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[समवायाङ्गसूत्र और चतुर्विंशतिस्तव के आदि और अन्त में किये जाते हैं जो सब मिलकर बारह हो जाते हैं।
आवर्त और कृतिकर्म का विशेष रहस्य सम्प्रदाय-प्रचलित पद्धति से जानना चाहिए। उक्त गाथा स्वल्प पाठ-भेद के साथ दि. मूलाचार में भी पाई जाती है।
८०-विजया णं रायहाणी दुवालसजोयणसयसहस्साइं आयामविक्खंभेणं पण्णत्ता। रामे णं बलदेवे दुवालसवाससयाइं सव्वाउयं पालित्ता देवत्तं गए। मंदरस्स णं पव्वयस्स चूलिया मूले दुवालसजोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ता। जंबूदीवस्स णं दीवस्स वेइया मूले दुवालसजोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ता।
जम्बूद्वीप के पूर्वदिशावर्ती विजयद्वार के स्वामी विजय नामक देव की विजया राजधानी (यहां से असख्यात योजन दूरी पर) बारह लाख योजन आयाम-विष्कम्भ वाली कही गई है। राम नाम के बलदेव बारह सौ (१२००) वर्ष की पूर्ण आयु का पालन कर देवत्व को प्राप्त हुए। मन्दर पर्वत की चूलिका मूल में बारह योजन विस्तार वाली है। जम्बूद्वीप नामक इस द्वीप की वेदिका मूल में बारह योजन विस्तार वाली है।
८१-सव्वजहण्णिया राई दुवालसमुहुत्तिआ पण्णत्ता। एवं दिवसोवि नायव्वो।
सर्वजघन्य रात्रि (सब से छोटी रात) बारह मुहूर्त की होती है। इसी प्रकार सबसे छोटा दिन भी बारह मुहूर्त का जानना चाहिए।
८२-सव्वट्ठसिद्धस्स णं महाविमाणस्स उवरिल्लाओ थुभिअग्गाओ दुवालस जोयणाई उड्ढे उप्पइया ईसिपब्भार नाम पुढवी पण्णत्ता। ईसिपब्भाराए णं पुढवीए दुवालस नामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा-ईसि त्ति वा, ईसिपब्भारा ति वा, तणू इ वा, तणुयतरि त्ति वा, सिद्धि त्ति वा, सिद्धालए त्ति वा, मुत्ती त्ति वा, मुत्तालए त्ति वा, बंभे त्ति वा बंभवडिंसए ति वा, लोकपडिपूरणे ति वा लोगग्गचूलिआई वा।
___ सर्वार्थसिद्ध महाविमान की उपरिम स्तूपिका (चूलिका) से बारह योजन ऊपर ईषत्प्राग्भार नामक पृथिवी कही गई है। ईषत्प्राग्भार पृथिवी के बारह नाम कहे गये हैं, जैसे-ईषत् पृथिवी, ईषत् प्राग्भार पृथिवी, तनु पृथिवी, तनुतरी पृथिवी, सिद्धि पृथिवी, सिद्धालय, मुक्ति, मुक्तालय, ब्रह्म, ब्रह्मावतंसक, लोकप्रतिपूरणा और लोकाग्रचूलिका।
८३-इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं बारस पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। पंचमीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं बारस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं बारस पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं बारस पलिओवमाई ठिई पण्ण्त्ता । १. कथिता द्वादशावर्ता वपुर्वचनचेतसाम्।
स्तव-सामायिकाद्यन्तरपरावर्तन लक्षणाः॥ १३ ॥ त्रि:सम्पुटीकृतौ हस्तौ भ्रामयित्वा पठेत्पुनः। साम्यं पठित्वा भ्रामयेत्तौ स्तवेऽप्येतदाचरेत् ॥ १४॥ (क्रियाकलाप)