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अठारहवें समवाय में ब्रह्मचर्य के अठारह प्रकार, अर्हन्त अरिष्टनेमि के अठारह हजार श्रमण तथा सक्षुद्रक व्यक्त श्रमणों के अठारह स्थान, आचारांग सूत्र के अठारह हजार पद ब्राह्मीलिपि के अठारह प्रकार, अस्तिनास्तिप्रवाद पूर्व के अठारह अधिकार, पौष व आषाढ़ मास में अठारह मुहूर्त के रात और दिन, नारकों व देवों की अठारह पल्योपम व सागरोपम की स्थिति का वर्णन और अठारह भव कर मोक्ष में जाने वाले जीवों का वर्णन है।
प्रस्तुत समवाय में ब्रह्मचर्य आदि का जो निरूपण है, उसके सम्बन्ध में हम - पृष्ठों में चिन्तन कर चुके हैं। इसमें औदारिक आदि शरीरों की अपेक्षा से उसके विभिन्न प्रकार बताये हैं। भगवान् अरिष्टनेमि के अठारह हजार श्रमणों का उल्लेख ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।७४ कर्मयोगी श्रीकृष्ण को इतिहासकारों ने ऐतिहासिक पुरुष माना है। इसलिए उस युग में हुए भगवान् अरष्टिनेमि को भी ऐतिहासिक पुरुष मानने में कोई बाधा नहीं है। ब्राह्मीलिपि के लिए ज्ञातासूत्र की प्रस्तावना देखिए ।२७५ इस प्रकार अठारहवें समवाय में सामग्री का संकलन हुआ है। उन्नीसवां और बीसवां समवाय : एक विश्लेषण
उन्नीसवें समवाय में बतलाया है- ज्ञातासूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के उन्नीस अध्ययन, जम्बूद्वीप का सूर्य उन्नीस सौ योजन के क्षेत्र को संतप्त करता है। शक्र. उन्नीस नक्षत्रों के साथ अस्त होता है। उन्नीस तीर्थंकर 3 दीक्षित हुए। नारकों व देवों की उन्नीस पल्योपम व सागरोपम की स्थिति। स्थानांग सूत्र१७६ में वासुपूज्य, मल्ली, अरिष्टनेमि पार्श्व और महावीर ने कुमारावस्था में दीक्षा ग्रहण की। आचार्य अभयदेव ने कुमारवास का अर्थ किया हैजिन्होंने राज्य नहीं किया। प्रस्तुत सूत्र में भी "अगारवासमझे वसित्ता" का अर्थ चिरकाल तक राज्य करने के पश्चात् दीक्षा ग्रहण की, ऐसा किया है। दिगम्बर परम्परा की दृष्टि से कुमारवास का अर्थ "कुँवारा'' है। और वे पाँचों को बालब्रह्मचारी मानते हैं। शेष उन्नीस तीर्थंकरों का राज्याभिषेक हुआ उन में से तीन तीर्थंकर तो चक्रवर्ती भी हुए। नियुक्तिकार'७७ ने यह भी सूचन किया है कि पांच तीर्थंकरों ने प्रथम वय में प्रव्रज्या ग्रहण की थी और उन्नीस तीर्थंकरों ने मध्यम वय में। कल्पसूत्र १७८ आदि श्वेताम्बर ग्रन्थों के अनुसार भगवान् महावीर ने विवाह किया था। इसलिए आवश्यकनियुक्तिकार द्वितीय भद्रबाहु भगवान् महावीर को विवाहित मानते हैं। इस तरह उन्नीसवें समवाय में वर्णन है।
बीसवें समवाय में बीस असमाधिस्थान, मुनिसुव्रत अर्हत् की बीस धनुष ऊंचाई, घनोदधि वातवलय बीस हजार योजन मोटे, प्राणत देवेन्द्र के बीस हजार सामानिक देव, प्रत्याख्यान पूर्व के बीस अर्थाधिकार एवं बीस कोटाकोटि सागरोपम का कालचक्र कहा है। किन्हीं नारकों व देवों की स्थिति बीस पल्योपम व सागरोपम की बताई है। जिन कार्यों को करने से स्वयं के या दूसरों को चित्त में संक्लेश उत्पन्न होता है, वे असमाधि स्थान हैं। समाधि के सम्बन्ध में हम पहले प्रकाश डाल चुके हैं। इक्कीसवां व बावीसवां समवाय : एक विश्लेषण
इक्कीसवें समवाय में इक्कीस शबल दोष, सात प्रकृतियों के क्षपक नियट्टि-वादर गुण. में मोहनीय कर्म की
१७४. १७५. १७६. १७७. १७८.
भगवान् अरिष्टनेमि और कर्मयोगी श्रीकृष्ण-एक अनुशीलन ज्ञातासूत्र की प्रस्तावना, पृष्ठ-२२ से २४ तक स्थानांग सूत्र, सूत्र ४७१ आवश्यकनियुक्ति-गाथा २४३, २४८, ४४५, ४५८ कल्पसूत्र
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