________________
द्विस्थानक - समवाय ]
[ ७
७ - वाणमंतराणं देवाणं उक्कोसेणं एगं पलिओवमं ठिई पन्नत्ता । जोइसियाणं देवाणं उक्कोसेणं एगं पलिओवमं वाससयसहस्समब्भहियं ठिई पन्नत्ता । सोहम्मे कप्पे देवाणं जहन्नेणं. एगं पलिओवमं ठिई पन्नत्ता | सोहम्मे कप्पे देवाणं अत्थेगइयाणं एगं सागरोवमं ठिई पन्नत्ता । ईसाणे कप्पे देवाणं जहन्नेणं साइरेगं एगं पलिओवमं ठिई पन्नत्ता । ईसाणे कप्पे देवाणं अत्थेगइयाणं एगं सागरोवमं ठिई पन्नत्ता ।
वानव्यन्तर देवों की उत्कृष्ट स्थिति एक पल्योपम कही गई है। ज्योतिष्क देवों की उत्कृष्ट स्थिति एक लाख वर्ष से अधिक एक पल्योपम कही गई है। सौधर्मकल्प में देवों की जघन्य स्थिति एक पल्योपम कही गई है। सौधर्मकल्प में कितनेक देवों की स्थिति एक सागरोपम कही गई है। ईशानकल्प में देवों की जघन्य स्थिति कुछ अधिक एक पल्योपम कही गई है। ईशानकल्प में कितनेक देवों की स्थिति एक सागरोपम कही गई है।
८ - जे देवा सागरं सुसागरं सागरकंत भवं मणुं माणुसोत्तरं लोगहियं विमाणं देवत्ताए उववन्ना, तेसिं णं देवाणं उक्कोसेणं एगं सागरोवमं ठिई पन्नत्ता । ते णं देवा एकस्स अद्धमासस्स आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा । तेसिं णं देवाणं एगस्स वाससहस्सस्स आहारट्ठे समुप्पज्जइ । संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे एगेणं भवग्गहणेणं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिरस्संति ।
जो देव सागर, सुसागर, सागरकान्त, भव, मनु, मानुषोत्तर और लोकहित नाम के विशिष्ट विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम कही गई है। वे देव एक अर्धमास में (पन्द्रह दिन में) आन-प्राण अथवा उच्छ्वास- नि:श्वास लेते हैं। उन देवों के एक हजार वर्ष में आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो एक मनुष्य भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्तर करेंगे।
॥ एकस्थानक समवाय समाप्त ॥
द्विस्थानक - समवाय
९ - दो दंडा पन्नत्ता, तं जहा - - अट्ठादंडे चेव, अणत्थादंडे चेव । दुवे रासी पण्णत्ता, तं जहा - - जीवरासी चेव, अजीवरासी चेव । दुविहे बंधणे, पन्नत्ते । तं जहा - रागबंधणे चेव, दोसबंधणे चेव ।
दो दण्ड कहे गये हैं, जैसे- अर्थदण्ड और अनर्थदण्ड । दो राशि कही गई हैं, जैसे- जीवराशि और अजीवराशि। दो प्रकार के बंधन कहे गये हैं, जैसे- रागबंधन और द्वेषबंधन ।
विवेचन – हिंसादि पापरूप प्रवृत्ति को दंड कहते हैं। जो दंड अपने और पर के उपकार के लिए प्रयोजन-वश किया जाता है, उसे अर्थदंड कहते हैं । किन्तु जो पापरूप दंड बिना किसी प्रयोजन के निरर्थक किया जाता है, उसे अनर्थदंड कहते हैं । कर्मों का बन्ध कराने वाले बन्धन रागरूप भी होते हैं और द्वेषरूप भी होते हैं । कषायों से कर्मबन्ध होता है। क्रोध और मान कषाय द्वेष रूप हैं और माया तथा