला उसका क्षय करके बारहवें गुणस्थान में पहुंचता है। दोनों श्रेणियों के इसी भेद को बतलाने के लिए इस गुणस्थान का नाम "सूक्ष्मसाम्पराय उपशामक क्षपक' दिया गया है।
११. उपशान्तमोह गुणस्थान-उपशम श्रेणीवाला जीव दशवें गुणस्थान के अन्तिम समय में सूक्ष्म लोभ का उपशमन कर इस गुणस्थान में आता है और मोहकर्म की सभी प्रकृतियों का पूर्ण उपशम कर देने से यह उपशान्तमोह गुणस्थान वाला कहा जाता है।
इस गुणस्थान का काल लघु अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। इसके समाप्त होते ही वह नीचे गिरता हुआ सातवें गुणस्थान को प्राप्त होता है। यदि उसका संसार-परिभ्रमण शेष है, तो वह मिथ्यात्व गुणस्थान तक भी प्राप्त हो जाता है।
१२.क्षीणमोह गुणस्थान-क्षपक श्रेणी पर चढ़ा हुआ दशवें गुणस्थानवी जीव उसके अन्तिम समय सूक्ष्म लोभ का भी क्षय करके क्षीणमोही होकर बारहवें गुणस्थान में पहुंचता है। यतः उसका मोहनीयकर्म सर्वथा क्षीण या नष्ट हो चुका है, अतः यह गुणस्थान "क्षीणमोह" इस सार्थक नाम से कहा जाता है। इस गुणस्थान का काल भी लघु अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। उसके भीतर यह ज्ञानावरण कर्म की पांच, दर्शनावरण कर्म की नौ और अन्तराय कर्म की पांच इन उन्नीस प्रकृतियों के सत्त्व की असंख्यात गुणी प्रतिसमय निर्जरा करता हुआ अन्तिम समय में सबका सर्वथा क्षय करके केवलज्ञान-दर्शन को प्राप्त कर तेरहवें गुणस्थान को प्राप्त होता है।
१३. सयोगिकेवली गुणस्थान-इस गुणस्थान में केवली भगवान् के योग विद्यमान रहते हैं, अतः इसका नाम सयोगिकेवली गुणस्थान है। ये सयोगिजिन धर्मदेशना करते हुए विहार करते रहते हैं। जीवन के अन्तर्मुहूर्त मात्र शेष रहने पर ये योगों का निरोध करके चौदहवें गुणस्थान में प्रवेश करते हैं।