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ने कहा है कि यह शरीर अन्य है, आत्मा अन्य है। साधक इस प्रकार की तत्त्वबुद्धि से दुःख और क्लेश को देने वाली शरीर की ममता का त्याग करता है ८१ स्थानांग में कायोत्सर्ग करना, उत्कटुक आसान से ध्यान करना, प्रतिमा धारण करना आदि कायक्लेश के अनेक प्रकार बताये हैं। १० यों कायक्लेश के प्रकारान्तर से चौदह भेद भी बताये हैं।६१ परभाव में लीन आत्मा को स्वभाव में लीन बनाने की प्रक्रिया प्रतिसंलीनता है। भगवती में६२ इसके इन्द्रियप्रतिसंलीनता, कषायप्रतिसंलीनता योगप्रतिसंलीनता और विविक्तशयनासनसेवना, ये चार भेद किये हैं। छह बाह्यतप हैं । ९३
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छह आभ्यन्तर तपों में प्रथम प्रायश्चित है। आचार्य अकलंक के अनुसार अपराध का नाम "प्राय:" है। और "चित्त" का अर्थ शोधन है। जिस क्रिया से अपराध की शुद्धि हो, वह प्रायश्चित्त है १४ प्रायश्चित्त" से पाप का छेदन होता है। वह पाप को दूर करता है । ९५ प्रायश्चित्त और दण्ड में अन्तर है। प्रायश्चित्त स्वेच्छा से ग्रहण किया जता है । दण्ड में पाप के प्रति ग्लानि नहीं होती, वह विवशता से लिया जाता है। स्थानांग में प्रायश्चित्त के दश प्रकार बताये हैं। विनय दूसरा आभ्यन्तर तप है। यह आत्मिक गुण है । विनय शब्द तीन अर्थों को अपने में समेटे हुए हैं । अनुशासन, आत्मसंयम- सदाचार, नम्रता विनय से अष्ट कर्म दूर होते हैं। प्रवचनसारोद्धार में लिखा है कि क्लेश समुत्पन्न करने वाले अष्टकर्म - शत्रु को जो दूर करता है, वह विनय है । ९६ भगवती ९७ स्थानांगे १८ औपपातिक १९ में विनय के ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय, मनोविनय, वचनविनय, कायविनय, लोकोपचारविनय, ये सात प्रकार बताये हैं। विनय चापलूसी नहीं, सद्गुणों के प्रति सहज सम्मान है। वैयावृत्त्य तप धर्मसाधना में प्रवृत्ति करने वाली वस्तुओं से सेवा करना है । भगवती १०० में वैयावृत्त्य के दश प्रकार बताये हैं। सत् शास्त्रों का विधि सहित अध्ययन करना स्वाध्याय तप है ।१०१ आत्मचिन्तन, मनन भी स्वाध्याय है । शरीर के लिए भोजन आवश्यक है, उसी प्रकार बुद्धि के विकास के लिए अध्ययन आवश्यक है। वैदिक महर्षियों ने १०२ भी "तपो हि स्वाध्याय:" कहा है और यह प्रेरणा दी है कि स्वाध्याय में कभी प्रमाद मत करो। १०३ आचार्य पतंजलि कहते हैं- स्वाध्याय से इष्ट देवता का साक्षात्कार होने लगता है। स्वाध्याय के वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा, ये पाँच प्रकार बताये हैं । १०४ मन की एकाग्र अवस्था
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१०४.
आवश्यक निर्युक्ति, १५४७ स्थानांगसूत्र, स्था. ७, सू-५५४ उक्वाईसूत्र समवसरण अधिकार भगवती २५/७
उत्तराध्ययनसूत्र, अ. ३०
तत्त्वार्थराजवार्त्तिक ९/२२/१
पंचाशक सटीक विवरण २६/३
प्रवचनसारोद्धारवृत्ति
भगवती २५/७
स्थानांग स्था. ७
औपपातिक- तपवर्णन
क. भगवती सूत्र - ३५ / ७ ख स्थानांग - १०
स्थानांग अभयदेववृत्ति ५-३-४६५
तैत्तिरीय आरण्यक २/१४
तैतिरीय उपनिषद्-१-११-१
क. भगवती २५/७ ख स्थानांग ५
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