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और उसे माहेश्वरी लिपि कहा जाता हो। अठारहवीं लिपि ब्राह्मीलिपि है। यह लिपि द्राविड़ों की रही होगी। नाम से स्पष्ट है कि पुलिंदलिपि का सम्बन्ध आदिवासी से रहा हो। मगर अभी तक यह सब अनुमान ही है। इनका सही स्वरूप निश्चित करने के लिए अधिक अन्वेषण अपेक्षित है। बौद्ध ग्रन्थ "ललितविस्तरा" में चौंसठ लिपियों के नाम आये हैं। उन नामों के साथ समवायांग में आये हुए लिपियों के वर्णन की तुलना की जा सकती है।
सौवे समवाय के बाद क्रमश: १५०-२००-२५०-३००-३५०-४००-४५०-५०० यावत् १००० से २००० से १०००० से एक लाख, उस से ८ लाख और करोड़ की संख्या वाले विभिन्न विषयों का इन समवायों में संकलन किया गया है।
यहाँ पर हम कुछ प्रमुख विषयों के सम्बन्ध में ही चिन्तन प्रस्तुत कर रहे हैं। भगवान् महावीर के तीर्थंकर भव से पूर्व छठे पोट्टिल के भव का वर्णन है। आवश्यक नियुक्ति २२२ में प्रभु महावीर के सत्ताईस भवों का सुविस्तृत वर्णन है। वहाँ पर नन्दन के जीव ने पोट्टिल के पास दीक्षा ग्रहण की और नन्दन के पहले के भवों में पोट्टिल का उल्लेख नहीं है और न यह उल्लेख आवश्यकचूर्णि, आवश्यक हरिभद्रीया वृत्ति, आवश्यक मलयगिरि वृत्ति और महावीरचरियं आदि में कहीं आया है। आचार्य अभयदेव ने प्रस्तुत आगम की वृत्ति में यह स्पष्ट किया है कि पोट्टिल नामक राजकुमार का एक भव, वहाँ से देव हुए, द्वितीय भव। वहाँ से च्युत होकर क्षत्रानगरी में नन्दन नामक राजपुत्र हुए, यह तृतीय भव। वहाँ से देवलोक गये, यह चतुर्थ भव। वहाँ से देवानन्दा के गर्भ में आये, यह पाँचवाँ भव और वहाँ से त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में लाये गये, यह छठा भव! इस प्रकार परिगणना करने से पोट्टिल का छठा भव घटित हो सकता है।
समवायांगसूत्र में आये तीर्थंकरों की माताओं के नामों से दिगम्बर परम्परा में उन के नाम कुछ पृथक् रूप से लिखे हैं, वे इस प्रकार हैं - मरुदेवी, विजयसेना, सुसेना, सिद्धार्था, मंगला, सुसीमा, पृथ्वीसेना, लक्ष्मणा, जयरामा, (रामा) सुनन्दा, नन्दा (विष्णु श्री) जायावती (पाटला) जयश्यामा (शर्मा) शर्मा (रेवती) सुप्रभा (सुव्रता) ऐरा, श्रीकान्ता (श्रीमती) मित्रसेना, प्रजावती (रक्षिता) सोमा (पद्मावती) वपिल्ला (वप्रा) शिवादेवी, वामादेवी, प्रियकारिणी त्रिशला२२३ । आवश्यक नियुक्ति२२४ में भी उन के नाम प्राप्त हैं।
आगामी उत्सर्पिणी के तीर्थंकरों के नाम जो समवायांग में आये हैं, वही नाम प्रवचनसार में ज्यों के त्यों मिलते हैं। किन्तु लोकप्रकाश२२५ में जो नाम आये हैं, वे क्रम की दृष्टि से पृथक् हैं। जिनप्रभसूरि कृत 'प्राकृत दिवाली कल्प' में उल्लिखित नामों और उनके क्रम में अन्तर है। दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में आगामी चौबीसी के नाम इस प्रकार प्राप्त होते हैं- .
(१) श्री महापद्म (२) सुरदेव (३) सुपार्श्व (४) स्वयंप्रभु (५) सर्वात्मभू (६) श्रीदेव (७) कुलपुत्रदेव (८) उदंकदेव (९) प्रोष्ठिलदेव, (१०) जयकीर्ति (११) मुनिसुव्रत (१२) अरह (१३) निष्पाप (१४) निष्कषाय (१५) विपुल (१६) निर्मल (१७) चित्रगुप्त (१८) समाधियुक्त (१९) स्वयंभू (२०) अनिवृत्त (२१) जयनाथ (२२) श्रीविमल (२३) देवपाल (२४) अनन्तवीर्य
दिगम्बर ग्रन्थों में अतीत चौबीसी के नाम भी मिलते हैं।२२६ २२२. आवश्यक नियुक्ति-गाथा ४४८ २२३. उत्तरपुराण व हरिवंश पुराण देखिये _ आवश्यक नियुक्ति-गाथा ३५८, ३८६
लोकप्रकाश सर्ग-३८, श्लोक २९६ २२६. जैन सिद्धान्त संग्रह, पृ. १९
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