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अध्ययन","भगवान् अरिष्टनेमि" "कर्मयोगी श्री कृष्ण : एक अनुशीलन" और "भगवान् महावीर : एक अनुशीलन" ग्रन्थों२२१ का अवलोकन करें। मैंने तीर्थंकरों के सम्बन्ध में अनेक तथ्य इन ग्रन्थों में दिये हैं। इसी तरह भगवान् महा के गणधरों के सम्बन्ध में भी "महावीर अनुशीलन" ग्रन्थ में चिन्तन किया है।
लिपि-विचार
४६वें समवाय में ब्राह्मीलिपि के उपयोग में आने वाले अक्षरों की संख्या ४६ बतायी है। आचार्य अभयदेव ने प्रस्तुत आगम की वृत्ति में यह स्पष्ट किया है कि ४६ अक्षर "अकार" से लेकर क्ष सहित हकार तक होने चाहिये। उन्होंने ऋऋ ल ल नहीं गिने हैं। शेष अक्षर लिये हैं। अठारहवें समवाय में लिपियों के सम्बन्ध में ब्राह्मी लिपि के नाम बताये हैं। आचार्य अभयदेव ने इन लिपियों के सम्बन्ध में यह स्पष्ट लिखा है कि उन्हें इन लिपियों के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार का विवरण प्राप्त नहीं हुआ है इसलिये वे उस का विवरण नहीं दे सके हैं। आधुनिक अन्वेषण के पश्चात् इस सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि अशोक के शिलालेखों में जो लिपि प्रयुक्त हुई है, वह ब्राह्मीलिपि है। यवनों की लिपि यावनीलिपि है, जो आज अरबी और फारसी आदि के रूप में विश्रुत है। खरोष्टी लिपि गन्धार देश में प्रचलित थी। यह लिपि दाहिनी ओर से प्रारम्भ होकर बाईं ओर लिखी जाती थी। उत्तर-पश्चिम सीमान्त प्रदेश में अशोक के जो दो शिलालेख प्राप्त हुये हैं, उनमें प्रस्तुत लिपि का प्रयोग हुआ है। खर और ओष्ट इन दो शब्दों से खरोष्ट बना है। खर गधे को कहते हैं। सम्भव है कि प्रस्तुत लिपि का मोड़ गधे के होठ की तरह हो। इसलिये इस का नाम खरोष्टी, खरोष्टिका अथवा खरोष्ट्रिका पड़ा हो। पाँचवी लिपि का नाम "खरश्राविता" है। खर के स्वर की तरह जिस लिपि का उच्चारण कर्णकटु हो, जिस के कारण संभवतः उस का नाम "खरश्राविता" पड़ा हो। छट्टी लिपि का नाम "पकारादिका" है। जिस का प्राकृत रूप "पहराइआ" हो सकता है। संभव है कि पकार बहुल होने के कारण या पकार से प्रारम्भ होने के कारण इस का नाम "पकारादिका" पड़ा हो। ग्यारहवीं लिपि का नाम "निह्नविका" है। निह्नव शब्द का प्रयोग जैन परम्परा में "छिपाने" के अर्थ में बहुत विश्रुत रहा है। जो लिपि गुप्त हो, या सांकेतिक हो, वह निहविका हो सकती है। वर्तमान में संकेत लिपि का प्रचलन अतिशीघ्र लिपि के रूप में है। प्राचीन युग में इसी तरह कोई सांकेतिक लिपि रही होगी, जो निह्नविका के नाम से विश्रुत हो। बारहवीं लिपि का नाम अंकलिपि है। अंकों से निर्मित लिपि अंकलिपि होनी चाहिये। आचार्य कुमुदेन्दु ने "भू-वलय" ग्रन्थ का उटॅकन इसी लिपि में किया है। यह ग्रन्थ यलप्पा शास्त्री के पास था, जो विश्वेश्वरम् के रहने वाले थे। वह मैंने देहली में सन् १९५४ में देखा था। उस में विविध-विषयों का संकलन-आकलन हुआ है, और अनेक भाषाओं का प्रयोग था! यलप्पा शास्त्री के कहने के अनुसार उस में एक करोड़ श्लोक हैं और उसे भारत के राष्ट्रपति राजेन्द्र बाबू ने "विश्व का महान् आश्चर्य" कहा है। तेरहवीं लिपि "गणितलिपि" है। गणितशास्त्र सम्बन्धी संकेतों के आधार पर आधुत होने से लिपि "गणितलिपि" के रूप में विश्रुत रही हो। चौदहवीं लिपि का नाम "गान्धर्व" लिपि है। यह लिपि गन्धर्व जाति की एक विशिष्ट लिपि थी। पन्द्रहवीं लिपि का नाम "भूतलिपि" है। भूतान देश में प्रचलित होने के कारण से यह भूतलिपि कहलाती हो। भूतान को ही वर्तमान में भूटान कहते हैं। अथवा भोट या भोटिया, तथा भूत जाति में प्रचलित लिपि रही हो। संभव है कि पैशाचीभाषा की लिपि भूतलिपि कहलाती हो। भूत और पिशाच, ये दोनों शब्द एकार्थक से रहे हैं। इसलिये पैशाचीलिपि को भूतलिपि कहा गया हो। जो लिपि बहुत ही सुन्दर व आकर्षक रही होगी, वह सोलहवीं लिपि "आदर्श लिपि" के रूप में उस समय प्रसिद्ध रही होगी। यह लिपि कहाँ पर प्रचलित थी, यह अभी तक लिपिविशेषज्ञ निर्णय नहीं कर सके हैं। सत्तरहवीं लिपि का नाम "माहेश्वरी" लिपि है। माहेश्वरी वैश्यवर्ण में एक जाति है। संभव है कि इस जाति की विशिष्ट लिपि प्राचीनकाल में प्रचलित रही हो, २२१. लेखक-श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री, श्री तारकगुरु जैनग्रन्थालय, शास्त्री सर्कल, उदयपुर (राजस्थान)
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