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सागरोपम की स्थिति व बारह भव करके मोक्ष जाने वाले जीवों का उल्लेख है।
प्रस्तुत समवाय में सर्वप्रथम बारह भिक्षुप्रतिमाओं का उल्लेख है। यों स्थानांगसूत्र५३ में अनेक दृष्टियों से प्रतिमाओं के उल्लेख हुए हैं- जैसे समाधिप्रतिमा, उपधानप्रतिमा। समाधिप्रतिमा के भी दो भेद किये हैं - श्रुतसमाधि
और चारित्रसमाधि। उपधानप्रतिमा में भिक्षु की बारह प्रतिमाओं का उल्लेख किया है। इसी तरह विवेकप्रतिमा और व्युत्सर्गप्रतिमा का भी उल्लेख हुआ है। भद्रा, सुभद्रा, प्रतिमाओं का भी वर्णन है। महाभद्रा, सर्वतोभद्रा विविध प्रतिमाओं के उल्लेख हैं और उनके विविध भेद-प्रभेद हैं। परन्तु यहाँ पर भिक्षु की जो बारह प्रतिमाएं बतायी हैं, उन्हें विशिष्ट संहनन एवं श्रुत के धारी भिक्षु ही धारण कर सकते हैं।
संभोग शब्द का प्रयोग यहाँ पारिभाषिक अर्थ में समान समाचारीवाले श्रमणों का साथ मिलकर के खानपान, वस्त्र-पात्र, आदान-प्रदान, दीक्षा-पर्याय के अनुसार विनय-वैयावृत्त्य करना संभोग है। प्रस्तुत समवाय में संभोग सम्बन्धी जो दो गाथाएँ दी गयी हैं वे निशीथभाष्य'५४ में प्राप्त होती हैं। उनका वहाँ पर विस्तार से विवेचन किया गया है। संभोग के बारह प्रकारों में प्रथम प्रकार है- उपधि! वस्त्र-पात्र रूप उपधि जब तक विशुद्ध रूप से ली जाती है, वहाँ तक सांभोगिक-श्रमणों के साथ उसका सांभोगिक सम्बन्ध रह सकता है। यदि वह दोषयुक्त ग्रहण करता है और कहने पर उसका प्रायश्चित्त लेता है, तो संभोगाह है। तीन बार भूल करने तक वह संभोगार्ह रहता है। यदि चतुर्थ बार ग्रहण करता है तो उसे समुदाय से पृथक् करना चाहिए, भले ही उसने प्रायश्चित्त लिया हो। उसी प्रकार समुदाय से जो पृथक् हो, ऐसे विसंभोगिक पाश्वस्थ या संयति के साथ शुद्ध या अशुद्ध उपधि की एषणा करने वाले को तीन बार-उसे प्रायश्चित्त दिया जा सकता है, इससे आगे उसे विसंभोगार्ह गिनना। इसी प्रकार उपधि के ग्रहण की तरह उपधि के परिकर्म और परिभोग के सम्बन्ध में भी सांभोगिक और विसांभोगिक व्यवस्था समझनी चाहिए। दूसरा संभोग श्रुत है। सांभोगिक या दूसरे गच्छ से उपसंपन्न हुए श्रमण को विधिपूर्वक जो वाचना दी जाये, उसकी परिगणना शुद्ध में होती है। जो श्रुत की वाचना अविधिपूर्वक साम्भोगिक या उपसंपन्न या अनुपसंपन्न आदि को देता हो तो तीन बार उसे क्षमा दी जा सकती है। उसके पश्चात् यदि वह प्रायश्चित्त भी लेता है तो भी उसे विसंभोगार्ह ही समझना चाहिए। जब तक श्रमण निर्दोष भक्तपान ग्रहण करने की मर्यादा का पालन करता है, तब तक वह सांभोगिक है। उपधि की भाँति ही इसकी भी व्यवस्था है। उपधि में परिकर्म और परिभोग है तो यहाँ पर भोजन और दान है। चतुर्थ संभोग का नाम अंजलिप्रग्रह है। सांभोगिक और संविग्न असंभोगियों के साथ हाथ जोड़ कर नमस्कार करना उचित है पर पार्शस्थ को इस पाकर करना विहित नहीं है। इस प्रकार करने वाले को तीन बार क्षमा किया जा सकता है। दान, निकाचना, अभ्युत्थान, कृतिकर्म, वैयावृत्यकरण, समवसरण, संनिषद्या कथाप्रबन्ध आदि अन्य संभोग शब्दों की व्याख्या विवेचन में सम्पादक ने अच्छी की है। अतः मूल सूत्र का अवलोकन करें।
इस के आगे कृतिकर्म के बारह आवर्त बताये गये हैं। किन्तु विवेचन में जैसा चाहिए वैसा विषय को स्पष्ट नहीं किया जा सका है। प्रस्तुत गाथा आवश्यकनियुक्ति५७ में इसी प्रकार आयी है, नियुक्ति में विषय को पूर्ण रूप से स्पष्ट किया गया है और कहा गया है कि पच्चीस आवश्यक से परिशुद्ध यदि वन्दना की जाये तो वन्दनकर्ता परिनिर्वाण को प्राप्त होता है या विमानवासी देव होता है। सद्गुरु की वन्दना 'इच्छामि खमासमणो' वंदिऊ जावणिजाए निसीहियाए अणुजाणह, मे मिउग्गहं निसीहि अहोकायं कायसंफासं खमणिज्जो भे किलामो अप्पकिलंताणं बहसुभेणं भे दिवसो। १५३. स्थानांगसूत्र-सू. ८४, १५१, २३७, ३५२ आदि १५४. क-निशीथभाष्य-उद्दे. ५, गाथा ४९, ५०
ख-व्यवहारभाष्य-उद्दे. ५ गाथा-४७ १५७. आवश्यकनियुक्ति गाथा-१२०२
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