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उनतीसवें समवाय में पापश्रुत प्रसंग, आषाढ़ मास आदि के उनतीस रात दिन, सम्यग्दृष्टि तीर्थंकर नाम सहित उनतीस नामकर्म को प्रकृतियों को बाँधता है। नारकों देवों की उनतीस पल्योपम व सागरोपम की स्थिति आदि का वर्णन है।
प्रस्तुत समवाय में सर्वप्रथम पापश्रुत प्रसंगों का वर्णन किया है। स्थानांग२१४ में नव पापश्रुत प्रसंग बताये हैं तो समवायांगसूत्र में उनतीस प्रकार बताये हैं। मिथ्या शास्त्र की आराधना भी पाप का निमित्त बन सकती है इसलिये यहां पापश्रुत के प्रसंग बताये हैं। पर संयमी साधक, जो सम्यग्दृष्टि है, उसके लिये पापश्रुत भी सम्यक्श्रुत बन जाता है। आचार्य देववाचक ने कहा है कि "सम्मदिट्ठस्स सम्मसुयं, मिच्छादिट्ठिस्स मिच्छासुयं" सम्यग्दृष्टि असाधारण संयोगों में या अमुक अपेक्षा की दृष्टि से विवेकपूर्वक इनका अध्ययन करता है, तो ये पापश्रुत प्रसंग नहीं है। जैन इतिहास में ऐसे अनेकों प्रभावक आचार्य हुए हैं, जिन्होंने इन विद्याओं के द्वारा धर्म की प्रभावना भी की है। इस तरह उनतीसवें समवाय में सामग्री का संकलन है।
तीसवें समवाय से चौंतीसवां समवाय : एक विश्लेषण
तीसवें समवाय में मोहनीय कर्म बाँधने के तीस स्थान, मण्डितपुत्र स्थविर की तीस वर्ष श्रमण पर्याय, अहोरात्र के तीस मुहूर्त, अठारहवें अर नामक तीर्थंकर की तीस धनुष की ऊँचाई, सहस्रार देवेन्द्र के तीस हजार सामानिक देव, भगवान् पार्श्व व प्रभु महावीर का तीस वर्ष तक गृहवास में रहना, रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नारकवास, नारकों व देवों की तीस पल्योपम व सागरोपम की स्थिति का वर्णन है।
मोहनीय कर्म के तीस निमित्त जो समवायांग में प्रतिपादित किये गये हैं, उनका दशाश्रुतस्कन्त२१५ में विस्तार से निरूपण है। आवश्यकसूत्र२१६ में भी संक्षेप में सूचन किया गया है। टीकाकारों ने यह बताया है कि मोहनीय शब्द से सामान्य रूप से आठों कर्म समझने चाहिये और विशेष रूप से मोहनीय कर्म! इस समवाय में 'अर' पार्श्व और महावीर के सम्बन्ध में भी ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण सामग्री का संकलन हुआ है।
इकतीसवें समवाय में सिद्धत्त्व पर्याय प्राप्त करने के प्रथम समय में होने वाले इकतीस गुण, मन्दर पर्वत, अभिवर्द्धित मास, सूर्यमास, रात्रि और दिन की परिगणना और नारकों व देवों की इकतीस पल्योपम व सागरोपम की स्थिति का वर्णन है।
बत्तीसवें समवाय में बत्तीस योगसंग्रह, बत्तीस देवेन्द्र, कुन्थु अर्हत् के बत्तीस सौ बत्तीस केवली, सौधर्म कल्प में बत्तीस लाख विमान, रेवती नक्षत्र के बत्तीस तारे, बत्तीस प्रकार की नाट्य-विधि तथा नारकों व देवों की बत्तीस सागरोपम व पल्योपम की स्थिति का वर्णन है।
मन, वचन और काया का व्यापार योग कहलाता है। यहाँ पर बत्तीस योगसंग्रह में मन, वचन और काया के प्रशस्त व्यापार को लिया गया है। आवश्यक बृहद्वृत्ति में इस विषय पर चिन्तन किया गया है।
तेतीसवें समवाय में तेतीस आशातनाएँ, असुरेन्द्र की राजधानी में तेतीस मंजिल के विशिष्ट भवन तथा नारकों व देवों की तेतीस सागरोपम व पल्योपम की स्थिति का वर्णन है।
यहाँ पर यह भी स्मरण रखना होगा कि जिन देवों की जितने सागरोपम की स्थिति बतलायी गयी है, वे २१४. स्थानांगसूत्र स्था. ९, सू. ६.७८ २१५. दशाश्रुतस्कन्ध-अ.८ २१६. आवश्यकसूत्र-अ. ४
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