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स्वरूप को बताने के लिए महाव्रतों का उल्लेख है । तत्त्वार्थसूत्र ७९ और उसके स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। जिसे जैन साहित्य में महाव्रत कहा है उसे ही बौद्ध साहित्य में दश कुशलधर्म कहा है। उन्होंने दश कुशलधर्मों का समावेश इस प्रकार किया है
कुशलधर्म
(१) प्राणातिपात एवं (९) व्यापाद से विरति
(४) मृषावाद (५) पिशुनवचन (६) परुषवचन (७) संप्रलाप से विरति (२) अदत्तादान से विरति
(३) काम में मिथ्याचार से विरति
(८) अमिथ्या विरति ।
भगवती सूत्र में प्रत्याख्यान के व्याख्यासाहित्य में भी महाव्रतों के
महाव्रत
(१) अहिंसा
(२) सत्य (३) अचौर्य
(४) ब्रह्मचर्य
(५) अपरिग्रह
अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँच महाव्रत असंयम के स्रोत को रोककर संयम के द्वार को उद्घाटित करते हैं। हिंसादि पापों का जीवन भर के लिये तीन करण और तीन योग में त्याग किया जाता है। महाव्रतों में सावद्य योगों का पूर्ण रूप से त्याग होता है। महाव्रतों का पालन करना तीक्ष्ण तलवार की धार पर चलने के सदृश है। जो संयमी होता है वह इन्द्रियों के कामगुणों से बचता है। आश्रवद्वारों का निरोध कर संवर और निर्जरा से कर्मों को नष्ट करने का प्रयत्न करता है।
इसके पश्चात् शास्त्रकार ने पांच समितियों का उल्लेख किया है। सम्यक् प्रवृत्ति को समिति कहा गया है ।८१ मुमुक्षुओं की शुभ योगों में प्रवृत्ति होती है। उसे भी समिति कहा है।८२ ईर्यासमिति आदि पांच को इसीलिए समिति सज्ञा दी है। उसके पश्चात् पंच अस्तिकाय का निरूपण किया गया है। पंचास्तिकाय जैन दर्शन की अपनी देन है। किसी भी दर्शन ने गति और स्थिति के माध्यम के रूप में भिन्न द्रव्य नहीं मानता हैं। वैशेषिक दर्शन ने उत्क्षेपण आदि को द्रव्य न मानकर कर्म माना है। जैनदर्शन ने गति के लिए धर्मास्तिकाय और स्थिति के लिए अधर्मास्तिकाय स्वतन्त्र द्रव्य माने हैं। जैनदर्शन की आकाश विषयक मान्यता भी अन्य दर्शनों से विशेषता लिये हुए है। अन्य दर्शनों ने लोकाकाश को अवश्य माना है पर अलोकाकाश को नहीं माना। अलोकाकाश की मान्यता जैनदर्शन की अपनी विशेषता है। पुद्गल द्रव्य की मान्यता भी विलक्षणता लिये हुए है। वैशेषिक आदि दर्शन पृथ्वी आदि द्रव्यों के पृथक्पृथक् जातीय परमाणु मानते हैं। किन्तु जैनदर्शन पृथ्वी आदि का एक पुद्गल द्रव्य में ही समावेश करता है। प्रत्येक पुद्गल परमाणु में स्पर्श, रस, गन्ध और रूप रहते हैं। इसी प्रकार इनकी पृथक्-पृथक् जातियां नहीं, अपितु एक ही जाति है। पृथ्वी का परमाणु पानी के रूप में बदल सकता है और पानी का परमणु अग्नि में परिणत हो सकता है। साथ ही जैनदर्शन ने शब्द को भी पौद्गलिक माना है। जीव के सम्बन्ध में भी जैनदर्शन की अपनी विशेष मान्यता । वह संसारी आत्मा को स्वदेहपरिमाण मानता है। जैनदर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी भी दर्शन ने आत्मा को स्वदेहपरिमाण नहीं माना है ।
इस तरह पांचवें समवाय में जैनदर्शन सम्बन्धी विविध पहलुओं पर चिन्तन किया गया है।
७८.
७९.
८०.
८१.
८२.
भगवतीसूत्र, शतक ७, उद्दे. २, पृ. १७५
तत्वार्थसूत्र - अ. ७
मज्झिमनिकाय - सम्मादिट्ठो सुत्तन्त १ । ९
उत्तराध्ययन २४ / गाथा - २६ ।
स्थानांग स्था. ८, सूत्र ६०३ की टीका
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