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[ समवायाङ्गसूत्र
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हैं । अज्ञान, प्रमाद या कषायावेश में किये हुए, अपराधों के लिए पश्चात्ताप या यथायोग्य तपश्चर्या आदि करना प्रायश्चित्त तप है। अहंकार और अभिमान का त्याग कर विनम्र भाव रखना विनय तप है । गुरुजनों की भक्ति करना, रुग्ण होने पर सेवा टहल करना और उनके दुःखों को दूर करना वैयावृत्त्य तप है। शास्त्रों का वाँचना, पढ़ना, सुनना, उसका चिन्तन करना और धर्मोपदेश करना स्वाध्याय तप है। आर्त्त और रौद्र विचारों को छोड़कर धर्म-अध्यात्म में मन की एकाग्रता करने को ध्यान कहते हैं। बाहिरी शरीरादि के और भीतरी रागादि भावों के परित्याग को व्युत्सर्ग तप कहते हैं। बाह्य तप अन्तरंग तपों की वृद्धि के लिए किए जाते हैं और बाह्य तपों की अपेक्षा अन्तरंग तप असख्यात गुणी कर्म - निर्जरा के कारण होते हैं ।
३२–छ छाउमत्थिया समुग्धाया पण्णत्ता, तं जहा - वेयणासमुग्धाए कसायसमुग्घ मारणंतिअसमुग्घाए वेडव्वियसमुग्धाए तेयसमुग्धाए आहारसमुग्धाए ।
छह छाद्मस्थिक समुद्घात कहे गये हैं- जैसे वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात, वैक्रियसमुद्घात, तैजससमुद्घात और आहारकसमुद्घात ।
विवेचन – केवलज्ञान होने के पूर्व तक सब जीव छद्मस्थ कहलाते हैं । छद्मस्थों के समुद्घात को छाद्मस्थिक समुद्घात कहा गया है। किसी निमित्त से जीव के कुछ प्रदेशों के बाहिर निकलने को समुद्घात कहते हैं । समुद्घात के सात भेद आगम में बताये गये हैं । उनमें केवलि समुद्घात को छोड़कर शेष छह समुद्घात छद्मस्थ जीवों के होते | वेदना से पीड़ित होने पर जीव के कुछ प्रदेशों का बाहर निकलना वेदनासमुद्घात है । क्रोधादि कषाय की तीव्रता के समय कुछ जीव- प्रदेशों का बाहर निकलना समुद्घात है । मरण होने से पूर्व कुछ जीवप्रदेशों का बाहर निकलना मारणान्तिक- समुद्घात है । देवादि के द्वारा उत्तर शरीर के निर्माण के समय या अणिमा-महिमादि विक्रिया के समय जीव प्रदेशों का फैलना वैक्रियसमुद्घात है । तेजोलब्धि का प्रयोग करते हुए जीवप्रदेशों का बाहर निकालना तैजससमुद्घात है । चतुर्दश पूर्वधर महामुनि के मन में किसी गहन तत्त्व के विषय में शंका होने पर और उस क्षेत्र में केवली का अभाव होने पर केवली भगवान् के समीप जाने के लिए मस्तक से जो एक हाथ का पुतला निकलता है, उसे आहारक - समुद्घात कहते हैं। वह पुतला केवली के चरण-स्पर्श कर उन मुनि के शरीर में वापिस प्रविष्ट हो जाता है और उनकी शंका का समाधान हो जाता है।
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उक्त सभी समुद्घातों का उत्कृष्ट काल एक अन्तर्मुहूर्त ही है और उक्त समुद्घातों के समय बाहर निकले हुए प्रदेशों का मूल शरीर से बराबर सम्बन्ध बना रहता है ।
३३ – छव्विहे अत्थुग्गहे पण्णत्ते, तं जहा – सोइंदियअत्थुग्गहे चक्खुइंदियअत्थुग्ग घाणिंदियअत्थुग्गहे जिब्भिदियअत्थुग्गहे फासिंदियअत्थुग्गहे नोइंदियअत्थुग्गहे ।
अर्थावग्रह छह प्रकार का कहा गया है। जैसे श्रोत्रेन्द्रिय- अर्थावग्रह, चक्षुरिन्द्रिय-अर्थावग्रह, घ्राणेन्द्रिय-अर्थावग्रह, जिह्वेन्द्रिय- अर्थावग्रह, स्पर्शनेन्द्रिय- अर्थावग्रह और नोइन्द्रिय- अर्थावग्रह |
विवेचन – किसी पदार्थ को जानने के समय दर्शनोपयोग के पश्चात् जो अव्यक्त रूप सामान्य बोध होता है, वह व्यञ्जनावग्रह कहलाता है। उसके तत्काल बाद जो अर्थ का ग्रहण या वस्तु का सामान्य ज्ञान होता है, उसे अर्थावग्रह कहते हैं । यह अर्थावग्रह श्रोत्र आदि पांच इन्द्रियों से और नोइन्द्रिय अर्थात्