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तक के शासन में चार याम थे। उत्तराध्ययन२०३, भगवती२०४ आदि इस बात के साक्ष्य हैं। प्रस्तुत समवाय में वैताढ्य पर्वत को पच्चीस योजन ऊँचा कहा है, पर असावधानी से पच्चीस धनुष छपा है, जो सही नहीं है। इस प्रकार पच्चीसवें समवाय में सामग्री का संकलन है। छब्बीसवें से उनतीसवाँ समवाय : एक विश्लेषण
छब्बीसवें समवाय में दशाश्रुतस्कन्ध, कल्पसूत्र और व्यवहारसूत्र के छब्बीस उद्देशन काल कहे हैं। अभव्य जीवों के मोहनीय कर्म की छब्बीस प्रकृतियों, नारकों व देवों के छब्बीस पल्योपम और सागरोपम की स्थिति का वर्णन
सत्ताईसवें समवाय में श्रमण के सत्ताईस गुण, नक्षत्र मास के सत्ताईस दिन, वेदक सम्यक्त्व के बन्ध रहित जीव के मोहनीय कर्म की सत्ताईस प्रकृतियाँ, श्रावण सुदी सप्तमी के दिन सत्ताईस अंगुल की पौरुषी छाया और नारकों व देवों की सत्ताईस पल्योपम एवं सागरोपम की स्थिति का वर्णन है।
अट्ठाईसवें समवाय में आचारप्रकल्प के अट्ठाईस प्रकार बताये हैं। भवसिद्धिक जीवों में मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियाँ कही गयी हैं। आभिनिबोधिक ज्ञान के अट्ठाईस प्रकार हैं। ईशान कल्प में अट्ठाईस लाख विमान हैं। देव गति बाँधने वाला नामकर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों को बाँधता है, तो नारकी जीव भी अट्ठाईस प्रकृतियों को बांधता है। अन्तर शुभ व अशुभ का है। नारकों व देवों की अट्ठाईस पल्योपम और सागरोपम की स्थिति का वर्णन
यहाँ पर सर्वप्रथम आचारप्रकल्प के अट्ठाईस प्रकार बताये हें। आचार्य संघदास गणि२०५ ने निशीथ के आचार, अग्र, प्रकल्प, चूलिका, ये पर्यायवाची नाम माने हैं। उक्त शास्त्र का सम्बन्ध चरणकरणानुयोग से है। अतः इसका नाम "आचार" है। आचारांगसूत्र के पांच अग्र हैं -चार आचारचूलाएँ और निशीथ। इसलिये निशीथ का नाम अग्र है ।२०६ निशीथ की नववें पूर्व आचारप्राभूत से रचना की गयी है, इसलिये इसका नाम प्रकल्प है। प्रकल्प का द्वितीय अर्थ "छेदन" करने वाला भी है।२०७ आगम साहित्य में निशीथ का "आयारकल्प" नाम मिलता है। अग्र और चूला ये दोनों समान अर्थ वाले शब्द हैं। आभिनिबोधिक ज्ञान के अट्ठाईस प्रकार बताये गये हैं। नन्दीसूत्र२०८ में तथा तत्त्वार्थसूत्र,२०६ तत्त्वार्थभाष्य२१० तत्त्वार्थ-राजवार्तिक२११, विशेषावश्यकभाष्य२१२ आदि में भी ज्ञान की विस्तार से चर्चा की गयी है।२१३ यहाँ पर केवल सूचन मात्र किया गया है। इस तरह अट्ठाईसवें समवाय में सामग्री का संकलन हुआ
२०३. उत्तराध्ययनसूत्र-अ. २२ २०४. भगवतीसूत्र २०५. निशीथभाष्य-३ २०६. निशीथभाष्य-५७ २०७. निशीथचूर्णि, पृ.३० २०८.
नन्दीसूत्र-सू. ५९-श्री पुण्यविजय जी म. द्वारा सम्पादित २०९. तत्त्वार्थसूत्र-१/१३,१४ २१०. तत्त्वार्थभाष्य-१/१३,१४ २११. तत्त्वार्थराजवार्तिक-१/१४/१/५९ आदि २१२. विशेषावश्यक भाष्य-वृत्ति १०० २१३. जैनदर्शन स्वरूप और विश्लेषण, श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री
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