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द्वादशस्थानक-समवाय]
[३३ इस प्रकार वह आगमोक्त मर्यादा से अपनी प्रतिमा का पालन करता है।
__ दूसरी से लेकर सप्तमासिकी भिक्षुप्रतिमा तक के धारी साधुओं को भी पहली मासिकी प्रतिमाधारी के सभी कर्तव्यों का पालन करना पड़ता है। अन्तर यह है कि दूसरी भिक्षुप्रतिमा वाला दो मास तक प्रतिदिन भक्त-पान की दो-दो दत्तियां ग्रहण करता है। इसी प्रकार एक-एक दत्ति बढ़ाते हुए सप्तमासिकी भिक्षुप्रतिमा वाला सात मास तक भक्त-पान की सात-सात दत्तियों को ग्रहण करता है।
प्रथम सप्तरात्रिंदिवा भिक्षुप्रतिमावाला साधु चतुर्थ भक्त का नियम लेकर ग्राम के बाहर खड़े या बैठे हुए ही समय व्यतीत करता है।
दूसरी सप्तरात्रिंदिवा भिक्षुप्रतिमावाला षष्ठभक्त का नियम लेकर उत्कुट (उकडू) आदि आसन से अवस्थित रहता है। तीसरी सप्तरात्रिक प्रतिमावाला अष्टम-भक्त का नियम लेकर सात दिन-रात तक गोदोहन या वीरासनादि से अवस्थित रहता है। अहोरात्रिक प्रतिमा वाला अपानक षष्ठ भक्त का नियम लेकर २४ घंटे कायोत्सर्ग से ग्रामादि के बाहर अवस्थित रहता है। एकरात्रिक भिक्षु प्रतिमावाला अपानक अष्टम भक्त का नियम लेकर अनिमिष नेत्रों से प्रतिमायोग धारण कर कायोत्सर्ग से अवस्थित रहता है। ७८
दुवालसविहे सम्भोगे पण्णत्ते, तं जहाउवही सुअ भत्त पाणे अंजली पग्गहे त्ति य। दायणे य निकाए अ अब्भुट्ठाणे ति आवरे ॥१॥ किइकम्मस्स य करणे वेयावच्चकरणे इ अ।
समोसरणं संनिसिज्जा य कहाए अ पबंधणे ॥२॥ सम्भोग बारह प्रकार कहा गया है, यथा--
१. उपधि-विषयक सम्भोग, २. श्रुत-विषयक सम्भोग, ३. भक्त-पान-विषयक सम्भोग, ४. अंजली-प्रग्रह सम्भोग, ५. दान-विषयक सम्भोग, ६.निकाचन-विषयक सम्भोग,७. अभ्युत्थान-विषयक सम्भोग, ८. कृतिकर्म-करण सम्भोग,९. वैयावृत्त्य-करण सम्भोग, १०.समवसरण-सम्भोग, ११. संनिषद्या सम्भोग और १२. कथा-प्रबन्धन सम्भोग ॥१-२॥
विवेचन–समान समाचारी वाले साधुओं के साथ खान-पान करने, वस्त्र-पात्रादि का आदानप्रदान करने और दीक्षा-पर्याय के अनुसार विनय, वैयावृत्त्य आदि करने को सम्भोग कहते हैं। वह उपधि आदि के भेद से बारह प्रकार का कहा गया है। साधु को अनुद्दिष्ट एवं निर्दोष वस्त्र-पात्र-तथा भक्तपानादि के ग्रहण करने का विधान है। यदि कोई साधु अशुद्ध या सदोष उपधि (वस्त्र-पात्रादि) को एक, दो या तीन बार तक ग्रहण करता है, तब तक तो वह प्रायश्चित्त लेकर साम्भोगिक बना रहता है। चौथी बार अशुद्ध वस्त्र-पात्रादि के ग्रहण करने पर वह प्रायश्चित्त लेने पर भी विसम्भोग के योग्य हो जाता है। अर्थात् अन्य साधु उसके साथ खान-पान बन्द कर देते हैं और उसे अपनी मंडली से पृथक् कर देते हैं। ऐसे साधु को विसम्भोगिक कहा जाता है।
(१) जब तक कोई साधु उपधि (वस्त्र-पात्रादि) विषयक मर्यादा का पालन करता है, तब तक