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समवायांग के छत्तीसवें समवाय का द्वितीय सूत्र –'चमरस्स णं असुरिंदस्स......' है तो भगवती४२१ में भी धमरेन्द्र की सुधर्मा सभा छत्तीस योजन ऊँची बतायी है।
समवायांग के बियालीसवें समवाय का नवमा सूत्र– 'एगमेगाए ओसप्पिणीए......' है तो भगवती४२२ में भी यही वर्णन है।
समवायांग के छियालीसवें समवाय का द्वितीय सूत्र-'बंभीए णं लिवीए.....' है तो भगवती४२३ में भी ब्राह्मी लिपि के छियालीस मात्रिकाक्षर कहे हैं!
समवायांग के एकावनवें समवाय का द्वितीय सूत्र-'चमरस्स णं असुरिंदस्स......' है तो भगवती४२४ में भी चमरेन्द्र की सुधर्मा सभा के एकावन सौ स्तम्भ कहे गये हैं।
___समवायांग के बावनवें समवाय का प्रथम सूत्र-''_'मोहणिजस्स कम्मस्स......' है तो भगवती४२५ में भी क्रोध, कोप, आदि मोहनीय कर्म के बावन नाम हैं।
समवायांग के छासठवें समवाय का छठा सूत्र-'आभिणिबोहिनाणस्स.......' है तो भगवती४२६ में भी आभिनिबोधिक ज्ञान की उत्कृष्ट स्थिति छासठ सागरोपम कही है।
समवायांग के अठहत्तरवें समवाय का प्रथम सूत्र –'सक्कस्स णं देविंदस्स.....' है तो भगवती४२७ में भी कहा हे कि शक्र देवेन्द्र के वैश्रमण, सेनानायक के रूप में आज्ञा का पालन करते हैं।
समवायांग के इकासीवें समवाय का तीसरा सूत्र –'विवाहपन्नीए एकासीति......' है तो भगवती४२८ में भी प्रस्तुत आगम के इक्यासी महायुग्म शतक कहे गये हैं।
इस तरह भगवती सूत्र में अनेक पाठों का समवायांग के साथ समन्वय है। कितने ही सूत्रों में नारक व देवों की स्थिति के सम्बन्ध में अपेक्षा दृष्टि से पुनरावृत्ति भी हुयी है अतः हमने जानकर उसकी तुलना नहीं की है। समवायांग और प्रश्नव्याकरण
समवायांग और प्रश्नव्याकरण ये दोनों ही अंग सूत्र हैं। समवायांग में ऐसे अनेक स्थल हैं जिन की तुलना प्रश्नव्याकरण के साथ की जा सकती है। प्रश्नव्याकरण का प्रतिपाद्य विषय पाँच आश्रव और पाँच संवर है। इसलिये विषय की दृष्टि से यह सीमित है।
समवायांग के द्वितीय समवाय का तृतीय सूत्र- 'दुविहे बंधणे......' है तो इसकी प्रतिध्वनि प्रश्नव्याकरण २९ में भी मुखरित हुयी है। ४२१. भगवती-श. ८ उ. २ ४२२. भगवती-श, ३ उ. ७ ४२३. भगवती-श. १ उ. १ ४२४. भगवती-श. १३ उ.६
भगवती-श. १२ उ.५ ४२६. भगवती-श. ७ उ. २ सू. ११० ४२७. भगवती-श. ३ उ. ७ ४२८. भगवती-उपसंहार . प्रश्नव्याकरण-५ संवरद्वार
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