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उतने ही पक्षों में उच्छ्वास और निःश्वास लेते हैं। और उतने ही हजार वर्ष के बाद उन्हें आहार ग्रहण करने की इच्छा होती है। प्रस्तुत समवाय में लघुश्रमणों का ज्येष्ठश्रमणों के साथ किस प्रकार का विनयपूर्वक व्यवहार रहना चाहिये, आशातना आदि से निरन्तर बचना चाहिये। जिस क्रिया के करने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र का ह्रास होता है वह आशातना-अवज्ञा है। तेतीस आशातनाओं का निरूपण दशाश्रुतस्कन्ध२१८ में विस्तार से आया है।
चौतीसवें समवाय में तीर्थंकरों के चौतीस अतिशय, चक्रवर्ती के चौतीस विजयक्षेत्र, जम्बूद्वीप में चौतीस दीर्घ वैताढ्य, जम्बूद्वीप में उत्कृष्ट चौंतीस तीर्थंकर उत्पन्न हो सकते हैं तथा असुरेन्द्र के चौतीस लाख तथा पहली, पाँचवी, छठी और सातवीं नरक में चौंतीस लाख नारकावास कहे हैं। प्रस्तुत समवाय में अतिशयों का उल्लेख है। अतिशयों के सम्बन्ध में आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र२१९ और अभिधान चिन्तामणि२२० आदि ग्रन्थों में चिन्तन किया है। वह चिन्तन बृहद् वाचना के आधार पर है। यहाँ पर चौतीस अतिशयों में से दूसरे अतिशय से पाँचवें अतिशय तक जन्मप्रत्ययिक हैं। इक्कीस से लेकर चौतीस अतिशय व बारहवाँ अतिशय कर्म के क्षय से होता है। शेष अतिशय देवकृत
दिगम्बर परम्परा भी चौतीस अतिशय मानती हैं। पर उन अतिशयों में कुछ भिन्नता है। वे दश जन्म प्रत्यय, चौदह देवकृत और दश केवलज्ञान कृत मानते हैं।
यहाँ स्मरण रखना चाहिये कि समवायांग के टीकाकार आचार्य अभयदेव के मत से आहार निहार, ये आँख से अदृश्य होते हैं। ये जन्मकृत अतिशय हैं। जब कि दिगम्बर मतानुसार आहार का अभाव, यह अतिशय माना गया है और वह जन्मकृत नहीं केवलज्ञानकृत है। श्वेताम्बर दृष्टि से भगवान् अर्धमागधी में उपदेश प्रदान करते हैं और वह उपदेश सभी जीवों की भाषा के रूप में परिणत होता है। ये दो अतिशय कर्मक्षयकृत माने गये हैं।
आचार्य अभयदेव और आचार्य हेमचन्द्र के अतिशयवर्णन में विभाजन पद्धति में कुछ अन्तर है। पर भाषा के सम्बन्ध में अभयदेव व हेमचन्द्र दोनों का एक ही मत है। आचार्य हेमचन्द्र की दृष्टि से उन्नीस अतिशय देवकृत हैं जब कि अभयदेव की दृष्टि से पन्द्रह अतिशय देवकृत हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है कि भगवान् का चारों ओर मुँह दिखायी देता है। वह देवकृत अतिशय है तो दिगम्बर दृष्टि से केवलज्ञान कृत है। तीन कोट की रचना को भी देवकृत अतिशय माना गया है। पर समवायांग में चौतीस अतिशयों में उसका उल्लेख नहीं है। चौतीस अतिशयों का जो विभाजन आचार्यों ने किया है, उस के सम्बन्ध में सबल-तर्क का अभाव है कि अमुक अतिशय अमुक विभाग में क्यों दिया गया है? समवायांगसूत्र के मूल में किसी भी प्रकार का विभाजन नहीं किया गया है, यह भी स्मरण रखना चाहिये। समवायांग की भांति अंगुत्तरनिकाय (५।१२१) में तथागत बुद्ध के पांच अतिशय बताये हैं - वे अर्थज्ञ होते हैं, धर्मज्ञ होते हैं, मर्यादा के ज्ञाता होते हैं, कालज्ञ होते हैं और परिषद् को जानने वाले होते हैं।
पैंतीसवें समवाय से सौवां समवाय : एक विश्लेषण
पैंतीसवें समवाय में पैंतीस सत्य वचन के अतिशय, कुन्थु, अर्हत्, दत्त वासुदेव, नन्दन बलदेव, ये पैंतीस धनुष
आवश्यक बृहद् वृत्ति-अ ४, गा ७३ से ७७ २१८. दशाश्रुतस्कन्ध-३ दशा
(ख) तत्र आयः सम्यग्दर्शनाद्यवाप्तिलक्षणस्तस्य शातना खण्डना निरुक्ता आशातना। २१९. योगशास्त्र पृ. १३० २२०. (क) अभिधानचिन्तामणि ५६-६३ । (ख) स्थानाङ्ग समवायांग-पं. दलसुख मालवणिया
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