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द्वादशस्थानक - समवाय ]
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उस स्थान को समवसरण कहते हैं। वहां पर मर्यादापूर्वक साम्भोगिक साधुओं के साथ उठना-बैठना समवसरण-विषयक सम्भोग है । तथा वहाँ असम्भोगिक या पार्श्वस्थादि साधुओं के साथ बैठक कर मर्यादा का उल्लंघन करता है तो वह पूर्ववत् विसम्भोग के योग्य हो जाता है ।
(११) अपने आसन से उठकर गुरुजनों से प्रश्न पूछना, उनके द्वारा पूछे जाने पर आसन उठकर उत्तर देना संनिषद्या-विषयक सम्भोग है। यदि कोई साधु गुरुजनों से कोई प्रश्न अपने आसन पर बैठे-बैठे ही पूछता है या उनके द्वारा कुछ पूछे जाने पर आसन से न उठकर बैठे-बैठे ही उत्तर देता है, यह मर्यादा का उल्लंघन करने से पूर्ववत् विसंभोग के योग्य हो जाता है।
तो
(१२) गुरु के साथ तत्त्व - चर्चा या धर्मकथा के समय वाद - कथा सम्बन्धी नियमों का पालन करना कथा-प्रबन्धन- सम्भोग है । जब कोई साधु कथा - प्रबन्ध के नियमों का उल्लंघन करता है, तब वह विसम्भोग के योग्य हो जाता है। यह कथा - प्रबन्ध - विषयक संभोग है।
कहने का सारांश यह है कि साधु जब तक अपने संघ की मर्यादा का पालन करता है, तब तक साम्भोगिक रहता है और उसके उल्लंघन करने पर विसम्भोग के योग्य हो जाता है ।
७९ – दुवालसावत्ते कितिकम्मे पण्णत्ते, तं जहा -
दुओणयं जहाजायं कितिकम्मं बारसावयं ।
चउसिरं तिगुत्तं च दुपवेसं एगनिक्खमणं ॥१॥
कृतिकर्म बारह आवर्त वाता कहा गया है, जैसे
कृतिकर्म में दो अवनत (नमस्कार), यथाजात रूप का धारण, बारह आवर्त, चार शिरोनति, तीन गुप्ति, दो प्रवेश और एक निष्क्रमण होता है ॥१ ॥
विवेचन - कृतिकर्म की निरुक्ति है – 'कृत्यते छिद्यते कर्म येन तत् कृतिकर्म' अर्थात् परिणामों की जिस विशुद्ध रूप मानसिक क्रिया से शब्दोच्चारण रूप वाचनिक क्रिया से और नमस्कार रूप कायिक क्रिया से ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का कर्त्तन या छेदन किया जाये, उसे कृतिकर्म कहते हैं । अतः देव और गुरु की वन्दना के द्वारा भी पापकर्मों की निर्जरा होती है, अतः वंदना को कृतिकर्म कहा गया है।
प्रकृत में यह गाथा इस बात की साक्षी में दी गई है कि कृतिकर्म में बारह आवर्त किये जाते हैं । आवर्त का क्या अर्थ है, इसके विषय में संस्कृतटीकाकार ने केवल इतना ही लिखा है - 'द्वादशावर्ता: सूत्राभिधानगर्भा : कायव्यापारविशेषाः यतिजनप्रसिद्धाः ' अर्थात् - साधुजन प्रसिद्ध, सूत्रकथित आशयवाले शरीर के व्यापार - विशेष को आवर्त कहते हैं। पर इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि शरीर का यह व्यापारविशेष क्या है, जिसे कि आवर्त कहते हैं ।
दि. परम्परा में दोनों हाथों को मुकुलित कर दाहिनी ओर से बायीं ओर घुमाने को आवर्त्त कहा गया है । यह आवर्तमन वचन काय की क्रिया के परावर्तन के प्रतीक माने जाते हैं, जो सामायिक दंडक