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चन्द्र के साथ पन्द्रह मुहूर्त तक छह नक्षत्रों का रहना, चैत्र और आश्विन माह में पन्द्रह-पन्द्रह मुहूर्त के दिन व रात्रि होना, विद्यानुवाद पूर्व के पन्द्रह अर्थाधिकार, मानव के पन्द्रह प्रकार के प्रयोग तथा नारकों व देवों की पन्द्रह पल्योपम व सागरोपम की स्थिति का वर्णन है।
सोलहवें समवाय में सूत्रकृतांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के सोलह अध्ययन कहे हैं। अनन्तानुबन्धी आदि सोलह कषाय हैं। मेरुपर्वत के सोलह नाम, भगवान् पार्श्व के सोलह हजार श्रमण, आत्मप्रवाद पूर्व के सोलह अधिकार, चमरचंचा और बलीचंचा राजधानी का सोलह हजार योजन का आयाम विष्कम्भ, नारकों व देवों की सोलह पल्योपम तथा सोलह सागरोपम की स्थिति और सोलह भव कर मोक्ष जानेवाले जीवों का वर्णन है।
प्रस्तुत समवाय में द्वितीय अंग सूत्रकृतांग के अध्ययनों की जानकारी दी गई है। सूत्रकृतांग का दार्शनिक आगम की दृष्टि से गौरवपूर्ण स्थान है। जिसमें परमत का खण्डन और स्वमत का मण्डन किया गया है। सूत्रकृतांग की तुलना बौद्धपरम्परा के अभिधम्मपिटक से की जा सकती है, जिसमें बुद्ध ने अपने युग में प्रचलित बासठ मतों का खण्डन कर स्वमत की संस्थापना की है। प्रस्तुत समवाय में ऐतिहासिक दृष्टि से भगवान् पार्श्व के सोलह हजार श्रमणों का उल्लेख हुआ है। इस तरह प्रस्तुत समवाय का अलग-थलग महत्त्व है। सत्तरहवां व अठारहवां समवाय : एक विश्लेषण
सत्तरहवें समवाय में सत्तरह प्रकार का संयम और असंयम, मानुषोत्तर पर्वत की ऊंचाई आदि, सत्तरह प्रकार के मरण, दशवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में सत्तरह कर्मप्रकृतियों का बन्ध तथा नारकों और देवों को ससरह पल्योपम व सागरोपम की स्थिति का वर्णन कर सत्तरह भव करके मोक्ष में जाने वाले जीवों का वर्णन है।।
सर्वप्रथम संयम और असंयम की चर्चा है। आगम-साहित्य में अनेक स्थलों पर संयम और असंयम की चर्चा हुई है। स्थानांगसूत्र१७० में विभिन्न स्थानों पर संयम असंयम के भेद प्रतिपादित किये हैं। वस्तुतः यतनापूर्वक प्रवृत्ति करना, अयतनापूर्वक कोई भी प्रवृत्ति नहीं करना अथवा प्रवृत्तिमात्र से निवृत्त होना तथा अपनी इन्द्रियों एवं मन पर नियंत्रण करना संयम कहलाता है। संयम के चार प्रकार-मन, वचन, काय और उपकरण संयम। संयम के पाँच, सात, आठ, दश प्रकार भी हैं। उसी तरह असंयम के भी प्रकार हैं। संयम के प्रकारान्तर से सराग संयम और वीतराग संयम, ये दो भेद भी हैं। उन सभी प्रकार के संयमों का विभिन्न दृष्टियों से निरूपण हुआ है। संयम साधना का प्राण है। संयम ऐसा सुरीला संगीत है जिसकी सुरीली स्वर-लहरियों से साधक का जीवन परमानन्द को प्राप्त करता है। प्रस्तुत समवाय में मरण के सत्तरह भेद बताये हैं। जो जीव जन्म लेता है, वह अवश्य ही मुत्य को वरण करता है। जो फल खिला है वह अवश्य मुरझाता है। यह एक ज्वलंत सत्य है कि मृत्यु अवश्यंभावी है। सभी महान् दार्शनिकों ने मृत्यु के सम्बंध में चिन्तन किया है। स्थानांग१७१ में-मरण के बालमरण, पण्डितमरण और बालपण्डित मरण ये तीन भेद किये हैं और तीनों के भी तीन-तीन अवान्तर भेद किये हैं। भगवती१७२ में आवीचिमरण, अवधिमरण, आत्यन्तिकमरण, बालमरण, पण्डितमरण ये पाँच प्रकार बताये हैं। उत्तराध्ययन१७३ सूत्र में अकाम और सकाम मरण का वर्णन है। यहाँ पर मरण के सत्तरह प्रकार बताये हैं। जिसमें सभी प्रकार के मरणों का समावेश हो गया है। इस तरह सत्तरहवें समवाय में विविध विषयों का निरूपण हुआ है। १७०. स्थानांग सूत्र-४२९, ३६८, ५२१; ६१४, ७१५, ४३० : ७२, ३१०, ४२८, ५१७, ६४७, ७०९ आदि १७१. स्थानांगसूत्र-सूत्र २२२ १७२. भगवतीसूत्र-शतक-१३, उद्दे. ७, सू. ४९६ १७३. उत्तराध्ययन सूत्र अ-५
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