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द्वादशस्थानक - समवाय
७७ - बारस भिक्खुपडिमाओ पण्णत्ताओ, तं जहा - मासिआ भिक्खुपडिमा दो मासिआ, भिक्खुपडिमा, तिमासिआ भिक्खुपडिमा चउमासिआ भिक्खुपडिमा पंचमासिआ भिक्खुपडिमा छमासिआ भिक्खुपडिमा सत्तमासिआ भिक्खुपडिमा पढमा सत्तराइंदिया भिक्खुपडिमा दोच्चा सत्तराइंदिया भिक्खुपडिमा तच्चा सत्तराइंदिया भिक्खुपडिमा अहोराइया भिक्खुपडिमा, एगराइया भिक्खुपडिमा |
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[ समवायाङ्गसूत्र
बारह भिक्षु - प्रतिमाएं कही गई हैं, जैसे- एकमीसकी भिक्षु प्रतिमा, दो मासिकी भिक्षुप्रतिमा, तीन मासिकी भिक्षुप्रतिमा, चार मासिकी भिक्षुप्रतिमा, पांच मासिकी भिक्षुप्रतिमा, छह मासिकी भिक्षुप्रतिमा, सात मासिकी भिक्षुप्रतिमा, प्रथम सप्तरात्रंदिवा भिक्षुप्रतिमा, द्वितीय सप्तरात्रंदिवा प्रतिमा, तृतीय सप्तरात्रंदिवा प्रतिमा, अहोराात्रिक भिक्षुप्रतिमा और एकरात्रिक भिक्षुप्रतिमा ।
विवेचन - भिक्षावृत्ति से गोचरी ग्रहण करने वाले साधुओं को भिक्षु कहा जाता है । सामान्य भिक्षुजनों में जो विशिष्ट संहनन और श्रुतधर साधु होते हैं, वे संयम - विशेष की साधना करने के लिए जिन विशिष्ट अभिग्रहों को स्वीकार करते हैं, उन्हें भिक्षुप्रतिमा कहा जाता है । प्रस्तुत सूत्र में उनके बारह होने का उल्लेख किया गया है। संस्कृत टीकाकार ने उनके ऊपर कोई खास प्रकाश नहीं डाला है, अतः दशाश्रुतस्कन्ध की सातवीं दशा के अनुसार उनका संक्षेप में वर्णन किया जाता है
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एकमाासिकी भिक्षुप्रतिमा - इस प्रतिमा के धारी भिक्षु को काय से ममत्व छोड़कर एक मास तक आनेवाले सभी देव, मनुष्य और तिर्यंच - कृत उपसर्गों को सहना होता है। वह एक मास तक शुद्ध निर्दोष भोजन और पान की एक-एक दत्ति ग्रहण करता है। एक वार में अखंड धार से दिये गये भोजन या पानी को एकदत्ति कहते हैं । वह गर्भिणी, अल्पवयस्क बच्चे वाली, बच्चे को दूध पिलाने वाली, रोगिणी आदि स्त्रियों के हाथ से भक्त पान को ग्रहण नहीं करता। वह दिन के प्रथम भाग में ही गोचरी को निकलता है और पेडा- अर्धपेडा आदि गोचर-चर्या करके वापिस आ जाता है। वह कहीं भी एक या दो रात से अधिक नहीं रहता । विहार करते हुए जहां भी सूर्य अस्त हो जाता है, वहीं किसी वृक्ष के नीचे, या उद्यान - गृह में या दुर्ग में या पर्वत पर, सम या विषम भूमि पर, पर्वत की गुफा या उपत्यका आदि जो भी समीप उपलब्ध हो, वहीं ठहर कर रात्रि व्यतीत करता है। मार्ग में चलते हुए पैर में कांटा लग जाय या आंख में किरकिरी चली जाय, या शरीर में कोई अस्त्र-वाण आदि प्रवेश कर जाय, तो वह अपने हाथ से नहीं निकालता है। वह रात्रि में गहरी नींद नहीं सोता है, किन्तु बैठे-बैठे ही निद्रा प्रचला द्वारा अल्पकालिक झपाई लेते हुए और आत्म-चिन्तन करते हुए रात्रि व्यतीत करता है और प्रातःकाल होते ही आगे चल देता है। वह ठंडे या गर्म जल से अपने हाथ पैर मुख, दांत आंख आदि शरीर के अंगों को नहीं धोता है, विहार करते हुए यदि सामने से कोई शेर, चीता, व्याघ्र आदि हिंसक प्राणी, या हाथी, घोड़ा, भैंसा आदि कोई उन्मत्त प्राणी आ जाता है तो वह एक पैर भी पीछे नहीं हटता, किन्तु वहीं खड़ा रह जाता है। जब वे प्राणी निकल जाते हैं, तब आगे विहार करता है। वह जहां बैठा हो वहां यदि तेज धूप आ जाये तो उठकर शीतल छाया वाले स्थान में नहीं जाता। इसी प्रकार तेज ठंड वाले स्थान से उठकर गर्म स्थान पर नहीं जाता है ।