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प्रस्तुत समवायांग में कुलकरों का उल्लेख हुआ है । स्थानांगसूत्र में अतीत उत्सर्पिणी के दश कुलकरों के नाम आये हैं तो समवायांग में सात नाम हैं और नामों में भेद भी है। कुलकर उस युग के व्यवस्थापक हैं, जब मानव पारिवारिक, सामाजिक, राजशासन और आर्थिक बन्धनों से पूर्णतया मुक्त था। न उसे खाने की चिन्ता थी, न पहनने की ही । वृक्षों से ही उन्हें मनोवाञ्छित वस्तुएँ उपलब्ध हो जाती थीं। वे स्वतन्त्र जीवन जीने वाले थे। स्वभाव की दृष्टि से अत्यन्त अल्पकषायी। उस युग में जंगलों में हाथी, घोड़े, गाय, बैल, पशु थे पर उन पशुओं का वे उपयोग नहीं करते थे । आर्थिक दृष्टि से न कोई श्रेष्ठी था, न कोई अनुचर ही। आज की भाँति रोगों का त्रास नहीं था। जीवन भर वे वासनाओं से मुक्त रहते थे। जीवन की सान्ध्यवेला में वे भाई-बहिन मिटकर पति-पत्नी के रूप में हो जाते थे और एक पुरुष और स्त्री युगल के रूप में सन्तान की जन्म देते थे । उनका वे ४९ दिन तक पालन-पोषण करते और मरण-शरण हो जाते थे। उनकी मृत्यु भी उबासी और छींक आते ही बिना कष्ट के हो जाती। इस तरह यौगलिक काल का जीवन था। तीसरे आरे के अन्त तक तृतीय विभाग में यौगलिक - मर्यादाएँ धीरे-धीरे विनष्ट होने लगती हैं। तृष्णाएँ बढ़ती हैं और कल्प वृक्षों की शक्ति क्षीण होने लगती है। उस समय व्यवस्था करने वाले कुछ विशिष्ट व्यक्ति पैदा होते हैं। उन्हें कुलकर की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। प्रथम कुलकर तृतीय आरा के १/८ पल्य जितना भाग अवशिष्ट रहने पर होते हैं। कुलकरों की संख्या के सम्बन्ध में विभिन्न ग्रन्थों में मतभेद रहे हैं । २२७ अन्तिम कुलकर नाभि के पुत्र "ऋषभ" हुये जो प्रथम तीर्थंकर भी थे। उनके पुत्र भरत चक्रवर्ती हुए । तीर्थंकर ऋषभ ने धर्मचक्र का प्रवर्तन किया तो भरत चक्रवर्ती ने राज्य-चक्र का । चतुर्थ आरे में तेवीस तीर्थंकर, ग्यारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव, नौ वासुदेव और प्रतिवासुदेव आदि महापुरुष उत्पन्न होते हैं ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि समवायांग में जिज्ञासु साधकों के लिए और अनुसंधित्सुओं के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्यों का संकलन है। वस्तु-विज्ञान, जैन सिद्धान्त एवं जैन- इतिहास की दृष्टि से यह आगम अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। इसमें शताधिक विषय हैं। आधुनिक चिन्तक समवायांग में आये हुए गणधर गौतम की ९२ वर्ष की अणु और गणधर सुधर्मा की १०० वर्ष की आयु पढ़कर यह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि समवायांग की रचना भगवान् महावीर के मोक्ष जाने के पश्चात् हुई है। हम उनके तर्क के समाधान में यह नम्र निवेदन करना चाहेंगे कि गणधरों की उम्र आदि विषयों का देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण ने इसमें संकलन किया है। स्थानाङ्ग की प्रस्तावना में मैंने इस प्रश्न पर विस्तार से चिन्तन भी किया है। यह पूर्ण ऐतिहासिक सत्य है कि यह आगम गणधरकृत है।
मुख्य रूप से यह आगम गद्य रूप में है पर कहीं-कहीं बीच-बीच में नामावली व अन्य विवरण सम्बन्धी गाथाएँ भी आई हैं। भाष्य की दृष्टि से भी यह आगम महत्त्वपूर्ण है। कहीं-कहीं पर अलंकारों का प्रयोग हुआ है 1 संख्याओं के सहारे भगवान् पार्श्व और उनके पूर्ववर्ती चौदहपूर्वी, अवधिज्ञानी, और विशिष्ट ज्ञानी मुनियों का भी उल्लेख है, जो इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।
तुलनात्मक अध्ययन
समवायांगसूत्र में विभिन्न विषयों का जितना अधिक संकलन हुआ है, उतना विषयों की दृष्टि से संकलन अन्य आगमों में कम हुआ है। भगवती सूत्र विषय बहुल है तो आकार की दृष्टि से भी विराट् है । समवायांग सूत्र आकार की दृष्टि से बहुत ही छोटा है। जैसे विष्णु मुनि ने तीन पैर से विराट विश्व को नाप लिया था, वैसे ही समवायांग की स्थिति है। यदि हम समवायांग सूत्र में आये हुये विषयों की तुलना अन्य आगम साहित्य से करें तो सहज ही यह ज्ञात होगा कि व्यवहार सूत्र में यथार्थ ही कहा गया है कि स्थानांग और समवायांग का ज्ञाता ही आचार्य और
२२७. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वितीय वक्षस्कार में पन्द्रह कुलकर, दिगम्बर ग्रन्थ "सिद्धान्त-संग्रह " में चौदह कुलकर कहे गए हैं। [ ५४ ]