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से यह अभ्यर्थना की है कि मेरे सामने आगम के गुरुगंभीर रहस्यों को उद्घाटित करने वाली अर्थपरम्परा का अभाव है, अत: कहीं पर विपरीत अर्थप्ररूपणा हो गई हो तो विज्ञगण परिष्कृत करने का अनुग्रह ५९ करें।
वृत्ति में आचार्य ने समवाय शब्द की व्याख्या भी की है। व्याख्या करते हुए अनेक स्थलों पर पाठान्तरों के उल्लेख भी किये हैं।७६० प्रज्ञापना सूत्र तथा गन्धहस्ती के भाष्य का भी उल्लेख है। यह वृत्ति वि.सं. ११२० में अणहिल पाटण में लिखी गयी है। इस का ग्रन्थमान ३५७५ श्लोक-प्रमाण है।
इस आगम पर दूसरी संस्कृत टीका करने वाले पूज्य श्री घासीलालजी म. हैं।६१ उन्होंने आचार्य अभयदेव का अनुसरण करते हुए टीका का निर्माण किया है। यह टीका अपने ढंग की है। कहीं-कहीं पर टीकाकार ने अपनी दृष्टि से अर्थ की संगति के लिये पाठ में भी परिवर्तन कर दिया है। जैसे आगामी काल के उत्सर्पिणी में होने वाले तीर्थंकरों के नामों में परिवर्तन हुआ है। ६२ हमारी दृष्टि से, टीका या विवेचन में लेखक अपने स्वतन्त्र विचार दें, इस में किसी को आपत्ति नहीं हो सकती, किन्तु मूल पाठों में परिवर्तन करने से उनकी प्रामाणिकता लुप्त हो जाती है। अतः पाठों को परिवर्तित करना उचित नहीं।
समवायांगसूत्र पर सर्वप्रथम हिन्दी अनुवाद करने वाले आचार्य अमोलक ऋषि जी म. हुये हैं। उन्होंने बत्तीस आगमों का हिन्दी में अनुवाद कर महान् श्रुतसेवा की है। ६३
गुजराती भाषा में पण्डितप्रवर दलसुखभाई मालवणिया ६४ ने महत्त्वपूर्ण अनुवाद किया है। यह अनुवाद अनुवाद न होकर एक विशिष्ट रचना हो गई है। सर्वत्र मालवणियाजी का पाण्डित्य छलकता है। उन्होंने इस अनुवाद के साथ जो टिप्पण दिये हैं वे उनके गम्भीर अध्ययन के द्योतक हैं। अनुसन्धानकर्ताओं के लिये यह संस्करण अत्यन्त उपयोगी है।
पण्डितप्रवर मुनि श्री कन्हैयालालजी "कमल" ने हिन्दी अनुवाद के साथ समवायांग का प्रकाशन किया है। ग्रन्थ का परिशिष्ट विभाग महत्त्वपूर्ण है। यह संस्करण जिज्ञासुओं के लिए श्रेयस्कर है।०६५
आचार्य अभयदेव वृत्ति सहित सर्वप्रथम सन् १८८० में रायबहादुर धनपतसिंह जी ने एक संस्करण प्रकाशित किया और उसके पश्चात् सन् १९१९ में आगमोदय समिति सूरत से उसका अभिनव संस्करण प्रकाशित हुआ। उसके
१३८ में मफतलाल झवेरचन्द ने अहमदाबाद से वृत्ति सहित ही एक संस्करण मुद्रित किया। विक्रम संवत् १९९५ में जैनधर्म प्रचारक सभा भावनगर से गुजराती अनुवाद सहित संस्करण भी प्रकाशित हुआ है।
केवल मूलपाठ के रूप में "सुत्तागमे"७६६ अंगसुत्ताणि ६७, अंगपविट्ठाणि ६८ आदि अन्य अंग-आगमों के साथ यह आगम भी प्रकाशित है। ७५९. समवायांग वृत्ति १-२ ७६०. "जंबुद्दीवे दीवे एगं जोयणसयसहस्सं आयायविक्खंभेणं" के स्थान पर "जंबुद्दीवे देवे एगं जोयणसयसहस्सं
चक्कवालविक्खंभेणं" आदि पाठ मिलता है "नवरं जंबुद्दीवे इह सूत्रे" "आयायविक्खंभेणं" ति क्वचित् पाठो दृश्यते क्वचितु "चक्कवालविक्भेणं ति.....॥"
-समवायांग वृत्ति-अहमदाबाद संस्करण, पृ. ५ ७६१. जैनशास्त्रोद्वार समिति, राजकोट सन् १९६२ ७६२. श्रीकृष्ण के आगामी भव-एक अनुचिन्तन। लेखक-देवेन्द्रमुनि शास्त्री ७६३. लाला सुखदेवसहाय ज्वालाप्रसाद जी, हैदराबाद वी. सं. २४४६ ७६४. गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद सन् १९५५
आगम अनुयोग प्रकाशन, पोस्ट बॉक्स नं. ११४१, दिल्ली ७ ७६६. धर्मोपदेष्टा फूलचन्दजी म. सम्पादित, गुड़गांव-पंजाब ७६७. मुनि श्री नथमलजी सम्पादित, जैन विश्वभारती, लाडनूं ७६८. जैन संस्कृति रक्षक संघ-सैलाना (मध्यप्रदेश)
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