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पंचस्थानक-समवाय]
[१३ प्राणियों को ताड़न-परितापन आदि पहुँचाने वाली क्रिया को पारितापनिकी क्रिया कहते हैं। जीवों के प्राण-घात करने वाली क्रिया को प्राणातिपातिकी क्रिया कहते हैं। सर्वप्रकार की हिंसा का त्याग करना पहला महाव्रत है। सर्वप्रकार के असत्य बोलने का त्याग करना दूसरा महाव्रत है। सर्वप्रकार के अदत्त का त्याग करना अर्थात् बिना दी हुई किसी भी वस्तु का ग्रहण नहीं करना तीसरा महाव्रत है। देव, मनुष्य और पशु सम्बन्धी सर्वप्रकार के मैथुन-सेवन का त्याग करना चौथा महाव्रत है। सभी प्रकार के परिग्रह (ममत्व) का त्याग करना पांचवां महाव्रत है।
२६-पंच कामगणा पन्नत्ता, तं जहा-सद्दा रूवा रसा गंधा फासा। पंच आसवदारा पन्नत्ता.तं जहा–मिच्छत्तं अविरर्ड पमाया कसाया जोगा। पंच संवरदारा पन्नत्ता,तं जहा-सम्मत्तं विरई अप्पमत्तया अकसाया अजोगया।पंच णिज्जरट्ठाणा पन्नत्ता,तं जहा-पाणाइवायाओ वेरमणं, मुसावायाओ वेरमणं, अदिन्नादाणाओवेरमणं,मेहुणाओ वेरमणं, परिग्गहाओ वेरमणं। पंच समिईओ पन्नत्ताओ, तं जहा-ईरियासमिई भासासमिई एसणासमिई आयाणभंडमत्त-निक्खेवणासमिई, उच्चार पासवण-खेल-सिंघाण-जल्लपारिट्ठावणियासमिई।
इन्द्रियों के विषयभूत कामगुण पांच कहे गये हैं, जैसे- श्रोत्रेन्द्रिय का विषय श०५, चक्षुरिन्द्रिय का विषय रूप, रसनेन्द्रिय का विषय रस, घ्राणेन्द्रिय का विषय गन्ध और स्पर्शनेन्द्रिय का विषय स्पर्श। कर्मबंध के कारणों को आस्रवद्वार कहते हैं। वे पांच हैं, जैसे-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। कर्मों का आस्रव रोकने के उपायों को संवरद्वार कहते हैं। वे भी पांच कहे गये हैं – सम्यक्त्व, विरति, अप्रमत्तता, अकषायता और अयोगता या योगों की प्रवृत्ति का निरोध। संचित कर्मों की निर्जरा के स्थान, कारण या उपाय पांच कहे गये हैं, जैसे- प्राणातिपात-विरमण, मृषावाद-विरमण, अदत्तादानविरमण, मैथुन-विरमण, परिग्रह-विरमण । संयम की साधक प्रवृत्ति या यतना पूर्वक की जाने वाली प्रवृत्ति को समिति कहते हैं । वे पांच कही गई हैं -- गमनागमन में सावधानी रखना ईर्यासमिति है। वचन -बोलने में सावधानी रखकर हित मित प्रिय वचन बोलना भाषासमिति है। गोचरी में सावधानी रखना और निर्दोष, अनुद्दिष्ट भिक्षा ग्रहण करना एषणासमिति है। संयम के साधक वस्त्र, पात्र, शास्त्र आदि के ग्रहण करने और रखने में सावधानी रखना आदानभांडमात्रनिक्षेपणासमिति है। उच्चार (मल). प्रस्रवण (मत्र). श् (कफ), सिंघाण (नासिकामल) और जल्ल (शरीर का मैल) परित्याग करने में सावधानी रखना पांचवीं प्रतिष्ठापनासमिति है।
२७-पंच अत्थिकाया पन्नत्ता, तं जहा-धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगासत्थिकाए जीवत्थिकाए पोग्गलत्थिकाए।
पांच अस्तिकाय द्रव्य कहे गये हैं, जैसे- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय।
विवेचन-बहुप्रदेशी द्रव्य को अस्तिकाय कहते हैं । स्वयं गमन करते हुए जीव और पुद्गलों के गमन करने में सहकारी द्रव्य को धर्मास्तिकाय कहते हैं। स्वयं ठहरनेवाले जीव और पुद्गलों के ठहरने में सहकारी द्रव्य को अधर्मास्तिकाय कहते हैं। सर्व द्रव्यों को अपने भीतर अवकाश प्रदान करने वाले द्रव्य