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[ समवायाङ्गसूत्र
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५८ - दंसणावरणिज्जस्स णं कम्मस्स नव उत्तरपगडीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - निद्दा पयला निद्दानिद्दा पयलापयला थीणद्धी चक्खुदंसणावरणे अचक्खुदंसणावरणे ओहिंदंसणावरणे केवलदंसणावरणे ।
दर्शनावरणीय कर्म की नौ उत्तर प्रकृतियां कही गई हैं, जैसे- निद्रा, प्रचला, निद्वानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानर्द्धि, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण।
५९ – इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं नव पलिओ माई ठिई पण्णत्ता । चउत्थीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं नव सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं नव पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता ।
इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति नौ पल्योपम । चौथी पंकप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति नौ सागरापम है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति नौ पल्योपम है।
६० - सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं नव पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता । बंभलोए कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं नव सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता । जे देवा पम्हं सुपम्हं पम्हावत्तं पम्हप्पभं पम्हकंतं पम्हवण्णं पम्हलेसं पम्हज्झयं पम्हसिंगं पम्हसिद्धं पम्हकूडं पम्हुत्तरवडिंसगं, सुज्जं सुसुज्जं सुज्जावत्तं सुज्जपभं सुज्जकंतं सुज्जवण्णं सुज्जलेसं सुज्जज्झयं सुज्झसिंगं सुज्जसि सुज्जकूडं सुज्जुत्तरवडिंसगं, [ रुइल्लं ] रुइल्लावत्तं रुइल्लप्पभं रुइल्लकंतं रुइल्लवण्णं रुइल्ललेसं रुइल्लज्झयं रुइल्लसिंगं रुइल्लसिद्धं रुइल्लकूडं रुइल्लुत्तरवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसिं णं देवाणं नव सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता, ते णं देवा नवहं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा, ऊससंति वा नीससंति वा । तेसिं णं देवाणं नवहिं वाससहस्सेहिं आहारट्ठे समुप्पज्जइ ।
संगइया भवसिद्धिया जीवा जे नवहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ।
सौधर्म - ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति नौ पल्योपम है । ब्रह्मलोक कल्प में कितनेक देवों की स्थिति नौ सागराोपम है। वहां जो देव पक्ष्म, सुपक्ष्म, पक्ष्मावर्त्त, पक्ष्मप्रभ, पक्ष्मकान्त, पक्ष्मवर्ण, पक्ष्मलेश्य, पक्ष्मध्वज, पक्ष्मभृंग, पक्ष्मसृष्ट, पक्ष्मकूट, पक्ष्मोत्तरावतंसक तथा सूर्य, सुसूर्य, सूर्यावर्त्त, सूर्यप्रभ, सूर्यकान्त, सूर्यवर्ण, सूर्यलेश्य, सूर्यध्वज, सूर्यभृंग, सूर्यसृष्ट, सूर्यकूट सूर्योत्तरावतंसक, [रुचिर] रुचिरावर्त, रुचिरप्रभ, रुचिरकान्त रुचिरवर्ण, रुचिरलेश्य, रुचिरध्वज, रुचिरशृंग, रुचिरसृष्ट, रुचिरकूट और रुचिरोत्तरावतंसक नाम वाले विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की स्थिति नौ सागरोपम कही गई है। वे देव नौ अर्धमासों (साढ़े चार मासों) के बाद आन-प्राण, उच्छ्वास - नि:श्वास लेते हैं। उन देवों को नौ हजार वर्ष के बाद आहार की इच्छा होती है।
कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो नौ भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण प्राप्त करेंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे।
॥ नवस्थानक समवाय समाप्त ॥