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[ समवायाङ्गसूत्र
और चारित्र ये तीनों मोक्ष के मार्ग हैं, उनकी विराधना करने से विराधना के भी तीन भेद हो जाते हैं।
१६ - मिगसिरनक्खत्ते तितारे पन्नते । पुस्सनक्खत्ते तितारे पन्नत्ते । जेट्ठानक्खत्ते तितारे पन्नत्ते । अभीइनक्खत्ते तितारे पन्नत्ते । सवणनक्खत्ते तितारे पन्नत्ते । अस्सिणिनक्खत्ते तितारे पन्नत्ते । भरणीनक्खत्ते तितारे पन्नत्ते ।
मृगशिर नक्षत्र तीन तारावाला कहा गया है। पुष्य नक्षत्र तीन तारावाला कहा गया है। ज्येष्ठा नक्षत्र तीन तारावाला कहा गया है। अभिजित् नक्षत्र तीन तारावाला कहा गया है। श्रवण नक्षत्र तीन तारावाला कहा गया है। अश्विनी नक्षत्र तीन तारावाला कहा गया है। भरणी नक्षत्र तीन तारावाला कहा गया है।
१७ - इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं णेरइयाणं तिण्णि पलिओ माई ठिई पन्नत्ता । दोच्चाए णं पुढवीए णेरइयाणं उक्कोसेणं तिण्णि सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता । तच्चाए णं पुढवीए रइयाणं जहण्णेणं तिण्णि सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता ।
इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकियों की स्थिति तीन पल्योपम कही गई है। दूसरी शर्करा पृथिवी में नारकियों की उत्कृष्ट स्थिति तीन सागरोपम कही गई है। तीसरी वालुका पृथिवी में नारकियों की जघन्य स्थिति तीन सागरोपम कही गई है।
१८ - असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं तिण्णि पलिओवमाई ठिई पन्नता । असंखिज्जवासाउयसन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवामहं ठिई पन्नत्ता । असंखिज्जवासाउयसन्निगब्भवक्कंतियमणुस्साणं उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता ।
कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति तीन पल्योपम कही गई है। असंख्यात वर्षायुष्क संज्ञी· पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम कही गई है। असंख्यात वर्षायुष्क संज्ञी गर्भोपक्रान्तिक मनुष्यों की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम कही गई है।
१९ - सणकुमार- माहिंदेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं तिण्णि सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता । जे देवा आभंकरं पभंकरं आभंकर - पभंकरं चंदं चंदावत्तं चंदप्पभं चंदकंतं चंदवण्णं चंदलेसं चंदज्झयं चंदसिंगं चंदसिद्धं चंदकूडं चंदुत्तरवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसिं णं देवानं उक्कोसेणं तिणि सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता, ते णं देवा तिण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा, ऊससंति वा, नीससंति वा, तेसिं णं देवाणं तिहिं वाससहस्सेहिं आहारट्ठे समुप्पज्जइ ।
संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे तिहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति, बुज्झिस्संति, मुच्चिस्संति, परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ।
सनत्कुमार-माहेन्द्रकल्पों में कितनेक देवों की स्थिति तीन सागरोपम कही गई है। जो देव आभंकर, प्रभंकर, आभंकर - प्रभंकर, चन्द्र, चन्द्रावर्त, चन्द्रप्रभ, चन्द्रकान्त, चन्द्रवर्ण, चन्द्रलेश्य, चन्द्रध्वज, चन्द्रशृंग, चन्द्रसृष्ट, चन्द्रकूट और चन्द्रोत्तरावतंसक नाम वाले विशिष्ट विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति तीन सागरोपम कही गई है। वे देव तीन अर्धमासों में (डेढ़ मास में) आनप्राण अर्थात् उच्छ्वास-नि:श्वास लेते हैं । उन देवों को तीन हजार वर्ष में आहार की इच्छा उत्पन्न होती है।