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[समवायाङ्गसूत्र १४. अयोगिकेवली गुणस्थान-इस गुणस्थान का काल 'अ, इ, उ, ऋ, लु' इन पांच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारणकाल-प्रमाण है। इतने ही समय के भीतर वे वेदनीय, आयु, नाम और गोत्रकर्म की सभी सत्ता में स्थित प्रकृतियों का क्षय करके शुद्ध निरंजन सिद्ध होते हुए सिद्धालय में जा विराजते हैं और अनन्त स्वात्मोत्थ सुख के भोक्ता बन जाते हैं।
९६-भरहेरवयाओ णं जीवाओ चउद्दस चउद्दस जोयणसहस्साइं चत्तारि अ एगुत्तरे जोयणसए छच्च एगूणवीसे भागे जोयणस्स आयामेणं पण्णत्ताओ।
भरत और ऐरवत क्षेत्र की जीवाएं प्रत्येक चौदह हजार चार सौ एक योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से छह भाग प्रमाण लम्बी कही गई हैं।
विवेचन-डोरी चढ़े हुए धनुष के समान भरत और ऐरवत क्षेत्र का आकार है। उसमें डोरी रूप लम्बाई को जीवा कहते हैं । वह उक्त क्षेत्रों की (१४४०११ ) योजन प्रमाण लम्बी है।
९७–एगमेगस्स णं रन्नो चाउरंतचक्कवट्टिस्स चउद्दस रयणा पण्णत्ता, तं जहाइत्थीरयणे, सेणावइरयणे, गाहावइरयणे, पुरोहियरयणे, बङ्कइरयणे, आसरयणे, हत्थिरयणे, असिरयणो, दण्डरयणे चक्करयणे, छत्तरयणे, चम्मरयणे, मणिरयणे, कागिणिरयणे।
प्रत्येक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा के चौदह-चौदह रत्न होते हैं, जैसे- स्त्रीरत्न, सेनापतिरत्न, गृहपतिरत्न, पुरोहितरत्न, वर्धकीरत्न, अश्वरत्न, हस्तिरत्न, असिरत्न, दंडरत्न, चक्ररत्न, छत्ररत्न, चर्मरत्न, मणिरत्न और काकिणिरत्न।
विवेचन-चेतन या अचेतन वस्तुओं में जो वस्तु अपनी जाति में सर्वोत्कृष्ट होती है, उसे रल कहा जाता है। प्रत्येक चक्रवर्ती के समय में जो सर्वश्रेष्ठ सुन्दर स्त्री होती है, वह उसकी पट्टरानी बनती है और उसे स्त्रीरत्न कहा जाता है। इसी प्रकार प्रधान सेना-नायक को सेनापतिरत्न, प्रधान कोठारी या भंडारी को गृहपतिरत्न, शान्तिकर्मादि करानेवाले पुरोहित को पुरोहितरत्न, रथादि के निर्माण करने वाले बढ़ई को वर्धकिरत्न, सर्वोत्तम घोड़े को अश्वरत्न और सर्वश्रेष्ठ हाथी को हस्तिरत्न कहा जाता है। ये सातों चेतन पंचेन्द्रिय रत्न हैं । शेष सात एकेन्द्रिय कायवाले रत्न हैं। कहा जाता है कि प्रत्येक रत्न की एक-एक हजार देव सेवा करते हैं। इसी से उन रत्नों की सर्वश्रेष्ठता सिद्ध है।
९८-जंबुद्दीवे णं दीवे चउद्दस महानईओ पुव्वावरेण लवणसमुदं समप्पंति, तं जहागंगा, सिंधू, रोहिआ, रोहिअंसा, हरी, हरिकंता, सीआ, सीओदा, नरकंता, नारीकंता, सुवण्णकूला, रुप्पकूला, रा, रत्तवई।
___ जम्बूद्वीप नामक इस द्वीप में चौदह महानदियां पूर्व और पश्चिम दिशा से लवणसमुद्र में जाकर मिलती हैं। जैसे- गंगा-सिन्धु, रोहिता-रोहितांसा, हरी-हरिकान्ता, सीता-सीतोदा, नरकान्ता-नारीकान्ता, सुवर्णकूला-रुप्यकूला, रक्ता और रक्तवती।
__विवेचन- उक्त सात युगलों में से प्रथम नाम वाली महानदी पूर्व की ओर से और दूसरे नाम वाली महानदी पश्चिम की ओर से लवणसमुद्र में प्रवेश करती है। नदियों का एक-एक युगल भरत आदि