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[समवायानसूत्र देवाणं चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता।
इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति चार पल्योपम की कही गई है। तीसरी बालुकाप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति चार सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति चार पल्योपम की कही गई है। सौधर्म-ईशानकल्पों में कितनेक देवों की स्थिति चार पल्योपम की है।
२३–सणंकुमार-माहिंदेसु कप्पेसु अत्धेगइयाणं देवाणं चत्तारि सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता। जे देवा किढेि सुकिटिंठ किट्ठियावत्तं किट्टिप्पभं किडिगुत्तं किट्ठिवण्णं किहिलेसं किट्ठिज्झयं किट्ठिसिंगं किट्ठिसिटुं किट्ठिकूडं किठुत्तरवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसिं णं देवाणं उक्कोसेण चत्तारि सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता। ते णं देवा चडण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा, ऊससंति वा नीससंति वा। तेसिं देवाणं चउहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पज्जइ।
अत्थेगइया भवसिद्धिया जीवा जे चउहिं भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति।
सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति चार सागरोपम है। इन कल्पों के जो देव कृष्टि, सुकृष्टि, कृष्टि-आवर्त, कृष्टिप्रभ, कृष्टियुक्त, कृष्टिवर्ण, कृष्टिलेश्य, कृष्टिध्वज, कृष्टि श्रृंग, कृष्टिसृष्ट, कृष्टिकूट, और कृष्टि-उत्तरावतंसक नाम वाले विशिष्ट विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति चार सागरोपम कही गई है। वे देव चार अर्धमासों (दो मास) में आन-प्राण या उच्छ्वासनिःश्वास लेते हैं। उन देवों के चार हजार वर्ष में आहार की इच्छा उत्पन्न होती है।
कितनेक भव्य-सिद्धिक जीव ऐसे हैं जो चार भवग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे।
॥ चतुःस्थानक समवाय समाप्त।
पंचस्थानक-समवाय २५-पंच किरिया पन्नत्ता, तं जहा-काइया अहिगरणिया पाउसिया पारितावणिआ पाणाइवायकिरिया। पंच महव्वया पन्नत्ता, तं जहा-सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं, सव्वाओ अदिन्नादाणाओ वेरमणं, सव्वाओ मेहुणाओ रमणं, सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं।
क्रियाएं पांच कही गई हैं, जैसे- कायिकीक्रिया, आधिकरणिकीक्रिया, प्राद्वेषिकीक्रिया, पारितापनिकीक्रिया, प्राणातिपातक्रिया। पांच महाव्रत कहे गये हैं। जैसे-सर्व प्राणातिपात से विरमण, सर्व मृषावाद से विरमण, सर्व अदत्तादान से विरमण, सर्व मैथुन से विरमण, सर्व परिग्रह से विरमण।
विवेचन-मन वचन काय के व्यापार-विशेष को क्रिया कहते हैं। शरीर से होने वाली चेष्टा को कायिकी क्रिया कहते हैं। हिंसा के अधिकरण खङ्ग, भाला, बन्दूक आदि के निर्माण आदि करने की क्रिया को आधिकरणिकी क्रिया कहते हैं। प्रद्वेष या मत्सरभाव वाली क्रिया को प्राद्वेषिकी क्रिया कहते हैं।