________________
षट्स्थानक - समवाय ]
[ १७
मन से उत्पन्न होता है, अत: उसके छह भेद हो जाते हैं । किन्तु व्यञ्जनावग्रह चार प्रकार का ही होता है, क्योंकि वह चक्षुरिन्द्रिय और मन से नही होता, क्योंकि यह दोनों अप्राप्यकारी हैं, इनका ग्राह्य पदार्थ के साथ संयोग नहीं होता है । अर्थावग्रह के पश्चात् ही ईहा, अवाय आदि ज्ञान उत्पन्न होते हैं ।
३४ - कत्तियाणक्खत्ते छत्तारे पण्णत्ते । असिलेसानखत्ते छत्तारे पण्णत्ते ।
कृत्तिका नक्षत्र छह तारा वाला कहा गया है। आश्लेषा नक्षत्र छह तारा वाला कहा गया है।
३५ – इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं छ पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता । तच्चाए णं पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं छ सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता । असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं छ पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता । सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं छ पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता ।
इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति छह पल्योपम कही गई है। तीसरी बालुकाप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति छह सागरोपम कही गई है कितनेक असुरकुमारों की स्थिति छह पल्योपम कही गई है। सौधर्म - ईशान कल्पों में कितने देवों की स्थिति छह पल्योपम कही गई है।
३६ - सणकुमार - माहिंदेसु [ कप्पेसु ] अत्थेगइयाणं देवाणं छ सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता । जे. देवा सयंभुं सयंभुरमणं घोसं सुघोसं महाघोसं किट्ठिघोसं वीरं सुवीरं वीरगतं वीरसेणियं वीराक्तं वीरप्पभं वीरकंतं वीरवण्णं वीरलेसं वीरज्झयं वीरसिंगं वीरसिट्टं वीरकूडं वीरुत्तरवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसिं णं देवाणं उक्कोसेणं छ सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । ते णं देवा छहं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणसंति वा, ऊससंति वा नीससंति वा, तेसिं णं देवाणं छहिं वाससहस्सेहिं आहारट्ठे समुप्पज्जइ ।
संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे छहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ।
सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति छह सागरोपम कही गई है। उनमें जो देव स्वयम्भू, स्वम्भूरमण, घोष, सुघोष, महाघोष, कृष्टिघोष, वीर, सुवीर, वीरगत, वीर - श्रेणिक, वीरावर्त, वीरप्रभ, वीरकांत, वीरवर्ण, वीरलेश्य, वीरध्वज, वीरशृंग, वीरसृष्ट, वीरकूट और वीरोत्तरावतंसक नाम के विशिष्ट विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति छह सागरोपम कही गई है। वे देव छह अर्धमासों (तीन मासों) के बाद आन-प्राण या उच्छ्वास- नि:श्वास लेते हैं । उन देवों के छह हजार वर्षों के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है ।
कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो छह भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे।
॥ षट्स्थानक समवाय समाप्त ॥