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[समवायाङ्गसूत्र १०. दशवी प्रतिमा का धारक अपने निमित्त से बने हुए भक्त-पान के उपयोग का त्याग करता है। आधाकर्मिक भोजन नहीं खाता और क्षुरा से शिर मुंडाता है।
११.ग्यारहवीं प्रतिमा का धारक उपासक घर का त्यागकर, श्रमण-साधु जैसा वेष धारण कर साधुओं के समीप रहता हुआ साधुधर्म पालने का अभ्यास करता है, ईर्यासमिति आदि का पालन करता है और गोचरी के लिए जाने पर "ग्यारहवीं श्रमणभूत प्रतिमा-धारक श्रमणोपासक के लिए भिक्षा दो" ऐसा कह कर भिक्षा की याचना करता है। यह कदाचित् शिर भी मुंडाता है और कदाचित् केशलोंच भी करता है।
संस्कृत टीकाकार ने मतान्तर का उल्लेख करते हुए आरम्भपरित्याग को नवमी, प्रेष्यारम्भपरित्याग को दशमी और उद्दिष्टभक्तत्यागी श्रमणभूत को ग्यारहवीं प्रतिमा का निर्देश किया है तथा पांचवी प्रतिमा में पर्व के दिन एकरात्रिक प्रतिमा-योग का धारण करना कहा है।
दिगम्बर शास्त्रों में सचित्तत्याग को पांचवीं और स्त्रीभोग त्याग कर ब्रह्मचर्य धारण करने को सातवीं प्रतिमा कहा गया है। तथा नवमी प्रतिमा का नाम परिग्रहत्याग और दशमी प्रतिमा का नाम अनुमतित्याग प्रतिमा कहा गया है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में प्रतिमाओं के धारण-पालन की परम्परा विच्छिन्न हो गई है। किन्तु दि. सम्प्रदाय में वह आज भी प्रचलित है। इन श्रावक प्रतिमाओं का काल एक, दो, तीन आदि मासों का है। अर्थात् पहली प्रतिमा का काल एक मास, दूसरी का दो मास, तीसरी का तीन मास, चौथी का चार यावत् ग्यारहवीं का ग्यारह मास का काल है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार इन का पालन आजीवन किया जाता है।
___७२–लोगंताओ इक्कारसएहिं एक्कारेहिं अबाहाए जोइसंते पण्णत्ते।जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स एक्कारसएहिं एक्कवीसेहिं जोयणसएहिं जोइसे चारं चरइ।
लोकान्त से ग्यारह सौ ग्यारह योजन के अन्तराल पर ज्योतिश्चक्र अवस्थित कहा गया है। जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत से ग्यारह सौ इक्कीस (११२१) योजन के अन्तराल पर ज्योतिश्चक्र संचार करता है।
७३-समणस्स णं भगवओ महावीरस्स एक्कारस्स गणहरा होत्था, तं जहा-इंदभूई अग्गिभूई वायुभूई विअत्ते सोहम्मे मंडिए मोरियपुत्ते अकंपिए अयलभाए मेअज्जे पभासे।
श्रमण भगवान् महावीर के ग्यारह गणधर थे-इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, व्यक्त, सुधर्म, मंडित, मौर्यपुत्र, अकम्पित, अचलभ्राता, मेतार्य और प्रभास।
७४-मूले नक्खत्ते एक्कारस तारे पण्णत्ते। हेट्ठिमगेविज्जयाणं देवाणं एक्कारसमुत्तरं गेविजविमाणसतं भवइत्ति मक्खायं।मंदरेणं पव्वए धरणितलाओ सिहरतले एक्कारस भागपरिहीणे उच्चत्तेणं पण्णत्ते।
मूल नक्षत्र ग्यारह तारावाला कहा गया है। अधस्तन ग्रैवेयक-देवों के विमान एक सौ ग्यारह (१११) कहे गये हैं। मन्दर पर्वत धरणी-तल से शिखर तल पर ऊंचाई की अपेक्षा ग्यारहवें भाग से हीन