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छिहत्तरहवें समवाय का दूसरा सूत्र एवं दीव - दिसा उदहीणं..... है तो प्रज्ञापना५९८ में भी द्वीपकुमार दिशाकुमार आदि के छिहत्तर लाख भवन बताये हैं ।
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अस्सीवें समवाय का छठा सूत्र 'ईसाणस्स देविंदस्स....... है तो प्रज्ञापना १९९ में भी ईशान देवेन्द्र के अस्सी हजार सामानिक देव बताये हैं ।
चौरासीवें समवाय का छठा सूत्र – 'सव्वेवि णं बाहिरया मंदरा ....... ' है तो प्रज्ञापना ६०० में भी ऐसा ही वर्णन है। चौरासीवें समवाय का बारहवाँ सूत्र – 'चोरासीइ पइन्नग........ ' है तो प्रज्ञापना ६०१ में भी ऐसा ही कथन है। छियानवेंवे समवाय का दूसरा सूत्र – 'वायुकुमाराणं छण्णउ ......' है तो प्रज्ञापना ६०२ में भी वायुकुमार के छियानवें लाख भवन बताये हैं।
निन्यानवेंवे समवाय का सातवां सूत्र - 'दक्खिआओ णं कट्ठाओ......' है तो प्रज्ञापना १०३ में भी रत्नप्रभा पृथ्वी के अंजनकाण्ड के नीचे के चरमान्त से व्यन्तरों के भौमेय विहारों के ऊपरी चरमान्त का अव्यवहित अन्तर निन्यानवे सौ योजन का है।
डेढ़ सौवें समवाय का द्वितीय सूत्र – आरणे कप्पे ...... है तो प्रज्ञापना०४ में भी आरण कल्प के डेढ़ सौ विमान बताये हैं ।
ढाईसौवें समवाय का द्वितीय सूत्र - 'असुरकुमाराणं....... ' है तो प्रज्ञापना ६०५ में भी असुरकुमारों के प्रासाद ढाई सौ योजन ऊंचे बताये हैं ।
चारसौवें समवाय का चतुर्थ सूत्र – 'आणयपाणएसु..... ' है तो प्रज्ञापना ६०६ में भी आनत और प्राणत इन दो कल्पों में चार सौ विमान बताये हैं।
आठसौवें समवाय का द्वितीय सूत्र – 'इमीसे णं रयणप्पहाए.......' है तो प्रज्ञापना ६०७ में भी रत्नप्रभा पृथ्वी के अति सम रमणीय भूभाग से आठ सौ योजन के ऊपर सूर्य गति करता कहा गया है।
छहहजारवें समवाय का प्रथम सूत्र – 'सहस्सारे णं कप्पे.......' है तो प्रज्ञापना १०८ में भी सहस्रार कल्प में छह हजार विमान बताये हैं।
आठलाखवें समवाय का प्रथम सूत्र – 'माहिंदे णं कप्पे .......' है तो प्रज्ञापना ६०९ में भी माहेन्द्र कल्प में आठ लाख विमान बताये हैं ।
५९८.
५९९.
६००.
६०१.
६०२.
६०३.
६०४.
६०५.
६०६.
६०७.
६०८.
६०९.
प्रज्ञापना- पद २, सूत्र ४६
प्रज्ञापना- पद २, सूत्र ५३
प्रज्ञापना- पद २, सूत्र ५२
प्रज्ञापना- पद २, सूत्र ४६
प्रज्ञापना- पद २, सूत्र ३७ प्रज्ञापना- पद २, सूत्र २८ प्रज्ञापना- पद २, सूत्र ५३
प्रज्ञापना- पद २, सूत्र २८ प्रज्ञापना- पद २, सूत्र ५३
प्रज्ञापना- पद २, सूत्र ४७
प्रज्ञापना- पद २, सूत्र ५३
प्रज्ञापना- पद २, सूत्र ५३
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