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परम्परा में आये हुए अनुवीचिभाषण के स्थान पर अमोह भावना का उल्लेख किया है। चारित्रप्राभृत की टीका ९९ में अमोह का अर्थ अनुवीचिभाषण कुशलता किया है। अनुवीचिभाषणता से तात्पर्य है कि वीचि वाग्लहरी तामनुकृत्य या भाषा वर्तते सानुवीचिभाषजिनसूत्रानुसारिणी भाषा अनुवीचिभाषा पूर्वाचार्यसूत्रपरिपाटीमनुल्लंघ्य भाषणीयमित्यर्थः। श्वेताम्बर परम्परा में अनुवीचिभाषण का अर्थ "अनुविचिंत्य भाषणम् अर्थात् चिन्तनपूर्वक बोलना" किया है। तत्त्वार्थराजवार्तिक२०० में दोनों ही अर्थों को ग्रहण किया है। अचौर्य महाव्रत की पाँच भावनाएँ इस प्रकार हैं-(१) अनुवीचिमितावग्रह याचन (२) अनुज्ञापित पान-भोजन (३) अवग्रह का अवधारण (४) अभीक्षणअवग्रहयाचन (५) साधर्मिक से अवग्रह याचन। प्रश्नव्याकरण में (१) विविक्त वासवसति (२) अभीक्ष्ण अवग्रह याचन (३) शय्या समिति (४) साधारण पिण्डमात्र लाभ (५) विनय प्रयोग। समवायांग सूत्र में ये नाम हैं-(१)अवग्रहानुज्ञापना (२) अवग्रह सीमापरिज्ञान (३) स्वयं ही अवग्रह अनुग्रहणता (४) साधर्मिक अवग्रह अनुज्ञापनता (५) साधारण भक्तपान अनुज्ञाप्य परिभुञ्जनता। आचार्य कुन्दकुन्द ने अर्चार्य महाव्रत की पाँच भावनाएँ इस प्रकार दी हैं-(१) शून्यागारनिवास (२) विमोचितावास (३) परउपरोध न करना (४) एषणाशुद्धि (५) साधर्मिक-अविसंवाद। अचौर्य महाव्रत की पांचों भावनाएँ दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में श्वेताम्बर आगम ग्रन्थों से भिन्न है। जिस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द ने भावनाओं का निरूपण किया है वैसी ही सर्वार्थसिद्धि में भी बतायी गयी हैं।
___ आचारांग में ब्रह्मचर्य महाव्रत की पांच भावनाएँ इस प्रकार हैं - (१) स्त्रीकथावर्जन (२) स्त्री के अंग-प्रत्यंग अवलोकन का वर्जन (३) पूर्वभुक्त भोगस्मृति का वर्जन (४) अतिमात्र और प्रणीत पान-भोजन का परिवर्जन (५) स्त्री आदि से संसक्त शयनासन का वजन। प्रश्नव्याकरण में (१) असंसक्त वास वसति, (२) स्त्रीजन कथा-वर्जन (३) स्त्री के अंग प्रत्यंगों और चेष्टाओं के अवलोकन का वर्जन (४) पूर्व भुक्त और पूर्व क्रीडित का अस्मरण (५) प्रणीत आहार का विवर्जन। आचार्य कुन्दकुन्द२०१ ने ब्रह्मचर्य महाव्रत की पांच भावनायें ये बताई हैं-(१) महिला अवलोकन विरति (२) पूर्वभुक्त का स्मरण न करना (३) संसस्क्त वसति विरति (४)स्त्री रागकथा-विरति, (५) पौष्टिक रसविरति। आचार्य उमास्वाति२०२ ने और सर्वार्थसिद्धि में ब्रह्मचर्य की भावनाएं इस प्रकार हैं(१)स्त्रीरागकथावर्जन (२) मनोहर अंग निरीक्षण विरति (३) पूर्वरतानुस्मरणपरित्याग (४) वृष्येष्टरस-परित्याग (५) स्वशरीरसंस्कारपरित्याग।
अपरिग्रह महाव्रत की भावनाएं आचारांग में इस प्रकार हैं-(१) मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्द में समभाव (२) मनोज्ञ और अमनोज्ञ रूप में समभाव। (२) मनोज्ञ और अमनोज्ञ गन्ध में समभाव। (४) मनोज्ञ और अनमोज्ञ रस में समभाव। (५) मनोज्ञ और अमनोज्ञ स्पर्श में समभाव और यही नाम प्रश्नव्याकरण में ज्यों के त्यों मिलते हैं। समवायांग में इस प्रकार है-(१) श्रोत्रेन्द्रिय रागोपरति (२) चक्षुरिन्द्रियरागोपरति (३) घ्राणेन्द्रियरागोपरति (४) रसनेन्द्रियरागोपरति
और (५) स्पर्शेन्द्रियरागोपरति। आचार्य कुन्दकुन्द ने अपरिग्रह महाव्रत की भावनाओं में आचारांग और प्रश्नव्याकरण का ही अनुसरण किया है। इस प्रकार पंच महाव्रतों की भावना के सम्बन्ध में विभिन्न स्थलों पर नामभेद व क्रमभेद प्राप्त होता है; तथापि आगम और आगमेतर साहित्य का हार्द एक ही है। यहां पर प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के पांच महाव्रतों को लक्ष्य में रखकर पच्चीस भावनाएँ निरूपित की गयी हैं। दूसरे तीर्थंकर से लेकर तेईसवें तीर्थंकर १९९. चारित्रप्राभृत २२ की टीका २००. तत्त्वार्थराजवार्तिक ७/५ २०१. चारित्रप्राभृत-गाथा ३४ २०२. तत्त्वार्थसूत्र-७/७
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