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पच्चीसवां समवाय : एक विश्लेषण
पच्चीसवें समवाय में प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के पंचयाम यानी पांच महाव्रतों की पच्चीस भावनाएँ कहीं गई हैं। मल्ली भगवती पच्चीस धनुष ऊंची थी। वैताढ्य पर्वत पच्चीस योजन ऊँचा है और पच्चीस कोस भूमि में गहरा है। दूसरे नरक के पच्चीस लाख नारकावास हैं। आचारांग सूत्र के पच्चीस अध्ययन हैं। अपर्याप्तक मिथ्यादृष्टि विकलेन्द्रिय नामकर्म की पच्चीस उत्तर प्रकृतियाँ बांधते हैं। लोकबिन्दुसार पूर्व के पच्चीस अर्थाधिकार हैं। नारकों और देवों की पच्चीस पल्योपम व सागरोपम की स्थिति है। यहाँ पर सर्वप्रथम पाँच महाव्रतों की पच्चीस भावनाएँ बतायी हैं।
भावना साधना के लिए आवश्यक है। उसमें अपार बल और असीमित शक्ति होती है। भावना के बल से असाध्य भी साध्य हो जाता है। जिन चेष्टाओं और संकल्पों से मानसिक विचारों को भावित या वासित किया जाये, वह भावना है।८५ आचार्य पतंजलि ने भावना और जप में अभेद माना है।८६ भगवान् महावीर ने स्पष्ट कहा है१८७ कि जिसकी भावना शुद्ध है, वह जल में नौका के सदृश है। वह तट को प्राप्त कर सब दुःखों से मुक्त हो जाता है। भावना के अनेक प्रकार हो सकते हैं - ज्ञान, दर्शन और चारित्र, भक्ति प्रभृति! जितनी भी श्रेष्ठ चेष्टाओं से आत्मा को भावित किया जाये वे सभी भावनाएँ हैं। तथापि भावना के अनेक वर्गीकरण मिलते हैं। पांच महाव्रतों की पच्चीस भावनाएँ हैं ।२८८ जो महाव्रतों की स्थिरता के लिए हैं ।२८९ प्रत्येक महाव्रत की पांच-पांच भावनाएँ हैं। आगम साहित्य आचारांग तथा प्रश्नव्याकरण में भावनाओं के जो नाम आये हैं, वे नाम समवायांग में कुछ पृथक्ता लिये हुये हैं। आचारांग'९० में (१) ई-समिति (२) मनपरिज्ञा (३) वचनपरिज्ञा (४) आदाननिक्षेपणसमिति (५) अलोकित पानभोजन, ये अहिंसा महाव्रत की पांच भावनाएँ हैं। प्रश्नव्याकरण१११ में अहिंसा महाव्रत की (१) ईर्यासमिति (२) अपापमन (३) अपापवचन (४) एषणासमिति (५) आदान निक्षेपण समिति। जब कि प्रस्तुत समवाय में अहिंसा महाव्रत की पाँच भावनाएँ इस प्रकार आयी हैं - (१) ईर्यासमिति (२) मनोगुप्ति (३) वचनगुप्ति (४) आलोक भाजन भोजन, (५) आदान-भाण्डमात्र-निक्षेपणसमिति। आचार्य कुन्दकुन्द१९२ ने अहिंसा महाव्रत की भावनाएँ इसी प्रकार बतायी हैं। तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में भी (१) ईर्यासमिति (२) मनोगुप्ति (३) एषणासमिति (४) आदाननिक्षेपणसमिति (५) आलोकित पानभोजनसमिति। तत्त्वार्थ राजवार्तिक ९३ और सर्वार्थसिद्धि में१९४ एषणासमिति के स्थान पर वाक् गुप्ति बतायी है। इसी तरह सत्यमहाव्रत की पांच भावनाएँ आचारांग१९५ में इस प्रकार हैं – (१) अनुवीचिभाषण (२) क्रोधप्रत्याख्यान (३) लोभप्रत्याख्यान (४) भयप्रत्याख्यान (५) हास्यप्रत्याख्यान। प्रश्नव्याकरण में ये ही नाम मिलते हैं। समवायांग में (१) अनुवीचिभाषण (२) क्रोधविवेक (३) लोभविवेक (४) भयविवेक और (५) हास्यविवेक है। आचारांग१९६ और प्रश्नव्याकरण१९७ में क्रोध आदि का प्रत्याख्यान बताया है। जबकि समवायांग में विवेक शब्द का उल्लेख है। विवेक से तात्पर्य क्रोध आदि के परिहार से ही है। आचार्य कुन्दकुन्द१९८ ने सत्य महाव्रत की पांच भावनाएँ इस प्रकार बतायी हैं (१) अक्रोध (२) अभय (३) अहास्य (४) अलोभ (५) अमोह। उन्होंने श्वेताम्बर १८५. पासनाहचरियं पृष्ठ ४६०
१८६. तज्जपस्तदर्थभावनम्-पातंजलयोगसूत्रम् १/२८ १८७. सूत्रकृतांग १/१५/५
१८८. उत्तराध्ययन, अ. ३१ गा. १७ १८९. तत्त्वार्थसूत्र ७/३
१९०. आचारांग सूत्र २/३/१५/४०२ १९१. प्रश्नव्याकरणसंवरद्वार
१९२. पटप्राभृत में चारित्रप्राभृत गा. ३१ तत्त्वार्थराजवार्तिक ७/४-५, ५३७
१९४. सर्वार्थसिद्धि-७/४ पृ. ३४५ १९५. आचारांग १/३/१५/४०२ १९६.
वही १९७. प्रश्नव्याकरण संवरद्वार १९८. चारित्रप्राभृत ३२
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१९३.
तत्वा