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श्रीसमवायाङ्गसूत्रम् १-सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं-[इह खलु समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणं सयंसंबुद्धेणं पुरिसुत्तमेणं पुरिससीहेणं पुरिसवरपुंडरीएणं पुरिसवरगंधहत्थिणा लोगुत्तमेणं लोगनाहेणं लोगहिएणं लोगपईवेणं लोगपज्जोअगरेणं अभयदएणं चक्खुदएणं मग्गदएणं सरणदएणं जीवदएणं बोहिदएणं धम्मदएणं धम्मदेसएणं धम्मनायगेणं धम्मसारिहिणा धम्मवरचाउरंत-चक्कवट्टिणा अप्पडिहय-वर-नाण-दसणधरेणं वियट्टछउमेणं जिणेणं जावएणं तिनेणं तारएणं बुद्धेणं बोहएणं मुत्तेणं मोयगेणं सव्वन्नुणा सव्वदरिसिणा सिवमयलमरुयमणंतमक्खयमव्वाबाहमपुणरावित्तिसिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपाविउकामेणं इमे दुवालसंगे गणिपिडगे पन्नत्ते।] तं जहा
आयारे १. सूयगडे २. ठाणे ३. समवाए ४. विवाहपन्नती ५. नायाधम्मकहाओ ६. उवासगदसाओ ७. अंतगडदसाओ ८. अणुत्तरोववाइयदसाओ ९. पण्हावागरणं १०. विवागसुयं ११. दिट्ठिवाए १२।
__ हे आयुष्मन् ! उन भगवान् ने ऐसा कहा है, मैंने सुना है। [इस अवसर्पिणी काल के चौथे आरे के अन्तिम. समय में विद्यमान उन श्रमण भगवान् महावीर ने द्वादशांग गणिपिटक कहा है। वे भगवान् - आचार आदि श्रुतधर्म के आदिकर हैं, (अपने समय में धर्म के आदि प्रणेता हैं)। तीर्थंकर हैं, (धर्मरूप तीर्थ के प्रवर्तक हैं) स्वयं सम्यक् बोधि को प्राप्त हुए हैं। पुरुषों में रूपातिशय आदि विशिष्ट गुणों के धारक होने से, एवं उत्तम वृत्ति वाले होने से पुरुषोत्तम हैं। सिंह के समान पराक्रमी होने से पुरुषसिंह हैं, पुरुषों में उत्तम सहस्र पत्र वाले श्वेत कमल के समान श्रेष्ठ होने से पुरुषवर-पुण्डरीक हैं। पुरुषों में श्रेष्ठ गन्धहस्ती जैसे हैं, जैसे गन्धहस्ती के मद की गन्ध से बड़े-बड़े हाथी भाग जाते हैं, उसी प्रकार आपके नाम की गन्धमात्र से बड़े-बड़े प्रवादी रूपी हाथी भाग खड़े होते हैं। वे लोकोत्तम हैं, क्योंकि ज्ञानातिशय आदि असाधारण गुणों से युक्त हैं और तीनों लोकों के स्वामियों द्वारा नमस्कृत हैं, इसलिए तीनों लोकों के नाथ हैं और अधिप अर्थात् स्वामी हैं क्योंकि जो प्राणियों के योग-क्षेम को करता है, वही नाथ और स्वामी कहा जाता है। लोक के हित करने से-उनका उद्धार करने से-लोकहितकर हैं। लोक में प्रकाश और उद्योत करने से लोक-प्रदीप और लोक-प्रद्योतकर हैं । जीवमात्र को अभयदान के दाता हैं, अर्थात् प्राणिमात्र पर अभया (दया और करुणा) के धारक हैं, चक्षु (नेत्र) का दाता जैसे महान् उपकारी होता है, उसी प्रकार भगवान् महावीर अज्ञान रूप अन्धकार में पड़े प्राणियों को सन्मार्ग के प्रकाशक होने से चक्षु-दाता हैं और सन्मार्ग पर लगाने से मार्गदाता हैं, बिना किसी भेदभाव के प्राणिमात्र के शरणदाता हैं, जन्म-मरण के चक्र से छुड़ाने के कारण अक्षय जीवन के दाता हैं, सम्यक् बोधि प्रदान करने वाले हैं, दुर्गतियों में गिरते हुए जीवों को बचाने के कारण धर्म-दाता हैं, सद्धर्म के उपदेशक हैं, धर्म के नायक हैं, धर्मरूप रथ के संचालन करने से धर्म के सारथी हैं। धर्मरूप चक्र के चतुर्दिशाओं में और चारों गतियों में प्रवर्तन करने से धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्ती हैं। प्रतिघात-रहित निरावरण श्रेष्ठ केवलज्ञान और केवलदर्शन के धारक हैं। छद्म अर्थात् आवरण और छल-प्रपंच से सर्वथा निवृत्त होने के कारण व्यावृत्तछद्म हैं -सर्वथा निर्दोष हैं। विषय