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वइक्कतो? जत्ता भे, जवणिज्जं च भे?" के पाठ से दो बार की जाती है। "इच्छामि खमासमणो" से "मे मिउग्गहं" तक के पाठ का अर्थ है-मैं पाप से मुक्त होकर आपको वन्दन करना चाहता हूं। अतः आप परिमित-अवग्रह यानी स्थान दीजिए। यह पाठ अवग्रह की याचना की क्रिया का सूचक है। प्रस्तुत पाठ में "अणुजाणह" इस पद तक एक बार अपने शरीर को अर्ध अवनत करना होता है। यह एक अवनत है और पूर्ववत् पुनः वन्दन किया जाये तब दूसरा अवनत होता है। इस प्रकार कृतिकर्म में दो नमस्कार होते हैं। दीक्षा ग्रहण करते समय या जन्म ग्रहण करते समय बालक की ऐसी मुद्रा होती है-वह दोनों हाथ सिर पर रखे हुआ होता है। उसे यथाजात कहते हैं। वन्दन करते समय भी यथाजात मुद्रा होनी चाहिये। अवग्रह में प्रवेश करने की अनुज्ञा प्राप्त होने पर उभड़क आसन से बैठकर दोनों हाथ गुरु की दिशा में लम्बे कर के दोनों हाथों से गुरु. के चरणों का स्पर्श करे। "अहोकायं" इस पाठ में "अ" अक्षर मन्द स्वर में कहे। वहाँ से हाथ लेकर पुनः अपने मस्तिष्क के मध्यभाग को स्पर्श करता हुआ "हो" अक्षर का उच्च स्वर से उच्चारण करना। इस प्रकार "अहो" शब्द के उच्चारण करने में एक आवर्त हुआ। उसी प्रकार -"कायं" शब्दोच्चार में भी एक आवर्त करना। उसी तरह "कायसंफासं" में काय के उच्चारण में एक आवर्तन करना। इस प्रकार ये तीन आवर्तन हुए। उसके पश्चात् "जत्ता भे" में "ज" अक्षर का मन्दोच्चार कर गुरु के चरण को कर से स्पर्श करना चाहिये। और "त्ता" का मध्यम उच्चारण करते समय गुरुचरण से दोनों हाथ हटाकर-'अधर' में रखना चाहिये।
और 'भे' अक्षर उच्च स्तर से बोलते हुए मस्तिष्क के मध्यभाग को हाथ से स्पर्श करना चाहिये। यह एक आवर्त हुआ। इसी प्रकार "ज" "व" "णि" इन तीन अक्षरों का उच्चारण करते समय और "जं" "च" "भे" इन तीन अक्षरों को बोलते हुये तीसरा आवर्तन करना। इस प्रकार एक वन्दन करने में सभी आवर्त मिलकर छह आवर्त्त होते हैं। द्वितीय बार वन्दन में भी छह आवर्त होते हैं। इस तरह कृतिकर्म के बारह आवर्त होते हैं।
अवग्रह में प्रवेश करने के पश्चात् क्षामणा करते समय शिष्य और आचार्य दोनों के मिलकर दो शिरोनमन होते हैं और इसी प्रकार दूसरी वन्दना के प्रसंग पर दो शिरोनमन होते हैं। इस तरह चार शिरोनमन हुए। शिष्य जब वन्दना करता है तब मन, वचन और काया को संयम में रखना चाहिये। ये तीन गुप्ति हैं। प्रथम वंदन के समय अवग्रहयाचना पर प्रवेश करना और इसी प्रकार द्वितीय वन्दन के समय भी। इसी तरह ये दो प्रवेश होते हैं। आवश्यकीय कर के अवग्रह से प्रथम वन्दन करने के पश्चात् बाहर जाना यह निष्क्रमण है। यह एक ही है। दूसरे वन्दन में बाहर न जाकर गुरु के चरणारविन्दों में रहकर के ही सूत्र समाप्ति करनी होती है। ये वन्दन के पच्चीस आवश्यक हैं।१५८
इस तरह प्रस्तुत समवाय में भी पूर्व समवायों की तरह ज्ञानवर्धक सामग्री का सुन्दर संकलन है। तेरहवां व चौदहवां समवाय : एक विश्लेषण
तेरहवें समवाय में तेरह क्रिया-स्थान, सौधर्म, ईशानकल्प में तेरह विमान प्रस्तट, प्राणायु नामक बारहवें पूर्व में तेरह वस्तु नामक अधिकार, गर्भज तिर्यंच, पंचेन्द्रिय में तेरह प्रकार के योग, सूर्यमण्डल तथा नारकों व देवों की तेरह पल्योपम व तेरह सागरोपम स्थिति का निरूपण है। क्रिया आदि के सम्बन्ध में पूर्व पृष्ठों पर विस्तार के साथ लिखा जा चुका है।
चौदहवें समवाय में चौदह भूतग्राम, चौदह पूर्व, चौदह हजार भगवान् महावीर के श्रमण, चौदह जीवस्थान, चक्रवर्ती के चौदह रत्न, चौदह महानदियां नारक व देवों की चौदह पल्योपम व चौदह सागरोपम की स्थिति के साथ चौदह भव कर मोक्ष जाने वाले जीवों का वर्णन है।
यहां पर सर्वप्रथम चौदह भूतग्राम का उल्लेख हुआ है। भूत अर्थात् जीव और ग्राम का अर्थ है समूह, अर्थात् १५८. स्थानांग-समवायांग, पृ. ८१० से ८१२-पं. दलसुख मालवणिया
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