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दशस्थानक-समवाय]
[२५ दशस्थानक-समवाय ६१. दसविहे समणधम्मे पण्णत्ते, तं जहा-खंती १, मुत्ती २, अज्जवे ३, मद्दवे ४, लाघवे ५, सच्चे ६, संजमे ७, तवे ८, चियाए ९, बंभचेरवासे १०।
श्रमणधर्म दस प्रकार का कहा गया है, जैसे-क्षान्ति १, मुक्ति २, आर्जव ३, मार्दव ४, लाघव ५, सत्य ६, संयम ७, तप ८, त्याग ९, ब्रह्मचर्यवास १० ।
विवेचन- जो आरम्भ-परिग्रह एवं घर-द्वार का परित्याग कर और संयम धारण कर उसका निर्दोष पालन करने के लिये निरन्तर श्रम करते रहते हैं, उन्हें "श्रमण" कहते हैं । उनको अपने विषयकषायों को जीतने के लिए क्षान्ति आदि दश धर्मों के परिपालन का उपदेश दिया गया है। कषायों में सबसे प्रधान कषाय क्रोध है। उसके जीतने के लिए क्षान्ति, सहनशीलता या क्षमा का धारण करना अत्यावश्यक है। द्वीपायन जैसे परम तपस्वियों के जीवन भर की संयम-साधना क्षण भर के क्रोध से समाप्त हो गई और वे अधोगति को प्राप्त हुए। दूसरी प्रबल कषाय लोभ है, उसके त्याग के लिए मुक्ति अर्थात् निर्लोभता धर्म का पालन करना आवश्यक है। इसी प्रकार माया कषाय को जीतने के लिए आर्जवधर्म का और मान कषाय को जीतने के लिए मार्दव धर्म को पालने का विधान किया गया है। मान कषाय को जीतने से लाघव धर्म स्वतः प्रकट हो जाता है। तथा माया कषाय को जीतने से सत्यधर्म भी प्रकट हो जाता है। पांचों इन्द्रियों के विषयों की प्रवृत्ति को रोकने के लिये संयम, तप, त्याग और ब्रह्मचर्यवास इन चार धर्मों के पालने का उपदेश दिया गया है। यहाँ त्याग धर्म से अभिप्राय अन्तरंग-बहिरंग सभी प्रकार के संग (परिग्रह) के त्याग से है । दान को भी त्याग कहते हैं । अत: संविग्न मनोज्ञ साधुओं को प्राप्त भिक्षा में से दान का विधान भी साधुओं का कर्तव्य माना गया है। ब्रह्मचर्य के धारक परम तपस्वियों के साथ निवास करने पर ही श्रमणधर्म का पूर्ण रूप से पालन सम्भव है, अत: सबसे अन्त में उसे स्थान दिया गया है।
६२-दस चित्तसमाहिट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा-धम्मचिंता वा से असमुप्पण्णपुव्वा समुप्पजिजा सव्वं धम्मं जाणित्तए १, सुमिणदंसणे वा से असमुप्पण्णे पुव्वे समुपज्जिज्जा अहातव्चं सुमिणं पासित्तए २, सण्णिणाणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पज्जिजा पुव्वभवे सुमरित्तए ३, देवदंसणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पजिजा दिव्वं देविद्धिं दिव्वं देवजुइं दिव्वं देवाणुभावं पासित्तए ४, ओहिनाणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पज्जिज्जा ओहिणा लोगं जाणित्तए ५, ओहिदंसणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पजिज्जा ओहिणा लोगं पासित्तए ६, मणपज्जवनाणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पजिज्जा जाव[अद्धतईअदीवसमुद्देसु सण्णीणं पंचिंदियाणं पज्जत्तगाणं] मणोगए भावे जाणित्तए ७, केवलनाणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पजिज्जा केवलं लोगंजाणित्तए ८, केवलदंसणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पंजिज्जा केवलं लोगं पासित्तए ९, केवलिमरणं वा मरिन्जा सव्वदुक्खप्पहीणाए १०।
__चित्त-समाधि के दश स्थान कहे गये हैं, जैसे-जो पूर्व काल में कभी उत्पन्न नहीं हुई, ऐसी सर्वज्ञ-भाषित श्रुत और चारित्ररूप धर्म को जानने की चिन्ता का उत्पन्न होना यह चित्त की समाधि या शान्ति के उत्पन्न होने का पहला स्थान है (१)।