Book Title: Rajprashniya Sutra Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालजी-महाराजविरचितया सुबोधिन्याख्यया व्याख्यया समलङ्कृतं हिन्दी-गुर्जरभाषाऽनुवादसहितम् श्री-राजप्रश्नीयसूत्रम् SHREE RAAJPRASHNIYA SŪTRAM (द्वितीयो भागः) नियोजकः संस्कृत-प्राकृतज्ञ-जैनागमनिष्णात-प्रियव्याख्यानि पण्डितमुनि-श्रीकन्हैयालालजी-महाराजः प्रकाशकः अजीतनिवासी श्रीमान् सेठ सा. चिमनलालजी रिखबचन्दजी A जीरावला तत्प्रदत्तद्रव्यसाहाय्येन . अ. भा. श्वे. स्था. जैनशास्त्रोद्धारसमितिप्रमुखः श्रेष्टिश्री-शान्तिलाल-मङ्गलदासभाई-महोदयः मु० राजकोट ईस्वीसन् प्रथम ओवृत्ति प्रति १२०० वीर-संवत् २४९२ विक्रम संवत् २०२२ ..मूल्यम् रू. २०/ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મળવાનું ઠેકાણું : श्री. म. सा. ओ. स्थानवासी જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર समिति, ठे. गरेडियाहूवा रोड, औन सान પાસે રાજકાટ ( सौराष्ट्र) Published by: Shri Akhil Bharat S. S. Jain Shastroddhara Samiti, Garedia Kuva Road, RAJKOT (Saurashtra) W. Ry, India. 品 ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञाँ, जानन्ति ते किमपि तान् प्रति नैष यत्नः । उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा, कालो यं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी ॥ १ ॥ फ्र छ 10000 फ्र करते अवज्ञा:: जो हमारी यत्न ना उनके लिये । जो जानते हैं तच कुछ फिर यत्न ना उनके लिये ॥ जनमेगा मुझसा व्यक्ति कोई तत्व इससे पायगा है काल निरवधि विपुल पृथ्वी ध्यान में यह लायगा ॥ १ ॥ પ્રથમ આવૃત્તિ ઃ પ્રત ૧૨૦૦ વીર સંવત્ ઃ ૨૪૯૨ વિક્રમ સંવત ૨૦૨૨ ઈસવીસન ૧૯૬૬ भूस्य ३. २०-०० : भुग : જાદવજી માહનલાલ શાહ નીલકમલ પ્રીન્ટરી, ઘીકાંટારા अभहावाह * Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमान् सेठ सा. चीमनलालजी सा. ऋषभचंदजी सा. अजीतवाले ( सपरिवार ) Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमान् सेठ साहब चिमनलालजी-रिखबचन्दजी 'जीरावलाका . परिचय भारतीय संस्कृति के निर्माण में ओसवाल जाति का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। इस जाति की बुद्धिमत्ता. दूरदर्शिता, शूरवीरता और आत्मबलिदान के कारण भारत के उज्ज्वल इतिहास का निर्माण हुआ है । भारतीय स्वतंत्रता के संग्राम में भी इस जाती ने असाधारण योग प्रदान किया है । उदयपुर, जोधपुर बीकानेर सिरोही, किसनगढ आदि रियासतों के इतिहास इस जाति द्वारा प्रदर्शित दूरदर्शिता, राजनीतिज्ञता और वीरता से भरी हुई गाथाओं से ओतप्रोत है । इस जाति के वीरोंने अपने देश समाज और धर्म के प्रति जिस भक्ति का परिचय दिया है वह इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णाक्षर से अंकित है ! अपने देश और स्वामी के प्रति वफादार रहनेवाले और उनके लिए सर्वस्व अर्पण करनेवाले व्यक्तियों की नामावली में सर्व प्रथम नाम भामाशाह का आता है । इस जैनमंत्री की विपुल' सम्पत्ति की सहायताने महारोणा प्रताप को नया जीवन प्रदान किया था, और मेवाड के गौरव की रक्षा की थी। इसी गौरव पूर्ण जाति में श्रीमान्. चिमनलालजी एवं रिखबचन्दजी का जन्म हुआ। आप प्रसिद्ध दोसी परिवार के हैं। दोसी यह ओसवाल जोति का एक गोत्र है। कहा जाता है कि वि. संवत् ११९७. में विक्रम पुर में सोनागरा राजपूत हरिसेन रहता था। आचार्य श्री जिनदत्त सरिने इसे जैनधर्म का प्रतिबोध देकर ओसवाल जाति में मिलाया और दासी गोत्र की स्थापना की। इस गोत्र के नाम को समुज्ज्वल करने वाले अनेक नररत्न हो गये हैं। दोसी परिवार में श्रीमान् भिक्खूजी बडे प्रसिद्ध हुए। आपने महाराणां राजसिंहजी (प्रथम) का प्रधानपद सम्भाला था। आपंकी निगरानी में उदयपुर का मशहूर राजसमुद्र नामक तालाब का काम जारी हुआ एवं पूर्ण हुआ। इस तालाब के बनवाने में १०५०७६०८) रुपये खर्च हुए । इस तालाव का पूर्ण होने पर महाराणाराजसिंहजी ने राजसमुद्र के उद्घाटन उत्सव के अवसर पर दोशी भिवखुजी को एक हाथीं और सिरोपाव प्रदान कर उनका सम्मान बढाया था। दोसी पद्मोजी ने धर्म स्थानों का उद्धार किया सा। बादशाह के फरमान Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में उल्लेख है। कहने का सारांश यह है कि दोसी परिवार पहले से ही धार्मिक सामाजिक एवं राष्ट्रीय कार्यों में उदारतापूर्वक तन, मन, धन से सेवा करता आ रहा है। श्रीमान सेट चिमनलालजी एवं रिखवचन्दजी सा. को इसी गौरवशाली गोत्र में जन्म लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। इन सी सादे दोनों भाईयों को देखकर यह कभी अनुमान नहीं लगाया जा सकेगा कि ये-एक बडे श्रीमन्त होंगे। तथा श्रीमन्ताई के साथ बडे दानवीर भी होंगे। मारवांड के इम दानी परिवार की प्रसिद्धि अन्य श्रीमन्तों की तरह चाहे न हो पाइ हो पर सेठ साहब चिमनलालजी एवं रिनवचन्दजी जैन समाज के 'गुदडी में छिपेलाल' है। अपनी सम्पत्ति का उपयोग परोपकारी कार्यो के करने में परम उदार है । श्रीमान् चिमनलालजी सा० के पूर्वजों का राजघराने के साथ अच्छो र म्बन्ध रहा है । आप के दादा श्रीमान गुलाबचन्दजी जोधपुर के समीप सिवाना तहसील के कोटडी गमक गांव में रहते थे। आप टिकाने के कोठार के काम को सम्भालते थे, राजकीय जीम्मेदारी के पद पर रहते हए भी धार्मिक व सामाजिक जनसेवा के कार्यों में भी पूर्ण सहयोग प्रदान करते रहते थे। आपकी राजघराने में एवं समाज में अच्छी - प्रतिष्ठा थी। आप 'जीरावला' के उपनाम से प्रसिद्ध थे। आप बडे मधुरभाषी एवं मिलनसार प्रकृति के उदारचेता सज्जन थे। आपको एक पुत्र हुआ जिसका नोम प्रेमचन्द रखा । प्रेमचन्दजी की उम्र अभी कोई ज्यादा नहीं हुई थी कि पिताजी की मृत्यु हो गई। पिताजी के अचानक स्वर्गवास से इनपर सारे परिवार के निर्वाह की जिम्मेदारी आ पडी! ये बडे बहादूर थे। पिता के परंपरानुसार चलने वाले कुशल व्यापारी थे। इन्होंने अल्प समय में ही पिता की जैसी प्रतिष्ठा प्राप्त करली और कोठार का काम भी मम्माल लिया वि. सं. १९६४ में इनका शुभलग्न जूनाडा निवासी श्रीमान् सायवलालजी की सुपुत्री खेतुवाई के साथ सम्पन्न हुआ। खेतुवाई एक आदर्श महिला एवं सती साध्वी स्त्री है। खेतुबाई जैसी आदर्श पत्नी की पाकर श्रीमान प्रेमचन्दजी बडे सुखी थे। इनके दो पुत्र हुए श्री चिमनलालजी और रिखबचन्दजी । किन्तु इस सुख को विधाता नहीं देख सका जब चिमनलालजी पांच वर्ष के थे एवं श्री रिखबच दजी १॥ डेढ वर्ष के थे तब अचानक ही प्रेमचन्दजी साहब का स्वर्गवास हो गया । इनके स्वर्गवास से Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारा परिवार शोक निमग्न हो गया। बालक और परिवार के सदस्य विलाव विलाव कर रोने लगे। श्रीमती खेतुवाई. पर पति वियोग का वज्रपात हुआ। ऐसे भयंकर संकट के समय खेतुबाईने असाधारण धैर्य का परिचय दिया। रोने देने में अपना बहुमूल्य समय नष्ट न कर दोनों बालकों के भविष्य को उज्ज्वल बनाने का विचार करने लगी। इधर पति के मृत्यु से आर्थिक स्थिति अत्यन्त शोचनीय हो गई । कोठार के काम से जो थोडी बहुत आमदनी होती थी वह भी अब समाप्त हो गई। कर्म कीग ति वडी पहन है। एक आपत्ति का अन्त नहीं हुआ था कि यह दूसरी आपत्ति का आरंभ हो गया। ऐसी विकट स्थिति में भी खेतुबाईने हिम्मत न छोडी चिन्तु वडे लाड प्यार से बच्चों का लालनपालन करने लगी । अपने चन्द्र जैसे आनंदप्रद बच्चा को देख कर अपना सारा दुःख भूल जाती थी। यह अपने का अपने बच्चों के सुनहरे स्वप्न में खोजाती थी। ये दोनों बालक बडे होते जा रहे थे। माता की ये ही आशा थे। बच्चों का पढना लिखना भी परिस्थिति के अनुकूलतानुरूप होता था। जब श्रीमान् चिमनलालजी दस वर्ष के हुए तब इन्हें अपने पारिवारिक जीवन का भान हो आया। इन्होंने माता के इस बोझ को हलका करने का विचार किया। कोठडी एक होटा गांव है इसलिये इसमें व्यापार की कोई गुंजाइश नहीं थी। अतः बालक चिमनलालने बाहर जा कर अर्थ उपार्जन का निश्चय किया। माता की आज्ञा प्राप्त कर दस वर्ष के चिमनलाल जी अपने सम्बन्धियों के साथ व्यापार करने के लिए चल पडे । ये कर्णाटक के 'हिराकेरी' गांव में पहुंचे । इतनी छोटी उम्र में माता का वात्सल्य को छोडकर अवे लेही अनजाने प्रदेश में पहुंच जाना कम हिम्मत का काम नहीं है। ये वहां की कन्नडी मापा से अनभिज्ञ थे। बात बात पर मुश्किलें आती थीं किन्तु इन्होंने हिम्मत नहीं छोडी अल्प समय में ही इन्होंने स्थानीय कन्नडी भाषा सीख ली । नोकरी से व्यापार में लगे खूब श्रम किया किन्तु भाग्यदेवताने इनका साथ नहीं दिया अन्ततः निराश होकर अपने गांव कोटडी चले आये। यहाँ भी आपने कम परिश्रम नहीं किया। कई तरह के व्यापार करने पर भी आपके पल्ले असफलता ही पडी। अशुभ कर्म का अभी उदय था। अन्त में हार थक कर पुनः कर्नाटक के हलगेरी नामक गांव में जाकर कपडे की दुकान करली। इस दुकोन से आपको लाभ नहीं मिला । कमाने के स्थान में आपको लाभ में Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नुकसान ही उठाना पडा यहां तक कि आप कर्जदार हो गये । धन चला गया किन्तु आप में नीति कायम थी। धन से भी आपने नीनि को विशेष महत्ता दी। आप को माहुकारों का कर्ज शुल की तरह चुभने लगा। आपने हर परिस्थिति में कर्ज से मुक्त होने का निश्चय किया । कर्ज चुकाने के लिए आपने वहां नोकरी करली । कर्जा चुका देने पर आप फिर से अपने गांव कोठडी चले आये। वि. सं. १९८४ में श्री चिमनलालजी का शुभविवाह खण्डपनिया हिम्मतलालजी सुराणा की सुपुत्री श्री प्यारवाई के साथ सम्पन्न हुआ । विवाह के बाद वि.सं. १९८८ में आप कमाने के लिए अहमदाबाद पार गये। आप के साथ आप के छोटे भ्राता रिग्ववचन्दजी साहब भी चले आये थे प्रारंभ में दोनों भाइयों ने दस रूपये प्रतिमास पर नौधरी २गी। धीरे धीरे अपनी योग्यता व अपनी प्रतिभा के बल से दोनों भाइयों ने साधारण पंजीये कपडे की दुकान ग्बोली । आप इस व्यवसाय में साहसपूर्वक अग्रसर हुए, थोडे ही वर्षों में आप की गणना नगर के प्रतिष्ठिन लक्षाधिपति व्यापागियों में एवं प्रमुख व्यक्तियों में होने लगी। आप के लघु भ्राता श्रीमान् रिखबचन्दजी का शुभविवाह 'अजिन निवासी श्री अन्नराजजी माहब की सुपुत्री पानवाई के साथ सम्पन्न हुआ। आप दोनों का परिवारिक जीवन बडा सुखी है । आपके घर में सम्प और सम्पत्ति का एकसा आदर है। आप दोनों भाइयों का अपसी मेम गम लक्ष्मण के प्रेम का स्मरण दिलाता है। परिवार के इस सुखमय जीवन को देखकर श्रीमती खेतुबाई फूली नहीं ममाती। ऐसा आनन्द का अवसर संसार की कम माताओ को ही प्राप्त होता है। इस समय खेतुवाई शरीर से (७५) वर्ष की वृद्धा है, किन्तु हृदय से युवा है । अब भी समय समयपर अपने परिवार को अपने जीवन के मुख्य अनुभवों से माग दर्शनक राती हती है। सामायिक प्रतिक्रमण मुनिदर्शन आपके दैनिक जीवन के अंग हैं। आपका प्रायः समय धार्मिक कार्यों में ही व्यतीत होता है । आपा परिवार इस प्रकार है आग के दो पुत्र हैं श्रीमान् चिमनलालजी सा. एवं रिखबचादनी सा. श्रीमान् चिमनलालजी साहब की पांच' पुत्रियां हैं जिनके नाम ये हैं-१ वदामबाई २ खमाबाई ३ जम्मुवाई ४ सास्वतीवाई ५ एवं धापुवाई । श्रीमान् Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिखबचन्दजी साहब के श्री दीपचन्दजी, शंकरलालजी सुगनराजजी एवं महेन्द्रकुमारजी ये चार पुत्र एवं सौभाग्यवाई तथा पुष्पाबाई ये दो पुत्रियां हैं। . इस परिवार का वंश वृक्ष इस प्रकार है गुलाबचन्दजी सा० (दादा) प्रेमचन्दजी सा० (पिता) चिमनलालजी सा० . रिनवचन्दजी सा. ____(पुत्र) - .I___ (पुत्रिया) । दीपचन्दजी शंकरलालजी सुगनराजजी महेन्द्रकुमार सौभाग्यबाईपांच पुत्रियों बदामबाई खमावाई जम्मुवाई सरस्वतीबाई धापुवाई धार्मिकजीवन___व्यापारिक जीवन के अतिरिक्त आप भातृद्वय-दोनों भाइयों का सार्वजनिक एवं धार्मिक जीवन विशेष सराहनीय है । आपने सार्वजनिक कार्यों के लिये बहुत अधिक दान दिया है। आपने सर्वसाधारण के लिये समय समय पर अकाल रोग बाढ आदि के अवसरों पर भी काफी सहायताएं दी है। आपने कई व्यक्तियो' को आर्थिक सहायता देकर धंधे में लगाया है। विद्यार्थियों को आर्थिक सहयोग देकर अपनी विद्याप्रियता का परिचय दिया है। पर्युपणपर्व आदि धार्मिक उत्सव के अवसर पर आसन, पूंजनियां माला आदि धर्मोपकरण के साथ साथ अन्य कई उपयोगी वस्तुओं की भी प्रभावना करते रहते हैं। आपने निजी खच से वि.सं. २००४ में दीक्षा भी दिलवाई है। साहित्यप्रेम-- __ जैनसाहित्य प्रकाशन कार्य में आपकी बडी दिलचस्पी है । कई ग्रन्थों के प्रकाशनों में आपका आर्थिक सहयोग रहा है। आप ने अभी अभी अखिल भारतीय श्वे० स्था जैन शास्त्रोद्वारसमिति राजकोट को दानार्थ ५०००) पाँच हजार रुपये प्रदान कर समिति के सन्माननीय सदस्य बने हैं। आपका यह साहित्य प्रेम सराहनीय है। माहित्यशिक्षा के प्रति आप उदार चेताओं का कितना ध्यान है यह उपरोक्त ज्ञान दान बता रहा है। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___आकी दैनिक जीवनचर्या में सामायिक प्रतिक्रमण व्रत, पच्चक्खाण मुनिदर्शन आदि आवश्यक अंग हैं। इन कामों में आप कभी प्रमाद नहीं करते । प्रतिवर्ष बाहर जावर मुनिदर्शन वा भी समय समय पर लाभ लेते रहते हैं। आप की उदारता सर्वतोमुखी है। आप अपनी जन्मभूमि कोठडी में निजी खर्च से अस्पताल बनाकर सरकार को अर्पण करने की भी उत्कट इच्छा रखते हैं। आपका इस समय निवास मारवाड में अजित गांव जि.जोधपुर में है । आपने वि.सं. २०१३ की साल में कोठडी छोड दिया था। आपकी धार्मिक भावना इसी प्रकार उत्तरोत्तर चढती रहे यही शुभ कामना है। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આઘમુરબ્બીશ્રીઓ R " * શેઠશ્રી શાંતિલાલ મંગળદાસભાઈ અમદાવાદ, (સ્વ.) શેઠશ્રી શામજીભાઈ વેલજીભાઈ વીરાણુ-રાજકેટ, - જો કે '= 1 .5 ટકા (સ્વ.) શેઠશ્રી છગનલાલ શામળદાસ ભાવસાર-અમદાવાદ, માટે :p*j'જ' * " - - - * * * * * * * * મ કt), **, , , , શેઠશ્રી રામજીભાઈ શામજીભાઈ વીરાણી-રાજકેટ, વચ્ચે બેઠેલા લાલાજી કિશનચંદજી સા. જૌહરી ઉભેલા સુપુત્ર ચિ. મહેતાબચજી સા. જેન નાના–અનિલકુમાર જૈન (દત્તા) Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આદ્યમુરબ્બીશ્રીએ શ્રી વૃજલાલ દુ ભજી પારેખ રાજકાય. કાહારી હગેવિંદ જેચાઇ રાજકાય. શેઠશ્રી મિશ્રીલાલજી લાલચંદજી સા. લુણિયા તથા શેઠશ્રી જેવતરાજી લાલચ સા. (સ્વ.) શેઠશ્રી ધારશીભાઇ જીવણલાલ ખારસી. સ્વ. શ્રીમાન્ શેઠશ્રી મુકનચંદ્રજી સા. માલિયા પાલી મારવાડ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આમુરબ્બીશ્રીઓ (સ્વ.) શેઠશ્રી હરખચંદ કાલીદાસ વારિઆ (સ્વ) શેઠ રંગજીભાઈ મોહનલાલ શાહ ભાણવડ અમદાવાદ, . ' - + : " , * શ્રી વિનોદકુમાર વીરાણી રાજકેટ, (સ્વ.) શેઠશ્રી દિનેશભાઈ કાંતિલાલ શાહ અમદાવાદ, શેઠશ્રી જેસિંગભાઈ પાચાલાલભાઈ અમદાવાદ, સ્વ. શેઠશ્રી આત્મારામ માણેકલાલ અમદાવાદ, Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આમુરબ્બીશ્રીઓ + + નનસ- ૬ 3 ' - • , A ' [ n દેવ ને સ્વ. શેઠશ્રી હરિલાલ અનોપચંદ શાહ ૨. ર તારે ચંદ્ર ખંભાત, મદ્રાસ, – / કે ' ક +3 નર, કે, તે છે” રક * * , ** છે ૧ વચ્ચે બેઠેલા મોટાભાઈ શ્રીમાન મૂલચંદજી श्रीमान् शेठश्री જવાહરલાલજી બરડયા ૨ બાજુમાં બેઠેલા ભાઇ મિશ્રીલાલજી બરડિયા ___खीमराजजी सा. चोरडिया ઉભેલા સૌથી નાનાભાઈ પૂનમચંદ બરડિયા Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमाङ्क ७ राजप्रश्नीय सूत्र भाग दूसरे की विषयानुक्रमणिका विषय सूर्याभदेव के देवद्धि के संबन्ध में गौतमस्वामी का प्रश्न सूर्याभदेव के ऋद्धि के संबन्ध में भगवान् का उत्तररूप कथनमें सूर्याभदेव के पूर्वभवजीव प्रदेशी राजा का वर्णन... सूर्याभदेव का आगामिभवका वर्णन... ॥ समाप्त ॥ 品 पृष्ठाङ्क १-४ ... ५-३८३ .. ३८३-४४९ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि पत्र सुज्ञ पाठकगण, सविनय निवेदन है कि शास्त्रों में ग्रुफ और प्रिंटिंग सम्बन्धी कई गलतीयां होना संभवित है, जो सुज्ञ वाचकवृन्द नीरक्षीरन्याय से समझ कर पढलेंगे, पर जो शास्त्रीय गलती रह गई है जो देखने में अगर सुज्ञ वाचकजन द्वारा दृष्टिगोचर हुई हैं, इनका शुद्धिपत्र देने में आता है। सूत्र का नाम ... पृष्ठ . . पति . अशुद्ध , . . - शुद्ध समवायङ्ग सूत्र . १६४ ,. ५ रामः खलु बलदेवो) रामः खलु बलदेवो द्वादशवर्ष सहस्रा- द्वादशवपशतानि णि सर्वायुषं ) सर्वायुषं १६ बारह हजार वर्ष चार सौ वर्ष ૨૮ બાર હજાર વર્ષ બારસે વર્ષ ज्ञाताधर्मकथाङ्ग-२६१ १ पहली पंक्ति 'मासिकी पद छूट गया है सूत्र भा. २ , पूरी होने पर सो 'त्रैमासिकी' यह पद वढाके पढ़ें " , ११ आठवीं भिक्षु प्रतिमा के अनन्तर 'प्रथम सात दिनरात प्रमाणवाली नववीं भिक्षु प्रतिमा' यह पाठ छूटा है सो 'नववीं भिक्षु पडिमा वहाँ इतना झोड के पढ़ें ज्ञातधर्मकथाङ्गमत्रभा.३, ३९७ १७ प्रवचनसिद्ध, प्रवचनविरुद्ध " २१ प्रपयनसिद्ध પ્રવચન વિરુદ્ધ ज्ञातधर्मकथाङ्गचत्रभा.२ १४७ १७ मद्यपान में आसक्त-निद्राजनक द्रव्य में आसक्त * ૨૯ મદ્યપાનમાં નિદ્રાજનક દ્રવ્ય આસકત માં આસકત ज्ञातधर्मकथानमन्त्रभा-३ ३३४ ३ भगवताऽऽवश्यके- भगवताऽनुयोगद्वारे ,, १७ आवश्यक सूत्रमें- अनुयोगद्वारसूत्रमें - ૧૯ આવશ્યક સૂત્રમાં– અનુગદ્વાર સૂત્રમાં Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हीणा अन्तकृशाङ्गसूत्र - २९५ १० दसदस. .: दसअट्ठ ११ . 'सत्तमवग्गे तेरसउद्देसगा' ... : इतना पाठ छूट गया है सो वहां समझ लेवें आचारङ्गसूत्रभा. २. १२२ ८ नेत्तपरिणाणा ) नेत्तपरिणाणा अपरि अपरिहीणा फरस हीणा जीहपरिणाणा अपपरिणाणो अपरि-) रिहीणा फरिस परिणाणा अपरिहीणा आचारागसत्रभा-२ २८१ । १४. निन्यानवे अट्ठानवे ૨૬ નવાણું અઠ્ઠાણું दशाश्रुतस्कध ४३० २०. कालकर के ग्रैवेयक- कालकरके देवलोकमें से आदि ૨૯ કાલકરીને વેયક કાલકરીને દેવલોકમાંના - माहिशाताधर्मकथाङ्गसूत्रभा.२ ७३० २१ शुशिल शैत्य शुशिल श्रोत्य (नन रास२) . (उधान मनाया) . . उत्तराध्ययनमूत्रमा.३ १८० १-२ ...तृतीय देवलोके- मोक्षं गतः गतः ततश्चुतो महाविदेहे केवलिभूत्वा ... सिद्धिगति गमिष्यति । १२,१४,१५...वे चक्रवती तृतीयदेव वे चक्रवर्ती लोकमें गये वहाँसे चवकर मोक्ष गये . . महाविदेहमें केवलीहोकर । सिद्धि पदको प्राप्त करेंगे , २३-२४....ते यती भरीने त्रीत यवती દેવકમાં ગયા અને ત્યાંનુ મોક્ષમાં ગયા આયુષ્ય પુરૂં કરી ત્યાંની ચાવી ને મહાવિદેહમાં કેવલો થઈને સિદ્ધિ પદ પ્રાપ્ત કર્યું उत्तगध्ययनसूत्रभा.४ ९२ १४ संयमयोगोंका उल्लंघन संयम योगों का होताहै- उल्लंघन नहीं होता है ૨૪ સંયમ ગોનું ઉલંઘન સંયમ મેગેનું થાય છે ઉલંઘન થતું નથી " १२.१४.१५ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० भगवतीस्त्रभा.३ ८९९ ३ त्रिभागोन त्रिभागोन " , ३-४ पल्योपमं पल्योपमद्वयं , १३ तृतीयभागकम एक तृतीयभाग कम दो पल्यापम की पल्योपम की ૨૮ ...એક પલ્યોપમ કરતાં તૃતીય ભાગ કમ બે વિભાગ ન્યૂન છે पत्यापमनी छे. भगवतीसत्रभा.३ ८९९ '२८ मे पक्ष्यापम ४२तi તૃતીય ભાગ અધિક त्रिमा मधिर બે પલ્યોપમ उत्तराध्ययन ४४८ २ ...तपःकृत्वा तृतीय- तपः कृत्वा तस्मिन्नेव भवे मुक्तिं गतः भवे मुक्तिं गतः। , १३ तृतीय भव में मुक्ति उसी भव में मुक्ति लाभ किया लाभ किग , २५ त्री ममा भुति તેજ ભવમાં મુકિત नौ साल ४२ छ ને લાભ કરેલ છે. दशाश्रुतस्कन्ध १७४ २ यतस्तै रुत्कृटाई यतस्तैरुत्कृष्टदेशो - पुद्गल .. नार्धपुद्गल -- १७४ १२ देशऊन पुद्गल देशऊन अर्भ पुद्गल , ૧૭૪ - ૧૨ દેશઉન પુદ્ગલ દેશઉન અર્ધપગલ दशाश्रत स्कंध के दसवें अध्ययनमें हिंदी एवं गुजराती में दशों निदानों के प्रकरण में जहां-जहां ग्रैवेयक शब्द है वहां वहां 'सौधर्म' ऐसा पार सुधारकर पढना चाहिए. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्ध मडंबसि कर्बटे જેને राजप्रश्नीयसूत्र भी २ दूसरेका शुद्धि पत्रक पेज १ વસ્તીમ देवज्जई भग्यतामुपगता कवट सबन्धिकं अमंतेत्ता जणयए नयरा सेयावयाए दुप्पयच्च उप्पय मियपपसु भगवतम् के शिवामी निवास्थानभूत चडे અપહ उत्कोच-लांच ઉÈાચ-લાંચ पटं जड़ बह-वेन व्यापारतेन ईष्ठान् तस्स ण अनुरद्धा प्रमयुत्ता पुत्त यावत् शब्द प्रकट शुद्ध मडबेसि क જેની વસ્તીમાં देव जुई भोग्यतामुपगता क संम्बन्धिकं आमंतेत्ता जणत्रए नयरी सेयविय. ए दुष्पयचउप्पयमियपसु भगवंतम् -केशिस्वामी निवासस्थानभूत चंडे આ उत्कोचन ઉત્કચન पउंजइ बहुत्वेन व्यापारस्तेन इष्टान् तस्स णं अनुरक्ता प्रेमयुक्ता पु यावत् शब्द यह प्रकट २ * ४ ४ ५ ८ ८ ८ १० ११ १२ ~ ~ * ~ *x १२ १२ १३ १३ १३ १४ पङ्कि १२ २७ ૨૮ १३ १७ २२ १२ १५ ७ ११ २४ ૨૯ ४ ૧૯ १९ २ १ ७ ११ १३ - Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामदापति અંતપુરનું शास्हामति કમજ નિશ્ચમ कार्या में * * * * कथा मत:पुरतुं शास्त्रेहामति કર્મ જા નિશ્ચચમાં कार्यों में कया નિઃશંકપણે સકલાર્થને आयोगप्रयोगः संप्रयुक्तः भोजनावशिष्टे शुश्रूषादि અદૃષ્ટ तेणं समृद्ध जितशत्रुर्नाम उत्तरपौरस्त्ये जियसत्त जितशत्रु નિશંકપણે સકલાઈન आयागप्रयोगः सप्रयुक्तः भोजनावशिष्ट शुश्रपादि અટક तेण समृद्ध जिनगनुं न मा उत्तरपोरस्त्ये जियसत् जितशत्र जसा अन्तेवासाक प्र जिय सत्तस्स प. मूत्रर्थ * * * * * * * * * जैसा जितशत्रा: अन्तेवासीव जियसत्तुम्स सूत्रार्थ जितशत्रोः राजकजाणिय वयासी पच्चाप्पिणह महत्थं जाव अभितरिया तं महत्थं चाउग्बंट અનેક પરમ સૌમનસ્થિત रायकजाणय वयासा पच्चप्पिणहा महत्थ जाव अमितरिया त महत्थं चाउग्घंट અનેત પરમ મનસ્થિત * + * + * * : 3२ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध अशुद्ध ะ c ง ๕ काटुम्बक पुरुषान् सकङ्कठावतंसकं शरशतद्वात्रिंशतत्तूण दोनों और". स तारणवर युक्त सा है યારે दृध्यक्षत दर्वाङ्करादीनि आरापण किया आयुध दसे यन्त्र केकयाद्ध जितश जियसत्तस्स सावत्थाए ० १०६ कौटुम्बिकपुरुषान् सकङ्कटावतंसकं शरशतद्वात्रिंशत्तण दोनों ओर स तोरणवरयुक्त ऐसा है જયારે दध्यक्षतदुर्वांकुरादीनि आरोपण किया आयुध पदसे यत्रैव केकयाई जितशत्रू जियसत्तस्स सावत्थीए विहरइ सू० तस्य श्रवस्त्या उपागच्छति आदि कुशलप्रश्नादि सारहि चाउग्घंटे जिमितभुक्तोत्तराग प्रतीच्छति ๕ ๑ * * * * กร * * * * * * * แs y * * * * * * श्रावस्या उपाग ति आद कुर्शल प्रमादि सारहि चउग्घंटे जिमितभुक्तात्तराग प्रतोच्छति एव एवं ટીક્રાર્થ पञ्चविधन् जियम जेणव ટીકાર્ય पञ्चविधान जियमाए जेणेव * Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * ओयंसी विद्याप्रधानो श्रवस्तीनगरी यव क्षान्तिप्रधान सत्यप्रधान ओयसी विद्या धानो श्रावस्ती गरी यत्रव क्षान्तिप्रधन सत्यपधान सुहणं तृको श्रावती तथ निकपट: वय लपरहित्य सुहेणं * * * * * * * * * * ४७ * * แs •• 8 9 * + * * * แ * * * * * 9 * व्य ૫૧ ૫૪ पैतृको श्रावस्ती तथा निष्कपटः वयं लेपराहित्य द्रव्य શૌચ છે सिंघाडग . ઉદયાવસ્થા ક્રોધાદિકને महापथपथेषु जनोत्कलिकेति वा जनोमिरिति वा सारथिस्तं लोगों के નિમિત્તે महद्भिर्महद्भि चतुष्पथ मनुष्यों લાગ્યા. इत्यारभ्य पंजलि गतोग्रेग्रेषु શાચ છે सिघाडग ઉદપયાવસ્થા ધાદિકેને महापथपथ-पु जनात्कलिकेति वा जनोमिरितवा सारथि तं. लगों के નિમિ महमिहदि चतुपथ * * * * 3 ร ร ५५ wr ur पर o मनुयां o લાયે इत्यारभ्थ पजलि गतोयोग्रपु ะ 3 ร ะ ล ะ * * * * * * ०. ०.०० Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्ध वदाविदएि करतलपरिगृहीतं श्रावत्यां देवनुप्रिय ! वगाख्यातपायमिति सव्व ओ दिसि सव्वओ सव्वओ सव्वऔ सव्वओ श्रुत्वा अवितहमेय धन्न चारही केशिन गिहिधम्म पाव्वयणं विच्छ शकोमि मैं ता सातत शिक्षण देहरारतम् एव अवदिको परिस्थिति पदेशाशिक પ્રાણાતપાતથી ઇચ્છા પરારમાણુ शुद्ध बंदाबंद एहि करतलपरिगृहीतं श्रावस्त्यां देवानुप्रिय ! व्याख्यातप्रायमिति सव्वाओ दिसिं सव्वाओ सव्वाओ सव्वाओ सव्वाओ श्रुच्चा अवितहमेयं धन्नं चित्ते सारही केशिनं गिहिधम्मं पावयणं विच्छ शमि मैं तो सात शिक्षा सन्देहसहितम् एवं अश्वादिको परिस्थिति देशावका शिक પ્રાણાતિપાતથી ઇચ્છા પરિમાણુ अश्वरथस्तत्रव पेज ६४ ६४ ६४ ६५ ७० ७० ७० ; ; ; ; ; ; ७० ७० ७० ७० ७२ ७३ ७३ ७३ ७३ ७३ ७४ ७६ ७६ ७६ ७६ ७९ ७९ ७९ ८० ८१ ૮૧ ૮૧ ८२ पङ्कि १० ११ ८ १८ १८ १९ १९ ६ MU १७ २२ १६ २९ १ ३ १७ १८ १ १० १९ १८ १३ ૨૨ २३ १० Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्ध गधव्व अट्ठामजपे माणु अय पुछणेण जियसत्तणा श्रमणापासको गथु.. पावथणाआ નિત્ય परिपुष्णं फासुएसाणिज्जेणं पौपधेापयासैः काङ्क्षारहितः चतुर्दश्यष्टमी पौणमास्यः पौपथ मुर्मुहुरवाकयन् विहरात कयाइ सौरहा 1 छत्तणं अ भंते पसिन्स पाउग्गद्दण पुरसवग्गु पहिले महत्थ हता अभिगमणिज परिवसति भहार्थ शुद्ध गंधव अट्ठमिज्जपेमाणु अयं पुंछणेणं जियसत्तणा श्रमणोपासको ગયું पावयणाओ નિગ્રંથ परिपुष्णं फासुसज्जि पौषधोपवासैः काङ्क्षारहितः चतुर्दश्यष्टमी पौर्णमास्यः पौषध... मुहुर्मुहुग्वलोकयन् विहरति काई सारही छतेण अहं भंते ! पर सिप्स पाउग्गहणं पुरिसवग्गु पहिले - महत्थ हंता: अभिगम णिज्जे परिवसंति महार्थ पेज ८२ ८२ ८२ ८२ ८२ ८३ ૮૩ ८३ ८४ ८५ ८५ ८६ ८८ ८८ ९१ ९२ ९२ ९२ ९२ ९२ ९३ ९३ ९४ ९५ ९७ ९९ ९९ ९९ ९९ १०० पङ्कि ११ १५ १७ ૨૬ २८ ર १३ २७ ११ १६ १६ १९. १७ १० १०-११ १२ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अढाइ षयेसिस योर ० ० ० ००:०० 9 g * * * * * * हे चित्ते रीसृपों सो सग्गे અભિગમનાય ० आढाई पएसिस्स योग्य हंता हे चित्र सरीसृपों सोपसग्गे અભિગમનીય बहूनां द्विपदचतुष्पदमृगपशुपक्षिसरीसृपाणाम् द्विपदादयः पक्षिसरीसृपाणां तद्वनप्रवेशम्पोऽर्थः कुमारसमणं पज्जुवासिस्संति अधार्मिष्ठः पीठफलकसेज्जासं युष्माकं नमंसिष्यति प्रातिहारिकेण तुझं १०४ ० ० ० पक्षसरीसृपाणा तद्वनप्रवेशरूपाऽर्थः कुगारसमणं पज्जुवासिम्सति उधामिष्ठः पीठलगसेज्जासंफ युमकं नमंसि यष्यंति प्रतिहारिकेण ब्तुभं * * 9 6 6 * * * 9 9 4 5 6 7 १०५ १०७ १०७ १०८ सम्मानयियन्ति खाद्यं खाद्यं मज्झ थत्रैव कुमारमणम्स કેર્યાદ્ધમાં दुइज्जमाणे पडिहारिएणं इत्यादि सम्मानयिष्यन्ति खाद्यं स्वाद्यं मज्झ यत्रैव कुमारसमणस्स કેક થાદ્ધમાં दुइजमाणे पाडिहारिएणं इत्यादि 8 * แs ૧૮૯ - Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ १३. मृगवगम् विणयेणं नयरि यत्रव वरतरनी संपउत्तेहिं १११ ११२ १४. मृगवनम् विणएणं नयरिं यत्रैव वरतरुणी संपउत्तेहिं गिहे वरतरुणी संपउत्तेहि ११५ ११५ ११५ । १८ .. २४. गह वरतरणी संपउत्तेहिं तत्रव तत्रैव ११६ ... :२... ११६ श्रावस्ती समापात् ससुपविष्टः सावत्याआ केशीकुमार मणः वस्त्या श्वेताविका कंसिकुमारसमणे औ कुमार मणो व्याखया केशाकुमार श्रमण કૈક્યાદ્ધ श्रङ्गाटक णाम गायं अवकमंति पूर्वानुपूर्वी जसणं विहरह विउल उत्तरोत्र • श्रावस्ती : सभीपात् समुपविष्टः . कामभोगान् प्रत्यनुभवन् सावत्थीओ केशीकुमारश्रमणः श्रावस्त्या श्वेतविका केसिकुमारसमणे ४ कुमार श्रमणो .. व्याख्या केशीकुमारश्रमण કેક્યા शृङ्गाटक णाम गोयं अवकमंति पूर्वानुपूर्वी जस्सणं विहरह ११७ १२ ११७:: .. १७ ५१७ १७: ११८ २ . ११८ .. .. ७ . ११८ ८ ११८ ९ ११८ २१ ११८- २४ ११९. ४ ११९ १८ . ११९ १८ .. ११८ : २२ १२० १४.. १२१ १४... १२१ १४ १२३, ४ १२३ १५ ... १२३२९. १२४९ विउलं जुत्तामेव Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध १२४ अशुद्ध सज्झय प्रा दपीठा सज्ज्ञय प्रासादपीठा पग (यभा. १२५ १२५ ૧૨૫ ૧૨૫ पण હૃદયમાં १२६ ૧૨૬ पडिविसज्जे મૃગવદ્યાન उिलं जीवियारिहं र सने पच्चाप्पिणेह घंटोंवाले हिजए घटोवाला १२६ १२७ पडिविसज्जेइ મૃગ્રવનેદાન विपुलं जीवियारिहं. उसने पच्चप्पिणेह घंटीवाले हियए घंटोंवाला हट * * * * * * * ที่ 9 : * * * * १२७ १२७ १२७ १२८ ૧૨૮ ૧૨૯ કય यु वहूणं १३१ १३२ वहुणं परमसौमनस्थितः वहुगणतरम् आरामगय वा त घेव ना लभइ केवलिपन्नत धम्म केवलिपन्नत वाद्यस्वाधेन छत्तण महणं परमसामनस्यितः बहुगुणतरम् . आरामगयं वा तं. चेव नो लभइ केवलिपन्नत्तं धम्म केवलिपन्नत्तं खाद्यस्वायेन छत्तेण माहणं * * * * + * * * * * * * * १३५ ण आरामगतं आरामगत उवस्सग પ્રયુતાસના उवस्सगयं * ૧૩૬ પર્યું પાસના Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्ध અર્થો विजानाहि : शुद्ध અર્થો विजानीहि । पेज ૧૩૭ १३८ : , पति ર૭ ३ : त्रि तत्र १३८ जीवा जावादि पर्दाथों श्वमण १३९ १७ दैवत १४११ १४१८ महानेन उसका मरणतायै १४१ १३ १४२ चित्त ટીકાર્ય चाउग्घटे दिसि मानेप्याम प्रदेशी सारहि धन्मणाइकरखमाणा अयश्य નિ સસ્થાને एयमाणत्तिय ए होट एत खलु तं एहणं तं आसे तं एइणं तं आसे रा कि जीवा जीवादि पदाथों श्रमण दैवतं माहनेन । उसकी श्रवणतायै चित्ते साथचाउग्घंटे दिसिं मानेष्यामि प्रदेशी सारहि धम्ममाइकरखमाणा अवश्य નિવાસસ્થાને एवमाणत्तियं एवं होउ एतत्खलु तं पएणं ते आसे तं एएण ते आसे रात्रिकं रात्रिक दव्वं १४३ ૧૪૩ २८ १४४ :४५ १४४ १४४ १४५ १४५ १४५ १९ १४७ १९ ૧૪૭ १४८१-२ १४८ - १२ . १४९ , ५ .. १४९ ... १८ १४९ १४९ १४९ १५३ १० १५३ १९ १५३ ... २९. रा दव्य Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धप्रावेश्यानि १५४ .१५४ १५४ १५५ १६ । २० : 30 चित्र सारथी ગયે . : खलं स शुद्धप्रोवे । । चि सारथी ગથે ख स अत्रय अज्ज्ञथिए निविणणाणा निर्विण्णाणं चि सारथिमेव मर्या हाता है १५७ १५८ ३१ २७ अत्रैव अज्झथिए निविण्णाणा निविण्णाणं चित्रसारथिमेव चित्रसारथिमेव हाता है १५८ १६२ १६२ १६२ जो ૧૬૨ ૨૭’ १६४ १६४ .१६ २४ जढ १६६ १६६ १६७ २६७ મસ્તર વાળા મસ્તકવાળા करेति करोति जडू વચ વચ્ચે पहीसी राया पएसी राया खल खलु पुरि पुरिस अण्ण जवियत्तं . अण्ण जीवियत जीतिं जीवितं अन्नजीवितत्वम् । अन्नजीवितत्वं पवि चयं परिचयं जड ज.पवासष्टि जडं पजुवासति । केशी . . : एसे केसा कुमारसमणे केसी कुमारसमणे प्रासुकैपणीयान्नमात्र विनः प्रासुकैपणीयान्न मात्र जीविनः श्रतज्ञान श्रुतज्ञान प्रकार प्रकार केवलवाणे केवलणाणे १६७ १६८ १६८. केशा १६८ १८ १७ १७२ १७४ १७४ १३ . ११ १८ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ ११ १७६४ १७६ ५ १७६ त था आभिनियो ज्ञानम् अ विष्टम् श्रतज्ञान विषयक प्राप्त भिनिवोधिक ज्ञान अवधि न લાપશમિદ श्रुतज्ञानम् तद्यथा आभिनिवोधिकज्ञानम् अङ्गप्रविष्टम् श्रुतज्ञानविषयक प्रज्ञप्तं आभिनिवोधिक ज्ञान अवधिज्ञान ક્ષાપશમિક श्रुतज्ञानम् तत् १७६ १७६ १७६ १७७ Conymsrur v. ' Kry एतद्रूपं एन्द्रपं उधविसामि चित्तण उपविसामि १७७ १७८ १७८ चित्तण केसीकुमारश्रम मनाऽम: करभरवृत्ति हेतुः केशीकुमारश्रमण मनोऽम करभरवृत्ति १७९ ५८० १८५ १८५ १८६ १८७ अर्धा ए स्वभ्याफि शरार सरीर अधम्मिए स्वस्यापि शरीर सरीरं १८७ ना नो १८८ १८८ मनाऽम विशेषणावशिष्टो खल मनोऽम विशेषण विशिष्टो खलु . पएर्सि : रायं . . .02y or पएसि १८९ राय . एव । सूरियकता तुम सूरियकता १८९ १८९ १८९ १८९ तुमं Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेज शुद्ध १८९ पहायं अशुद्ध पहाय पिछत्त सव्वालंकार भूसिय च्छित्तं १८९ सव्वालंकार भूसियं १८९ परियणं पाग्यणं १९० F22. .yM22 त १९० सम्म १९० लागं लोग १९१ पएसि पएसि पएर्सि देविं १९१ पएसि देवि प्रदेशन १९२ प्रदेशिन् २० डंडं हत्यविन्नग व्यपरापय शकोति शाघ्रमागन्तु शनाति शताति हत्थ भिन्नग व्यपरोपयेत् शक्नोति शीघ्रमागन्तुं शक्नोति शक्नोति ur तुम इस बात सूर्यकान्ता देवी निजक नगर्या मधार्मिको करभरकृत्ति नो शक्नोति तुम सवात् सूर्यकाता देवा निक मगर्यामधामिको करभरवृत्ति ना शनाति शरारया वयासा अह २०० or ur ar armrikarwa x v ~ TM V० ० ० ० २०० शरीरयो वयासी २ अहं Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेज पङ्कि अशुद्ध आज्जया सरीर ૨૦૨ शुद्ध अजिया सरीरं 'आगंतुं अन्नं २०२ आगतु अन्न ना नो ૨૦૨ २०२ २०२ ૨૦૪ २०६ वात्त सा काभवादति इत्यानाह वृत्ति सा काभवदिति इत्यत्राह २०८ चौच पौत्र २०८ वृत्ति वृत्ति २०८ त माद् दिव्वेहि कामभोगेहि तस्मात् दिव्वेहिं कामभोगेहि "_ur x v2 ~ 9m 9 Mont-2273m 9 M अज्ज्ञाववण्णे गधे ठाणेहि २११ २११ . भिगार कडुच्छुय धार्मिकी पडिसुणेजा शीघ्रमागन्तम् . विशेपणांसे देवलाक .. हुणोववन्नए .. २१३ अज्झोववण्णे गंधे ठाणेहि भिंगार कडुच्छय धार्मिको पडिसुजासि शीघ्रमागन्तुम् विशेषणोंसे देवलोक अहुणोचवण्णए उन्हे दिव्वेहिं शकोति अधुनोनोपपन्नक केशी २१३ २१३ २१४ १४ दिव्वेहि शकाति अधुनापपन्नक केग २१४ २१५ २१६ २१७ an २ १४ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७ लोग लाम सधिवाले हिं २१९ २१९ २१९ ะ & # # # जीवित णग्गए अन्न २१९ २२० २२० अउकुभीए x 6 m m + * * २२० २२२२२ ૨૨૨ ૨૨ अयामयेन वारिक किचित् जओ ण अवादित् रोएन्जा समपन्नाः माडम्बक प्रवाव વર૨. २२४ २२४ संधिवालेहि जीवित णिग्गए अन्नं भंते अउकुंभिए अन्नं अयामयेन दौवारिक किंचित् जओ णं अवादी रोएजा सम्पन्नाः माडम्बिक ग्रवाल પિષણ नास्ति किञ्चित् सुष्ट भेरिं च से गुणं वहिया जाव राई अकुण्ठितगतिः सदहाहि सरीरं ऐसा भंते ! जावियाओ ૨૨૪ ૨૨૪ પિયર્થ * * * * * * * * * * * ૨૨૮ २२८ २२९ २३० नास्ति काञ्चत् सुण्ठ भेरिच से तेग वहया वा जाई अंकुण्ठितगतिः सट्टाहि सरीर २३० २३१ * ะ ะ ะ แ ร ะ २३३ २३२ जीवयाओ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ २३४ २३४ २३६ २३६ २३६ १३ १३ तामयस्कुम्भी कृमि कुम्मी मिव जण्हाणं पश्यसि प्रतज्ञा सु तिष्ठि के सकु ारसमणं सादृरश्यम् अचमेण्टक दुदुघण ता पभू अपः जत्तो नायमर्थसंः मर्थः रिल्लएणं तामयस्कुम्भी कृमि कुम्भी मिव जम्हाणं पश्यामि प्रतिज्ञा सुप्रतिष्ठिता केसिकुमारसमणं सादृश्यम् अचमें ष्टकद्रुघण हंता पभू अपज्जतत्तो नायमर्थः समर्थः कोरिल्लएणं २४१ १६ २४१ २४३ २४४ २४४ २४५ v m. Mr जैसे २४५ २४६ २४९ २४९ ૨૪૯ जैसे एग १८ प्रझा ગથી , २७ . परिहिवत्तए जएण કથર प्रभु महं परिवहित्तए जइण કથન प्रभुः जैसा पएसि तरुणो शिल्पोपगतः २५० २५१ ૨૫૧ २५२ २५२ २५३ २५५ २५५ २५६ २५७ पएसि तरुणा शिल्पापगतः ना रोजामम् वाहयायामुपस्थानशालाया वायायामुखस्थानशालायां पपास 24ar ran.. नो २६२ राजानम् वायायामुपस्थानशालायाँ वाहयायामुपस्थानशालायां पएसिं २६२ २६३ १७ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेज २६३ अशुद्ध जीयस्स जीवस्स खलु पएसी खल पएसा एवं एव GMHd वयासी पदानां वयासा पदाना अम्हं अम्ह पाइ पास तसि एगंते संकप्पे संकप्पं झियायमाणं तसि एगत सकपो संकप्प झियायमाण २७० २७० २७१ Fra x x x 22wwwar rnerr a cric. vrrrrry तेसि तेसि २७१ उवएमलद्दे खाइम २७१ ર૭૨ २७२ २७२ २७२ २७२ कचित् वनापजीविन! ज्यातिश्व ज्याति जनं च केह पुरिसो विज्ञवेत्त झियाइ बधइ कराति अरणि उवएसलद्धे ब्राइम रायं केचित् चनोपजीविन ! ज्योतिश्च ज्योतिर्भाजनं च केइ पुरिसा विज्झवेत्ता झियायइ बंधइ करोति अरणि और तएणं २७३ २७५ २७८ २७९ २७९ २७९ २७९ २७९ आर तएण ૨૬ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाणच्छसि अग्निपात् पारकरं पवेशयति परिप मझे वर्तव्यावर्तव्यनिर्णायकानां चक्तम् अवहेल हितुम् योग्याऽग्मि भा : जाणाम अवस्ज्झ पडलो मं वामनामेन अनष्ट स्य ऋपपरिपदि विरुद्धेनत्यर्थः त अयमे प ܘ यात् कान यावच्छे न प्रतिलाम प्रतिलोमेन भङ्गत्रयाक्त क पएसा व्यजने હસ્તામલકવ नातिनिपुणाः त्वमिच्छसि अग्निपात्रे परिकरं परिवेशयति परिषदो मज्झे कर्तव्याकर्तव्यनिर्णायकानां १८ वक्तुम् अवहेलयितुम् योग्योऽस्मि भावः जाणामि अवरज्झड़ पडिलोमं af वामेन अनिष्ट यस्य ऋपि परिपदि विरुद्धेनेत्यर्थः तं अयमेतद्रूप यावत् कारणेन यावच्छब्देन प्रतिलोम प्रतिलोमेन भङ्गत्रयोक्त किं पएसी व्येजते હસ્તામલકવત્ नीतिनिपुणाः २८० ૨૮૨ २८५ २८६ २८७ २८७ २८८ २८८ ૨૮૮ ૮૮ ૨૮૮ ૨૮૮ २८८ २८९ २९२ २९२ २९३ २९३ २९३ २९४ २९४ २९५ २९५ २९६ २९६ २९९ ३०३ ३०३ ३०४ ૩૧૨ ३०८ १६ १५ २ ४ १५ ३ ९ १० १२ १३ १९ १९ १० १ ४ १९ २९ ७ ११ १ on ३-४ ४ و १३ २ १६ ३ ૨૩ ३ mr Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धुकुंधू हत्ती णिच्छिाइ सर कार शालाथाः काट शालायाः त अह एव मोक्ष्मामि समासरगं एव अहगाढवंधणवद्ध कति तए ण विस्तारली पासति जाघ सुबहं पडणेति तउययारं तत्थण बंध त्तए चहाह ग्रारंभ दासीदासगाम हिगवेल कं प्राथचित्ताः मानुष् कान् पचविहे लाह उगच्छाद १९ कुंधू हस्ती णिच्छिट्टाई सतर कार शालायाः कार शालायाः तं अहं एवं मोक्ष्यामि समोसरणं एवं अह गाढवंधणबद्धे करेंति तणं विस्तारवाली पासंति जाव सुबहु पडणे ति तयभारं तत्थणं वधित्तए बहहिं प्रारंभ दासीदास गोम हिसगवेलकं प्रायश्चित्ताः . मानुष्यकान् पंचविहे लोह उवागच्छइ ३१२. mm ३१३ ३१४ ३१८ ३१९ ३१९ ३२१ ३२१ ३२१ ३२१ ३२१ ३२३ ३२३ ३२४ ३२५ ३२६ ३२७ ३२७ ३२८ ३२८ ३२८ ३२८ ३२८ ३२९ ३३० ३३१ ३३१ ३३१ ३३१ ३३२ ३३२ २३ १ ८ १२ ३ ७ ૨૭ 22 ૪ १९ S 19 १३ ~ 22 m 20. 2 or 2. २८ ८ १० १३ १४ १५ ३१ १० १ ১৩ এ ४ ३० १९ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૩ druar ३३६ ३३७ ५,थ्ये। अग्राभिकायोः सापे सड हो वर्णन प्रासादावन्तंसकान् प्रा श्चित्ताः धृतदध्यक्षताः घिलास्यमानाः प्रत्यनुभवता अल्पमल्ये द्वात्रिशद्वैः तित्मयः दुष्टा सानम् अहममि तमाहेतोः अन्तराक्तः પામે अग्रमिकायाः समीपे सङ्ग्रहो वर्णन प्रासादावतंसकान् प्रायश्चित्ताः घृतदध्यक्षताः विलास्यमानाः प्रत्यनुभवन्तो अल्पमूल्ये द्वात्रिंशद्धेः विस्मयः दुष्टावसानम् अहमम्मि तस्माद्धेतोः अनन्तरोक्तः ३३७ y ३३७ ૩૨૭ ३३८ ३३८ ३३८ ३३८ ३३८ ३३८ ३३९ इच्छाम देवानुप्रि णामन्तिके णमंसेज्जा सर पर त्रणामाचार्याणां जनामि वृत्ति मदन अक्षर्मा त्वा णमंसेज्जा सत्र केशाकुमारश्रमणः प्रदेशा इच्छामि देवानुप्रियानामन्तिके णमंसेजा सत्कार त्रयाणामाचार्याणां जानामि वृत्तिं कल्पयेत् मर्दन अक्षमयिस्वा णमसेजा 3३९ 3३९ ३४२ ३४२ ३४२ ur 22 ~ .. .. Torr ३४२ सत्कार केशीकुमारश्रमण ३४२ ૩૪૨ ३४२ ३४४ ३१४ प्रदेशी Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीदृर्शा खादिमेन केसि कीदृशी स्वादिमेन ३४४ ३४५ ३४५ केसि m कनलं ३४६ ३४८ ३४९ अंतेउर परिणनो म सि इयमेव प्रलोम व्याला ३४९ ३४९ Amrk Mmm w9 20 2 कटं अंतेउर परिणतो मनसि इत्यमेव प्रतिलोम व्याख्या श्रयः शायनानन्तरं किंशुकः सौमन स्थितः वोध्यमिति स्वकृत प्रतिकूल महाति महालयायां ३४९ ३५० ३५० ३५१ ३५१ ३५२ ३५२ ३५२ ३५२ शयन नन्तरं fशुक सौमस्यितः योध्यमिति स्वकृत तिकूल महातिमहालायां यङ्ग उपदेय सरिकं प मुहाणं परसिराय पहात्रेय उबसोमेमाणा हासज्जड़ भदन्द गट्टसरलाइया रमणिज्जे वनपण्डा ३५३ ३५३ उपदेश सुरिकंतप्पमुहाण पएसिरायं पहारेत्य उवसोमेमाणा हसिजई भदन्त णझं सालाइवा मणिज्जे वनपण्डो ni... 29 - Manur ना ना ना फलिए नो फलिए Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ उपसोममाणे तयाण उवसोभमोणे तयाणं ३५६ " ३५६ + * * * * * * * जयाण तयाण जयाणं तयाणं तया ३५७ तजा पुान्च पुचि ३५८ केशाने ३५९ २५९ ३६१ ३६३ ३६४ ३६५ ३६६ १ ३६६ हरितक । राज्य जनेक खादिन अतेउरं च खल्ल विमक्त,नि यदेनारभ्य अतेउर रज रायं जपभियं के सत्य राज्यश्रिय सेय विषय पूर्व सूत्रे न सब पडेजागरमाणी अज्झत्यिए वलं- न्यं घा य थापनगृहम् विहरते केशीने हरितकराराज्य अनेक नादिम अंतेउरंच खलु विभक्तानि यदिनारभ्य 'अंतेउरं रजे राज्यं जप्पभियं केणविसत्थ राज्यश्रियं सेय विष पूर्वमत्रे इन सब पडिजागरमाणी अज्झथिए वलं-सैन्यं घान्यस्थापनगृहम् विहरति * * * 9 6 9 " * * * * * * * 9 8 : 29 ३६७ ३६८ ३६९ ३६९ ३७० ३७० ३७०. ३७० ३७१ ३७१ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७१ ३७१ ३७१ ३७१ ३७२ ३७२ शस्त्र योगेन मारयिवा स्थापयेत्वा कार नया कोप जनपद आ मगतो पाल तो सुरियकं । देपी निटुरा दाहवं ते विहह दुरध स पाउन् । वित्तजर परिगयसरीरे इया हिरह करिमश्चित् तस्य नमो थुणं त थ यं संपलियंकनिसने मातिए त सेव ग्रा तिपात शस्त्रप्रयोगेन मारयित्वा स्थापयित्वा कारयन्त्या कोपं जनपदं आत्मगतो पालयतो सुरियकंता देवी नि रा दाहरकते विहाइ दुरध्यास पाउन्सूया पिनजर परिगयसरीरे कडुया ३७२ ३७३ ३७४ ३७४ ३७४ ३७४ ३७४ ३७४ ३७४ ३७४ www vur 28.04. RaM v&42 विहर ३७४ ३७५ कस्मिंश्चित तस्य नमोत्थुणं तत्य गयं संपलियंक निसन्ने अंतिए तस्सेव प्राणातिपात उष्ण परित्याग तं इयाणिं प्रत्याख्यान ३७७ ३७७ ३७७ ३७८ ३७८ ३७८ ३७८ રૂ૭૮ परिया त इणिं प्रयाख्यान ३७९ ३७९ ३७९ . संस्तारक सतारक Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सपल्यङ्क श न नमस् भवान् समत याव अतिचा : सामाथिकः सूर्यामे देव वेन माप्तम् अधुनपपेन्नक भाषाननः पर्याप्त्या सूर्यामदेवेन उपार्जि : इंदि पज्जत्तीए इन्द्रय भते. से ण सूर्याभ भवन्त आयोगप्रयोगसं युक्तानि त च्छर्दि अमस्मिन् कुलणि अङ्काइ दित्ताइ आग च। संपल्यक शब्देन नमस्कार भगवान् २४ समस्त यावज्जीव अतिचाराः सामायिकः सूर्याभे देवत्वेन समाप्तम् अधुनोपपन्नक भाषामनः पर्याप्त्या सूर्याभदेवेन उपार्जितः इंदियपीए इन्द्र भंते सेणं ர் सूर्याभ भवन्ति आयोगप्रयोगसंप्रयुक्तानि विच्छर्दित अन्यतमम्मिन् कुलाणि अ दित्ता ' आयोग चार ८० ३८० ३८० ३८० ३८१ ३८१ ३८१ ३ १६ १६ ३ ३८६ ३८६ १२ १७ 2 ३८३ २ ३८३ ४ ३८३ ४ ३८३ ३८३ ३८३ ३८४ ∞ S ६ १३ no ३८४- ८ ३८४ ३८४ ३८४ ३८५ ३८५ ३८५ ३८५ ३८६ ३८६ ३ १० १२ १३ १ १८ ૨૪ २२ MY M ૩ ४ ३८६ ३८६ ३८६ ३८६ १४ ३८७ १३ ૮ ८ no non Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८९ ३८९ ๓ แs s गभगयसि विकताणं सुकुमाल पाणपाय पियदसण दारय भविष त व्यतिकातेषु दरग्गेसि दारगस दिवसे गभगयंसि विक्ताणं सुकुमालपाणिपाय पियदंसणं दारयं भविष्यति व्यतिक्रान्तेषु दारगंसि दारगस्स दिवसे s s s s ३८९ 3८ ३८९ - ะ แ २९० ३९१ मित्तणाइ मित्तणाइ मगल मंगल ३९१ ३९२ ३९३ भोयणमंडवसि - * * * * * करेगे ३९४ परिभुजेमाणा परमसुइभू। वन्धि परिजनस्य मित्र-ज्ञात त सेव धम्मे करिसति समाप्ते फिरने यश्चित्तौ म आस्वादन्ती आद ३९४ ३९५ भोयणमंडवंसि करेंगे परिभुजेमाणा परमसुइभूया सम्बन्धिपरिजनस्य मित्र-ज्ञाति तस्सेव धम्मे करिस्संति संप्राप्ते फिर वे प्रायश्चित्तौ आस्वादयन्ती आदि दूसरे के कथयिष्यतः जिनप्ररूपिते दृढप्रतिज्ञस्य 29 : ३९६ ३९७ ३९७ ३९७ ३९७ ३९८ ३९८ ३९८ : : : : : : . कथयतः . . अिनप्ररूपिते . दृढ प्रतिज्ञ .. १० . . - २१ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Mar ३२ ४०० ४०० 2 ४०० ४०० वेल वगृहात् वडभियाह पदिभुजमाणे परां गज्जमाणे खीर धाड ए वर्वरीभः वकुशिका भः हे-बहलीहिं घ कञ्चुकि अवपाहिज्जमाणे रिक्षिप्तः वडुप्रकारामिः गिरिकंदरमल्लीण युवति मूहः ह ताद् अन्यया वे लोग स्वगृहान् वडभियाहिं परिभुजेमाणे परंगिन्जमाणे खीरधाइ ए वर्वरीभिः वकुशिकाभिः वहलीहिं धरकञ्चुकि अवयासिज्जमाणे परिक्षिप्तः बहुप्रकाराभिः गिरिकंदरमल्लीणे युवति समूहः हस्तात् अन्यस्या गिरिकन्दरालीनः पडियारं ० ० ० ० ० ० ० ० ० 8 MP ~ ४०१ ४०२ 2? ..v ४०३ ४०३ v ४०४ ४०४ ४०४ ४०५ ४०६ वहं ४०६ पाडचारे वह दढप्रतिज्ञ दढपइण्णं दढप्रतिज्ञ तिहिकरणकखत्त ४०६ ४०६ . x x vri. xxx v ४०६ ने : ४०७ द्रढमतिज्ञ दढपइण्णं द्रढप्रतिज्ञ तिहिकरणणकखत्त नेष्यतः दारकं करणतश्च तएणं गणियप्पहाणाओ वत्थुवीहि वत्थुविज्ज ४०७ दारकं कणतश्च तएण गणि ८ हाणाओ वथवीहिं वथुरा जं ४०७ ४०७ ४०७ ४०७ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ददतिज्ञ तयाहि नगरमानन् ज़िं दृढ संमाणे संति. " ज्जोव्वणगमणुपत्ते परिपक्क उम्मुकवालभाव खड़यं पद्मात्पलमिति दप्रतिज्ञ पउमेड़वा मत्स्यते अ गारिता ईर्ष्या मिता तगा ओ आजवसे वद्धित भग्गेणं • दृढ कुमार भणवयण कायजोगे वस्त्रभोगेप मविष्यति ना श सहस्र ने पलिप्तं सव्वआ तृती सवथा कायात्सर्ग २७: द्रढप्रतिज्ञ तथाहि नगरमानम् दृढप्रतिज्ञ मम्माणसंति " जोल्बणगमणुपत्ते परिपक्क उम्मुक्कवालभाव खाइयं पद्मोत्पलमिति प्रतिज्ञ पउमेवा भोत्स्यते अनगारितां इर्ष्या समित अगाराओ आर्जवसे afa मग्गेणं द्रकुमार मणवयण कायजोगे भागेषु भविष्यति नो शतशहस्त्र नोपलिप्तं सव्वओ तृतीया सर्वथा कायोत्सग ४०९ ४१२ ४१५ ४१८ ४१९ 17 ४२० ૪૨ ४२४ ४२५ ४२६ ४२६ ४२६ ४२७ ४२७ ४२७ ४२७ ४२७ ४२७ ४२७ ૪૨૮ ४२८ ४२९ ४२९ ४२९ ४२९ ४३० ४३१ ४३२ ४३३ ४३३ १६ ८ ܕ २२ ३० २ ३. १४ १७ ३ २५ १ ૐ ર 2282 in १७ १९ २९ १० ३० ४ ४ ४ १ ४ ८ २ २१ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३३ ४३५ ४३७ ४३९ ४३९ ४३९ ४४० कायगुप्तिनिंगद्यते हांगे दोनों समुपपादके नहीं कृञ्जर अर्थात् ईप निररवसानम् तजनाः जस्सद्धाए वेयचेरवासे चरिमेहि आमनः कदे गे इत्यादिकवचनरूपा यस्य कुते सेव भंते! माग कायगुप्तिर्निगद्यते होंगे दोनों समुपादके नहीं कुञ्जर अर्थात्-कषाय निरवसानम् तर्जनाः जस्सटाए वंभचेरवासे चरिमेहिं आत्मनः कादेंगे इत्यादि वचनरूपा यस्य कृते सेवं भंते ! मार्ग ४४३ m20222. vrrm 2 9 mr. ४४३ કદરૂ ४४४ ४४५ ४४६ ४४७ ४४८ ॥समाप्त ॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री बोतरागाय नमः ॥ . श्री-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलाल व्रतिविरचितया सुबोधिन्याख्यया व्याख्यया समलकृतम् श्री राजप्रश्नीयसूत्रम् (हितोयो भागः ) गौतमस्वामी पुनः पृच्छतिमूल-सूरियाभेणं भंते ! देवेणं सा दिव्वा देविड्डी सा दिव्वा देव ज्जुई किपणा लद्धा? किण्णा पत्ता ? किण्णा अभिसमन्नागया ?, पुव्व. भवे के आसी? किं नामए वा किं गोते वा? कयरंसि वा गामंसि वा नगरसि वा निगमंसि वा रायहाणीए वा खेडंसि वा कब्बडंलि वा मडंबसि वो पट्टणंसि वा दोणमुहंसि वा आगरंसि वा आसमंसि वो संवाहसि वा संनिवेसंसि वा किं वा, दचा, कि वा भोच्चा, कि वा किच्चा, किं वा समायरित्ता कस्त वां तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आरियं धस्मियं सुवयणं सुच्चा निसम्म सूरियाभणं देवेणं सा दिव्वा देविड् िदिव्वा देवजुई लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया ? ॥ सू० ९८ ।। छाया-मूर्याभेण भदन्त ! देवेन सा दिव्या देवद्धिः सा दिव्या देवद्युतिः कथं लब्धा कथं प्राप्ता कथम् अभिसमन्वागता ? पूर्व भवे क आसोत् ? .. 'मुरियाभेगं भंते ! देवेण सा दिव्या देविड्डी सा दिव्या उत्पादि..। सूत्रार्थ-(मूरियाभेणं मते ! .. देवेग ‘सा दिव्या देविढिमा दिव्या देवज्जुई. किण्णा लद्धा ? किण्णा पत्ता, किणा अभिसमन्नागया ?) हे 'भदन्त! सरियाभेण' मते ! देवेण सा दिया देविड्डी सा दिव्या' इत्यादि । सूत्रार्थ - (मरियाभेण भने ! देवेण सा दिव्या देविढी सो दिव्या देवज्जुई किण्णा लद्धा ? किण्णा पत्ता, किण्णा अभिसमन्नागया ?) महत Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजश्री यमु निगमे किन्नामको वा ? किं गोत्रो वा ? कतमग्मिन् वा ग्रामे वा नगरे वा राजपान्यां वा खेडे वाकडे वा मम्बे वा पत्तने वा द्रोणमुखे वा आकरे वा आश्रमे वा संवाहे वा सन्निवेशे वा किंवा दवा, किंवा २ roat दिव्य देवति कैसे लब्ध की, कैसे प्राप्त की, अर्थात् किस प्रकार से उगर्जित की 2 किस प्रकार से उपार्जित की गई वह उसने अपने आधीन को, और कैसे उसने अपने आधीन होने के बाद उसे अपने भोग के योग्य बनाया ? (पुन्त्रसवे के आसी ? किना एवा ? किं गोवा कयरंसि वा गामसि वा ? नगरंसि वा निगम सिवा राहाणीए वा खेडसि वा कवडस चा. मडवंसि वा पट्टणासि वा दोष सुहसा आरसा आ वा तथा पूर्वभव में चह किस जाति का था ? क्या इसका नाम था ? गौत्र से वह कौन था ? तथा किस ग्राम में वृतिवेष्टितस्थान में, किस नगर में अष्टादश करवर्जित-: बस्ती में, किसनिगम में मननर वणिग्जन निवासस्थान में किस राजधानी: में-राजाके निवास से युक्त स्थान में किस खेट में धूलिप्राकारपरिवेष्टितस्थान में किस कर्बेट में क्षुल्लक प्राकारपरिवेष्टित स्थान में, किस सडम्ब में साई कोशद्वयान्तग्रामान्तररहित स्थान में, किस पत्तन में जलमार्ग युक्तस्थान में, किस द्रोणमुख में जलस्थलमार्गोपेत जननिवास में, किस आकर में- सुवर्णरत्ना : સૂર્યાંલદેવે તે દિવ્ય તે દિવ્ય દેવવ્રુતિ કેવી રીતે ન ઉપાર્જિત કરીને તેને પોતાને અધીન અનાવી. અને સ્વાધીન અનેલી દિવ્યદેવદ્ધિ વગેરેને તેણે ભાગ ચેોગ્ય કેવી शेते णनावी ? (पुञ्च भवे के ग्रासी १ किं नामए वा ? किं गोते वा ? कमर सि गामसि वा नगर सि वा निगमसि वा रायहाणीए वा खेड सि वा कव्ड सि वा सड'चसि वा पण सिवा दो मुहसि वा आगरा आम तिवा • संवाहंसि वा) मने पूर्व लवभा १४ लतिनो हतो ? तेनुं शु' नाम हुतु : ? तेनु ગોત્ર શું હતું? તે ક્યા ગામમાં વૃત્તિ વૃષ્ટિત સ્થાનમાં, કયા નગરમાં મહારકર જેમાં લેવામાં આવે નહિં તે વસ્તિમાં, કૈયા ' નિગમમાં ગ્િ લેક જેમાં વધારે સખ્યામાં રહેતા હોય તે નિવાસસ્થાનમાં, કઇ રાજધાનીમાં રાજા જે નગરમાં રહેતા होय भने शासन थसावते! होय ते स्थानमा, दया भेटभां भाटीनी हीपास लेने थाभेर णनेती छ तेवी वस्तीभ, या उर्णटभां-नानी हीवासथी परिवृत्त स्थानमां, ५ वस्ती होय नहीं" तेवा स्थानमा દ્રોણુમુખમાં જલસ્થલ માર્ગાપેતજન અઢિ ગાઉ સુધી २ ६२ ी કયા પદનમાં જલમાર્ગ યુકત સ્થાનમાં, કયા Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधिनी टीका सू. ९१८ सूर्याभदेवस्य देवद्धिविषये गौतमस्य प्रश्नः क्वी, किंवा कृत्वा, किंवा समाचर्य कस्य वा तथारूपस्य श्रमणस्य वा माहनस्य वा अन्तिके एकमपि आर्य धार्मिक सुवचनं श्रुत्वा निशम्य सूर्याभेण देवेन सा दिव्य देवर्द्धिः दिव्या देवयुतिः लधा प्राप्ता अभिसमन्वागता ? म्र० ९८ ।। . 'रियाण' इत्यादि । 1 ! टीका-- हे मदन्त | सूर्यासेण देवेन मा दिव्या=देवसम्बन्धिनी देवर्द्धिः = देवसम्बन्धिनी सातिशयविमानादि ऋद्धिः कथं = केन प्रकारेण लब्धा दिंक की उत्पत्तिवाले स्थान में किस आश्रम में तापसनिवास स्थान में, किस संवाह में किसानों द्वारा धान्य की रक्षा के निमित्त निर्मित : दुर्गभूमिस्थान में, अथवा किस संनिवेश में समागतसार्थवाहादि के निवासस्थान में, कि चोदच्चा. किंवा भोचा, किंवा किची, किंवा समायरा करस संरुणस्स चा तहास माहणस्स ची अंतिए एगमवि आयरियं धम्मियं सुवणं मोच्चा निसम्म सूरियाभेण देवेण सो दिवा देवि दिव्वा देवई, लखा, पत्ता, अभिसमण्णागया) अभयदान, सुपात्रदान, करुणादानादिकों में से कौन से. दान को देकर, आचाम्ल आदि तपों में अथवा अन्य किसी समय में कौन से अरस विरस आदि आहार को खा करके, मतिक्रमण, प्रमार्जन आदि किस कृत्यको करके अथवा किस प्रकार के शीलादिक का समाचरण करके किस तथारूप श्रमण-निर्ग्रन्थ साधु के, अथवा किस द्वादशव्रतधारी श्रावक के पास में एक भी तीर्थकर प्रतिपादित पापनिवृत्तिनिरवद्य वचन सुनकर के एवं उन वचनों को आदेयरूप मानकर हृदय में. નિવાસમાં, કયા આકરમાં-સુવણુ રત્ન-વગેરે જ્યાંથી નીકળે છે તેવા સ્થાનમાં, કયા આશ્રમમાં-તાપસ નિર્વાસ સ્થાનમાં, સવામાં-ધાન્યની રક્ષા માટે ખેડૂતોએ જે સ્થાન વિશેષ પર દુ` રચના કરી હોય તે વસ્તીમાં, અથવા ક્યા સંનિવેશમાં–સા વાહો नयां गावीने रहे ते स्थान विशेषोमां, (किंवा दच्चा. किंवा भोचा, किंवा किच्चा किंवा मायरता कसे वा arrest समणस्स वा माहणस्स वा अतिए एगमवि आयरियं धम्मियं सुवयणं सोचा निसम्म मुरियाभेणं देवेणं ग दिव्या देवी दिव्वा देवजुई, लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया) अलयहान, सुपात्रદાન, કાદાન વગેરેમાંથી કયુ દાન આપીને આમ્લ વગેરે તપામાંથી અથવા બીજા કાઇ વખતે ક્યા અરસવિસ વગેરે આહાશ ગ્રહણ કરીને, પૌષધ, પ્રતિક્રમણ, પ્રમાજૈન વગેરે કઈ વિધિ કરીને અથવા શીલ વગેરે કઇ જાતના આચરણાને કરીને કયા तथा३चं श्रभणु-निर्ग्रथ साधुनी अथवा या द्वादृशव्रतधारि श्रावनी पासेथी मे પણ તીર્થંકર પ્રતિપાદિત પાપનિવૃત્તિ-નિવદ્ય વચન સાંભળીને અને તે વચનાને ३ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीयसूत्रे उपार्जिता? कथ केन प्रकारेण प्राप्ता आनिता सती स्वायत्ती भूना! कथं - कन हेतुना अभिसमन्वागता . अभिमुख्यन सम् साङ्गत्येन अनुपश्चात्स्वायत्ती भवनानन्तरम् आगता भोग्यतामुपगता ?, तथा-सा दिव्या देव. शुतिः देवसम्बन्धिनी शरीराभरणादिकान्तिः कथं लब्धा ? कथं प्राप्ता? कथम् अभिसमन्यागता ?, तथा-पूर्व भवे जन्मनि स का किनातीय आसीत् ? किन्नामको वास आसीत् ? किं गोत्र:-गोत्रण वा स क आसीत् ? तथा-- कतमस्मिन् वा ग्रामे-वृत्तिवेष्टिते नगरे-अष्टादश फरवनिते, निगमे-प्रथूततर वणिग्रजननिवासस्थाने राजधान्याम्राज्ञो निवासोपलक्षिते स्थाने वा खेटेधूलिपाकारपरिवेष्टिते, कवटे-खुल्लपाकारपरिवेष्टिते, मडम्बे-साईक्रोशद्वयान्त. ग्रीमान्तररहिते, पत्तने, जलमार्ग युक्त स्थाने, द्रोणमुखे-जलस्थलमार्गोपेते जननिवासे. आकरे सुवर्ण रत्नाधुत्पत्तिस्थाने, आश्रमे तापसनिवासस्थाने, संवाहे-कृषीवलैर्धान्यरक्षार्थ निर्मिते दुर्गभूमिस्थाने, सन्निवेशे-समागतला. र्थवाहादिनिवासस्थाने, किं वा-अभयदानसुपात्रदानकरुणादानादिक :दत्या, किं वा आचामाम्लादितपस्लु अन्यममयेऽपि च अरसविरसादिक भुत्तवा, कि वा-पौपधप्रतिक्रमणप्रमार्जनादिकं कृत्वा, किं वा-शीलादिक समाचर्य - विधाय, कस्य वा. तथारूपस्य श्रमणस्य-निग्रन्थमाधो माहनस्य द्वादशव्रतधारिश्रावकस्य वा अन्तिके-समीपे एकमपि आयम-आय सबन्धिकतीर्थकरप्रतिपादितमित्यर्थः, सुवचन पापनिवृत्तिरूप निरवधवचनं अत्याआकय, निशम्य-तद्राक्यमादेयतया इयवधार्य सूर्याभेग देवेन सा दिव्या देवर्द्धि दिव्या देवद्युतिलब्धा प्राप्ता अभिशमन्त्रागना ? इति ॥ म. ९८ - मूलम्-'गोयमाई' समणे 'भगवं महावीरे भगवं गोयमं ___ अमंतेत्ता एवं वयासी . एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे केयइअद्धे नामे जणवए होत्था,रिथिमियसमिद्धे। तत्थ णं धारण करके इस सूर्याभदेव ने वह दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवधुति उपार्जित . कि है ? अपने आधीन की है ? और अपने भोग के योग्य बनाई है ? ॥ . टीकार्थं इसका स्पष्ट है ॥ म० ९८॥ .. આદેયરૂપથી સ્વીકારીને હદયમાં ધારણ કરીને સૂર્યાભદેવે તે દિવ્ય દેવદ્ધિ દિવ્ય દેવઘતિ મેળવી છે? પિતાને આધીન બનાવી છે? અને પિતાના માટે ભેગ ગ્ય मनापी छ." टीआर्थ:-मानी २५०४ छ. ॥ ८ ॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुयोधिनो; टोकाः ९९ सुर्याभदेवस्य ऋद्धिविषये भगवदुत्तरम् . केय इअद्धे जणयए से यवियाणामं नयरा होत्था, रिद्धस्थिलियसमिद्धा जाव पडिरूवा। तीसे णं सेवियाए नयरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए एत्थणं मिगवणे णामं उजाणे होत्था सव्वोउप पुफफलसमिद्धे रम्मे नंदणंवणपगासे सायलाए सुभसुरभिसीय. लाए छायाए सव्वओचेव समणुबके पासाईए जाव पडिरूवे । तत्य णं सेयवियाए णगरीए पएसी णामं राया होत्था, महया हिमवंत जाव विहरइ । अधम्मिए अधम्मिट्टै अधम्मक्खाई अधम्माणुए अधम्मपलोई अधम्मपजणणे अधम्मसीलसमुयायारे अधम्मेण चेव विन्ति कप्पेमाणे 'हणछिदुभिंद'-पवत्तए लोहियपाणी पावे चंडे रुदै खुद्दे साहसिए उकंचण-वंचण-माया-नियडि-कूड-कवड-लाइ संप ओगबहूले निस्सीले निव्वए निग्गुणे निम्मेरे निपच्चरखाणपोसहो. ववासे बहूणं दुप्पयचउप्पयमियपसुपपरखीसिरिसवाणघायाए वहाए - उच्छेयणयाएः अधग्मकेऊ समट्टिए, गुरूणं णो अब्भुढेइ, णो विणयं पउंजइ, सयस्स वि यणं. जणवयस्स णो सम्मं करभरवित्ति पर्वतेइासू९९॥ ... छाया- गौतम ! इति श्रमशो भगवान महावीरो भगवत गौतमम् आमन्त्रय एवमवादीत्--- .. .. 'गोयमाई' समणे भगत्र महावीरे भगव' गोयम' आमतेचा' इत्यादि । सूत्रार्थ- (गोयमाइ समणे भगव महावीरे भगवं गोयम आमंतेशा एवं वयासी) हे गौतम ! इस प्रकार से श्रमण भगवान् महावीरने भगवान् गौतम को संबोधित कर के इस प्रकार कहा-(एवं खलु गोयमा ! 'गोयमाई' समणे भगव महावीरे भगवं गोयम आम तेत्ता' इत्यादि । । सूत्रार्थ:-(गोयमाइ समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं आमंतेत्ता एवं . वयासी) गौतम ! PAL प्रभारी गौतमने समाधित ४शन मापाने तेने से Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गजप्रश्नोयसूत्रे एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इव जम्द्वीपे-द्वीपे भारते वर्षे के कयाद्र नाम जनपद आसीत् ऋद्रस्तिमितसमृद्धः। तत्र ख केहया जनपदे श्वेतविका नाम नगरी आसीत, ऋद्धस्तिमितममृद्धा यात्रन प्रतिस्या। तेग कालेण तेण सम एण इहेब जंबहीवे दीवे भारहे दास्ले के यादे नामे जणयए होत्था) है लम ! में इस विषय में तुम से कहताह मो तुम. 3 से मुनो-बात ऐमा है-इस अवसर्पिणीकाल के चतुर्थ आरकरूपकाल में और कशि वामी के निकरण के समय में इस जम्बूद्वीप नामके मध्य नम्बट्टीप में भरतक्षेत्र में ककयाई नामका जनपद-देश था. तात्पर्य कहने का यह : है कि के कायदे का आधाभाग आयजनों का निवासस्थानरूप था और. आधाभाग अनार्य जनों का निवाला धानरूप था. उस तरह आर्य अनार्य के निवास्थानभृत होने से केकर देश को यहां आधे आधेरूप में पृथक पृथकू जनपद कहा गया है (रिस्थिनिय समिद्धा जाव पडिरूवा) यह केकयाई ऋद्धनभम्तलम्पर्शी अनेक भवनादिकों से युक्त था, एवं बहुजन संकुल था, .. स्तिमित-स्वचक्र परचक्र के भय से रहित था, एवं समृद्र-धनधान्यादि से परिपूर्ण था बावत प्रतिरूप था (नत्यणं के यइअद्धे जणवर से यत्रिया णामं णयरी होत्या) उम्म केहयाद्ध जनपद में श्वेतविका नामकी नगरी थी. (रिस्थिनियसमिद्धा जाव पडिरूवा) यह नगरी भी ऋद्ध. स्तिमित और समृद्ध श्री. एवं प्रतिरूप-सर्वोत्तम श्री (ती से णं से यावियाए नयरीए बहिया प्रमाणे ह्यु-(एवं खलु गोयमा। तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जद्दीवे दीवे भारहे चासे अद्रं नामे जणवा होत्था) गौतम ! २मा विषेरे ४७ तमने. કહું તે તમે સંભળે. વિગત આ પ્રમાણે છે કે-આ અવસર્પિણી કાળના ચેથા આરકરૂપ કાળમાં અને કેશિસ્વામીના વિહરણના સમયમાં આ જંબુદ્વિપ નામના મધ્ય જંબુઢાપમાં લ.રતક્ષેત્રમાં કયા નામે જનપદ-દેશ-હતો તાત્પર્ય એ છે કે કેક દેશના અર્ધા ભાગમાં આર્યજન નિવાસ કરતાં હતા અને અર્ધા ભાગમાં અનાર્યજને રહેતા હતાં. એથી જ આર્યો અનાર્યોના નિવાસસ્થાનરૂપ તે કેકયપ્રદેશને અહીં અર્ધા ३५i jel odel oraपहोना नामे साधित ४२वामा माये। छ. (रिस्थिमियसमिद्धा जात्र पडिरूवा) मा ४या हे नमस्तपशीgi aqणेથી યુકત હતો, અને બહુજન સંકુલ હવે, સ્વિમિત–સ્વચક્રે પરચકની બીકથી રહિત हत अने. समृद्ध बनधान्य वगेरेथी परिपूर्ण हुतो यारत् प्रति३५ ता. (तत्थण " केयइअझै जणवए से यविया णाम णयरी होत्था) याद्ध पहभां श्वेतवि नामै नगरी ती. (रिद्धस्थिमियसमिद्धा जाब, पडिरूवा) PAL नगरी पY * · तिभित मने समृद्ध हुती.. मने प्रति३५-सर्वोत्तम ती..(तीसे, सेयवियाए Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधिनी टीका सू. ९९ सूर्याभदेवस्य ऋद्धिविषये भगवदुत्तरम् तस्याः खलु श्वेतविकाया नगर्या बहिः उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे अत्र खलु सृगवनं नाम उद्यानम् आसीत् सर्वतुक पुष्पफलसमृद्धं रम्यं नन्दनवन प्रकाशशुभसुरभिशीतलया छायया सर्वन एवं समनुवद्ध प्रासादीयं यावत् प्रतिरूपम् तत्र खलु श्वेतविकायां नय प्रदेशी नांम राजा यासीच-सहा हिसनद - यावद् विहरति । अधार्मिकः अधर्मिष्ठः अधख्यातिः अधर्मानुगः उत्तरपुरस्थि दिमीमागे एत्थ मिगवणे णानं उज्जाणे होत्था) उस श्वेतविका नगरो के ईशान कोने में मृगवन नामका उद्यान था (सब्वोउयपुप्फफलसमिद्धे रम्मे, नंदणवर्णष्पमासे सुभं सुरभिगोयाए छायाएसओ वेब समणुचद्धे पासाईए जान पडिवे ) यह उद्यान छहों ऋतुओं के पुष्पों एवं फलों से युक्त था. अतः मनोरम था. नन्दनवन के जैसा था. शुभ-सुखावह होने से अच्छी, एवं सुरभि - मनोज्ञ एवं शीतस्पर्शवाली ऐसी छाया से सर्वत्र यह समतुबद्ध-युक्त था, प्रासादीय था यावत प्रतिरूप था तथ सेयवियाए णगरीए पएसी णामं राया होत्था) उस श्वेता नगरी में प्रदेशी नामका राजा था, (महमा हिमन जान विरह) इसमें महाहिमवान्, महामलय, मन्दर - (मेरुपर्वत) एवं महेन्द्र के जैसा था ( अम्सिए, अस्मिट्ठे, अधम्मखाई, अधम्माणुए, अधम्मपलोई, अधम्मपजणणे अधम्मसीलसमुयायारे, अधम्येण चेच वित्ति कप्पेमाणे) परन्तु वह धार्मिक नहीं था अधर्माचारी था, अतिशयरूप से अधर्माचरणशील था, अनएव अर्मद्वारा ही यह जगत में प्रसिद्ध हुआ था. अधर्मानुयायी नयरीए बहिया उत्तरपुरस्थि में दिमीमागे एत्थ ण सिंगवणे णाम उज्जाणे होत्था) ते 'ध'तनगरींना पैशानं अणुभां भृगवन नामे' उद्यान इतुः (सन्चो उय पुप्फ, फलसमिद्धे रम्ये, नंदणवणगासे सुभंसुरभिमोयलाए छायाए सन्नओ चेत्र समनद्धे पासाईए जान पडिरूरे) या उद्यान पऋतुयानां पुष्यो तेमन्ट ફળાથી સમૃદ્ધ હતું. એથી નન્દનવન જેવું મનારમ હતું. શુભ-સુખાવહુ હાવા બદલ સારી, અને સુરક્ષિ–મનેાજ્ઞ-અને શીતસ્પ વાળી છાયાથી તે સત્ર સમનુદ્ધ યુકત `तु', प्रसाद्दीयं हृतुः यावत् प्रति३य तु (तस्थ णं सेवियाए नगरीए पएसी णाम राया होत्था) ते श्वेतविभ नगरीमा प्रदेशी नाभे शब्द तो. (महया हिमत जाव विहरह) मां भहाडिभबान, भडाभलय, भौंहर (मेरुपर्वत) मने महेन्द्र नेटसु हेतु: (अधम्मिए, अधम्मिट्ठे, अधम्मक्खाई, अधम्माणुए, अधम्म पलोई, अधम्मपंजणणे, अधम्मसीलसमुयायारे, अधम्मेण चेत्र विति कप्पेमाणे) પણ તે ધાર્મિક હતા નહિ અધર્માચારી હતા, ખૂબ જ અધર્માચરણમાં પ્રવૃત્ત રહેનાર Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीयसूत्रे अधर्मप्रलोकी अधर्मप्रजननः अधर्मशीलसमुदाचारः अधर्मेणैव वृत्तिकल्पयन् 'जहि छिन्धि भिन्धि' प्रवर्तकः लोहितपाणिः पापः चण्डो रौद्रः क्षुद्रः साहसिकः उत्कञ्चन-वचन-माया-निकृति-कूटकपटसतिसम्प्रयोगबहुलो निश्शीलो नितो निर्गुणो निमर्यादो निष्प्रत्याख्यानपौषधोपचासो बहुनां द्विपदचतु. था, अधर्म का ही निरन्तर चिन्तवन किया करता था, प्रजाजनों में भी वह केवल प्रकर्षरूप से अपने उपदेशी द्वारा अधर्म को ही भरा करता था, उसे ही प्रोत्साहित किया करता था, कट२ कर इसके स्वभाव में अधर्म भाव भरा हुआ था, और कार्य भी यह इसी प्रकार के किया करता थायहां तक कि यह अपनी जीविका भी अधर्म से ही चलाया करता था. तथा ('हण-छिंद-भिंद'-पबत्तए लोहियपाणी पावे चंडे, रुदे, खुद्दे, साहसिए. उचाण, बचण. माया-नियडि-क्रूड-कवड-साइ संपओगबहुले, निस्सीले, निम्बए, निग्गुणे, निम्मेरे, निप्पच्चक्रवाणपोसहोवासे वहणं) मारो, काटो, दो टुकडे करदो इत्यादि वाक्यों द्वाग जीवों के हिंसादिक कार्या में अपने आश्रित जनों को प्रवृतिशील बनाया करता था, इस के हाथ सदा रक्त से भरे रहते थे, यह साक्षात् पापका आतार था, क्यो कि पापकर्म में यह सदा पराया बना रहता था, यह बहुत अधिक क्रोधी था, रोद्र-करस्प होने से भयानक था, तुच्छ बुद्धिवाला होने से क्षुद्र था. सहसाकमकरणशील . હતે. એથી તે અધમીના રૂપમાં જ જગતમાં પ્રસિદ્ધ થઈ ગયું હતું. તે અધમનુયાયી હતું તે રાતદિવસ અધર્મનું જ ચિંતન કર્યા કરતો હતો. પ્રજાની સામે પણ તે ચાધર્માચરગ તરફ પ્રવૃત્ત થવાના ઉપદેશ આપતે રહેતે હતે. તે અધર્મને જ પ્રોત્સાહિત કરતે રહતે હતો. તેના અણુ અણુમાં અધર્મ જ વ્યાપક થઈ રહ્યો હતું. તેના બધાં કાર્યો પણ અધર્મથી પ્રેરાઈને થતાં હતાં તે પિતાનું ભરણ चा५५५ ।" पY Aधर्मना आधारे ०८ ४२तो तो. तेभा ( "हणछिंद भिंद पवनए लोहियपाणी पावे चडे, रहे, खुदे साहम्सिए, उक्कंचण, वचणे, मायानिय डि-ड-कबडे माउस पओगबहुले. निस्सीले, निव्वए, निग्गुणे, निम्मेरे, निप्पच्चखाणपोसहोववाले बहूणं ) भारी, पी, में. ४४ ४२ नामे वगेरे वायो વડે તે જીવના હિંસા વગેરે કાર્યોના પિતાના આશ્રિતને પ્રવૃત્તિશીલ વખતે હતે. તેનાં હાથે સદા રકતથી ખરડાએલા રહેતા હતા. તે સાક્ષાત્ પાપને અવતાર હતે. કેમકે તે સદા પાપ પરાયણ જ રહેતો હતે. અપહ બહુજ ક્રોધી હતો, રિદ્રિક્રરરૂપ હોવાથી ભયાનક હતું, તુચ્છબુદ્ધિવાળે હોવાથી ક્ષુદ્ર હતા, સહસાકમકરણશીલ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका. ९९ सुर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् पदमृगपशुपक्षिसरीसृपाणां धाताय वधाय उच्छेदनाय अधर्मकेतुः समुत्थितः, --- गुरूणां नो अभ्युत्तिष्ठति नो विनय प्रयु., स्वकस्यापि च जनपदस्य नो सम्यक् करभरवृत्ति प्रवतयति ।। सू० ९९ ।। होने से अर्थात् विना विचारे कार्य करनेवाला होने से साहलिक था, उत्कोचलांच, वंचन-परप्रतारण, माया-एरवचनबुद्धि, निकृतिगूढमाया, कूट-गूढमाया को ढंकने के लिये अन्यमाया करना, कपट-वेष भाषा आदिको बदलनाविपरीत बना लेना, इन सब का जो सातिसंप्रयोग-प्रकर्षरूप से व्यापार उस व्यापार से यह व्याप्त था, तथा, निश्शील-शीलवर्जित था, नित हिंसादिककुकृत्यरूप पापों से विरति का अभाववाला होने से व्रतरहित था, निगुण-क्षान्त्यादिक गुणों के अभाव से युक्त होने के कारण निर्गुण था, निमर्याद:-मर्यादा रहित था, परस्त्री वर्जनादिरूप मर्यादा से रहित होने के कारण निमर्याद था, प्रत्याख्यान, पौषध और उपवास इनसे रहित था, तथा अनेक (दुप्पयचउप्पयमियपशुपक्खी सिरिसवाणघायाए पहाए उस्लेयणयाए, अधम्म के ऊ समट्टिए) द्विपद-मनुष्य वगैरह, चतुष्पद-मृगादि वगैरह पशु-प्राम की गाय वगैरह, सरीसृप-भुजपरिसर्प एवं उर परिसर्प-नकुटा सर्प आदि इन सब की हत्या करने, इन्हें मारने में-चोट पहुंचाने में और प्राण रहित करने के लिये अधर्मरूप केतुग्रह के जैसा उत्पन्न हुआ था, अर्थात् केतुग्रह के उदित होने पर लोक में जिस प्रकार से હોવાથી એટલે કે વગર વિચાર્યું કાર્ય કરનાર હોવાથી તે સાહસિક હતે. ઉકેચસાંચ, વચન-૧ર પ્રતારણ, માયા-પરવચન બુદ્ધિ નિકૃતિ-ગૃહ માયા, કુટ-માયાને તાવવા માટે બીજી માયા કરવી, કપટ વેષ ભાષા વગેરે બદલી નાખવા, ખા બધા કર્ણની પ્રતા તેમાં વિદ્યમાન હતી, તથા તે નિશીલ-શીલ વર્જિત હતા, નિતહિંસા વગેરે કુકૃત્યરૂપપાપ તરફ પ્રવૃત્તિ રાખનાર હોવાથી તે 'બત વગર તે, 'નિર્ગુણ- ક્ષાન્તિ વગેરે ગુણે તેમાં નહોતા તેથી તે નિર્ગુણ હ, નિર્ભયાદ-અયોધ શહિત હતા. પરસ્ત્રી વર્જનાદિરૂપ મર્યાદાથી રહિત હોવા બદલ નિર્મદ હતા તે प्रत्याभ्यात, पो५५ गने पास 4 ता. l (दुप्पय चउप्पय मियपसुपक्खी सिरिसवाणधायाए पहाए अच्छेधणयाए, अधम्म के समुहिए) द्विपक्ष"भास वगेरे यतुष्पह-भृश वगेरे, पशु--आय वगैरे, पक्षी-यसीमा वोरे, सरी“ભુજપરિસર્ષ અને ઉર પરિસર્પન્નકુલ સ વગેરે આ બધાને હણવામાં, મારામાં. ‘એને એમને સમૂલ નષ્ટ કરવામાં તે અધર્મને પ્રત્યક્ષ અવતારે અને કેતુ ગ્રહ જે ઉદિત થયે હતે. એટલે કે કેતુગ્રહ જ્યારે ઉદિત થાય ત્યારે લેકમાં જેમ ઘણા .. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० राजप्रश्नीयसो ... 'गोयमा !-इति-- टीका---गौतमस्वामिनः प्रश्न श्रुत्वा श्रमणो भगवान महावीरो भगवन्तं गौतमस्वामिनं 'गौतम' इति आमन्त्र्य-सम्बोध्य एवं वक्ष्यमाणमकारेण अवादीत् उक्तवान्-हे गौतम ! एवं खलु त्वम् जानीहि-तस्मिन् काले अस्या अवसर्पिण्याश्चतुर्थारकलक्षणे काले, तस्मिन् समये केशिस्वामि विहरणोपलक्षिते समये इहैव जम्बूद्वीपे हीपे सध्यजम्बूद्वीपे भारते वर्षे भरतक्षेत्रे केकयाई नाम जनपदो-देश आसीत् । अत्रेदं बोध्यम्- केकयदेशस्य पाईम् आर्यजननिवासस्थानम्, अर्थ च अनाजन निवासस्थानम् । आर्यानार्य यो निवासभूतत्वात् केकयस्य अद्वयं पृथक्पृथग्जनपदत्वेन विवक्षितमिति । स केक याई जनपदस्तिमितसमृद्धः-तत्र-द्धानमःस्पशिबहुलप्रासादयुक्तो वहुन्छ जनसंकुलश्च, स्तिमित स्वचक्रपरचक्रलयरहितः, सगृद्धा धनधान्यादिपरिपूर्ण 'पदत्रयस्य कर्मधारयः। तत्र · खलु केकया -जनपदे श्वेतविका नाम नगरी 'आसीत् । सा नगरी ऋद्धस्तिमितसमृद्धा यावत्-प्रतिरूपा । यावत्पदेन-औप. पातिकसूत्रोक्तंचम्पानगरीवर्णनपरः पदसमूहोऽत्रापि योध्यः। प्रतिरूपा सर्वोत्तमा च आलीत् । तस्याः खलु श्वेतत्रिकायाः नगर्या बहिः यायप्रदेशे उत्तर- । पौरस्त्ये दिग्भागे ईशानकोणे अत्र खलु मृगवन नाम उद्यानम् आसीत् । तत् । उद्यान : सर्व कपुष्पफलसमृद्धम् पडून्तुसम्बन्धिपुष्पफललमन्धित रम्य%D “अनेक विप्लव (उपद्रव) होते हैं, उसीप्रकार से इस राजा के शासन होने ...पर देशभर में बाल था, (गुरूणां णो अन्खुइ, णो विणय पउजह, सयस विय पं. जणवयस्स णो सम्भं करभरवृत्तिं पबत्तेह) आते हुए मातापितांदिरूप गुरुजनों को देखकर यह उनका आदर करने के लिये खडा नहीं होता था, उनके विषय में वह बिनययुक्त नहीं होता था, तथा अपने जनपद केकया जनपद के प्रजाजनों की कर लेकर भी पालनरूपत्ति यथार्थ रूप से नहीं करता था. । વિસ્લ (ઉપદ્ર) થાય છે, તેમજ આ રાજાના શાસનકાળમાં સમસ્ત દેશમાં ત્રાસ भने PAaiतिनु वातावरण प्रसरी २[ तुः (गुरूणां णो अब्भुट्ठए, णो विणय उपजइ, मयस्स वि य णं जणक्यस्स जो सम्मं करभरविन्ति पवत्तेइ) भातiyat . વગેરે ગુરુજનેને આવતા જોઈને પણ તે તેમને આદર કરવા માટે ઉભે થતું ન ૬ હતું. તેમની સામે તે વિનયશીલ થઈને રહેતો ન હતો. તેમજ પોતાના જનપદ કેયાર્દ જનપદની પ્રજા પાસેથી ટેકસ લઈને પણ તે સરસ રીતે તેમનું પાલન કે રક્ષણ કરતું ન હતો. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका' सु. ९९ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् मनोरमं नन्दनवनप्रकाश नन्दनवन सदृश, शुभसुरभिशीतलया शुभा = सुखावहत्वेन शुभां सुरभिः = मनोज्ञा शीतला = शीतस्पर्श युक्त, पदत्रयस्य कर्मधारयः तथाभूतया छायया सर्वत एव = सर्व प्रदेशावच्छेदेनैव समनुद्धां = युक्तां मासादीयां यावत् प्रतिरूपां चासीत् । तत्र खलु श्वेतविकार्या नग प्रदेशी नाम राजा आसीत् । स प्रदेशी राजा महाहिमवन्महामलय मन्दर महेन्द्रसारो यावद विहरति । प्रदेशिराजस्य सकलं वर्णनमोपपातिकसूत्रकृणिकराजवद् वोध्यम् । स प्रदेशी राजा तु अधार्मिकः- धर्मेण चरति धार्मिकः, न धार्मिको धार्मिक-अधर्माचारी, अधार्मिकस्तु सामान्यधर्माचरणेनापि भवति, . अत: आह- अधर्मिष्ठ इति । अधर्मिष्ठः = सातिशयाधर्माचरणशीलः, अख्यातिः - अधर्मेण ख्यातिर्यस्य स तथा अधर्म द्वारैव जंगति प्रसिद्धिं गतः, अधर्मानुगः- अधर्मम् अनुगच्छतीति- अधर्मानुगः- अधर्मातु: यायी, अधर्म मलोकी-अधर्म मेव मलोकते = निरन्तर विचारयति यः सः-अधर्मविषयक विचारपरायणः, अधम प्रजनन :- अधर्ममेव प्रकर्षेण जनयति उत्पादयति लोकेषु यः सः प्रजास्वपि अधर्मभावोत्पादक इत्यर्थ:, तथा अधर्म शील समुदाचारः- अधर्म एवं शीलं = स्वभावः समुदाचारः =अनुष्ठानं च यस्थ स तथा अधर्म मयस्वभाययुक्तः अधर्मानुष्ठानपरायणश्चेत्यर्थः, तथा अधमेंणैव वृत्तिं =जीविकां कल्पयन् कुर्वन्, तथा - जीवान् प्रति जहि = मारय, छिन्धि= विदारय भिन्धि=द्विधाकुरु' इत्यादि वाक्यैः प्रवर्त्तकः =स्वाश्रितान् जनान् प्रवर्त्त - . यिता, अतएव - लोहितपाणिरकखरष्टितहस्तः, पापः = पापस्वरूपः - सर्वदा पापपरायणत्वात्, चण्डः=चण्डस्वरूपः- तीव्रतरकोपावेशात् रौद्रः =भयानक:= त्वात्, क्षुद्र = तुच्छबुद्धित्वात् साहसिका = सहसा कर्म करणशीलः - असमीक्षितकारित्वात्, तथा उत्कञ्चन - वञ्चन-माया - निकृति - कूट-कपट - सांतिसम्प्रयोगबहुल:- तत्र - उत्कश्चनम् = उत्कोचग्रहणम्, 'उत्कोच: ' - 'लाच' इति भाषा 1=क्रूररूप टीकार्थ - इसका, मूलार्थ - जैसा ही है-श्वेतविक नगरी का वर्णन औरपातिकसूत्र में वर्णित चंपानगरी जैसा ही जानना चाहियेयही बात यहां यावत्पद से प्रकट की गई है तथा प्रदेशी राजा का भी वर्णन औपपातिकसूत्र में वर्णित हुए कूणिक राजा के जैसा ही समझना । सू. ९९ ॥ ટીકા :-મૂલા પ્રમાણે જ છે. શ્વેતવિકા નગરીનુ વર્ણન ઔપપાતિક સૂત્રમાં વ ંત ચંપાનગરી જેવું જ સમજવું જોઈએ. યાવત પદથી એજ વાત અહીં સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે. તેમજ પ્રદેશી રાજાનુ` વન પણુ ઔપપાતિક સંત્રમાં વર્ણિત ટ્રૅણિક રાજા જેવું જ સમજવું જોઇએ. પ્રસૂ॰ ા Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीयसूत्र प्रसिद्धः । वञ्चन परप्रतारण माया परवञ्चनवुद्धिः, निकृतिः गृढमाया, कूटम् गूढमायाच्छादनार्थ मन्यमायाकरणम्, ऋपट वेषभापाविपर्ययकरणम्, एपां , यः सातिसम्मयोगः पण व्यापार तेन बहुल:-व्याप्तः, लथा-निश्शील = . शीलव जितो ब्रह्मचर्यरहितत्वात, नितातरहितो हिलादिविरत्यभावात, निगुणगुणरहित:-क्षान्त्यादिगुणाभावात, निर्यादा मर्यादारहित:-परस्त्रीपरिवर्जनादिरूप मर्यादारहितत्वात, निष्प्रत्याख्यानपौपधोपवास: प्रत्याख्यानपौषधोपचास वर्जितः, तथा-बहूनां द्विपद-चतुष्पद मृगपशुपक्षिसरीसृपाणी, तंत्रद्विपदा: मनुष्या-दासीदासादयः, चतुष्पदाः ये मृगा: आरण्याः, पशवो-ग्राम्या गवादयश्च ते-चतुष्पदंमृगपशवः, पक्षिणः-प्रसिद्धाः, सरीसृपा भुजोरुभ्यां सर्पणशीली गोधादयः, एषां पदानामितरेतरयोगद्वन्द्वः, तेषां घाताय-विनाशनाय घाय-ताडनाय उच्छेदनाय-निमलनाय अधम केतुः अधम रूपकेतुग्रह इव समुत्थितः समुद्गतः। केतुग्रहे समुदिते सति लोके विप्लवो भवति, तथैवास्मिन नृपतौ शासके सति जनपदे त्रासो वर्तते। तथा-स गुरूणां नो अभ्युत्तिष्ठति-आगच्छतो गुरुन्-मातापित्रादीन् दृष्ट्वा तेषामादर फनु न अभ्युत्थीती भवति, तेषु-पित्रादिगुरुजनेषु विनयं नो प्रयुके विनययुक्तो न - भवतिः तथा-स प्रदेशी राजा स्वकस्यापि च जनपदस्य केकयाई जनपदस्य खल करभत्ति-करात करंगृहीत्वा यो भरः प्रजानां पालन तद्रूपा या सिस्तों सम्यक् याथातथ्येन न प्रवर्तयतिन विदधाति । स्वजनपदस्थापि : रक्षणकर्मणि समुधुक्तो न भवतीत्यर्थः ॥१.० ९९॥ 3 . मूलम्-तस्स णं पएलिस्ल रन्नों सूरियकता नाम देवी होत्था, सुकुमालपाणिपाया धारिणी वण्णओ। पएसिणा रन्ना सद्धिं अणुरता अविरत्ता इडे लदे रूवे जोव विहरइ ॥ सू० १०० ॥ ..छाया--तस्य खल प्रदेशिनो राज्ञः सूर्य कान्ता नाम देवी आसीत, सकमालपाणिपादा धारिणीवर्णकः । प्रदेशिना राज्ञा सार्द्धम् अनुरक्ता ... अविरक्ता इष्ठान् शब्दान् रूपाणि याचद विहरति ॥० १०० ॥ .. . 'तस्स पएसिस्स रन्नो' इत्यादि। चार्थ--(तस्स णं पएसिस्स. रनो) उस प्रदेशी राजा की (सरियकाता नाम देवी होत्या) सूर्यकान्ता नामकी रानी थी (सुकुमालपाणिपाया 'तस्स ण पएसिस्स रन्नो' इत्यादि । । सूत्रार्थ:-(तस्सपएसिस् रनो) ते अशी राजनी..(सरियकता नाम देवी होत्था) सूर्य:ial नामे राणी ती. (सुकुमालपाणिपाया धारिणी वणओ) - ... ....... Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सू. १०० सूभिदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् टीका-'तस्स ण' इत्यादि---- . तस्य-पूर्वोक्तस्य खलु प्रदेशिनो राज्ञः सूर्यकान्ता नाम. देवी-राज्ञी आसीत् । सा सूर्यकान्ता देवी सुकुमालपाणिपादा-सुकुमालं सातिशयकोमल पाणिपाद' हस्तौ पादौ च यस्याः सा तथाभूताऽऽसीत् । सूर्यकान्तायाः सर्व वर्णन धारिणीवद् बोध्यम् । एतदेव सूचयितुमाह-धारिणीवण्णओ' इति औपपातिकमत्रोक्तधारिणीबद् बोध्यम् । ला मूर्यकान्ता देवी प्रदेशिना राज्ञा साद सह अनुरद्धा-सातिशयम मयुत्ता अविरक्ताम्मातिकूल्य गतेऽपि पत्यौ स्वयं सदा प्रसन्नवदना सती इष्यन् अभिलषितान, शब्दान् रूपाणि यावगन्धान् रसान् स्पर्शाश्चेति पञ्चविधान् मनुष्यान्-मनुष्यसम्बन्धिनः कामभोगान् प्रत्यनुभवन्ती-उपभुजाना विहरति ।मु० १००॥ ____ मुलम्-तस्स णं पएसिस्स रण्णो जेट्टे पुत्त सूरियकंताए देवीए अत्तए सूरियकंते नाम कुमारे होत्था, सुकुमालपाणिपाए जाव पडि. रुो। में णं सूरियकंते कुमारे जुवराया वि होत्था, पएसिस्स रन्नो धारिणीवष्णओ) इसके हाथ पैर आदि अवयव बडे ही सुकुमार थे. इसका पूर्ण वर्णन धारिणी रानी के जैसा ही है. धारिणी का वर्णन औषपातिक सूत्र में दिया गया है। (पएसिणा रन्नो सद्धि अणुरत्ता अविरत्ता इट्टी सद्दी रूवे जाब विहरइ) प्रदेशी राजा के साथ यह सातिशय प्रेम युक्त बने होकर अभिलषित मनुष्य संबंधि कामभोगों को भोगती थी, यदि राजा कभी प्रतिकूल भी हो जाता तो उस समय यह उससे प्रतिकूल नहीं बनती, प्रत्युत्त सदा प्रसन्नवदन ही रहती, वहां 'शब्दरूप से रूपं गंध, रस और स्पर्श ये पांच प्रकार के कामभोग गृहीत हुए हैं। . टीकार्थ स्पष्ट है ॥ सू० १००॥ તેના હાથપગ વગેરે અવય અતીવ સુકુમાર હતા. રાણુનું વર્ણન ધારિણે રાણી २४ छ. मोपपाति सूत्रमा धारिणीनु वर्णन ४२वाभा माव्यु छ. (पएसिणा रनो सद्धि अणुरत्ता अविरत्ता इ स रुवे जाब विहरह) धेशी शंतनी સાથે તે સાતિશય પ્રેમયુકત વ્યયવહાર રાખીને અભિલષિત મનુષ્ય સંબંધિ કામ ભેગે જોગવતી હતી. જે કદાચ રાજા કોઈ દિવસ પ્રતિકૂલ થઈ જતો તે તે તેની સામે અનુકૂલ થઈને જ રહેતી હતી. તે સદા પ્રસન્ન વદન જ રહેતી હતી. અહીં "१७४३५ यी ३५, ५, २६ मने २५ मे पाय प्रा२ना मलागानु अडथयु छ. 'ટાકર્થ સ્પષ્ટ છે. ૧૦ના Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ सूत्रे रज्जं च रट्ठ ं च बलं च वाहणं च कोर्स व कोट्टागारं च पुरं च अंते उरं च सयमेव पच्चुवेक्खमाणे पशु वेक्खमाणे विहरइ ॥ सू० १०१ || छाया तस्य खलु प्रदेशिनो राज्ञो ज्येष्ठः पुत्रः सूर्यकान्ताया देव्याः आत्मज: सूर्यकान्तो नाम कुमार आसीत्, सुकुमालपाणिपादो यावत् प्रतिरूपः । स खलु सूर्यकान्तः कुमारो युवराजोऽप्यासीत्, प्रदेशिनो राज्ञो राज्यं च राष्ट्रं च वाहन' च चल' च कोश च कोष्ठागार च पुरं च अन्तःपुर च स्वयमेव प्रत्युत्प्रेक्षमाणः प्रत्युत्प्रेक्षमाणो विहरति ॥ १०१ ॥ . 'तएण पएसिस्स रणो' इत्यादि । सूत्रार्थ -- (तरण पएसिस्स रण्णो जेट्टे पुत्रं सूरियकताए देवीए अंत्तए रिक नाम कुमारे होत्था) उस प्रदेशी राजा के पुत्र था, जिसका नाम सूर्यकान्तं था यह सूर्यकान्तादेवी से उत्पन्न हुआ था ( सुकुमालपाणिपाए जान पडिये) इसके हाथ -पग बडेही सुकुमार थे. यावद यह प्रतिरूप - सर्वोत्तम था. यहां यावत् शब्द प्रकट करने के लिये प्रयुक्त हुआ है कि औपपातिक "मुनोत धारिणी के वर्णन में आगत पदसमूह में पुल्लिङ्ग की विभक्तियां लगाकर सूर्यकान्त का वर्णन करना चाहिये. ( से णं सूरियकते कुमारे fasोत्था) यह सूर्यकान्त कुमार युवराज भी था. अतः वह पएसिस्स रन्नो रजच र चवलं च वाहणं च कोडागार' च पुर ं च अतिउर' च सयमेव पच्चुवेक्खमाणे२ विहरइ) प्रदेशी राजा के राष्ट्रादिसमुदायरूप राज्यका, जनपदरूप (देश राष्ट्रका, सैन्यरूप वल का, हस्त्यादि एवं शिविकादिरूप बाहम 4 'त एण पए सिस्स रण्णो' इत्यादि । :- सूत्रार्थः—(त एग पएसिस्स रण्गो जेह े पुत्ते रियकताए देवीए अत्तर सूरियकते नाम कुमारे होत्था) (ते अहेशी शन्नने पुत्र हुतो. सूर्यअंत नाभ हुतु. ते सूर्यछांता हेवीना गर्भथी उत्पन्न थयेो हतो. (सुकुमालपाणिपाए जात्र पडिरूवे) तेनां हाथ या मडुन सुट्ठीभण हुतो. यांत्रत ते प्रति३५- सर्वोत्तम હતો. અહી યાવત્ શબ્દના પ્રયાગ એટલા માટે કરવામાં આવ્યા છે કે ઔષપાતિક સૂત્રના ધારિણીના ૫ વર્ણનમાં જે પદો આવ્યાં છે તેમાં પુલ્લિ’ગની વિભક્તિએ લગાડીને सूर्य अंतनुं वार्ष्णेन समन्वु ले (से ण' सुरियक ते कुमारे जुवराया वि होत्या) ो सूर्यअंत ङ्कुभांर युवशन या तो मेथी (एमिस्स रन्नो रज्न च रट्ठ च बलं च वाहण ं च कोस च कोडागार' च पुर में अंतेउर च सयमेव पच्चु वेक्खमाणे २ बिहरइ) પ્રદેશી રાજાના રાષ્ટ્રાદિ સમુદાયરૂપ " રાજયનું, જનપદરૂપ રાઈ, સૌન્યરૂપ મળવુ, હસ્તિ વગેરે અને શિખિકા વગેરે વાહનનુ, ભાંડાગારરૂપ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुयोधिनी टीका. सूव्र १०१ सुर्याभदेवस्य पूर्व-भजीवप्रदेशिराजवर्णनम् . १५ टीका-'तस्स णं इत्यादि तस्य खलु पूक्तिस्य प्रदेशिनो राज्ञो ज्येष्टः पुत्रः मुर्यकान्तायाः देव्या आत्मजा अङ्गजातः सूर्यकान्तो नामकुमार आरसीद, स कुमार: मुकुमालपाणिपादो यावत्पतिरूपश्च आसीत् । यावत्पदेन औपपातिकसोक्तधारिणीवर्णकग्रन्थः पुल्लिङ्गत्वेन बिपरिणमय्यान ग्राह्य इति । स खलु सूर्यकान्तकुमारो युवराजोऽपि आसीत् । स सूर्य कान्तो युवराजः प्रदेशिनो राज्ञो राज्य राष्ट्रादिसमुदायात्मक च, राष्ट्र जनपद, वलसन्य, वाहन = हस्त्यादिक शिविकादिक च, कोशमाण्डागार कोष्ठागार-धान्यगृह पुर' नगर', अन्तःपुरच स्वयमेव - प्रत्युत्प्रेक्षमाणः प्रत्युत्प्रेक्षमाणः निरीक्षमाणो .विहरति-राज्यराष्ट्रादि सर्व व्यवस्थां पश्यतीत्यर्थः ।।मू० १०१॥ ... . मूलम्-तस्त णं पएसिस्स रन्नो जेटू माउयवयंसए चित्ते णामं सारही होत्था अढे जाव बहुजणस्त अपरिभूए साम-दंड भेय उव प्पयाणअत्थलत्थ ईहामइविसारए उप्पत्तियाए वेणइयाए कम्मयाए पारिणामियाए चउठिवहाए बुद्धीए उबवेए, पएसिस्स रपणो बहुसुकज्जेसु य कारणेलु थ कुटुंबेसु य मंतेसु य गुज्झेसु य रहस्सेसु य निच्छएसु य ववहारेसु य आपुच्छणिजे पडिपुच्छणिज्जे मेढीपमाणं आहारे आलेषणभूए बक्खुभूए सव्वाण सव्वभूमियासु लद्धयच्चए विइण्णवियारे रज्जधुरोचिंत, यावि होत्था ॥ सू० १०२ ॥ . छाया--तस्य खलु प्रदेशिनो राज्ञो ज्येष्ठ भाई वयस्यकश्चित्रो नाम सारथि रासीत् । आढयो यावद् बहुजनस्य अपरिभूतः लाम-दण्ड भेदोपपदानार्थ का, भाण्डागाररूप कोश का, धान्यगृहरूप कोष्ठागार का, एवं अन्तःपुर का । अपने आप ही सभयर पर निरीक्षण अबलोकन करता था. टीकार्थ स्पष्ट है ।। मू १०१ ।। .:. 'तस्स. णं पएसिस्स, रन्नो जेट भाइयवयंसर' इत्यादि। . सूत्रार्थ--(तस्सण - एसिस्म रन्नो जेट माउयवयंलए) इस प्रदेशी કેશનું, ધાન્યગ્રહરૂપ કેષ્ઠાગારનું, નગરનું અને અંતપુરનું પિતાની મેળે જ યથા સમય નિરીક્ષણ કરતો હતો. એટલે કે તે રાજય રાષ્ટ્ર વગેરેની સર્વ વ્યવસ્થાનું અવલોકન કરતે હતો. ટીકાર્થ સ્પષ્ટ છે. ૧૦૧ 'तस्स · पएलिस्त रन्नो जेड भाउयवयं सए' त्यादि. सूत्रार्थ-(तस्स णं पएसिस्स रन्नो जे भा उय वयंलए) ते प्रदेशी ने Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ गजप्रश्नीयसूत्रे राजा का जेष्ठ भाइ के जैसां एवं अधिक उमरवाला (चित्रों णाम सारही होत्या) चित्र नाम का सारथी था. ( अड्डे जात्र बहुजणस्स अपरिभूए सामदंड-भेय - उवपयाण अत्यसत्य ईहा मइविसारए) यह चित्र सारथी आयसमृद्ध था. यात बहुजनों द्वारा भी अपरिभूत था. वहां यावत् शब्द से 'दिदी वित्थिष्ण चिडल - सयणासण जाण-इणे, बहुधण-वहुजा यरूच - रयए, आओगसंपओगसंपत्ते, विच्छड्डियविउ लभत्तपाणे, बहुदासीदासगोमहिसगवेलयप्पभूए' इसपाठ का संग्रह हुआ है इसका अर्थ इस प्रकार से हैयह चित्र सारथि दीप्स- तेजस्वी था, इसके बडे २ अनेक मकान थे, चढेर अनेक तल्प (शय्या) थे, बढेर अनेक पीठकादिक आसन थे शकटमभृति ( गाड़ी वगैरह.) यान थे, अभ्वादिकों से यह सदा आकीर्ण : - युक्त बना हुआ था, त्रिपुल धन ' का गणिम आदि द्रव्य का, यह स्वामी था. इसके पास त्रिशुल स्वर्ण था, तथा रजत-चांदी थी. आयोगप्रयोग से यह संप्रयुक्त था, द्विगुणादिलाभ के लिये रुपया आदि को कर्ज लेने वालों के लिये देना इसका नाम आयोग हैं, और इसका उपाय चिन्तन करना सो प्रयोग है. अथवा अपने द्रव्य को दूमा आदि करने की लिप्सा से अधमर्ण - कर्ज लेने वालों को उसे देना - इसका नाम आयोगप्रयोग संप्रयुक्त है. यह चित्र सारथि इस अधिक बच्चों ९ · · भोटालाई नेवा उभरभां तेना पुरती वधारे (चित्ते णामं सारही होत्या) चित्र नाभे उत्ते, • सारथि हतो. (अडे जात्र बहुजणस्स अपरिभूए साम-दंड-भेय उवत्पयाण अथ सत्य ईहा मह विसारए) मे थित्र सारथि माढ्य समृद्ध हुतो. यावत् अने सोडोथी अपरिभूत इतो, गड्डी यावत् शब्थी "दित्त' वित्थिष्ण विउलसयणासण 'जाण - वाहणा - इण्णे. बहुधण-बहु जाय-रूव - रयय, आओगसंपओगसंप विच्छडिविल पाणे, बाहुदासीदास गोमहिसग वेलयप्पभूए' આ પાઠનું ગ્રહણ થયું' છે આના અર્થ આ પ્રમાણે છે કે તે ચિત્ર સારથિ ટ્વીસ તેજરવી હતા, ઘણાં મેાટા મોટા તેને મકાના હતાં. માટી માટી અનેક શય્યાએ (ત૫) હતી. પીઠક વગેરે માટા માટા ઘણા આસના હતાં. શકટ-ગાડી વગેરે ઘણાં વાહને इतां. डुय-घोडाओ!-वगेरेथी ते सहा परिवेष्टित रहेतेो हतो, विद्युत घननो-गलिम વગેરે દ્રવ્યના એ સ્વામી હતા. તેની પાસે પુષ્કળ સ્વણુ હતુ, અને ચાંદી પણ હતી. આયેાગ પ્રયોગથી એ સપ્રયુકત હતા, ખમણા લાભની અપેક્ષાએ જે રૂપિયા વગેરે સિક્કાએ ખીન્તને વ્યાજે આપવામાં આવે તેને આયાગ કહે છે અને એના માટે જે યુક્તિ પ્રયુક્તિઓનુ ચિંતન કરવામાં આવે છે તેને પ્રયાગ કહે છે. અથવા તા પેાતાના ધનને બમણું વગેરે કરવાની ઇચ્છાથી અધમણુક લેનારને આપવુ તેનું નામ આયોગ પ્રયાગ સંપ્રયુકત છે. એ ચિત્ર સારથિ અધિક દ્રયૈાપાનરૂપ ક્રિયામાં Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका. सू. १०२ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजोवप्रदेशिराजवर्णनम्शास' होमतिविशारदः औत्पत्तिक्या वैनधिक्या कम जया पारिणामिक्या चतु. विधया बुद्धथा उपपेतः, प्रदेशिनो राज़ बहुपु कार्येषु च कारणेषु च कुटुम्वेषु च मन्त्रेषु च गुह्येषु च रहस्येषु च निश्च येषु च व्यवहारेषु च आमच्छ. नीय प्रतिमच्छनीयो मेढिः प्रमाणम् आधार आलम्बनभूतश्चक्षुर्भूतः सर्व भूमिकासु लब्धपत्ययो वितीर्ण विचागे राज्यधुराचिन्तकश्चापि आसीत् ॥१०२॥ पार्जनरूप क्रिया में प्रवृत्त था. तथाविपुल मात्रा में इसके यहां भोजन पान न्दालेने पर भी बचा रहता था, दानी, दास, गो, महिप एवं गवेलकमेष ये सब इसके यहां प्रचुरसंख्या में थे, तथा यह चित्र सारथि साम, दंड, भेद और दान इन चार राजनीतियों में अर्थप्राप्ति के साधनों का प्रतिपादन करने वाले शास्त्र में एवं ईहामधान बुद्धि में, विशारद निष्ठुण था (उत्पत्तियाए, वेणइयाए, पारिणामियाए, चहुबिहाए वुद्धिए उबवेए) औत्पत्तिको स्वाभाविक, बैनयिकी, कर्मना तथा पारिणामिकी अवस्था इन चार प्रकार की बुद्धियों से युक्त था (पएसिम्म रण्णो वहुसु कन्जेसु य कारणेस्तु य, कुडुबेसु य, मंतेसु य; गुज्झेसु य, रहस्सेसु य, निच्छएमु य, ववहारेसु य आपुच्छणिज्जे, पडिपुच्छणिज्जे) प्रदेशी राजा के अनेक कार्यों में, कार्य संपादक हेतुओं में, कुटुम्ब के विषय में, कर्तव्यनिश्चायार्थ गुप्तमंत्रणाओं में, गुह्यों में-लज्जा से गोपनीय कामों में, रहस्यों में प्रच्छन्नव्यवहारों में, एवं निश्चयों में-पूर्ण निर्णयों में, एवं व्यवहारों में-बान्धवादिकों द्वारा समा- . चरित लोकविपरीत आदिक्रियाओं के प्रायश्चित्तों में अच्छी तरह से यह પ્રવૃત્ત હતું. તેમજ એને ત્યાં પુષ્કળ માણમાં લેકે ભજન-પાન કરતા હતાં છતાંએ ભેજન સામગ્રી ખૂબ પડી રહેતી હતી. દાસી, દાસ, ગીય મહિષ અને ગલક-મેષ આ બધા એને ત્યાં પ્રચુર સંખ્યામાં હતાં. એ ચિત્ર સારથિ સામ, દંડ, ભેદ અને દાન આ ચારે ચાર રાજનીતિ-એમાં, અર્થ પ્રાપ્તિના સાધનોનું પ્રતિપાદન કરनातं सालोमा भने डा. प्रधान मुद्धमा विशा-निपुणता. (उप्पनियाए, वेणईयाए. परिणामियाए, चउबिहाए बुद्धिए उववेए) मोत्पत्तिडी-वामावि, वैनथिzी, ४१४ भने पारिएमिटी मा यार ४२नी मुद्धिमाथी ते युत् डतो. (पएसिस्स राणो बहुसु कज्जेसु य कारणेसुय, अडुवेसु य, मंतेसु य. गुज्झेंसु य, रहस्सेसु ग्र, निच्छएसु य, ववहारे य, आपुच्छणिज्जे, पडिपुच्छणिज्जे) પ્રદેશી રાજાના અનેક કાર્યોમાં, કાર્ય સંપાદક હેતુઓમાં, કુટુંબની બાબતમાં, ક્તવ્ય નિશ્ચયાર્થ ગુપ્ત મંત્રણાઓમાં, ગુહ્યોમાં શરમને લીધે ગોપનીય કામમાં, રહસ્યમાં– પ્રચ્છન્ન વ્યવહારમાં અને નિશ્ચમ પૂર્ણ નિર્ણમાં અને વ્યવહારમાં બાંધે વગેરે વડે લેક વિપરીત આચરણ કરવા બદલ તેમને પ્રાયશ્ચિત્ત કરાવવામાં વારેઘડીએ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ जायसूत्रे टीका - ' तस्स ण' इत्यादि - तस्य खलु प्रदेशिनो राज्ञो ज्येष्ठभ्रावयस्यकः =ज्येष्ठभ्रातृतुल्यो वयस्यकःः स्वस्य परमादरणीयत्वात् चित्रो नाम = चित्रनामा सारथिः आसीत् । स चित्रसारथिः आढ्यः =समृद्धः 'जार - यावत् - यावत्पदेन - दित्ते विन्थिष्णविउल-सयणासण - जाण - वाहणाइणणे बहुधण - बहुजायरूत्र- रयए आभोगसंपभोगन पउत्ते विच्छड़िय विलभत्तपाणे बहुदासीदामगोमहिसगवेलय बार बार पूछा जाता था- विशेषरूप से पूछा जाता था (मेहीपमाण आहारे आलंणभूए, चक्खुवए, सड्डागमन्वभूमियासु लद्धपच्चए विष्णवियारे रज्जपुराचितए यात्रि होत्था) जिस प्रकार मेधि को आश्रित करके बैंल घूमते हैं उसी प्रकार उसे श्राश्रित करके मंत्रिमंडल मंत्रकरनेरूप कार्या में प्रवृत्त होता था. अतः वह में वीरूप था, तथा प्रत्यक्षादिक प्रमाणों की तरह वह हेयोपादेय पदार्थों में प्रवृत्तिनिवृत्तिशाली होने के कारण संशयरहित होकर पदार्थों का परिच्छेदक था. इसलिये वह प्रमाणरूप था. आधारभूतपदार्थों की तरह वह सब को आश्रयदाता था. रज्जु स्तंभादिकों की तरह वह विपत्तिरूप कूप में पनि जनों का उद्धारक होने के कारण अवलम्बनरूप था. यहां यह शंका हो सकती हैं आधार और अवलस्वन में कथा भेद है ! इस का उत्तर कि जिसके सहारे से मनुष्य अपनी उन्नति करता है या स्वरूपावस्थ होता है उसका नाम श्राधार है तथा जिसके अवलम्वन से विपत्तियां दूर होती हैं उसका नाम अवल એની સાથે મંત્રણા કરવામાં આવતી હતી, અને સવિશેષ રૂપમાં એને પૂછવામાં कावतु तु. (मेढीपमाण आहारे आलंबणभूए, सव्वद्वाणसन्नभूमियासु लद्वपच्चए विष्णवियारे रज्जधुराचितए यात्रि होत्था) भेटिना आधारे भ બળદ ફ તેમ એને આધાર માનીને મંત્રિમ`ડળ મંત્રણા વગેરે કાર્યામાં પ્રવૃત્ત થતું હતું. એથી તે મેઢીરૂપ હતા. પ્રત્યક્ષાદિક પ્રમાણાની જેમ તે હૈયાપાદેય પદાર્ધામાં પ્રવૃત્તિ નિવૃત્તિશાલી હાવા બદલ પદાર્થોનો તે નિઃશંકપણે પરિચ્છેદક હતેા. એથી તે પ્રમાણુરૂપ હતા. આધારભૂત પદાર્થોની જેમ તે સૌ કાઇનો આશ્રયદાતા હતા. રજજુ સ્તંભાદિકાની જેમ વિપત્તિરૂપ ગ્રૂપમાં પડેલાનુ' રક્ષણ કરનારી હાવાથી તે અવલ મનરૂપ હતો. અહીં આધાર અને અવલખનના અર્થ વિષે શંકા ઉત્પન્ન થઈ શકે છે કે એએ બન્નેમાં શે! તફાવત છે? તો સ્પષ્ટીકરણ આ પ્રમાણે છે કે જેના સહારે આશ્રયે માણસ ઉન્નતિ કરે છે કે સ્વરુપાવસ્થ હાય છે તેનું નામ આધાર છે; તેમજ જેના અવલખનથી વિપત્તિ દૂર થાય છે. Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ वहु -सुबोधिनी टीका सु. १०२ सूर्याभदेवस्य पूर्वभाज प्रदेशिराजवर्णनम् ''ए' छाया— दीप्तो विस्तीर्ण विपुलशनामनयानवाहनाकीर्णो बहुधनबहुजातरूप-रजतद्यायोगस' प्रयोगस प्रयुक्तो विच्छर्दित विपुल भक्तपानो दासीदास गोमहिष गवेलकमभूतः इतिस'ग्राह्यम्, तत्र दीप्तः तेजस्वी विस्तीर्ण विपुल वनशयनासनयानवाहना कीण :- विस्तीर्णानिविस्तृतानि विपुलानि बहूनि भवनानि = गृहाः, शयनानि=तल्पानि आसनानि=पीठकादीनि यानानि= शकटप्रभृतीनि वाहनानि=इयादयस्तैराकीणे = व्याप्तममुपेतो वा बहुधन वहुजानरूपरजतः - बहु = विपुल धन = गणिमप्रभृति यस्य स बहुधनः, बहु-विपुल जानरूपं=सुवर्ण रजत=रूप्यं च यस्य स बहू जातरूपरजतः बहुधनथासौ बहुजातरूप- रजनश्चान बहुधन बहुजातरूपरजतः, तथा आयोग संप्रयोगसंप्रयुक्तः श्रासमन्ताद् योजन = द्विगुणादिलाभार्थ रूप्यादीनामधमर्णा , , * म्वन है | नेत्र जैसे अपने विषयभूत होने योग्य पदार्थों का प्रदर्शक होता है उसी प्रकार से यह सब सबके लिये सकलार्थ का प्रदर्शक था यदुक्तम्-, "मेधिः प्रमाण आधारः, आलम्बन चक्षुः " इस बात की स्पष्ट प्रतिपत्ति के लिये उपमावाचक भूतशब्द इनके साथ जोड़ कर मूत्रकार ने पुनः इनकी इस प्रकार से श्रावृत्ति की है - यह मेडि भूत, प्रमाणभूत, आधारभूत एवं चक्षुभूत था अतः सर्वस्थानों में - सन्धि, विग्रह आदिरूप सब जगहों में एवं मन्त्रि- आमात्यादि स्थानरूप सर्व भूमिकाओं में यह यथार्थवादी रूप से माना जाता था और राजा ने भी इसी कारण अन्तः पुरादि जैसे स्थानों में आने जाने को इसे छूट देरखी थी. इसतरह राजा का अतिविश्वास पात्र बना हुआ यह चित्रसारथि सकल राज्यकार्य का प्रेक्षक भी बन गया था. छछ તેનુ નામ અવલેખન છે. નેત્ર જેમ પેાતાને વિષયભૂત થવા ચેાગ્ય પદાર્થોના પ્રાક હાય તેમજ તે પણ સૌ માટે સકલાના પ્રદર્શક હતા. भेभ: 'मेटि: प्रमाण' आधारः, आलम्बन चक्षुः ' એ જ વાતને વધારે સ્પષ્ટ કરવા માટે સૂત્રકારે ઉપમાવાચક ‘ભૂત’શબ્દ એમને લગાડીને ફરી આ શબ્દોની આ પ્રમાણે આવૃત્તિ કરી છે-એ મેઢિભૂત, પ્રમાણભૂત આધારભૂત, અને ચક્ષુભૂત હતા. એથી બધે-સધિ, વિગ્રહ વગેરે રૂપ "ધી જગ્યાએ અને મ`ત્રિ અમાત્યાદિ સ્થાનરૂપ સર્વભૂમિકામાં તે સાચી સલાહ આવનાર ગણાતે હતા. એથી રાજાએ પણ અંતઃપુર જેવાં સ્થાનામાં પણ તેને પ્રવેશવાની છૂટ આપી छीधी हुती. रान्तनो अतिविश्वासपात्र णनेो यो चित्र सारथि ग्राम सभस्त : रान्न्यકાર્યના પ્રેક્ષક પણ ખની ગયા હતા. Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नोयसूत्र दिभ्यो नियोजनमायोगः, नस्य प्रगोगः-प्र-प्रकण योजनम् उपायचिन्तनम् आयाग भयोगः, यद्वा-आयोगेन-द्विगुणादिलिया प्रयोगः अधमर्णानां सविधे द्रव्यस्य वितरणम् आयोगप्रयोगः, स संप्रयुक्त प्रवनितो येन, तरिमन वा सप्रयुक्तः संलग्नो यः स आयोगप्रयोगसंमयुत्त द्रव्योपार्जनप्रवृत्त इत्यर्थः, तथा विच्छदितविपुलभक्तपान:-विच्छदिते वि-विशेषेण छर्दिते भोजनावशिष्टे भक्तपाने भक्तं. च पान च यस्य सः, तथा-बहुदासीदासगीमहि पगवेलकप्रभूत:-दास्यश्च दासाश्च गावश्च महिपाश्च गवेलका: उरभ्राथेति-दासीदासगोमहिपगवेलकाः, बहवः प्रचुरा दामीदासगोमहिपगवेलका यस्य सः, तथाबहुजनस्य जातिविवक्षयैकवचनं संवन्धसामान्ये पष्ठी, तेन बहुजनैरित्यर्थो बोध्यः, अत्र अपीत्यध्याहारा बहुजनैरपि अपरिभृतः पराभव रहितश्चासीत। तथा-स चित्रसारथिः-सामदण्डभेदोपपदानार्थ शास्त्रहामतिविशारदः-तत्र-साम मान्त्व, दण्डो-दमः, भेदो-द्वैधीकरणम् . उपपदान दानम्-इत्येतासु चतसृषु राजनीतिषु तथा-अर्थशास्त्र अर्थप्राप्तिसाधनप्रतिपादके शास्त्रे, ईहा-मतौ ईहाविमर्शस्तत्प्रधाना मतिः धुद्धिस्तस्यां च विशारदःनिपुणः, तथा औत्पत्ति क्या स्वाभाविक्या-अदृष्टाश्रुताननुभूतविषयया स्वतः समुत्पन्नया, वैनयिक्यागुरुसमाराधनसंपाप्तशास्त्रार्थ संजनितया कर्मजया कृषिवाणिज्यादिकर्मसंप्रातया, पारिणामिक्या धयःपरिणामज निनया चेति चतुर्विधया चतुष्पकारया बुद्वथा उपपेनो-युक्तच आमीत । तथा-स चित्र सारथिःप्रदेशिनो राज्ञो बहुषु कार्ये पु-कर्तव्येषु प्रयोजनेविति यावत्, कारणेपु-कार्यजातसम्पादकहेतुषु कुटुम्वेपु-कुटुम्वविपये मन्त्रेपु-कर्तव्यनिश्चयार्थ गुप्तविचारेपु गुह्येषु-लज्जया गोपनीयेषु व्यवहारेषु रहस्येपुर हसि एकान्ते भवा रहस्याम्तेपु प्रच्छन्नव्यवहारेविति यावत, निश्चयेपु-पूर्ण निणयेपु, व्यवहारेपु-व्यवहारप्रष्टव्येषु, यद्वा-बान्धवादि समाचरितलोकविपरीतादिक्रिया प्रायश्चित्तेषु च आमच्छनीयःआईषत् सकृत् प्रच्छनीय प्रष्टव्यः, परिप्रच्छनीयः-परि-पर्वतोभावेनं असकृत प्रच्छनीयः-प्रष्टव्यः, तथा स चित्रसारथिः-मेधिः यथा मेधिमाश्रित्य गोमण्डल भ्रमति, तथैव तमाश्रित्य सफल मन्त्रिमण्डल मन्त्रकायेंषु प्रवर्तते, अतः स मेधिः, तथा-पमाणम्-प्रत्यक्षादिप्रमाणबद्धयोपादेयप्रतिनित्तिरूपतया संश: यराहित्येन पदार्थ परिच्छेदकः, आधार!=आधारवत्सर्वे पामाश्रयभूतः, आलम्बन रज्जुस्तम्भादिवद् विपत्कूपेपतजनोद्धारक तयाऽवलम्बनम् । ननुआधारालम्बनयोः को भेदः ? इति चेत्, यमधिष्ठाय जन उन्नति गच्छति स्वरुपावस्थो वो भवति स आधारः, यदवलम्वनेनच विपदो विनिचत्त ते Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सू. १०२ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् तदालम्बनम्-इति भेद गृहाण | चक्षुः चक्षतेः पश्यन्त्यनेनेति चक्षुः नेत्रं, तद्वत सर्वेषां सकलार्थ प्रदर्शकः। यदुक्तम्- "मेधिः प्रमाणम् आधारः आलम्बन चक्षुः" इति, तदेव स्पष्टपतिपत्तये औपम्यवाचि-भूतशब्दसम्मेलनेन पुनरावर्त पति-'मेधिभूतः प्रमाणभूतः आधारभूतः आलम्बनभूतः । चक्षुर्भूतश्चाम्ति : तथा-स चित्रसारथिः सर्व स्थानसर्वभूमिकासु-सर्व स्थानानि सन्धिविग्रहादिरूपाणि सकलकार्याणि च मर्व भूमिका: मन्त्रमात्यादिस्थानरूपाश्च तामु लब्धः उपलब्धः प्रत्ययः प्रतीति यथार्थवादितया , येन म तथाभूतः, तथा-चिनीर्ण विचार:-वित्तीर्ण : राज्ञा प्रदत्तः विचार-विचरणम् अन्तःपुरादिषु सर्वत्र यम्मै स तथा राज्ञोऽति विश्वासपात्रमित्यर्थः, तथा-राज्यधुराचिन्तकासकलराज्य कार्य प्रेक्षकश्चापि आसीत् ।।मू० १०२॥ इसकी टीका का अर्थ इसी मूलार्थ के साथ कर दिया गया है, फिर भी जिन पदों का अर्थ मूलार्थ में नहीं किया गया है-उनका अर्थ इस प्रकार से है-विमर्श प्रधान मति का नाम ईहामति है. स्वाभाविक बुद्धि का नाम कि-जो अदृष्ट अननुभूत, अश्रुत आदि पदार्थों को विपय करती है और उनमें स्वयं ही उत्पन्न हो जाती है वह औत्पत्तिकी बुद्धि है । इसका नाम "हाजिर जवाबी" भी हैं. गुरुजनों की सेवा शुषादि करने से माप्त शास्त्रार्थ के चिन्तन से जो बुद्धि प्राप्त होती है उसका नाम वैनयिकी बुद्धि है। कृषिवाणिज्य आदिकम करते२ जो वुद्धि प्राप्त होती है उसका नाम कर्मजा बुद्धि है । जैसे२ उमर बढती जाती है वैसे २ जो बुद्धि प्राप्त होती है उसका नाम पारिणामिकी बुद्धि है । अर्थात वयः परिणाम जनित - का नाम ही पारिणामिकी वृद्धि है ।मु०१०२।। - - આનો ટીકાર્થ મૂલાર્થમાં જ સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે. છતાં એ કેટલાંક પદેને અર્થ મૂલાઈમાં સ્પષ્ટ થયે નથી તેમને અર્થ સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે. વિમર્શ પ્રધાનમતિનું નામ ઈહામતિ છે. અષ્ક, અનુભૂત, અથત વગેરે પદાર્થોને વિષયભૂત બનાવનારી અને તેમાં પિતાની મેળે જ ઉત્પન્ન થનારી સ્વાભાવિક બુદ્ધિનું નામ ત્પત્તિકી બુદ્ધિ છે. આને હારિ જવાબી પણ કહે છે. ગુરૂજની સેવા શુષા વગેરેથી પ્રાપ્ત થયેલી અને શાસ્ત્રાર્થ ચિંતનથી પ્રાપ્ત થયેલી બુદ્ધિ વનયિકી કહેવાય છે. કૃષિ વાણિજ્ય વગેરે કર્મો કરતાં કરતાં જે બુદ્ધિ પ્રાપ્ત થાય છે તેનું નામ કે જો બુદ્ધિ છે. આયુષ્યની વૃદ્ધિ સાથે સાથે જે બુદ્ધિ પ્રાપ્ત થાય છે તે પરિણામિક બુદ્ધિ, છે. એટલે કે વયઃ પરિણામ જનિત બુદ્ધિનું નામ જ પારિણુમિકી બુદ્ધિ છે. સૂ૦૧૨ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नायसूत्रे मूलम्-तेण कालेणं तेणं समएणं कुणाला नाम जणवए त्था, रिहस्थिमियसमिछ। तत्थ णं कुणालाए जणवएं सावत्थी नाम नगरी होत्था, रिथिमियसमिद्धा जाव पडिरूवा । तिसे णं साव. स्थीए णगरीए वहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभीए कोटुए नामं चेइए होत्था, पुराणे जाव पालाईए ४ । तत्थ णं सावत्थीए नयरीए पए. सिस्स रन्नो अंतेवासी जियसत्त नाम राया होत्था, महया हिम. चंत जाव विहरइ ॥ सू० १०३ ॥ छाया-तस्मिन् काले तम्मिन् सममे कुणाला नाम जनपद आसोत, ऋदस्तिमितममृद्धः । तत्र म्ल कुणालायां जनपदे श्रावस्ती नाम नगरी आसोद ऋद्धान्ति मनममृद्धा यारत् प्रतिस्पा । नस्याः वल श्रावस्त्या नगर्याः बहिन 'तेण कालेण तेग ममाण इत्यादि । मूत्रार्थ--(तेण कारेण तेण समएणं) उस काल में-अवसागी के चौथे आरे में और केशिस्वामी के विहार से उपलक्षित उस समय में (कुणालानाम जणवए होत्या) कुणाला इस नामका देश था (रिस्थि मियसमिद्धे) यह देश ऋद्ध, स्तिमित एवं समृद्ध था यावत् प्रतिरूप -सर्वोत्तम था (तत्थ कुणालाए जणवए सावत्थी नाम नयरी होत्था) उस कुणालादेश में श्रावस्ती नामको नगरी थी (रिस्थिभियसमिद्धा जाव पडिरूवा) यह नगरी भी ऋद्ध स्तिमित एवं समृद्ध थी और यावत् प्रति रूप थी (तीसे ण' सावत्थीए णयरीए बहिया उत्तरपुरथिमे दिसीभाए कोहए नाम चेहए हो था) उसश्रावस्ती नगरी के बाहिर में ईशानकोने में - "तेण कालेण तेण समएण" इत्यादि । -सूत्रार्थ-(नेण कालेण तेण समएण) ते अणे-मक्सपिाना याथा भाराभा भने शिस्वामीना विडारना ' सभये (कुणाला णाम 'जणवए होत्था) jाता नामे देश हतो. (रिद्वित्थिर्मियसमिड़े) मा शद्ध स्तिभित भने समृद्ध तो याबत प्रति३५-सर्वोत्तम तो (तत्थ ण कुणालाए जणवए सावत्थी नाम नयरी होत्था) ने सालदेशमा श्रावस्ती नामे नगरी ती. (रिद्धस्थिमियस मिद्धा जाव पडिरूबा) २नगरी पY ऋद्ध स्तिमित भने समृद्ध ता भने यावत, प्रनि३५ उता. (नीसे ण सावत्थीए णयरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसी भाए कोहर नाम चेहए होत्था) ते श्रावस्ती नगरीनी पडा२ शान सभा Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ सुबोधिना टोका' सु. १०२ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् तरपीरस्न्ये दिग्भागे कोष्ठको नाम चैत्यमासीत्, पुराण यावत् प्रासादोयम् ४ । तत्र खलु श्रावस्य नगर्यां प्रदेशिनो राज्ञोऽन्तेवासी जितशत्रु नम राजा आसीत् महाहिमव विहरति ॥ सू० १०३ ॥ B टीका- 'ते कालेणं' इत्यादि - तस्मिन् काले= अस्या अवसर्पिण्याश्चतुर्थारकलक्षणे काले तस्मिन् समये= केशिस्वामिविहरणोपलक्षिते समये कुणाला नाम जनपद : =कुणालाभिघो आसीत् । स जनपद ऋद्धस्तिमितसमृद्धः आनीत् । तत्र खलु कुणालायां जनपदे श्रावस्ती नाम नगरी आसीत् । सा नगरी ऋद्धस्तिमितम्मृद्धा यात्र प्रतिरूपा चामीत् । यावत्पदेनात्र - औपपातिकसूत्रोक्त चम्पानगरीवर्णनं सर्व संग्राह्यम् । तस्याः खलु श्रावस्त्या नगर्याः बहिः प्रदेशे उत्तरपौरस्त्ये उत्तरपूर्व योरन्तराले दिग्भागे = ईशानकोणे कोष्ठको नाम चैत्यमासीत्, तच्चैत्य पुराणं यावत् प्रासादयं दर्शनोयम् अभिरूपं प्रतिरूपं चासीत् । यावत्पदेनात्र - औपपातिकमृत्रोत्तः सर्वमनुसन्धेयम् । तत्र खलु श्रावस्त्यां नगर्यां प्रदेशिनो राज्ञः अन्नेवासी अन्ते समीपे वसतीत्येव शीलोऽन्तेवासी= high नामका चैत्य था ( पुराणे जाव पासाईए४ ) यह चैत्य प्राचीन था यावत् प्रासादी था, दर्शनीय था, अभिरूप था और प्रतिरूप था ( तत्थ णं साथीए नए परसिम्स रन्नो अंतेवासी जियसत्तू नाम रायां होत्था, महया हिमवंत जाव विहरह) उस श्रावस्ती नगरी में प्रदेशी राजा का अन्तेवासी जितशत्र नाम का राजा था. जो महाहिमवान् आदि के जैसा बलवाला था. । टीकार्य इसका स्पष्ट है-श्रावस्ती नामकी नगरी का वर्णन औपपातिक सूत्र में कथित चंपानगरी के वर्णन जसा है. चैत्य - उद्यान के वर्णन में भी औपपातिक सूत्रोक्त वर्णन यहां पर ग्रहण करना चाहिये. अन्तेवासी हैं।ष्४४ नाभे चैत्य हुतु. (पुराणे जाव पासाईए४) या चैत्य प्रथीन तु यावत् प्रसाहीय हेतु. दर्शनीय हेतु मलिश्य तु भने प्रतिय तु (तत्थ णं सावत्थीए नगरीए एसिस्स रन्नो अतेवासी जियसत्ते नाम राया होत्या, महया हिमवंत जात्र विहर) ते श्रावस्ती नगरीमां अहेशी राजना भन्तेवासी भितशत्रु નામે રાજા હતા, તે મહાહિમવાન વગેરે જેવા ખળવાન હતેા. ટીકા—આ સૂત્રના ટીકા સ્પષ્ટ જ છે. ઔપપાતિક સૂત્રમાં ચંપાનગરીનું જે પ્રમાણે વર્ણન કરવામાં આવ્યુ છે તેમજ શ્રાવસ્તી નગરીg' વન પણ સમજવું જોઇએ. ચૈત્યનુ વર્ણન પણ ઓપપાતિક સૂત્રના વર્ણનની જેમ સમજવુ જોઇએ. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ - - - राजप्रश्नायसूत्रे शिष्य. अन्तेवासाव-अन्तेवासी-सम्यगाज्ञापालक इति भावः, तथा भूतो निन शत्रु न म राजा आसीत। म जितशत्रू राजा महाहिमवद्-याचदं पिहरति । 'जितशत्रो राज्ञः सर्व वर्णनमोपपातिकमूत्रोक्त कूणिकराजबद् बोध्यमिति ।।मू० १०३।। ___मूलम्--तएणं से पएसी राया अन्नया कयाई महत्थं महग्ध महरिह विउल रायारिह पाहुड सजावेइ सज्जावित्ता चित्तं सारहि सदाबेइ, सदाबित्ता एवं बयासी-गच्छ चित्ता ! तुमं सावन्थि नगरि जियसत्तस्स रण्णो इमं महत्थं जाव पाहुड उवणेहि जाई तत्थ रायकजाणि य रायकिञ्चाणि य रायनिईओ य रायववहारा य ताई जिपसत रादि सयमेव पच्चुवेक्खमाणे विहराहित्ति कडु विस ज्जए । सू० १०४ ॥ छाया-तनः खलु प प्रदेशी राजा अन्यदा कदाचित महाथ महाध महाई विपुल राजाह प्राभूत मजयति, सजयित्वा चियं सारथिं शनशब्दक अर्थ शिप्य है. वह अन्तेवासी के समान अन्तेवासी था अर्थात् उसकी आज्ञा का अच्छी तरह से पालक था. जितशत्रु राजा का सर्ववर्णन औषपातिक मत्रोक्त कूणिक रानाकी तरह से है ऐसा जानना चाहिये ॥०१०३।। 'तएण से पएसी राया' इत्यादि । मर्थ-(तएण से पएसी राया अन्नया कयाई महत्ां महग्ध महरिह विउलं गयारिहं पाहुड सजावेइ) एक दिन की बात है कि प्रदेशी राजा ने महार्थ-विपुल प्रयोजनवाला-मातिशयप्रयोजनयुक्त, महाध-बहुमूल्य, महाह-अतिशोभायुक्त, विपुल-बहुत बडा ऐसा.गजा के योग्य मामृत-भेट અન્તવાસી શબ્દનો અર્થ શિષ્ય છે. તે અન્તવાસીની જેમ અતેવાસી હતો એટલે કે તે સરસ રીતે તેની આજ્ઞાનું પાલન કરતો હતે. જિતશરાજાનું બધું વર્ણન ઔપપાતિક સૂકત ફૅણિક રાજાની જેમજ સમજવું જોઈએ. એ સૂત્ર ૧૦૩ 'त एण से पएमी रायो' इत्यादि। · सत्रार्थ-(त, एण से पएसी राया अन्नया कयाई महत्थं महग्ध महरिह विउल रायारि पाहड सज्जावेइ) ते प्रदेशी साये मे हिवसे भार्थ વિપુલ પ્રજનવાળી–સાતિશય પ્રયજન યુકત, મહાઈ–બહુમૂલ્યવાળી, મહીં અતિશેભાયુક્ત, વિપુલ–પુષ્કળ પ્રમાણમાં રાજાઓના માટે યોગ્ય એવી ભેટ (પ્રાભૃત) તયાર કરી. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . " सुबोधिनी टीका. सूत्र १०४ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवनदेशिराजवणनम् २५ .. यति, शब्दयित्वा एवमवादीत-गच्छ खलु चित्र ! त्वं श्रावस्ती नगरी जित. शत्रोः राज्ञ इद महाथ यावत् प्रामृतम् उपनय, यांनि तत्र राजकार्याणि च राजकृत्यानि च राजनीतयश्च राजव्यवहाराश्च तानि जितशत्रुणा साद्ध स्वयमेव प्रत्युत्प्रेक्षमाणो विहरेति कृत्वा विसर्जितः ॥० १०४॥ टीका-तएणं इत्यादि-- - ततः खलु स प्रदेशो राजा अन्यदा . कदाचित् अन्यस्मिन कस्मि श्चित् समये महाथ-महान् विपुलः अर्थः प्रयोजन यस्य स तथा तत' सातिशयप्रयोजनयु कम् महाध बहुमूल्यं महार्हम् अतिशोभन विपुल'= बृहत् राजह -नृपयोग्य प्राभृतम्-उपहारम् सन्जयति-कल्पयति, सज्जयित्वा चित्र' सारथिं शब्दयति आवयति, शब्दयित्वा एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादी-हे चित्र ! त्वं खलु श्रावस्ती नगरौं गच्छ, तत्र-जितशत्रोः राज्ञः कृतेः इदं महार्थी यावत प्राभृतम् उपनयमापय यानि तत्र श्रावत्या राज ___ कार्याणि-राज्ञो रोज्य सम्बन्धीनि कर्तव्यानि राजकृत्यानि-राज्ञःस्वविपयाणि. प्रतिदिवससम्बन्धिकर्तव्यानि. राजनीतयः साम-दण्ड-भेदोपप्रदानरूपाः राज सजाया (सज्जाविता चित्त सारहिं सदावेइ) सजाकर फिर उसने चित्र सारथि को बुलाया (सदावित्ता एवं वयासी) बुलाकर उससे ऐसा कहा (गच्छण चित्ता ! तुम सावस्थि नयरिं जियसत्तस्स रणों इमं महत्थं जाय पाहुड उवणेहि) हे चित्र ! तुम श्रवस्तीनगरी में जाओ वहां जितशत्रु के लिये यह महाप्रयोजन साधक यावत् भेंट दे आओ तथा (जाइ तत्थ राय कजाण य रायकिच्चाणि य रायनीईओ य रायववहारा य ताई. जियसत्तणो सद्धि सयमेव पच्चुवेक्खमाणे विहराहि त्ति कई विसज्जिए) जो वहां पर राजा के राजसंबंधी कर्तव्य हो राजा के अपने प्रतिदिवस के कर्तव्य हो, राजनीति साम, दंड, भेद एवं उपपदानरूप हो एवं राजव्यवहार हो (सज्जावित्ता. चित्त सारहिं सदावेई) तैयार ४शन तो यिन सारथीन मासाव्या (सदावित्ता एवं वयासी) महावीन तेने २मा प्रमाणे घु, (गच्छ चित्ता ! तुम सांवस्थि नयरिं जियसतस्स रणो इम महत्थं जाव पाहुड उवणेहि) ચિત્ર ! તમે શ્રાવસ્તીનગરીમાં જાવ અને જિતશત્રુને આ મહાપ્રજેન સાધક यावत् मेट माथी मावा, तथा (जाई तत्थ रायकज्जाणिं या रायकिच्चाणि य रायनीईओ. य. रायववहारा य ताई जियसत्तुणा सदि सयमेव पच्चुवेवक्खमाणे बिहराहित्ति का विसज्जिए) त्यांना २४ ४६ तव्या હેય, રાજનીતિને લગતી સામ, દંડ, ભેદ અને ઉપપ્રદાનરૂપ-આબતે હેય રાજકૃત Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजनीयसूत्रे व्यवहाराः=राजकृतन्यायाश्च भवन्ति तानि सर्वाणि जितशत्रुणा नृपेण साई स्वयमेव प्रत्युत्प्रेक्षमाणो = निरीक्षमाणो विहर=तिष्ठ इति कृत्वा = इत्युक्तत्वा स चिसारथिस्तेन विसर्जितः ॥ मु० १०४ ॥ मूलम् - तपणं से चित्तं सारही पएसिणा रण्णा एवं बुत्ते समाणे हट्ट - जाव पडिसुणेत्ता तं महत्थं जाव पाहुडं गेव्हइ, पएसिस्स रण्णो अंतियाओ पडिणिक्खमइ, सेयविया नयरीए मज्झ - मज्झेण जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं महत्थं जाव पाहुडे ठवेइ, कोडुंवियपुरिसे सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासाखिप्पामेय भो देवापिया ! सच्छत्तं जाव जुद्धसजं चाउग्घंटं आसरह जुत्तामेव वेह जात्र पञ्चपिणहा तरणं ते कोडुंबिय पुरिसा तहेव पडिणित्ता खिप्पामेव सच्छत्तं जाव जुद्धसज चाउ ग्घंटं आसरहं जुत्तामेव उबटूवेति, तामाणत्तियं पञ्चपिणंति । तरणं सेचि सारही कोडुंबिय पुरिसाण अंतिए एयमहं जाव हियए पहाए कयवलिकम्मे कयकोउय मंगलपायच्छिते सन्नद्धवद्धवम्मिय. कवए उप्पालिय सरासणपट्टिए पिढगे विजविमलवरचिघपट्टे गहियाउहप्पहरणे तं महत्थं जाव पाहुड' गेण्हइ, जेणेव चोउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, चाउग्घट आसरहं दुरुहेइ, वहुहिं पुरिसेहिं सन्नद्धजाव गहियाउहपहरणेहिं सद्धिं संपरिवुडे सको रिंटमलदामेणं छत्तेणं २६ राजकृत न्याय हो, उन सब का जिनशत्रु राजा के साथ निरीक्षण करते रहो. इस प्रकार कहकर चित्रसारथि को उसने विसर्जित करदिया । टीकार्थ स्पष्ट है | ०१०४ ॥ 3 ન્યાય હાય આ બધાનુ' જિતશત્રુ રાજાની પાસે રહીને તમે નિરીક્ષણ કરતા રહેા, આ પ્રમાણે કહીને તેણે ચિત્ર સારથિને જવાની આજ્ઞા કરી, આ સૂત્રના ટીકા સ્પષ્ટ છે, ૫૧૦૪ા Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २७ सुबोधिनी टीका' सू. १०५ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् धरेजमाणेणं महया-भडचडगररहपहकरविंदपरिक्खित्ते साओ गिहाओ णिग्गच्छइ, सेयवियाए णयरीए मझ मझोणं किंग्गछइ, सुहेहिं वासेहिं पायरासेहिं नाइविकिठेहिं अंतरावासेहिं वसमाणे वसमाणे केइयदस्त जणवयस्त मज्झ मज्झणं जेणेव कुणाला जणवए जेणेव सावत्थी नयरी तेणेव उवागच्छइ, सावत्थीए नयरीए मझमझेणं अणुपविसइ, जेणेव जियसत्तुस्स रणो गिहे जेणेव बाहिरिया उवटाणसाला तेणेव उवागच्छइ, तुरए णिगिण्हइ, रहं ठवेइ, रहाओ पच्चोरुहइ, तं महत्थ जाब पाहुड गिण्हइ, जेणेव अब्भतरिया उवटाणसाला जेणेव जियसत्तू राया तेणेव उवागच्छइ, जियसत्तु राय करयलपरिग्गहिय जाव कटु जएणं विजएणं वद्धावेइ, त महत्थं जाव पाहुडं उवणेइ ॥ सू० १०५॥ छाया--ततः खलु स चिमः सारथिः प्रदेशिना राज्ञा एवमुक्तः सन् दृष्ट यावत् प्रतिश्रुत्य तत् महार्थ यावन प्राभृत गृह्णाति, प्रदेशिनो राज्ञो ऽन्तिकात प्रतिनिष्कामति, श्वेतविकाया नगर्या मध्यमध्मेन यौव स्वक 'तएण से चित्त सारही' इत्यादि । मुत्रार्थ-(तएणं) इसके बाद (ले चिशे सारही) उस चित्र सारथिने जब (पएसिणा रणा) प्रदेशी राजाने एवं वुत्ते समाणे) उसने ऐसा कहातव वह (हट्ठ जाव) बहुत प्रसन्न हुआ यावत् (पडिसुणेत्ता त महत्थं जात्र पाहुड गेण्हइ) उस की आज्ञा के वचनों को स्वीकार करके उस महार्थ: साधक यावत्-प्राभृतको लिया (पएसिस्स रगो अंतियाओ पडिनिक्खमइ) और लेकर-वह प्रदेशी राजा के पास से निकला (सेयविया नयरोए मक्झम. ज्झण जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छई) और श्वेतविका नगरी के __सुत्रार्थ-(तएण) त्या२ पछी (से चितने सारही) ते चित्र साथिने न्यारे (पएसिगा रपणा) अशी सकतन्ये (एवंदुतो समाणे) मा प्रमाणे याज्ञा ४री त्यारे ते (हट्ट जाब) मत्यात प्रसन्न थयो यावत् (पडिमुणेत्ता तं महत्थ जीव पाहुडं જેoz૪) તેની આજ્ઞાના વચનને સ્વીકારી ને તેણે તે મહાઈસાધક ચાવતુ ભેટને લઈ सीधी, (पएसिस्स रणो तियाओ पडिनिक्खमाइ) मने साधनेते प्रदेशी रानी पासेथी l थनि २ नाल्यो, (सेयविया नयरीए मज्झमझेणं जेणेव सए Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ . राजप्रश्नीयसूत्रे गृह तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य तत् महाय" यावत् प्राभृतस्थापयति, . कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादिपु: क्षिपमेव भो देवानु: प्रियाः ! सच्छत्र यावत् युद्धमजं चातुर्वण्टम् अश्वरथ युक्तमेव उपस्था. पयत यावत् प्रत्यर्पयत । ततः खलु ते कौटुम्बि पुरुषाः तथैव प्रतिश्रुत्व क्षिप्रमेव सच्छत्र यावत् युद्धसजा चातुर्घण्टम् अश्वरथयुक्तमेव उप्राथापयन्ति, बीचों बीच से होता हुआ जहाँ अपना गृह था वहां पर आया (उवागच्छित्ता त महत्थं जाव पाहुडं ठवेइ) वहां आकर के उपने उस महाथमहाप्रयोजनसाधक यावत् माभूत को एक तरफ रख दिया (कोढुं विय पुरिसे सदावेह) और अपने कौडम्बिक पुरुषोंको बुलाया (सहोवित्ता एवं वयासी) उनसे ऐसा कहा (विप्पामेव भी देवाणुप्पिया ! सच्छत्तं जाव जुद्रसज्ज चाउग्घट आसरह जुत्तामेव उववेह, जाव पच्चप्पिणह) हे देवानुमियो ! तुम लोग शीघ्र ही. रथ को घोडा जोतकर तैयार करके यहां ले आओ, उसे चार घटाओं से सजित करना. यावत् फिर हमारी इस आज्ञा को हमें वापिस करना-उस पर छत्र भी लगाना यावत् उसे युद्ध के योग्य सजित करना. (तएणते कोडुचियपुरिसा तहेव पडिसुणित्तो खिप्पामेव सच्छत्त' जाव जुद्ध सज्ज चाउरएंट आसरहजुत्तामेव उवट्ठवें ति) चित्र सारथि के इस प्रकार वचन सुनकर उन कौटुम्बिक पुरुषों ने बहुत ही जल्दी छत्रयुक्त करके यावत् चार घंटोंवाले उस अश्वरथ को तैयार गिहे तेणेव उवागच्छइ) भने श्वेतविआनगरीनी च्ये या पोतानुधर हेतु त्यां गयो (उवागच्छित्ता त महत्थं जाव पाहुड ठवेइ) त्यांना तेथे ते भाथ साथ भडाप्रयोग साध यावत् लेटने मे त२३ मीहीधी, (कोडुवियपुरिसे सद्दावेइ) भने पोताना डौटुमि पु३को मासाच्या, (सदावित्ता एवं यासी) मोसावी तमन , (खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सच्छत्तं जाव जुद्धस जं चाउग्घटं आसरहं जुत्तामेव उववेह जाव पचप्पिणह) वानुप्रियो ! तमे पातरीन શીધ્ર રથ તૈયાર કરે, અને અહીં લાવે, રથને ચાર ઘંટાઓથી સજિજત કરો થાવત આજ્ઞા પ્રમાણે કામ પૂરું કરીને અમને ખબર આપ, રથની ઉપર છત્ર હોવું नये यावत् मधी शत युद्धनी माटे याय हाय तेम Arora ४२०, (तएण' कोडवियपुरिसा तहेव पडिसुणित्ता खिप्पामेव सच्छत्तं जीव जुद्धसज्ज चाउग्घंटं आसरह जुत्तामेव उवट्ठवें ति) nि सायना मा प्रमाणे चयन સાંભળીને તે કૌટુંબિક પુરુષોએ એકદમ ત્વરાથી છત્રયુકત યાવત, ચાર ઘટેથી સુસ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवोधिनी टीका. १०५ सुर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्ण' नम् मासिकां प्रत्यन्ति । ततः खलु स चित्रः सारथिः कौटुम्बिक पुरुषाणाम् अन्तिके एतमर्थ यावत् हृदयः स्नातः कृतचलिकर्मा कृतकौतुकमङ्गलमायश्चित्तः सन्नद्धवद्भवर्मितकवचः उत्पीडित सनपट्टिका विद्वत्रैवेयविमलवर चिह्नपट्टो गृहीतायुधप्रहरणस्तन्महार्थ यावत् प्राभृत" गृह्णाति, यत्रैव चातुर्घष्टः अश्व रथस्तत्रैव उपागच्छति, चातुर्धटम् अश्वरथं दुरोहति बहुभिः पुरुपैः समद्धकर उपस्थित कर दिया (तमाणत्ति पच्चपि गति) और चित्र सारथि के पास रथ को तैयार हो जाने की खबर भेज दी. (तएण से चित्ते सारही कोड विपुराण अंतिए एयमई मोचा जाव हियए हाए कयथलियम्मे heater गलपायच्छते सन्नद्धच्वम्मियकचए, उप्पीलियसग सण पहिए, पिणद्धगेविज्ज, विमलवरचिंधपट्टो गहियाउहप्पहरणे तं महत्थ जाव पाहुड गे हा) कौटुम्बिक पुरुषों से की गई खबर को सुनकर वह चित्र सारथि बहुत ही अधिक आदित एवं संतुष्ट चित्त हुआ उसने उसी समय उठकर स्नान किया. बलिकर्म (काकआदि को अन्नभाग देनेरूप) किया, कौतुक संगल एवं प्रायश्चित्त किये अच्छी तरह से बांधकर कवच पहिरा, प्रत्यंचा चढाकर धनुष को नम्रीभूत किया, ग्रीवा में हार पहिरा, तथा सुन्दर चित्रों से चिह्नित निर्मल वस्त्र धारण किये और खङ्गादिक आयुधों को साथ में लिये इस प्रकार से अच्छी तरह से सज्जित होकर उसने उस महार्थसाधक यावत् प्राभृत को हाथ में लिया और (जेणेव चाउ घटे आमरहे तेणेव उवागच्छड़ सत्यित श्रीने अश्वरथने उपस्थित ये. (तमाणत्तिय पच्च पण 'ति) भने २थ तैयार थ भवानी अमर चित्र सारथिनी पासे चहाडी (तएण से चित्रे सारही कोड बियपुरिसाण अतिए एयमहं सोचा जाब हियए हाए कलिकम्मे कयकोउयमं गलपायच्छते सन्नद्धबद्धवम्मियकत्रए उप्पीलियतरासणपट्टिए, पिंणद्ध विज्जविमलवर चिंधपट्टे गहियाउहप्पहरणे त महत्त्थ जात्र पाहुड' गेव्हइ) टुङि पुरुषोनी अभ पूर्ण थ भवानी अमर सांलजीने ते चित्र સારથિ ખૂખજ આનદિત અને સંતુષ્ટ ચિત્ત થયા. તેણે તરતજ સ્નાન કર્યુ, અલિ ક કર્યું”, કૌતુક મંગલ અને પ્રાયશ્ચિત્ત કર્યાં. સરસ રીતે કસીને કવચ પહેર્યું", પ્રત્યંચા ચઢાવીને ધનુષને નમ્ર અનાવ્યુ. ગળામાં હાર પહેર્યાં, સુંદર સુંદર ચિત્રાથી ચિત્હિત નિ`ળ વસ્ત્રો ધારણ કર્યાં. અને ખગ વગેરે આયુધા અને પ્રહરણા સાથે લીધાં.આ પ્રમાણે સરસ રીતે સજ્જિત થઈને તેણે તે મહા સાધક યાવત્ લેટને હાથમાં લીધી અને (जेणेव चउघंटे आसरहे तेणेव उवागच्छर, चाडघंटे आसरहं दुखहेइ) લઈને તે જયાં ચાતુ ૮ અધરથ તૈયાર હતા ત્યાં ગયે. ત્યાં જઈને તે રથ ઉપર २९. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० राजप्रश्नीयसूत्रे याबद्-गृहीतायुधमहरणैः साद्ध सम्परितः सकोरण्टमाल्यदाम्ना छत्रेण प्रियमाणेन महाभट वटकररथ पह करबन्दपरिक्षितः स्वाद् गृहाद निगच्छति, श्वेतविकाया नगर्या मध्यमध्येन निर्गच्छति, सुखैः वासैः प्रातराशः नातिविकृष्टः अन्तरावासैः वसन् वसन् केकयाई स्य जनपदस्य मध्यमध्येन यत्रत्र कुणाला जनपदो यत्र व श्रावस्ती नगरी तव उपागच्छति, श्रावस्त्यां चाउग्जट' आसरह दुरूहेइ) लेकर जहां वह चातुर्घट अश्वस्थ तैयार खडा था वहां पर आया-वहां आकरके फिर वह रथ पर चढ़ा (बहहिं पुरिसेहिं सन्नद्ध जाव गहियाउहपहरणेहिं सद्धिं संपरिधुढे सकोरिटमल्लदामेण छत्रेण धरिजमाणेण महया भडचडगररहपगकरविंदपरिवखो साओ गिहाओ णिग्गच्छइ) तब सन्नद्ध यावत् गृहीत आयुध प्रहरणवाले ऐसे अनेक पुरुषों से घिर गया, छत्रधारी द्वारा ध्रियमाण एवं कोटपुष्पमाला से विभूपित ऐसा छत्र उसके ऊपर तान दिया गया, महाभटों के विस्तृत समूह के वृन्दने उसे आकर घेर लिया. इस प्रकार की परिस्थिति से युक्त हुआ वह अपने घर से निकला (सेयवियाए णयरीए मज्झमज्झेग णिग्गच्छइ) और निकलकर वह श्वेतविका नगरी के बीचो. बीच से होकर चला-(मुहेहि वासे हि पयरासेहि नाइविकिटेहि अंतरावासेहि वसमाणे२ केइयद्धस्स जणवयस्स मज्झमज्झेणजेणेव कुणाला जणवए जेणेत्र सावत्थी नयरी तेणेत्र उबागच्छद) इस प्रकार घर से निकला हुआ वह सुखकर रात्रिनिवासों से, प्रातःकालिकलघु भोजनों से-कलेवाओं से, तथा अतिदूर के नहीं ऐसे अन्तरावानों से पडावों से-मध्याह्नकालिक विश्रामस्थानों से जगह२ ठहरता२ केकयाई जनपद के मध्य मध्य से होता हुआ सवार थये. (बहुहिं पुरिसेहिं सन्नद्ध जाव गहियाउहपहरणेहिं सद्धि संपरिघुडे सकोरिटमल्लदामेण छत्तेण धरेज्जमाणेण महया-भडचडगररहपगकरविंद परिक्वित्ते साओ गिहाओ जिग्गच्छद) न्यारे सन्नद्ध यावत् मना छायामा આયુ છે એવા અને પુરુથી પરિવેષ્ટિત થઈને તથા કેરંટ પુષ્પમાળાથી વિભૂષિત અને છત્રધારી વડે ધારણ કરેલું છત્ર તેની ઉપર તાણવામાં આવ્યું ત્યારે તેને મહાભટોના વિશાલ સમૂહ વૃદ્ધે આવીને પ્રવિષ્ટ કરી લીધો. આમ તે પિતાના ઘરથી २वाना था. (सु हेहिं वासेहिं पयरासे हि नाइ विकिहिं अंतरावासेहि वलमाणे २ के इयद्धस्स जणवयस्स मज्झमज्झेणं जेणेव कुणाला जणवए जेणेच सावत्थी नयरी तेणे उत्रागच्छा) मा प्रमाणे ३२थी २वाना थs ते सुम४२ त्रिनिवास, प्रातः કાલિક લઘુભેજને, અતિ દૂર નહિ એટલે કે નજીકનજીકના અન્તરાવાસે (મુકામે) મધ્યાન્ડકાલિક વિશ્રામ અને સ્થાન રથાન પર મુકામ કરતા તે કેકયાદ્ધ જનપદની Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ बोधिनी टीका सू. १०५ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् नगर्यां मध्यमध्ये अनुप्रविशति, यत्रत्र जितशत्रो राज्ञीगृह यत्रव बाह्या उपस्थानशाला तत्रैत्र उपागच्छति, तुरगान् निगृह्णाति, स्था स्थापयति, स्थात् प्रत्यचरोहति, तत् महार्थ यावत् माभृतं गृह्णाति यत्र आभ्यन्तरिकी उपस्थानशाला यत्रैव जितशत्रु राजा तत्रैव उपागच्छति, जितशत्रु राजान' करतलपरिगृहीतं यावत् कृत्वा जयेन विजयेन वर्द्धयति, तन्महार्थं यावत् माभृतम् उपनयति ॥ मु० १०५ ॥ . जहां कुणाला जनपद - (देश) था, और जहां उसमें श्रावस्ती नगरी थी वहाँ पर आ पहुँचा, (सावत्थीए नयरीए मज्झ मज्झेणं अणुपविसइ, जेणेव जिय सहस रणोगिहे जेणेव बाहिरिया उडाणसाला तेणेव उवागच्छ) वहां कर वह ठीक बीचोंबीच से होकर उस श्रावस्ती नगरी में प्रविष्ट हुआ और जहां जितशत्रु राजा का प्रासाद था, जहां बाह्य उपस्थानशाला श्री वहां आया (तुरए णिगिण्हइ, रहं ठवेइ, रह ओ पचोरूहड़, तं महत्थं जात्र पाहुडे गिण्इ) वहां आकर उसने घोडों को रोका, रथ को खड़ा किया और फिर उस रथ में से वह नीचे उतरा और उसमें से उसने महार्थ साधक उस प्राभृत को लिया (जेणेव अतिरिया उबट्टाणसाला, जेणेव जियस राया, तेणेव उवागच्छह, जिस राम करपपरिग्गहियं जाव क जण' विजण बावे तं महत् जाव पाहुड उवणे) और उठाकर जहां आभ्यन्तरिकी उपस्थानशाला थी, जहाँ जितशत्रु राजा था वहां पर आया. वहां आकर के उसने जितशत्रु गजा को दोनों हाथों की अंजलि बनाकर एवं उसे मस्तक पर रखकर जयविजय शब्दों का उच्चारण करते મધ્યમાં થઈને જયાં કુણાલા દેશ હતા અને તેમાં પણ જયાં શ્રાવસ્તી નગરી હતી त्यां चन्या. (सावत्थीए नयरीए मज्झ मज्झणं अणुपविसर, जेणेव जियसत्तुस्स रणोगिहे जेणेव बाहिरिया उड्डाणसाला तेणेव उनागच्छड़) त्यां पहायाने તે ઠીક મધ્યમાથી પસાર થઇને તે શ્રાવસ્તી નગરીમાં પ્રવિષ્ટ થયે. અને જયાં नितशत्रु शमन प्रसाद (भडेस) हतो, यां माह्य उपस्थान शाजा हती त्यां गयो, ( तुरए णिगिहई रहं वेइ, रहाओ पच्चोह, तं महत्थं जाव पाहुडं गिन्ह३) ત્યાં પહાંચીને તેણે ઘેાડાઓને રેકયા, રથને ઉભા રાખ્યા અને રથમાંથી નીચે ઉતરીને तेथे ते. सहार्थ साध लेट सीधी. ( जेणेत्र अभितरिया उवहाणसाला, जेणेव जियसत्तू राया, तेणेव उवागच्छर, जिग्रसत्तू रायं करयलपरिगहियं जाव कहु जणं विजएणं वद्धावेइ, तं महत्थं जाव पाहुड उवणेइ ) अने सहने ते જયાં આભ્યંતરિકી ઉપસ્થાનશાળા હતી જયાં જિતશ રાજા હતા ત્યાં गये. ત્યાં જઈને તેણે જિતશત્રુ રાતને અને હાર્યાની અંજલિ બનાવીને અને તેને Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ राजप्रश्नीयसूत्र .........टीका-'तएणं से'. इत्यादि ततः खलु स चित्रः सारथिः प्रदेशिना राज्ञा एवं पूर्वोक्तमकारेण उक्तः सन् हृष्ट यावत्-यावत्पदेन-हृष्ठतुष्टचित्तानन्दितः प्रीतिमनाः परमसौमनस्यितो हर्ष वशविसर्पदयः करतलपरिगृहीत दशनख शिर आवत मस्तकें अञ्जलिं कृत्वा एवं देवस्तथेति आज्ञाया विनयेन वचन प्रतिशृणोति'-इति संग्रा. ह्यम् । अस्य वाक्यस्यार्थाऽस्यैव सूत्रस्य पञ्चमसूत्र टीकातोऽवगम्य इति प्रति. श्रुत्य नत् महार्थ यावत् प्राभृत गृह्णाति-उपादत्ते, गृहीत्वा प्रदेशिनो राज्ञः अन्निकात्=समोपात् प्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य श्वेतविकाया नगर्या मध्य.. हुए बधाया, और बधाकर उल महाप्रयोजनसाधक यावत् प्राभृत को उन्हें ... दिया, अर्थात् राजा को भेट किया । .... ... , टीकार्थ-प्रदेशी राजाने जब अपने चित्र सारथि से ऐसा कहा तब हृष्ट हुआ, तुष्ट हुआ एवं चित्त में आनन्दित हुओ-मीतियुक्त मनवाला हुआ, परमसौमनस्थित हुआ हर्ष के वश से उसका हृदयहर्षित होने लग गया. उसी समय उसने करतलपरिगृहीत, दशनखसंयुक्त एवं शिर पर आवर्त्तवाली ऐसी अंजलि करके "हे देव ! आप जैसे कहते हैं सो मुझे . प्रमाण है" इस प्रकार कह कर उनकी आज्ञा को बढे विनय के साथ स्वीकार किया, हृष्ट तुष्ट आदि पदों का अर्थ इस सूत्र के पांचवें सूत्र की टीका से जानना चाहिये। इस प्रकार अपने स्वामी की आज्ञा स्वी. कार करके उसने उस महाप्रयोजन साधक यावत् प्राभृत (भेट) को अपने हाथ में ले लिया और लेकर वह प्रदेशी राजा के पास से चला आया और श्वेतविका नगरी के मध्यभाग से होकर अपने घर पर आ गया. वहां आकरके મસ્તકે મૂકી તે જયવિજય શબ્દોનું ઉચ્ચારણ કરતાં વધામણી આપી અને ત્યારપછી તે મડાપ્રયજન સાધક યાવત્, ભેટને રાજાની સામે મૂકી-રાજને તે ભેટ અર્પિત કરી. , ટીકાર્થ –પ્રદેશી રાજાએ જ્યારે પિતાના ચિત્ર સારથિને આ પ્રમાણે કહ્યું ત્યારે હૃષ્ટ, તુષ્ટ, ચિત્તમાં આનંદિત અને પ્રીતિયુકત મનવાળો થયેલ તથા પરમસેમસંસ્થિત થયેલો તે હર્ષાતિરેકથી અતીવ હર્ષિત થઈ ગયે. તેણે તરત જ કરતલ પરિગ્રહીત દશનપસંયુકતું અને મસ્તક પર અંજલિ ફેરવીને કહ્યું-“હે દેવ! જે આપ આજ્ઞા ४ छ भास भाटे प्रमाण३५ छ. अभोणे ही तग ती माझाने ६वीકારી લીધી. હુષ્ટ તુષ્ટ વગેરે પદનો અર્થ આ સત્રની પાંચમાં સૂત્રની ટીકામાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે. આ રીતે પિતાના સ્વામીની આજ્ઞાને સ્વીકારી. તેણે મહાપ્રયોજન સાધક યાવતું ભેટને હાથમાં લીધી અને લઈને તે પ્રદેશ રાજા પાસેથી આવતો રહ્યો . અને શ્વેતવિકાનગરીના મધ્યભાગમાં થઈને પોતાને ઘેર ગયે ત્યાં પહોંચીને તેણે તે Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ सुधिना टाका. सू. १०५ सूर्याभदेवस्य पुत्र भवजीवप्रदेशिराजवनम् मध्येन व्यतिव्रजन् यत्रैव स्त्रक गृह तत्रैव उपागच्छति, उपगत्य तत् महार्थ यावत् प्रामृत स्थापयति, स्थापयित्वा कौटुम्बकपुरुषान-भृत्यपुरुषान् शब्दः यति, शब्दथित्वा एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अनादीत् उक्तवान्-भो देवानुप्रियाः। यूयं क्षिप्रमेव-शीघ्रमेव सच्छत्र यावत्-यावत्पदेन-पवन सघण्ट सपना सतोरणवरं सनन्दिघोष सकिङ्किणीहेमजाल परिक्षिप्त हैमवतचित्रतिनिशकनकनियुक्तदारुक सुसंपिनद्धचक्रमण्डलधुकं कालायससुकृतनेमियन्त्रकर्माणम् आकीर्ण वरतुरगसुसंपयुक्त कुशलनरच्छेकसारथि सुसंपरिगृहीतं शरशतद्वात्रिशानणपग्मिण्डितं मकङ्कठावतंसकं मचापप्रहरणावरणभृतयोधयुद्धसज्जम् इति संग्रात्यम्, अर्थस्त्वेषां पदानां त्रिषष्टितममत्रतो द्वितीयाविभक्तिव्यत्ययेनाउसने उस महाप्रयोजन साधक यावत् पाभृत को रख दिया, रखकरके फिर उसने नोकरचाकररूप कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाण, बुलाकर उसने उस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! आपलोग शीघ्र ही छत्रसहित यावत्-ध्वजासहित, घण्टासहित, पताकासहित, उत्तमतोरणयहित, नन्दिघोषसहित, किङ्किणीसहित. इत्यादि ६२वें सूत्रोक्त विशेषणों से सहित रथको उपस्थित करो-६२वें मूत्र में उक्त पाठ जो यहां यावत् शब्द से गृहीत हुआ है द्वितीयाविभक्ति का व्यत्यय करके लिया गया है सो इस प्रकार से है __सध्वज', सघण्ट, सपताक, सतोरणवरं, सनन्दिघोषं, सकिङ्किणो हेमजालपरिक्षिप्त', हैमवतचित्रतिनिशकनकनियुक्तदारुक, सुसेपिनिद्धचक्रमण्डलधुराक, कालायससुकृननेमियन्त्रकर्माणम्, आकीर्ण वरतुरगसुसंपयुक्त कुशलनरच्छेकसारथिसुसंपरिगृहीतं, शरशनद्वात्रिंशतनूणपरिमंडित', सकङ्कटा. बतंसक, सचापप्रहरणावरणभृतयोधयुद्धसज" इस समस्त पाठका अर्थ મહાપ્રયજન સાધક યાવતુ ભેટને મૂકી દીધી. મૂકીને તેણે નેકર-ચાકર વગેરે કૌટુંબિક પુરુષને બતાવ્યા. અને બોલાવીને તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું- હે દેવાનુપ્રિયે! તમે સૌ સત્વરે છત્રયુક્ત યાવતુ ધ્વજા સહિત, ઘંટા સહિત વગેરે ૬૨ માં સૂત્રોક્ત વિશેષણોથી યુક્ત રથને ઉપસ્થિત કરે. ૬૨ માં સૂત્રને પાઠ જે અહીં યાવ’ શબ્દ, વડે ગૃહીત થયું છે તે બીજી વિભકિતને વ્યત્યય (વ્યતિક્રમ) કરીને ગ્રહણ કરી છે તે આ પ્રમાણે છે – "सध्वजं सघण्टं, सपताकं, सतोरणवरं. सनन्दिघोषं, सकिङ्किणीहेमजालपरिक्षिप्त,, हैमवतचित्रतिनिशकनकनियुक्तदारुकं, सुसंपिनिद्रचक्रमण्डलधुराक, कालायससुकृतनेमियन्त्रकर्माणम् आकीर्ण वरतुरगसुसंप्रयुक्तं, कुशलनरन्छेकसारथिसुसंपरिगृहीत. शरशतद्वात्रिंशतत्तणपरिमंडितं, सकङ्कटा चतसकं, संचाचप्रहरणावरणभृतयोधयुद्धमज्ज" मा पानो अर्थ' मा प्रभारी छ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीयसूत्रे इसप्रकार से है-सध्वज-ध्वजा से युक्त हैं. सघण्ट-दोनों और घण्टासहित है, सपताक पताका सहित है, सतरण वरयुक्त-प्रधानतोरण सहित है, सनन्दिघोप-द्वादशप्रकार के वाजों से युक्त है. सकिङ्किणी हेमजालपरिक्षिप्त-क्षुद्रघंटिकावाले हेमजाल से परिवेष्टित है, हैमवतचित्रतिनिशकनकनियुक्त दारुकहिमालय पर्वत पर उत्पन्न हुई तथा विस्मयकारक ऐसी तिनिशक्षविशेपकी सुवर्ण शोभित लकडी से जो बनाने में आया है, सुसंपिन्द्धचक्रमंडलधुराकअच्छी तरह से जिसमें चक्रमण्डल एवं धुरा बांधे गये हैं, कालायस सुकृतनेमियन्त्रकर्मा-उत्तमजाति के कृष्ण लोह से जिसमें नेमियंत्र कर्म की रचना की गई है-अर्थात् चक्रान्तभूस्पर्शिभाग की संघर्षण से रक्षा करने के लिये अरको के ऊपर फल कमण्डलरूप आवरण जिसमें लगाया गया है, आकीर्ण बस्तुरगसुसंप्रयुक्त-आकीर्णजातिके उत्तम घोडे जिसमें जुते है, कुशलनरच्छेकसारथिसुसंपरिगृहीतनिपुणपुरुषों में भी चतुरमारथीद्वारा अच्छी तरह से जो परिगृहोत हो रहा है, शरशत हात्रिंशाणपरिमंडित-शतसंग्व्यक शरों के ३२ संख्यक बाणकोपों से जो परिमण्डित है, सचापशरप्रहरणाऽऽवरणभृतयोधयुद्धसज्ज- धनुषसहित बाणों से, कुन्त, तोमर, परशु आदि शास्त्रों से. एवं कवच आदि उपकरणों से जो परिपूर्ण है, युद्धकारी योद्धाओं के संग्राम के लिये सव--qon सहित छ, सब-मन त२३ घटाया छ, सपता-पतासहित छ, સ તેરણવર ચુત-પ્રધાન તરણ સહિત છે, સનંદિઘોષ-બાર પ્રકારના વાજાઓથી યુક્ત છે. સકિકિણી મજાલ પરિક્ષિત–શુદ્ર (નાની) ઘંટિકાવાળા હમજાલથી પરિવેખિત છે, હૈમવત ચિત્રતિનિશકનકનિકુંકત દાક-હિમાલય પર્વત પર ઉત્પન્ન થયેલી, વિસ્મય કારક તિનિશિવૃક્ષ વિશેષની સુવર્ણ મંડિત લાકડીથી જે તૈયાર કરવામાં આવ્યું છે. સુસંપિનદ્ધચક્રમંડલ પુરાક જેમ ચક્રમંડળ અને ધુરાઓ સુસંબદ્ધ છે, કાલાયસ સુકૃત નેમિયત્રકમ-ઉત્તમ જાતિના કૃષ્ણ લેહથી જેના નેમિયત્રની રચના કરવામાં આવી છે. એટલે કે ચક્રને જે ભાગ ભૂસ્પર્શ કરે છે તેને સંઘર્ષથી રક્ષવા માટે કૃષ્ણ લેહની પાટી જેના પર લગાડવામાં આવી છે. આકીવર તુરગસુસંપ્રયુકત-આકીર્ણ જાતિના ઉત્તમ ઘડાઓ જેમાં જોતરેલા છે, કુશલનરક સારથિ સુપરિગ્રહીત-નિપુણપુરુ માં પણ અતિનિપુણ સારથિ વડે જે સારી રીતે હાંકવામાં આવી રહ્યો છે,શરશત દ્વત્રિશત્તણુપરિમંડિત-સે શરે અને બત્રીશ જેટલા તણિરેથી જે પરિમંડિત છે, સચાપશરપ્રહરણssકરણભૂત યુદ્ધ સજજ-ધનુષ સહિત શરેથી, કુંત, તમર, પરશુ વગેરે શાસ્ત્રોથી, અને કવચ વગેરે ઉપકરણોથી જે પરિપૂર્ણ છે, યુદ્ધ ખેડનારાઓ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधिनी टीका सू. १०५ सूर्याभदेवस्य पूत्र' भव जोवप्रदेशिराजवर्ण'नम् ३५ सेय इति । एवंविधं चातुर्घष्ट = चतसृभिर्घण्टाभिः शोभितम् अश्वरथं युक्तमेव योजितं कृत्वैव उपस्थापयत, यावत् प्रत्यर्पयत = मदीय निर्देशानुसारेण सर्व प्रकल्प्य मां सूचयत । ततः खलु ते कौटुम्बिकपुरुषाः तथैव = यथा चित्र सारथिना समाज्ञतं तथैव तदीयवचनं प्रतिश्रुत्य = स्वीकृत्य क्षिप्रमेव सच्छत्र यावत् युद्धसज्ज' चातुर्घष्टम् अश्वरथं युक्तमेव उपस्थापयन्ति, ताम् आज़किम् प्रत्ययन्ति भवन्निदेशानुसारेण सर्वमस्माभिः सम्पादित ' - मिति चित्रसारथये निवेदयन्ति । ततः खलु स चित्रसारथिः कौटुम्बिकपुरुषाणाम् अन्तिके = समीपे एतमर्थ = ' रथोऽस्माभिः सज्जीकृतः' इत्येतम्पम् अथ " यावद् हृदयः अत्रेदं संगृह्यते, तथाहि - 'श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टचित्तानन्दितः मीतिमनाः परमसौमनस्थितो हर्षवशविसर्प हृदयः' इति । अर्धस्त्वेषामुक्त एव, एतादृशः सन् स्नातः = विहितस्तानः कृतबलिकर्मा=स्नाने कृते पशुपक्ष्या. द्यर्थं कृतान्नभागः कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्तः कृतानि कौतुकमङ्गलान्येव जो सज्ज - उद्यतोकृत है, चातुर्घट का अर्थ "चार घंटाओं से शोभित" ऐसा है तथा युक्त शब्द का अर्थ "घोडों ऐसे जुता हुआ " सा है । जब तुम लोग मेरी आज्ञा के अनुसार सब काम कर लो तो हमे इसकी पीछे शीघ्र ही सूचना दो, इसके बाद उन कौटुम्बिक पुरुषों ने जैसा कि चित्र सारथि ने उन्हें कार्य करने के लिये आज्ञापित किया था वैसा काम यथाशीघ्र करके उसे सूचना दे दी. "आपकी आज्ञा के अनुसार हमने सब काम कर लिया है, इस प्रकार से दी गई सूचना को सुनकर चित्र सारथि "हृष्ट तुष्ट चित्तानन्दितः, प्रीतिमनाः, परमसौमनस्थितः, हर्ष वशविसर्पहृदय:" इन यावत् पदगृहीत विशेषणों वाला हो गया, इन पदों का अर्थ कहा जा चुका है। उसने स्नान किया, बलिकर्म किया-पशु पक्षी ܬ માટે જે સજ્જિત છે, ચાતુઘટ—એટલે કે ચાર ઘંટાથી જે સુશેાભિત છે તેમજ યુક્ત એટલે કે જેમાં ઘેાડાએ જોતરેલા છે. તમે યારે મારી આજ્ઞા મુજબ કામ પુરૂ કરી લા ત્યારે મને કામ સપૂર્ણ થઇ જવાની ખબર આપો. ત્યાર પછી કૌટુખિક પુરૂષાએ ચિત્ર સારથિની આજ્ઞા પ્રમાણે જ શીઘ્ર કામ પુરૂ' કરી દીધુ. અને તેને अमर साथी है-हे, हेवानुप्रिय ! तभारी ग्राज्ञा भुम मधु अभ ३ थागयुं छे. आा प्रभाोनी मगर सांलजीने चित्रसारथि "हृष्टतुष्टचित्तानन्दितः प्रीतिमनाः परमसौमनस्थितः हर्षविसर्प उदय" यावत् पहथी गृहीत उत विशेषणोथी તે યુકત થઇ ગયા. આ પટ્ટાના અર્થ પહેલાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યા છે. તેણે સ્નાન કર્યુ. ખલિકમ -પશુપક્ષિ વગેરેને અન્નભાગ અર્પિત કર્યાં, દુઃસ્વપ્ન વગેરેને નષ્ટ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - राजप्रश्नोयंसूत्र प्रायश्चित्तानि-दुःस्वमादिविघातामवश्य प.रणीयत्वाद् येन स तथा, तत् कौतुकानि-मपीतिलकादीनि, मद्गलानि तु सिद्धार्थ दूध्यक्षतर्वावरादीनि । तथा-- सन्नद्धबद्धवर्मितकवचः-सन्नद्धं शरोरे आरोपणात. बद्ध-गाढतरवन्धनेन बन्धनात्, वर्मितम् अङ्गरक्षार्थ मुठुनया परिहितं करचं येन मः, तथाउत्पीडितशरासनपटिकः-उत्पीडिता-प्रत्यञ्चारोपणेन नम्रीकृता शासनपटिका धनुदण्डो येन सः, अथवा-उत्पांडिता स्कन्धे स्थारिता शरासनपट्टिका धनु आदिकों के लिये अन्न का भाग किया, दुःस्वप्न आदिकों को नष्ट करने के लिये अवश्यकरणीय होने से कौतुक मङ्गलरूप प्रायश्चित्त किये मषी तिलक आदिकों का नाम कौतुक, सिद्धार्थ सरसो, दही. अक्षत दूर्वाकुर आदिको का नाम मंगल है। बाद में उसने सन्नद्ध, बद्ध, वर्मित कवच को पहिरा, पहिले उसे शरीर पर आरापण किया. इसलिये बह कवच सन्नद्ध हुआ, बाद में वह गाढतर बंधन से जकड कर कस दिया गया. इससे बद्ध हुआ, तथा अङ्गरक्षा के निमित्त ही यह धारण किया गया था. अनावर्मित हुआ "उत्पीडितशरासनपट्टिकः" से यह प्रकट किया गया है कि वह शरासनपट्टिका-धनुदण्ड जब प्रत्य'चा पर आरोपित किया गया तव झुक गया. अथवा उत्पीडित शब्द का अर्थ 'कंधे पर रखना भी है। तथाच प्रत्यंचा आरोपित की जाने से झुका दिया है, धनुप दण्ड जिसने अथवा स्कन्ध पर आरोपित किया है धनुर्दण्ड जिसने, ऐसा वह चित्रसारथी हो गया तात्पर्य कहनेको यही है कि उस चित्रसारथी ने अपने धनुप पर प्रत्यञ्चा आरोपित करली, अथवा उसे हाथ में न लेकर कंधे पर टॉग लिया. अपने कंठ કરવા માટે અવશ્યકરણીય મંગલરૂપ પ્રાયશ્ચિત્તો કર્યા. મીતિલક વગેરેને કૌતુક, સિદ્ધાદ્ધ-સર્ષપ, દહીં, અક્ષત દુર્વાકુર વગેરેને મંગલ કહે છે. ત્યારપછી તેણે સન્નદ્ધ, બદ્ધ, વમિત કવચ પહેર્યું. પહેલાં તે કવચનું તેણે શરીર પર આપણ કર્યું. એથી તે કવચ સન્નદ્ધ થયું ત્યારપછી ગાઢતર બંધનવડે કરવામાં આવ્યું એથી તે બદ્ધ થયું. અને અંગરક્ષક માટે તેને ધારણ કરવામાં આવ્યુ હતું એથી તે વમિત થયું.' "उत्पीडितशरासनपट्टिकः" मेथी - ५०८ ४२वार्भा माव्युछते शासन (ધનુષદંડા) પર જયારે પ્રત્યંચા ચઢાવવામાં આવી તે શરાસન પટ્ટિક નમી ગઈ હતી. અથવા ઉત્પીડિત શબ્દને અર્થ “ખભાપર મૂકવું” પણ થાય છે. પ્રત્યંચા ચઢાવવાથી જેણે ધનુષદંડને નમાવી દીધા છે અથવા ખભાપર જેણે ધનુર્દડ ધારણ કર્યો છે એ તે ચિત્રસારથિ શોભવા લાગે. મતલબ એ છે કે તે ચિત્ર સારથિએ પિતાના ધનુષ પર પ્રત્યંચા ચઢાવી લીધી હતી. અથવા તે ધનુષને હાથમાંથી ખભા પર ભેરવી દીધું Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनो टोका. १०५ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवनावप्रदेशिराजवर्णनम् . ३७ दण्डो येन सः, तथा-पिनद्धवेग विमलबर हपट:-पिनद्ध परिहित वेयं ग्रीवाभूषणं विमल रचिह्नपद, ये 7 सः, तथा-गृहीतायुधप्रहरणः-गृहीतानि आयुधानि-धनुगदीनि प्रहरणानिवङ्गादोनि च येन स तथा-धृतशस्त्रास्त्र इत्यर्थः, एवम्भूनः सन् तत् महाय यावत् प्राभृतं गृह्णाति. गृहीत्वा यत्रैव चातुघण्टः अश्वरथस्तत्रैव उपागच्छति. उपागत्य चातुर्घण्टम् अश्वरथं दुरो हति=आरोहति । ततः मः सन्नद्ध यावद गृहीतायुधमहरणैः बहुभिःपुरुषैः साढै सह संपरित संवेष्टितः सकोरण्टमाल्यदाम्ना-कोरण्टपुष्पमालाविभूपि नेनछत्रेण नियमाणेन सह महाभटचटकरपकरवृन्दप रक्षिस:-महाभटानां ये चटकर प्रकरा: विस्तृतममूहास्तेषां यद् वृन्दं तेन परि क्षप्त परिवेष्टितः पन स्वात्= स्वकीयाद् गृहाद् निर्गच्छति-निस्सरनि, निगत्य श्वेतविकाया नगर्या माध्यमध्येन निर्गच्छति । इत्थं निर्गतःस मुखैः मुख करै वासै: रात्रिनिय पै. पान. में उमने ग्रीवा का आभूषणरूप ग्रंय हार पहिरा और सुन्दर २ चित्रों से सुगो मत सुन्दर वत्र भी पहिरे. धनुष आदिको को यहां आयुर द से और नलवार आदिकों को प्रहरण पद से गृहात किया गया है. इस तरह उपने आयुध और प्रहरणों को अपने साथ ले लिया. इस प्रकार मात्र तरह सं तैयार होकर वह प्रभृत को साथ में लेकर के जहां चातुर्घट अश्वस्थ था वहां पर आया, वहां आकर वह उस रथ पर बैठ गया. रथ में बैठने ही वह सन्नद्ध हुए यावत् गृहीतायुधप्रहरण वाले अनेक पुरुषों से संपरकृत हो गया. छत्रधारी पुरुषने उसके ऊपर करण्टपुष्पों की मालाओं से सुशोभित छत्र तान दिया, इस तरह महासुमटों के विस्तृत समूह के वृन्द से परिवेष्टित होकर: वह अपने घर से चली. एवं श्वेतविकानगरी के ठीक मध्यभाग से होता हुआ निकला. कितनेक सुखकरवायो से હતું. ગળામાં તેણે અભૂષણરૂચ શૈવેયક હાર પહેર્યો હતો અને સુંદર ચિત્રથી સશેભિત સુંદર વસ્ત્રો પણ પહેર્યા હતાં. ધનુષ વગેરેને અહીં આયુધ પદ અને તલવાર વગેરેને પ્રહરણ પદથી ગ્રહણ સમજવાં. આ રીતે તેણે પિતાના આયુધ અને પ્રહરણને પિતાના હાથમાં લીધા. આ પ્રમાણે બધી રીતે તૈયાર થઈને તે ભેટને લઇને જયાં ચાતુર્ઘટ અશ્વરથ હતો ત્યાં ગયો. ત્યાં જઈને તે રથ પર સવાર થયે. રથ પર સવાર થતાંજ તે સન્નદ્ધ થયેલા યાવત્ ગૃહીતયુધ' પ્રહરણવાળા અનેક પુરૂષથી તે સંપરિવૃત્ત થઈ ગ. છત્રધારી પુરૂષએ તેના ઉપર કેરેટ પુષ્પોની માળાથી સુશોભિત છત્ર તાણી દીધું. આ પ્રમાણે તે મહાસુભટેના વિસ્તૃત સમૂહના વૃન્દથી પરિષ્ટિત થઈને તે પિતાના ઘેરથી રવાના થયા અને વિકા નગરીના ઠીક મધ્યભાગમાં થઈને તે કેટલાક સુખકરવાસ, રાત્રે મુકામ કરીને સવારે ત્યાંથી રવાના થતી વખતે કરેલા પ્રાતઃ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ राजप्रश्नो प्रसूत्रे प्रातः शालिकलघुभोजनः, तथा-नातविकृप्टैातिदः अन्तरावासैः । मध्याहकात्रिकविश्रामस्थानः वसन वामन के कयास्य जनपदस्य मध्यमध्येन । यत्र कुणाला जनपदो यन्त्र श्रावस्ती नगरी नत्रैव उपागच्छति, श्रावस्त्यां नगर्या मध्यमध्येन अनुप्रविशति, अनुपविश्य यत्र व जिनमत्रो राज्ञो गृह । यत्र बाह्या उपस्थानशाला तत्रैव उपागच्छति, तुरगान-अश्वान् विनिग. हातिनिरूद्धि, रथं स्थापयति, स्थान प्रत्यवरोहति-अवतरति तत् महाथे यावत् प्राभृत गृहीत्वा य व आभ्यन्तरिको उपस्थानशाला, यत्र व जितश राजा तत्रैव उपागच्छति जितशत्रु राजाने करतलपरिगृहीत यावत् कृता जपन विजयेन वर्द्ध यति, तद् महाथै यावत् प्राभृतम् उपनयति-तस्मै प्रयच्छति ।मु० १०५ ॥ रात्रियों में ठहरने से प्रातराशों से-पातःकालिक लघुभोजनरूप कलेवा से तथा बहुत अधिक दूर के नहीं ऐसे मध्याह्नमालिक विश्रामों से युक्त हुआ वह जगह २ ठहरता-केकयाद्ध जनपद के पास आगया. उसक मध्य मध्य से होकर वह निकला और जहां कुणाला जनपद-देश था, और उसमें भी जहां श्रावस्ती नगरी थी वहां आकर वह उसके ठीक बीचों बीच से होकर उसमें प्रविष्ट हआ. प्रविष्ट होकर फिर वह वहां गया जहां जितशत्रू राजा का राजमहल था, और उसमें भी जहां बाह्य उपस्थानशाला थी. वहाँ पहुँचने ही उसने घोडों को खड़ा कर दिया और रथ को चलने से रोक दिया. बादमें बह उल रथ से नीचे उतरा। और प्राकृत को साथ लेकर वह आग्यन्तरिको उपस्थानशाला में जहां जित राजा थे. वहां पर पहुँचा, वहां पहुंचते ही उसने जितशत्र राजा को दोनों हाथ जोडकर बढे विनय , प्रणाम किया और जय विनय .... કાલિક અ૫ભેજનો, (નાસ્તાઓ) તથા વધારે દૂર નહિ પણ નજીક નજીક જ મધ્યાહકાલિક વિશ્રામ કરતા કરતે સ્થાને સ્થાન પર પડાવ નાખતો તે કેહ્યાદ્ધિ જનપદની નજીક પહોંચે. અને ત્યારપછી તે જનપદની મધ્યમાં થઈને જયાં કુણાલા દેશ હતો. અને જયાં શ્રાવસ્તીનગરી હતી ત્યાં જઈને તે ઠીક નગરીના મધ્યમાર્ગથી જ્યાં જિતશત્રુ रानो मादा तो मने तेमा : ri: माह ... उपस्थानात ती त्यां. પહોંચે અને પહોંચતાં જ તેણે ઘેડાઓને ઉભા રાખ્યા અને રથને આગળ જવાથી રે. ત્યારપછી તે રથમાંથી નીચે ઉતર્યો અને ભેટને લઈને અત્યંતરિકી ઉપસ્થાન શાળામાં જયાં જિતશત્રુ રાજા હતા ત્યાં ગયે. ત્યાં પહોંચીને તેણે જિતશત્રુ, રાજાને બન્ને હાથ જોડીને પ્રણામ કર્યા. અને જયવિજય શબ્દોનું ઉચ્ચારણ કરીને Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.-11 ___सुबोधिनी टीका. सूत्र १०६ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजी प्रदेशिराजवणनम् ३९ मूलम्-तएणं मे जियसन राया चित्तस्स सारहिस्स तं महत्थ 'जाव पाहुड पडिच्छइ, चित्ते सारहिं सकारेइ सम्माणेइ पडिविसज्जेइ, रायमग्गमोगाढं च संवासं दलयइ । तए णं से चित्त सारही विसज्जिए समाणे जियस स्स अंतियाओ पडिनिक्खमइ, जेणेव बाहिरिया उवटाणसाली जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवाग. च्छइ, चाउग्घंट आसरह दुरूहंइ, सावत्याए णयरीए मज्झमझेणं जेणेव रायमग्गमोगाढे आवासे तेणेव उवागच्छइ, तुरए निगिहड़, रहं ठवेइ, रहाओ पच्चोरुहइ, पहाए कयबलिकम्मे कयकोउयमंगल पायच्छित्ते सुद्धप्पावेसाई मंगल्लोइं वत्थाई पवरपरिहिए अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे जिमियभुत्तुत्तरागए वियणं समाणे पुत्वावरण्हकालसमयंसि गंधव्वेहि य गाडगेहि य उक्नच्चिजमाणे उवनचिजमाणे उवगाइजमाणे २ उवलोलिज्जमाणे २ इ8 सहफरिस-रस-रूव-गंधे-पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पच्चणुभवमाणे विह३ ॥ स० १०६ छाया-ततः खलु स जितशत्र राजा चित्रस्य सारथेस्तन्महार्थ यावत् प्राभृत प्रतीच्छति चित्र सारथिं सत्कारयति सम्मानयति प्रतिविसर्जयति, शब्दों का उच्चारण करते हुए उन्हें बधाई दी. बाद में लाये हुए उस महाघ आदि विशेषणों वाले प्राभूत को उनके लिये अर्पण किया ।सू.१०५। 'तए णं से जियसत्तूराया'.. इत्यादि । सूत्रार्थ--(तएणं से जिसत्तू राया चित्तस्स सारहिस्स तं महत्थ जात्र पाहुडं पडिच्छइ) तब जितशत्रु राजाने चित्र सारथि से दिये गये महार्थ તેમણે વધામણી આપી. ત્યારપછી તેણે મહાર્થ વગેરે વિશેષણવાળી ભેટ રાજાને समर्पित ४0. ॥१०॥ . 'त एण से जियसन्त राया' इत्यादि। सूत्रार्थ-(तए से जियसत्त राया चत्तरस सारहिस्स त महत्थं जाव पाहुड पडिच्छइ) du* २२० थिसाथि 43 मत ४२शयेही मडा वगेरे Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राज राजमार्गाचयाचम्य आवामं ददाति । ततः खलु स चित्रः मारथिः विमजितःमन जितछात्रोः अन्तिकात् प्रतिनिष्क्रामति, यत्रैव वाह्या उपस्थानशाल व चातुर्घष्टः अश्वरथस्तत्रैव उपागच्छति चातुर्वण्यम् अश्वरथं दुरोहनि भाया नगर्या मध्यमध्येन यत्र राजमार्गावगाढ आवासस्तत्रैव उपागति, तुरगान् निगृह्णाति, स्थ' स्थापयति, रथात् प्रत्यवरोहति, स्नातः आद विशेषणों वाले माभूत को जो कि प्रदेशी राजाने मेंपित किया था. ले लिया. (चित्त' सारहिं सकारे, सम्माणेड़, पडिविसज्जेह ) फिर कुशलमभ्रादि पूछकर उसका सत्कार किया, आमन आदि देकर उसका सन्मान किया और बाद में उसे विसर्जित कर दिया. अर्थात विश्राम करने के निमित्त भेज दिया. (गयमग्गमोगाढ' च संवासं दलयइ) उसे राजमार्ग के पास स्थित गृह में ठहराया गया (तए णं से चित्ते साही विसजए समाणे जियससस्स अलियाओ पडिनिक्खमह - जेणेव बाहिरिया उद्वाणसाला जेणेत्र चाउरघंटे आसर हे तेणेव उवागच्छ) अतः वह चित्र सारथि जितात्रु राजा द्वारा विसर्जित किया गया होकर उनके पास से चला आया और जहां वाह्य उपस्थानशाला थी, जहां चातुर्घट अश्वरथ था. वहां आकर वह (चाउघंटं आसरहं दुरूहई) उसे चातुघट रथ पर सवार हो गया (सावत्थोप णम्ररीए मज्झ मज्झेणं जेणेव रायमग्गमोगाढे आवासे तेणेव उवागच्छह) और श्रावस्ती नगरी के बीचो बीच से होता हुआ जहां राजमार्ग पर स्थित आवास गृह था वहां पर आया. ( तुरए विशेषणवाजी लेटने- नेने अदेशी राममे भोली हुती-स्वीअरी सीधी. (चित्त साहिं 'सक्कारेइ, सम्माणेड़, पडित्रिमज्जेइ) त्यारयछी कुशलता विषे સમાચારે પૂછીને તેના સત્કાર કર્યાં આસન વગેરે આપીને તેનું સન્માન કર્યુ. અને ત્યારપછી तेने विसर्जितरी हीघो. भेटते है विश्राम देखा भाटे मोडली हीधी. (रायमग्गमोगा च संवासं दलयइ) तेने रानभार्गनी पासेना घरभां उतारी माग्यो. (तए णं से चित्ते सारही विसज्जिए समाणे जियस तुस्स अंतियाओ पडिनिक्खमइजेणेव बाहिरिया उबट्टाणसाला जेणेत्र चाउघंटे आसरहे तेणेव उवागच्छ३). ત્યારપછી જિતશત્રુ રાજા પાસેથી વિસર્જિત કરાયેલે તે ચિત્રસારથી ત્યાંથી રવાના થયા અને જયાં ખાહ્ય ઉપસ્થાનશાળા હતી, જયાં ચાતુ અશ્વરથ હતા ત્યાં આવ્યા त्यां आवीने ते (चउग्धंटें आसरहं दुरूहइ) यातुर्घटं रथ पर सवार थयेो. (सावत्थीए णयरी मज्झ मज्झणं जेणेव रायमग्गमोपाढे आवासे तेणेव उवागच्छइ ) અને શ્રાવસ્તીનગરીના મધ્યમાં થઈને જયાં રાજમાર્ગ પર સ્થિત આવાસ-ગૃહ હતુ રે ४० ⇒ " है Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधोधिनी टीका सू. १०६ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् . ४१ कृतबलिकर्मा कृतकौतुकमङ्गलपाय श्चत्तः शुद्धप्रवेश्यानि मङ्गल्यानि वस्त्राणि प्रवरपरिहितः अल्पमहर्घाभरणालङ्कृतशरीरो जिमितभुक्तात्तरागतोऽपिच खेल सन् पूर्वापराह्नकालसमये गन्धश्च नाटकैश्च उपनत्यमान २ उपगीयमान उपगीयमान उपलाल्यमानः २. इष्टान् शब्द-स्पर्श-रस-रूपगन्धान. :पश्च. विधान् मानुष्यकान काम भोगान् प्रत्यनुभवन विहरति ॥ सु.० १०६ ॥ निगिहिई, रह ठवेइ, रहाओ पचोरुहइ) वहां आकर के उसने घोडौंको रोको रथ को खड़ा किया और फिर रथ से नीचे उतरा (हाए कय. बलिकम्में, ऋरकोउयमंगलपायचित्त मुद्रप्पावेसाई मंगलाई वत्थाई पवरंपरिहिए) बाद में उसने ग्नान किया. बलिकर्म-बायसादिकों के लिये अन्न का भाग दिया, दुःखस्पनों को नाश करने के लिये कौतुक, मंगलरूपः प्रायश्चित्त किये। बाद में शुद्ध राजसभा में प्रवेश योग्य ऐसे मागलिक वस्त्रों को रीति के अनुसार पहिरा (अप्पमहग्धाभरणीलंकिय. सरीरे) फिर उसने अल्प भारवाले बहुमूल्य आभरणों से अपने शरीर को आलंकृत किया और (जिमियभुत्तरागए. वियणं समाणे) ' जीमने के बाद अर्थात् भोजन करके-फिर वह उपवेशनस्थान में आ गया (पुव्वावरण्हकालसमयंसि) वहां दिवस के तृतीय प्रहर में (गंधवेहिं य णाडगेहि य उवणचिजमाणे, उवणचिन्जमाणे उवगाइजमाणे २ उवलालि. ज्जमाणे २) गीतों द्वारा और नाटकों द्वाराबार २ अपना २ विषय सिखा. कर, अपना २ विषयः सुनाकर वारंवार रिझाया गया, वारबार विलास. त्यां गया. (तुरए निगिहिइ, रहं ठवेई, रहाओ पच्चोरुहइ) त्या पायाने ते ઘેડાઓને ઉભા રાખ્યા રથ થંભાવ્યું. અને ત્યારપછી તે રથમાંથી નીચે ઉતર્યો— (हाए कयबलिकम्मे, कयकोउपमंगलपायच्छिते मुद्धप्पावेसाई मंगलाई स्थाइ पवरपरिहिए) या२॥ तेणे स्नान यु:-सिम ४-४०11. वगैरेने मन्ना आयो दुस्वप्नाने नष्ट ४२१। भाट अतु-भाग ३५. प्रायश्चित्त या. त्या२पछी. २२०४सामा शाले न्या. २१२७ भांति वो तो धार. ४ा. (अप्पमहग्याभरणालंकियसरी३) त्या२०६६ तेथे.. RELHIRवा... मभूक्ष्य माथी पोताना श२ने AYIयु भने (जिमियभुत्त्तरागए. वि य णं समाणे) भ्या पछी मेरो मन रीने ते ७५वेशन स्थान त२६ गया.. (पुव्वावरण्हकाल. समयंसि) त्या विसना श्री ५२मा (गंधवे हि य णाडगेहि य उवणचिज्जमाणे. उवणचिज्जमाणे उवागाइज्जमाणे-२ उचलालिज्जमाणे२) त्या तो 43, નાટકે વડે વારંવાર પિતાનો વિષ્ય સિખાવેલે પોતાનો વિષય સંભળાવીને પ્રસન Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नोयस्त्रे 'तएण से' इत्यादि। टीका-ततःखलु स जितशत्रू राजा चित्रस्य सारथेः सकाशात् पदेशिराजप्रेषित तद् महार्थ यावन् माभृतं प्रतीच्छति गृह्णाति, चित्र सारथिं सरकार यति-कुशलप्रश्नादिना, सम्मानयति आखनप्रदानेन, ततस्तं पतिविमर्जयति= विश्रामार्थ संप्रेषयति, तथाच राजमार्गावगाढ राजमार्गसमीपस्थितम आवासंगृहं तस्य तस्मै ददाति । अत्र सम्बन्धसामान्ये पष्ठी । ततः खलु स चित्रः सारथिः जितशणा राज्ञा विसर्जितः सन् तस्य जितशत राज्ञः अन्तिकात • =प्रतिनिष्क्रमति-निर्गच्छति, यत्रत्र बाह्या उपम्थानशाला, यत्र व चातुर्घण्टः अश्वरथः तत्र व उपागच्छति, उपागत्य चातुर्घण्टम् अश्वरथं दरोहति अरोहति, श्रावस्त्या नगर्या मध्यमध्येन यन्त्र व राजमार्गावगाढ-आवासः, तत्र व उपागच्छति, तुरगान् निगृह्णाति-निरुणद्धि, निगृह्य रथं स्थापयति, स्थापयित्वा रथात् प्रत्यवरोहति अवतरति । ततः स्नातः कृतस्नानः कृतयः : लिकर्मा स्नानेकृते पशुपक्ष्याद्यर्थ कृतान्नभागः, कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्तःकृतानि कौतुकमङ्गलान्येव प्रायश्चित्तानि=दुःस्वप्नादि विघातार्थमवश्यकरणीयत्वाद् येन स तथा, तत्र-कौतुकानि-मपीतिलकानि, मङ्गलानि तु सिद्धार्थ म पदध्यक्षतर्वाश्रादोनि । तथा शुद्धमावेश्यानि-राजसभापवेशार्हाणि मङ्गल्यानि-माङ्गलिकानि वस्त्राणि मवरपरिहितः यथारीतिपरिघृतः अल्पमहर्घाभरणालङ्कृतशरीरः-अल्पानि=स्तोकभाराणि यानि महा_णि बहुमूल्यानि आभ. रणानि तः अलङ्कृत-सुशोभितं शरीरं यस्य सः, तथा जिमितभुक्तोत्तरागतः जिमिता-कृतभोजनः, सचासौ भुक्तोत्तरागत: भोजनोत्तरकालम् उपवे शनस्थाने समागतश्चति तथाभूतोऽपि च खलु सन् पूर्वापराहकालसमये पूर्वश्चासौ अपराहश्चति पूर्वापरातः, स एवं कालसमयः-कालोपलक्षितः समयस्तस्मिन्-दिवसस्य तृतीये पहरे गान्धर्वैश्च-गीतैश्च नाटकैश्च उपनत्ययुक्त बनाया गया वह चित्र सारथि (इहे सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पञ्चणुभवमाणे विहरड् ) इष्ट-अभिलषित-शब्द, स्पर्श * रस, रूप गध इन पांच प्रकार के मनुष्यभव संबंधी कामभागों को अनुभवित करने लगा। टोकार्थ इसका स्पष्टहै ॥ १०६ ॥ रायेदी, पारवा२ विदासयुत मनायेतो ते चित्र साथि (इवे सद-फरिस-रसरूव-गधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पञ्चणुभवमाणे विहरई) 2-माल. લષિત-શબ્દ, સ્પર્શ, રસ, રૂપ, ગંધ આ પાંચ જાતના મનુષ્યભવ સંબંધી કમ सोगाने लोग! साव्या. टीअर्थ:- सूत्रन। २पष्ट छ. ॥१०६॥ . . Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिना टोका सू. १०६ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवणनम् ४३ मानः उपनय॑मानः नृत्त दर्य मानो दर्य मानः उपभीयमानः उपगीयमान:गान श्राव्यमाणः श्राव्यमाणः, अतएव-उपलालयमानः२ चिलास्यमानः२ : इष्टान-अभिलपितान शब्द-स्पर्श-रस-रूप-गन्धान पश्चविध न् मानुष्यकान्= मनुष्यसम्बधिनः कामभोगाम प्रत्यनुभवन् विहरति ।।मू० १०६॥ ..... मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावञ्चिज्जे केसी नाम कुमारसमणे जाइसंपण्णे कुलसंपण्णे.बलसंपण्णे रूवसंपण्णे विणय: संपण्णणे नाणसंपण्णे दंसणसंपण्णे चरित्तसंपपणे लज्जासंपण्णे ला. घवसंपण्णे लज्जालाघवसंपण्णे ओयसी तेय सी वच्चली जसंसी जियकोहे जियमाणे जियमा · जियलोहे जियणिदे जिइंदिए जिय. परीसहे जीवियासमरणभयविष्पमुक्के तवप्पहाणे गुणप्पहाणे करण पहाणे चरणप्पहाणे निग्गह पहाणे निच्छय पहाणे अज्जवपहाणे मदव पहाणे लाघव पहाणे खंतिप्पहाणे गुत्ति पहाणे मुत्तिप्पहाणे. विजप्पहाणे मंतप्पहाणे बंभप्पहाणे वेयप्पहाणे नयप्पहाणे नियमपहाणे सच्चप्पहाणे सोयप्पहाणे नाणप्पहाणे दसणप्पहाणे चरित्तप्पहाणे ओराले. चउद्दलपुठवी चउणाणोवगएं पंचहि अणगारसाहिं सद्धि परिवुडे पुवाणुपुर्दिव चरमाणे गामाणुगोम दूइज्जमाणे सुह... सुहेणं विहरमाणे जेणेव सावत्थी णयरी जेणेव कोटुए चेइए तेणेव उवागच्छइ, सावत्थी नयरीए बहिया कोट्रए चेइए अहापडिरूव उग्गहं उग्गिमिहत्ता संजमेणं तवसो अप्पाणं भावेमाणे विहरइ सू०१०७॥ छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये पार्थापत्यीयः केशोनामकुमारश्रमणो जातिसम्पन्नः कुलसम्पन्नो बलसम्पन्नो रूपसम्पन्नो विनया पन्नों - 'कालेणं तेणं समएण' इत्यादि । मूत्रार्थ--(तेण कालेण तेण समएण) उस काल और उस समय 'लेणं कालेणं तेणं समएण" इत्यादि । __सूत्रार्थ:-(तेण कालेण तेण समएण, ते अणे मने ते सभये (पासा Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीयसूत्रे ज्ञानसम्पन्नो दर्शनसम्पन्नःचारित्रसम्पन्नो लज्जासम्पन्नो लाघवसम्पन्नी लज्जा. लाघवसम्पन्न ओजस्वी तेजस्वी वर्चस्वी यशस्वी जितक्रोधो जितमानो जित मायो जितलोभो जितनिद्रो जितेन्द्रियो जितपरीपहो जीविताशामरणभयविषमुक्तः । तपःप्रश्चानो गुणप्रधानः करणप्रधानः चरणप्रधानों निग्रहप्रधानो निश्चयप्रधानः में (पासावचिज्जे) पापित्यीय भगवान् पार्श्वनाथ की शिष्य परम्परा में स्थित (केसी नाम कुमारसमणे) केशी नामके कुमार श्रमण-जो कि .. कुमार अवस्था में ही दीक्षित हुए थे और जो (जाइस पन्ने) जातिसंपन्न थे. (कुलसपण्णे) कुलसौंपन्न थे, (बलसंपण्णे) बल सपन्न थे (रूषप्त पन्ने) रूप संपन्न थे, (विणयसपन्ने) विनयसपन्न थे (नाणसपण्णे) ज्ञान सपन्न थे, (दसणसंपन्ने ) दर्शन संपन्न थे (चरित्तसंपन्ने) चारित्र संपन्न थे, (लज्जास पन्ने) लज्जा संपन्न थे ( लाघवस पन्ने ) लाघव संपन्न थे (लज्जा लाघवस पन्ने) लज्जा एवलाघर से संपन्न थे (ओय सी, तेयसी, बच्चसी. जसंसी) ओजस्वी थे, तेजस्वी थे, वर्चस्वी थे, यशस्वी थे, (जियमाणे) जित्तमान थे (जियमाए) जितमाय थे (जियलोहे, जियणिद्दे जिइदिए). जित लोभ थे, जितनिद्र थे, जित इन्द्रिय थे. (जियपरीसहे. जीवियासम.. रणभयविप्पमुक्के) जीने की आशा से और मरण के भय से विप्रमुक्त थे (तवापहाणे गुणप्पहाणे) तपप्रधान थे, गुणप्रधान थे (करणप्पहाणे चरणप्पहाणे तिग्गहप्पहाणे, निच्छयप्पहाणे, अन्नवप्पहाणे, मद्दचप्पहाणे, लाघवप्पहाणे वञ्चिज्जे) पापित्याय-पान पार्श्वनाथनी शिष्य ५२५राभां स्थित (केमी नाम कुमारसमणे) शी नभ भा२ श्रम 2 शुभा२ अवस्थामा क्षित या ता-भने रे (जाइसंपन्ने) तिन हता. (कुलसपणे) युद्ध संपन्न हता.. (बलस पपणे) द सपन्न ता. (रूवस पण्णे) ३५सपन्न ता. (विणयस पन्ने) . विनय सपन्न (ता. (नाणसपण्णे) ज्ञान संपन्न हता. (दसणसंपन्ने) शन संपन्न हुता. (चरित्नसपण्णे) यात्रि संपन्न हता (लज्जासपण्ण) aared सपन्न (ता. (लाघवस पण्णे) माधव. सपन्न हता: (लज्जालाघवस पन्ने) Starsa भने साधव सयानता. (ओयंसी. तेय सी, वच्चंसी, जससी) मा० . स्वी हता, तवी उता, पर्थस्वी उता, यशस्वी उता. (जियकोहे). Cord sोधी. Scil. (जियमाणे) तिमानता. (जियमाए) निभाय इता: (जियलोहे जियणि दे जिइंदिए) [ard योन ता, तिनिद्र ता, तिन्द्रिय ता. (जियपरीसहे, जीवीयासमरणभयविष्पप्लुक्के)...पवानी - 24ने भरना नयी विप्रभुत. ता. (तवः .... पहाणे गुणपसाणे) त५ प्रधान उता, गुणु प्रधान उता. (करणप्पहाणे, चगरप्प Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका' सू. १.७ सूर्याभदेवस्य भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् आर्जवप्रधानो माईवप्रधानो लाघवप्रधानः शान्तिप्रधानो शुप्तिप्रधानी मुक्ति प्रधानो विद्या धानो मन्त्रप्रधानो ब्रह्मप्रधानो वेदप्रधानो नयप्रधानो नियम.. प्रधानः सत्यप्रधानः शौचप्रधानो ज्ञानप्रधानो दर्शनप्रधानः चारित्रप्रधान: उदार; चतुर्दशपूर्वी चतुर्ज्ञानोपगतः पञ्चभिः अनगारशतैः सा संपरिवृतः पूर्वानुपूर्ध्या चरन् ग्रामानुग्राम द्रवन् सु-वसुखेन विहरन् । त्रैव श्रावस्ती- गरी यत्रंच कोष्ठक चौत्य तत्रीव उपागच्छति, श्रावस्तीनगर्या बहिः कोप्टके खतिष्पहाणे, मुत्तिष्पहाणे, गुत्तिप्पहाणे विजप्पहाणे, मंतप्पहाणे, वेय. पहाणे) करणप्रधान थे, चरण प्रधान थे, निग्रह प्रधान थे. निश्चयप्रधान' थे आर्जवप्रधान थे, मार्दव प्रधान थे, लाघरम्यान थे, क्षान्तिमधन थे मुक्तिप्रधान थे, गुप्तिप्रधान थे, विद्या प्रधान थे, मंत्रप्रधान थे, ब्रह्मप्रधान थे, वेद प्रधान- थे, (नयप्पहाणे नियमप्पहाणे, सच्चप्पहाणे, सोयप्पहाणे, नाणप्पहाणे, दसणापहाणे चरित्तप्पहाणे, ओराले चउद्दसपुब्बी चउणाणो. वगए) नयपधान थे, नियमप्रधान थे, सत्यपधान थे, शौचप्रधान थे, ज्ञान प्रधान थे, दर्शन प्रधान थे, चारित्र प्रधान थे, उदार थे. चौदह पूर्वके धारी थे, और भविज्ञान आदि चार ज्ञान वाले, थो ( पंचर्चा अणगा(सएहिं संपरिवुडे) पांचसौ अनगारों के साथ (पुवाणुपुचि चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे मुह सुहेणं विहरमाणे जेणेव सावित्थी णयरी, जेणेव - कोट्टए चेइए, तेणेव उवागच्छइ) तीर्थंकर परम्परा के अनुसार विहार करते हुए, हाणे, निग्गहप्पहाणे, निच्छयप्पहाणे, अज्जवप्पहाणे, महवप्पहाणे, लाघवप्पहाणे, खतिप्पहाणे, मुत्तिप्पहाणे, गुत्तिष्पहाणे, जि.पहाणे, मतप्पहाणे वेयप्पहाणे) ४२२५ प्रधान उता, यर प्रधान ता, निग्राड प्रधान त, निश्चय પ્રધાન હતા, આર્જવ પ્રધાન હતા, માર્દવ પ્રધાન હતા, લાઘવ પ્રધાન હતા, શાંતિપ્રધાન હતા, મુક્તિ પ્રધાન હતા, ગુપ્તિ પ્રધાન હતા, વિજય પ્રધાન હતા, મંત્ર પ્રધાન ता, ग्री, प्रधान ता, वह प्रधान हता. (नयपहाणे, नियमपहाणे, सच्चपहाणे सोयप्पहाणे, नाणप्पहाणे, दंसणप्पहाणे, चरित्ता पहाणे, ओरले चउद्दम पुची चउणाणोवगए) नय प्रधान उता, नियम प्रधान हता, सत्य प्रधान हत, शौन्य प्रधान ज्ञान प्रधान हता, दृशन अधान उता, यात्रि. प्रधान उता, हा२ हता, यौहपूर्व ना धारी तन्मने, भतिज्ञान वगेरे यार ज्ञानवाणा उता. ( चाहिं अणगारसएहि सद्धिं संपरिबुडे) पायता अनशना साथे (पुव्वाणुपुचि चर माणे गामाणुगामः दुईज्जमाणे. सुह सुहण विहरमाणे जेणेव मावत्थी परी जेणेव कोहए चेहए, तेणेच उवागच्छ5) तीर्थ ४२ ५२५२॥ भु४५ पिE२४६ता ४२ai Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीयसूत्रे, __ चस्ये यथामतिरूपम् अवग्रहम् अवगृह्य संयमेन तपसा आत्मान भावयन विहरनि ॥ मु. १०७ ॥ टीका-'तेण कालेणं' इत्यादि- : " ' तस्मिन् काले तस्मिन् समये पापित्यीयः भगवतः पार्श्वनाथस्य शिष्यपरम्परायां स्थितः केशीनामकुमारश्रमणः-कुमारश्चासौः श्रमणश्च ति, कौमार्यावस्थायां प्रवजित इत्यर्थः; स कीदृशः:? इत्याह-जातिसम्पन्न:-जाति: मौत पक्ष:-तेन सम्पन्नो युक्तः-उत्तममातृपक्ष सम्पन्न इत्यर्थः, तथा कुलसम्पन्न:कुल = *तृको वंशः, तेन सम्पन्नः-उत्तमपितृपक्षसम्पन्न इत्यर्थः, तथा-बल : एक ग्राम से दूसरे ग्राम में होते हुए आनन्द के साथ जहां श्रावस्ती नगरी थी और जहां कोष्ठेक चैत्य था, वहां पर आये. (सावत्थीनघरीए बहिया कोट्ठए चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिहित्ता सजमेण तवसा अप्पाण भावेमाणे विहरइ) जहां आकर वे श्रावती नगरी, के बाहर प्रदेश में स्थित कोष्ठक चैत्य में यथामतिरूप अवग्रह प्राप्तकर संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए ठहर गये। टीकार्थ-उस काल और उस समय में पपत्यीय भगवान् पाश्वनाथकी शिष्य परपरा में स्थित केशीकुमार श्रमण जिन्होने कौमार्य-वाल्य अवस्था में प्रवज्या धारण करली थी. तीर्थकर परम्परा के अनुसार विहार करते हुए कोष्ठक चैत्य में आकर ठहरे, ये जाति सपन्न थे मातृपक्षका नाम जाति है, उससे ये युक्त थे अर्थात् उत्तम मातृपक्षवाले थे, पैतृक वशका नाम कुल हैं, उससे भो ये युक्त थे-थर्थात् उत्तम पितृपक्षवाले थे विशिष्ट એક ગામથી બીજે ગામ વિહાર કરતાં કરતાં આનંદની સાથે જ્યાં શ્રાવસ્તી નગરી હતી गने या ४४ चैत्य (Gधान) तु त्या माव्या. (सावत्यो ‘नयरीएबहिया कोहए चेइए अहापडिरूचं उग्गहं रग्गिण्हित्ता संजमेण तवसा 'अपाण ___ भादेमाणे विहरइ) त्यां न तो श्रावस्ती नाशनी -४४४ चैत्यमा यथाપ્રતિરૂપ અવગ્રહ પ્રાપ્ત કરીને સંયમ અને તપથી આત્માને ભાવિત કરતાં રોકાયા. " * ટીકાથું–તે કાળે અને તે સમયે પાર્શ્વપર્યય ભગવાન-પાનાથની શિષ્ય પરંપરામાં સ્થિત કેશીકુમાર શ્રમણ-કે જેમણે કૌમાર્ય અવસ્થામાં પ્રવજયા ધારણ કરી હતી. તીર્થકર પરંપરા મુજબ વિહાર કરતાં કરતાં કોઠેક ચૈત્યમાં આવીને રોકાયા એઓ જાતિ સંપન્ન હતા. માતૃપક્ષનું નામ જાતિ છે એનાથી એઓ, યુકત હતા એટલે કે ઉત્તમ માતૃપક્ષવાળા હતા. પૈતૃવંશનું નામ કુળ છે. એનાથી એને મુક્ત હતા એટલે કે એઓ ઉત્તમપિતૃપક્ષવાળા હતા. વિશિષ્ટ સંહનનથી સમુO Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टोका. सू. १०७ सुर्याभिदेवस्य पूर्वभव देशिराजनम् सम्पन्नः -बल-विशिष्टसं हननसमुत्था शक्तिः, तेन सम्पन्नः, रूपसम्पन्न:"रूपम् = सर्वोत्कृष्ट शारीरं सौंदर्य तेन सम्पन्नः, विनयसम्पन्नः - विनयः प्रसिद्धः, तेन सम्पन्नः, तथा ज्ञानसम्पन्नः -मत्यादिज्ञानयुक्तः, दर्शनसम्पन्नः सम्यक्त्वयुक्तः, चारित्रसम्पन्न:= चारित्रं = संयमः तेन संपन्नो= युक्तः, लज्जासम्पन्नःलज्जा=अनुचितानुष्ठानस वरणात्मिकरूपाः, तया सम्पन्न:= युक्तः, लाघव सम्पन्नः=लाघवं=द्रव्यतोऽल्पोपधित्व, भावतो गौरवत्यागः, ताभ्यां सम्पन्नः, लज्जालाघवसम्पन्नः = लज्जया लाघवेन च स सततमेव सुम्पन्नः । तथओजस्वी--ओजः=श्रात्मिक तेजः, तदस्ति यस्य स तथा आत्मिक ज सम्पन्न इत्यर्थः, तेजस्वी - तेजःशरीरप्रभा, तदस्ति यस्य तथा अनुपमशरीरप्रभाविशिष्ट इत्यर्थ:, तथा वर्चस्वी = प्रभाववान्, 'वचस्त्री' - इतिच्छायापक्षेप्रशस्तचचनयुक्त इत्यर्थः, तथा - जितक्रोधः = क्रोधजेता, जितमानःमानजेतासंहनन से समुत्थ शक्ति का नाम बल है, इस वत्र से ये युक्त थे, सर्वोत्कृष्ट शारीरिक सौन्दर्य का नाम रूप है. इस रूप से ये संपन्न थे, विनय संपन्न थे, मत्यादि ज्ञानों से संपन्न थे, सम्यत्तव से युक्त थे, संयमरूप चारित्र से युक्त थे, लज्जा से युक्त थे अर्थात् अनुचित काम करने से सदा दूर रहते थे. लाघव से युक्त थे, लाघव द्रव्य और भाव की अपेक्षा से दो प्रकार का कहां गया है अल्प उपधि रखना यह द्रव्य की अपेक्षा लाघव है तथा गौरव का त्याग करना यह भाव की अपेक्षा लाघव है। लज्जा और लाघव इन दोनों से ये युक्त थे. इनमें आत्मिक तेज पूर्णरूप से भरा हुआ था अतः ओजम्बी थे. शरीर प्रभा का नाम तेज है. यह शारिरिक तेन इनका अनुपम था. इस लिये ये तेजस्वी थे. प्रभाववान् थे इसलिये वर्चस्वी थे अथवा प्रशस्तवचन युक्त थे. इसलिये वचस्त्री थे. क्रोध के विजेता थे अतः जित क्रोध थे. શકિતનું નામ મળ છે, આ ખળથી એએ યુકત હતા. સર્વોત્કૃષ્ટ શારીરિક સૌન્દર્ય નામ રૂપ છે, આ રૂપથી એ સંપન્ન હતા, વિનયયુક્ત હતા, મતિ વગેરે જ્ઞાનાથી સૌંપન્ન હતા. સમ્યક્ત્વથી યુકત હતા, સંયમરૂપ ચારિત્રથી યુકત હતા. લજજાથી યુકત હતા એટલે કે–સાવદ્ય કામમાં લજજા રાખતા હતા. દ્રવ્ય અને ભાવની અપેક્ષાએ લાઘવના એ પ્રકારો છે. અલ્પ ઉપધિ રાખવી એ વ્યની અપેક્ષાએ લાઘવ છે. તેમજ ગૌરવ ત્યાગ એ ભાવની અપેક્ષાએ લાઘવ છે. લજજા અને લાઘવ આ બન્નેથી એએ સંપન્ન હતા, આત્મિક તેજ એમનામાં પ્રચુર પ્રમાણમાં હતુ. એથી એએ આજસ્વી હતા. શરીરપ્રભાનુ નામ તેજ છે. એમનું આ શારીરિક તેજ અનુપમ હતું. मेथी -४ मे तेन्स्वी हुता, प्रलावान् हता. मेथी ? येो ववी हता. रोधने જીતનાર હતા એથી એ જિત-ક્રોધી હતા, માનના વિજેતા હતા એથી જિતમાન ४७ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ राजप्रश्नीयसूत्र मानापमानयोस्तुल्य इत्यर्थः, जिनमायः पर्वथा नि कपटा, जिन ठोभा लोभजेता, जिननिद्रवशोकृनिद्रः, जितेन्द्रियः निगृहीतसकलेन्द्रियः, जितपरीपह:परीपहजेता, नथा-जीविताशामरणभयविषमुक्ता-जीवितस्य-जीवनस्य या आगा तस्याः, तथा-मरणस्य-प्राणवियोगस्य यद् भयंततश्च विप्रमुक्तं रहितः जीवनमरणयोः समभावयुक्त इत्यर्थः तथा तपःप्रधान तपसा प्रधान सकलमुनीनां मध्ये प्राधानत्वं प्राप्तः, अथवा-तपः तपस्या प्रधानं यस्य स महातपस्वीत्यर्थः, गुणप्रधान:-गुण:=क्षान्त्यादिगुणों: प्रधान:=श्रेष्ठः। 'तपः प्रधानगुणप्रधाने' ति विषेषणद्वयेन · पसः पूर्व बद्धकमणो निराहेतुत्वेन सयमस्य चाभिनवकर्मणोऽनुपाद हे तुम्वेन, मोक्षोपायंत्वान्मोक्षार्थिभिस्ताववश्य मान के विजेता थे. अतः जितमान थे, तात्पर्य मान अपमान में सम थे सर्वथा निष्कपट थे. अतः जितमा थे, लोभ के जेता. थे अतः जित्तलोभ थे. निद्रा को वश में कर लिया था इसलिये जिनिद्र थे. समस्त इन्द्रियों के निग्रहकथि-इसलिये. जितेन्द्रिय थे-परीषाहों पर विजय पा लिया था इसलिये जितरीह थे, जीने की आशा. से एवं मरण के भय से बिलकुल विपनुक्त थे-इसलिये जीवन मरण में समभाव शाली थे. तपसे सकल मुनिजनो में प्रधानता प्राप्तकर लेने के कारण ये तपापधान थे. अथवा तपस्या प्रधान थे. महातपस्वी थे, इसलिये तपः प्रधान. थे, क्षान्त्यादिक गुणों से श्रेष्ठ होने के कारण गुम प्रधान थे "तपः। प्रधान एवं गुण प्रधान" इन दो विशेषणों से यह सूचित किया गया है कि तप पूर्ववद्धं कर्मो की निजरा. का हेतु. होता है एवं सयम नवीन कर्मो को अनुपादेयता का हेतु होता है अर्थात नवीन कर्मों के आगमन હતા. અર્થાત્ માન અપમાન બને એમના માટે સરખા હતાં. એઓ સંપૂર્ણતઃ નિપટ હતા. એથી જિતમાન હતા. લેભને જીતનાર હતા એથી. જિતલોભી હતા, એમણે નિદ્રાવશ કરી હતી એથી એઓ જિતાનિદ્ર હતા, બધી ઇન્દ્રિયને એમણે 'पशमा ४ी मी ती. मेथी मेम तिन्द्रिय हुता, परीषही. ५२ ओभरविल्य મેળવ્યું હતું એથી એઓ જિત પરીષહ હતા. જીવવાની આશાથી અને મરણના ભયથી એઓ એકદમ વિપ્રમુકત હતા. એથી જીવન મરણમાં એઓ. સમભવશીલ 'इता. ससभुनियामा तपनी गपेक्षा प्रधान होपाथी भयो तपःप्रधान- हुता, અર્થાતું મહાતપસ્વી હતા, ક્ષાત્યાદિક શ્રેષ્ઠ ગુણોથી યુક્ત હવા બદલ એ ગુણ "પ્રધાન હતા “તપઃપ્રધાન અને ગુણપ્રધાન આ: બે વિશેષણથી એ વાત સૂચિત કરવામાં આવી છે કે તપ પૂર્વબદ્ધકની નિર્જરોને હેતુ હોય છે અને સંયમ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सू. १०७ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजोवप्रदेशिराजवण'नम् मेवोपातव्याविति सूचितय । सामान्यनो गुणपाधान्यमुत्तवा सम्प्रति विशेषतः स्तदाह-तथाहि-करणपधान:-करण =पिण्डविशुद्धथादि मनतिविधम्, तदुक्तम् पिंड विसोही (७) समिई (५) भावण) (१२) पडिमा (१२) य ईदियनिरोहो(५)। पडिलेहण. (२५) गुत्तोओ (३) अभिरगहो (१) चेव करण तु ॥१॥ छाया-पिण्डदिशोधि: समितिः भावना-प्रतिमा च इन्द्रियनिरोधः । भत्तिलेखना गुप्नयः अभिग्रहाश्चव करण तु ।। इति ।। तत्प्रधान यस्य स तथा, चरणप्रधान:-चरण =महात्रतादि सप्ततिविधम् , तदुक्तम् -~~'वय (५) समणधम्म (१०) संजम (१७) वेयावच्च (१०) च वभ. गुत्तीओ (५) गणाइतिर (३) तब (१२) कोह निग्गहाई (४)चरणमेय। छाया--द्रतश्रमणधर्मः संयमो वयात्य च ब्रह्मगुप्तयः । ज्ञानादित्रिकं तपः क्रोध निग्रहादिः चरण मेतत् इति।। तत् प्रधान यस्य स तथा, निग्रहप्रधान:-निग्रहः असदाचारप्रवृत्तनिषेधः स प्रधानं यस्य स तथा, निश्चयप्रधाना=निश्चय:-तत्त्वानां निर्णयो विहितानुष्टानानामव. श्यमभ्युपगमो वा, स प्रधान यम्य स तथा आर्जवप्रधानः आजेवऋजुता माया. को रोकने वाला होता है- इसलिये ये दोनों लोक्ष के उपायभूत होते हैं अतःमोक्षार्थियों को इन्हें अवश्य प्राप्त करना चाहिये। __ अब सामान्यरूप से गुणप्रधानता कहकर विशेषरूप से उसका प्रति. पादन करने के लिये कहा गया है-करण प्रधान इत्यादि पिण्डविशु. द्धयादि सात प्रकारका है-कहा भी है "पिंडविसोही' इत्यादि, इन गुणों से ये युक्त थे अतः ये करण प्रधान कहे गये हैं। महावतादि रूप चरण ७० प्रकार का कहा गया है-जैसे 'चय' इत्यादि यह चरण इनमें प्रधान था. अतः ये चरण प्रधान थे. असदाचारत्ति के निषेध का नाम निग्रह है यह निग्रह इनमें प्रधान था. अत:इन्हें निग्रह प्रधान कहा गया है । तत्वों का निर्णय करनेरूप निश्चय अथवा विहित अनुष्ठानों का अवश्य કર્મોની અનુપાદેયતાનો હેતુ હોય છે. એટલે કે નવીન કર્મોને રોકનાર હોય છે. એથી જ એઓ બને મોક્ષ માટે ઉપાયભૂત કહેવાય છે. એથી મુક્ષુલેકેને માટે એ બને અવશ્ય આદરણીય છે. હવે સામાન્યરૂપથી ગુણપ્રધાનતાને કરીને વિશેષરૂપથી તેનું પ્રતિપાદન કરવા માટે કહે છે કે-કરણપ્રધાન ઈત્યાદિ. પિંડવિશુદ્ધ વગેરે રૂપ જે કરણ છે તેના સાત प्राश छ. ५यु छ:-"पिंड विसोही' वगैरे. २मा २५ भनाभा प्रधान३ये तु એથી એ કરણપ્રધાન કહેવાય છે. મહાવ્રતાદિરૂપ ચરણના 90 પ્રકારે કહેવાય છે. જેમકે ઘા ઇત્યાદિ આચરણ પણ એમનામાં પ્રધાનરૂપે હતું એથી એઓ ચરણ પ્રધાન હતા. અસદાચારની પ્રવૃત્તિના નિષેધનું નામ નિગ્રહ છે. આ નિગ્રહ એમનામાં પ્રધાનરૂપે હતો. એથી જ એમને નિગ્રહ પ્રધાન કહેવામાં આવ્યા છે..તના નિર્ણય માટે જે નિશ્ચયાત્મક દઢ વૃત્તિ અથવા વિહિત અનુષ્ઠાને રવીકારવારૂપ જે નિશ્ચયાત્મક Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० राजप्रश्रीयसूत्रे निग्रहः, तत्प्रधानं यस्य स तथा, मार्दवप्रधानः- मार्दवं मृदुतो-नम्रता तत् प्रधानं यस्य स तथा लाघवमधान:-लाच लघुता - द्रव्यभावघुता तस्म धानं यस्य स तथा क्षान्तिप्रधानः- क्षान्तिः = क्रोधनिग्रहः, सा प्रधानं यस्य स तथा गुप्तिप्रधानः- गुप्तिः = मनोगुप्त्यादिका, सा प्रधानं यस्य स नधा, मुक्तिप्रधानः- मुक्तिः = निलो भना, सामधान' यस्य स तथा सर्वधा निर्लोभ इत्यर्थः विद्याधनः- विद्याः = रोहिगोमयादिदेवताधिष्ठिताः वर्णानुपूर्वी रूपाः ताः मधानानि यस्य स तथा मन्त्रप्रधानः- मात्राः:- हरिणैगमेष्यादिदेवाधिष्टिनाः ते प्रधानानि यस्य स तथा ब्रह्ममधान:- ब्रह्म ब्रह्मचर्य मैथुनविरमणलक्षण स्वीकार करनेरूप निश्चय इनमें था, इसलिये ये निश्रमप्रधान ये । आर्जव नाम ऋजुता ( सरलता) का है और यह माया निग्रहरूप होती है । यह इनकी प्रधान थी. अतः ये आर्जवमधान थे मार्दवप्रधान इसलिये थे कि इनमें मृदुता नम्रता प्रधानरूप से थी. लाघवमान थे इसलिये थे कि इनमें क्रमभावरूप लघुना ( हलकापन) प्रथानरूप से थी क्षान्तिप्रधान ये इसलिये ये कि इनमें क्रोध को निग्रह कर नेरूप परिणति प्रधान थी. गुप्तिप्रधान ये इसलिये थे कि इनमें मनोगुप्ति वचनगुप्ति एवं काय गुप्ति ये तीन गुप्तियां प्रधान थीं मुक्तिप्रधान ये इस लिये थे कि इनमें निर्लोभता प्रधानरूप में थी, विद्याप्रधान ये इसलिये थे कि रोहिणी प्रज्ञप्त्यादिक देवताधिष्ठित वर्गानुपूर्वीरूप विद्याएं इनमें प्रधान थीं मंत्रप्रधान ये इसलिये थे कि इनमें हरिणगमेषी आदि देवाधिष्ठित मंत्रान थे, मैथुनविरमणरूप ब्रह्मचर्य का नाम ब्रह्म है. अथवा सर्व ही ભાવ હાય છે એ પણ એમનામાં હતેા. એથી એએ નિશ્ચય પ્રધાન હતા. આ વ ઋજીતા (સરલતા)નું નામ છે. અને માયાનિગ્રહરૂપ પ્રવૃત્તિ હોય છે. એ પણ એમનામાં પ્રધાનરૂપે હતી એથી એએ આર્જવ પ્રધાન હતા. માર્દવ પ્રધાન એ એટલા માટે હતા કે એમનામાં મૃદુતા–વિનમ્રતા–પ્રધાનરૂપે હતી. એમનામાં દ્રવ્યભાવ લઘુતા પ્રધાનરૂપે હતી એથી જ એએ લાઘવપ્રધાન હતા. ક્રોધને નિગ્રહ કરવા રૂપ પરિણતિ એમનામાં પ્રધાન હતી એથી એએ ક્ષાંતિ પ્રધાન હતા. એમનામાં મનેગુપ્તિ, વચનપ્તિ અને કાયગુપ્તિ એ ત્રણે ગુપ્તિ પ્રધાન હતી એથી એએ ગુપ્તિપ્રધાન હતા. એમનામાં નિલેૉંભતા 'પ્રધાનરૂપે હતી એથી એ મુક્તિપ્રધાન હતા. એમનામાં રોહિણી પ્રજ્ઞસ્થાદિક દેવતાધિષ્ઠિત વર્ણાનુપૂર્વી રૂપ વિદ્યાએ પ્રધાન હતી એથી જ એએ વિદ્યાપ્રધાન હતા. એમનામાં હરિ'ગમેષી વગેરે દેવાધિષ્ઠિત મોંત્રપ્રધાન હતા એથી એએ મંત્રપ્રધાન હતા. મૈથુન વિરમણુરૂપ બ્રહ્મચર્યનું નામ બ્રહ્મ છે અથવા સકુશળ અનુ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका. सूत्र १०७ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् .. ५१ ... मिति सर्वमेव वा कुशलानुष्ठान', तत्प्रधान यस्य स तथा, वेदप्रधान:-वेदा= आगम:--लौकिक-लोकोत्तरकुमावचनिक भेदेन त्रिविधः, स प्रधान यस्य स तथा, स्वसमयपरसमयज्ञानसम्पन्न इत्यर्थः, नयप्रधान:-नया: नौगमादयःसप्त त एव भेदमभेदतः सप्तशतविधाः, ते प्रधानानि यस्य स तथा विचित्राभिग्रहधारीत्यर्थः सत्यप्रधान:-सत्य सकलपाणिनामत्यन्तहितकर वचनम्, तत् प्रधान यस्य स तथा-हितमितप्रियवचनयुक्त इत्यर्थः, शौच. प्रधान:-शौच-द्रव्यतो लेपरहित्य भावतो निरवधाचरण, तत् प्रधान यस्य स तथा, ज्ञानप्रधाना-ज्ञानमत्यादिक तत् प्रधान यस्य स तथा, दर्शनप्रधान: कुशल अनुष्ठानों का नाम ब्रह्म है इस ब्रह्मप्रधानता वाले वे थे. इसलिये इन्हें ब्रह्मप्रधान कहा गया है। आगम का नाम वेद है, यह लौकिक, लोकोत्तर, और कुमायनिक के भेद से तीन प्रकार का है, यह वेद इनमें प्रधान था. अतः इन्हें वेदप्रधान कहा गया है। तात्पर्य यह कि ये स्व. समय के और परसमय के ज्ञान से संपन्न थे नैगम, संग्रह आदि जो सात नय है ये नय ही भेदप्रभेद की अपेक्षा ७०० हो जाते हैं ये नय इनमें प्रधान थे. अर्थात ये बहुत ही सूक्ष्मरूप से नयों के विशेषज्ञाता थे इस. लिये इन्हें नयप्रधान कहा गया है। अभिग्रहविशेषों का नाम नियम है अर्थात् ये विचित्र अभिग्रहों के धारी थे सकलप्राणियों के एकान्तरूप से हितकर्ता जो वचन होते हैं उनका नाम सत्य है इस सत्यप्रधान येथे अर्थात् ये हित, मित, प्रिय वचन बोलते थे । द्रव्य और भाव की अपेक्षा से शौच दो प्रकार का है-लेपरहित होना यह द्रव्य की अपेक्षा शौच है ઠાનનું નામ બ્રહ્મ છે. એએ આ બ્રહ્મ પ્રધાનતાથી ચુકત હતા એથી જ એઓ બ્રહ્મ પ્રધાન કહેવાતા હતા, આગમનું નામ વેદ લૌકિક, લેકોત્તર અને દુખાવચનિક આમ ત્રણ પ્રકારનું છે, આ વેદ એમનામાં પ્રધાન હતું એથી એ વેદપ્રધાન કહેવાતા મતલબ એ છે કે એઓ સ્વસમયના અને પરસમયના જ્ઞાનથી સંપન્ન હતા, નિગમ, સંગ્રહ વગેરે જે સાત નયે છે તે ન ભેદ પ્રભેદની અપેક્ષાએ ૭૦૦ થઈ જાય છે, એ નય પણ એમનામાં પ્રધાન હતા એટલે કે એઓ ખૂબ જ નયના સૂક્ષ્મજ્ઞાતા હતા, એથી જ એઓ નયપ્રધાન કહેવાય છે, અભિગ્રહ વિશેષનું નામ નિયમ છે, એટલે કે એઓ વિચિત્ર અભિગ્રહોને ધારણ કરનારા હતા, એકનિષ્ઠ થઈને જે સકલ પ્રાણીઓના હિત માટે વચને કહેવાય છે તે સત્ય છે, એઓ સત્યપ્રધાન હતા, એટલે કે એઓ હિત, મિત અને પ્રિય વચન બોલનારા હતા વ્ય અને ભાવની અપેક્ષાએ શૌચના બે પ્રકારો છે, લેપરહિત, થવું એ દ્રવ્યની અપેક્ષાએ શોચ છે, અને નિરવ આચરણ કરવું એ ભાવની અપે Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गनप्रश्नोयो दर्शनं सम्यक्तव, तत्प्रधानं यस्य स तथा, चारित्रमधान:-बारित्रक्रिया, तत् मधान यस्य स तथा, उदार:ज्याशयः, तथात्र-'घोरे घोरगुणे घोर तवस्सी धोरंबभचेरवाली , उछहसरीर' छाया-घारी घोर गुणी घोरतप. स्त्री घोरब्रह्मचर्य वासी उन्छुढशरीरः' इति संग्राहाम तंत्र-घोर: सातिशयदीसियुक्तः, घोरगुणःसर्वोत्कृष्पगुणयुक्तः. घोरतपस्वी कातेरजनदुकरंतपःकारकः, घोरन्न भचारो=अल्पमत्वाननु ठेयब्रह्मचर्य । युक्तः, उच्छूढशरीर:-उच्ढम् उज्झितमिव संस्कार परित्यागात शरीर येन संः, सर्वथा शरीरसंस्कार परिवर्जित हत्यर्थः । नया-चतुर्दशपूर्वी-चतुदेशपूर्वधारकः-तथा-चतुर्ज्ञानोपगतः मति-श्रुनावधिमनःपर्यवेनि ज्ञान और निरवध आचरण करना यह भाव की अपेक्षा गौच है. इस प्रकार के शौच प्रधान ये थे। मत्यादिक ज्ञानों से प्रधान होने के कारण ये ज्ञानप्रधान थे, सम्य. क्वरूप दर्शन से प्रधान होने के कारग दर्शनप्रधान थे, क्रियारूप चारित्र से प्रधान होने के कारण चारित्रप्रधान थे, ऋज्वाशयरूप उदारभार से प्रधान होने के कारण ये उदार थे, यहाँ घोरे' इत्यादि । सातिशयदीप्ति से युक्त होने के कारण ये घोरगुण वाले थे, कातर-कायर जन जिन तपों को नहीं कर सकते थे-ऐसे कठिन तपों को करने के कारण ये घोरतपस्वी थे, हीनशक्तिवाले जीव जिस ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकते थे, उस ब्रह्म चर्य व्रत को ये धारण करते थे, इसलिये घोर ब्रह्मचारी थे, अपने शरीर का संस्कार करना इन्होने छोड रखा था इसलिये ये उच्छढशरीर थे, चौदह पूर्व के पूर्ण रूप से पाठी थे,इसलिये ये चतुर्दशपूर्व धारकथे, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्य यज्ञान इन चार ज्ञानों से सहित थे इस "ક્ષાએ શીચ છે. એઓ શૌચપ્રધાન હતા, મતિ વગેરે જ્ઞાનપ્રધાન હોવાથી એ જ્ઞાનપ્રધાન હતા. સમ્યફવરૂપે પ્રધાન હોવાથી એઓ દર્શન પ્રધાન હતા. કિયા રૂપ ચારિત્ર પ્રધાન હોવાથી એ ચારિત્ર્ય પ્રધાન હતા. ત્રાજવાશયરૂપ ઉદારભાવપ્રધાન હોવાથી मेरो मार हता. मी घोरे वगैरे. सातिशय हातिथी युत वा MECL मेन्या ઘરગુણવાળા હતા. કાતર લેકે જે તપ આચરી શકે નહિ તે કઠિન તપનું એઓ આચરણ કરતાં હતા. એથી એ એ ઘેર તપસ્વી હતા. દુર્બળ છે જે જાતિના બ્રહ્મચર્યનું પાલન કરી શકે નહિ તે બ્રહ્મચર્ય વ્રતને એઓ ધારણ કરતા હતા. એથી એઓ ઘેર બ્રહ્મચારી હતા. પિતાના શરીરના સંસ્કારની બધી ક્રિયાઓને એમણે સદંતર ત્યાગ કર્યો હતે એથી એ ઉછૂઢ શરીર હતા. ચૌદ પૂના પૂર્ણ પાઠી હતાં. એથી એઓ ચતુર્દશપૂર્વ ધારક હતા. મતિજ્ઞાન, શ્રુતજ્ઞાન, અવધિજ્ઞાન અને મન Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनो टोका. १०७ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् _ ५३ चतुष्टययुक्तः। एवंविधः पन पञ्चभिरनगारशतैः पञ्चशतसंख्यकैरन्गारैः सार्द्ध सह सपरिवृतःस वेष्टितः पूर्वानुपूर्वी चरन् तीर्थ करपरम्पर या विहरमाणः, ग्रामानुग्रामम्-एकस्माद् ग्रामाद ,ग्रामान्तर द्रवन्गच्छन् सुखसुखेन विहरन्, यत्रैव-श्रावस्ती नगर, यत्र व कोष्ठक चैत्य, तत्र व उपागच्छति, श्रावस्ती-नगर्या बहि: श्रावस्ती नगरी बहि:मदेशे स्थिते कोप्टके चैत्ये यथाप्रतिरूप साधु कल्पानुसारम् अवग्रहम् धनपालाज्ञाम् अवगृह्य-गृहीत्या संयमेन सप्तदर्शविधेन तपसा द्वादश विधेन च आत्मानं भावयन् वासयन् विहरतीति । इदमत्रवोध्यम्-आजवादीनां चरणकरणान्तर्गतत्वेऽपि यत्पुन रुपादान तत् आर्जवादीनां प्राधान्यख्यापनामिति । जितक्रोधत्वादीनाम् 'आर्जवादीनां चाय विशेषो बोध्यः-जितक्रोधादिपदैः उदयावर थापाप्तानां लिये चतुर्ज्ञानोपगत थे, इनके साथ पांच सौ अनगार थे, अकेले नहीं थे, तीर्थंकर परंपरा के अनुसार ये विहार करने में रत थे-अनः उसी परंपरा के अनुसार ये विहार करते२, एक ग्राम सं दुसरे ग्रम में बडे यतना से धर्मोपदेश की वरसा करते२ जहां श्रावस्ती नगरी थी. और उसमें भी 'जहां वह कोष्ठक चैत्य था वहां पर आये, वहां आकर वे उम्म नगरी. के बाहर बने हुए उस कोष्ठक चैत्य में साधुकल्प के अनुसार वनपाल की आज्ञा लेकर १७ प्रकार के संयम से और १२ प्रकार के तप से आत्मा को वासित करते हुए ठहर गये. यहां ऐसा समझना चाहिये-आर्जव आदि यद्यपि चरण और करण के अन्तर्गत हैं-फर भी यहां जो स्वतन्त्र रूप से उनका उपादान किया गया है-वह उनमें प्रधानता प्रदर्शित करने के लिये किया गया है। जितक्रोधत्व आदि में और आजव आदि में પર્યયજ્ઞાન એ ચારેચાર જ્ઞાનથી એ યુકત હતા એથી ચતુર્ણાને પગત હતા. એમની સાથે પાંચસો અનગાર હતા, એઓ એકલા હતા નહિ. તીર્થકર પરંપરા મુજેબે વિહાર કરવામાં, એઓ રત હતા. આમ એઓ તીર્થંકર પરંપરા મુજબ વિહાર કરતાં કરતાં એક ગામથી બીજા ગામ ખૂબ જ નિષ્ઠાથી ધર્મોપદેશની વર્ષા કરતાં કરતાં જ્યાં શ્રાવસ્તી નગરી હતી અને તેમાં પણ જ્યાં તે કેષ્ઠિક ચત્ય હતું ત્યાં આવ્યા. ત્યાં, આવીને તે નગરીની બહારના તે કેપ્ટક ચીત્યમાં સાધુ ક૫ મુજબ વનપાલની આજ્ઞા મેળવીને ૧૭ પ્રકારના સંયમથી અને ૧૨ પ્રકારના તપથી પોતાના આત્માને વાસિત કરતા તેઓ ત્યાં રોકાયેલા આર્જવ વગેરેને જે કે ચરણ અને કરણમાં સમાવેશ થાય છે છતાં એ અહીં જે સ્વતંત્રરૂપથી એમનું ગ્રહણ કરાયું છે તે તેમનામાં પ્રધાનતા પ્રદર્શિત કરવા માટે જ છે તેમ સમજવું. જિતક્રિોધત્વ વગેરેમાં અને Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ S राजनीयसूत्रे क्रोधादीनां विफलीकरण , सृचितं मार्दवपधानादिपदैस्तेपामुदयनिरोधः सुचितः । अथवा-यत- एत्र जितक्रोधादिः, अत एव क्षमादिप्रधान इति हेतु हेतुमद्भावाद् विशेष बोध्य इति । तथा- 'ज्ञानसम्पन्नः' इत्यादिपदैः ज्ञानादिममात्र सूचितम् । 'ज्ञानप्रधानः' इत्यादिपदेस्तु ज्ञानादिप्राधान्यं सूचितमिति ॥ मु० १०७ ॥ मूलम् - तरणं सावत्थीए नयरीए सिंघाडग-तिय- चउक्कखच्चर - चउम्मुह - महापहपहेतु महया जणसदेइ वा जणबृहेइ वा जणबोलेइ वा जणुम्मीइ वा जणुकलियाइ वा जणसंनिवाएइ वा जाव परिसा पवोसइ । 2 A J एणं तस्स चित्तस्स सारहिस्त तं महया जणस च जाव जणसंनिवार्य च सुताय पासित्ता य इमेयारूवे अज्झत्थिए जाव ससुप्पज्जित्था किणं अज्ज सावत्थीए जयरीए इंदमइ वा यह अन्तर हैं कि जो जितक्रोधादि होता है वह उदयावस्थाप्राप्त क्रोधादिकों को विफल बना देता है, और जो मार्दवधानादि पदों वाला होता है वह क्रोधादिकों के उदय का निरोध कर देता है । यही बात मृचित करने के लिये इन पदों को भिन्नर रूप में रखा गया है । जिस कारण वह जितक्रोधादि होता है, उसी से वह क्षमादिमधान होता है - इस तरह हेतुहेतुमद्भाव को लेकर इनमें विशेषता जाननी चाहिये, तथा 'ज्ञानसंपन्न' इत्यादि पदों द्वारा सिर्फ ज्ञानादियुक्तता सूचित की गई है और 'ज्ञानप्रधान' इत्यादि पदों द्वारा उनमें प्रधानता प्रकट की गई है । . १०७ ॥ આવ વગેરેમા આ તફાવત છે કે જે જિતક્રોધી વગેરે હાય છે તે ઉદ્દપયાવસ્થા પ્રાપ્ત ક્રોધાદિકાને ઋફળ બનાવી મૂકે છે. અને જે માન પ્રધાનાદિપટ્ટાવાળા હાય છે તે ોધાદિકાના ઉદયને નિરોધ કરે છે. એ વાતને સૂચિત કરવા માટે જ આ પટ્ટાનું ભિન્ન ભિન્ન રૂપમાં ગ્રહણ ‘કરાયું છે. જેને લઈને તે જિતાધાદિ હાય છે, તેને લઈને જ તે ક્ષમાદિત્રધાન હોય છે. આ પ્રમાણે હેતુ હેતુમદ્રભાવને લઇને એમनाम विशेषता ललुवी लेखे तेभन "ज्ञानसंपन्न" वगेरे यह बडे ईत ज्ञानाहि युग्तता सूचित हवामां गावी छ भने "ज्ञानप्रधान" वगेरे यहो बडे तेभनामां પ્રધાનતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે. ૧૦૭ા Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिना टोका' सु. १०७ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् । खंदमहेइ वा एवं रुद्दमहेइ मउंदमहेइ वा वेसमणमहेइ वा नागमहेइ वो भूयमहेइ वा जश्वमहेइ वा थूभमहेइ वा चेइयमहेई वा रुक्खमहेइ वा गिरिमहेइ वा दरिमहेइ वा अगडमहेइ वा. नईमहेइ वा सरमहेइ बा सागरमहेइ वा, जं णं इमे बहवे उग्गा उग्गपुत्ता भोगा भोगपुत्ता राइन्ना इक्खगा: णाया कोरव्वा जहा उववाइए तहेव अप्पेगइया हयगया जाव अप्पेगइया पायचारविहारेणं महया महया वंदावंदएहिं निग्गच्छंति ? । एवं संपेहेइ संपेहित्ता कंचुइनपुरितं सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी किं णं देवाणुप्पिया ! अज सावत्थीए नयरीए इंदमहेइ वा जाव सागरमहेइ वा जेणं इमे बहवे उग्गा जाव णिग्गच्छति ॥ सू० १०८ ॥ .. ... . छाया-ततः खल श्रावस्त्या नगर्याः शृङ्गाटक-त्रिक-चतुष्क-चत्वरचसुमुख-महापथपथषु महान् जनशब्द इति वा जनव्यूह इति वा जन वाले इति वा जनकल कल इति वा जनोमिरित वा जनात्कलिकेति वा जनसन्निपात .. इति वा यावत् परिषत् पयुपास्त। . ... .. .. 'तए ण सावत्थीए नयरीए' इत्यादि । मूत्रार्थ-(तए णं) इसके बाद (सावधीए नयरीए) श्रावस्ती नगरी के (सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-मडापहपहेसु महया. जणसदेह वा. जणवूहेइ वा, जणबोलेइ वा जणकलकलेइ . वा जणुम्मीइ. वा. जणुकलि याई वा, जणस निवाएइ वा, जाव परिसा पज्जुवासई) अङ्गाटक में त्रिक.में चतुष्क में, चत्वर में, चतुर्मुख में, महापथ में एवं पथ में मिलित मनुष्योका पर 'तए ण सावत्थीए नयरीए' इत्यादि । .. .सूत्रार्थ:-(त एण) त्या२५छ। (सावत्थोए नयरोए) श्रावस्ती नारीना (सिं, घाटग-तिय-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापहपहेसु महया जणसदेवा जा बूहेइवो, जणबोलेइवा जणकलकलेह वा जणुम्मीइ वा जणुक्कलियाइ वाम जणस निवाएइ वा जाव परिसा पज्जुवासइ) Uoutमा, त्रिशुभां, यता, માં, ચત્વરમાં, ચતુર્મુખમાં, મહાપમાં અને પથમાં એકત્ર થયેલા અને આવકો Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ লগ্রপ্নাথপুর । ततः चलु तस्य चित्रस्य सारथिन महान जनशब्दच याचत जना सानिपातं च श्रुत्वा च दृष्ट्वा च अयमेनप आध्यात्मिको यावत् समुदपद्यान, किं. खलु अद्य श्रावस्त्यां नगर्याम् इन्द्रमह इनि वा कन्दमह इति वा पत्र रुद्रमह इति वा मुकुन्द मह इनि का वनवगमह इति वा नागमद इति वा भूतमहइति वा यक्षमहति वा स्तुपमह इति वा चैत्यमह इति वा वृक्षम स्परमें आलाप प्रचुररूप से होने लगा और लोक भी इकटे हुवे थे परम्पर में अव्यक्त वर्ण बाली ध्वनि भी, लोगों के मुख से निकलने लगी, कोलाहल जैमा मच गया. लोगों में अगर भीड होने से एक दूसरे का संघर्ष भी होने लग गया, कहीं२ मनुष्यों को थोडी भीड छटकर खड़ी हो गई, अन्य अन्य स्थानों से आ २ कर उसमें मिलने लगे. यावत् परिपदा उनकी पर्युपालना करने लगी । (तएण' तम्म चित्तस्म सारहिम्म त महया जणसच जाव जग. संनित्राय च सुणत्तो य पासित्ता य इमेयाहवे अन्झथिए जाच समुप. जित्था) इसके बाद उस महान् जन शब्द को यावत् जनसनिपात को सुनकर एवं देखकर उस चित्र मारथि को इस प्रकार का यह आध्यात्मिक यावत् मनोगत विचार उत्पन्न हुआ, (कि ण अज्ज सावत्थीए गरीए इंदमहेइ वा ग्वदमहेइ वा एवं रुदमहेइ चा-मउंदमहेइ वा वेसमणमहेइ वा, नाग महेइ वा, भूयमहेइ वा, जखमहेइ वा) क्या आज श्रावस्ती नगरी में કરનારા લોકોમાં પરસ્પર પ્રચુરરૂપમાં આલાપ થવા માંડે–વાર્તાલાપ પ્રારંભ થયોલેકે ધંધારે સંખ્યામાં એકત્ર થવા લાગ્યા. પરસ્પર અસ્કુટ ધ્વનિમાં પણ તેમાં વાતચીત થવા લાગી. પરિણામે ઘંઘાટ જેવું વાતાવરણ થઈ ગયું. ત્યાં અપાર ભીડ થવા માંડી અને તેથી એક બીજાથી સંઘર્ષિત થઈને જ લકે અવરજવર કરી શકતા હતા. એવી પરિસ્થિતિ ઉત્પન્ન થઈ ગઈ. કેટલાક સ્થાનો પર ચેડા માણસે ટેળાના આકારમાં એકત્ર થઈ ગયા. અને બીજા લોકે પણ તેમની પાસે રૂકાવવા લાગ્યા, થાતું, પરિદા તેમની પર્યું પાસના કરવા લાગી. . (त एण तस्स चित्तम्म सारहिस्स त महया जणसदं च जाव जण सनिवायचं सुणेत्ता य पासित्ता य इमेयारूचे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था) ત્યારબાદ તે મહાન જનશબ્દને યાવત્ જનસંનિપાતને સાંભળીને અને જોઈને તે ચિત્રસારથીને આ જાતને આધ્યાત્મિક યાવતું મને ગત વચાર ઉત્પન્ન થયા કે (किण अज्ज सावत्थीए गयरीए इंदमहेइ वा खंदमहे वा एवं रुद्दमहेइ वा मदमहेइ वा वेसमणमहेइ वा नांगमहेइ वा, भूयमहेइ वा जक्खमहेइ वा) Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टोका. सू. १०८ सूर्यातदेवस्य पूर्व भवजीवादेशिराजवर्णनम् इति वा गिरिसह इति वा दरीमत् इति को अबसमद इति या नदीसह इति वा सरोगह इति वा सागरसह इति वा; यख इमे बहन उना उग्नपुत्रा • भोगा भोगना राजन्याः इवाको ज्ञाता सौरमा यथा औषपातिके तथैव इन्द्र को निषित करके उस्त हो रहा है, या स्कन्द को निमित्त करके उत्सव हो रहा है, या रुद्र को निषित करके उत्सव हो रहा है, या 'मुकुन्द' को निमित करके उरू हो रहा है, या वैश्रवण को निमित्त करके उत्सव हो रहा है, या जाग--को-विदित करके उत्सव हो रहा है, या शूतको निमिद करके उनकोसा है, काबा कोनिषित कर के उत्सव हो रहा है (थूराम , मग हे का, कलार गा, गिरिमहेइ वा, दरिस हेइ था, अइहेइ बा, ईरहे पा, निदेइ का, सागरलहेइ वा,) 'या किसी दर को निर्मित करके उत्सव हो रहा है, या दिली चैत्थ-उद्यान को निमित्त पारूले अन्न हो रहा है, या किती 'क्ष को निमित करके उत्सव हो रहा है, या किसी पर्वतको निमित्त- करकै उत्सब हो रहा है, या किसी गुप्ता को निमित्त करके उत्सव हो रहा है, या किसी-- 'अवट-कूप को लेकर के उत्सब हो रहा है, या किली नदी.को निमित्त करके उत्सव हो रहा है, या किसी तालाब के निच करके उत्सव हो रहा है; या किसी बात को निर्मित करके उल्लेब हो रहा है? (जेण इमे यहवे उगा 'उग्मपुत्ता, लोगा भोगापुत्ता; राइन्ना, रक्खा , णाधा, कोरबा. --- આજે શ્રાવસ્તી નગરીમાં ઈન્દ્રના નિમિત્તે કેઈ ઉત્સવ ઉજવાઈ રહ્યો છે, સ્કંદના -"निमित्त Sanswो छ, निमित SANGaz41 रह्यो छ, 'મુકદના મિમિત્ત કે ઉત્સવ ઉજવાઈ રહ્યો છે કે વૈશ્રવણના નિમિત્તે કઈ ઉત્સવ Ans रह्यो छन निमित्त.. असा हा छ, सूतनिभित्तो ६. स. पारो छ यक्षना :निमित. स 'Sri Rो छ. (थमम. ' देई वा, वनइ घरा खोइ घा, शिरिमोई वा दहिह मो, अगड. ''महेइ वा, नईमहे वा, हारमोइको लापरलेहेई ) 31 स्तूपन! निमित्त "उत्सव wो छ, मोत्यांना निशित A Govqis Rो छ, वृक्षनानिमित्त ઉત્સવ ઉજવાઈ રહ્યો છે, કે પર્વતના નિમિત્તે, ઉત્સવ ઉજવાઈ રહ્યો છે કે ગુફાના --નિમિ ? ઉત્સવ ઉજવાઈ રહ્યો છે, કે ઈ-ચાવટના નિમિત્ત ઉત્સવ ઉજવાઈ રહ્યો . छ, . हीना निमि: BAR Carts Rो छ, तापना निमित उत्सव 1; Saxqz) ,२हो .2, 3.315 द्रना , निभिन्ते Grous Rो छ ? जे णं इमे. पहवे उग्गा उग्गफुत्ता. योगा भोजपुता, राइन्ना, लगा, णासा, कोरव्या, जहा Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीयात्रे अप्येक के हयगता यावत् अध्येकके पादचार विहारेण महदिमहद्भिन्द वृन्दैर्निर्गच्छन्ति ?, एवं संप्रेक्षते संप्रेक्ष्य कञ्चुकीयपुरुष शब्दयति, शब्दयित्वा .. एवमवादीत-किं खलु देवानुप्रियाः ! अध श्रावस्त्यां नगर्याम् इन्द्रमह इति वा यावत् सागरमह इति वा, यत्खलु इमे बहव उग्रा यावत् निर्गच्छन्ति? ।१०८॥ 'तएण' इत्यादिटीका--ततः खलु श्रवस्त्या नगर्या शृङ्गाटक-त्रिक-चतुष्क-चत्वर चतुर्मुख -महापथपथेपु-तत्र-शृङ्गाटक-शृङ्गाटकाकृतिकस्त्रिकोणो मार्गः, त्रिक-त्रिपथ जहा उववाइए तहेव अप्पेगइया हयगया) जो ये बहुत से उग्रवंश के मनुष्य, उग्रवंश के पुत्र, भोगवंश के मनुष्य, भोगवंश के पुत्र, राजन्यवंश के मनुष्य, इश्वाकुवंश के मनुष्य, ज्ञातवश के मनुष्य, कुरुवंश के मनुष्य, जैसा कि इसके आगे औपपातिक सूत्र में कहा गया है उसके अनुसार कितनेक घोडों पर चढ कर (जाव अप्पेगड्या पायचारविहारेण महयार चंदावदएहिं निगच्छति) यावत् कितनेक पैदल ही भिन्नर समूह में -होकर निकल रहे हैं। (एवं स पेहेइ) ऐसा उसने विचार किया-(सपे हित्ता कंचुइज्जपुरिस सदावेई) ऐसा विचार करके उसने कचुकीयपुरुष को चुलाया (सदावित्ता एवं यासी) बुलाकर उससे कहा-(किंण देवाणुप्पिया ! अन्न सावत्थीए नयरीए इंदमहेइ वा, जाव सागरमहेइ वा जे ण इमे बहवे उग्गा, जाव निग्गच्छंति) हे देवानुप्रिय ! क्या आज श्रावस्ती नगरी में इन्द्र महो. -त्सव है या यावत् सागर महोत्सव है कि जिससे ये उग्रवश के मनुष्य यावत् जा रहे हैं। इ उववाइए तहेव अप्पेगया हयगया) थी ॥ अवशना पुत्रो; on शना भाणुस, मावशता पुत्रो, न्यशना माणुसी, वाशना भायुसा, 'જ્ઞાતવંશના માણસે કુરુવંશના માણસે-પહેલાં પપાતિક સૂત્રમાં જે પ્રમાણે વર્ણન ४२वामा माव्यु छ ते भु०४५ ४ मा पर सवार थधन (जाव अपेगझ्या ...पायचारविहारेणं महया२ वदाव'दएहिं निग्गच्छति) यावत् ८६ पाया नुहा नुहा समूडमा मेत्र न ४ २ह्या छ. (एवं संपेहेइ) AL तना तो विया२ ४.: (सपेहिता क'चुइज्जपरिसं सद्दावेड) मा प्रभारी विया२ ४३शन १ तेणे युधीय पुरुषने मालाव्या. (सदावित्ता) एवं वयासी) मालावीन तेने छु किणं देवाणुप्पिया! अज्ज सावत्थीए नयरीए इदमहेइ वा, जाव सागर महे वा जेणं इमें बहवे उग्गा, जाव निग्गच्छति) वाप्रिय ! शुभा શ્રાવસ્તી નગરીમાં ઈન્દ્રમહોત્સવ છે કે ચાવતું સાગર મહોત્સવ છે કે જેથી ઉગ્રવંશના मासे यावत १४ २६ा ? . . Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. सुबोधिनी टीका सू. १०८ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ___ यत्र त्रयो मार्गाः सम्मिलन्ति तत् चतुष्कम् चतुष्पथ' यत्र चत्वारो मार्गा मिलितास्तत्, चत्वरम् अनेकमार्गसंगमस्थानम्. चतुर्मुखं यतश्चतसृष्वपि दिक्षु पन्थानो निस्सरन्ति तत, महापथ:-राजमागः, पन्था सामान्यमार्ग, एतेषामितरेतरयोगद्वन्द्वः, तेषुः तथोक्तपु, महान् प्रचुरः जनशब्द इति वा जनानां परस्परालापादिरूपः, जनव्यूह जनबोलाजनानामव्यक्तवर्णा ध्वनि:, जनकलकला जनानां,कोलाहलध्वनिः तत्र-योलकल्कलयोरय विशेषः बोल अविभाव्यमानवचनविभागः .. कलकलस्तु विभाव्यमानवचनविभाग इति, जनोमि: जनसम्बाधः, जनोत्कलिका-जनानां लघुतरः संघातः,जनसन्निपातः= जनानाम् अन्योन्यस्थानेभ्य एकत्र मीलनम्. यावत्-पपत्-उग्रोग्रपुत्रादिरूपा टीकार्थ-तब श्रावस्ती नगरी के शृंगाटक-सिंघाडे की आकृति जैसे त्रिकोण वाले मार्ग में, त्रिक-तीनमार्ग से मिले हुए मार्ग में, चत पथमें चार मार्गों से मिले हुए माग में, चत्वर में अनेक मागों के संगमवाले स्थान में,चतुर्मुख-जहांसे चारों दिशाओं में मार्ग निकलते हैं, ऐसे रास्ते में, महा पथ राजमार्ग में, और पथ-सामान्य मार्ग में प्रचुर मात्रा में जनशब्द हुआ, आपस में यातचीत करने की अवाज निकली, जनव्यूह-जनसमुदाय-आकर इकट्ठा होने लगा, जनबोल-मनुष्यों की अव्यक्त वर्णवाली ध्वनि होने लगी जनकलकल-जनों की कोलाहल रूप ध्वनि होने लगी। वोल में और कल. कल में अन्तर इतनाही है कि बोल में वचनविभाग अविभाव्यमान (अलग२) होता है और कलकल में वचनविभाग विभागमान (अव्यक्त धनि) होता है, जनसम्बा. धजनों के जमघट में होने वाले पारस्परिकविमर्द का नाम जनोमि है। तथा मनु,यों का जो लघुतर संघात है वह जनोत्कलिका है. अन्योन्यस्थानों से आगत ....... नि:-त्यारे श्रावस्ती नगरीना 128-शिगोडानी माति वा विवाવાળા માર્ગમાં, ત્રિક-ત્રણ માર્ગો જ્યાં એકત્ર થાય તે માર્ગમાં, ચતુષ્પથમાં-ચાર રસ્તાઓ જ્યાં ભેગા મળે તે માર્ગમાં, ચવરમાં-ઘણું માર્ગે જ્યાં એકત્ર થાય તે સ્થાનમાં, ચતુર્મુખ-જ્યાંથી ચોમેર રસ્તાઓ જતા હોય એવા માર્ગમાં, મહાપર્થરાજમાર્ગમાં અને પથ–સામાન્ય માર્ગમાં-ભારે જનશબ્દ થયે. માણસેને ઘાટ થ. પરસ્પર વાર્તાલાપ કરવાથી શેકબકેર થયે. જનબૃહ–જનસમુદાય-એકત્ર થવા લાગે, જનબોલ–માણસોની અવ્યકત અવનિ થવા લા, જનકલકલ-માણસને લાહલરૂપ ધ્વનિ થવા માંડે. બેલમાં અને કેલરવમાં તફાવત આટલે જ છે કે બેલમાં વચન " વિભાગ વિભાવ્યમાન હોય છે અને કલકલમાં વચનવિભાગ વિભાવ્યમાન હોય છે. જનસમ્બાધજના જમઘટ્ટમાં થનાર પારસ્પરિક વિમર્દનું નામ છે. તેમજ માણસને જે લઘુતર સંઘાત છે તે જેનેકલિકે છે. બીજા ઘણું સ્થાનેથી આવેલ માણસે Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० राजप्रश्नीयसत्रे पर्युपास्ते । अत्र याकडेन जमो अन्नमवत' इत्यारभ्य 'अभिनुहाविगएण पंजालउडा' इत्पन्नावोऽपि पाठ औपातिकत्रोक्तचम्पानगरीगत श्री महावीरस्वामिलमायानपठितः सोऽपयन बाल्या, नवरा-अत्र छत्रा दयस्तीर्थ करातिशेषाः न बायाः। तालमणे भगवं. महावीरे' इत्यादि। भगवन्नाम स्थाने पासायबिज्जे केसी नाम कुमारसमणे जाईसंपण्णे . इत्यादि बाच्यम् । अन्न 'जन - शब्द इति न इत्यादौ इति शब्दो वाक्याः । लङ्कारे' 'वा' शब्दः लमुन्धये इति ...... 'सए गं तल चिन्तन, इत्यादि-ततः खलु तस्य चित्रस्य सारथे । तं महान्त जनशब्दच थावत् जनसंनिपातं च शुल्ला आकण्यं तं. महान्तं मनुष्यों का जो एक जगह मिलान होता है उसका नाम जनसन्निपात है। यावत उग्र, उग्नपुत्र आदि को की परिपक्षाने पयुपासना की यहाँ यावत् शब्द से 'बहुजणो. अण्णमण यहां से लेकर 'अभियुहा विणएण पंजलि उडा' यहां तक का सच पाठ. जो कि औपतिकवन में ३८ वे सूत्र में चम्पानगरीगत श्रीमहावीर स्वामी के आगमन के पास में लिखा जा चुका है, ग्रहण किया गया है। उस पाठ गत छत्रादिक जो कि तीर्थकर प्रकृति के अतिशयरूप हैं, यहाँ ग्रहण नहीं करना चाहिये-तथा सिमेणे भगवमहावीरे' इत्यादि भगवन्नाम के स्थान में लांसाच्चिने केसी नाम' कुमारसमणे जाइस पन्ने ऐला. पाठे कहना चाहिये, “जनशब्द इति वा' इत्यादिपाठ में आगत. इति शब्द वाक्याल कार और 'वा' शब्द. समुश्चय में आया है। 'तरण तस्ल चित्तस्म' इत्यादि इसके बाद उस चित्र सारथि को उस में स्थान या यात्राय । तेनु नाम निपात छ. यावत् , अपुत्र वगैरेनी परिपहारी पथुपासना . यावत् ७४थी 'बलुजणों अण्णमण्णस्स" माथी भजन "अभिवहां विणएजजलिउड सुधी भोपाति: सूत्रना ૩૮ મા સૂત્ર મુજબ ચંપાનગરી, ગત શ્રી મહાવીર સ્વામીના આગમન પાઠમાં જે વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે તે બધું અહીં શહેણ સમજવું. તે પાઠમાં જે છત્રાદિકકે જે તીર્થકર પ્રકૃતિના અતિશયફપ છે- તેમનું ગ્રહણ અહીં કરવું નહિ. તેમજ 'समणे भय महावीरे' पोरे लगवानना नामानी या पालावचिज्जे केसी नाम कुमारसमणे जाइस पन्न". An ancial पातु बडा समायुः "जनः शब्द इति वा" वगैरे, पामा अावेस. ति' A पाच्या १२भा अने वा' श०४ सभुश्य ना ३५मा छ..... ... .. ... .... . ...'तए ण तस्स चित्तस्स इत्यादि, त्या२५७ते, यत्र सारथीन ते महान -: ...... . :. Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका. सू. १०८ सूर्याभदेवरा पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् जनसमुदाय दृष्ट्वा च अयमेतद्रूपः आध्यात्मिको यावत् समुदपद्यत-समुन्. त्पन्नः। यावच्छब्देन 'चिन्तितः, कल्पितः, प्रार्थितः, मनोगतः संकल्प;' - इति पदसमूहः व्यशीतितमन्त्रावद् बोध्यः। अर्थोऽप्येषां तत एव गम्य ___ इति । सम्पति मनोगतसंकल्पस्वरूपमाह-'किं ण' इत्यादि । किं खलु 'किम्' - इति वितके, 'खलु' इति वाक्यालङ्कारे, अध श्रावस्त्यां नगर्याम् ईन्द्रमहः- इन्द्रः शक्रः तन्निमित्तो महाउत्सवः= इति वा, एव स्कन्दमहः' इत्यारभ्य 'सागरमहः' इत्यन्तानां पदानामपि अर्थोऽनुसन्धेयः। नवरम्-स्कन्दा कार्ति महान् जनशब्द को यावत् जनस पातको सुन करके और देख करके इस प्रकार का यह आध्यात्मिक यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ. यहां यावत् शब्द से 'चिन्तित,... कल्पित, प्रार्थित, मनोगत' ये विशेषण संकल्प के ग्रहण किये गये हैं। इनका अर्थ :८३वे सूत्र में स्पष्ट किया गया है। अतः वहीं से वह जानना चाहिये। किं णं' इत्यादि 'कि' शब्द वितर्क में और खलु' शब्द वाक्याल कार में आया है। चित्र सारथी को जो संकल्प उत्पन्न हुआ है वही इन शब्दों द्वारा प्रकट किया गया है-क्या आज श्रावस्ती नगरी में इन्द्रमह है १. इन्द्र नाम शक्र का है. इस शक्र को निमित्त करके किया गया मह-उत्सव वह इन्द्रमहः है. 'स्कन्दमह' से लेकर 'सागरमह' तक के पदों का अर्थ भी इसी प्रकार से जानना चाहिये. स्कन्द नाम कार्तिकेय જનશબ્દને યાવત્ જનસ પાતને સાંભળીને અને જોઈને આ જાતને આધ્યાત્મિક યાવત ५. उत्पन्न थयो. मी यावत् २०४थी : चिन्तित, कल्पित, प्रार्थित, मनोगत' સંક૯૫ માટે આ વિશેષણનું ગ્રહણ સમજવું. આ બધાને અર્થ ૮૩ મા સૂત્રમાં २पट ४२वामा मा०यो छ. तथा विज्ञासुनाये त्यांथी odel से नये. "कि ण ઈત્યાદિ. “” શબ્દ વિતર્ક માટે અને “ ” શબ્દ વાક્યાલંકાર માટે પ્રયુકત થયેલ છે. ચિત્રસારથિને જે સંકલ્પ ઉત્પન્ન થયે તેજ આ નગ્ન શબ્દો વડે પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે કે શું આજે શ્રાવસ્તી નગરીમાં ઈન્દ્રિમહ છે. ઈન્દ્ર શુક્રનું નામ छ. PAL AS मत ४३n24 -SA -भड छ. "स्कदमह" थी भांडीन "सागरमह' सुधाना ५५i पहने! अ, भा प्रमाणे on eadeg.. नये । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीयसूत्रे केयः, रुद्रः शिवः मुकुन्दः नारायणः, वैश्रवण: कुवेहः, नागो भवनपतिवि शेषः, भूतयक्षौ व्यन्तरविशेपो, स्तूपः चैत्यस्तूपःशिखर वा,चैत्यंचितात्थित स्मारकचिह्नम् वृक्षा=अश्वत्थादिः, दरी-गुहा, गिरिः पर्वतः, अवटा गतः,नदी, सर: सागरा समुद्राः। 'इति' शब्दः सर्वत्र स्वरूपनिर्देशपरः, 'या' शब्दः समुच्चये । ततश्च इन्द्रमहादिपु कश्चिन्महोऽस्ति, यत्खलु इमे बहवः उग्राः भगवता आदिनाथेन आरक्षकपदस्थापितानां वंशजाता, उग्रपुत्राः कुमाराव. स्थोपेता उग्राएव उग्रपुत्राः, भोगा: आदिनाथेन गुरूपदे स्थापितानां वंशजाताः, भोगपुन्ना:-तेषां पुत्रा एव, राजन्याः भगवताऽऽदिनाथेन वयस्यपदे स्थापि का है, रुद्र नाम महादेव का है मुकुन्द नाम नारायण का है, वैश्रवण नाम कुवेर का है. भवनपतिविशेप का नाम नाग है, भूत और यक्ष ये व्यन्तर विशेष है। स्तूप का नाम चत्य स्तूप अथवा शिखर है. चिनास्थित स्मारक चित्र का नाम चैत्य है, पीपल गैरह के झाड का नाम वृक्ष है, गिरि नाम पर्वत का है, गुफा का नाम दरी है, अवद का नाम गर्त, नदी, सर-तालाब और सागर ये सब अर्थतः प्रतीत ही है। इति शब्द यहां सब जगह स्वरूप. निर्देशपरक है 'वा' शब्द समुच्चय में है। इस तरह से उसने विचार किया कि क्या इन्द्रमहादिकों में से आज कोई मह-उत्सव है कि जिसमें ये अनेक उग्र-भगवान् आदिनाथ द्वारा जिन्हें आ रक्षक के पद पर स्थापित किया गया है, उनके वंश के लोग-जा रहे है ये अनेक उग्रपुत्रकुमारावस्थोपेत उग्ररूप उग्रपुत्र जा रहे हैं, ये भोग आदिनाथ भगवान जिन्हें गुरु के पद पर स्थापित किया उनके वंशके लोग जो रहे हैं, भोगपुत्र-उनके कुमारावस्थापन्न लडके जा रहे हैं, ये राजन्य-आदिनाथ કાર્તિકેયનું નામ છે. રુદ્ર મહાદેવનું નામ છે. મુકુન્દ નું નામ છે. નારાયણ શ્રવણ કુબેરનું નામ છે, ભવનપતિ વિશેષનું નામ નાગ છે. ભૂત અને યક્ષ એઓ વ્યક્તવિશેષ છે. સ્તૂપ નામચેત્યસ્તૂપ અથવા શિખરનું છે, ચિતાસ્થિત સ્મારકચિહ્નનું નામ સત્ય છે, પીપળ વગેરે ઝાડનું નામ વૃક્ષ છે. ગુફાનું નામ દરી છે.ગિરિ પર્વતનું નામ અવટ ગર્તા છે, નદી સર--તળાવ અને સાગર આ બધાના અર્થો સ્પષ્ટ જ છે. ઈતિ શબ્દ અહીં સ્વરુપ નિદેશપરક છે. “a” શબ્દ સમુચ્ચય માટે વપરાય છે. આ પ્રમાણે વિચાર કર્યો કે શું આજે ઇન્દ્ર મહાદિકમાંથી કઈ મહોત્સવ છે? કે જેથી એઓ ઘણા ઉગ્ર-ભગવાન આદિનાથ વડે જેમને આરક્ષપદે પ્રતિષ્ઠિત કરવામાં આવ્યા છે તેમના વંશના લેકે જઈ રહ્યા છે, એઓ ઘણા ઉગ્રપુત્ર–કુમારાવસ્થાપેત ઉગ્રરૂપ ઉંચપુત્રે જઈ રહ્યા છે, એ ભેગ-આદિનાથ ભગવાને જેમને ગુરુપદે પ્રતિષ્ઠિત કર્યા છે તેમના વંશના કલેકે જઈ રહ્યા છે, એ ભેગપુત્રે તેમના કુમારાવસ્થાપન્ન પુત્રે જઈ રહ્યા છે, એ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सुबोधिनी टोका' सु. १०८ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् तानां वंशजाताः, इक्ष्वाकवा=इक्ष्वाकुच शोद्भवाः, ज्ञाता: ज्ञातवंशीयाः, कीरव्या=कुरुव शोद्भवाः, 'जहा उबवाईए तहेव' इतोऽग्रे 'खत्तिया माहणा' इत्यारभ्य 'चंदणोलित्तगायसरीरा' इतिपर्यन्तः सर्वोऽपि पाठ औपपातिकमूत्रोक्तश्री महावीरस्वामि वन्दनार्थगतोनोग्रपु दिवद् विज्ञेयः । अप्येकके हयगताः अश्वारूढाः, यावत् अप्येकके गजगता: गजारूहाः, अप्येकके पादचारविहारेण महद्भिः अतिविशालः वृन्दवृन्दैः पृथक पृथक् समूहभूत निर्गच्छन्ति-निस्सं रन्ति-इति । एवम् अनेन प्रकारेण सप्रेक्षते, सप्रेक्ष्य कञ्चुकीयपुरुष शब्द यति, शब्दयित्वा एवम् अवादीत् उक्तवान्-किं. खलु देवानुपियाः। अद्य श्रावस्त्यां नगर्याम् इन्द्रमह इति वा यावत् सागरमह इति वा वन ते यत् खलु इमे वहब उग्रा यावद् निर्गच्छन्ति ? इति ॥ ५० १०८॥. . ने जिन्हें मित्रपद पर स्थापित किया उनके वंशके लोग जा रहे हैं, ये इक्ष्वाकुवंश के लोग जा रहे हैं, ज्ञातवंशीयजन जा रहे हैं, ये कुरुवंशीय जन जा रहे हैं, 'जहा उत्रवाइए तहेव' यहां से आगे 'खत्तिया माहणा' से लेकर 'चंदणोलित्तगायसरीरा' यहां तकका समस्त पाठ जो कि औपपातिक सूत्र में कहा गया है उस समय, जव कि श्रीमहावीर स्वामी की चन्दना के लिये उग्र-उग्रपुत्रादि कहे गये हैं यहां ग्रहण करना चाहिये, इनमें से कितनेक अश्वएर चढ कर, कितनेक हाथीपर चढ कर और कितनेक पैदल ही चलकर तथा कितनेक अपना २ विशाल समुदाय बना कर पृथक २ रूप से निकल रहे हैं। . इस प्रकार विचार कर फिर उसने कंचुकीयपुरुष द्वारपाल को बुलाया और बुलाकर उससे ऐसा कहा-हे देवानुमिय ! आज क्या श्रावस्ती नगरी में રાજ.આદિનાથે જેમને મિત્રષદે પ્રતિષ્ઠિત કર્યા છે તેમના વશના લોકો જઈ રહ્યા છે, ઈશ્વાકુવંશના લેકે જઈ રહ્યા છે, એ જ્ઞાતવંશીય લોક જઈ રહ્યા છે, એ-કુરુ शीय ४४ २ह्या छ, 'जहा उचाइए तहेव" मडी थी मा 'स्वत्तिया माहणा" थी मांडीन. "चंदणोलितगायसरीरा" मी सुधान! समस्त पार्नुકે જે ઔપપાતિકસૂત્રમાં શ્રી મહાવીર સ્વામીની વંદના માટે ઉગ્ર-ઉગ્ર પુત્રાદિ ગયા હતા–અહીં ગ્રહણ સમજવું. તેનાથી કેટલાક અશ્વ પર સવાર થઈને કેટલાક હાથી પર સવાર થઈને અને કેટલાકે પાંપાળાં જ ચાલીને તેમજ કેટલાકે પિતાને વિશાળ સમુદાય બનાવીને જુદા જુદા આકારમાં ત્યાં જવા નીકળી રહ્યા છે. * " ' આ પ્રમાણે વિચાર કરીને પછી તેણે કંચુકીય પુરુષને બોલાવ્યો અને બોલાવીને છે તેને આમ કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! શું આજે શ્રાદ્ધસ્તી નગરીમાં ઈન્દ્રમહ યાવત Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...... . . राजनीयसने मूलम्त एणं से कंचुईपुरिसे केलित कुमारसमणस्स आगमणगहियविणिच्छए चित्तं सारहि करयलपरिवाहियं जांब वद्धावेत्ता एवं वयासी-णों खल्लु देवाणुप्पिया! अज सावस्थिर णयरीए इंदम हेइ वा जीव सागरमहेइ वा जे णं इमे वह जावं वदाविदएहिं निग्गच्छंति, एवं खलु भो देवाणुपिया! पासावचिज केली नाम कुमारसमणे जाइसंपन्ने जाव दुइज्जमाणे इहमागए जाव विहरइ । ते णं अज. सावत्थीए नयरीए वहवे उग्गा जांच अप्पेगइया बंदण वत्तियाए जाव महया महया वंदावंदएहि जिग्गच्छंति दू० १०९॥ छाया-तत खल्ल स कन्चुकि पुरुषः केशिनः कुमार श्रमणस्य आग- मनगृहीतविनिश्चयः चित्रं सारथिं करतलपरिगृहीतं यावत् बद्धयित्वा एवंमयादीतनो खलु देवानुप्रिय! अद्य श्राव त्यां नगर्याम् इन्द्रयह इति वा यावत्सा इन्द्रमहं यावत् सागरमह है ? जो ये बहुत से उग्र, उग्रपुत्र आदि सबके . सव अपने २ घर से निकल कर जा रहे हैं ? ॥ १०८॥.. 'तएण से कचुईपुरिसे केसिस्स कुमारसमणस्म' इत्यादि। सूत्रार्थ-(तए ण) इसके बाद उस कंचुकी पुरुषने (केसिस कुमारसमण) के शी कुमारश्रमण के आगमन का गृहीत निश्चयवाला होकर चित्त .. सारहिं करयलपरिगहिय जाव बद्धावेत्ता एवं वयाती) चित्रसारथी से बढे विनय से दोनों हाथों की अंजलि बनाकर और उसे मस्तक पर धुमाकर एवं :: नयविजय शब्दों द्वारा उसे बधाई देकर इस प्रकार, कहा-(णो खलु देवा સાગરમહ છે ? કે જેથી એ બધા ઉગ્ર, ઉગ્રપુત્ર વગેરે સો પોતપોતાના ઘેરથી नजान हा छ ? ॥ १०८ ॥ "त एणं से कंचुईपुरिसे के सिस्स कुमारसमणस्स" इत्यादि... सूत्रार्थ (त एणं) त्या२ ५४ी ते ४थुटी पुरेषे (केसिम्त कुमारसमण०) ". भा२ श्रम मननी पात मनमा विचाशन (चितं सारहि करयल परिग्गहिय जान बद्धावेत्ता एवं वयाती) चित्र सारथिनी सा. विनम्रतापूर्व पनि हायानी मतिः नापीने अने, तेने मत ५२ . वीर सने न्यवि०४य .. .. 9m243 तेभने धामणी DAINIन२प्रभाग [-(जो खत देवाणुपिया ! Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टोका. सूत्र १०९ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवण नम् गरमह इति वा यत् खल्लु इसे बहवो यावद् तुन्दन्दैनिगच्छन्ति, एवं खलु भो देव जुप्रिय ! पापित्यीयः केशी नाम कुमारश्रमणो जातिसंपन्नो यावत् द्रवन् इहागतो यावत् विहरति । तत्खलु अब श्रावस्त्यां नगर्या बहव उग्रा यावत् अप्येक वन्दनत्तितायै यावत्महद्भिर्महद्भिन्दवृन्दै निर्गच्छन्ति ॥१०९।। टीका-'तएण से इत्यादि तत खलु स कन्चुक्रिपुरुषः केशिनः कुमारश्रमणस्य आगमनगृहीत विनिश्चयः--आगमनस्य गृहीतः निश्चयो थेन स तथा-ज्ञात केशिकुमारागमनवृत्तान्तः सन् चित्रं सारथिं करतलपरिगृहीतं यावद् वयित्वा एवम्-भवादीत् हे देवोनुपिय ! अध खलु आवस्त्यां नगर्याम इन्द्रमहादि सागरमहान्तेषु कश्चिद् महोउत्सवो नास्ति, यत् खलु इमे उग्रादयो याबद् वृन्दयन्देलिंगच्छन्ति । एवं खलु भो देवातुमिय! भवान् जानातु यदद्य खलु पापित्यीयः के शीनाम कुमारश्रमणो जातिसम्पन्नो यावत् द्रवन इह-श्रावणुणिया! अज्ज साबन्थीए णयरीए इंदमहेई वा, जाव सागरमहेइ वा "हे देवा. नुप्रिय! आज श्रावस्ती नगरी में न इन्द्र उत्सव है अथवा यावत् न सागर उत्सव है (जेण इमे वहवे जाव विंदादि निग्गच्छति, एवं खलु भो देवाणुप्पिया ! पासावचिव केसी नाम कुमारसमणे जाइसंपन्ने जाब दुइजमाणे इछमागए जाव विहरई) परन्तु जो ये बदत से उग्र उग्रपुत्रादिक अनेक विशाल समुदायरूप में होकर निकल रहे हैं-सो उसका कारण यह है कि पापित्यीय : केशी नाम के कुमारथमण जो कि जातिसंपन्न आदि पर्योक्त विशेषणों वाले है तीर्थकर परम्परा के अनुसार विहार करते हुए, एक ग्राम से दूसरे ग्राम में धर्मोपदेश करते हुए यहां पधारे हैं यावत्कोष्ठक चैत्य में विरानते है। (तेण अज सावत्थीए नयरीए बहवे उग्गा, जात्र अप्पेगइया बंदणवत्तियांए जाव महया महया वदाव'दएहिं णिग्गच्छति) अज्ज सवत्थीए णयरीए इंदमहेइ वा, जाव सागरम हेइवा) वानुप्रिय ! गरे श्रावस्ती नगरीमान न्द्र उत्सव छ । यावत् न सा॥२ उत्सव छ. (जे गं इमे यहवे जाव विदाबिंदएहिं निग्गच्छति, एवं खलु भो देवाणुप्पिया। पासावञ्चिज्ज के सीनाम कुमारसमणे जाईसंपन्ने जात्र दुइज्जमाणे इह. मागए जाव विहर इ) पशु मा घाउ पुत्राहि घणा वि समुहायना આકારમાં એકત્ર થઈને જઈ રહ્યા છે. તેનું કારણ એ છે કે પાર્થાપત્યય કેશી નામે કુમાર શ્રમણ કે જે જાતિસંપન્ન વગેરે પર્વોકત વિશેષણોવાળા છે, તીર્થંકર પરંપરા મુજબ વિહાર કરતાં કરતાં એક ગામથી બીજે ગામ ધર્મોપદેશ કરતા અહીં પધાર્યા છે. मने यावत 31°४४ शैत्यमा तमाश्री विराटे छ. (ते णं अज्ज सावत्थीए नयरीए वहवे उग्गा, जाव अप्पेगइया बंदणवत्तियाए जाच महया सहया वंदा. Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीयसूत्रे स्त्या नगर्याः कोष्ठ के चैत्ये आगतो यावद् तत् खल अध श्रावस्त्यां नगर्या' बहब उग्रा यावत् इभ्यपुत्रा अप्येकके वन्दनवृत्तितायै बन्दननिमित्त यावद् मह. द्धिमहद्भिन्दवृन्दै निर्गच्छन्तीति । मू. १०९ ॥ मूलम्-तएणं से चित्ते सारही कंचुइपुरिसस्त अंतिए एयमटुं सोचा निसम्म हटतुट-जाव-हियए कोडंवियपुरिसे सद्दावेइ. सदावित्ता एवं वयाली-खिप्पासेव भो देवाणुप्पिया ! चोउग्घंटं आसरहं जुत्तामेव उवटुवेह जाव सच्छत्तं उवटवेति । तएणं से चित्ते सा. रही हाए कयबलिकस्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सुद्धप्पावेसाई मंगलाई वत्थाई पवरपरिहिए अप्पमहग्धामरणालंकियसरीरे जेणेव चाउरघंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चाउग्घंट आसरहं दुरुहइ, सकोरिटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं महया भडचडगरविंदपरिक्खित्ते सावत्थी नयरीए मझं मझेणं निगच्छइ निग्गच्छित्ता जेणेव कोटुए चेइए जेणेव केसिकुमारसमणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्तो केसिकुमारसमणस्स अदूरसामंते तुरए णिगि पहइ रहं ठवेइ य, ठवित्ता पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता जेणेव केसिकुमारसमणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता केसिकुमारसमणं तिक्खुत्तो आयोहिण-पयाहिणं करेइ, करित्ता वंदइ नमसइ वंदित्तो नमंसित्ता णञ्चासपणे णोइदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे पंजलिउडे विणएणं पज्जुवासइ ॥ सू० ११० ॥ इस कारण श्राज श्रावस्ती नगरी में अनेक उग्र यावत् इभ्यपुत्रवन्दना करने के निमित्त यावत् विशालसमुदाय के रूप में होकर निकल रहे हैं ।१०९। बदएहि णिगच्छति) मेथी 102 श्रावस्ती नगरीमाथी ! अ यावत् स्यપુત્ર વંદના કરવા માટે યાવતું વિશાળ સમુદાયના રૂપમાં એકત્ર થઈને જઈ રહ્યા છે. ૧૦ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - . : :. ": .. . . : सुबोधिनो टोका. १२० सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ... छाया-तत खलु स चित्रः सारथिः कन्चुकिपुरुषस्य अन्ति के एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य हष्टतुष्ट-यावद् हृदयः कौटुम्विकपुरुषान् शब्दयति शब्दयित्वा, एवमयादीतक्षिप्रमेव भो देवानमिया ! चातुर्घण्टम् अश्वरथ युक्तमेव उपस्थापयत यावत्सच्छत्रम् उपस्थापयन्ति । ततः खलु स चित्रः सारथिः स्नातः कृतबलिकर्माः कृतकौतुकमङ्गलमायश्चित्तः शुद्धपवेश्यानि मङ्गल्यानि वस्त्राणि प्रवरप.... 'तएण' से चित्त सारही कंचुईपुरिसस्स आतिए एयम' इत्यादि । सूत्रार्थ-(नएणं से चित्ते सारही कंचुइपुरिसस्स अंतिए एयम सोधा निसम्म हतुट्ट जाच हिंयए कोड्डवियपुरिसे सहावेइ) इसके बाद जब . कि क चुकी के मुख से इस अर्थ को सुना और उसका हृदय में विचार किया तय हृष्ट यावत् . हृदय वाले होकर उस चित्रसारथिने कौडम्बिकपुरुषोंआज्ञाकारी पुरुषों को बुलाया, (सावित्ता एवं बयासी) बुलाकर उसने ऐसा कहा (खिप्पामेव भो देवाणुपिया ! चाउग्घंटे श्रासरहं जुत्तामेव उवट्ठवेड) हे देवानुपियो ! आप लोग चातुर्घट-(चारघंटोवाले) अश्वरथ को घोडों से युक्त करके शीघ्र ही उपस्थित करो (जाव सच्छत्त उबटुवे ति) अपने स्वामी की इस प्रकार आज्ञा के वचन सुनकर यावत् उत्तम छन्त्र सहित अश्वरथ को उन्होंने लाकर उपस्थित कर दिया. (नएण से चिशे सारही हाए कयबलिकम्मे, कयकोउयम गलपायच्छित्त) रथ को उपस्थित हुआ जानकर चित्र सारथिने स्नान किया, वलिकर्म किया अर्थात काक 'त एणं से चित्ते सारही कचुइपुरिसस्स प्रतिए एयम'' इत्यादि. सूत्रार्थ:-ति एणं ले चित्ते सारही कंचुइपुरिसस्स अंतिए एयमई सोचा निसम्म हतु जाव हियए कोडविय पुरि से सदावेइ) या युजीना મુખથી આ બધી વિગત સાંભળી ત્યારે તેણે મનમાં વિચાર કર્યો અને હષ્ટ થાવત્ હદયવાળો, થઈને તે ચિત્રસારથીએ કૌટુંબિક પુરૂષોને-આજ્ઞાકારી પુરૂષોને બોલાવ્યા. (सहावित्ता एक बयासी) मालावीन भने मा प्रमाणे ह्यु. (विप्पामेव भो देवाणुप्पिया! चाउग्र आसरह जुत्तामेव उवचेह) हे देवानुप्रिय ! मा५ सौ सत्परे न्यातुध (या२ घटवाणा). अश्वथने Alerard शनसावा. (जाव सच्छत्त' उचट्ट ति) पोताना २वामीनी. २मा प्रमाणे माज्ञ! Aiewीने यावत् तेभाणे ઉત્તમ છત્રસહિત અધર લાવીને ઉપસ્થિત કર્યો. ...... (त एणसे चित्त सारही पहाए कयवलिकम्मे, कयकोउयमंगलपायच्छित्त) २थने भावह नन यिसाथिये स्नान यु", सिभ यु" भने दु:२१ना निवारणार्थ गौतु४, म८३५ प्रायश्चित्तनी विधियो संपन्न ४ी. सुद्धः Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ राजप्रश्नोयसू रिहितः, अल्पमहाभरणालङ्कृतशरीरो यत्र व चातुर्घण्टो अश्वरथस्तत्र व उपा. गच्छति, उपागत्य चातुर्धण्टम् अश्वरथं दुरोहति, सकोरण्ट माल्यदाम्ना छत्रेण प्रियमाणेन महाभट-चटकरबन्दपरिक्षिप्तः श्रावस्तीनगर्याः मध्यमध्यन निर्गच्छति, निर्गत्य यन्त्र व कोष्टकं चत्यं यत्र व केशिकुमारश्रमणास्तव उपागच्छति, उपागत्य के शिकुमारश्रमण विकृत्वः पादक्षिणपदक्षिणं करोति, आदि को अन्न का भाग दिया एवं दुःस्वप्न को विनाश करने के लिये कौतुक, मंगलरूप प्रायश्चित्त किया, (सुद्धप्पावे. साई अंगलाई वत्थाइ पवरपरिहिए अप्पमहन्याभरणालं कियसरीरे जेणेष चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ) बाद में उसने शुद्ध, परिपदी में प्रवेशयोग्य, मांगलिक, वस्त्रों को अच्छी तरह से पहिरा एवं विशिष्ट कीमतवाले तथा अल्प वजनवाले एसे आभूपणों से अपने शरीर को अलंकत किया. (जेणेव चौउघंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता चाउग्घट आसरह दुरुहइ) बाद में वह जहां चारघंटों वाला अश्वरथ खडा था वहां पर आया-वहां आकर वह उस चातुर्घट :अश्व रथ पर बैठ गया (सको. रिटमल्लनामेण उत्तेण धरिजमाणेणं महया भउचडगर विंदपरिचिखते सावस्थीए मज्झमझेणं निग्गच्छइ) छत्रधारण करने वालेने उसके ऊपर कोरंटसुष्पों की मालाओं ले सुशोभित छत्र तान दिया, विशाल भटों का समूह उसके आसपास आकर खडा हो गया. इस प्रकार होकर फिर वह आवस्ती नगरी के बीचों बीच से होता हुआ निकला (निग्गच्छिता जेणेव कोहए प्पावेसाइ मगलाई वत्थाई पवरपारेहिए अप्पमहन्याभरणालंकियसरोरे चाउग्घटे आसर हे तेणेव उवागच्छइ) त्याराह तेणे सारी ते शुद्ध, मुनिपारપદામાં પ્રવેશ ચોગ્ય, માંગલિક વસ્ત્રો ધારણ કર્યા. તથા બહુ કિંમતી અને અંલ્પसावा! मानुषण पहेशने पाताना शरीरने त ४यु (जेणेच चाउग्घटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चाउग्घट आसर है दुरुहइ) ત્યાર બાદ જ્યાં ચાર ઘટવાળે અધરથ હતું ત્યાં ગમે ત્યાં જઈને તે ચાતુર્ઘટ २थ ५२ ' सवार थयो. (संकोरिटमल्लदामेणं छोण धरिज्जमाणेण सहया भड चडगरविंदपरिचिखत्ते लोवत्थीएनयरीए मज्झमझेण'"निरंगच्छइ) छत्र ધારણ કરનારાએ તેમના ઉપર કેરંટ અપની માળાઓથી સુશોભિત છત્ર તાણ્યું વિશાળ ભટેના સમૂહ આવીને તેની આસપાસ ચોમેર વિંટળાઈ ગયા. આ પ્રમાણે ते श्रावस्तीना नगीनी' ये थधने नये. (निगच्छिन्ता जेणेव कोहए चेइए Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधिनी टीका सु. ११० सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवन देशिराजवणं नम् कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा नात्यासन्ने नातिदूरें शुश्रूषमाणो नमस्यन अभिमुखे प्राञ्जलिपुटो विनयेन पर्युपास्ते |१०| चेंइए के सिकुमारलमणे तेणेत्र उवागच्छ) निकलकर वह जहां कोष्ठक . चैश्य था और उसमें भी जहां केशीकुमारभ्रमण थे वहां पहुँचा (उवागच्छित्ता के सिकुमारसमणस्त्र अनुरसाम ते तुरए णिण्डिइ) वहां पहुँच कर उसने केशिकुमारभ्रमण के स्थान से कुछ थोड़ी दूर पर घोडों को डा कर दिया (रह ठas) रथको खड़ा कर दिया (ठचित्ता पचोरुहई) खडी कर के फिर वह उससे नीचे उतरा ( पचोरुहिता जेणेव के सिकुमारसमणे तेणेव उपागच्छई) नीचे उतर कर वह जहां केशीकुमार श्रमण थे वहां पर गया (उनागच्छित्ता के सिकुमारलमण तिक्खुतो आयाहिणपयाहिण करेइ) वहां जाकर उसने केशीकुमार श्रमण को तीनबार प्रदक्षिणा की (करिता दद्द, नमसइ) प्रदक्षिणा करके फिर उसने उनको बन्दना की, नमस्कार किया (वंदिता नमंसित्ता पच्चासणे णाइदूरे गुस्समाणे णर्ममाणे अभिमुहे पंजलिउडे चिणएणं पज्जुवासह) वन्दना नमस्कार करके फिर वह न अधिक दर और न अधिक पास ऐसे उचित स्थान पर धर्मोपदेश सुनने की इच्छा से बैठ गया. वहां बैठे२ ही उसने उनके समक्ष विनय से दोनों हाथ जोड कर उनकी पर्युपासना की. ! टीकार्य इसका स्पष्ट है ॥११०॥ ६९. जेणेव के सिकुमारसमणे तेणेत्र उवागच्छइ) नीडजीने ते ज्यां श्रेष्ठ चैत्य हुतु. अने तेमां चाशु भ्यां डेशीकुमार श्रमण हुता त्यां गये, (उत्रागच्छित्ता के सिकुमार समणस्स अदूरसा मते तुरर णिगिन्छ ) त्यां यहथीने तेथे दैशिकुमार श्रमगुना स्थानथी थोटा म ंतरे घोडागाने उला राज्या. (रह ठवेइ) स्थने थालाव्या. ( ठवित्ता पच्चरुई) (लो राणीने च्छी ते रथ परथी नीचे उतर्थो ( पचोरुहित्ता जेणेव के सिकुमारसमणे तेणेव उवागच्छई) नीचे उतरीने ते भ्यां श्रीकुमार अभा हुता त्यां गया. ( उवागच्छित्ता के सिकुमार समण तिक्खुत्तों आयाहिणपयाहिणं करेइ) त्यां नईने तेथे उशीकुमार श्रमणुनी थुवार प्रदक्षिणा उरी. (करिता चंद्र, नम सई) प्रदक्षिणा हरीने तेथे तेमने बहन र्या, नमस्कार . ( त्रदित्ता नमसित्ता पचास करें समाणे णममाणे अभिमुहे पंजलिउडे विणण पज्जुवासह) वहना ते नमस्कार नेते हर पनहि भने पधारे નજીક પણ નહિ એવા ચેાગ્ય સ્થાન પર તે ધર્માંશ્રવણુની ઇચ્છાથી એસીને જ તેણે તેમની સામે વિનયપૂર્વક હાથ જોડીને તેઓશ્રીની પર્યું`પાસના કરી. सूत्र है ॥११०॥ टीडार्थ . Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० % 3D . .: राजप्रश्नोयसूत्रे 'लएणं से' इत्यादिटीका-एतत्वस्थपदानो व्याख्या पूर्वगना, अतइदं व्याख्यातपायमिति।म.११०॥ मूलम्---तएणं से केसिकुमारसमणे चित्तस्स सारहिस्स तीसे महमहालयाए परिसाए चाउज्जामं धम्म परिकहेइ, तं जहासवाओ पाणोइवायाओ बेरमणं, सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं, सव्वाओ आदिन्नादाणाओ वेरमणं, सव्वओ बहिद्धादाणाओ वेश्मणं तएणं सा महइमहालिया परिसा केसिम्स कुमारसमणस्स अंतिए धम्म सोचा निलम्म जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया।सू.१११॥ - छाया--ततः खलु स केशिकुमारश्रमणः चित्राय सारथये तस्यां महातिमहालयायां परिषदि चातुर्याम धर्म परि कथयति, तद्यथा-सर्वस्मात् प्रागातिपाताद् विरमणम् ?, सर्व स्मात् मृपावादाद् विरमणम्२, सर्व स्मात् अदत्तादानाद् विरमणम् ३, सर्वस्माद्बहिरादानाद विरमणम४। ततः खलु सा महातिम 'तएणं से केसिकुमारसमणे' इत्यादि। . सूत्रार्थ-(तएणं से के सिकुमारसमणे). इसके बाद (के सिकुमारसमणे) के शिकुमार श्रमणने (वित्तस्स सारहिस्स) चित्र सारथि के लिये .... (तोसे महहमहालयाए) उस अति विशाल (परिसाए) परिपदा में (चाउ जाम धम्म परिकहेइ) चातुर्याम धर्म का (परिकहेइ) प्ररूपण किया-उपदेश दिया (तं जहा-सबओ पाणाइवायायो वेरमण, सवओमुसाबायाओ वेरमण', सधओ' आदिन्नादाणाओ. वेरमण, सच ओ वहिद्वादाणाओ वेरमण) वे चातुर्याम ये हैं-१ समस्त प्राणातिपात से विरक्त (निवृत्त) होना, २ . . 'तएण से केसिकुमारसमागे' इत्यादि । सूत्रार्थ:-(तरण से के सिकुमारसमणे) त्या२. ५छ। शिभा२ अभले (चित्तस्स सारहिस्स) यि साथि भाट (ती से महइमहालयाए) ते ति dिan (परिसाए) प२ि५हामi (चाउज्जाम धम्म परिकहेइ) यातुर्याम धमनी (परिकहेइ) प्र३५।। ४३. मेरो पहेश यो. (त जहा सव्वाओ पाणाइंवायाओ बेरमण, सव्वाओ, मुसावायाओ देरमण, सवाओ आदिन्नादाणाओ रमण, मत्वाओ वहिद्धादाणागो बेरमण) यातुर्याम धनी विशेष वित -AL प्रभाव.. छ-(१) समस्त प्राणातिपातथा वि२४त (निवृत्त) २. (२) सभरत भूषापाथी १२ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सू. १११ सूर्याभदेवस्य पूर्वभव जीवप्रदेशीराजवर्णनम् ७१ हालया परिपत् केशिनः कुमार श्रमणस्यान्तिके धर्म श्रुत्वा निशम्य यस्या एच दिशः प्रादुर्भूता तामेव दिशं प्रतिगता ॥ मू० १११॥ टीका-'तएण से इत्यादि-ततः खलु स केशीकुमारश्रमणः चित्राय सारथये चित्रं सारथिमुद्दिश्य तस्यां महातिमहालयायाम्=अतिविशालायां परिषदि चातुर्याम चतुर्णाम् चतुःसख्यकोनां यामानां=यमा एव यामास्तेपां समाहारश्चतुर्याम, तदेव चातुर्यामं, तदस्ति यस्मिन् स चातुर्यामस्त धर्म परिकथयति व्याख्याति, तद्यथा-सर्वस्मात् प्राणातिपाताद् विरमण = सकलपाणिमाणवियोजनानुकूलव्यापारतो विनिवृत्तिः१, सर्वस्माद् मृपा. वादाद् विरमणम् सर्वविधाऽसत्यभाषणाद् विनिवृत्तिः, तथा-सर्वस्मात समस्त मृषावाद से विरक्त होना, ३ समस्त अदत्तादान से विरक्त होना और समस्त बहिरादान से विरक्त होना (एणं सा महइमहालिया परिमा के सिस्स कुमारसमणस्स अंतिए धम्म मोच्चा निसम्म हनु० जामेव दिमि पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया) इस तरह केशिकुमार श्रमण से चातु. र्याम धर्म का उपदेश सुनकर और हृदय में उसे धारण कर वह अतिविशाल परिपदा हृष्ट तुष्ट यावत हृदयवाली होती हुई जहां से आई थी वहां पर पीछी चली गई. टीकार्थ मूलार्थ के ही अनुरूप है. चातुर्याम धर्मका उपदेश किया-गो इसका तात्पर्य एसा है कि चातुर्याम वाले धर्म का उपदेश दिया. सकल पाणियों के प्राणों को वियोजन (अलग) करने के अनुकूल व्यापार से रहित होना इसका नाम प्राणातिपात विरमण है. इसी तरह समस्त प्रकार के असत्यभाषण करने से दूर रहना-उसका त्याग करना इसका नाम मृपावादકત થવું. (૩) સમરત અદત્તાદાનથી વિરકત થવું અને સમસ્ત બહિરાદાનથી વિરકત थ. (तए णे सा महइमहालिया परिसा केसिस्स कुमारसमण स्ल अंतिए धम्म सोचा निसम्म हतु जामेव दिसिं पउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया) આ પ્રમાણે કેશિકુમાર શ્રમણથી ચાતુર્યામ ધર્મને ઉપદેશ સાંભળીને અને હૃદયમાં તેને ધારણ કરીને તે અતિ વિશાળ પરિષદા હૃષ્ટતુષ્ટ યાવત્ હૃદયવાળી થઈને જ્યાંથી આવી હતી ત્યાં ફરી જતી રહી. ટીકાર્થ–મૂલાઈ પ્રમાણે જ છે. ચાતુર્યામ ધર્મને ઉપદેશ કર્યો એટલે કે ચાતુ ર્યામવાળા ધર્મને ઉપદેશ કર્યો. સકળ પ્રાણુઓના પ્રાણોને નિયુકત કરનાર જે વ્યાપાર (કાર્ય હોય છે તેનાથી રહિત થવું એટલે કે કઈ પણ પ્રાણીને કોઈ પણ રીતે પ્રાણ વિયુકત ન કરવું તે પ્રાણાતિપાત વિરમણ છે. આ પ્રમાણે જ સમસ્ત પ્રકારના અસત્યાચરણથી દૂર રહેવું-અસત્યને સર્વથા ત્યાગ કરે. તે મૃષાવાદ વિરમણ છે. Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ હર राजशनीयस्त्र अदत्तादानात् सकलविधाचौर्याद विरमण विनिवृत्तिः, तथा-मस्माद यहिराहानाद-धर्मापकरणांतिरिक्तपरिग्रहोपादानाद् विरमणम् । मैथुनविर मगस्य परिग्रहे एवान्तर्भावः, नहि अपरिगृहीता स्त्री परिभुज्यतेऽनो मथुन-विर.. मणरूप महाव्रत न पृथगुपात्तमिति । उपलक्षणाद् अगारधर्म मपि परिकथयति । ततः खलु सा महातिमहालया परिपत् को शिनःकुमार श्रमणस्य अन्तिक समीपे धर्म श्रूत्वा सामान्यतः, निशम्य-विशेपतो हृधवधा यस्या .. एवं दिशः प्रादुर्भूता, तामेव दिश प्रतिगना ॥स्तू० १११।। __मूलम्-तएणं से चित्ते सारही केसिस्ल कुमारसमणस्स अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हह जाव-हियए उठाए उद्वेइ, उद्वित्तो केसिंकुमारसमणं तिवसुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नसंसित्ता एवं वयाती-साहामि णं संते ! णिग्गथ पावयणे, विरमण है. समस्तप्रकार के अदनादान से-चौयकर्म से दर रहना उसका न्याग करना इसका नाम अदत्तादानविरमण है, तथा धर्मोपकरण से अतिरिक्त परिग्रह का त्याग क ना इसको नाम पहिरादान विरमण है। मैथुन विरमण को यहां स्वतत्ररूप से व्रत नहीं माना गया है. क्यों कि उसका अन्तर्भाव परिग्रह में ही हो जाता है। क्यों कि जो स्त्री भोग के काम आती है वह अपरिगृहीत हुई नहीं आती है किन्तु परिगृहीत हुई ही आती है। उपलक्षण से उन्होंने आगारधर्म का भी कथन किया. इस तरह केशि: कुमार श्रमण के पाल धर्म का उपदेश सामान्यरूप से सुनकर और उसे विशेषरूप से हृदय में धारण करके वह अतिविशाल परिपदा जहां से आई थी। वहीं पर पीछी चली गई ॥ १११ ॥ સમસ્ત પ્રકારના અદત્તાદાનથી—ચૌર્યકર્મથી દૂર રહેવું–તે કર્મને ત્યાગ કરે તે અદત્તાદાન વિરમણ છે. તેમજ ધર્મોપકરણોતિરિક્ત પરિગ્રહને ત્યાગ તે બહિરાદાન વિરમણ છે. મૈથુન વિરમણને અહીં સ્વતંત્રપણે વ્રતરૂપે નિર્દેશ કર્યો નથી કેમકે તેને પરિગ્રહમાં જ અન્તર્ભાવ કરવામાં આવ્યું છે. કેમકે જે સ્ત્રી ભેગ માટે આવે છે તે અપરિગ્રહીત થઈને નહિ પણું પરિગ્રહીતના રૂપમાં જ આવે છે. ઉપલક્ષણથી તેઓ શ્રીએ અગાર ધર્મનું પણ કથન કર્યું છે. આ પ્રમાણે સામાન્યરૂપથી કેશિકુમાર મણ, પાનથી ધર્મોપદેશ સાંભળીને અને તેને સવિશેષરૂપમાં હૃદયમાં ધારણ કરીને તે અતિ विशण परिपहा यांची माहिती त्या पाठीती २डी. ॥१११॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सुबोधिनी टीका सु. ११२ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीव प्रदेशीराजवर्णनम् रोयामि णं भंते! णिग्गंथं पावयणं, अब्भुट्ठेमि णं भंते । निग्गथ पावयण, एवमेय भते । निग्गंथे पावयणे, तहमेय भते ! निग्थे पावयणे अवितहमेय निग्गंथे पावणे, असंदिद्धमेयं भते । निग्गंथे P ***** ७३ ! पावयणं, इच्छियमेयं भते । निग्गंथे पावयणे, पडिच्छियमेय भंते! निग्गथे, पावयणे, इच्छियपडिच्छियमेयं भंते । निग्गथे पावयणे, जं पणं तुभे वदहत्तिक दइ नमसइ, वंदित्ता नर्मसित्ता एवं वयासी - जहा पण देवाणुप्रियाणं अंतिए बहवे उग्गा भोगा जाव इन्भा इoryत्ता चिच्चा हिरणं चिच्चा सुवणं, एवं घणं धन्न बलवाहणं कोसं कोट्टागार पुरं अंतेउरं, चिच्चा विउलं धणकणगरयणमणिमोत्तिय संखसिलप्पवाल संतसारसावएजं, विच्छडित्ता विगोवइत्ता दाणं दाइत्ता परिभाइत्ता मुंडा भवित्ता अगारोओ अणगारियं पव्त्रयंति, णो खलु अहंता संचाएमि चिच्चा हिरण्णं तं चैव जाव पव्वइत्तए । अहं णं देवाणुप्रियाणं अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्मं पडिवज्जिन्तए । अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेहि । तएणं से चित्तं सारहा केसिकुमारसमणस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं जाव गिहिधम्म उवसंपजित्ता णं विहरइ । तरणं से चन्ते सारही केसिकुमारसमणं वदइ नमसइ, वंदित्ता नर्मसित्ता जेणेव चाउरघंटे आसरहे तेणेव पहारेत्थ गमणाए, चाउग्घंटं आसरहं दुहरु, जामेव दिसि पाउब्भूए तामेव दिसि पडिगए ॥ सू० ११२ ॥ 1 छाया—ततः खलु म चित्रः सारथिः केशिनः कुमारश्रमणस्य अन्तिके धर्म ं श्रुत्वा निशम्य हृष्ट यावदु-हृदयः उत्थया उत्तिष्ठति, उत्थाय को शिन Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ७४. . राजप्रश्नीयमुत्र . · कुमारश्रमण विकृत्वा आदक्षिण-प्रदक्षिण करोति, चन्दते नमस्यति, वन्दि हवा नमस्थित्वा एवमवादीत-श्रद्दधामि अलु भदन्त ! नन्थं प्रवचनम, प्रत्येमिः खलु भदन्त ! नै ग्रन्थ प्रवचनम्, रोचयामि खलु भदन्त ! नम्रन्य प्रवचनम्, अभ्युत्तिष्ठे बलु भदन्त ! नर्ग्रन्थ प्रवचनम्, एवमेतद् भदन्त ! नैर्ग्रन्थं प्रवचनम्, तथैवैतद् भदन्त ! नर्गन्ध प्रवचनम्. अवितथमेतद् भदन्त ? नग्रन्थ प्रवचनम्, असन्दिग्धमेतद् भदन्त ! नैध प्रवचनम्, इष्टमेतद् 'तएणं से चित्तें सारही इत्यादि। . सूत्रार्थ-(तएणं) इसके बाद (से चित्ते सारही) वह चित्र सारथि (के सिस्स कुमारसमणस्स आतिए धम्मं सोचा निसम्म) के शीकुमार श्रमण के पास धर्म को सुनकर और उसे हृदय में अवकृतकर (हट्ट जांव हियए) हर्पित हुआ संतुष्ट हुआ यावत् (उटाए उठे इ) अपने आप उठा-(उद्वित्ता केसि कुमारसमणं तिक्खुत्तो आयाहिणपयादिणं करेइ) और उठकर उसने के शिकुमारश्रमण की तीन आदक्षिणप्रदक्षिणा की (वंदइ नमसइ) बन्दना की नमस्कार किया (वदित्तो नमंसित्ता एवं बयासी) वंदना नमस्कार कर फिर वह इस प्रकार वोला-(सदहामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं रोयामि णं भंते ! णिग्गथ' पावयण' अन्सुमिण भते! णिग्गंथ पायणं एवमेयं भते! निग्गथं पावयण असंदिद्धमेयं भते ! निग्गय पावयणं) हे भदन्त! मैं निग्रन्थप्रवचन की श्रद्धा करता हूं। हे भदन्त ! में निग्रन्थमवचन की प्रतीति करता हूं, हे भदन्त ! मैं निग्रन्थ प्रवचन को अपनी रुचि का . 'त एण से चित्त सारही' इत्यादि। , सूत्रार्थ-(तं एण) त्या२ पछी (से चित्तो सारही) त यित्र साथि (केसिम्स कुमारसमणस्स आतिए धम्म सोचा निसम्म) शीभा२ श्रमानी पासेयी धर्भ सामगीन मने तने यम धा२ण शन (हटुजाव हियए) पित्त या. सतुष्ट थये। यावत् (उट्ठोए उठेइ) चातानी भेणे डो थये। (उहित्ता केसि कुमार समण तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिण करेइ) भने ले थने तेरी शीभार • "श्रमानी न पा२ माक्षिण प्रक्षि! ४. (व'दइ नमसइ) वहना ४री नभ२४१२ ध्या. (वदित्ता, नम सित्ता एवं यासी) वहनशन ते न्या प्रमाणे वा माये(सदहामि ण भते ! निग्गथं पावयण रोयामिण भते ! णिग्मथ पावयण अन्भुमि णं भंते ! निगथ, पाव्ययण एवमेयं भंते ! णिग्गंथं पावयण असंदिद्धमेयं भंते ! निग्गंथं पावयणं) है महत(निय अवयनमा श्रद्धा राभु છું. હે ભદંત ! હું નિગ્રંથ પ્રવચનમાં પ્રતીતિ રાખું છું, હેભદંત હું નિગ્રંથ પ્રવચનને Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधिनी टाका. सू. १९२ सूर्यामदेवस्य पुत्रमवजीव प्रदेशिराजवर्णनम् ७५ भदन्त ! नैर्ग्रन्थ ं प्रवचनम्, प्रतीष्टमेतद् भदन्त ! नैर्ग्रन्थ प्रवचनम् इष्टप्रतीष्टमेतद् भदन्त ! नैर्ग्रन्थं प्रवचनम् यत् खलु यूयं वदथेति कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीत्-यथा खलु देवाणुप्रियाणाम् अन्तिको बह उग्रा भोगा यावत् इभ्या इभ्यपुत्रास्त्यक्त्वा हिरण्यं त्यक्त्वा सुवर्ण म् एवं धनं धान्य बल वाहनं कोश' कोष्ठागार' पुरम् अन्तःपुर, त्यक्त्वा विषय बनाता हूं. हे मदन्त ! मैं इस निर्ग्रन्थ प्रवचन को स्वीकार करता हूं. हे भदन्त ! आप जैसा इस निर्ग्रन्थ मवचन का प्रतिपादन करते हैं, वह सही है . हे दन्त ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है. हे भदन्त ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन सन्देह रहित है। (इच्छियमेय सते ! निग्गथे पावणे, पडिच्छियमेय ते निग्गंथे पावणे) हे भदन्त ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन इष्ट है, - हे भदन्त ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन प्रतीष्ट है । ( इच्छियपाडिच्छियसेय' मते ! निग्गथे पावणे) हे भदन्त - ! यह निर्व्रन्थ प्रवचन इष्टप्रतीष्ट दोनोंरूप है, (जंण तुभेवदह, त्ति कट्टु वंदइ, नमसह) जैसा कि आप कहते हैं इस प्रकार कहकर उसने उसको वन्दना की नमस्कार किया. (वदित्ता नमसित्ता एवं वयासी) वन्दना नमस्कार कर फिर उसने ऐसा कहा (जहाण देवाणुवियोग अति वहवे उग्गा, भोगा जान इन्भा इन्भपुत्ता चिच्चा हिरण, चिच्चा सुवणं, एवं धणं धन्न बलं वाहणं कोस कोहागारं पुर अते उर) आप देवानुप्रिय के पास जिस प्रकार अनेक उग्र भोग यावत् इभ्य પેાતાની રુચિના વિષય ખના છું. હું ભટ્ટ!હું આ નિ પ્રથવચનને સ્વીકારૂ છું. હે ભદત ! આ નિગ્રંથ પ્રવચનનુ" આપ શ્રી જે પ્રમાણે પ્રતિપાદન કરી રહ્યા છે. अक्षेरशः यथावत् छे. हे लहंत ! या निर्भय अवथन सत्य छे, हे लहंत ! भा निर्यथ अवयन सौंदेड रडित छ. (इच्छियमेयं भंते ! निग्गथे पावयणे, पडिच्छियमेय मते निथे पात्रयणे) हे लढत ! या निर्भय अवयन दृष्टि छु, हे लঃ'त! या निर्यथ प्रवयन प्रतीष्ट छे. (इच्छियपडिच्छियमेयं भंते ! निग्गंथे पाचमणे) हे महंत ! या निर्यथ अवयन छष्ट भने प्रतीष्ट भन्ने छे. (जं णं तु दह, दिइ नमसह ) ? प्रभा न्यायश्री ही रह्या छ। ते प्रमाणे ४ छे. आम महीने तेथे बहना तेसन नमस्र (वेदित्ता नमसित्ता एवंवासी) वहना भन्न नमस्कार अरीने तेथे तेयो श्रीने या प्रमाणे उधु - (जहाणं देवापियाणं अतिए बहबे उगा, भोगा जाव इन्भा इन्भपुत्ता चिच्चा हिरणं. चिच्चा सुवणं. एवं भणं धन्न बलं वाहणं कोर्स कोडागारं पुरं अतेउर) याच हेवानुप्रियनी पासे नभ अथ, लोग यावत् हल्य भने स्यित्रो Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . राजप्रश्नीयसूत्रे विपुल धनकनकरत्नमणिमौक्तिक शङ्खशिलामवालसत्सारस्वापतेयं विच्छ, विगोप्य दान दत्त्वा, परिभाज्य मुण्डा भृत्वा अगारात् अनगारितां प्रत्र. जन्ति; नो खलु अहं तावत् शक्रोमि त्यक्त्वा हिरण्य तदेव यावत् प्रव्रजितुम्। अहं खलु देवानुप्रियाणाम् अन्तिके पश्चाणुव्रतिकसप्तशिक्षातिक' द्वादशविधं गृहिधर्म प्रतिपत्तुम् । यथासुख देवानुप्रिय ! मा प्रतिबन्ध कुरु । ततः और इश्य पुत्र हिरण्य को छोडकर, सुवर्ण को छोडकर एवं', धन धान्य, वल, वाहन, कोश, कोष्ठागार; पुर और अन्तःपुरं को (चिच्चा): छोडकर (विंउलं धंणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पबालसनसारसावए ज, विग्छ. डिज्जा, विगोवइत्ता, दाण दाइत्ता) तथा विपुल, धन, कनक, रत्न मौक्तिक • शंख शिलाप्रवाल एव सत्सारस्वापतेय को छोडकर. तथा , उन सबको विशाल प्रमाण में दीन दरिद्र आदिकों के लिये वितरित कर (परिभाइत्सा) पुत्रादिको में विभक्त (विभाग) कर (मुंडा भविता अगाराओ अणगारिय पञ्चय ति) बाद में मुंडित, होकर के अगार अवस्था को धारण करते हैं: (जो खलु अह ता संचाएमि, चिच्चा हिरण त चेव जांच पचहत्तए), वैसा में हिरण्य आदि को छोडकर दीक्षा धारण करने के लिये समर्थ नहीं है, (अहंण' देवाणुप्पियाण अंतिए पंचाणुव्वइय, सत्तासिक्खावइय दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवज्जितए) में तो आप देवानुप्रियं के पास पांच अणुव्रत. वाले एवं साततशिक्षा व्रतवाले इस तरह १२ प्रकार के गृहस्थ धर्म को धारण कर सकता हु । (अहासुह देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध करेहि) आप હિરણ્યને ત્યાગ કરીને અને ધન, ધાન્ય, બળ, વાહન, કોશ, કોઠાર, પુર અને अत:पुर-२शुवास (चिच्चा) ना त्या ४शन (विउलंधणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलपवालसंतसारसांवएज्ज, विच्छडिज्जा, बिगोवत्ता, दाणं दाइत्ता તેમજ વિપુલ ધન, કનક, રન, મૌતિક શંખ શિલા પ્રવાલ અને સત્સાર સ્વાયતેય ને ત્યાગ કરીને તેમ જ પુષ્કળ પ્રમાણમાં દીનદરિદ્ર વગેરે લોકોને આપીને (परिभाइत्ता) पुत्राहिम बयान (मुडा भवित्ता अगाराओ अगगारिय पव्यय ति), त्या२ मा भुडित धन म॥२ अवस्थामाथी मन॥२ २भवस्थाने धारण ४२ छ. (णो खलु अहं तासचाएमि, चिच्चा हिरण्ण' त चेव जाव पवइत्तएं) तेभ हिरण्य वरना त्या शन दीक्षा पा२३ ४२वामां असमर्थ छु: (अहं ण देवाणुप्पियाण अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइय दुवालसविहीं गिहिधम्म पडिवज्जित्तए) आपश्री पांसथी हुँ त पांय मनुव्रतवाणा भने અને સાત શિક્ષાત્રતવાળા આમ ૧૨ પ્રારા ગૃહસ્થ ધર્મને સ્વીકારી શકું છું. ' (अहामुह देवाणुपियाँ !"मा पंडिव करेंहि) भा५ हेवानुप्रियने 2-14 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ सुबोधिनी टीका सू. १९२ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीव प्रदेशिराजवर्णनम् खलु स चित्रः सारथिः केशिकुमारश्रमणस्य अन्तिके पञ्चाणुवति यावद् गृहिधर्मम् उपसम्पद्य खलु विहरति । ततः खलु स चित्रः सारथिः केशि'कुमारश्रमण' वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा यत्रैव चातुर्घष्टः अश्वरथस्तत्रैव प्राधारयद् गमनाय चातुर्घष्टम् अश्वरथं दूरोहति यस्या एव दिशः प्रादुर्भूतस्तामेत्र दिश' प्रतिगतः । सू० ११२ ।। टीका--'त एणं से' इत्यादि -- 4: 19 " ततः खलु स चित्रः सारथिः केशिनः : कुमारभ्रमणस्य अन्तिके= देवानुप्रिय को जिस प्रकार से सुख हो वैसा करो - परन्तु विलम्ब मत करो. (तएण से चित्ते सारही केसिकुमारसमणस्स अंतिए पंचाणुव्वइय जाव गिहिधम्मं उचसं पज्जित्ताण विहरई) इसके बाद उस चित्र सारथि ने केशिकुमार श्रमण के पास पांच अणुव्रतों वाले एवं सात शिक्षावतों वाले गृहस्थ धर्मको अंगीकार कर लिया (तएण से चित्ते सारही केसिकुमार समण' बंदइ, 'नमसह वंदित्ता नमः सित्ता जेणेच चाउटे आसरहे तेणेत्र पहारेत्थ गमगाए, चाउरघंट आसरह दुरुह ) इसके बाद उस चित्र सारथिने केशिकुमार श्रमण को वन्दना की नमस्कार किया, वंदना नमस्कार कर उसने जहां चातुर्घट अभ्वस्थ रखा था उस ओर जाने का निश्चय किया, वहां जाकर वह उस पर चढ गया. ( जामेव दिसिं पाउ भूए) तामेत्र दिसि पडिगए) और जिस दिशा से होकर आया था 1 "} | उसी दिशा तरफ चला गया । f टीकार्थ - - इसके बाद चित्र सारथी केशीकुमार श्रमण के पास सुण थाय ते रो. पशु विद्या न पुरे. (न एणं से चित्ते सारही के सिकुमार'समस्स अंतिए पंचाणुव्वहय जाव गिरिधम्म उवसपज्जित्ताण' विहरड़ ) ત્યાર પછી તે ચિત્ર સારથિએ કેશિકુમાર શ્રમણ પાંસેથી પાંચ અણુવ્રતાવાળા અને सात शिक्षाव्रतोवाणां गृर्हस्थधर्मने स्वीझरी सीधी. (त एण से चित्ते सारही J के सिकुमारसमणं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमः सित्ता जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव पहारेत्थ गमगाए, 'चाउघंट' आसरह दुरुहइ ) त्यार माह ते त्रि ! સારથીએ કેશિકુમાર શ્રમણને વંદના કરી, નમસ્કાર કર્યાં, વંદના તેમજ નમસ્કાર કરીને તેણે જ્યાં ચાતુ ઘટ અશ્વરથ હતા તે તરફ જવાના નિશ્ચય કર્યાં. ત્યાં જઈને તે રથ 1 पर सवार थ गये. (जामेवं दिसिं पाउन्भूए. तामेव दिसिं पडिगए) अने જે દિશા તરફ થઈને તે આળ્યેા હતેા તે જ દિશા તરફ પાછૈા જતા રહ્યો. 1 टीअर्थ - ત્યાર બાદ ચિત્રસારથિ કેશિકુમાર શ્રમણની પાસે ધર્મ સાંભળીને f Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ প্রশ্নানুগ ७८ समीपे धर्म श्रुत्वा सामान्यतः, निगम्य-विशेषतो हयवधार्य हरयावद हृदया हृष्टतष्टचित्तानन्दितः प्रीतिमनाः परम मौमनम्यितः हर्ष वाविमददयः उत्थया उत्थानशतया उनिष्टति. उन्धाय केशिनं कुमारश्रमणं विकृत्वावारत्रयम् आदक्षिणप्रदक्षिणं करोति, बन्द ने नमान, बन्दिया नमम्यिन्या एवम् वक्ष्यमाण प्रकारेण अवादीत उक्तवान-हे भदन्त ! खलनिग्न श्रधामि इदसेवमेयास्तीति श्रद्धानविषयीकरोमि नम्रन्थ प्रवचनम्, हे भदत्त ! प्रत्येमि-प्रतीतिविपयीकरोमि खल नम्रन्थं प्रवचनम्, हे भदन्त ! रोचयामि रुचिविषयीकरोमि खल्छ नैर्ग्रन्थं प्रवचनम्, हे भदन्त ! अभ्युनिष्ठे अभ्यु. पगच्छामि ग्यलु नैर्ग्रन्थ प्रवचनम्, हे भदन्त ! यथा ग्वन्ट भवद्भिः पतिपादितम्, एतद् नैर्ग्रन्थं प्रवचनम्, एवमेव, हे भदन्त ! यथा भवन्तः प्रनि. पादयन्ति, एतद् नैन्य प्रवचनं तथव-नः पमेवास्ति, हे भदन्न ! एनद् नँग्रन्थ प्रवचनम् अवि तथं-सत्यम् अन एव हे भदन्त ! एतद ग्रंन्ध प्रव धर्म सुनकर और उसे विशेषरूप से अपने हृदय में धारण कर हष्ट तुष्ट और चित्त में आन द संपन्न हुआ उसके मनमें गाढ़ पीति जग गई, वह परम सौमनस्थित हो गया, हृदय अपार हप के कारण उसका हर्षित होने लगा. वह उसी समय खडा हुया, और केशिकुमार श्रमण को उसन तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिण पूर्वक वन्दना की नमस्कार किया. वन्दना नमस्कार कर फिर उसने ऐसा कहा-हे भदन्त मैं उस निग्रन्थ प्रवचनको, यह ऐसा हो हैं, इस रूपसे अपनी श्रद्धा का विषय बनाता हूं, हे भदन्त ! मैं इस निग्रंथपवचन को अपनी प्रतीति में लाता हूं. हे भदन्न ! मैं इस निर्ग्रन्थ प्रवचनको अपनी रुचि में आकृष्ट करता हूं और मैं हे भदन्त ! इसे स्वीकार भी करता हूं। हे भदन्त । जसा आपने कहा है यह निर्णान्य प्रवचन एसा. हो है। यह निन्ध प्रवचन अधिनथ-सर्वथा सत्यरूप है, અને તેને વિશેષરૂપથી હદયમાં અવધારિત કરીને હતુષ્ટ થશે અને તેનું ચિત્ત અતીવ આનંદિત થયું. તેના મનમાં તીવ્ર પ્રીતિ ઉત્પન્ન થઈ. તે પરમસીમનસ્થિત થઈ ગયે. તેનું હૃદય અપાર હર્ષથી તરબોળ થઈ ગયું. તે તરતજ ઉભે થયે અને કેશિકુમાર શ્રમણની તેણે આદક્ષિણ પ્રદક્ષિણાપૂર્વક વન્દના કરી નમસ્કાર કર્યા વંદના તેમજ નમસ્કાર કરીને પછી તેણે આ પ્રમાણે કહ્યું-“હે ભદંત! હું આ નિગ્રંથ પ્રવચન પર એ એવું જ છે” આ રૂપમાં શ્રદ્ધાશીલ થાઉં છું. હે ભદંત ! આ निय अवयन .५२ सपणे प्रतीति धरा छु: महत ! म निथ व ચનને હું પિોતાની રુચૅિ તરફ સહજ ભાવે આકૃષ્ટ કરું છું અને હે ભદંત ! આને હું સ્વીકારું પણ છું. હે ભદત ! આપશ્રીએ જે પ્રમાણે કહ્યું છે તે પ્રમાણે જ આ નિર્ચન્જ પ્રવચન છે. આ નિગ્રંથ પ્રવચન અશ્વિતથ-સર્વથા-સત્યરૂપ છે, એથી જ એ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबो धना टोका' सु. ११२ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् . ७९ चनम्, असन्दिग्ध. न्देहरहितं खलु भदन्त ! एलद नैथ पंचनम्, तथा-हे भदन्त ! एत्चत् खलु इष्ट प्रताष्टम् अभिलपितम् प्रतीष्टम् आभिमुख्येन सम्यक प्रतिपन्नमेतत, इष्टपती सर्वथाऽतिशयेनाभिलषितं . हे भदन्त ! नेग्रन्थं प्रवचनम्, यत् खलु यूयं वदथ-ईति कृत्वा इत्युत्त बन्दते नमस्य ति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादी-उक्तवान्, हे भदन्त ! देवानुप्रियाणाम् भवताम् अन्ति के समीपे यथा येन प्रकारेण हत, चहव उग्रा भोगा यावत् इभ्या इभ्यपुत्रा हिरण्यं रजतम् त्यतया, एवम्-- अमुनेवप्रकारेण धनंरूप्यादि, धान्य शाल्यादि, बलौन्य, वाहनम्= अश्वादिरूपम्, कोश-प्रसिद्धम, कोष्ठागारं धान्यगृहं, पुरं-नगरम, अन्तःपुरं= स्त्रीनिवासभूतस्थानं च त्यक्तवा, तथा-विपुल-प्रचुर धनकनकरत्नमणि मौक्तिकशङ्कशिलामवालसत्सारस्वापतेय,-तत्र धनरूप्यादि कनक घटितमघ. इसीलिये, यह सन्देह रहित है । इष्ट है और प्रतीष्ट है. अर्थात् इसे भव्यजीवों ने अपने जीवन में उतारा है. अतः यह सर्वथा अतिशयरूप से अभिलषित सिद्ध हुआ है ऐसा कह कर उस चित्र सारथिने केशिकुमार श्रमण की भक्ति के वशवर्ती होकर पुनः · वन्दना की नमस्कार किया, और फिर उसने उनसे ऐसा कहा-हे भदन्त ! आप देवानुप्रिय के पास जिस प्रकार से अनेक उग्रोंने उग्रपुत्रोंने भोगोंने यावत् इभ्योने एव. इश्यपुत्रोंने हिरण्यरजत को-छोडकर, सुवर्ण को छोडकर, इसी प्रकार, से धन-रूप्यादिकों को, धान्य-शाल्यादिकों को, बल-सैन्य को वाहन-अश्वदिकों को, कोश को, कोष्ठागारधान्यगृह को, पुर नगर को, अन्तःपुर स्त्रीनिवास भूतस्थानको छोडकर, तथा विपुल प्रचुर धन-रूप्यादिकों को कनक घटित अघटित (धडा हुआ और विना घडा) સંદેહ રહિત છે. ઈષ્ટ છે અને પ્રતીષ્ટ છે. એટલે કે ભવ્ય એ આને પિતાના જીવનમાં ઉતાર્યું છે. એથી જ એ સર્વથા અતિશયરૂપથી અભિલષિત સિદ્ધ થયું છે.” આ પ્રમાણે કહીને તે. ચિત્ર સારથિએ ભક્તિવશ થઈને કેશિકુમાર શ્રમણની ફરી વન્દના કરી તેમને નમસ્કાર કર્યા અને પછી તેણે તેઓશ્રીને આ પ્રમાણે કહ્યું– “હે ભદંત ! આપ દેવાનુપ્રિય પાસેથી જેમ ઘણા ઉગ્રોએ, ઉગ્રપુત્રોએ ભેગોએ યાવત, ઇભ્યએ અને ઈભ્યપુત્રોએ હિરણ્ય-સુવર્ણને ત્યજીને, રજત-ચાંદીને ત્યજીને, આ प्रमाणे धन-३२या वगैरेने, धान्य-शालि वगैरेने, ८-सैन्यने, पान-मय वगैरेने કેશને કોઠાગાર-ધાન્યગ્રહને, પુર-નગરને, અન્તપુર-રણવાસને ત્યજીને તેમજ વિપુલ પ્રચુર ધન રૂણ્ય વગેરેને કનક–ઘટિત અઘટિત બન્ને પ્રકારના સુવર્ણને, કર્કેતન ગેરે Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीयसो टित चेति द्विविध सुवर्णम्, रत्न कर्केतनादिकम्, मणिः पद्मरागादिरूपः, मौक्तिक मुक्ताफल, 'शङ्ख:-रत्नविशेषः, शिलापत्राला विद्रुमः, सत्सारस्वापतेय सद्-पितृपितामहादिपरम्परारूपेण विद्यमान' सार प्रधान यत, स्वा. पतेय मणिरत्नादिक द्रव्य तत् एतेषां समाहारस्तव, धनधान्यादि सत्सारः . स्थापतेयान्त सर्व विच्छ भावतः परित्यज्य, विगोप्य तानि सर्वाणि प्रकटी. कृत्य दान दत्त्वा दीनदरिद्रादिभ्यो वितीर्य, परिभाज्य=पुत्रादिषु विभज्य, र मुण्डा भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रव्रजन्ति-दीक्षां गृहन्ति, नो खलु मदन्तः! अह यावत् शक्नोमि-समर्थोऽस्मि त्यत्तवा हिरण्य, तदेव यावत् सुवर्णादिक सर्व त्यक्तवा-इत्यर्थः, प्रवजितुम्-दीक्षा ग्रहीतुम् । अहं खलु देवानुप्रियाणाम् अन्ति के समीपे पञ्चााणुव्रतिक' पञ्चपञ्चसंख्यकानि अनुव्रतानिस्थूलात माणातिपाताद् विरमणम१, स्थूलाद् मृषावादाद् विरमणम् २, स्थूलात् दोनों प्रकार के सुवर्ण को, क तनादिक रत्नको, पद्मरागादिकरूप मणियों को, मुक्ताफलों को, रत्नविशेषरूप शरवको शिलाप्रवालविद्रुम को, सत्-पिता पिता मह आदिकों की परपरारूप से विदमान सारप्रधान मणिरत्नादिकरूप स्वापते को, भावलः छोड करके, तथा प्रत्यक्षरूप में इन सबको दीन दरिद्रादिकों को दान देकर, एवं पुत्रादिकों में इन्हें विभक्त करके अर्थात पुत्रा दिकों को धन आदिका भाग देकर मुडित होकर आगारावस्था से परे हो दीक्षा धारण करते हैं, मैं इस प्रकार की परिस्थिति से युक्त हो कर अर्थात् मुवर्णादिक सब का परित्याग कर भागवती दोक्षा धारण करने में अपने आपको शक्ति संपन्न नहीं मान रहा हूं-असमर्थमान रहा। हूं. अतः आप देवानुपिय के पास मैं श्रावक व्रतों को धारण करना चाहता हूं-वश ऐसी ही इस समय मुझ में शक्ति है. अर्थात्-१स्थल प्राणातिपात नने, पारा वगैरे. ३५ माशुयान, भुतासान न विशेष शमन, शिक्षाप्रale'વિદુમને સત્-પિતા પિતામહ વગેરેની પરંપરાથી વિદ્યમાન સાર પ્રધાન-મણિરત્ન पो३ ३५ वापतयन, मापात: (अन्तरनी थी. ४) त्यसभा प्रत्यक्ष३५मा | દીન દરિદ્ર વગેરેને દાનમાં આપીને અને પુત્રાદિકમાં વિભાજિત કરીને એટલે કે પુત્રાદિકેને ધન વગેરેના ભાગ આપીને મુંડિત થઈને–અગારાવસ્થાથી પર એવી ભાગવતી દીક્ષા ધારણ કરે છે. હું પિતાની જાતને આવી પરિસ્થિતિથી ચુકત થઈને એટલે ॐ सुवर्ण वगेरे धी परतुआनो त्यास ना ..मरावती दीक्षा पा२९५ ४२वामा हु અસમર્થતા અનુભવી રહ્યો છું એથી આપ દેવાનુપ્રિય પાસેથી હું શ્રાવક વ્રતને ધારણ ४२१॥ २छुछु. मया भाराभा मालीशत छ, सोवे रेभा (१) २थूदा Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिनो टीका सू. ११२ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् अदत्तादानाद् विरमगम् ३, स्वदार सन्तोषः४, ईच्छापरिमाणः५, इति पश्चाणुवनानि तानि सन्ति यस्मिस्तम्, तथा-सप्तशिक्षावतिक-सप्रशिक्षात्रतानि यस्मिन् दिग्वतम्,१ उपमोगारिमोगारिमागम् २, अनर्थदण्डविर. मणम् ३, , सामायिकम् ४, . देशावकाशिकम् ५. पौषधोपवासः ६, अतिथिस विभागः, ७ इति सप्तशिक्षाव्रतानि तानि सन्ति यस्मिस्तम्, इत्येवं द्वादशविध गृहिधर्म प्रतिपर्नु स्वीकनुं शक्नोमि। इत्थं चित्रसारथेचन श्रुत्वा केशिकुमारश्रमणः प्राह-हे देवानुप्रिय ! यथा ते सुख भवेत्तथा कुरु, अत्र अवश्यकर्त्तव्ये काय पतिवन्ध विलम्ब मा कुरु-इति ! ततः खलु स चित्रः सारथिः केशिकुमारश्रमणस्य अन्ति के पश्चाणुव्रतिकः यावद, गृहिधर्मम् उपसम्पध-स्वीकृत्य विहरति । ततः खल से विरमण, २ स्थलमृषावाद से विरमण, ३स्थूलभदत्तादान से विरमण, ४स्वदारस'तोष, और ५इच्छापरिमाण ये पांच अणुव्रत हैं जिसमें ऐसे तथा १दिग्वत, २उपभोगपरिभोगपरिमाण, ३अनर्थदण्डविरमण, ४सामायिक, ५देशा• शिक,पोषधोकापवास. अतिथि संविभाग, एवं ये सातशिक्षावत है जिसमें ऐसे गृहिधर्म को स्वीकार करने की मुझ में शक्ति है इसलिये इसे ही मैं धारण करना चाहता हूं-इसका विशेष वर्णन औपपातिक-सूत्र में आनन्द श्रावक के प्रकरण में देखना चाहिये। इस प्रकार चित्र सारथि के वचनकथन को सुनकर के केशिश्रमणने उससे कहा-हे देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो-वैसा करो परन्तु इस अवश्यकर्तव्य कार्य में ढील मत करो इस .. प्रकार केशिकुमारश्रमण का हितविधायक वचन सुनकर चित्र सारथिने उनके पास पांच अणुवतोवाले एवं सातशिक्षा व्रतों वाले गृहिधर्म को स्वीकार - પ્રાણુ તપાતથી વિરમણ, (૨) સ્થૂલ મૃષાવાદથી વિરમણ (૩) સ્થૂલ અદત્તાદાનથી વિરમણ (४) छ। ५२२२मा मा पांथे मानतो तमान (१) हिभूबत, (२) पास परि. सपरिभा, (3) सामायि: (४) देशावाशि (५) पौषधापवास, (6] अतिथिસંવિભાગ અને (૭) અનર્થ દંડ વિરમણ આ સાત શિક્ષાત્રતે છે એવા ગૃહિધમને વીકારવા માટે હું તૈયાર છું. આનું વિશેષ વર્ણન પપાતિક સૂત્રના આનંદ શ્રાવક પ્રકરણમાં કરવામાં આવ્યું છે. આ પ્રમાણે ચિત્રસારથીનું કથન સાંભળીને કેશિકુમાર શ્રમણે તેને કહ્યું- હે દેવાનુપ્રિય! તમને જેમાં સુખ થાય તેમ કરે. પણ આ આવક કર્તવ્યમાં હવે વાર કરે નહિ.” આ પ્રમાણે કેશિકુમાર શ્રમણનું હિત વિધાયક વચન સાંભળીને ચિત્ર સારથિએ તેઓશ્રી પાસેથી પાંચ અણુવ્રતવાળા તેમજ સાતશિક્ષા વ્રતવાળા ગૃહિધમને સ્વીકારી લીધું. ત્યારબાદ ચિત્રસારથિએ તેઐશિકુમાર Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीयसत्रे ARMY स चित्रः सारथिः के शिकुमारश्रमण वन्दते नमस्यति, बन्दित्वा नमस्थित्वा यत्रैव चातुर्घटः अश्वरथ स्त व प्राधारय-निश्चयमकरोद् गमनाय गन्तुमिति। च गत्वा चातुर्वण्टम् अश्व रथ दूरोति, द्छ यस्यादिशः प्रादुर्भूतः, तामेव । दिश' प्रतिगत इति ॥१० ११२।। ... मूलम्-तएणं से चित्ते सारही समोवालए जाए. अहिगय जीवाजीवे उवलद्धपुष्णपाने आसवसंवरनिज्जरकिरियाहिंगरणबंध मोक्खकुसले असहिज्जे देवासुरणागजक्खरकखसकिन्नरकिंपुरसगरुल गधवमहोरगाईहिं देवगहेहिं निग्गंथाओ पाक्यणाओ जणइकमणि प्न, निग्गंथे पावयणे जिस्संकिए णिक खए णि व्वतिगिच्छे लछ? गहियट्ठ पुच्छिय? अहिगय? विणिच्छिय? अट्टिामजपेमाणुरागरत्त. 'अयमाउसो! णिग्गंथे पावयणे अटे, अय परम?, सेसे अण?' ऊंसियफलिहे अवंगुयदुवारे चियतंतेउरंपवेसे चाउद्दसटमुटुपुर्पण मासिणासु पडिपुण्णं पोसह सम्म अणुपालेभाणे समणे णिगाथे फासु एसणिजेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पीठफलगसेज्जासंथारेणं वत्थपडिग्गहकवलपायपुछणेणं ओसहभेसज्जेणं पडिलाभेमाणे, बहुहिंसीलब्वयगुणवेरमणपोसहोयवासेहिय . अप्पाणं भावेमाणे जाई तत्थ रायकजाण य जाव राजववहाराणि य ताइं जियलणा रणा सद्धिं सत्यमेव पञ्च वेवखमाणे पश्खमाणे विहरइ ॥सू०११३॥ कर लिया. इसके बाद चित्र सारथिने उन के शिकुमारश्रमण को वन्दना कीनमस्कार किया, वन्दला नमस्कार करके फिर बह जहाँ चातुर्घट अश्वरथ. रेखा हुआ था वहां पर आया वहां आकर वह उसपर बैठ गया और इस प्रकार. यह जहां से आया था वहीं से होकर वापिस चला गया ॥ मू. ११२॥ ।। श्रमानी, बना ४३. नमः१२ ४. वन्दना नभा२, ४शन पछी ते. यां यातुन ८ । અશ્વથ હતો ત્યાં ગયા. ત્યાં પહોંચીને તે તેમાં બેસી ગયો અને આ પ્રમાણે यांथी माव्या हो या पा! oral. २wो. ॥१०. ११२॥ : . .." :: Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. सुबोधिनी टीका सु. ११३ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवतीय प्रदेशी राजवर्णनम् ... ६६ छाया--ततः खलु स चिमः सारथिः श्रमणापासको जातः अभिशतः जीवाजीव उपलब्धघुपयपाप आलसंवरनिजे राक्रियाऽधिकरणवन्धमोक्षकुशलः असाहाय्यो: देवासुरनाम यक्षराक्षसकिन्नरकिरपुरुषगगन्धर्व महोरगादिभिः देवगणैः नग्रंथात् ... प्रवचनात् अनतिक्रमणीयः, -न-थे प्रवचने निशदितो निष्कासितो निर्विचिकित्सो लब्धार्थी गृहीताः पृष्टार्थः अधि: ण. ला विन लारहा' इत्यादि . . . सूत्रार्थ-(तएण से चिो सारही समणोधातए जाए) अब वह चित्र सारथि असणोपालक हो गया. (अहिगय जीवाजीये. उवलद्धपुण्यपावे, आसवसंवरनिनारकिरियाहिंगरणव धमोक्खकुलले.) जीव और अजीव तत्व के वह ज्ञाता बन गये, पुण्य एवं पाप के स्वरूप को जानने लगे, आसक स वर, निजा , क्रिया, अधिकरण, वध और मोक्ष इनमें कुशल हो गये। अर्थात् इनके स्वरूप का उसे बोध हो गया. (असहिज्जे) कुत्तीधिकों के कुतर्क के खण्डन में पर की सहायता की अपेक्षा वाला नहीं रहा (देश सुरणागजक्खरख सकिनकिंपुरिसगालगंधवमहोरगाइहि देवगहेहि निगाथाओ पावयणाओ अणइकमणिज्जे, निग्गाथे पावयणे निस्सकिए) देवो से असुरों से नागों से, यक्षों से राक्षसों से, किंपुरुषों से, गरुड़ों से गधों से, सहोरगों से-हन सब देवगणों से-वहनिर्ग्रन्थ प्रवचन की श्रद्धा आदि से, अनतिक्रमणीय हो गया अर्थात् ये सब देवगण भी उसे निर्गन्धप्रवचन से शेडा सा भी विचलित करने के लिये समर्थ नहीं हो सके. वह (निग्ग थे पाव 'तए ण से चिते सारहो' इत्यादि। ... सूत्रार्थ-(तए ण से चिभे सारही समणोवासए जाए) हुवे त्रि सायि अभपास गये तो. (अहिंगयजीवाजीवे, उबलद्धपुण्गपाने, आसयस'वरनिन्जकिरियाहिगरणधमोक्खकुसले) 4 भने म तवत' જ્ઞાતા થઈ ગચો. પુણ્ય અને પાપના સ્વરૂપને તે જાણવા લાય, એ સંવર, નિર્જરા ક્રિયા, અધિકારણ. બંધ અને મેક્ષમાં તે કુશળ થઈ ગયે એટલે 32 धाना २१३५ ज्ञान तन मथु (असहिज्ज) हुताािना तना मनमा तn pon-l. भनी अपेक्षा न २७. (देवासुरणागजक्खरक्खसकिनर किंपुरिसगहलग धब्धमहोरगाई हिं देवगहेहिं . निगथाओ पावणाओ अणइक्कमणिज्जे, निग्गथे पाक्यणे निस्सकिए) ४थी, असुरोधी, नागोथी, થાથી રાક્ષસેથી કિન્નરથી કિં પુરૂષથી ગરુડેથી ગંધથી મહારગોથી–આ બધા દેવગણેથી તે નિગ્રંથ પ્રવચન પર અતી શ્રદ્ધાને લીધે અનતિ મણીય થઈ ગયો. એટલે કે આ બધા દેવગણે પણ તેને નિગ્રંથ પ્રવચન પરથી જરાએ વિચલિત કરી Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रीजप्रश्नीयसूत्र गनार्थो विनिश्चितार्थः अस्थिमज्जाप्रेमानुरागरक्त:-'इदम् आयुप्मन् ! नैन्य प्रवचनम् अर्थ:, अयं परमार्थः, शेषम् अनर्थ:' उच्छ्रित-स्फाटिकः अपा. वृत्तद्वारः प्रीतिकरान्तःपुरगृहप्रवेशः चतुर्द श्यष्टम्युहिष्टपौर्णमासीपु प्रतिपूर्ण यणे हिस्सकिए) ऐसा निर्गन्धप्रवचन में निःशकितगुण से युक्त हो गया (णिक खिए) अन्यमत की कांक्षा उसके चित्त में थोडी सी भी नहीं रही-ऐसा निष्कांक्षितगुण वाला वह हो गया. (णिनितिगिच्छे, लट्टे, गहिय?, पुच्छियडे, अहिगयो, विणिच्छि य?, अटिभिजपेमाणुरागरत्ते) फलके प्रति संदेह उसका भाता रहा ऐसा वह निर्विचिकित्सगुण-संपन्न हो गया. इसी कारण उसने गुर्वादिकों से यथार्थ निर्गन्धप्रवचन का अर्थ प्राप्त कर लिया, और इसी कारण वह पराभिप्राय के ग्रहण से अवधारित (निश्चित) अर्थतत्ववाला बन गया. पृष्टार्थ हो गया. निर्णीतार्थ हो गया, अधिगतार्थ हो गया, विनि थितार्थ हो गया, तथा उसकी अस्थि और मजा ये दोनो निर्ग्रन्थ प्रव. चनविषयक प्रेमरूपी रजन द्रव्य से खुब रग गये. अर्थात् रग रग में उसके निर्ग्रन्थप्रवचन का अनुराग भर गया. (अयमाउसो ! निन्ग थे पावयणे भः अयं परमट्ट, सेसं अणटे, ऊसियफलिहे, अवगुयदुवारे, चियत्ततेउरघरपवेसे) हे आयुष्मन् ! यह निर्ग्रन्थमवचन ही वास्तविक अर्थ से युक्त है क्यों कि यह मोक्ष का हेतु है. यही परमार्थ है क्यों कि जीवों का ABया न. ते (निगथे पावयणे णिसकिए) मा प्रमाणे नि*य प्रयनमा CCES गुणुयुत थप गयो. (णिक खिए) तेना भनमा ulon भत भाटे सारे ४२. शेष न २डी. मी प्रमाणे निexiक्षित गुयुत था। गयी. ( णिनितिगिच्छे सदष्टे, गहियह', पुच्छियहो, अहिगय?, विणिच्छिय?, अद्विमिंजपेमा णुरागरते) ५॥ प्रत्ये तेना. मनमा सड रह्यो नडि, मा प्रभारी निवास ગુણ સંપન્ન થઈ ગયે. એથી જ તેણે ગુરૂ વગેરે પાસેથી યથાર્થ નિગ્રંથ પ્રવચનને અર્થ જાણું લીધા હતા. એથી જ તે પરાભિપ્રાયના ગ્રહણથી અવધારિત અર્થ તત્વવાળ થઈ ગયે, પુષ્ટાર્થ થઈ ગયે નિષ્ઠીતાર્થ થઈ ગયે. અધિગતાર્થ થઈ ગયા, વિનિશ્ચિતાર્થ થઈ ગયું અને તેના અસ્થિ અને મજજા અને નિગ્રંથ પ્રવચન વિષયક પ્રેમરૂપી રંજન દ્રવ્યથી ખૂબજ રંજિત થઈ ગયાં. એટલે કે તેના શરીરના આણુએ भाशुभ नि अवयन प्रत्येनी प्रीति व्यास 25 5. (अयमाउसो! निग्गथे पावयणे अ? अयं परमटे, सेस अण है, असियफलिहे, अगुयदुवारे, चियत्त तेउरघरपवेसे ) आयुष्यभन् ! मा निर्थक अवयन । वास्तव मय સુકત છે કેમકે એ મેક્ષ માટે હેતુરૂપ કહેવાય છે. એ જ પરમાર્થ છે કેમકે એનું - Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3D सुबोधिनी टीका सू ११३ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनस पौषध सम्यक अनुपालयन् श्रमणाम् निन्थान् मासुषणायन अशनपान खादिम-स्वादिमेन पीट--फलक शय्या-संस्तारेण स्त्र--प्रतिग्रह-कम्बलपादपोछनेन औषधभैषज्येन पतिलाभयन् बहुभिः शीलवत गुणविरमणपोषप्रयोजन इसीसे सिद्ध होता है. इसके अतिरिक्त अन्यतीर्थिक कुप्रवचनादिक • कुगतिप्रापक होने से अनर्थ रूप हैं, इस तरह से वह अपने पुत्रादिकों को शिक्षा देने लगा. निग्रंथमवचन को प्रतिपत्ति से उसका अन्तःकरण असदविचारों से रहित हो जाने के कारण स्फटिक की तरह निर्मल हो गया, भिक्षुक आदिकों का भिक्षाके निमित्त गृह में प्रवेश सरलता से हो आधे इस ख्याल से वह अपने गृह प्रवेश द्वार को लदा अगला से रहित रखने लगा. अर्थात् दानादि के लिये खुले दरवाजे रखे । राजा के अन्तः पुर में भी उसका प्रवेश श'का रहित होने से प्रीति का जनक बन गया. अर्थात् अतिधार्मिक होने से वह परस्त्री सहोदर (भाई) बन कर रहने लग गया. (चाउद्दसमुद्दिपुण्णमासिणीसु पडिपुष्णं पोसह सम्म अणुपालेमाणे प्रमणे निग्गथे फामुएसणिज्जेण असणपाणखाइम-साइमेण पीढफलगसेज्जासंथारेण वत्थपडिग्गहक बलपायपुंछणेण ओसहभेसज्जेण पडिलाभेमाणे) चतुर्दशी, अष्टमी, उद्दिष्ट-अमावस्या, एवं पूर्णिमा इन चार तिथियों में अहोरात्र पौषध का पालन करता हुआ, तथा प्रामुक एपणीय-अचित और साधुजन को कल्पनीय एसे अशन, पान, खादिम, स्वादिमरूप चतुर्विध आहार से; પ્રયજન એના વડે જ સિદ્ધ થાય છે. બાકીના બધાં–અન્યતીથિક કુપ્રવચન વગેરે મુગતિ પ્રાપક હોવા બદલ અનર્થ રૂપ છે. આ પ્રમાણે તે પિતાના પુત્ર વગેરેને ઉપદેશ આપવા લાગ્યા, નિગ્રંથ પ્રવચનની પ્રતિપત્તિથી તેનું હદય અસદુ વિચારોથી રહિત થઈ ગયું હતું એટલા માટે સ્ફટિકની જેમ નિમળ થઈ ગયું હતું. ભિક્ષુક વગેરે ભિક્ષા માટે આવે ત્યારે સરળતાપૂર્વક ઘરમાં તેઓ પ્રવેશ મેળવી શકે તે માટે તે પિતાના ઘરનું બારણું ખુલ્લું જ રાખવા લાગ્યા. રાજાના રાજમહેલમાં પણ તેને પ્રવેશ નિઃશંકપણે થવા લાગ્યું એટલે કે તે અતિધાર્મિક થઈ ગયો હતો એથી તે ५२वी सडार पनीने २ा दायो. ( चाउद्दसट्ट,मुद्दिष्टपुणमासिणीसु पडि. पुण्ण पोसह सम्म अणुपालेमाणे समणे निगथे फामुएसाणिज्जेण असणपाणखाइमसाइमेण पीढफलगसेज्जासंथारेण , वत्थपरिग्गह कंबलपायपुछणेण ओसंहभेमज्जण पडिलाभेमाणे) ચતુર્દશી અષ્ટમી, ઉદિષ્ટ અમાવસ્યા અને પૂર્ણિમા એ ચારેચાર સિથિઓના દિવસે અહોરાત્ર સુધી પૌષધનું પાલન કરતો હતું તેમજ પ્રાસુક એષણીય અચિત્ત અને સાધુજન માટે કપનીય એવા અશન, પાન, ખાદિમ, સ્વાદિમરૂપ ચતુર્વિધ આહારથી Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ राजप्रश्रीय ० घोपयासः आसान भावयन् यानि तत्र राजकार्याणि च या राजव्यवहाराथ तानि जितशणा राज्ञा माई स्वयमेव प्रत्युत्पेक्षमाणः प्रत्युत्प्रेक्षमाणो विरहति ॥ सू० ११३ ॥ टीका--'तरण' ले' इत्यादि- ततः स चित्रः सारथिः श्रमणोपासको पातः सन् अभिगत-जीवाजीवः - अभिगत=सम्यक्र अवगतौ ज्ञानी जीवाजीवी-जीयमम् अजीवनच च येन स तथा जीवन वाजवतत्त्व विषयक सकळज्ञानसम्पन्ना उपलब्धपुण्य पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक से, व पात्र कम्बल, पादच्छन, से, (घरण को साफ करने का विशेष) एवं ass से भ्रमण निर्ग्रन्थों को पतिलाभिन करता हुआ (बहहिं सीलव्ययगुणवेरमण पोसोवासेहिय अप्पाणं भावेमाणे जाई तत्थ राजकजाणि य जात्र राजववहाराणि य ताई' जिग्रसतुणा रण्णा महिं सयमेव पच् क्खमाणे विहर) एवं अनेक शीत गुणव्रतों, मिध्यात्व से निर्वर्तन, मस्याख्यान और पौधों से आत्मा को भावित करता हुआ वह जितने भी उस श्रावस्ती नगरी में राजकार्य थे यावत् जितने वहां राजव्यवहार मे उन संघ का जितशत्रु रोजा के साथर वारंवार अवलोकन करता हुआ रहने लगा. । टीकार्थ - गृहिधर्म के पालन करने से वह चिन्न सारथि श्रमणोपासक थन गया जीव-अजीव तत्व विपक कान से वह सम्पन्न हो गया. : પૌઢ લૂક, શય્યા સસ્તારકથી વસ્ત્ર પાત્ર, કેબલ, પાદ પ્રેનથી અને ઔષધ ભૈષજયથી श्रमायु निथ थाने प्रतिक्षालित उरतो (बहूहिं सीलव्यगुण वेरमणपोसहोत्रवाहिंय अपाण भाषेमाणे जाएं तत्थ राजकाज्जाणि य जाय राजनवहाराणि य ताह जियसा रण्णा सद्धिं सबशेष पच्चुवेक्खमाणे२ विहरह) અને અનેક શીક્ષત્રતા, ગુણુવ્રતે, મિથ્યાત્વથી નિત્ર'ન, પ્રત્યાખ્યાત અને પૌષધેા પેાતાના આત્માને ભાવિત કરતેા તે શ્રાવસ્તી નગરીના સરાકાર્યાનું સ ́ચાલન કરતા જિતશત્રુ રાજાની સાથે રહીને વારવાર રાયકાનું અવલેાકન કરતા પેાતાનાં દિવસે પસાર કરવા લાગ્યા. ગૃહિધના પાલનથી તે ચિત્રસારથિ શ્રમણેાપાસક થઈ ગયા. છત્ર, અજીવ તત્વ વિષયક સકળ જ્ઞાનથી તે સંપન્ન થઈ ગયા. પુણ્ય અને પાપના યથા ટીકા Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ وه - सुबोधिनी टीका रू. ११३ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवण नम पाप:-उपलब्धे याथातथ्येन विज्ञाने पुण्यपा-पुण्यलक्षण पापलक्षण च येन स तथा-पुण्यपापयोः यथास्थितस्वरूपज्ञायकः, तथा-आखवसकरनिर्जरा क्रियाऽधिकरणबन्धमोक्षशकुशलः-तम-आस्वप्राणात्तिपातादिः, संबर =माणातिपातविरमणादिः, निजरा कर्मणा देशातो निरण', क्रिया कायि. बया दरूपा, अधिकरणम्, खादिकम्, अन्धाकर्मपुद्गलजीवनदेशयोः दुग्ध. मलबत् एकीमामा, मोक्ष जीवप्रदेशेभ्यः सामना कर्मणामपगमनम, एते. बामितरेनरयोगद्वन्दः, सेषु कुशलातुरः-आनयादिस्वरूपाभिज्ञ-इत्यर्थः, तथा-अलाहाय्य नास्ति साहाय्य-सहायता यस्य स तथा-कुतीथिक कुतर्कखण्डने परसाहायानपेक्ष इति भाषः, सथा-देवासुरनाम यक्षराक्षसकिन्नर किम्पुरुषगडगन्धर्व महोरगादिभिःसन-देवा: वैमानिकाः, अनुरा-अमुरकुमारा: नागा-नागकुमारा: अहुरा नागाः, इमे उभये भवनपतयः, यक्षा, पुण्य और पाप के यथावस्थित स्वरूप का वह ज्ञाता हो गया, तथा प्राणाति. पातादिरूप आत्रर,' प्राणासिपातादिभिरमण रूप संवर, कमों का एकदेश से लय होनेरूप निरा, कायिकी मादिरूप क्रिया खनादिरूप अधिकरण, दुग्धजल की तरह हम पुदगलों का और जीपपदेशों का एक क्षेत्रावगाहरूप बंध, जीवप्रदेशों से सस्मिना कम का अपगमरूप मोक्ष इन सब में बह चतुर बन गया, अर्थात् जीव आदि के स्वरूप का वह अभिज्ञ हो गया, कृतीर्थिकजनों के कुतर्क खण्डन में बह किसी की भी सहायता नहीं लेता एमा समझदार हो गया, तथा जिनमवचन के प्रति उसकी एसी अगाध श्रद्धा बढ गई कि जिससे वह देव. असुर, नाग, यक्ष. राक्षाम, किन्नर, किम्पुरुष भादिको द्वारा भी उससे किन्चित भी चलायमान नहीं किया जासको. वैधानिक देव. यहां देवपद से, असुरकुमार जाति के मनपति अमरकुमारपद વસ્થિત સ્વરૂપને તે જાણુવા લાગે તેમજ પ્રાણાતિપાત વગેરે આસવ, પ્રાણાતિપાતાદિ વિરમગુરૂપ સંવર, કર્મોને એકદેશથી ક્ષય થવા રૂપ નિર્જરા, કાયિકી વગેરે રૂપ ક્રિયા ખડૂગ વગેરે રૂપ અધિકરણ, દુગ્ધજલની જેમ કર્મ પુદ્ગલનું અને જીવ પ્રદેશોનું એક ક્ષેત્રાવગાહનરૂપ બંધ, જીવ પ્રદેશની સર્વાત્મના કર્મોનું અાગમનરૂપ મક્ષ આ બધામાં તે ચતુર હતા એટલે કે આ રસવ વગેરેના સ્વરૂપને તે જાણકાર થઈ ગયે હતો તે એવો ચતુર થઈ ગએ હતો કે કુતથિ કુતર્કખંડનમાં તે કેઈની પણ મદદ લેતો હતો. તેમજ જિનપ્રવચન પ્રત્યે તેના મનમાં એવી અગાધ श्रद्धा भी 5 ती थी ते , २५९२, ना! यक्ष. राक्षस, २, & પુરુષ વગેરે વડે તે જરાએ વિચલિત કરી શકાય તેમ નહોતો. વૈમાનિક દેવ અહીં દેવાદથી અસુરકુમાર જાતિના ભવનપતિ અસુરકુમાર પદથી, નાગકુમાર જાતિના ભવન Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्रीयसत्रे राक्षसाः, किन्नराः किम्पुरुषाः, एते चत्वारोभ्यन्तरविशेषाः, गरुडाः = गरुडध्वजाः सुपर्णकुमाराः भवनपतिविशेषाः, गन्धर्वा महोरगाव व्यन्तरविशेषाः, तत्पभृतिभिरपि देवगणैः नैर्ग्रन्धात् मवचनात् अनतिक्रमणीय: अचालनीयः निर्ग्रन्थमवचनात्स' चालयितु' देवादयोऽसमर्था इनि भावः । तथा निर्मन्थे प्रवचने निश्शङ्कितः = अन्यदर्शनापेक्षया श्रेष्ठमिदं न वेति शङ्कारहितः, अत एत्र - निष्काशितः = काक्षारहितः परमतकाक्षारहितः निर्विचिकित्सः - फल' प्रति सन्देहरहितः, अत एव लब्धार्थ :- लब्धः = मासः अर्थो गुर्वादीनां सकाशाद् येन स तथा उपलब्धपदार्थ इत्यर्थः गृहीतार्थः गृहीतः = स्वीकृतोऽर्थो येन स तथा - पराभिप्राय ग्रहणतोऽवधारितार्थतन्त्र इत्यर्थः पृष्टार्थः - पृष्टोऽर्थो , ८८ से, नागकुमार जाति के भवनपति देव नाग शब्द से, तथा यक्ष, राक्षस, किन्नर, एवं किंपुरुष इन पदों से व्यन्तर जाति के इस २ नामके देव गृहीत हुए हैं। गरुड शब्द से गरुडध्वजवाले सुपर्णकुमार जो कि भवनपति जाति के देव विशेष हैं । गृहीत हुए हैं। गन्धर्व और महारग ये व्यन्तरविशेष हैं। उसके मनमें ऐसी शंका कि यह निर्ग्रन्थप्रवचन अन्य दर्शनों की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं की नहीं है की नहीं उत्पन्न हुई इसलिये यह उसके प्रति निःशंकित था. परमत की कांक्षा का अभाव इसके चित्त में सर्वधा हो गया था इसलिये यह निष्कांक्षित था, फल के प्रति सन्देह से ग्रह रहित था. इसलिये निर्विचिकित्स था. इसी कारण इसने गुर्वादिकों के पास से पत्रचनगदित अर्थ को अच्छी तरह से जान लिया था. इसलिये यह लब्धार्थ था, उसे अच्छी तरह से स्वीकार कर लिया था. इसलिये ये गृहीतार्थ था. संदेहयुक्त रथल में परस्पर प्रश्न करने से वह अर्थ પતિદેવ નાગ શબ્દર્થી તેમજ યક્ષ, રાક્ષસ, કિનર અને કપુરૂષ ખા પટ્ટાથી વ્યંતર જાતિના દેવાનું ગ્રહણ થયું છે. ગરૂડ શબ્દથી ગરૂડધ્વજવાળા સુવર્ણ કુમાર-કે જે ભવનપતિ જાતિના દેત્ર વિશેષ છે તેનું ગ્રહણ થયું છે. ગંધવ અને મહારગ એ અને 'તરણ વિશેષ છે. તે ચિત્રસારથિના મનમાં નિગ્રન્થ પ્રવચનને લઇને એવી કાઈપણ દિવસે શકા ઉત્પન્ન થઇ નહેાતી કે આ નિગ્રંથ પ્રવચન ખીજા દેશના કરતાં શ્રેષ્ઠ છે કે કેમ ? એથી તે તે પ્રતિ નિઃશ'કિત હતા. પરમત પ્રત્યે તેના મનમાં લીરે કાંક્ષા ઉત્પન્ન થઈ નહાતી એથી તે નિષ્કાંક્ષિત હતા ફળ પ્રત્યે તે સંદેહ રહિત હતા. એથી તે નિિિચકિત્સ હતા. તેણે ગુરુ વગેરે પાંસેથી પ્રવચન વગેરે અને સારી પેઠે જાણી લીધાં હતાં. એથી તે લખ્યા હતા. તે અને તેણે સારી પેઠે સ્વીકાર કરી લીધા હતા. એથી તે ગૃહીતાર્થ હતા. સાંશયિક સ્થળ વિષે પરસ્પર પ્રશ્નો કર Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुबोधिना टोका' सु. ११३ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्ण नम् येन स तथा-मांशयिकस्थल परस्पर प्रश्नकरणेन निर्णीतार्थः, अधिगतार्थ:-- अधिगतम् सर्वया उपलब्धः अर्थो येन स तथा सर्वप्रकारेणोपलब्धार्थः, अत एव-विनिश्चितार्थ:-वि-विशेषेण निश्चित निर्णीतोऽर्थो येन स तथा-ज्ञातवास्तविकार्य इत्यर्थः, ता-अस्थिमजा मानुरागरक्तः-अस्थिमज मसिद्ध ते प्रेमानुरागेण-निग्रन्धवचनविषयकं यत् प्रेम तद्रूपो योऽनुरागोरञ्जनद्रव्य तेन रक्त इन रक्त यस्य स तथाभूतः सन् "हे आयुज्मन् ! इद न ग्रन्थ प्रचचनमेव अर्थः वास्तविकार्थयुक्त-मोक्षहेतुत्वात, शेषम्-हतो भिन्न अन्यतीथि ककुमावनादिकम् अनर्थ:-कुगतिप्रापकत्वात्' इत्येव पुत्रादिकम नुशासत, तथा अशिस्फाटिकः स्फटिकमिव स्फाटिकम् . अन्तः करणम्, उच्छितम् उद्गतम्फाटिक यस्य . स . तथा-निग्रन्थप्रवचन प्रतिपक्या, असदिचारशून्यत्वात्स्फटिकवन्तिम लान्तःकरण इत्यर्थः, अथवा'उच्छित परिघ' इतिछाया, एतत्पक्षेः उच्छ्त्ति-तत्स्थानादमनीय ऊर्थी र का निर्णेता बन गया था. इसलिये पृष्टार्थ था, सर्व प्रकार से अर्थ को ग्रहण करने वाला बन गया था, इसलिये ये लब्धार्थ था. वास्तविक अर्थका ज्ञाता बन गया था. इसलिये ये विनिश्चयार्थ था, निर्ग्रन्थमनचनविषयक प्रेमउसकी रोमर में समागया था, इसलिये ये अस्थिमजायमानुराग रक्त था. वह - अपने पुत्र पौत्रादिकों से यही कहना था कि हे आयुष्मन् ! यह निग्रन्थ प्रवचन ही मोक्ष हेतु होने से वास्तविक अर्थ से युक्त है अन्य कुवादियों के प्रवचन ऐसे नहीं है। क्योंकि वे दुति के पास कराने वाले हैं। निग्रंन्धप्रवचन की प्रतिपत्ति से उसका हृदय स्कटिकमणि के जैसा- निर्मल हो गया था "उसियफलिहे की छाया जब उच्छितपरिघा', ऐसी: की जाती है सब इसका का ऐसा होता है कि इसनेः घरके द्वार के किवाडों में, -વાથી તે અને નેતા બની ગયે હતો એથી તે પ્રષ્ટાર્થ હતો. તે સર્વ રીતે અને ગ્રહણ ક્યનાર બની ગયે હતો. એથી તે લબ્ધાર્થ હતો. તે વાસ્તવિક અર્થને साता गया तो. मेथी. ते विनिश्चतार्थ हतो. नियन्य विषय प्रेम તેના આએ અણુમાં રમી ગયે હતો, એથી તે અસ્થિમજજામાનુરાગી હતો. તે पताना पुत्र पौत्र वगैरेन. मी प्रमाणे तो तो "मायुभन् ! सा 'નિર્ગથ પ્રવચન જ મેક્ષના હિતુ હેવા બદલ રક્તવિક અર્થથી ચુકત છે. બીજા કુવાદિએના પ્રવચને આવાં નથી. કારણકે તે કુતિ તરફ દેરનારા છે. નિર્ગ પ્રવચનની प्रतिपत्तिथी तनु य २३टिभ भ निमण थायु तु. "उसीयफलिहे' नी छाया त्यारे 'उच्छूितपरिघा प्रमाणु ४२वामा मा छ त्यारेन मर्थ - આ પ્રમાણે હોય છે કે તે મ્રવેશદ્વારના કમાડેમાં અર્ગલા મૂકવાના સ્થાનની . Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___. राजप्रश्नीयसो कृतो न . तु तिरश्चीनः कृतः परिघ: अर्गला येन :स संथा 'भिक्षुकादीनां सौकर्येण भिक्षार्थ गृहे प्रवेशो भवतु इति हेतोः कपाटपश्चाद्भागादपनीतार्गल इत्यर्थः । अथवा-उछिना=अपगनः परिधः अर्गला गृहद्वारे यस्यासौ तथा-औदार्याधिक्यादतिशयदानदातृत्वाद् भिक्षुकप्रवेशार्थ: मनर्गलितगृहद्वार : इत्यथ: । एतावदेव न किन्तु अपातद्वार: भिक्षुकादिप्रवेशार्थ कपाटानामपि पश्चात्करणात् सर्वथा समुद्घाटितद्वारइत्यर्थः । यद्वासम्यग्दर्शनलाभे सति कुंतश्चिदपि पाखण्डिकाद् भयाभावेन शोभनमार्ग परि. ग्रहेण च सर्वदा समुद्घाटिनशिरास्तिष्ठनोति भावः, ता-प्रीतिकरानापुर अर्गला को उसके रखने के स्थान से ऊपर कर दिया था, तिरछा नहीं किया था. अर्थात प्रवेशद्वार के किवाडों में इसने अर्गला नहीं लगाई किन्तु का ऊँची ही रही सो उसका कारण यह था भिक्षुक आदि जनों को प्रवेश घर में भिक्षा के निमित्त सरलता पूर्वक होता रहे। अथवा उच्छित शब्द का अर्थ 'इसने अर्गला बिलकुल नहीं लगाई ' ऐसा भी होता है क्यों कि यह उदारता वाला था,तथा अतिशय दान देने वाला था. इसलिये भिक्षुकादिकों के प्रवेश के लिये इसने अपने घर के द्वार को अर्गला से रहित ही कर दिया था उतना ही नहीं किन्तु उसने गृह द्वारके कपाटों को खुलाकर दिया इसीलिये वह 'अप्राकृतद्वार' ऐसा कहा है __ अर्थात वह सर्वथा समुद्घाटित द्वार वाला प्रकट किया है। अर्थात् दान पुण्य के लिये उनके घरके द्वार सदा खुले थे यद्वा--सम्यग्दर्शन के 'लाभ होने पर किसी भी पाखण्डिक से उसे भय नहीं था सो इमसे प२०, २०ी...त्रांसी की न तो यो प्रवेशद्वानी- ४भामा त ' સાંકળ લગાડી ન હતી પણ તેને ઉંચી જ રાખી હતી એની પાછળ આ હેતુ છે भिक्षु : वगैरे भिक्षा माटे मावे त्या समाथी घरमा प्रवेशी श. અથવા ઉસ્કૃિત શબ્દનો અર્થ આ પ્રમાણે પણ થાય છે કે તેણે અર્ગલા લગાડી જ નહોતી. તે-ઉદાર તેમજ અતિશય દાનદાતા હતે એથી ભિક્ષુક વગેરેના પ્રવેશ માટે પિતાના ઘરને. તેણે અર્ગલા વગર જ રાખ્યું હતું. આ પ્રમાણે અર્થ ન કરતાં આપણે એમ કહી શકીએ કે તેણે અર્ગલાને તેના स्थान परथी या पशु नहाती ४२. मेटदा माटे 'अप्राधनद्वार:' पहा સૂત્રકારે તેને સર્વથા સંમુદ્દઘાટિતદ્વારવાળો પ્રકટ કર્યો છે. અને સમ્ય, દર્શનના લાભ ધી હવે કઈ પણ પાંખડિકથી તે ભયભીત નહતો થતે એથી અને શોભનમાર્ગના Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टाका. सू. ११३ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् । ९१ गृहप्रवेशः प्रीतिकरः प्रीत्युत्पादकः- अन्तःपुरगृहे राज्ञोऽन्तःपुरे प्रवेशो यम्य.. स तथा, प्रीतिकरोऽतिधार्मिकतया सर्वत्रानाशङ्कनीय इति भावः, तथाचतुर्दश्यष्टम्युद्दिष्टपण मासीषु तत्र-चतुर्दश्यष्टमीपौणमास्यः प्रसिद्धाः, 'उद्दिष्टम् इत्यमावास्या, एतासु चतसृष्वपि तिथिषु प्रतिपूर्ण सकलम्-अहोरात्र पौषध सम्यक् अनुपालयम, तथा-प्रासुकैपणीयेन=अचित्तेन साधुजनकल्पेनीयेन च अशनपानखादिमस्वादिमेन अशनादिचतुर्विधेनाहारेण पीठफलकशयसंस्तारकेण, · वस्त्रप्रतिग्रहकम्बलपादपोछनेन-तत्र-वस्त्र वसन', 'प्रतिग्रह भक्त. पानादिपात्रं, कम्बल:-प्रसिद्धः, पादपोछन-पादप्रोन्छनार्थ वस्त्रम्, एतेषा समाहारः, तेन. तथा औषधभैषज्येन औषधम् एकद्रव्यनिष्पादित, भैषज्यम्= अनेकद्रव्यनिष्पादितम्, उभयोः, समाहारस्तेन च श्रमणान् निर्ग्रन्थान् प्रतिलम्भयन् प्रतिलम्भयन्, तथा बहुभि अनेकसंख्यकैः" शीलतगुण'विरमणप्रत्याख्यानपोषधोपचासौः तत्र-शीलवतानि स्थूलपाणातिपातविरमणा'और शोभनमार्ग के परिग्रह से वह सर्वदा समुद्घाटित शिरवाला. बना रहता था अर्थात स्वधर्माभिमान बाला है। तथा-वह मीनिकरान्तःपुरगृहप्रवेश वाला था, अर्थात् राजा के अन्तःपुररूप घर में इसका प्रवेश पीत्युत्पादक था. अर्थात् ''यह अतिधार्मिक तथा इसलिये प्रीतिकर... सर्वत्र : अनाशङ्कनीय . था ..तथा .चतुर्दशी .. अष्ठमी,.. अमावास्या और. पूर्णिमा इन चारों पर्व तिथियों में यह 'अहोरात्र का षौषधं करता था मासुकएषणीय. अचित्त एवं साधुजन कल्पनीय ऐसे अशनपान आदिरूप चार प्रकार के , आहार से, पीठ, फलक, शय्या एवं संस्तारक सें, वस्त्र, प्रतिग्रहभक्तंपानादिपात्र, कम्बल, एवं पादपोछनार्थ वस्त्र से, एकद्रव्यनिष्पादित औषध से तथा अनेक द्रव्य निष्पादित भैषज्य से यह श्रमणनिग्रन्थों को प्रतिलाभित करता था, इस तरह अनेकसंख्यक शीलवतों से-स्थलमाणातिपातविरमण आदिको से, दिग्वत आदिरूप गुणव्रतो से, मिथ्यात्व-પરિગ્રહથી તે સર્વદા સમુદઘાટિત શિરવાળો થઈને રહેતે હતે. તે પ્રીતિકરાન્તઃ પુરગૃહપ્રવેશવાળે હતે. એટલે કે રાજાના રણવાસમાં તેને પ્રવેશ પ્રત્યુત્પાદક હતે એટલે કે તે અતિધાર્મિક હતે એથી પ્રીતિક અને સર્વત્ર અનાશકનીય હતો. ચતુર્દશી વગેરે ચારે ચાર પર્વતિથિઓમાં તે અહોરાત્ર પૌષધ કરતો હતે પ્રાસુક એષણય અચિત્ત અને સાધુજન કલ્પનીય એવા અશનપાન વગેરે રૂપ ચાર પ્રકારના આહારથી પીઠ, ફલક, શય્યા, અને સંસ્તારકથી વસ્ત્ર, પ્રતિગ્રહ–ભકતપાન વગેરે પાત્ર, 'કંબલ અને પાદપ્રીંછનાર્થ . વસ્ત્રથી એક દ્રવ્ય - નિષ્પાદન ભૌષજયથી તે શ્રમણ નિને પ્રતિલાભિત કરતે હતો. આ પ્રમાણે ઘણું શીલવતેથી–સ્થૂલ પ્રાણાતિપાત વિરમણ વગેરેથી, દિગ્રવિરતિ વગેરે ગુણવતેથી, મિથ્યાત્વ નિવનરૂપ વિરમણથી, Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गजप्रश्नायसूत्रे दीनि पञ्च, गुणगुणतानि-दिग्वतादोनि, विरमण मिथ्यात्वानिवर्सनम्, प्रत्याख्यान पर्षदिनेषु हरितकायादीनां परित्यागः, पौषधोपबामःचतुर्द श्यादिपर्व तिथिषु आहारत्यागः, एपामितरेतर योगद्वन्द', तैश्च आत्मान भावयन् वासयन," यानि तत्र-श्रावस्त्यां नगर्या राजकार्याणि च यावद राजव्यवहाराश्च तानि सर्वाणि जितशत्रुणा राज्ञा माई स्वयमेव प्रत्युपेक्षा माणः प्रत्युपेक्षमाणः मुहुर्मुहुरवलोकयन् विहरीत ॥० ११३॥ मूलम्-तएणं से जियसत्तू राया अण्णया कयाइ महत्थं जाव पाहुडं लज्जेइ, सजिता चित्तं सारहिं सदावेइ, सहावित्ता एवं वयासी. गच्छहि णं तुमं चित्ता ! मेयंवियानयरिं, पए सस्त रन्नो इमं महत्थं जाव पाहुडं उवणेहि, मम पाउग्गहणं जहा भणियं अवितहमसं. दिद्धं वयणं विन्नवेहित्तिकटु विसजिए। तएणं से चित्ते सारहा जियसत्तुणा रन्ना विसजिए समाणे त महत्थ' जाव गिण्हइ, ज़ियसत्तुस्स रपणो अंतियाओ पडिणिक्खमइ, सावत्थीए नयरीए मझ. मझेणं निगच्छइ, जेणेव रायमग्गमोगाढें आवासे, तेणेव उवाग च्छइ, तं महत्थं जाव ठवेइ, पहाए जाव सरीरे सकोरिटमल्लदामेणं छत्तणं धरिजमाणेणं महया भडचडगरविंदपरिक्खित्ते पायचारबिहारेण महयाः पुरिसवग्गुरापरिक्खित्ते रायमग्गमोगाढाओ आवासाओ निग्गच्छइ, सावत्थीए: नयरीए मझमज्झणं निग्गच्छइ, जेणेव कोटए निवत्त नरूप. विरमण से, "पर्वदिनों में हरितकायादिकों के परित्याग से, चतुदश्यादिपर्वतिथियों में आहारत्याग से आत्मा को बासित करता हुआ वह "श्रावस्ती नगरी में जितने भी राजकार्य थे यावत्-राजव्यवहार थे उन सब का जितशत्रु राजा के साथ स्वतः बार बार निरीक्षण करता हुआ रहने लगा ।सं.११३। .. ना. EिRAiwi स्तियोरेना परित्यागी, 'यतुशी वगै३ तिथिम्यामां मार ' અત્યારથી આત્માને વાસિત કરો તે શ્રાવસ્તી નગરીમાં જેટલા રાજકાર્યો હતાં ચાવતું રાજવ્યવહાર હતા તે સર્વનું જિતશત્રુ રાજાની સાથે પિતે ' વારંવાર નિરીક્ષણ કરતે રહેવા લાગ્યા. સૂ૦ ૧૧૩ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३ सुबोधिनी टोका. सूत्र ११४ सूर्याभिदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् चेइए जेणेव केसीकुमारसमणे तेणेव उवागच्छइ, के सिकुमार समणस्स अंतिए धम्मं सोच्चा जिसम्म हट्ट जाव उट्टाए जाव एवं वयासीएवं खलु अ. भते । जियसत्तुणा पएसिस्स रन्नो इमं महत्थे जाव उवणेहि तिकडे विसजिए, तं गच्छामि णं अहं भंते । सेयंवियं नयरि । पासादीया णं भंते! सेयंविया णयरी, एवं दरिसणिजा णं भंते! सेयंविया णयरी, अभिरूवा णं भंते! सेयंविया णयरी पडिरूवा पां भरते ! सेयं विया णयरी, समोसरह णं भंते! तुम्भे संयंवियं यरिं ॥ सू० ११४ ॥ छाया—ततः खलु स जिनशत्रू राजा अन्यदा कदाचित् महार्थं यावत् मोभृत सज्जयति, चित्र' सारथिं शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत् गच्छ खलु त्वं चित्र ! श्वेतत्रिका नगरीम्, प्रदेशिनो राज्ञ इदं महार्थ यावत् माभृतम् उपनय, मम पादग्रहणं यथा भणितम् अवितथम् असन्दिग्धम् वचन 'तएण से जियसत्तू राया' इत्यादि । सूत्रार्थ - - (तरण से) इसके बाद उस (जिवसंत राया) जितशत्रु राजाने (अन्नया कयाइ') किसी एक समय (महत्व जाव पाहुड' सज्जेह) महाम योजन साधक यावत् माभृत को सजाया, ( सज्जित्ता चित्त सारहिं सदावेइ) (सदावित्ता एवं बयासी) सजाकर फिर उसने चित्र सारथि को बुलाया (बुलाकर उससे एोसाव कहा-(गच्छाहि ण तुमंचित्ता । सेयं विद्यानयरिं पर उपसिस्स रन्नो इम महत्थ जाव पाहुड उवणेहि) हे चित्र ! तुम जाओ और श्वेतांबिका नगरी में मदेशी राजा के पास इस महाप्रयोजन साधक यावत् י "त एण से जिस राया' इत्यादि । सूत्रार्थ:-(त एण' से) त्यार पछी ते (जियस तराया) भितशत्रुशन्नो (अन्नया) कयाइ') ४ ४ वमते (महत्थ जाव पाहुड सज्जेइ) भडाप्रयोजन साध તૈયાર કરીને यावत् लेट (आसत) तैयर ४२ (सज्जित्ता चित्त सारहिं : सदावेइ) ते चित्र सारथीने मोसाव्या. (सद्दावित्ता एवं वयासी) मोद्यावीने तेथे आ प्रभाशे धुं (गच्छहि ण ं तुम चित्ता । सेयं त्रिया नयरि परसिस्स रन्नो इम ं महत्थ जाब पाहुड उवणेहि) हे चित्र ! तभे श्वेतवि नगरीभां प्रदेशी, राजनी पासे या Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ % 3 DC:-- राजप्रश्नीयसूत्र विज्ञापयेति कृत्वा विसर्जितः । ततः खलु स चित्रः सारथिर्जितशत्रुणा राज्ञा विसर्जितः सन् तत् महार्थ यावद् गृह्णाति, जितशत्रो राज्ञोऽन्तिकात् । प्रतिनिष्काति, श्रावस्त्या नगर्या मध्यमध्येन निगच्छति, यौव राजमार्ग: मरगाढ आवासः, तत्रौत्र उपागच्छति, तन्महार्थ यावत् स्थापयनि, स्तातो यावच्छरीरः सकोरण्टमाल्यदाम्ना छत्रोण नियमाणेन महाभटचटकरटन्दपरिक्षिप्तः. पादचारविहारेण महापुरुषत्रागुरापरिक्षिप्तो राजमार्गमवगाढात आवा.. प्राभृत को ले जाओ (मम पाउगहण जहा भणियं अवितहमसंदिद्धं वयण विनवेहि त्तिक विसजिएं) और उनसे मेरा प्रणाम कहो, तथा मेरी और से, यथोक्त अविनथ असंदिग्ध वचन कहो, इस प्रकार कह कर उसे विसर्जित कर दिया. (तएण' से 'चित्ते सारही जियसंनुणा रणा विसज्जिए समाणे त महत्थं जाव गिण्ड-जियसत्तस्स रणो अंतियाओं पडिनिवखमइ) इसके बाद जितशब राजा द्वारा विसर्जित किये गये चित्र सारथि ने उस महाप्रयोजन साधक यावत प्राभूत को उठा लिया और जितशत्रु राजा के पास से. चला आया. (सावत्थीएं नयरीए मज्झ मज्झेग निग्गच्छड) एवं श्रावस्ती नगरी के ठीक बीचों बीच के मार्ग से होकर निकला (जेणेवं रायमगमोगाढे श्रावासे तेणेव उवागच्छद) निकलकर वह जहां राजमार्ग पर स्थित आवासस्थान था, वहां पर आया (तमहत्यं नाव ठवेई) वहां आकरके उसने उस प्राभृत को एक ओर रख दिया. (हाए जाब सरीरे सकोरिंटमल्लदामेण छत्तण धरिजमाणेण महया भडचडगरविंद• महायान साध यावत् लेट सन्या .(मम पाउगवण जहा भणिय अवि तहमस'दिद्ध वयण विन्नवेहित्तिक विसजिए) मने तेभने भारा प्राम ४.या मने भारावती यथे॥४त मवित असहिग्य वयन ४डशा. (त्तिक विसजिए) सा प्रभारी डीन तेने त्यांची वानी माज्ञा ४२. (तएण से चित्ते सारही जिय सणो रण्णा विसज्जिए समाणे तं महत्थं जाद गिण्हइ जियसत्तस्स रणो अंतियाओ पडिनिक्खमई) त्या२पछी नितशत्रु २० पाथी माज्ञापित थईन त . ચિત્ર સારથીએ તે મહાપ્રયજન સાધક યાવત્, ભેટને લઈ લીધી અને જિતશત્રુ રાજા पासेथी मावतो रह्यो (सावत्थीए नयरीए मज्ज्ञ मज्झण निग्गच्छइ) भने श्रावस्ती नगीना मराभ२ मध्यभागथी थधन (जेणेव रायमगमोगाढे आवासे । तेणेव ‘उवागच्छइ) ते 'नयां भाग ५२ पातानु. निवासस्थान हेतु त्यो मा०या. (त महत्थ जावं ठेवेइ). त्यां मीन तेणे ते लेटने २४ २५ भूी सीधी. (हाए जाच सरीरे सकोरिटमल्लदामे णं छत्तण':धरिजमाणे णं महया महया Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... सुबोधिनी टीका सू. ११४ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशोराजव र्गनम् सात् निर्मच्छति, श्रावस्त्या नगर्या मध्य मध्येन. निर्गच्छति यत्र व कोष्टक चैत्य यत्र व केशी कुमारश्रमणः . , तत्रव उपागच्छति, केशिकुमारश्रमणस्य अन्ति के धर्म श्रुत्वा हृष्ट यावत् उत्थयाः । यावदेवमवादीत-एवं खलु अह' भदन्त ! नितशणा राज्ञा प्रदेशिने राजे परिक्खित्ते पायचारविहारेण महयां परमगुरापरिचिव रायमगायोगाढाओ आवोसाओं निम्गच्छई) स्नान किया यावत् बहुमूल्यवेशं एवं अल्पमावाले आभूषणों से अपने शरीर को अलंकृत किया. पश्चात् छत्रधारी द्वारा ताने गये एवं कोरंटपुष्पों की माला से विभूषित ऐसे छत्र से युक्त, हा यह चित्र सारथि विशाल भटों के विस्तृत समूह से युक्त होकर उस राजमार्ग स्थित आवास से पैदल ही निकला साथ में विशाल जनमेदिनी भी थी. । (सावत्थोए नपरोए मज्झमज्शेण निग्गच्छइ) इन सब से घिरा वह चित्र सारथि श्रावस्ती नगरीके वीचों बीच मार्ग से होकर चला (जेणेव कोट्ठए चेइए जेणेव. केसिकुमारसमणे तेणेव उवागच्छइ) चलते वह वहां पहुंचा जहां कोष्ठक चत्य और उसमें भी जहाँ केशिकुमारश्रमण. थे (केसिकुमारसमणस्स अंतिए धम्म सोचा णिसम्म हतु जाव उठाए एवं वधासी वहां पहुचकर उसने केशिकुमार श्रमण से धर्म का उपदेश सुना और उसे हृदय में धारण किया सुनकर और हृदय में धारण कर वह आनद से प्रफुल्लित बन गया, और संतुष्ट चित्त हो गया यावत् उसका हृदय प्रमोद से भड चडगरविंदपरिक्खिचे पायचारविहारेण महया पुरिस वग्गुरायरिक्खित्तें . रायमग्गमोगाढाओ आवासाओ निग्गच्छ इ) स्नान यु यावत् माई भतवाणां मने અપભારવાળાં આભૂષણે વડે તેણે પિતાના શરીરને અલંકૃત કર્યું. ત્યારપછી કેરેટ પુષ્પ વડે શોભતું છત્ર છત્રધારી વડે તેના ઉપર તાણવામાં આવ્યું. આ પ્રમાણે તે ચિત્ર સારથિ વિશાળ ભટેના સમુદાયથી પરિવેષ્ટિત થઈને ને રાજમાર્ગ પર સ્થિત - આવાસ સ્થાનથી પગપાળા જ રવાના થયે. તેની સાથે વિશાળ માનવસમૂહ પણ હતા. (सावस्थीए- नयरीए मझ मज्झण निगच्छइ) मा सपथी वीरजायेत ते साथि श्रावस्ती नाना मध्यमा ५२ धने नीज्यो. (जेणेव कोहए: चेइए जेणेव : केसिकुमारसमणे तेणेव उचागच्छई) नान ते 'न्या 31°४४ शैत्य .. तुमने . तेमा पशु यो शिमा२ श्रम ता त्यां पश्ये (केसिकुमार समणस्स.. अलिए धम्म सोचा णिसम्म हतुट्ठ जाव उहाए जाव एवं वयासी) ત્યાં પહોંચીને તેણે કેશિકુમાર શ્રમણ પાસેથી ધર્મોપદેશ સાંભળે અને તેને હદયમાં - ધારણ કર્યો. ધર્મોપદેશ સાંભળીને અને હૃદયમાં ધારણ કરીને તે આનંદવિભાર થઈ ગયે અને સંતુષ્ટ ચિત્તવાળ થઈ ગયે. યાવતું તેનું હૃદય પ્રસન્નતાથી ઉભરાઈ ગયું Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीयसो SummaravamacatermLLE D UBARA इद महार्थ यावत् उपनय इति कृत्वा विसर्जितः तद् गच्छामि खलु हे भदन्त ! श्वेतविकां नगरीम् । प्रासादीया खलु भदन्त ! *वेतपिका नगरी एव' दशनीया खलु भदन्त ! श्वेतविका नगरी, अभिरूपा खलु भदन्त ! श्वेतविका नगरी, प्रतिरूपा खलु भदन्त ! श्वेतविका नगरी, ममसरत खानु भदन्त ! यूयं श्वेतविकां नगरीम् ॥मू. ११४॥ टीका-'तएण से' इत्यादि ततः ग्वलु मजितशत राजा अग्यदा कदाचित् महाथै यावत-पाव पदेन 'महार्थ महाहं विपुलं राजाईम्' इति संग्रह्यते अर्थस्त्वेपी पूर्ववद् मत्त होकर उछलने लगा यावत वह स्वतः उठा और उठकर यावद उसने इस प्रकार कहा-(एव खलु अह भते! जियसत्तणा पएसिस्स रन्नो इम महत्थं जात्र उवणेहि ति कठ्ठ विसजिए त गच्छामि ण अहं भाते ! सेय. विय नयरिं) हे भदन्त ! मुझो जितशत्रु राजाने 'प्रदेशी राजा के पास है चित्र ! तुम इस महायोजन साधक यावत् प्राभृत को ले जाओ' एसा कह कर विसर्जित किया है सो हे भदन्त ! मैं श्वेतांविका नगरी को जा रहा ह। (पासाईया ण भते ! सेयविया नयरी, एवंदरिसणिज्जा भंते! सेय'विया नयरी, अभिरुवाण भते! सेयविया नयरी, पडिरूवाणं भंते ! सेयंविया णयरी, समोसरह णं भंते! तुम्भे सेयं वियनयरिं) हे भदन्त! श्वेतांविका नगरी प्रासादीया है-हे भदन्त ! श्वेतांधिका नगरी दर्शनीया है, हे भदन्त ! श्वेतांविका नगरी अभिरूप है, हे भदन्त ! श्वेतांविका नगरी प्रतिरूपा है ... अतः, हे भदन्त ! आप उस श्वेतांविका नगरी में पधारें। - यावत् ते ma sat थयो भने सो थन यावत् तणे भा प्रभारी ४ -(एवं खलु 'अहं भाते ! जियसत्तुणा पएसिस्स रन्नो इम महत्थं जाव उवणेहि त्ति कह विसन्जिए तगच्छामिण अह भते ! सेयवियनयरिं) लत ! भने शत्रु રાજાએ પ્રદેશી રાજાની પાધે આમ કહીને જવા આજ્ઞા કરી છે કે હે ચિત્ર તમે આ મહાપ્રયજન સાધક યાવત્ પ્રાભૂતને પ્રદેશ રાજા પાસે લઈ જા” તે હે ભત sadifast नगरी त२३ न हो छु. (पासाईयाणे भते! सेयंविया नयरी एवं दरिसणिज्जा ण भते ! सेयं विया नयरी, अभिरुवाण भंते ! सेयाविया नगरी, पडिरूवाण. भाते ! सेय विया णयरी, समोसंरहण भते ! तुम्भ मेयाविय नगरि) हे महत! sarilrst नगरी अनिरुपा छ, मत ! श्वताબિકા નગરી પ્રતિરૂપ છે. માટે હે ભદંત ! તમે શ્વેતાંબિકા નગરીમાં પધારે Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सू. ११४ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवण नम् बोध्य इति, एतादृश सज्जयति कल्पयति, सन्जयित्वा चित्र सारथिं शब्द. यति, शब्दयित्वा एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत उक्तवान्-त्व खलु हे चित्र ! श्वेतविकां नगरी गच्छ, प्रदेशिनो राज्ञः समीपे इदं महार्थ यावत्. पाभृतम् उपनयमापय, मममत्कर्तृक पादग्रहण प्रणाम यथा भणित यथा क्तम्-अवितथम् यथार्थम् असदिग्धम् सुस्पष्टं वचन च विज्ञापय=निवेदय, इतिः कृत्वा इत्युत्त वा विसर्जितः । ततः खलु स चित्रः सारथिः जितशत्रुणा राज्ञा विसर्जित: प्रदेशिराजसमीपे गन्तुम् आज्ञप्तः सन्' महार्थं यावत्-महार्थत्वादिविशेषणविशिष्ट माभूत गृह्णाति जितशत्रो राज्ञः अन्तिकात-समीपात् प्रतिनिष्काति, प्रतिनिष्क्रम्य श्रावस्त्या नगर्या मध्यमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्र व राजमार्गमंचगाढः राजमार्गस्थितआ वास: मासादः तत्र व उपागच्छति, तत् महार्थ यावत् महर्थित्वादिविशेषणविशिष्ट प्राभूत' स्थापयति, स्थापयित्वा स्नातो यावच्छरीर:-'यावच्छरीर'-पदेन कृतवलिकर्मा कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्तः अल्पमहा_भरणालङ्कृतशरीर' इति संगृह्यते, अर्थत्वेषां पूर्ववद् बोध्या, तथा-सकोरण्टमाल्यदाम्ना छत्रेण ध्रियमाणेन युक्तः महा. भटचटकरहन्दपरिक्षिप्तो महापुरुषवागुरापरिक्षिप्तश्च सन् राजमार्गमवगाढात आवासात् निगच्छति । 'सकोरण्ट'-इत्यादि-पदानामर्थः पूर्ववद् बोध्यः। ततः श्रावस्त्या नगर्या मध्यमध्येन निगछति, निर्गत्य यत्रैव कोष्ठक' च त्य' . टीकार्थ--इस सूत्र का मूलार्थ के हो अनुरूप है,-नवर -महत्थं जाव पाहुड' में जो यावत् पद आया है उससे 'महग्घ', महाह, विपुलं, राजाह' इन पदों का संग्रह हुआ है। इन पदों का अर्थ यथास्थान लिंखा जा चुका है--अतः वैसा ही समझना चाहिये. 'हाए जाव सरीरे में जो यावत् पद आया है--उससे 'कृतबलिकर्मा, कृतकौतुकमगलप्रायश्चित्तः अल्पमहार्घाभरणाल'कृत' इन पूर्वोक्त पदों का संग्रह हुआ है. इनका अर्थ पहिले के जैसा ही जानना चाहिये, हट्ट जाव' में जो यावत् पद आया है उससे 'तुष्टचित्तानन्दितः, प्रीतिमनाः, परमसौ.. थ-सा सूत्रन टी प्रमाणे ४ छ. "नवरं महत्थंजाव पाहुड" भारे यावत् ५६ छ. तेथी 'महन्ध 'महाह, विपुल राजाह" मा पनि सह . थयो छ. म पहाना अर्थ यथास्थाने २५ष्ट ४२वामा भाव्या छ. 'हाए जाव सरीरे' भारे यावत पह. तेथी 'कृतबलिकर्मा, कृतकौतुकमगलपायश्चित्तः अल्पमहा (भरणालंकृत' मा पहोना संबड या छ. २मा पहाना अर्थ पडसानी भी समये नये. 'हट्ट जाव' भारे यावत् ५६ छ तेथी "तुष्टचित्तानन्दितः, . Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ राजप्रश्नीयसूत्रे थत्रौत्र केशीकुमारश्रमणस्तत्र व उपागच्छति, के शिकुमारश्रमणस्य अन्तिके समीपे धर्म शुत्वा सामान्यत आकये. निशम्य-विशेपनो हृद्यवधार्य हृष्टः यावत्-हृष्टतुष्टचित्तानन्दितःप्रीतिमनाः परमसोमनस्यितो हर्प यशविशप दयः अर्थ: स्त्वेषां पूर्व वद् बोध्यः, उत्थया-उत्थानशक्तया गावद-यावत्पदेन-'उत्तिष्ठति,उत्थाय केशिन कुमार श्रपणे विकृत्व भादक्षिगम इनिग करोति,चन्द ने न नस्यति वल्दिता नमस्यित्वा'-इति संग्रात्यम्, एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् उक्तवान्"एवं खलु अहं भदन्त ! जितशत्रुणा राज्ञा' 'प्रदेशिनो राज्ञः समीपे इदं महार्थं यावत-महार्थत्वादिविशेषणविशिष्ट प्राभृतम् उएनय' इति कृत्वाइत्युत्तवा विसर्जितः । तत् तस्मात् कारणात् खल भदन्त ! गच्छाम्यह श्वेतविकां नगरीम् । हे भदन्त ! श्वेतविका नगरी खलु प्रासादीया दर्शक जनानां मनःप्रमोदजनिकाऽस्ति ! एवम्=तथा हे भदन्त ! श्वेतविका नगरी खलु दर्शनीया-पक्षणीयाऽस्ति । हे भदन्त ! श्वेतविका नगरी खलु अभिरूपा-सर्वकालरमणीयाऽस्ति । हे भदन्त ! श्वेतविका नगरी खलु पतिरूपा सर्वोत्तमाऽस्ति । अतो हे भदन्त ! यूयं श्वेत विका नगरी समवसरत आगच्छन-इति ॥ म्० ११४ ॥ मनस्यितो, हर्षवशविसर्प दहृदयः' इन पदों का संग्रह हुआ है. इनका अर्थ पहिले जैसा ही जानना चाहिये, 'उठाए जाव' में आगत गावत्पद से उनि. ष्ठति, उत्थाय केशिन कुमारश्रमण विकृत्व आदक्षिणप्रदक्षिण-करोति, चन्दते, नमस्यति, वन्दित्वा, नमस्यित्वा' इस पाठ का संग्रह हुआ है। दर्शकजनों के मन में प्रमोदजनक है यह. प्रासादीय शब्द का अर्थ है । देखने योग्य है, यह दर्शनोय शब्द का अर्थ है-सर्वकाल रमणीय है वह अभिरूप शब्द का अर्थ है-सर्वोत्तम है यह प्रतिरूप शब्द का अर्थ है।म, ११४। पीतिमनाः, परमसौमनस्थितो, हर्षवश विसर्पदहृदयः' मा पानी सड थ्यो छ. म पनि। म पडेसांना मा समन्व य. 'उठाए जाव' मां रे यावत् ५६ गाव छ तेथी "उत्तिष्ठति, उत्थाय केशिन कुमारश्रमण विकृत्व आदक्षिण प्रदक्षिणं करोति वन्दते नमस्थति, वन्दित्वा, नमस्यित्वा' । पाने। સંગ્રહ થયે છે. દર્શકો માટે જે પ્રદજનક છે-એ પ્રાસાદીય શબ્દનો અર્થ થાય છે. દર્શનીય શબ્દનો અર્થ છે. જેવા યોગ્ય. અભિરૂપ શબ્દનો અર્થ થાય છે જે સર્વ કાળ રમણીય છે તે પ્રતિરૂપ શબ્દનો અર્થ સર્વોત્તમ થાય છે. સૂત્ર ૧૧૪ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सू. ११५ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ९९ - मूलम् - तएणं से केसी कुमारसमणे चितेणं सारहिणा एवं वुत्ते समाणे चित्तस्स सार हिस्स एयम; णो आढाइ णो परिजाणाइ तुसिणीए संचिटइ। तएण से चित्ते सारही केसिकुमारसमणं दो. चंपि तच्चंपि एवं वयासी-एवं खल्ल अहं भंते ! जियसत्तुणा रण्णा पएसिस्ल रपणो इमं महत्थ जाव विसजिए, तं चेव जाव समोसरह णं भंते ! तुब्भे सेयंवियं णयरिं । तएणं से केप्लीकुमारसमणे चित्तेण सारहिणा दोच्चंपिः तच्चंपि. एवं वुत्ते समाणे चित्तं सारहि एव वयासी-चित्ता । से जहानामए वणसंडए सिया किण्हे किण्हो भासे जाव पडिरूवे । से गूणं चित्ता ! से वणसंडे बहूर्ण दुपयचउप्पयमियपसुपक्खीसरीसिवाणं अभिगमणिज्जे ? हता ! अभिगमणिज । तसिं च णं चित्ता ! वणसंडंसि बहवे भिलूगा नाम पावसउणा परिवसाति, जेणं तेसिं बहूणं दुपयचउप्पयमियपसु. पक्खिसरीसिवाणं ठियाणं चेव मंससोणियं आहारेति ! से गूणं चित्तो ! से वणसंडे तेसि णं बहूर्ण दुपय जाव सरीसिवाणं अभिगमणिज्जे ? णो इणट्रे समष्ट्र ! कम्ही ? भंते ! सोवसग्गे । एवामेव चित्ता ! तुझंपि सेयं वियाए णयरीए पएसी नाम राया परिवसइ, अहम्मिए जाव णो सम्म करभरवित्ति पवत्तइ । तं कहंणं अहं. चित्ता ! सेयंवियाए नयरीए समोसरिस्सामि ? ॥सू० ११५॥ छाया-ततःखलु स केशीकुमारश्रमण: चित्रण सारथिना एवमुक्तः सन् चित्रम्य सारथेरेतमर्थ नो आद्रियते नो परिजानाति, तूष्णीकः सन्तिष्ठते। . ततः खलु स चित्रः सारथिः केशिकुमारश्रमण द्वितीयमपि तृतीयमपि Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीय सत्र एवमबादीत्-एवं वलु अहं भदन्त ! जितशत्रुणा राज्ञा प्रदेशिनो राजइंद महार्थ यावद् विसर्जितः, तदेव यावत समवसरत खल भदन्त! यूयं श्वेतविकां नगरीम् । ततः खलु केशीकुमारश्रमणः चित्रण सारथिना द्वितीय 'तएणसे केली कुमारसमणे' इत्यादि। सूत्रार्थ-(तएण) इसके बाद (से केसीकुमारसमणे) उन केशिकुमार श्रमण जब चित्र सारथी ने ऐसा कहा-तव ( चिस्स सारहिस्स) चित्र सारथी का (एयमढ णो अढाइ, णो परिजाणाह, तुसिणीए संचिट्टइ) इस अर्थको आदर नहीं दिया, उसे विचार का विषय नहीं बनाया. किन्तु चुपचाप हो रहे (तएण ले चित्ते सारही केसिकुमारसमण' दोच्च पि तच्चपि एवं वयासी) इसके बाद चित्र सारथीने पुनःदुबारा भी और तिवारा भी उन केशिकुमारश्रमण से ऐसा ही कहा कि (एत्र खलु अई भते ! जियसन्तुणा रणा पसिस्स रणो इन महत्थ जाव विसजिए त चेव जात्र समोसरह णं भते ! तुम्मे सेयविय नयरिं) हे भदन्त ! जितशत्रु राजा के द्वारा मैं ऐसा कहा गया हूं कि हे चित्र ! तुम इस महार्थादि विशेषणों वाले घामृत (भेट) को लेकर प्रदेशीराजा के पास जाओ सो मैं वहां जा रहा हूं-वह श्वेतांविंका नगरी दर्शनीय श्रादि विशेषणों वाली है अतः वहां __ पधारे (तएणसे केसीकुमारसमणे चित्तेण सारहिणा दो चपि तच्च पि एवं 'त एण से केसीकुमारसमणे' इत्यादि। सूत्रार्थ:-(त एण) त्या२ पछी (से केसीकुमारसमणे) ते शिgभार श्रमाने न्यारे थिसारथी थे २ प्रमाणे ४ो त्यारे (चित्तस्स सारहिस्स) साथिना (एयम णो आढाइ, णो पारजाणाई, तुसिणीए सचिट्ठइ) मा अर्थाने આદર આપે નહિ, તેના કથન પર કઈ પણ જાતને વિચાર કર્યો નહિ, તેઓ આ मधु सामणीने भौन २१ २ह्या. (तएण से चिते सारही केसिकुमारसमण दोचपि तचापि एवं वयासी) त्या२ मा चित्र साथिये भी मत भने श्री० मत पY शिमार श्रमणुन मा प्रभारी (एवं खलु अहं भते! जियसत्तुणा रणा पएसिस्स रणो इम महत्थ जाव विसज्जिए त चेत्र जाव समोसरह ण भ'ते! तुम्भे सेयविय नयरिं) 3 महत! तिशत्रु રાજાએ મને આ પ્રમાણે કહ્યું છે કે હે ચિત્ર! તમે આ મહાર્ણાદિ વિશેષણોવાળી ભેટને લઈને પ્રદેશ રાજાની પાસે જાવે. જેથી હું ત્યાં જઈ રહ્યો છું. તે તાંબિકો नगरी शनीय वगैरे विशेषवाणी छे तेथी तमे पY त्या वयात. (त एण से केसिकुमारसमणे चित्तण सारहिणा दोच्च पि तच्चपि एवं वुत्त समाणे - Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उधिनी टीका सू. ११५ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजोयप्रदेशिराजवण'नम् १०१ मपि तृतीयमपि एवमुक्तः सन् चित्र सारथिम् एवमवादीत्-चित्र ! स यथानामको वनषण्डः स्यात् कृष्ण कृष्णावभासो यावत्पतिरूपः । अथ तून चित्र! स वनषण्डो बहूनां द्विपदचतुष्पदमृगपशुपक्षिसरीसृपाणाम् अभिगमनीयः ? हन्त ! अभिगमनीयः । तस्मिंश्च ग्वलु चित्र ! वनपण्डे बहवो मिलका नाम पापशाकुनिकाः परिवसन्ति । ये खलु बहूनां द्विपदचतुष्पदमृगपशुपक्षिसरी सृपाणां स्थितानामेच मांसशोणितम् आहारयन्ति । अथ नून चित्र ! स वुत्ते समाणे चितसारहिं एवं वयासी) तव इस प्रकार दुबारा तिवारा भी चित्र सारथी के द्वारा विनन्ति किये जानेपर केशिकुमार श्रमणने उन चित्र सारथी से ऐसा कहा (चित्ता! से जहानामए वंणसडए सिया किण्हे किण्होभासे जाव पडिरूवे) हे चित्र ! जैसे कोई एक बनपड हो और वह कृष्ण-कृष्ण वर्णवाला हो, तथा कृष्ण जैसा दिखता हो (से जूण चित्ता से वणस डे बहूण दुपयचउप्पयमियपसुपवखीसरीसिवाण' अभिगमणिज्जे) तो हे चिो! कहो वह अनेक द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु पक्षी और सरीसृप सप इन सबके गमन के योग । होता है न ? (हता अभिगमणिज्जे) हां भदन्त ! वह इनके गमन के योग्य होता है. (तसि च ण' चित्ता वणससि बहवे भिलूगा पावसउणा परिवसति) यदि उस वनस्वड में हे चित्र ! अनेक पापिष्ठ भील लोग जो कि पारधी होते हैं रहते हैं (जे ण तेसि बहूण दुपयचउप्पयमियप. सुपक्खिसरीसिवाण ठियाण चेव मंससोणिय आहारंति) जो कि वहां रहे हुए उन बहुत से द्विपद . चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी और सरीसृपों के मांस शोणित चित्त' सारहिं एवं' वयासी) त्यारे ते प्रमाणे 00 quत मने त्री मत हेली चित्रसाथिनी पाct सलगीन तेने २मा प्रमाणे पु (चित्ता ! से जहानामए चणसंडए सिया कण्हे किण्होभासे जाव पडिरूवे) यत्र ! म 15 पन५७ उाय मने ते पशुवर्णपाणी डाय, तेम ४५ो सागत राय (से जूण चित्ता से चणसडे बहण' 'दुपयचउप्पयमियपसुपवखोसरीसिवाण अभिगमणिज्जे) तर यिंत्र ! ४ ते वन घji द्विपो, यतुपहो, भृग, पशुओं પક્ષીઓ અને સરીસૃપ આ બધાને માટે ગમન કરવા એગ્ય હોય કે નહિ ? अभिगमणिज्जे) हालत ! ते तेमना भाटे गमन योञ्य गाय छ. (तसि च ण चित्ता वणसंडसि बहवे भिलूगा पावसउणा परिवसंति) मने ते वनमा & [यत्र ! ने ! पापिष्ट [AN लीयो २४ता डोय (जे ण तेसिं वहणं दुपय चउप्पयमियपसुपक्खिसरी सिवाण' ठियाण' चेव मर सणियं आहारैति) અને તેઓ ત્યાં રહેનારા તે ઘણું દ્વિપદે ચતુષ્પદે, મૃગ પશુઓ અને સરીસૃપના Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ राजप्रश्नीयसत्रे बनपण्डस्तेषां चलु बहूनां द्विपद यात्रत-सरोमपाणाप अभिगमनीयः ? नो अयमर्थः समर्थः । कस्मात् ? भदन्त ! सोप मर्गः: ? एवमेव चित्र ! युष्माकमपि श्वेतविकायां नगर्या प्रदेशी नाम राजा परिवमति, अधार्मिको यावत्, नो सम्यककर भरत्तिं प्रवत यति । तत् कथं खलु अह नित्र ! श्वेतविकायां नगर्या ममबसारिष्यामि ॥० ११५॥ टीका--'तएणसे' इत्यादि ततः ग्बल म केशीकुमारश्रमणः चित्रेण लारधिना एवम् उक्त. प्रकारेण उत्तः सन चित्रस्य सारथे: एतमर्थ ='यय वेतविकायां नगर्या का आहार करते हों, क्या ऐसी स्थिति में (से शृग चित्ता! से वणसंडे तेसिं बहा दुपय जाब सरीसिवाण अभिगमणिज्जे? हे चिचे! वह वनपण्ड उन अनेक द्विपद यावत् : रीसृपों के लिये अभिगमनीय हो सकता है ? (णो इणडे सम) हे भदन्त ! ऐसी स्थिति में वह उनके लिये अभि गमनीय नहीं हो सकता है। (कम्हा) हे चित्र ! वह उनके लिये अभिग मनीय-प्रवेश के योग्य-क्यों नहीं हो सकता है ? (पोसग्गे) क्यों कि हे भदन्त ! वह वनपण्ड विघ्नसहित है। (एबामेव चित्ता ! तुज्झापि सेयं वियाए णयरीये पएली नाम राया परिवसह, अम्मिए जाच णो सम्म कभरवित्ति पवाइ--त कह चित्ता सेयावियाए नयरीए समोसरिस्सामि) इसी तरह से हे चित्र ! तुम्हारे लिये श्वेतांत्रिका नगरी में प्रदेशी राजा रहता है वह अधार्मिक है यावत् प्रजाजनों से कर-टेक्सले कर भी उनका अच्छी तरह से पालन पोपण नहीं करता है। तो हे चित्र! उस श्वेतांविका नगरी में हम लोग कैसे आवें भां मने तिनो मा२ ४२ जाय तो शु. मेवी परिस्थितिमा (सें पूण चित्ता ! से वणनटे तेसिं वहण दपय जात्र मरिलिवाणं अभिगमणिज्जे ?) હું ચિત્ર ! તે વનખંડ તે ઘણે દ્વિપદે યાવત, સરિસૃપ માટે અભિગમનાય અર્થાત वियर! ४२वा या1-29ी शाय? (णो हण सम) महत ! मेवी थातમાં તે તેમના માટે અભિગમનીય થઈ શકે તેમ નથી. ( 1) હ ચિત્ર ! તે તેમના भाटे २ निगमनीय-विय ४२वा योग्य-भ नथी ? (सोचसम्गे) भउ मत ! ते वन विन सहित छ. (एबामेव चित्ता ! तुज्झपि सेय वियाए णयरीए पएसीनाम राया परिचसइ, अहम्मिए जाव णो सम्म करभरवित्ति पवत्ता त कह णं अह. चित्ता सेय वियाए नयरीए समोसरिस्सामि) मा प्रभार જ ચિત્ર ! તમારે માટે તાંબિકા નગરીમાં પ્રદેશ રાજા રહે છે. તે અધાર્મિક છે યાવત પ્રજા પાસેથી કર-ટેકસ લઈને પણ તેમનું પાલન-રક્ષણ સારી રીતે કરતો નથી. તો એવી સ્થિતિમાં હું તાંબિકા નગરીમાં કેવી રીતે જઈ શકું છું. ? Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सु. ११५ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशीराजवर्णनम् समवसरत'-इत्थं रूपम् अर्थम् नो आद्रियते-नो आदरविषयत्वेन हृदिकरोति. अतएव--नो परिजानाति विचारविपयत्वेन एतमर्थ न स्वीकरोति, तत एव तृप्णीका अवलम्बितमौनभावः सन् सन्तिष्ठते। ततः "खलु ल चित्र: सारथिः केशकुमारश्रमण द्वितीयमपि तृतीयमपि द्वित्रिवारम् एवम् अवादीत् -एवं खलु अह भदन्त.! जितशाणा राज्ञा-इत्यादि-समवसरत खल भदन्त ! यूयं श्वेतविकों नगरीम् इत्यन्तम् । वाक्य पूर्व सूत्रे गतम्-म्यार्थरतत एव योध्यः-इति । ततः स्लु के शीकुमारश्रमणः चित्रेण सारथिना द्वितीय मपि तृतीयमपि-विकृत्वोऽपि त्रिकृत्वोऽपि एवमुक्तः सन् चित्रं सारथिम्एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत उक्तवान-स यथानामको वनपण्डः स्यात, कृष्ण-कृष्णवणः कृष्णावभास:-कृष्ण इच अवभासते न तु वस्तुतः कृष्णः एवं। यावत-यावत्पदेन-नीलो नीलावभासे हरितो हरितावभासः शीत:: शीतोवभासः स्निग्धः स्निग्धावभासः तीवः तीव्रावभासः कृष्णः कृष्णच्छायो नीलो नीलच्छायो हरितो हरितच्छायः शीतःशीतच्छायः स्निग्धःस्निग्धच्छायः तीवः नीच्छायः घन कटित करच्छायो र यो महामेबनिकुरम्बभूतः प्रासादी-यो. दर्शनीयः अभिरूपः' इति संग्राह्यम् । तया-प्रतिरूपः। अर्थ स्त्वेषामौ पानिक-. मुत्रस्यास्मत्कृतायां पोयूपवर्पिणीटीकायामवलोकनीयः। अथ नून चित्र! वनपण्डो टीकार्थ इसका इस मूलार्थ के जैसा ही है-नवर - किण्होभासे जाव पडिरूवे)में आया हुआ यावत पद से यहां 'नीलो, नीलावभासो, हरितो, हरितावभासः, शीतः, शीतावभासः स्निग्ध स्निग्धवभासः, तीवः, तीत्रावभासः, कृष्णः, कृष्णच्छायो, नीलो, नीलच्छायो, हरितो, हरितच्छाय:, शीतः, शीतच्छायः, स्निग्धः स्निग्धच्छायः, तीव:, तीव्रच्छायः, घन. कटितकटच्छायो, रम्यो, महामेघनिकुरम्बभूतः प्रासादीयो, दर्शनीयः अभिरूप:' यह पाठ संगृहीत हुआ है। इन पदों का अर्थ औपपातिकमूत्र की पोयूपवर्षिणी टीका में हमने स्पष्ट किया है अतः वहीं से जान लेना ___टार्थ:-पान भूदार्थ प्रभा । छे. 'नवरं' 'किण्होभासे जाव पडिरूवे' भारे यावत् प६ मावे छे. तेथी मी "नीलो, नीलोवभासो, हरितो, हरितावभासः, शीतः शीतावभासः, स्निग्धः, स्निग्धावभासः, तीव्रः, तीव्रात्रभासः, कृष्णः, कृष्णच्छायो, नीलो, नीलच्छायो, हरितो, हरितच्छायः, शीतः, शीतच्छाय: रिनग्धः स्निग्धं छायः, तीवः तीव्रछायः, धनवटिरवट छायो, सम्यो, महामेधनि कुरम्बभूतः. प्रासादीयो, 'दर्शनीयः, अभिरूप: पाइने साई थयो छ. આ પાઠને અર્થ અમે “પપાતિક સૂત્ર'ની પીયૂષવર્ષિણી ટીકામાં સ્પ કર્યો છે. Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६.०४ राजप्रश्रीयसूत्रे बहूनांदगाव अभिगमनीयः गन्तु योग्यो भवेत ?, इत्थं केशिकुमारभ्रमणस्य वचनं श्रुत्वा चित्र: प्राह-हन्त ! अभिगमनीयः = गन्तु योग्यां भवेत्स वनण्ड इति पुनः के शिकुमारभ्रमणः पृच्छति - हे चित्र ! तस्मिन पूर्वोक्त च खलु वनडे कालजातीया: 'नाम' उनि संभावनार्या पापसाॠनिका= पापिष्ठाः व्यायाः परिवसन्ति ये खलु तेषां बहूनां द्विषचतुष्पद पक्षस्थितानामेत्र मांगगोणितं =मानि शोणितानि च महारयन्ति भुञ्जते । अथ नूनं चित्र ! स बनवण्ड: खन्नां द्विपद्याव सरीसृपाणाम् सर्पाणाम् अभिगमनीयो भवेन् ? चित्र:माह-अयमयी = द्विपदादीन तनवेशपोऽर्थ : नो समर्थन योग्यः, स न प न यांग्य इति भावः केशी पृच्छति कस्मात् कस्मात् कारणात् स वनपण्डः प्रवेष्टुं न योग्यः ? चित्रः माह हे भदन्त ! पण्डः विघ्नमदितः। ततः केशीमाहहे चित्र ! यथा स वनपण्डस्तेषां द्विपदादीनां प्रवेष्टुं न योग्यः, अनेन प्रकारेण श्वेतविशा नगर्यपि मवेष्टुन योग्य तत्र श्वेतत्रिकायां नगर्या युन्मार्क देशो नाम राना परिवमति, अधार्मिको यात नो सम्प करभरवृत्ति प्रवर्त्तयति । यावत्पदेन अधर्मिष्ठः अनुगः' इत्यादि पदानि संग्राध्याणि तानि च - एकशततममुत्रे विलोकनीयानि । अर्थोऽपि नयेव वि कनीयः। तत् कथं खलु अहं चित्र ! श्वेतविकायां नगर्या समवसरिच्यामि= आगमिष्यामि ? ॥ मृ० ११५ ॥ nas= मूलम् -- तणं से चित्ते सारही केसि कुगारसमणं एवं वयासी किं णं भरते ! तुभं पएसिणा रन्ना कायच्वं ? अस्थि णं भते ! सेय वियाए नगरीए अन्ने बहवे ईसरतलवर जाव सत्थवाहप्पभिइयो जे Dj देवाणुप्पियं वंदिस्संति जाव पज्जुवासिस्सति विउलं असणं पाणं चाहिये, 'अहम्मिए जाव' में भाया हुआ यावत् पद से 'अधर्मिष्ठः अर्मानुगः ' इत्यादि पदों का संग्रह किया गया है। इन पदोंका अर्थ १०१ सूत्र में लिखा गया हैं ॥ मु० ११५ ॥ मेथी निज्ञासुयोगे त्यांथी अर्थ लगी होवो, लेडो, “अहम्मिए जाव" भां यावत् यह छे तेथी “उधार्मिष्ठः, अधर्मानुगः' वगेरे यहोना संग्रह थयो छे. આ પાના અર્થ ૧૦૧માં સૂત્રમાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યે છે. ૫૧૧૫ા Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका' .सू. ११६ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् . . .. १०५ खाइमं साइम पडिलाभिलति, पाडिहारिएण पीठलगलेज्जासंफ. थारएणं उवनिमंतिस्तंति। तएण-से केसीकुमारसमणे चित्तं सारहिं एवं वयासी अविआई चिन्ता ! जाणिस्लामो ॥ सू० ११६॥ छाया--ततः खलु स चित्रः सारथिः शिन कुमारश्रमणमेवमवा. - दीव-किं खलु भदन्त ! 'युमाकं प्रदेशिना राज्ञा कर्तव्यम् ? सन्ति खलु भदन्त ! श्वेतविकायां नायाम् अन्ये बहव ईश्वरतलबर-यावत्सार्थवाहप्रभृतयः, ये खलु देवानुप्रिय' बन्दिष्यन्ति नमस्यिध्यन्ति यावत् पर्युपासिष्य न्ते, विपुलम् अशन पान खाध स्वाय प्रतिलम्भयिष्यन्ति, प्रतिहारिकेण पीठ. म 'तरण' से चित्त- सारही', इत्यादि । मूत्रार्थ-(तएण) इसके बाद (से चित्रो सारही केसि कुमारसमणं एवं क्यासी) उस चित्र सारभिने केशिकुमारश्रमण से ऐसा कहा--( किण भते ! तुभ पएसिणां रन्ना कागव) है भदन्त ! आपको प्रदेशी राजा: से क्या तात्पर्य है (सेय विद्याए नयरीए अन्ने बहवे ईमारतलवर जाव सत्यवाहपभिईओ जे ण देवाणुप्पिय बुदिस्मति गम सिस्तति जान पज्जुवामिस्सति, "विउल असणं पणं खाइम साइम पडिलाभिसंति) श्वेतांधिका नगरी में और भी बहुत सी ईश्वर तलघर यावत् सार्थवाह आदि हैं जो आप देवानुमिय को वन्दना करेंगे, नमस्कार करेंगे यावत् पर्युपासना करेंगे एव विपुल, अशन से पान से खादिम से और स्वादिम से आप को प्रतिलाभित करेंगे। (पडिहारेण पीढ़फलग से जासंथारएणं उवनिमतिस्तंनि) एवं समर्पणीय - 'तए ण से चित्त सारही' इत्यादि.. सूत्रार्थ -(तए ण) त्या२ पछी (से चित्त सारही केसि कुमारसमण एवं वयासी) ते चित्र साथिये शिभा२ अभने या अंभा यु (किं ण भते । "तुम्भ पएसिणी रन्ना काय) ऐ मत ! श्रीन प्रदेश २ : साथ शी निश्मत छ ? (सेय वियाए नयरीएं अन्ने वहवे ईसरतलबरजाव सत्थवा प्पभिईओ जे ण देवाणुप्पिय बादिसति णम सिस्मोति जाब पज्जुवासिं'स्सति विउल असण पाण खाइम' साइम पडिलाभिसति) dirl મેગરીમાં બીજા ઘણા ઈશ્વર, તલવર ચાવતું સાર્થવાહ વગેરે છે કે જે આપ દેવાનુપ્રિયંને વંદન કરશે નમસ્કાર કરશે યાવતું પત્યું પાસના કરશે. અને વિપુલ અશનથી, भनिथी, माहीमथी भने स्वामियी मापश्रीन प्रतिक्षामित ४२शे. (डिहारेणं पीढ़. “फलासेक्जासंथारएणं उचनिमंतिस्तंति) भने समय पी ५८४ शय्या Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामप्रमीयमुरे फलकशय्यासस्तारकेण उपनिमन्त्रयिष्यन्ति । ततः खलु स केशीकुमारभ्रमणः वित्र सारथिमेवमवादीत-अपि च चित्र । ज्ञास्यामः ॥ सू० ११६ ॥ टीका-'तएणं से' इत्यादि-- टीका-- ततः खलु स चित्रः सारधिः केशिन' कुमारश्रमणम् एवम् वक्ष्यमाणपकारेण अवादी-उक्तवान्-कि खलु भदन्त । युष्माकं प्रदेशिना राणा कर्तव्यम्=प्रदेशिनो राज्ञः सकाशाद् भवतां नास्ति किन्चित् प्रयोजनमित्यर्थः। हे भदन्त । श्वेतविकार्या नगर्या खलु भन्ये यहवः ईश्वरतलबर यावत्मार्थवाहप्रभृतयः सन्ति । अत्र 'यावत्'-पदेन- 'गाडम्बिककौटुम्पिके पतिसेनापति-' इति संग्राह्यम् । ये ईश्वरादयः खलु देवाजुप्रिय बन्दिष्यन्तेस्तोष्यन्ति नमष्यन्ति-प्रणता भविष्यन्ति, यावत् थावत्पन--सस्कारयि. ज्यन्ति सम्मानयिष्यन्ति, कल्याण मङ्गलं दैवत चैत्यम्-इति संग्राहयम् । त --सत्कारयिष्यन्ति अभिमुखगमनादिना, सम्मानचित्यन्ति--वसतिम्दानादिना, तथा-'कल्याण कल्याणस्वरूपा, मालमङ्गलस्वरूपम् दैवतम्पीठफलकशय्यासंस्तारक ग्रहण करने के लिये आपसे मार्थना करेंगे । (तएवं से केसीकुमारसमणे बिच सारहि एवं व्यासी) तय केशीकुमारश्रमण ने चित्र सारथीसे इस प्रकार कहा (अवि आइपिता जाणि सामो) हे चित्र। विचार करेंगे। टीकार्य स्पष्ट है. नवर 'कलवर नाव सत्यवाह' में आगत यावत् पदसे यहां 'माडपिक-कौटुम्बि केभ्यश्रेष्ठिसेनापति' पाठ का ग्रहण हुआ है। ‘णम सिस्संति जाव पज्जुवासंति' में आगत यावत् पद से 'सत्कारयिष्यन्ति. सम्मानयिष्यन्ति, कल्याण मगलं देवत' दैत्यम्' इस पाठ का संग्रह हुआ है। अभिमुखगमनादि द्वारा जो सम्मान प्रदर्शित किया जाता है उसका नाम सस्कार है, वसति आदि के देने से जो भक्ति प्रदर्शित की जाती है उसका सेना२४ अg ४२वा मापने विनती ४२). ( एण' से केसीकुमारसमूणे विचं सारहि एवं नयासी) त्यारे शिशुभा२ प्रभो यिन साथिने मा प्रभा२.६ । (अविआई चित्ता जाणिस्सामो) शिर ! पिया२ री ! ' टार्थ:-पाट छ. नवरं “तलपर जाव सत्यवाह" भने यावत् ॥ भाव छ, तेथी मही 'माङविककोम्बिथेभ्यश्रेठिसेनापति' पाइने थयो छ. 'णमंसिस्संति जाव पज्जुवासिस्सति' भां मावा याक्त पदयी 'सत्कार यिष्यन्ति, सम्मानयि यन्ति, कल्याण मगल दैवतं चैत्यम्" सा पाना સંગ્રહ થયો છે. અભિમુખ ગમન-વગેરે વડે જે સન્માન આપવામાં આવે છે તેનું નામ સરકાર છે. નિવાસ માટે સ્થાન વગેરે આપીને જે ભક્તિ પ્રદર્શિત કરવામાં આવે Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . सुधिनी टीका सू. ५१६ मुर्याभदेवस्य पूर्व भन्नजीवप्रदेशिराजवर्णनम् .. २०७ धर्म देवस्वरूपम्, चैत्य =चित्ति विशिष्टज्ञान', तया युक्त सर्वथा विशिष्टज्ञानवन्त। मित्यर्थः, इति बुद्धया पर्युपासियन्ते सेवियन्ते । लधा-विपुल प्रचुरम् अशन पान खाघ खाद्य प्रतिलम्भषिध्यन्ति-पदास्यन्ति । तथा-प्रालिहारिकण-पुनः - समर्पणीयेन पीठफलकशय्यासंस्तारण-पीठफलकादयः प्राग्व्याख्याताः, तेषी । समाहारस्तेन उपनिमन्त्रयिष्यन्ति-प्रतिहारिक पीठफलकशव्यासस्तारकच । प्रहीतु भवन्त प्रार्थयिष्यन्ति-इति। ततः खलु स केशीकुमारश्रमणः चित्र सार- . । थिम् एवम् अनेन प्रकारेण अवादी-उक्तवान्-'अविभाई'-अपि च चित्र। हास्यामः-विचारयिष्यामः इति ॥७० ११६ ।। .. मूलम् --तएणं से चित्ते सारही केसिकुमारसमणं वंदइ नमसइ, केलिस्त कुमारसमणस्त अंतियाओ कोट्रयाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, जेणेव सावत्थी णयरी जेणेव रायमग्गमोगाढे आवालें तेणेव उवागच्छई, कोडंबियपुरिसे सहावेइ, सदावित्ता एवं क्याली. खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया घाउग्धंट आसरह जुत्तामेव उवटूवेह, जहा सेयंवियाए णयरीए णिग्गच्छइ तहेव जाव वसमाणे कुणालांजणवयस्स: मज्झः मज्झेणं जेणेव केइयअद्धे जेणेक सेयवियां णयरी जेणेव मियवणे उजाणे तेणेव उवागच्छइ, उजाणपालए सदाबेइ, सदावित्ता एवं क्यासी- जया णं देवाणुप्पिया! पासावञ्चिज्जे केसी नाम कुमारसमणे पुढवा. णुपुचि चरमाणे गामाणुगाम दूइजमाणे इहमागच्छिज्जा तया णं तुब्भे देवाणुप्पियो केसिकुमारसमण वंदिजाह नमंसिजाह वंदित्ता नम सित्ता अहापडि रूवं उग्गह अणुजाणेजाह, पडिहारिएणं पीढ. फलग जाव उवनिम तिजाह, एयमोणत्तिय खिप्पामेव पञ्चपिणे जाह। नाम सन्मान है. श्वेतांबिका नगरी के लोग आप कल्याणस्वरूप हैं, मगस्वरूप हैं धर्मः देवस्वरूप हैं तथा चैत्य विशिष्ट ज्ञानवान ऐसा मानकर आपकी सेवा करेंगे।स.११६॥ છે તેનું નામ સન્માન છે. શ્વેતાંબિકા નગરીના લેકે આપશ્રી ને કલ્યાણ સ્વરૂપ મંગળવરૂપ તેમજ ત્યવિશિષ્ટ જ્ઞાનવાનું માનીને આપની સેવા કરશે. શસ. ૧૧૬ .... . . Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ राजप्रश्नीयसूत्र तएणं ते उज्जाणपालगा चित्रोणं साहिणा एवं वुत्ता समाणा हट, तुट्र जार हिययो कश्यलपरिणहिय जाब एवं वयासी-तहत्ति अणाए विणएणं घयणं पडिसुणंति ॥ सू० ११७॥ .. छाया-ततः खल्लु स चित्रः सारथिः केशिकुमारश्रमण' वन्दते नमः स्थति केशिनः कुमारश्रमणम्य अन्तिका कोष्टकात चैत्यात प्रतिनिष्कामति,.. थत्र च श्रावस्ती नगरी यत्रैव राजमार्गमवगाहः आवालस्तत्र व उपागच्छति कौटुम्चिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एक्सवादीत्-क्षिपमेव भो देवानुः भियाः ! चातुर्घण्टम् अश्वस्थ युक्तमेव उपस्थापयन, यंथा श्वेतविकाया. (तएण) इसके बाद (से चित्तं सारही) उस चित्र सारथीने (केसि: कुमारसमण बदइ नमसइ) केशीकुमार श्रमण-को बन्दना की और नमस्कार किया (केसिरस कुमारसमणरस अतियाओ कोठ्याओ चेइयायो पडिनिकखमई), पश्चातू में वह केशीकुमार श्रमण के पास से और उस कोष्ठक चैत्य से चला : भाया. (जेणेच लावत्थी णयरी जेणेच रायमग्गमोगाढ आवासे तेणेव उवा- " गच्छइ) आकर बह जहाँ श्रावस्ती जगी थीं एवं उसमें जिस तरफ सना मार्ग पर स्थित आवास था वहां पर आया. (कोड बियपुरिसे सदावेह) वहां आकर के उनने कौटुबिक आज्ञाकारी पुरुषों को बुलाया' (संदीविता एवं क्यासी) बुलाकर उनसे ऐसा. कहा-(विप्पामेव मी देवाणुप्पिया! चाउग्घट भासरह जुनामेव उववेह)"हे - देवालुनियों ! तुम लोग शीघ्र चार घंटो वाले अश्वरथ को तैयार करके ले आओं, (जहा लेयवियाए णयरीए निग्गच्छा. त एण से चित्ते ! सारही' इत्यादि। सूत्रार्थ -(त एण) त्या२, ५७ (से चिंत्ते सारही) त , यिसायीमे : (कैसिकुमारसमण बंदइ नमसह) श्रीभार अभने वन तेभ नम२४२ ४या. : (केसिस्स कुमारमणस्स अंतियाओ-कोहयाओ चेड्याओ पडिनिक्खमइ) यार પછી, તે કેશીકુમાર શ્રમણ પાસેથી અને તે કેપ્ટક ચીત્યમાંથી બહાર આવી ગયો. ' (जेणेव सावत्थी णयरी जेणेव ,रायमसालोमाढे आवारते तेणेव उवागज्छई) આવીને તે જ્યાં શ્રાવતી નગરી હતી અને તેમાં પણ જ્યાં રાજમાર્ગો પર સ્થિત ; निवासस्थान उतु त्या २५व्यो. (कोडांविधारिसे सहानेड) त्यां.. पiचीन--- होम ५३षाने माज्ञारी पु३वाने माराव्या (सदा वित्ता एवं वयासी) मासा - वान तमने प्रमाणे (विप्पामेव भो- देवाणुप्पिया! चाउण्ट आसरह, जुत्तामेव उहवेह) हेवानुप्रियो ! तभी सत्वरे या२ घटासाथी युक्त Mandirtamansar Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ह ... सुबोधिनी टीका झू. ११७ सूर्याशदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशीराजवर्णनम् नगर्या निर्गच्छति तथैव याबद् बसन् कुणालाजनपदस्य मध्यमध्येन या व केकया यत्र व श्वेतविका नगरी यत्रैव मृगवनम् उद्यान तौव उपागगच्छति, उद्यानपालकान्. शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादील-यदा खलु देवा. नुप्रियाः । पापित्यीयः केशीनामकुमार श्रमणे: पूर्वानुया चरन् ग्रामानुग्राम'द्रवन् इहोगच्छेत्, तदा खल्लु यूयं देवानुप्रियाः ! केशिकुमारश्रमण तहेव जाव वसमाणे कुणाला जणवयस्त मज्झमझेण जेणेव के इयअद्ध जेणेव से याविया गयरी जेणेव मियवणे उजाणे तेणेव उवागच्छई) यहां से आगे चित्र सारथी जिस प्रकार श्वेताबिका नगरी ले निकल कर, कुणाला जनपद (देश) में स्थित श्रावस्ती नगरी आया, उसी प्रकार वह श्रावस्तो नगरी. से भी निकलकर केकयाई जनपद में स्थित श्वेताविका नगरी में पहुंचा. इसलिये यहां पर पूर्व की तरह से ही समग्र पाठ संगृहीत करना चाहिये. इसी बात को सूचित करने के लिये 'जहा सेय विधाए गयरीए णिग्गच्छई। इत्यादि यह पाठ कहा गया है. अर्थात् वह चित्रसारथि जिस प्रकार से .: श्वेतांयिका नगरी से निकलता है, उसी प्रकार से यावत् मार्ग में पडाव डालता. हुभा वह कुणाला जनपद के मध्यमध्य से होता हुआ जहां केकया था और जहां श्वेतांयिका नगरी थी और उस में भी जहां मृगवन नाम का ..... उद्यान था वहां आया (उजाणपालए सहावेइ) वहाँ आकर के उसने उद्या नपालो को बुलाया.. (सदावित्ता एवं वयानी) वहां आकर के. उसने ऐसा ...कहा-(जया ण देवाणुप्पिया! पासावचिज्जे के सी नाम कुमारसमणे पुब्वा . १२५ यार ४शन सin (जहा सेय वियाए णरीए. निग्गच्छइः तहेव 'जाव पसमाणे कुणाला जणवयस्स मज्झमज्झण: जेणेव केइंय अद्ध जेणेव सेयंविया णयरी जेणेव मियवणे उज्जाणे, तेणत्र उवागच्छइ) महाथी ते ચિત્રસારથી પહેલાં જેમ તે તાંબિકાનગરીથી નીકળીને કુણાલા, જનપદમાં સ્થિત શ્રાવસ્તી નગરીમાં આવ્યું હતું, તેમજ તે શ્રાવસ્તી નગરીથી બહાર નીકળીને કેકયા. જનપદમાં સ્થિત શ્વેતાંબિકા નગરીમાં પહોંચે અહીં તે પ્રમાણે જ વર્ણન સમજી सेवु नये. से वातन. मनावका भाटे १ 'जही सेयवियाए णयरीए णिगच्छ' વગેરે પાઠને ઉલ્લેખ કરવામાં આવ્યું છે. એટલે કે તે ચિત્ર સારથિ જેમ તા. - કિ નગરીથી નીકળે છે, તે પ્રમાણે જ યાવતું મુકામ કરતે તે કુણલા જનપદના એકડમ મધ્યમાં પસાર થઈને જયાં કેકર્યાદ્ધમાં થતાંબિકા નગરી હતી અને તેમાં . .४यां भृगवन नामे उधान तु त्या माव्या. (उजाणपालए सहावेइ), त्या मावाने तो धान पास मसान्यो. (सावित्ता एवं बयासी). मारावीन. मा. . प्रभाए यु. (जया ण देवाणुपिया! पासावञ्चिज्जे केसी नाम कुमारसमणे --20.. .. . Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܘ ܘ ܪ राजश्री वन्दध्व' नमस्यत, वन्दित्त्वा नमस्थित्वा यथाप्रतिरूपम् अवग्रहम् अनुज्ञापयत, मातिहारिकेण पीठ - फलक - यावत् उपनिमन्त्रयत, एतामज्ञिप्तिक क्षिप्रमेव प्रत्यर्पयत - ! ततः खलु ते उद्यानपालकाः चित्रेण सारथिना एवमुकाः सन्तो हृष्टतुष्ट यावदियाः करतलपरिगृहीत यावत् एवमवादीत्तथेति, आज्ञाया विनयेन वचन प्रतिशृण्वन्ति ॥ सू० ११७ ॥ पुत्रि चरमाणे, गामाशुगाम दुइजमाणे इहमापच्छिला. तयाणं तुग्भे देवा शुप्पिया! के सिकुमारसमण व दिज्जह) हे देवानुप्रियों । जब पार्श्वनाथ भगवान परपरा में विचरने वाले केशी नामके कुमारश्रमण पूर्व साधु परम्परा के अनुसार विचरते हुए तथा एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विहार करते हुए यहां पर पधारे, तब तुम हे देवानुप्रियो ! केशिकुमार श्रमण को वन्दना करना ( नमः सिज्जाह ) नमस्कार करना. ( वंदित्ता नमसिता महापडिरूत्र' उग्गहं अणुज्जाज्जाः) वदना नमस्कार कर फिर तुम उन्हें साधुकल्पानुसार वसति में निवास करने के लिये आज्ञा दे देना (पाडिहारिएण पीठफलग जाव उबनिमंतिज्जाह) और समर्पणीय पीठफलक आदि जैसा में चाहे वैसा तुम उन्हें देने की प्रार्थना करना. (एयमाणतिय विपामेव पञ्चष्पिणे जाह) बाद में मेरी इस आज्ञा को जब पीछे शीघ्र लौटाना - अर्थात् जब केशि कुमार श्रमण आ जावे- तब तुम उनके आगमनादि के वृत्तान्त की हमें शीघ्र ही खबर देना: (तपूर्ण ते उज्जाणपालगा चितेण सारहिणा एवं बुता समाणा हहतुङ जाव हिपया करयलपरिग्गहियं जाव एवं वयासी - तहसि पुत्राणुपुचि चरमाणे, गामाणुगाम दूइज्माणे इमागच्छिउजा, तयाण' तुम्भे देवाणुपिया के सिकुमारसमणं व दिज्जह) वाय પાર્શ્વનાથ ભગવાનની પર‘પરામાં વિચરણુ કરનારા કેશી પૂર્વ સાધુ પર પરા મુજખ વિચરણુ કરતાં કરતાં તેમજ એક ગામથી બીજે ગામગાંવહાર કરતાં કરતાં અહીં પધારે ત્યારે હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે સૌ કેશિકુમાર શ્રમણને વંદન કરો ( नमः सिज्जाह) • नमस्कार ४२ (वदित्ता नमसत्ता अहापरुिव उरंगह अणुज्जाणेज्जाह ) बहना तेभन नमस्र अरीने तमे तेमने साधु चानुभार बसतीभां निवास १२वानी माझा आशी. ( पडिहारिएणं पीठफलग जाव उ निम तिन्जाह ) भने समर्पणीय पीठ वगेरे ? वस्तुनी" तेयोश्री भागणी ४रै ते वस्तु ं नभे तेभने नम्रपणे समर्पितः १२ . (एयमाणान्तिय खियाँ मैत्रः पचपिज्जाह ) अने क्यारे माधुः थ नयत्यारे' त' भनेः शिष्ठुभार श्रमधुनी गडी'' पधारमानी मर आपले (तए णं ते उज्जाणपालगा चित्ते सारहिणा एवं घुन्सा समाणाः हहतुः जात्रः हिययाः करयलपरिगहियें जाव નામે શ્રમણ 7 " Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका. सूत्र १५४ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् १" टीका-'तएण से' इस्थादि-ततः खलु स चित्रासारथि:केशिकुमारश्रमण चन्दते नमस्पति, वन्दित्या नमस्थित्वा केशिनःकुमारश्रमणस्य अन्तिकात समीपात्, तदनुकोष्ठकाच्चैत्याच्च प्रतिनिष्कामति-निस्सरति. प्रतिनिष्क्रम्य यत्र व श्रावस्ती नगरी यंत्र व च राजमार्गमगाटः आवासः, तत्र व उपा. गच्छति, उपागत्य कौटुम्पिकपुरुषान् भृत्यान् शब्दयति, शब्दयित्वा एक.. मवादीत-भो देवानुमियाः ! चातुर्घण्ट चतुर्घण्टविभूषितम् अश्वरथ युक्त मेव-योजिताश्वमेव उपस्थापयत उपस्थित कुरुत । इतोऽग्रे यथाश्वेतविकाया नगर्या निरमृत्य चित्रः सारथिः कुणाला जनपदे श्रावस्त्यां नगर्या , तथैव स श्रावस्त्या नगर्या अपि निरसृत्य केकयाद जनपदे श्वेतविकायो नगर्या च. गतः। अतोऽत्र पूर्व वदेव समग्रः पाठः संग्राह्यः । अमुमेवार्थमूच. यितुमाह-'यथा श्वेतविकाया नगर्या निर्गच्छति, तथर यावत् वसन् कुणा. हाजनपदस्य मध्यमध्येन यत्रैव केकयाई यौव श्वेतविका नगरी यत्रव मगवगम् उद्यान सत्रैव उपागच्छत्तीति । सत्र मृगवने उद्याने उपागत्य स अधानपालकान् शब्दयति आहयति, शब्दयिस्वा एवमवादीत्-भो देवानु: मियाः ! यदा खलु पापित्यीया पार्श्वनाथती करपरम्परायो संजातः केशी नाम कुमारश्रमणः पूर्वानुपूर्व्या पूर्वसाधुपरम्परया परन् विचरन ग्रामानुग्राममू-एकस्माद ग्रामादनन्तरस्थित ग्राम द्रवम-करनेण बाच्छन . श्वेतविकायां नगर्याम् आगच्छेत् आयात. तदा खलु यूयं देवानुपिया केशिकुमारश्रमण' बन्दवं नमस्यत वन्दित्वा नमयित्वा, यथामतिरूप साधुकल्पानुसारम अवग्रह असतो निवासामाज्ञां अनुज्ञापयल-अप यत, आणाए विण एणं अयणं पडिसणेति) चित्र सारथी के द्वारा इस प्रकार कहे गये वे उघानपाल हृष्टतुष्ट यावत् हृदय हुए और दोनों हाथ जोडकर बडे विनय के साथ यावत् इस प्रकार से बोले-हे स्वामिन् ! आपकी आज्ञा हमें प्रमाण हैं अर्थात् आपने कहा है हम वैसा ही करेंगे इस प्रकार अपनी ओर से स्वीकृति के वचन कहकर उन्होंने चित्र सारथी की आज्ञा के वचनों को स्वीकार कर लिया। . एवं वयासी-तहत्ति आणाए विणयेणं वयणं पडिसुणेति) यसाथी मा પ્રમાણે આજ્ઞાપિત થયેલા તે ઉદ્યાનપાલકે હટ-તુષ્ટ યાવતુ હૃદયવાળા થયા અને બને હાથ જોડીને વિનમ્રતાપૂર્વક આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા કે હે સ્વામિન્ ! આપશ્રીની આજ્ઞા મારા માટે પ્રમાણરૂપ છે. એટલે કે આપશ્રીએ જે પ્રમાણે આજ્ઞા કરી છે અમે યથા સમચ તેમજ આચરીશું. આ પ્રમાણે પોતાના તરફથી સ્વીકૃતિનાં qयना. तभी मित्रसाथिनी माज्ञान सीरी. सीधी. . . . . . Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - राजप्रश्नीयसूत्रे तथा-प्रतिहारिकेण=पुनः समपणीयेन पीठ फलक यावत्-पीठेफलकाशयया. सस्तारकेण उपनिमन्त्रयत. प्रातिहारिक पीठफलकादिक यथा म गृह्णीयात् तथा त के शिकुमारश्रमण प्रार्थयतेत्यर्थः । एवं कृत्वा पताम् अाज्ञप्तिका निममेव प्रत्यर्पयत केशिकुमारश्रमणस्य आगमनादिवृत्तान्त'- मह्य' लिममेव सूचयतेति । ततः खलु ते उद्यानपालका: चित्रण सारथिना · एवमुक्ताः सन्तः हष्टतुष्टयावदया: हृष्टतुष्टचित्तानन्दिताः प्रीतिमनसः परमसौमनस्थिताः हपंक्शविसर्प दयाः, करतलपरिगृहीत यावत्-यावत्पदेन-'दशनवं शिर आवत मस्तके अञ्जलिं कृत्वा' इति संग्राह्यम्, हृष्टतुष्टेत्यादिपदानां करतछेत्यादिपदानां चार्थः पूर्ववद् बोध्यः, एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण' अवादीत= उक्तवान्-तथेति हे देवानुप्रिये ! यथा यूयमाज्ञापयन्ति तथैव समाचरिष्यामः इति । एष स्वीकारवचनमुक्त्वा ते उद्यानपालकास्तस्य चित्रसारथेः आज्ञाया वचन विनयेन प्रतिशृण्वन्ति स्वीकुर्वन्ति-इति ॥स्नू० ११७॥ ... मूलम्-तएणं से चित्ते सारही जेणेव सेयंबिया गयरी तेणेव उवागच्छइ, सेयवियं नयार मज्झ मज्झेणं अणुपविसइ, जेणेव पए. सिस्स रणो गिहे जेणेव बाहिरिया उवटाणसाला तेणेव उवागच्छइ, तुरगे णिगिण्हाइ, रह ठवेइ, रहाओ पञ्चोरुहइ, तं महत्थं जाव गेण्हइ, जेणेव पएली राया तेणेव उवागच्छइ, पएसि रायं करयल टीका मूलार्य के अनुरूप ही है, नवर' 'हतु जाव हियया' में जो यावत् पद आया है उससे यहां 'दृष्टतुष्टचित्तानन्दिताः, प्रीति मनसः, परमसौमनस्थिताः, हर्षवशविसर्पदयाः' यह पाठ गृहीत हुआ है, तथा 'करतलपरिगृहीत' के यावत्पद से 'दशनख शिर आवत्त मस्त के अंजलि कृत्वा' इस पाठ का ग्रहण हुआ है, इन पाठों के पदों का पहिले अर्थ कहे हुवे अर्थ के अनुसार ही है ॥ ११७॥ ___ -मा सूत्रता भूसा प्रभारी छ. 'नवर' "तह जाव हियया" भारे यावत् ५४ मा तेथी "दृष्टलष्टचित्तानन्दिताः, प्रीतिमनसः परमसौमनस्थिताः, हवशविसर्पदया” मा पनि सय थयो छ. तभा "फरतलपरिगृहीत'. ना यावत् ५४थी "दशनख शिर आवत्त मस्तके अंजलिं कृत्वा" मा पाउनु अ ययुः 2. At पाना पहना अर्थ . पडदा भारी २५०८ ४२वामा माव्ये! छे ते प्रमाणे म भरवाय: ॥१० ११७॥ . Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सू. ११८ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवणं गम् ११३ जाव बडादेता महत्व जाय उणे : तएणं से पएसी राया चित्तस्स सारहिस्सा तं महत्वं जाव पडिच्छा, चित्तं सारहि सकारेइ सम्माणेइ पडिविसज्जेइ । लएणं से चित लारही परलिणा रण्णा विसजिए समाणे हजाब हिथए पएलिस्त रन्नो अंतियाओ पडि णिखमइ, जेणेव चाउम्घंटे आलरहे तेणेक उबागच्छइ, चाउग्घंटे आसरहं दूरूहह, वियाए नयरीए मज्झमझेणं जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छद, तुरगे णिगिण्हा, रहं ठयेह, रहाओ पच्चोरुहइ, पहाए जाव उछि पासायवरगए फुट्टनाणेहिं मुइंगमथएहिं बत्तीसइबद्धएहिं नाडएहि वरतरुणीसंपउत्तेहि उवणचिजमाणे उवगाइज्जमाणे उपलालिज्जमाणे इवे सहफारिस जीव विहरइ ॥सू० ११८॥ छाया-ततः स्वल सचिवः लारथिः यत्रौत्र श्वेताविका नगरी तौब उपागच्छति; श्वेतांविका नगरी मध्यमध्येन अनुमविशति, राम व प्रदेशिनः राज्ञः गृहं यत्रैव पाया उपस्थान शाला तत्रैव उपागच्छति, तुरमान निजाति, रथं स्थापत्रति रथात प्रत्य 'तएणं ते चित्ते सारही' इत्यादि । सूत्रार्थ--(तरणं) इसके बाद (से चित्ते सारही जेणेव सेयरिया णयरी तेणेव उबागच्छइ) वह चित्र सारथि जहां श्वेतांत्रिका नगरी थी-वहां गया __ (सेयविय नथरि मज्ज्ञ मणं अणुपविसइ) वह उस नंगरी में धींचों धीच के मार्ग से होकर प्रविष्ट हुआ (जेणेव परलिस्ल रण्णो गिहे जेणेव बाहिरिया उववाणसाला तेणेव उपागच्छइ) प्रविष्ट होकर वह वहां गया जहां कि प्रदेशी राजा का घरया और जहां प्रदेशी राजा की पाह्य उपस्थानशाला थी (तुरगे निमिण्हइ) वहां पहुंच 'त एण ते चित्त सारही' इत्यादि । सूत्रार्थ-(ल एण) त्या२ पछी(से चित्ते सारही जेणेव सेवाविया गयरी तेणेव उवागन्छइ)तभित्र सा२थियia'iनगरी ती त्यां गये. (लेववियं नयरिं मज्झमझे ण अणुपविसइ)ते ते नगरीमा मध्यमाथी 40 प्रविष्ट थयो. ' (जेणेव पएलिस्मरणो गिहे जेणेब बाहिरिया उवहाणा शाला तेणेव उवागच्छइ) પ્રવિષ્ટ થઈને તે ત્યાં ગયા. ત્યાં પ્રદેશી રાજાનું ઘર હતું અને જ્યાં પ્રદેશ રાજાની બહા - - Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ राजप्रश्नीयसूत्रे वरोहति, तद् महाध यावद् यताति, यत्र व प्रदेशी राजा तत्रत्र उपागच्छति, प्रदेशिन रानान करतल यावद् वयित्वा तन्महार्थ यावत् उपनयति । तताखलु स प्रदेशी राजा चित्रस्य सारथेस्तन्महाय" यारत् पत्तीच्छति चित्र' सारथि सत्कारयति सन्मानयति प्रतिविसर्जयति ! ततः खलु स चित्र सारथिः प्रदेशिना राज्ञा विसर्जितः सन्द इष्ट यावहृदयः प्रदेशिनो राज्ञः कर उसने घोडों को रोका (रहं ठवेइ) और रथ को हासा किया। (रहाओ पञ्चोरुहइ) फिर वह उस रथ से नीचे उत्तरा (तमस्य बाब गेहइ) नीचे उतर कर उसने उस सहाथ आदि विशेषणों पाले प्राकृत को हाथ में लिया (जेणेव पएसी राया लेणेव उदागच्छद) और जहां प्रदेशी राजा था वहां गया (पएसीराय करयल नाव बद्धावेत्ता तं माल्थं नाव उणेइ) वहाँ जाकर के उसले प्रदेशी राजा को दोनों हाथों की अंजलि बनाकर एवं उसे मस्तकपर से घुमाकर नमस्कार किया और जयविजय शब्दों का उच्चा रण करते हुए उसे बधाई देकर फिर उसने उसके समक्ष लाये हुए पारितोषिक-मेट अर्पण किया (तएणं से पएसी राया चित्तस्स सारहिस्स तं महस्य जाव पडिच्छइ) प्रदेशी राजाने चित्र सारथी के उस महाथ आदि विशेषणों वाले प्राभूत को अंगीकार कर लिया (चित्तं सारहि सका. रेड, सम्माणेह पडिविसज्जेई) और चित्र सारथी का सत्कार किया एवं सन्मान किया. बाद में उसे विसर्जित कर दिया. (तएणं से चित्रो सारही ६५स्थान या ती. (तुरगे निगिण्डइ) त्या पांथान त मान SIL भ्या. (रछठवेह) मने २थने थामा०ये. (रहाओ पच्चोसाई) त्या२ पछी ते २५मा नये अती. (त महत्व जाय गेण्हई) नीयतरीन तरी त भवार्थ पोरे विशेष|पाणी टेट पाताना थिभा सीधी. (जेणेव राया तेणेव उवागच्छइ) भने यो प्रदेशी in इतत्यो गयो. (पएसी राय करयल जाब बदावेत्तान महत्व जाच उवणेह) त्यां न तो प्रदेशी शतने भन्ने थाना અંજલિ બનાવીને તેને મસ્તક પર ફેરવને નમસ્કાર કર્યા અને જયવિજય શબ્દોનું ઉચ્ચારણું કરીને તેને વધામણી આપી. ત્યાર પછી તેણે પિતાની સાથે લાવેલી ભેટને ने भक्ति ४१. (तए ण से पएसी राया चित्तस्स सारहिस्स तं महत्य जाव पडिच्छइ) प्रदेशी २० भित्रसाथिनी ते महाथ मेरे विशेष|वाजी सटन २वी सीधी. (चित्त साहिं सकारेइ, सम्माड पडिविसज्जेइ) मन ચિત્રસારથીને સત્કાર તેમજ સન્માન કરીને પછી તેને ત્યાંથી વિસર્જિત કર્યો (त एण से चिने सारही ५एसिणा रणा विसज्जिए समाणे हद जाव Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सू. ११८ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् . ११५ अन्तिकात् प्रतिनिष्कापति, यव चातुर्वण्टः अश्वरथस्तत्रैव उपागच्छति, चातुर्घण्टम् अश्वस्थ दूरोहति, श्वेतविकाया नगर्या मध्यमध्येन यत्रैव स्वक गृह तत्र उपागच्छति. तुरगान निगृह्णाति, रथं स्थापयति, रथात् प्रत्य: चरोहति, स्नातो यावत् उपरि प्राप्साहवरगतः स्फुरद्धिमदमस्तकानिंशब्द. कर्नाटक र तरुणीसंप्रयुक्त : उपनयमानः उपगायमान: उपलाल्पमान इष्टान् शब्दपर्श-यावद् विहरति ॥९० ११८।। पएलिणा रणा बिलजिए समाणे हट जाव हियए पएसिस्स रन्नो अति. याओ पडिनिक्खमइ जेणेच चाउटे आसर हे तेणेव उवागच्छइ) इस प्रकार पदेशी राजा द्वारा विसर्जित किया गया वह चित्र सारथि हृष्ट यावत् हृदय वाला होकर पदेशी राजा के पास से चला आया और जहाँ चातुर्पेट अश्वस्थ था वहां पर आ गया (चाउरघंटं आसरह दुरुहइ, सेयवियाएं नयरीए मझमझणं जेणेव सए गिहे तेणेव उबागच्छद) यहां आकर वह उस चार घंटेवाले अश्वाथ पर सवार हो गया और श्वेतांबिका नगरी के ठीक मध्यमार्ग से होता हुआ अपने भवन की और बल दिया, (तुरगे. णिगिण्हइ, रह वेद रहाओ पच्चोहाइ, पहाए जाव उपि पालायवरगए) वहां आकर के उसने घोडों को रोका, रथ को खडा किया, फिर रथ से नीचे उतरा, स्नान किया थावत उत्तम मामाद के उपरिभाग में जाकर बैठ गया, (फुटमाणेहिं मुइगमथएहिं बत्तीसरद्धएहिं वरतरणीसंपउत्तेहिं उवणचिजमाणे२ उवगाइज्जमाणे२ उदलालिजमाणे२ इष्टेसफरिस नाव विहरइ) वहां परं । हियए पएसिस्स रन्नो अंतियाओ पडिमिक्खमइ, जेणेव चाउघंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ) Pा प्रमाणे अशी २in a विसर्जित येतो ते मित्रસારથિ હટ યાવતું હદયવાળ થઈને પ્રદેશ રાજાની પાસેથી આવતો રહ્યો અને જ્યાં . यातुध २५५२५ हुता त्यां 2०11. (चाउग्घंटे आसरह दुशहाइ,सेय बियाए नय. रीए मज्झमझणजेणेव सए गहे लेणेच उबागच्छद) त्या मावान ते यातुध वाणा - અધરથ પર સવાર થયે અને તાંબિકા નગરીના ઠીક મધ્ય માર્ગમાંથી પસાર : न ताना सपन त२३ २वाना था. (तुरगे णिगिण्हइ, रहं ठवेइ, रहाओ पच्चोरुहइ - हाए जाव' उप्पिं पातायवरगए ) Airtal तेरी पायाने Sel Aण्या, २५ - ભા. અને ત્યારપછી રથમાંથી નીચે ઉતર્યો. નાન કર્યું ચાવતું ઉત્તમ પ્રાસાદના, - Rewi Aal गया.(अनाणेहिं सुइगमस्थरहिं वत्तीमाबद्धएहि नाडएहि वरतरणोसंपउत्तेहिं उवणचिज्जमाणे२ उवगाइज्जमाणे२ उवलालिज्जमाणे२ इ सह Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीयसत्रे टीका---'तएणं' इत्यादि ततः खलु ल चित्रः लारधिः यक श्वेतविज्ञानगरी रानव उपागच्छति, श्वेतविकां नगरी मध्यमवैन अनिशचमध्यदेशस्थिनमार्गेण श्रावस्ती नगरीम् अनुप्रविशति, यत्रब बाह्या उपस्थागशाला तत्रैव उपागच्छनि, तुरगान अश्वान् निगृह्णाति-निरुणद्धि, रथ स्थापयति, रथात् प्रत्यवरोहति अवतरति, तद् महार्थ यावत् महात्वादिविशेषणविशिष्टं प्रामृत' गृह्णाति, गृहीत्वा यत्र व प्रदेशी राजा तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य प्रदेशिन राजान करतल गावत्= करतलपरिगृहीत दानन्ध शिर आग मस्तके अनलिं कृत्वा कई यति, धयित्वा तद् महा गाजतहासादिविशेषणविशिष्ट प्रामृतम् उपनयति प्रदेशिने राज्ञे समर्ष यति । सनः खलु र प्रदेशी राना चित्रस्य सारथेः सकाशात् तद् महाय यानम् महाथ त्वादिविशेषणविशिष्टं गाभ्नम् प्रतीच्छतिगृह्णाति, चित्रं सारथि सत्कारगति-भावनप्रदानादिना, सम्मानयनि-वस्त्राभूपणा. दिप्रदानेन, ततः अतिरिसर्जयनि-गन्तुगादिशति । ततः खलु म चित्रासारथिः प्रदेशिना राज्ञा विजितः परन् हष्ट-यावद् तुप्रचित्तानन्दितः प्रीनिमनाः रहते हुए यह कहते हुम् शकों को ध्वनिपूर्वक ३२ पात्रों द्वारा अभिनीत किये नाटक को बार बार देबकार और गानों को सुनकर एवं ललितक. लाओं द्वारा हर्पित होकर अभिलपित शव्द, स्पर्श, रूप रस, गंध इन पांच मकार के कानगोगों को भोगते हुए अपने समय को निकालने लगा। टीकार्थ मूलार्थ के ही अनुरूप है परन्तु जहां पर विशेषता है वह इस प्रकार से है-आसनप्रदान आदि द्वारा प्रदेशी राजाने उस चित्र सारथि का सत्कार किया, एवं वस्त्राभूषण आदि प्रदान द्वारा उसका सन्मान किया, विसजित किया का तात्पर्य है, जाने के लिये आज्ञा दिया. जाव हियए' में आगत इस यावत्पद से हष्ट तुष्टचित्तानन्दितः, मीतिमनाः, परमसौमनस्थितः, हर्षवंशफरिस जाब विहरइ) त्यां ही तेथे मगानी ध्वनि साथै ३२ पात्र द्वारा અભિનીત કરાયેલા નાટકને વારંવાર જોઈને અને ગીત સાંભળીને અને લલિવડે હર્ષિત થઈને અભિષિત શબ્દ, સ્પર્શ, રૂપ, રસગંધ આ પાંચ પ્રકારના કામોને ભગતો પિતાના સમયને પસાર કરવા લાગ્યા. :ટીકાઈ–આ સૂત્રને મૂલાઈ પ્રમાણે જ છે. પણ જ્યાં વિશેષતા છે તે આ પ્રમાણે છે આસન વગેરે આપીને પ્રદેશી રાજાએ તે ચિત્રસારથિનો સત્કાર કર્યો અને વસ્ત્ર આભૂષણ આપીને તેનું સન્માન કર્યું વિસર્જિત શબ્દનો અર્થ છે જવા માટે साक्षी माथी. "ह जाव हिथए' मा वेसा यावत् ५४थी "हटतुष्टचित्तानन्दितः Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ सुबोधिनी टीका सू. ११८ सूर्याभदेवस्य "वभवजीवप्रदेशिराजवण नम् परमसौमनस्थितो हर्षवश विसर्पदृदयः प्रदेशिनो राज्ञः आन्तकार-यमोपात् प्रतिनिष्कामति-निर्गच्छति, यत्रैव चातुर्घष्टः अश्वस्थः तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य चातुर्घष्टम् अश्वरथं दूरोहति आरोहति, दूरुह्य श्वेतविकाया नगर्या मध्यमध्येन यत्रैव स्व-स्वकीय गृहं तत्र व उपागच्छति, उपाग- तुरनान् निगृहाति, निगृहय रथं स्थापयति, रथात् प्रत्यवतरति । ततः स्नातकृतस्नान विधिः यावत् 'यावत'-पदेन-'कृतत्र लिकर्मा कृतकौतुकमङ्गल प्रायश्चित्तः सर्वालङ्कारविभूषितः' इति समाधम् । तत्र-कृतबलिकर्माकाका. दिभ्यो वितीर्णान्न भागः, कृतकौतुकलालमायश्चित्ता-कृतानि-विहितानि कौतु. कानि-मपीतिलकादीनि मङ्गलानि==मङ्गलकराणि दुःस्वप्नादिफलनिवारणार्थ दध्यक्षतादीनि तान्येव प्रायश्चित्तानि-अवश्पकरणीयत्वाद् येन सः, तथा-सर्वा: लङ्कारविभूषितः समस्ताभरणभूषितशरीरः सम् उपरिप्रासादचरगता उत्तममा सादोपरिभागे समुपविष्टः स्फुटद्धिा अतिरमसास्फालनात् स्कुटद्भिरिव मृदङ्गम स्तक मृदङ्गमुखपुटैः, तथा-बरतरुणीसम्पयुक्तैः अतिसुन्दरयुवतीभिरभिनीतैः द्वात्रिंशद्वद्धकः द्वात्रिंशत्संख्यकपात्रनिवः नाटकैः उपनयमानः स्वचरित्राभिनयपूर्व मभिनीयमानः, उपगीयमानः स्वगुणगानपूर्वक गीयमानः, उपलाल्यमानः= ललितकलाभिः प्रमोधमानः इष्टान् अभिलषितान शब्दस्पर्श यावत्-शब्दस्पर्शरूपसाधान् कवविधान् काममोगान् प्रत्यनु पसन् विहरतीति ॥ ५० ११८॥ विसर्पदयः' इन पदों का ग्रहण किया गया है। 'हाए जाव उपिं में आगत यावत् पद से 'कृतवलिकर्मा, कृतकौतुकलंगल पायश्चित्तः, सर्वालङ्कारविभूपितः' इन पदों का संग्रह हुआ है. 'कृतवलिकर्मादि पदों का तात्पर्य है काकादिकों के लिये उसने अन्नभाग वितीर्ण किया तथा दुःस्वप्नादिफलों के निवारण के लिये मषीतिलक आदिरूप कौतुक तथा मंगलकर दध्यक्षतादिकरूप प्रायश्चित्त-अवश्य करणीय होने से किये। इनसे नीचे के पदों का अर्थ मूलार्थ में लिख दिया गया में ॥ मृ० ११८॥ भीतिमनाः परमसौमनस्थितः, हर्षवश विसपदयः" पहा अड ४२वामा मा०यु छ. "हाए जाव उति" मा मावेसा यावत् ५४थी "कृतवलिकर्मा, कृत कौतुकमंगलनायश्चित्तः सर्वालङ्कारविभूषितः' २L पहोने सपा थयो छे. तબલિકર્માદિ પદને અર્થ છે કાગડા વગેરેને અન્ન ભાગ અર્પ તેમજ દુઃસ્વપ્ન વગેરે ને નિવારણ કરવા માટે મથી તિલક વગેરે રૂપ કૌતુક તેમજ મંગળકર દહીં અક્ષત વગેરે રૂપ પ્રાયશ્ચિત્ત-અવશ્યકરણીય હોવાથી કર્યા. એના પછીનાં પદોના અર્થો મૂલાઈ માં જ લખવામાં આવ્યા છે. સૂત્ર ૧૧૮ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___११८ - - राजप्रश्नीयसूत्रे मूलम्-तएणं से केसीकुमारसमणे अण्णया कयाइ पाडिहारियं पीढफलंकसेज्जासंथारग पञ्चप्पिणइ । सावत्थाओ णयरीओ कोट्रगाओ चेझ्याओ पडिनिश्वमइ, पंचहि अणगारसएहिं जाब विहरमाणे जेणेव केयइअद्धे जणवए, जेणेव संयंबिया नयरी जेणेव सियवणे उजाणे तेणेव उवागच्छद, अहो पडिरूवं उग्गहं उगिछिहत्ता संज. मेणं तक्ता अप्पाणं भावमाणे विहरइ ॥सू० ११९॥ छाया-ततः खलु स .शीकुमार मण: अन्यदा कदाचित प्रातिहारिक पीठफलक शायमासस्तार क प्रत्ययति। वस्त्या नगयों कोष्ठकात् चैत्यात् प्रतिनिष्कामति पन्चभिरनगासवव विहान् यत्र के कयाद्ध जनपदः यत्र व श्वेताविका 'तए णं कसीकुमारसमणे' इत्यादि। मुत्रार्थ----(तए णं केमीकुमारजमणे अगया कयाई पाडिहारियं पीढ. फलफसे ज्जासंथारगं पच्चप्पिणइ) इसके बाद के शीकुमारश्रमणने किसी एक समय अपणीय पीठफलफास्या संस्तारक को शपिस कर दिया अर्थात् जहां वे कोप्ठक चैत्य- उच्चालटहए थे-यहां के पुरुषों को उन्होंने संभला दिया. (साव. स्थीयो णयरीओ कोटगाओ चेइयाओ पडिनिवखमइ) इसके बाद वे श्रावस्ती नगरी से एवं कोटकचत्य से निकले (पंचहि अणगारस एहिं जाय विहारमाणे जेणेव केयह अद्धे, जणत्रए जेणेव सेयविया गयरी जेणेव मियदणे उजाणे तेणेव उवागच्छद) पांच सौ अनगार इनके साथ थे. अता उनके साथ तीर्थकर परम्परा के अनुसार विचरण करते हुए, एक ग्राम से दूसरे ग्राम में 'त पण केमोक्रमारसमणे' इत्यादि। सूत्राथ:-(न एण कसीकुमारसमणे अण्णया कयाई पाडिहारिया पोढ़फल कसेज्जाधारग पच्चपिणइ ) त्या२ ५७ शामा२ श्रम ४ मते અર્પણીય પીઠફલક શય્યા સંસકારને પાછા આપી દીધાં એટલે કે તેઓશ્રી જે કબ્દક ચૈત્યમાં સુકામ કર્યો હતેા. ત્યાંના રખેવાળને તે વસ્તુઓ આપી દીધી. (सोवधीमी गयरीनो कोहायो चेइयाओपडिनिक बमई) त्यारपछी ते शिशुभार શ્રમણ તે શ્રાવતી નગરીથી અને કેપ્ટક એત્યમાંથી નીકળ્યા. એટલે કે વિહાર કર્યો. (पचहि अणमारसहिं जात्र चिहरमाणे जेणेव केयइअद्धे जणवए जेणेच सेय दिया गयरी जेणेत्र भिवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छई) पांयसे। मनગાર તેઓશ્રીની સાથે હતા. આમ તેઓશ્રી આ બધાની સાથે તીર્થકર પરંપરા - Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुबोधिनी टीका सू. ११९-२० सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशीराजवर्णनम ११९ नगरी यत्रच मृग नामुमान तर उपागच्छांते, यथाप्रतिहासग्रहमयगृहय संयमेन तपला आत्माल' मात्रयन् विहरति ।मु० ११९ ॥ टोका--'एमकेसी इत्यादि व्याख्या निगदनिद्धा नरम-केशी कुमार मणो मृगवनोद्यान स्थितस्य कस्यचित पुरुषस्य स्तोमकालिगमदमब गृह्य तिष्ठति । वनपालावग्रहादीनामने बदममा न्यान् ।। १० ११९ ॥ मूलस्--तएवं लेयंबियाए नगरीए सिंघाड न० महया जणसदेई वा० परिता निग्गच्छद। तएणं ते उजाणपालगा इमीसे कहाए लट्टा समाणा हतुष्ट जाब हियथा जेणेव केसीकुमारसमणे तेणेव उवागच्छंति केलि कुमारलसणंबदलि नमसति अहापडिरूवं उगह अशुजाति, पाडिहारिएणं जाव लथारएणं उवनिमंतति णाम गोपुच्छति ओधारेति एग त अनमति अन्नमन्न एवं वासी-जस्लणं देवाणुविहार करते हुए कमशः वहां आये यहाँ के कयाद्ध जनपद-देश था, उसमें भी जहां वह श्वेतादिका नगरी थी और उसमें भी जहां वह मृगवन नाम का उद्यान था (अडाएडिरून जगई उमित्तिा संजमेणं तवसा अपाणं भावमाणे विदाइ) वहां आकर वे यथाप्रतिरूप अवग्रह प्राप्त करके संयम एक तए से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। ___व्यसाया स्पष्ट है-नवरंम्-केशकुमारश्रमण गवनोद्यान स्थित किसी पुरुष की कुछ समय तक ठहरने के लिये आता प्राप्त कर ठहर गये. घल. पाल एवं अवग्रहादिको के विषय में सूत्रकार आगे कथन करेंगे यू०११९।। મુજબ વિચરણ કરતાં એક ગામથી બીજે ગામ વિહાર કરતાં અનુક્રમે જ્યાં કે કયાદ્ધ જનપદ-દેશ વિશેષ હતા અને તેમાં પણ જયાં જોતાં બિકા નગરી હતી અને તેમાં પણ જયાં મૃગવન નામે ઉદ્યાન હતું. ત્યાં પહોંચ્યા. (महापडिरूवं उरगह उग्मिण्णित्ता संजमेण तबला अप्पाण भावेमाणे निहर) त्यां पहचान तगाश्री तथा प्रति३५ वAS ास प्रशन यम भने તપથી પોતાના આત્માને ભાવિત કરતા વિચરણ કરવા લાગ્યા. . या सूत्रनाथ पट छ. 'नवरम्' शीभार श्रमाय भृगमन धान પાલકની પાસેથી રહેવાની આજ્ઞા મેળવીને ત્યાં રોકાઈ ગયા. વનપાલ અને અવગ્રહ વગેરેની બાબતમાં સૂત્રકાર હવે પછી કહેશે કે સૂ૦ ૧૧૯ !! Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૨. राजप्रश्नोयन्त्र पियो । चित्ते सारही दसणं काखेड, दसणं पत्थेइ, दसणं पीहेइ, दसणं अमिलनेइ, जस्स णं जालगोयस्सवि सत्रणयाप हतु जाब हिथए भवइ से णं एस केलीकुमारललणे पुवापुलिंब घरमाणे गामाणुगाम दूइज्जमाणे इहमागए इहसंपत्ते इह समोसढे इहेब आयंबियाए णय रीए बहिया उज्जाणे अहापडिरूव जाव विहरइ, तं गच्छामो णं देवाणुप्पियो ! चित्तस्स सारहिस्स एयगढ़ निवेदेमो पियं से अवड । अण्णमण्णस अंतिए एयमढे पडिसुणेति, जेणेव सेयविया णयरी, जेणेव चित्तम्स सारहिस्ल गिहे जेणेव चित्ते सारही तेणेव उवागच्छंति, चित्तं सारहिं करयल जाव बहावेंति, एवं वयाती-जस्स णं देवाणुपिया। दसणं कंखंति जाव अभिलसंति, जस्लणं णासगोयस्सविसवणयाए हट जाव भवंति, सेणं अयं केसीकुमारसमणे पुब्बाणुपुब्धि परमाणे गामाणुगामं दूइजमाणे इहेब मियवणे उजाणे समोस जाव विहाइ ॥ सू० १२० ॥ छाया-ततः खलु श्वेत विकायां नगर्या बङ्गादक महान जनशब्द इति घा० परिपद निगच्छति। ततः खलु ते उद्यानपालका अस्याः कथाया 'तएणं सेयचियाए नयरीए' इत्यादि । सूत्रार्थ-(तरण सेय चियाए नयरीए सिंघाडश महया जणसइ वा० परिसा निगच्छइ) इसके बाद श्वेतांधिका नगरी में श्रद्धाटक आदि मार्गों के ऊपर उपस्थित हुई अपार जनमेदिनी में परस्पर वातचीत आदि हुई. परिपदा निकली (तएण ते उगाणपालगा हमीसे कहाए लवडा लमाणा 'त एण' सेयवियाए नयरीए' इत्यादि । सूत्रार्थ-(लएण सेयं वियाए नवरीए सिंघाडग० मह्या जणलइया० परिसा निगच्छ३) त्या२ पछी तilost नगरीमा ४ वगेरे भांगा ५२ એકત્ર થયેલા માનવસમાજમાં પરસ્પર વાતચીત વગેરે પ્રારંભ થઈ પરિષદા નીકળી. (त एण ते उज्जाणपालगा इमीसे कहाए लट्ठा समाणा हट्टतुट्ट जाव हियया - - - - - - - Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ सुबोधिनी टीका सू. १२० सूर्याभिदेवस्य पूर्वभव जीवप्रदेशीराजवर्णनम् लव्धार्थाः सन्तः हृष्टतुष्ट यावद् हृदया यत्रैव केशी कुमारभ्रमणः तत्रैव उपागच्छन्ति केशिन कुमारश्रमणं वन्दन्ति नमनति यथामतिरूपमवग्रहमनुजानन्ति प्रातिहारिकेण यावत् संस्तारकेण उपनियन्त्रयन्ति, नामगोत्र पृच्छन्ति, अवधारयन्ति, एकान्तमक्रामन्ति अन्योन्यमेवमवादिपुः - खलु देवानुप्रियाः ? चित्रः सारथिः दर्शनं काङ्क्षति, दर्शन प्रार्थयति, दर्शनं स्पृहयति, दर्शनमभिलपति, यस्य खलु नामगोत्रस्यापि श्रवणतया दृष्टतुष्टवे हट्टनुट्ठ जाव हिगया जेणेव केसीकुमारसमणे तेणेव उवागच्छति ) इसके बाद उद्यानपाल जब इस बात से निश्चितमतिवाले हो गये. तव हृष्ट तुष्ट यावत् हृदयवाले होते हुए वे जहां केशीकुमारभ्रमण थे वहां पर आये, (के लिकुमारसमणं वदति, नमस'ति, अहापडिरून उग्गह अणुजाण ति) वहां आकर उन्होंने केशो कुमारश्रमण को वन्दना की, नमस्कार किया एवं यथारूप अवग्रह आज्ञा उन्होंने दिया. (पाडिहारिएण जाय संधारण उवनिम तति) तथा समर्पण (प्रातिहारिक) यावत् संस्तारक आदि से उन्हें उपनियंत्रित किया. (णाम गोयं पुच्छति ओधारेति, एगते अवकमति, अन्नमन्न एवं व्यासी) नामगोत्र पूछा। उसे हृदय में धारण किया। फिर वे एकान्त में गये और वहां जाकर उन्होंने आपस में इस प्रकार से बातचीत को (जस्स ण देवाणुपिया । चित्ते सारही द'क्षण' कखेइ द'सण पीहेड़, दंसण अमिलसे) हे देवानुप्रियो ! जिनके दर्शन चित्र सारथि चाहता है, जिनके दर्शन की वह प्रार्थना करता है, जिनके दर्शन की वह स्पृहा रखना है, जिनके दर्शन की वह अभिलावावाल जेणेव केसीकुमारसमणे तेणेव उवागच्छति) त्यार पछी ते उद्यानवाले! क्यारे नमसति આ બાબતમાં નિશ્ચિત મતિવાળા થયા ત્યારે તેઓ હૃષ્ટ–તુષ્ટ યાવત્ હૃદયવાળા થઈને नयां ठेशीकुमार श्रभणु हृता त्यां न्याव्या (केसिं कुमारसमण ं वदति, · अहापडिरून उग्गह' अणुजाणति) त्यां भावीने तेमले शुभार श्रमलुने बहना उरी नभस्टार र्या भने यथा दयनीय वस्तुओ तेथे श्रीने आयी. (पाडिहा 'रिएण' जात्र संधारण' उवनिमतति) तेभर समर्पणीय यावत् संस्ता२४ वगेरे - अर्थाने तेथेोश्रीने उपनिभ त्रितय. (णाम गोय पुच्छति ओधारेंति, एग'त' अवक्कमति, अन्नमन्न एवं व्यासी) नाम - गोत्र पूछयां गने तेने हृदयभां धारएणु र्या, त्यारपछी ते सर्वे तमां गया त्यां वर्धने तेभो परस्पर या प्रमाणे वातशीत ४री (जस्सण देवाणुपिया ! चित्ते सारही दसण ं कळखेइ, द ंसण ं पत्थेइ, दसण पोहेह, दंसण अभिलस्सेह) हे हेवानुप्रिये! ! ચિત્રસોરથ જેઓશ્રીના નાની ઇચ્છા ધરાવે છે, જેઓશ્રીના દર્શના માટે તે પ્રાર્થના કરે છે, જેઓશ્રીના દાની તે સ્પૃહા ધરાવે છે, જેઓશ્રીના દર્શનાની Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ रामप्रश्नायसूत्र यावद्हृदयो भवति स खलु एप केशीकुमारश्रमणः पूर्वानुपूर्वी चरन् ग्रामानुग्राम द्रवन् इहागतः, इहस प्राप्तः, इह समवसृतः, इहैव श्वेतविकाया नगर्या बहिगवने उद्याने यथामतिरूप यावद् विहरति, तद् गच्छामः खल देवा. नुप्रियाः! चित्रस्य सारथेः एतमर्थ पियं निवेदयामः, प्रिय तस्य भवतु। अन्योन्यस्यान्ति के एतमर्थ प्रतिशृण्वन्ति, यत्रैव श्वेतविका नगरी यत्र व चित्रस्य है, (जस्स ण णामगोयस्ल वि. सबणयाए हट जाव दियए मवई) तथा जिनके नामगोत्र के भी श्रवण से जो हष्टतुष्ट यावत् हृदयबाला होता है (से ण एस केसीकुमारसमणे पुन्वाणुपुलिंब चरमाणे गामाणुगाम दहनमाणे इहमागए) वे ये केशीकुमारश्रमण तीर्थकर परम्परा के अनुसार विचरते हुए एवं एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विहार करते हुए यहां आये हैं। (इह संपशे) यहां प्राप्त हुए हैं। (इहसमोस) यहां समचमृत हुए हैं। (इहेव सेयवियाए णयरीए बहिया उजाणे अहापडिरूवं जाब विहरह) इसी श्वेतांधिका नगरी के बाहर उद्यान में यथाप्रतिरूप अवग्रह प्राप्तकर यावत् विराजते हैं। (त' गच्छामो ण देवाणुपिया। चित्तस्स सारहिस्स एयम पियं निवेदेमो पिय से अवउ) तो हे देवानुप्रियो ! चले और चित्र सारथि के इस प्रिय अर्थ का उनसे निवेदन करें, हमारा यह निवे. दन उन्हें बडा ही प्रिय लगेगा (अण्णमण्णस्स अंतिए एयम पडिसुणे ति) ते मलिलाषा राणे 2. (जस्मण गामगोयम्स वि सवणयाए हतुट्ठ नाव हियए મરૂ) તેમજ જેઓશ્રીના નામ ગેત્રના શ્રવણથી જ જે હણતુષ્ટ યાવત્ હૃદયવાળા थ, 14 छ. (से ण एस केसीकुमारसमणे पुयाणुपुचि चरमाणे गामाणुगाम दुइज्जमाणे इहमागए) तेमाश्री उशीभा२ श्रम तीर्थ ४२ ५२५२२ મુજબ વિચરણ કરતા અને એક ગામથી બીજે ગામ વિહાર કરતાં અહીં પધાર્યા છે. (इह संपत्त) ही प्राप्त थया छ. (इह समोसढे) मी सभपस्त थया छ. (इहेव सेयवियाए गयरीए पहिया उज्जाणे अहापडिस्व जाव विहरइ) આ વેતાંબિકા નગરીની બહારના ઉદ્યાનમાં યથાપ્રતિરૂપ અવગ્રહ પ્રાપ્ત કરીને યાવત્ विराले छे. (त गच्छामो ण देवाणुपिया ! चित्तस्स सारहिस्स एयम पियं निवेदेमो पिय से भबउ) त्यारे हे हेवानुप्रियो ! मापणे चित्र सारथिनी पासे જઈને આ પ્રિય સમાચાર વિષે તેમને ખબર આપીએ. અમારી આ ખબર તેમને भूम मश. (अण्णमण्णस्त तिए एयम पडिसुणेति) मा प्रमाणे तेमा બધા પરસ્પર એક બીજાની વાતને એકમત થઈને સ્વીકારી લે છે. ત્યાર પછી Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवाधिनो टोका' सू. १२० सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् १२३ सोरथेह यत्रच चित्रः सारथिस्तव वोपागच्छन्ति चित्र सारथिं करतलयावद् वर्द्धयन्ति, ए वनवादिषुः-स्य ग्बलु देशानुपियाः दर्शन कान्ति, यावत्-अभिलषन्ति, यस्य खलु नामगोत्रस्यापि श्रवणतया हृष्ट यावद् अवन्ति म खल्वयं के शीकुमारश्रमणः पूर्वानुपू चरन् ग्रामानुग्राम द्रवन् इहैव उद्याने मृगवने समवसृतः यावद् विहरति । सू० १२०॥ टीका-'तएण सेयवियाए' इत्यादि । व्याख्या निगदसिद्धा ॥म. १२०॥ इस प्रकार की बातचीत को वे स्वीकार कर लेते हैं। बाद में (जेणेव सेयंबिया णयरी, जेणेव चित्तस्स सारहिस्म गिहे जेणेव चित्ते सारही तेणेव उवागच्छंति) वे जहां श्वेतांबिका नगरी थी और उसमें भी जहां चित्र सारथि का गृह था एवं वहां पर भी जहाँ चित्र सारथी था वहां पर आये (चिन सारहि करयल जाव बद्धावति, एव वयासी) वहां आकर के उन्होंने चित्र सारथि के प्रति बडे विनय के साथ अपने दोनों हाथों की अंजलि बनाकर उसे मस्तक पर से घुमाते हुए नमस्कार किया. तथा जयविजय शब्दों का उच्चारण कर उसे बधाई दी और फिर ऐसा कहा-'जस्स ण देवाणुप्पिया! दसण क'ख'ति, जाच अभिलसंति, जस णं णामगोयस्स वि सवणयाए हट्ट जाव भवति, से ण अयं केसीकुमारममणे पुवाणुपुन्धि चरमाणे गामानुगाम दुइजमाणे इहेब मियवणे उजाणे समोस जाब विहरइ) हे देवानुप्रिय! आप जिसके दर्शन की चाहना रखते हैं, यायत् अभिलाषा रखते हैं तथा जिसके नामगोत्र के भी श्रवण से भी आप हृष्टतुष्ट यावत् हृदय वाले हो जाते हैं वे ये केशीकुमारश्रमण पूर्वानुपूर्वो से विचरते हुए, एक ग्राम से सेय चिया णयरी, जेणेव चित्तस्स सारहिस्स गिहे जेणेव चित्ते सारही तेणेव उचागच्छति) तम्मा यां dilist नगरी ती अन तमा यो भिसाथी ता त्यां मया. (चित्तंसारहि करयल जाव वद्धावति, एवं वयासी) त्या पांयीन તેમણે ચિત્રસારથિને બહજ નમ્રપણે બન્ને હાથની અંજલિ બનાવીને અને તેને મરતક પર ફેરવીને નમસ્કાર કર્યા તેમજે વિજ્ય શબ્દનું ઉચ્ચારણ કરીને તેને धामी भाची. मने पछी तेने मा प्रभार ४द्यु. (जस्सण' देवाणुपिया ! दसण खति. जाव अभिलसति, जस्स ण णामगोयस वि सवणयाए हट्ट जाव भवति, से ण' अय' केसीकुमारसमणे पुन्वाणुपुदिन चरमाणे गामानुगाम दुइज्जमाणे इहेव मियवणे उज्जाणे समोसढे जाव विहरई) ॐ देवानुप्रय ! તમે જેઓશ્રીના દર્શનની ઈચ્છા ધરાવતા હતા, યાવત્ અભિલાષા રાખતા હતા. તેમજ જેઓશ્રીના નાસગોત્રના શ્રવણ માત્રથી જ તમે હૃષ્ટતુષ્ટ યાવત હૃદયવાળા Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ - राजप्रश्नायमूत्रे मूलम्--तएणं से चित्ते सारही तेसि उजाणपालगाणं अंतिए एयम सोचा णिसम्म हट्तुद्र जाव आसणाओ अब्भुटेइ पायपीढाओ पच्चोरुहइ, पाउयाओ ओसुयइ, एगलाडियं उत्तरासंगं करेइ, अंजलिमउलियग्गहत्थे-केनिकुमारसमणाभिमुहे सत्तष्ट्रपयाई अगुगच्छइ, कायलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिकट्टु एवं बयासी-नमोऽत्थुण अरहंताणं जाव संपत्ताणं, नमोऽत्थुगं केलिस्स कुमारसमणस्स मम धम्मायरियस्ल धस्सोवदेसगस्स, वंदामि णं भगवंतं तत्थगयं इहगए, पासउ मे तत्थगए इहगयं तिकडु वंदइ नमसइ, ते उज्जायपोलए वि:लेणं वत्थगंधमल्लालंकारेणं सकारेइ सम्माणेइ विउल जीवियारिह पीइदाणं दलयइ पडिविलज्जेइ । कोडुंबियपुरिसे सदावेइ, एवं क्यासी -निष्पामेव भो देवाणुपिया ! चाउग्घंट' आसरह जुत्त मेव उवटुवेह जाव पञ्चप्पिणह। तएणं ते कोडुंबियपुरिला जाब खिप्पामेव सच्छतं सज्झयजाव उवटुवित्ता तमाणन्तियं पञ्चप्पिणंति तएणं से चित्ते सारही कोडवियपुरिसाणं अंतिए एयमटुं सोचा निसम्म हट्टतुट जाब हियए हाए कयवलिकम्से जाव सरीरे जेणेव चाउग्धंटे जाव दुरूहित्तो सकोरंट० महया भडचडगरः तं चेव जाव पजुवासइधम्मकहा ।सू,१२१ । दूसरे ग्राम में विहार करते हुए यहां मृगवन' नामके उद्यान में आये हुए हैं यावत् तपं और सयम से आत्माको भाबित करते हुए ठहरे है। - . इसकी व्याख्या मूलार्थ के जैसी ही है ॥ १२०॥ થઈ જાઓ છે તેઓશ્રી કેશકુમારશ્રમણ પૂર્વાનુપૂર્વીથી વિચરણ કરતાં એક ગામથી બીજે ગામ વિહાર કરતાં અહીં મૃગવન નામના ઉદ્યાનમાં પધારેલા છે. યાવત્ તપ અને સંયમથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતા વિરાજે છે. આ સૂત્રની વ્યાખ્યા મૂલાઈ પ્રમાણે જ છે. ૧૨ના Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधिनी टोका. सूत्र १२१ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजयणनम् १२५ १ छाया--ततः खलु स चित्र: मारथिः तेषानुद्यानपालकानामन्तिके एत मर्थ श्रुत्वा निशम्य हृष्ट तुष्ट यावद् आस नाद अभ्युत्तिष्ठति प्रायादपीठा त्प्रत्यवरोहति पादुके. अवमुञ्चति एकशाटिकसुत्तरासङ्ग' करोति, अलिमु. कुलिताग्रहस्तः के शिकुमार श्रमणाभिमुखः सप्ताष्टपदानि अनुगच्छति करतल परिगृहीत शिरआवर्त मस्त के ऽञ्जलिं कृत्वा एत्मवादीत-नमोऽस्तु . खलु बएण से चित्ते सारदी' इत्यादि। मन्त्रार्थ-(तएण से चित्ते सारही तेमि उज्जाणपालगाण अनिए एममट्ठ) इसके बाद वह चित्र सारथि उन उद्यानपालकों के पास से इस अर्थ मो-वृत्तान्त को (सोचा निलम्म हहतुह जीव आसगाओ अइ) मुनकर एवं उसे हृदय में धारण कर रहुन अधिक हृष्ट एक संतुष्ट चित्त हुआ यावत् वह अपने आसन से उठा. (पायपीहाओ पंचोल्हा) और पादपीठ-(चरण रखने का आसन) के उपर पग रखकर वह नीचे उतरा (पाउयात्रो ओमुयइ) पादुकाएं उसने उतार दी (एगसाडिय उत्तासंगं करेइ) एकाटिक उत्तरायग किया। (अंजलिम उलियग्गहत्थे के सिकुमारममणा भिहे मत्तदृपयाई अणुगच्छद) फिर उसने अपने दोनों हाथों को जोडकर अंजलि रूप में परिवर्तित किया और केशीकुमारश्रमण के अभिमुख होका अर्थात् जिस ओर केशीकुमार श्रमण विराजमान थे उस ओर सात आठ पंग तक आगे जाकर (करयलपरिगहिय सिरसावत्त मत्थर अंजलि कई एवं वयासी) वहां जाकर उसने अपने दोनों हाथों की बडे विनय के साथ । 'तरण से चिसारहो' इत्यादि । सूत्रार्थ:-(त एण) से चित्ते सारही तेसिं उज्जाणपालगाण आतिए एयम) त्या२ पछी ते शिरसाथि ते धानपान भुमथी २! मथ ने वृत्तांतने (सोच्चा निसम्म हुतु जाव आसणाओ अन्सुढे इ) सामजीने मने तनयमा ધારણ કરીને ખૂબજ હર્ષ અને સંતુષ્ટ ચિત્તવાળથે યાવતને પિતાના આસન પરથી ઉભો થા. (पायपीहाओ पचोरुहइ)मने पापी (4 भूपानु भासन विशेष)५२ प भूननीय 51र्या' (पाउयाभो ओमुघइ) भने यसमा पाईरेसी पापडीयो Gतारी सीधी. (एगसाडिय उत्तरासंग करेइ) 03 Aler Sत्तरास ध्यो. (अंजलिमउलियग्गहत्थे केसिकुमार समणाभिमुहे सत्तट्टपाइ अणुगच्छइ) त्यार पछी तणे पोताना पन्ने डाय। જોડીને અંજલિ બનાવી અને કેશકુમારશ્રમણની સામે મુખ કરીને એટલે કે જે દિશા તરફ કેશીકુમાર શ્રમણ વિરાજમાન હતા તે તરફ સાત આઠ પગ સુધી સામે गया. (करयलपरिगाहिय सिरसावत्त मत्थए अंजलि कटु एवं बयासी) Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ राजप्रश्नोयसूत्रे अद्भयो यावत्-सम्पाप्तेभ्यः, नमोऽस्तु खल केशिने कुमारश्रमणाय मम धर्माचार्याय धर्मोपदेशकाय, वन्दे खलु भगवन्त तत्रगतमिहगतः पश्यतु मे नत्रगत इहगतम्. इति कृन्ना बन्दने नाम्यति, नान् उद्यानपालका विपु. लेन वस्त्रगन्धमाल्यालङ्कारेण सत्करोति संमान यति विपुलं जीविताई पीतिदान ददानि प्रति विसर्जयति । कौडम्बिकपुरुषान् शब्दयति, एवमवादीतअंजलि बनाई और उसे मस्तक पर से तोन बार घुनाकर इस प्रकार पाठ पढने लगा-(नमोऽत्थुग अरहताग जाव संपाताण', नमोत्थुण केसिम्स कुमारसमणस्स मम धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्त, वदामिण भगवंत नत्यगय इहगए) अर्हन्त भगवन्तों को नमस्कार हो यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हुए हैं. मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक केशीकुमारश्रमा को नमस्कार हो. यहां रहा हुआ मैं यहां पर मृगवनोद्यान में विराजमान आपको नमस्कार करता हूं। (पासउ में तत्थगए इहगयं तिकडे बंदई नम. मइ) वहां रहे हुए वे भगवान् यहाँ रहे हुए मुझे देखे इस प्रकार कहकर उसने बन्दना की, नमस्कार किया, (ने उज्ज्ञाणपालए विउलेणवत्थगधमलालंकारेण सकारेइ) इस तरह परोक्ष विनय करके फिर उसने उन उद्यानपालकों का विपुल वस्त्र गध. माला एवं अलकारों से सत्कार किया (मम्माणेड) सन्मान किया (चिउलं जीवियारिह पीइदाण दल यह) और अन्त में उनके लिये विपुल मात्रा में जीविकायोग्य पीतिदान दिया (पडि विमसेइ) फिर ત્યાં જઈને તેણે પિતાના બન્ને હાથની ખૂબ નમ્રપણે અંજલિ બનાવી અને તેને મસ્તક પર ત્રણ વખત ફેરવીને આ પ્રમાણે તે પાઠનું ઉચ્ચારણ કરવા લાગ્ય– (नमोऽत्थुणं अरहताणं जाव संपत्तागं, नमोत्थुगं केसिस कुमारसमणस्म मम धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगम्स वदामि णं भगवंत तत्थगयं इहगए) અહંત ભગવંતને મારા નમસ્કાર છે કે જેઓશ્રીએ યાવત્ સિદ્ધિગતિ. નામકસ્થાનને પ્રાપ્ત કર્યું છે. મારા ધર્માચાર્ય ધર્મોપદેશક કેશીકુમારશ્રમણને નમસ્કાર છે. અહીંથી त्य भृगवनायधामा विमान मा५श्रीन नभ२४॥२ ४३ छु. (पोसउ में तत्थगए इहगय त्तिक चंदा नमसइ) त्यi (पराभान . भगवान २मडी • विधमान भने दुये २मा प्रमाणे ४हीन तेणे ना ४ नमः॥२ ४ा. (ते उज्जा णपालए विउलेणं बत्थगंधमल्लालंकारेणं सकारेइ) 21 प्रभाग ५२।विनय કરીને તેણે તે ઉદ્યાનપાલકોને વિપુલ વસ્ત્ર, ગંધ, માળાઓ અને અલંકારે વડે सा२ ४या. (सम्माणेइ) सन्मान यु..(उल जीवियारिह पीईदाण दलयइ) मने छवटे तेभन पिपुर मात्रामा वि योग्य प्रीतिहान मा यु. (पडिविसज्जेइ) Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टोका. सू. १२१ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् .. १२७ क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः ! चतुघण्टमश्वर युक्तमेव उपस्थापयन यावत् प्रत्यर्पयत। ततः खलु ते कौटुम्बिापुरुषा यावत् क्षिप्रमेव सच्छत्र सध्वनं यावत् उपस्थापयित्वा तामाज्ञप्तिकां प्रत्यर्पयन्ति । ततः खलु स चित्र:सारथिः कौटुम्बिकपूरुपाणामन्तिके एतसर्थ श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्ट यावद हृदयः स्नातः कृतवलिकर्मा यावत्-शरोर: यत्रैव चातुर्घण्टो यावद् दूरुह्य सको. रण्ट० महता भटचटकर० तदेव यावत् पर्युपास्ते धर्मकथा ॥१० १२१ ॥ विसर्जिन कर दिया (कोडुबियपुरिसे सहावेइ ) तदनन्तर :सने अपने आज्ञ - कारी सेवकों को बुलाया (सदावित्ता एव वयासी) बुलाकर उनसे ऐसा कहा (खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! चाउरबंट' आमरह जुत्तामेव उहवेह जाव चप्पिणेह) हे देवानुप्रियो ! तुम लोग शीघ्र ही चार घंटों वाले अश्वस्थ को घोडाओं से युक्त कर के उपस्थित करो, यावत् फिर हमें इसकी खबर दो (तएण ते कोडवियपुरिसा जाब खिप्पामेव मच्छत सज्झय जाच उपदृवित्ता तमाणत्तियं पचप्पिणति) इसके बाद उन कौटुम्बिक पुरुपोंने यावत् बहुत ही शीघ्र छन्त्र एवं ध्वजा से युक्त कर के उस चार घंटौवाले अश्व. रथ को घोडाओं से युक्त कर उपस्थित कर दिया और पीछे इस खया को उसके पास दिया. (लएण से चित्रो सारनी कोड्ढदियपुरिसाण अतिए एयमढे सोचा निसम्म हतूह जाव हियए हाए करवलिकम्मे जार सरीरे चाउरघटे आसरहे जाव दुरुहिता सकोरंट० महया भडचडगर ० तं चेव जाव पज्जुवासइ धम्मकहा) तर उस चित्र सारथिने कौटुम्बिक त्यार पछी तेमने (वसति यो, (कोड वियरिसे लदाबेइ) त्या२ मा तेणे aircut माज्ञारी सेवा मालाव्या. (सावित्ता एवं वयामी) गोसावीन तेमने मा प्रमाणे ह्यु. (विप्पामेव भो देवाणुपिया ! चाउघंट आसरह जुत्तामेव उबट्टवेह जाब पञ्चप्पिणह) र वानुप्रियो ! तमे दो सत्वरे या२ टीवी અશ્વરથને ઘડાઓથી સજજ કરીને અહીં ઉપસ્થિત કરે, યાવત્ પછી અમને ખબર भाषा. (तए णं ते कोडावियपुरिसा जाब विप्पामेव सच्छत सज्झयं जाव उबवित्ता तामाणत्तियं पचप्पिणति) त्या२ पछी ते टुगि ५३षाये यावत શીધ્ર છત્ર અને ધ્વજાથી સુસજિજત કરીને તે ચાર ઘંટાઓવાળા એશ્વરથને ઘેટાઓથી યુકત કરીને ઉપસ્થિત કર્યો. અને તેની ખબર પણ તેની પાસે પહોંચાડી દીધી. (त एणं से चित्ते सारही कोडबियपुरिसाण अतिए एयम सोचा निसम्म हतुष्ट जाव हिजए हाए कयबलिकम्मे जाव सरीरे चाउग्घटे आसरहे मात्र दुरुहित्ता सकोरंट० महया भड चडगर त चेत्र जाव पज्जुवासइ धम्मकहा) ते चित्र साथिये डी पीना भुमथी २५ वरथ या२ २४ पानी Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजत्रे 'तरणं से चित्ते' इत्यादि । - व्याख्या निगदसिद्धा । नवरम्-चित्र सारथिगमन वर्णन मेकादशाधिकशततमसूत्रे, विलोकनीयम् ॥ १२१ ॥ मूलम् तपणं से चित्ते सारही केसिकुमारसमणस्स अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हट्ट तहेव वयासी एवं खलु भंते! अम्हं पएसी राया अधम्मिए जाव सयस्स विणं जणवयस्स नो सम्मं करभरवित्ति पत्ते, तं जणं देवाणुप्पिया ! पएसिस्सरपणो धम्ममाइकखेजा बहुगुणतरं खलु होजा पएसिस्स ०णो तेसिंगं च बहूणंदुपय चउप्पयमयपसुपक्खिसरिसवाणं, तेसिं च बहूणं समणमाहण १२८ पुरुषों के मुख से अश्वरथ के तैयार हो जाने की बात सुनकर और उसे हृदय में धारण कर हृष्टतुष्ट यावत् हृदय होते हुए स्नान किया, बलिकर्म-अर्थात्- काकआदि पक्षियों के लिये अन्न का भाग दिया यावत् बहुमूल्य अल्पभारवाले आभूषणों से अलंकृत शरीर होकर जहां चार घटोंवाला अश्वरथ था वहीं आया. यात उस पर वह बैठ गया. उसके बैठते ही छत्रधारीने उस पर कोरण्डपुष्पों की माला से युक्त छत्र तान दिया, विशाल भटों की भीड आकर उसके दोनों ओर उपस्थित हो गई. वहां पहिले का अवशिष्ट और सब कथन करना चाहिये, यावत् उसने केशिकुमारश्रमण की पर्युपासना को केशिकुमारश्रमणने धर्मोपदेश दिया | टीकार्थ - इसकी व्याख्या स्पष्ट है। नवर - चित्रसारथी के गमन का वर्णन १११वे सूत्र में देखना चाहिये ॥ म्र. १२१ ॥ વાત સાંભળીને અને હૃદયમાં ધારણ કરીને હટ-તુષ્ટ યાવતુ હૃદયવાળા થઇને સ્નાન કર્યું. ખલિકમ એટલે કે કાપડા વગેરે પક્ષીઆને માટે અન્ન ભાગ અર્પિત કર્યાં. ચાવત્ બહુમૂલ્ય અલ્પભારવાળા આભૂષણૈાથી પોતાના શરીરને અલંકૃત કર્યાં અને ત્યાર પછી તે જ્યાં ચારઘટાત્રાળા અન્ધરથ હતા ત્યાં આવ્યા. યાવત્ તેમાં બેસી ગયા. તે બેઠાં ત્યારે છત્રધારીઓએ કેરટ પુષ્પોની માળાથી ચુકત છત્ર તેની ઉપર તાણ્યું, તે વખતે વિશાળ ચાદ્ધાઓની ભીડ તેની આસપાસ આવીને એકઠી થઇ ગઇ. બી પડેલાં ન’ જેમજ બધું કથન સમજવું જોઈએ યાવત્ તેને કેશકુમારશ્રમણની... પર્યુ - પાસના કરી, કૅશિકુમારશ્રમણે ધર્માપદેશ આપ્યું. ટીકા—આ સૂત્રનો સ્પષ્ટ જ નંવર ચિત્રસારીનું ગમનનું વર્ણન ૧૧૧ મા સૂત્ર પ્રમાણે સમજવુ જોઈએ ! ૧૨૧૫ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनो टोका सू. १२२ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजोवप्रदेशिराजवर्णनम् १२९ भिक्सुयाणं तं जइ णं देवाणुप्पिया! पएसिसा- बहुगुणत्तरं होजा, सयस्स वि णं जणवयस्स्स ॥ सू. १२२ ॥ छाया--ततः खलु म चित्रः सारथिः केशिनः कुमारश्रम गस्यान्ति के धर्म श्रुत्वां निशम्य हृष्टतुष्ट० तथैव एवमवादीत्-एवं खलु भदन्त! अस्माकं प्रदेशी राजा अधार्मिकः याग्त् स्वकस्यापि खलु जनपदस्य नो सम्यक् कर भरनिं प्रयत यति तद् यदि बल्लु देवानु प्रेय ! प्रदेशिने राजे धर्ममा. ख्यायात् (तदा) बहुगुणतरं खलु भवेत्, प्रदेशिनो राज्ञस्तेषां च बहूनां द्विपद व पदमृगपशुपक्षि वीमागां, ते च बहूनां श्रमग माहनभिक्षुका 'तए ण से चित्ते सारही' इत्यादि । 'मूत्रार्थ--(तए ण) इसके बाद (से चित्तै सारही) उग्न चित्र सारथिने (केमिस्प कुमारसमणस्स) केशीकुमारश्नमण के (अंतिए) पास धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठतु तहेव एवं वयासी) धर्मका उपदेश सुनकर और उसे हृदय में धारण कर हृष्टतुष्टचित्त वाला हुआ एवं आनंद से विभोर होकर प्रीतिमनवाला हुआ. इस तरह परमसौमनग्यित होकर वह बोला (एव खलु भंते ! अम्हं पएसी राया अहम्मिए जाव समरस विणौंजणवयस्स नो सम्मं करभरविति पवतोइ) हे भदन्त ! हमारा प्रदेशी गजा अधार्मिक है यावत् वह अपने देशके प्राप्त कर से भरणपोषणरूप व्यवहार को ठीक तरह से नहीं चलता है(त' जइ ण देवाणुप्पिया! पएसिरस रष्णो धम्ममाइक्खेज्जा बहुगुणतर होजा, पएसिम्स रणो तेसिं च बहूण दुपयचउप्पयमियपसुपक्खिसरीसवाण) तो 'तए ण से चित्ते सारही' इत्यादि । सूत्रार्थ-(तए ण) त्या२ पछी (से चित्त सारही) ते चित्र सारथीये (कसिस्स कुमारसमणस्स) शोभा२ श्रभानी (तिए) पाथी (धम्म' सोचा निसम्म हस्तुट्ट० तहेव एवं ग्रासी) धर्मविर उपदेश सामनीन. मने तेन। હદયમાં ધારણ કરીને હષ્ટ-તુષ્ટ ચિત્તવાળે થય અને આનંદિત થઈને પ્રીતિયુકતમનવાળે थया. २मा प्रमाणे ५२मसोमनास्थित थने ते माल्या. (एवं खलु भते.! अम्हं पएयी राया अहम्मिए ज़ाव सयस्स विण जणक्यस्स नो सम्म करभर-- विनि पवतो इ) त ! ममा प्रदेशी An Aधामि छ यावत् ते. पाताना દેશના લેકે પાસેથી કર મેળવીને પણ પ્રજાનું ભરણ-પોષણ–તેમજ રક્ષણ કરતા નથી. (तजइ ण देवाणुप्पिया! पएसिस्स रणो धम्ममाइक्वेज्जा बहुगुणतरं होज्जा, पए सिरस रणो तेसिंच बहण. दुपयचउप्पयमियपसुपक्खिसरीसवाण) Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीयसत्रे णाम् । तद् यदि खलु देवानुप्रिय ! प्रदेशिनो बहुगुणतरं भवेत्, स्वकस्यापि च खल जनपदस्य ॥ मू० १२२ ॥ टीका-'तए णं से चित्ते' इत्यादि-ततः तदनन्तरं ग्वल म चित्र: सारथिः केशिनः कुमारश्नमणस्य अन्तिके समीपे धर्म जिनोक्तं श्रुत्वाकर्ण गोचरीकृत्य निशम्य हावार्य हृष्टतुष्ट तथैव-पूर्व वदेव हृष्टतुष्टचित्तानन्दितः भीतिसनाः परमलामनस्यितः हर्षवश विसर्पहृदयः, इति संग्रात्यम् । अर्थस्तु पूर्व गतः। एबमवादीत-किमवादीत् ? इत्याह-एवं खलु यत् हे मदन अस्माकं प्रदेशी राजा अधार्मिक यावत्-यावत्पदेन-अधर्मिष्ठादीनि सर्वाणिविशेषणालि एकशततमसूत्रोक्तानि संग्राह्याणि, एषामर्थोऽपि तत्रैव विलोयदि आप हे देवानुप्रिय ! उस प्रदेशी राजा को जिनप्ररूपित धर्म का उपदेश देखें तो वह उस प्रदेशी राजा के लिये और परलोक में वहुत गुणकारी होगा, तश अनेक द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी एन सरीसृपसर्प आदिकों का हितावह होगा (तेसिं च बहुण समणमाहणभिक्खु. याण) और उन अनेक श्रमण माहणे, भिक्षुकों के लिये वहत ही अधिक लाभदायक होगा (तं जइ ण देवाणुपिया ! पएसिस्स बहुगुणतर होजा, सयस्स विय ण जणवयस्स) यदि वह धर्मो देश प्रदेशी राजा का हितकारक हो जाता है तो उसके जनपद-देश का.इससे वडा भला होगा। टीकार्थ. इसको स्पष्ट है। हद्वतः तहेव एवं वयासी' में तथैव' पद से 'हृष्टतुष्टचित्तानन्दितः, प्रीतिमनाः, परमसौमनस्थितः, हर्ष वशविसरदयः' इस पाठ का ग्रहण हुआ है, इन पदो का अर्थ पहिले लिखा जा चुका है। "अहम्मिए जाव' में आगत पद से' 'अधर्मिष्ठ' आदिक विशेषणों का गृहण જે આપ દેવાનુપ્રિય તે પ્રદેશ રાજાને જિન પ્રરૂપિત ધર્મને ઉપદેશ આપે છે તે પ્રદેશી રાજાને આ લોક અને પરલોક અતીવ ગુણકારી થાય અને ઘણાં દ્વિપદ, ચતુ પદ, મૃગ, પશુ, પક્ષી અને સરીસૃપ એટલે કે સાપ વગેરેના માટે પણ હિતાવહ થાય. (तेसिं च बहूण समणमाहणभिक्खुयाण मने ते घ! श्रम भाडा भिक्षुहीना भाटे पाणु माती हितापड अर्थ थाय. (तं जइ ण देवाणुप्पिया ! पएसिस्स बहुगुणतर होज्जा, सयस्स वि य ण जणवयस्स) ने आपने धपिटेश अशी शत पाताना જીવનમાં ઉતારે તે તેનું પિતાનું અને તેના જનપદ–દેશનું પણ તેનાથી ઘણું કલ્યાણ થાય તેમ છે. या सूत्रार्थ स्पष्ट ०१. छ. "ह 8 तहेव वयासी 'मां' तथैव" ५४थी "हृष्टतुष्टचित्तानन्दितः प्रीतिमनाः परमसौमनस्यितः, हर्षवश. विसपद्धदयः" मायने। सड थये। छे. २मा सवपहोना अर्थ पडदा स्पष्ट ४२वामा माया छ. "अहम्मिए जाब" मां मावस यावत् यथा 'अधष्टिः ' Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सू. १२२ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजोवप्रदेशिराजवण'नम् १३१ कनोयः, स स्वकस्यापि जनपदस्य देशस्य करभरवृत्ति-करेण भरः-भरणपोषण', तद्रूपां वृत्ति व्यवहार नो सम्यक् प्रवर्त्तयति, तद् यदि खलु हे देगनुपिय ! प्रदेशिने राज्ञे भवान् धर्म जिनपरूपितम् आख्यायात्-कथयेत् तदा प्रदेशिनो राज्ञः बहुगुणतरम्-इहलोकपरलोकसफलीकरणलक्षण दयादानादिरूपं वाऽत्यन्तगुण भवेत् ! तथा बहूनां द्विपदचतुष्पदमृगपशुपक्षिसरीसृपाणाम्-तत्र-द्विपदाः दासीदासादयः चतुष्पदाः ये मृगा: आरण्याः,पशवः ग्राम्या गोमहिष्यादयः, सरीसृपाः भुजपरिसः-गोधादयः उरःपरिसश्चि सदियः, तेषां बहुगुणतरपालनरक्षणरूपं भवेत् तथा-श्रमणमाहनभिक्षुकाणाम-तत्र श्रमणाः शाक्यादयः,माहना: ब्राह्मणाः, भिक्षुकाभिक्षाजीविनः तेषां च बहुगणतरम् भिक्षालाभरक्षणादिरूपमतिशयगुण भवेत् । तत् यदि खलु भदन्त ! प्रदेशिनो राज्ञो बहुगुणतरं भवेत् तदा तस्य स्वकस्यापि जनपदस्य देशस्य बहुगुणतर योगक्षेमलक्षण भवेदिति ॥ मू० १२२ ॥ हुआ है। ये सब विशेपण १०१ मूत्र में कहे जा चुके हैं। वहीं पर उनका अर्थ भी लिख दिया है। 'बहुगुणतरम्' का तात्पर्य उस प्रदेशी राजा को इस लोक एवं परलोक को सफल करनेरूप बहुगुण वाला अथवा, दयादा. • नादिरूप अत्यन्तगुणवाला होगा। दासीदास आदि द्विपद से, भृगादि चतुष्पद से, ग्राम्य गोमहिप आदि पशुपद से, भुजपरिसर्प गोधादिक, एवं उरः परिसर्प सादिक, सरीसृप पद से गृहीन हुए हैं। इन द्विपदादिकों का पालन रक्षणरूप बहुतरगुणवाला वह धर्मोपदेश होगा. शाक्यादिक श्रमण शब्द से ब्राह्मण माइन शब्द से, तथा भिक्षानीवी भिक्षुक पद से लिये गये हैं। इन सबके लिये भिक्षालाभ एव संरक्षणादिरूप अतिशय गुणवाला वह धर्मोपदेश होगा ॥.१२२॥ વગેરે વિશેષણોનું ગ્રહણ સમજવું જોઈએ. આ બધા વિશેષણે ૧૦૧ મા સૂત્રમાં भावेदा छ. मेनो म पण ते सूत्रमा २५८ ४२वामां मा०ये। छ. 'बहुगुणतरम्' નો અર્થ આ પ્રમાણે છે કે તે ધર્મોપદેશ તે પ્રદેશી રાજાના માટે આ લેકને તેમજ પલેકને સફળ બનાવવા રૂપ બહુગુણવાળો થશે અથવા તે દયા દાન વગેરે રૂપ અત્યંત ગુણવાળે થશે. દ્વિપદથી દાસી દાસ વગેરે ચતુંપદથી મૃગ વગેરે, પશુપદથી ગ્રામ્ય મહિષ વગેરે, સરિસૃપ પદથી ભુજપરિસર્પ ગોધાદિક અને ઉર પરિસર્પ– સપૉદિકનું “સરીસૃપા પદથી ગ્રહણ થયું છે. આ દ્વિપદ વગેરેના માટે પાલન રક્ષણરૂપ બહતર ગુણવાળે તે ધર્મોપદેશ થશે. શ્રમણ શબ્દથી શાક્ય વગેરે, માહન શબ્દથી બ્રાહ્મણ તેમજ ભિક્ષુકપથી ભિક્ષાજવીનું ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે. આ સર્વના માટે સંરક્ષણ તેમજ ભિક્ષા લાભ વગેરેથી અધર્મોપદેશ અતિશય ગુણવાળો થશે. સૂ૦ ૧રરા . Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजमायसूत्रे मृन्दम्-नाणं से केसीकुमारसमणे चित्तंसारहिं एवं बयासीएवं बन्ट चउहि ठाणेहि चित्ता ! जीव केवलिपन्नत्तं धम्म नो लभेजा, रवणयाग, न नहा- आरामगय वा उजाणगयं वा समणं वा माह बाणो अभिगच्छद णो वंदइ णो णमंसइ णो सहारेइ णो लामाणेड णो कटाणं संगलं देवयं चेइय' पजुवासेइ, नो अदाइ उई परिणाइ. कारणाई वागरणाई पुच्छेइ. एएणं ठाणेणं चित्ता ! जीव कंवलिपन्ननं धम्म नो लभइ सवणयाए । (१) उवस्तयगय मग बान चेव जाव पाणवि ठाणे चित्तो ! जीवे केवलिपन्नत्त धम नो लभड लवणवाए । (२) गोयरग्गगयं समणं वा माहणं वा नी जाव पवासइ,नो विउलेणं असण.पाणखाइमसाइमेणं पडिलामा० नो अटाई जाव पुच्छड , एएणं ठाणेणं चित्ता ।जीवे केवलि- . पन्नन घन्म नो लभइ लवणयाए । (३) जत्थ वि णं समणेणं वा माणेण वा सद्धि अभिसमागच्छ तत्थवि ण हत्थेण वा वत्थेण बा शेण वा अप्पाणं आवरित्ता चिट्टइ, नो अटाई जाव पुच्छइ, यि चाणण चित्ता ! जीवे केवलिपन्नत धम्म' णो बमा नवप्रयाग, (१) पाहि च ण चित्ता ! चउहि ठाणे िजीव नो लभइ कलिपन्नत धम्म सवणयाए । चम. टा. चिना : जीई केवलिपन्न धम्म लभद सरणका नं .) आरामग वा उन्नाणगयं वा समगं वा माहणं यादा नमसा जाब पवासह अनाई जाब पुच्छड़, पण टाणेण मिाजी कवलिपन्नत धन लभह सबणयाए । एवं [२] उव मगर [4] गोबरगग समणं वा जाब ६ वासड़. बिउलेग जाय Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ सुबोधिनी टीका सु. १२३ सूर्याभदेवस्य पूर्व नवजीवन देशराजवणनम् पडिलाइ अट्ठाई जाव पुच्छइ, एएण वि० (४) जत्थ वियणं समणेण वा० अभिसमागच्छइ लत्थवि य णं णो हत्थेण वा जाव आवरेत्ता चिट्ठेs, refa ठाणे चित्ता ! जात्र के लिपन्न तं धर्ल्स लभइ सवणयाए । तुझं चणं चित्ता ! एसी राया आरामगयं वा चेव संव्व' भाणियव्य आइएणं गमएणं जाव अप्पाणं आंवरेता चिट्ठ त' कह ण चित्ता! एसिस्स रन्नो धम्प्रमाइ क्खिस्लामो ? ॥ सू०१२३ ॥ तद्यथा छाया - ततः खलु केशी कुमारभनणः चित्र सारथिम् एवमवादीत्-एवं खल चतुर्भिः स्थानैः चित्र ! जीवः केवलिप्रज्ञप्त धर्म न लभने श्रवणता, नां (१) आरामगत वा उद्यानगतं वा श्रमण' वो माहन' वा नो अभिगच्छति, वन्दते नो नमस्यति, नो सत्करोति, नो सम्मानयति नो कल्याणं मङ्गल दैवत ं चैत्यं पर्युपास्ते, अर्थात् हेतून प्रश्नात् कारणानि व्याकरणानि पृच्छति ײן : 'तरण' से केसीकुमारममणे' इत्यादि । सूत्रार्थ (तए णं से) इसके बाद (केसीकुमारसमणे) केशी कुमारभ्रमण ने (चित्त' सारहिं) चित्र सारथि से (एवं बयासी) ऐसा कहा - ( एवं खलु चउर्हि ठाणेर्हि चित्ता ! जीवे केवलिपन्नत्तं धम्मं नो लभेज्जा सत्रणयाए) हे चित्र !. जीव चार कारणों से केवलिप्रज्ञप्त धर्म को सुन नहीं सकता है । (तं जहाआरामगयं वा उज्जाणगय वो, समणं वाणो अभिगच्छह, णो वंदह, पो. सह, णो सकारे, णो सम्माणेड, कल्लाणं मंगलं देवय' चेइय' पज्जुवासेद) ' जैसे- आराम में आये हुए या उद्यान में आये हुए श्रमण के वो माह के 'तण' से केसीकुमारसमणे' 'इत्यादि । ' 1 सूत्रार्थः- (त एण) त्यार पछी - (केसी कुमारसमणे) भारश्रम चित्त' सारहि ) चित्रसारथिने ( एवं वयासी) या प्रमाणे ' 'ह्यु' (एंत्र' खलु ' चउहिँ " ठाणेहिं चित्ता ! 'जीवे केवलिपन्नत धम्म नो लभेज्जा सवणंयाए) हे चित्र ! लंब यार भरणाने 'सीधे जैवसी प्रज्ञप्तं धर्मतु श्रमरी रातो नथी. (त जहांणो आरामगय' वा उज्जाणगयौंवा, समेणं वा माहणं वा णो अभिगच्छई, णो व देइ, णमंसंह, णो सक्कारेइ, 'गो सम्माणेड़, जो कल्लाणं मंगल देव चेइव' पज्जुवासइ) प्रेम याराममां पधारेला उद्यानभां पधारेसा श्रमा महाणुंनी Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ राजश्रीसूत्रे एतेन स्थानेन चित्र ! जीवः केवलमजस धर्म नो लभते श्रवणतायै । (२) आश्रयगन' श्रमण वा तदेव यावत् एतेनापि स्थानेन चित्र ! जोवः केवलिप्रज्ञप्त धर्म नो लभते श्रवणतायै । (३) गोवराग्रगत' श्रमण वा माहन वा सन्मुख सत्कार आदि करने के निमित्त जो नहीं जाता है, मधुर वचनों से जो सुखशातादि मनपूर्वक उनकी स्तुति नहीं करता है, उनके समक्ष अपने मस्तक को जो नहीं झुकाना है, अभ्युत्थानादि द्वारा जो उनका सत्कार नहीं करता है, वसति आदि के देने से जो उनका सन्मान नहीं करता है, तथा कल्याणस्वरूप, मंगलग्वरूप, धर्म देवस्वरूप मानकर एवं विशिष्टज्ञान वाला मानकर जो उनकी पर्युपासना नहीं करता है, (नो अड्डाई, हेक३' परिणाइ. कारणाइ, वागरणाई पुच्छे३) अर्थ को - जीवाजीवादिक पदार्थों को, हेतुओं को अन्यथानुपपत्तिरूप साधनों को, प्रश्नों को, कारणों को, व्याकरणों को, नहीं पूछता है, (एएणं ठाणेणं चित्ता ! जीवे केवलिपन्नत्त धम्मनो लभइ सवणयाए) इस कारण से हे चित्र ! जीव केवलिपज्ञप्त धर्म को सुन नहीं सकता है। यह प्रथम कारण है । (१) ( उवस्सगय समणं वा तं चैत्र, जात्र एएणं वि ठाणेणं चित्ता ! जीवे केवलिपन्नन्तं धम्म नो लभइ सवयणयाए ) उपाश्रय में आये हुए भ्रमण के सत्कार आदि करने के निमित्त जो उनके समक्ष नहीं जाता है यावत उनसे व्याकरणों को नहीं पूछता है, ऐसा जीत्रइस द्वितीय कारण से भी के वलि प्रज्ञप्त धर्म को सुन नहीं सकता है । (२) સામે જે સત્કાર વગેરે કરવા માટે જતા નથી, મધુર વચનોથી સુખશાતાદિ પ્રશ્નપૂર્વક તેમની સ્તુતિ કરતા નથી, તેમની સામે પાનાનુ' મસ્તક નમ્ર ભાવે નમાવતા નથી, અભ્યુત્થાન વગેરે વડે જે તેમને સત્કારતા નથી, વસતિ વગેરેઆપીને તેમનું સન્માન કરતા નથી તેમજ કલ્યાણુ સ્વરૂપ, મંગળસ્વરૂપ, ધર્મ દેવસ્વરૂપ માનીને અને વિશિષ્ટज्ञान सयन्न मानीने ने तेभनी पर्युपासना १२तो नथी. (नो अट्ठाई, हेऊड़, पसि णाइ, कारणोइ वागरणाइ, पुच्छेइ) अर्थाने व अव वगेरे चहार्थेने, हेतुओने अन्यथानुपपत्तिज्ञ्य साधनाने,प्रश्नीने अरथेने, व्य२शोने पूछतो नथी,(एएण ं ठाणेण चित्ता ! जीवे केवलिपन्नत्तं धम्म नो लभइ सवणयाम्) हे चित्र ! म अरथुने લીધે જ જીવ કેવલિ પ્રજ્ઞપ્ત ધર્મનું શ્રવણુ કરી શકતા નથી. આ પહેલ કારણ છે. (૧) (उवस्तयगयं समणं वा तं चेत्र, जात्र एए णं वि ठाणेण चित्ता ! जीवे केवलिपन्नत्तं धम्म, नो लभइ सवणयोए) उपाश्रयमां पधारेसा શ્રમણ કે માણના સત્કાર વગેરે કરવા માટે જે તેમની સામે જતા નથી. યાવત તેમને વ્યાકરણા વિષે પ્રશ્ન કરતા નથી. આ જાતના જીવ આ ખીજા કારણથી પણ કેવલિપ્રજ્ઞપ્ત ધર્માંનુ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ***== १३५ सुबोधिनी टोका. १२३ सूर्याभदेवस्य पूर्व भव जीवप्रदेशिरजवर्णनम् नो यत् पर्युपास्ते नो विपुलेन अशनपान वाद्यसाधन प्रतिलम्भयांन० नो अर्थात् यावत् पृच्छति, एतेन स्थानेन चित्र ! जीवः केच लिपज्ञस धर्म नो लभते श्रवणतायै । (४) यत्रापि खलु श्रमणे वा मानेन वा सार्द्धम् अभिपनागच्छति, तत्रापि खलु हस्तेन वा वस्त्रेण वा छत्रेण वा आत्मानमादृत्य तिष्ठति, नो अर्थात् यावत् पृच्छति एतेनापि स्थानेन चित्र ! जीवः केवलिप्त' धर्म नो लभते श्रवणनाय, एत खलु चित्र ! चतुर्भिः स्थानैर्जीवः नो लभते के लिमज्ञप्तं धर्म श्रवणतायै ॥ (गोयगय समयं वा माहणं वा नो जात्र पज्जुवासई, नो विउलेणं असणपाणवाइम साइमेण पडिला भइ० नो अट्ठाई जान पुच्छड़ . एए ठाणेण चित्ता ! जीवे केवचिपन्नत्तं धम्मं ने लभइ सवणयाए) गोचरी के लिये - भिक्षा के लिये गाँव में आये हुए श्रमण के या माहण का जो सत्कार आदि करने के निमित्त उनके समक्ष नहीं जाता है, यावत् उनकी पर्युपाना नहीं करता है. तथा विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्यरूप चार प्रकार के आहार द्वारा जो उन्हें प्रतित्राभिन नहीं करता है, और जो अर्थ से लेकर व्याकरगतक उनसे नहीं पूछना है वह जीव हे चित्र ! इस तृतीय कारण से भी केवलज्ञप्त धर्म को सुन नहीं सकता है (३) (जस्थत्रिण समणेण वा माहणेण वा सद्वि अभिमागच्छ तत्थ विणं हत्थे वा वत्थे वा छतणवा, अपाण आवरित्ता चिह्न, नो अट्ठाई जात्र पुच्छ. एएण वि० ठाणेण वित्त ! जीवे केवलिपन्नत्तं धम्म गोलभावणया एएडिं चिन्ता ! चउहिँ ठा हि जोवे नो लभड़, केवलपन्नन्तं धम्म सवणपाए) इसी श्रवस्युरी शतानथी. (२) (गोयरग्गगयं समण वा सहणं वा नो जाब पज्जुनासह, नो विउलेणं असणवाणखाइमसाइमेणं पडिलाइ० नो अट्ठाई जाब पुच्छर एए णं ठाणेण चित्ता ! जीवे केवल पन्नत्त धम्म लभड़ सवणया) गोथरी भाटे लिक्षा भाटे गाभमां आवेला श्रभाणु भाइ वगेरेना સત્કાર વગેરે કરવા માટે જે તેમની સામે જતા નથી, યાવતુ તેમની પયુ પાસના કરતા નથી, તેમજ વિપુલ અશન, પાન, ખાદ્ય, સ્વાદ્યરૂપ ચાર પ્રકારના આહારવડે જે તેમને પ્રતિલાભિત કરતા નથી અને જે અર્થથી માંડીને વ્યાકરણ સુધીના બધા વિષયેાના બાબતમાં તેમને પ્રશ્નો પૂછતા નથી. હું ચિત્ર! તે જીવ આ ત્રીજા કારણુવડે. પણુ विति प्रज्ञा धर्म श्रवण उरी राहतो नथी ( 3 ) ( जत्थ विण समणेणं वा - माहणं वा सद्धिं अभिसमागच्छ, तत्थ विण हत्थे वा त्ये वा त् वा, अप्पा आवरिता चिट्ठा, नो अट्ठाई जाव पुच्छर, एएण .त्रि ठाणें चित्ता ! जीवः केवलिपन्नन्तं धम्मं णो लभइ सवणयाए एएहिं चणं चित्ता ! चर्हि ठाणेहिं जीवे नो लभइ, केवल पन्नन्तं भम्म' सचणयात्) या प्रमाणे Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ राजप्रश्नोयसूत्रे चतुर्भिः स्थान चित्र ! जीवा के बलिप्रज्ञप्त' धर्म लभते श्रवणतायै, नद्यया (१) आरामगत वा उद्यानगतं वा श्रमणं वा माहनं वो बन्द ते नमस्यति यावत् पर्युपास्ते, अर्थान् यावत् पृच्छति, एतेन स्थानेन चित्र ! जीवः केवलिप्रलप्तं धर्म लभते श्रवणतायै, एवं (२) उपाश्नयगतम् । (३) गोचराग्रान भात वा पकार जो श्रमण अथवा माहन के साथ संगत हो जाता है वहां पर भी यह श्रमण अथवा मान सुझो पहिचान न लें इस हेतु से जो अपने आपको हाथसे चा वस्त्र से या छत्र से आत कर लेना है ए। उनले प्रश्नादि कुछ भी नहीं पूछता हैं हे चित्र ! इस चतुर्थ कारण से भी जीव केवलिमज्ञप्त धर्म को सुन नहीं पाता है. (४) इस प्रकार हे चित्र ! ये चार कारण हैं कि जिनकी वजह से यह जीव केवलो भगवान् द्वारा कहे गये धर्म को सुन नहीं पाता (चउर्हि ठाणेहिं चित्ता! जीवे के वलिपन्नत्त धम्म लभइ सवणयाप) हे चित्र! चार कारणों से जीव के वलि जप्त धर्म को सुन सकता है (तं जहाआरामगयं वा उजागगयं वा समणं वा माहणं वा वंदड, नमसइ जाव पज्जुवासइ) वे चार कारण इस प्रकार से हैं-आरामगत या उद्यानगत श्रमण को या माहण को जो वंदना करता हैं नमस्कार करता है, या यत् उनकी पर्युपासना करता है (अट्ठाईजाब पुच्छह) अर्थो को यावत् पूछता है. (एएण ठाणेण चित्ता!. जोवे के वलिपन्नत्तं धम्म लभइ सवणयाए) इस कारण को लेकर हे चित्र ! वह जीव केवलि प्रज्ञप्त धर्म को सुन सकता (१) है, एव' (उक्स्सगये) इसी प्रकार जो जीव उपायों में आये हुए श्रमण જે શ્રમણ કે માહણની સામે આવી જતાં તે શમણ કે માહણ તેને ઓળખી લે નહિ તે માટે જે પિતાની જાતને હાથવડે, કે વય વડે કે છત્રવડે છૂપાવી લે છે અને તેમને પ્રશ્ન વગેરે કંઈ પૂછતું નથી તે ચિત્ર! આ ચેથા કારણથી પણ જીવ કેવલિ પ્રજ્ઞપ્ત ધર્મનું શ્રવણ કરી શકતો નથી.(૪) આ પ્રમાણે છે ચિત્ર. આ ચાર કારણેને दीधे व वलीमापान 43 सा धर्म व ४२री -शत नथी. (चउहि ठाणेहि चित्ता!'जीवे' केवलिपन्नत धम्म लभासवणयाए) रयित्र! यार अशाथी पति-प्रशस्त धनु या. रीश 2. (न' जहा--आरामगय वा उज्जाणगय वा समण वा माण वा, वंदई, नमसइ जांच पज्जुवामइ) ते ચાર કારણે આ પ્રમાણે છે.-આરોમમાં પધારેલા કે ઉદ્યાનમાં પધારેલા શ્રમણને કે भाने २ वहन ४२ छ नम२४१२ ४२ छ, यावत् तेमनी युपासना ४३ छ: (अट्ठाइ जाव पुच्छइ) अर्थाने याक्तू पूछ छ. (एएण ठाणेण चित्ता! जीवे केवलि पन्नतं धम्म लभइ सवणयाए) मा २४ने सीधे त्रि! ते Bale अंशत Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टोका. सू. १२३ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् १३७ यावत पर्युपास्ते, विपुलेन यावत् प्रतिलम्भति, अर्थान यावत् पृच्छति, एतेनापि०, (४) यत्रापि च खलु श्रमणेन चा० अभिसमागच्छति तत्रापि च खल नो हस्तेन वा यावत आकृत्य तिष्ठति, एतेनापि स्थानेन :चित्र ! जीव: केबलिप्रज्ञा धर्म लभते श्रवण नाय, नाच खलु चित्र ! प्रदेशो राना आरामगतं वा तदेव सर्व भणितव्यम् आदिमेन गमकेन यावद् आत्मानमात्यतिष्ठति, तत्कथं खलु चित्र ! प्रदेशिने रातें धर्ममाख्यास्यामः ? ॥०१२३।। से या माण से उनको वन्दना करता हुआ, नमस्कार करता हुआ, पर्युपामना करता हुआ अर्थो को यावत्- पूछता है, ऐसा जीव केवलिपज्ञप्त धर्म को सुन सकना है. (२)(गोयररगगय समण वा जाव पज्जुवालई, विउ. लेणं जाव पडिलाभेइ, अट्ठाई जाव पुच्छइ, एएण वि०) इसी प्रकार जो जीव गोचरीगतश्रमण की या माहण की योवत् पर्युपासना करता है, विपुल आहार से उन्हें प्रतिलाभित करना है, उनसे अर्थों को यावत् पूछता हैवह जीव के वलिमजप्त धर्म को सुन सकता है, (३) (जत्थ वि य णं समणेण वा० अभिसमागच्छइ, तत्थ वि य ण णो हत्थेण चा जाच आवरेत्ता चिटई) जहां पर भी श्रमण या माहण के साथ संगत होता है वहां पर जो जीव अपने आप को हाथ से यावत् आयत्त छुपाना नहीं है ऐसा वह जीव इस चतुर्थ कारण को लेकर केवलिप्रजप्त जिनधर्म का श्रषण कर सकता है (४) (तुज्झ' च णं चित्ता! पएसी राया आरामगयं वा तं चेव सन्न भाणियन आइल्लएणं गमएणं जाव अपाणं आवरेत्ता चिट्ठइ तं कहं ण चित्ता! धनुश्रवणुछ.(१) मे प्रमाणे (उम्मयगय) मा प्रमाणे रे या માં આવેલા શ્રમણોને કે માહનોને વન્દન કરતે, નમસ્કાર કરતા, પર્યુંપાસના કરો, અને યાવત્ પૂછે છે, એવો જીવ કેવલિપ્રજ્ઞ ધર્મનું શ્રવણ કરી शुई छ (२)गोयरममयं समग वा जाव पज्जुवासा, विउलेण नाव पडिलाइ, अट्ठाइ जाव पुच्छइ, एएण वि.) या प्रमाणे २ लगायरी भाटे नाणेसा श्रमानी કે મહિણની ચાવત્ પ્રjપાસના કરે છે.વિપુલહારથી તેમને પ્રતિલાભિત કરે છે. તેમને भयो विधे यावत पूछ छ: सित श्रवण ४२ छे..(३) (जत्थ वि यणं समर्णण वा अभिसमागच्छइ तत्थ वियणंणो हत्येण चा जाव आवरेत्ता चि? इ) SभY - म गमे त्या भणे. व तेयाश्रीनाने यातानी. जतने પોતાના હાથો વડે યાવતું આવૃત કરતો નથી એવો તે જીવ આ ચેથા કારણને લીધે पनि प्रशस्त निर्मनु श्रवण ॥ शंछ. (१) (तुज्झ च णं चित्ता ! पएंसी ‘राया आरामगयं वा त चेच सर्व भाणियच आइल्ल एण' गमएण जाव Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ राजप्रनीयसूत्रे . = 3 'टीका- 'तएण केसी' इत्यादि - ततः खलु केशीकुमारश्रमणः चित्र सारथिम् एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत उक्तवान् हे नि ! एवं खलु त्वं विजानाहि, यत् चतुर्भिःस्थानैः = कारणैः जीवः केवलिमाप्त = तीर्थ कृदुपदिष्ट धर्म श्रवणता = श्रोतुं नो लभते = नो माप्नोति तद्यथा - आरामंगतम् - आरामः = विविध पुष्पजात्युपशोभितः त्र गत = प्राप्तवा, उद्यानगतम् - उद्यानं = पुष्पफलोपेतवृक्षोपशोभितं बहुजनसेव्यम् उद्यानिकास्थान = तत्र गतं प्राप्तं वा श्रमणं साधु वा माहनधारित ras' वा नो अभिगच्छति=सत्काराद्यर्थं नो अभिमुखं याति नो वन्दते = एसिस रन्नो धम्ममा क्विसामो ) हे चित्र ! तुम्हारा प्रदेशीराजा आराम श्रादिगत श्रमण के या माहण के न सन्मुख आता है यावत् न उनकी पर्युपासना वरता है, इत्यादि प्रथम गम से लेकर वह चौथे गम तक युक्त बना हुआ है तो फिर मैं उसके लिये किस प्रकार से केवल धर्म का उपदेश दूँ ! टीकार्थ - केशीकुमारश्रमणने चित्र सारथी से जो कुछ कहा है वह इस सूत्र द्वारा प्रकट किया गया है - इसमें यह समझाया गया है कि कौन जीव किन २ कारणों से केवलज्ञप्त धर्म सुन सकता है और कौन जोव किन २ हीं कारणों से उसे नहीं सुन सकता है. केवलमज्ञप्त धर्म की अप्राप्ति में प्रथम कारण यह हैं कि श्रमण या माहण - १२ व्रतों का पालनकर्तागृहस्थ जब किसी उद्यान में विविध पुष्पों से या फलों से युक्त, ਭਲੀ से शोभित ऐसे अनेकजनसेव्य बगीचे में या आराम में विविध प्रकार की अप्पा आवरेता चिइ त कहं णं चित्ता ! पएसिस्स रन्नो धम्ममाह - क्खिस्सामो) हे चित्र ! तभांश प्रदेशी शब्न गराम ! उद्यानां आवेला श्रभशु કે માહણુની સામે સત્કારવા જતેા નથી યાવતુ તેમની પ પાસના પણ કરતા નથી અને આ પ્રમાણે તે પ્રથમ ગમથી માંડીને ચેાથા ગમથી યુકત ખનેલા છે તે પછી હું તેને કેવલિપ્રજ્ઞબંધર્મનો ઉપદેશ કેવી રીતે આપું ? ટીકા-કેશીકુમાર શ્રમણે ચિત્રસારથીને જે કઇ કહ્યુ છે તે આ સૂત્ર વડે ' સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે. આ સૂત્રવડ આ પ્રમાણે સમજાવવામાં આવ્યું છે કે કયા જીવ શા શા કારણેાને લીધે કેવલિપ્રજ્ઞપ્ત ધર્મનુ શ્રવણ કરી શકે છે અને કયા જીવ શા શા કારણેાથી તેનુ' શ્રવણ કરી શકતા નથી. કેવલિપ્રજ્ઞપ્ત ધર્મની અપ્રાપ્તિમાં પહેલ કારણ એ ખતાવવામાં આવ્યુ છે કે શ્રમણ માહણ-૧૨ વ્રતનુ પાલન કરનાર ગૃહસ્થ-જયારે ગમે તે ઉદ્યાનમાં-વિવિધ પુષ્પાથી કે ફળોથી યુક્ત. વૃક્ષોથી શાલિત श्रत वनसेव्य णशीयामां है आराममां ने नतनी युष्प लतियोथी युद्धत Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टोका. सूत्र १२३ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् .. १३९ मधुरवचनैः सुखशातादिप्रश्नपूर्वक नो स्तौति, नो नमस्यति नतमस्तको न भवति, नो सत्कारयति अभ्युत्थादिना, नो सम्मानयति वसत्यादिपदानेन, कल्याग मङ्गलं दैवत चैत्यम्' तत्र-कल्याण कल्याणस्वरूपम, मङ्गलंमङ्गलस्वरूपम्, दैवत-धर्म देवस्वरूपम, चैत्य-चितिः विशिष्टज्ञान, तयायुक्त विशिष्टज्ञानवन्त मत्वा नो पर्युपास्ते-नो सेवते. अर्थान हेतून प्रश्नान् कारणानि व्याकरणानि नो पृच्छति । तत्र-अर्थान् जीवाजीवादिपदार्थान्, हेतून=धन्यथा नुपात्तिमान् , जीवा देवादिगति कथं पाप्नुवन्ति-इति स्वरूपान्, आत्मना सह कर्मणः कथं सम्बन्धो जायते? इति रूपान् घा, प्रश्नानसंशयानोदार्थ जीवाजावादिरूपप्रच्छनावेषयान, कारणानि जीवस्य ज्ञानादि त्रय केन कारणेनोत्पद्यते?' इत्यादिरूपाणि, यद्वा-'चातुर्गतिलक्षणसंसारभ्रमणं पुष्पजाति से युक्त स्थान में आया हुआ हो, तब उस समय जो जीव उनकी सत्कृति निमित्त उनके सामने नहीं जाता है, मधुर वचनों से उनकी मुग्वशाता नहीं पूछता है, उनको स्तुति नहीं करता है, उनके पास नत. मस्तक नहीं होता है, अभ्युत्थान आदि क्रिया से उनका सत्कार नहीं करता है, वसति आदि प्रदान द्वारा कल्याणस्वरूप, मंगलस्वरूप, धर्म देवस्वरूप, एवं विशिष्ट ज्ञानयुक्त उन्हें मानकर जो उनकी सेवा नहीं करता है. उनसे अर्थों को-जीवाजीवादि पदार्थों को, अन्यथानुपपत्तिरूप हेतु को, जैसे कि जीव देवादिगति में कैसे जाते हैं अथवा-आत्माके साथ कर्मो का संबंध होता है ऐसे हेतु को.-प्रश्नों को-संशयादिकों को दूर करने के लिये जीव अजीव श्रादि के स्वरूप को पूछनेरूप प्रश्नों को जीवको ज्ञानादित्रय किस कारण से उत्पन्न होते हैं इत्यादिरूप कारणों को, अथवा चतुर्गतिरूप संसारभ्रमण किस कारण से होता है? इत्यादिरूप कारणों को, पृष्ट क-जीवादिक के स्वरूप में સ્થાનમાં આવેલા હોય, ત્યારે તે સમયે જે જીવ તેમના સત્કાર માટે તેમની સામે જતો નથી, મધુર વચને વડે તેમની સુખ શાતા પૂછતો નથી, તેમની સ્તુતિ કરતા નથી, તેમની સામે નમ્રભાવે મસ્તક નમાવતે નથી અભ્યથાન વગેરે ક્રિયાથી તેમને સત્કાર કરતા નથી, વસતિ વગેરે આપીને તેમને કલ્યાણ સ્વરૂપ, મંગલસ્વરૂપ, ધર્મદેવસ્વરૂપ, અને વિશિષ્ટ જ્ઞાનયુકત માનીને જે તેમની સેવા કરતા નથી, તેમને અથને જીવાજીવાદિ પદાર્થોને, અન્યથાનુપપત્તિરૂપ હેતને, જેમકે જવ દેવાદિ ગતિ કેવી રીતે મેળવે છે કે આત્માની સાથે કર્મનો સંબંધ હોય છે એવા હેતુને, પ્રશ્નને–સંશયવગેરેને દૂર કરવા માટે જીવે અજીવ વગેરેના સ્વરૂપને જાણવા બાબતના પ્રશ્નોને જ્ઞાનાદિત્રય જીવને કેવી રીતે પ્રાપ્ત થાય છે વગેરે રૂપ કારણોને, અથવા તે ચતુર્ગતિ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ween १४० স্নাযা केन कारणेन भवति' इत्यादि रूपाणि, व्याकरणानि-पृष्टम्य जीवादिस्वरूपस्य उत्तरतया प्रश्नान्तर करणरूपाणि, तानि नो पृच्छति-पतेन स्थानेन-क.रणेन चिन ! जीवः केवलिपजप्त धर्म अवणतायै श्रोतु नो लाते-इति प्रथम क्या. नम् १श द्वितीयमाह-उपाश्रयगतम्-उपाश्रयो वसतिः, नत्र गन श्रमण वा, इनो ऽग्र-'मानवाइत्यारभ्य 'व्याकरणानि पृच्छति' इत्यन्तः सकलोऽपि पूर्वोक्तः पाठो ग्राह्यः अमूमेवार्थ मुचयितुमाह-त चेत्र जाव' इति । हे चित्र-! एनेनाऽपि स्थानेन=कारणेनजीवः केवलिमज्ञप्त धमै श्रवणताये-श्रोत नो लभते इनि द्वितीय स्थानम् २। तृतीयमाह-गोचराग्रगत=भिक्षार्थ ग्रामाभ्यन्तरे प्रविष्ट श्रमणं वा माहनं वा नो 'यावत्' यावत्पनेन-'अभिगच्छति. नो बन्द ने, नो प्राप्त किये गये उत्तर में पुनः प्रश्नान्तर करनेरूप व्याकरणों को, नहीं पूछता है, इस कारण से जीव केवलिमजप्त धर्म को सुन नहीं सकता है इस प्रकार से यह प्रथम स्थान का निरूपण है। द्वितीयस्थान का कारण निरूपण इस प्रकार है-उपाश्रय-में जाकर श्वमण को, अथवा मारण को. जो जीव प्राप्त करके यावत् व्याकरणों को नहीं पूछता है, हे चित्र ! इस कारण से भी जीव के बलिप्राप्त धर्म को मुन नहीं पाता है, यहां 'त' चेव यावत्' पद ले 'माइन' वा' यहां से लेकर व्याकरणानि पृच्छनि' वहाँ तक का सम्पूर्ण पाठ ग्रहण किया गया है। इसी अर्थ की सूचना 'त चेन जाव' पद से दी गई है। तृतीयस्थान इस प्रकार से है-श्रमण या माहन भिक्षा के लिये ग्राम के भीतर आया हो, परन्तु जो जोव उनके समक्ष नहीं जाता है, उनको वन्दना नहीं करता है उन्हे नमस्कार नहीं करता है. उनका રૂપ સંસારભ્રમણ શા કારણથી હોય છે વગેરે રૂપ કારણોને, પૃષ્ઠ જીવાદિકના સ્વરૂપ વિષે જે ઉત્તર આપવામાં આવે તે વિષે ફરી સામે પ્રશ્નોત્તર કરવા રૂપ વ્યાકરણને પૂછત નથી, આ કારણથી જીવ કેવલિ પ્રજ્ઞપ્તિ ધર્મનું શ્રવણ કરી શકતો નથી. આ પ્રમાણે આ પ્રથમ સ્થાનનું નિરૂપણ છે. દ્વિતીયસ્થાનના કારણનું નિરૂપણ આ પ્રમાણે છે. ઉપાશ્રયમાં જઈને શ્રમણને કે માહણને પ્રાપ્ત કરીને જે છેવ ચાવંતુ વ્યકિરણોને પૂછતો નથી. હું ચિત્ર'! આ કારણથી પણ જીવ કેલિપ્રપ્ત ધર્મનું શ્રવણ કરી शत नथी. मी "त चेव यावत् १४या 'माहन वा माथी भान व्याकरणानि पृच्छति" माडी सुधाना संपूर्ण पा8 अंडण वाम माव्या छ. मेर मर्थन 'त चेव जाव' पहथी सूचित ४२वामी आये. छ. तृतीय स्थान या प्रमाणे છે-શ્રમણ કે માહણ ગેચરી માટે ભિક્ષા માટે–ગામમાં આવેલાં હોય એવી. પરૂિ સ્થિતિમાં જે જવ તેમની સામે જ નથી, તેમને વંદન કરતો નથી તેમને નમસ્કાર Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवाधिनी टाका सू १२३ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशोराजवर्णनम् १४१ नमस्यति, नो सत्कारयति, नो स मानयति, नो कल्याण मङ्गलदैरत चैन्यम्, इति संग्रायम्, पर्युपास्ते, तथा-विपुलेन-प्रचुरेग अशनपानखाद्यस्वाधेन अशनादिना चतुर्विधेनाहारेण नो प्रतिलम्भयनि-अशनादिक श्रमणाय माहनाय वा नो ददाति, अर्थान यात्-‘यावत्पदेन-हेतून् प्रश्नान् कारणानि व्याकरणानि' इति संग्राह्यम् नो पृच्छति। एतेन-उपयुक्तन कारणेन हे चित्र ! जीवः केवलि प्रज्ञान धर्म श्रवणतायै श्रोतु नो लमते-इति तृतीयं स्थानम् ३॥ चतुर्थस्थानमाह-यत्रापि='स्मिन् कम्मिश्चदपि स्थाने खलु श्रम णेन-साधुना वा महानेन-द्वादशत्रधारिणा वा म ई-सह अभिसमागच्छति संगतो भवति, तत्रापि स्वलु 'अयं श्रमगोवा-माहनो वा मां न परिचिनुयात्' इति हेत: आत्मान स्वहस्तेन वा वस्त्र वा छत्रण वा आकृत्य-आच्छाद्य तिष्ठति नो अनि यावत् पृच्छति । एतेनापि स्थाने न कारणेन चित्र ! जीवः सत्कार और सन्मान नहीं करता है, तथा कल्याणरूप, मंगलरूप, धर्मदेवरूप मानकर तथा विशिष्टज्ञानयुक्त मानकर उनको सेवा नहीं करता है, तथा विपुल-प्रचुर-अशन, पान खाद्य, स्वाधरूप चतुर्विध आहार से उन्हे प्रतिलाभित नहीं करता है, अर्थात् श्रमण के लिये माहन के लिये जो चतुर्विध आहार नहीं देता है, एवं अर्थो को, हेतु को, पनों को, कारणों को तथा व्याकरोणों को उनसे नहीं पूछता है इम उपर्युक्त कारण से हे चित्र ! जीव केवलिपज्ञप्त धर्म को नहीं सुन सकता है। चतुर्थस्थान इस प्रकार से है-चाहे जिस किसी भी स्थान में साधु या माहन-१२ व्रतधारी श्रावक के साथ संगत हो जावे-परन्तु वहाँ पर भी वह जीव अपने आपको हाथ से, या वस्त्र से, या छत्र से. ढक लेता है इस ख्याल से कि महाराज मुझे पहिचान न ले और न उनसे अर्थादिकों કરતો નથી, તેમનું સન્માન અને સત્કાર કરતા નથી તેમજ તેમનું કલ્યાણરૂપ મંગળરૂપ, ધર્મદેવ સ્વરૂપ માનીને તથા વિશિષ્ટ જ્ઞાનયુકત માનીને તેમની સેવા કરતા નથી તેમજ વિપુલ પ્રચુર અશન, પાન, ખાદ્ય, સ્વાદ્યરૂપ ચતુર્વિધ આહાર વડે તેમને પ્રતિલાભિત કરતું નથી. એટલે કે શ્રમણને કે માહણને જે ચતુર્વિધ આહાર આપતા નથી ‘તથા અર્થોને, હેતુઓને પ્રશ્નોને કારણોને તથા . વ્યાકરણાને તેમને પૂછતો નથી આ ઉકત કારણથી હું ચિત્ર !. જીવ - કેલિપ્રત ધર્મનું શ્રવણ કરી શકતા નથી. ચતુર્થ સ્થાન આ પ્રમાણે છે-ગમે તે સ્થાને સાધુ કે મહિન–૧૨ વ્રતધારી શ્રાવક મળે ત્યારે જે જીવ પિતાની જાતને મહારાજ અમને ઓળખી લે નહિ તેવા વિચારથી હાથવડે, કે વસ્ત્રવડે, કે છત્રવડે સંતાડી દે છે અને તેમને અર્થકો વિષે પણ પૂછતો નથી Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ राजप्रश्नीयसूत्रे केबलिपज्ञप्त' धर्म मणतायै श्रोतु न लभते-इति चतुर्थ स्थानम् ४। सम्प्र. श्युपसंहरन्नाह-एतैश्चतुर्भिः स्थानः खलु चित्र ! जीवः केवलिपक्षप्तं धर्मश्रवणताय श्रोतुं न लभते-इति। ___ इत्थ केबलिप्रज्ञप्तस्य धर्मस्यालामे चतुर्विध कारणमुक्तवा सरप्रति तल्लाभे चतुर्विध कारणमाह-चहि' इत्यादि। हे चित्र ! चतुर्भिः स्थान: कारणैः जीवः केवलिप्रज्ञप्तं धर्म श्रवणता-श्रोतुं लयते, तयथा-'आरामगनं वा' इत्यादि । के वलिप्रज्ञप्तधर्मालामे यानि चत्वारि स्थानानि पोकानि, तान्येवात्र तद्वपरोत्येन विज्ञेयानीति। को पूछता है-तरे ऐसा जीव इस कारण से भी केवलिप्रज्ञप्त धर्म को सुन नहीं पाला है. अब केशीकुमार श्रमण उपसंहार करते हुए कहते हैं कि हे चित्र! जीवको धर्मलाभ होने में ये चार कारण बाधक हैं। इनके होने रखे जीव को केबलिप्रज्ञाप्त धर्म की प्राप्ति नहीं होती है। इस तरह केवलिप्रज्ञप्त धर्म के अलाम में चतुर्विध कारण कहकर अब केशीकुमार श्रमण उलका लाभ होने में चार कारणों का कथन करते हैं 'चउहिँ ठाणेहिं' हे चित्र! चार कारणों से जीव केवलिप्रज्ञप्त धर्म को सुनता है अर्थात केवलिपज्ञप्त धर्म के अलाभ में जो चार कारण प्राट किये गये हैं, वे ही चार कारण विपरीनरूप से आचरित होने पर जीव के लिये धर्मलाभ के कारण हो जाते हैं यही बात १ आरामगय वा उन्जाणगय वा' इत्यादि चार मूत्रपाठ द्वारा प्रकट किया है। તે આ જાતનો જીવ પણ આ કારણથી કેવલિપ્રજ્ઞપ્ત ધર્મનું શ્રવણ કરી શકતો - નથી. હવે કેશીકુમાર શ્રમણ ઉપસંહાર કરતાં કહે છે કે હે ચિત્ર! જીવને ધર્મલાભની પ્રાપ્તિમાં આ ચાર કારણે વિનરૂપે નડે છે. આ સર્વથી જીવને કેવલિપ્રજ્ઞસ્ત ધમની પ્રાપ્તિ થતી નથી. આ પ્રમાણે કેવલિપ્રજ્ઞપ્ત ધર્મના અલાભ સંબંધી ચાર કારણેનું વિવેચન કરીને હવે કેશકુમાર મણ કેવલિપ્રજ્ઞસ્ત ધર્મના લાભ માટે જે ચાર કારણે છે તેમનું ४थन ४२ai ४ छ:-"चउहि ठाणेहि !ि या२ शरणाथी विज्ञत ધર્મનું શ્રવણ કરે છે. એટલે કે કેવલિપ્રજ્ઞપ્ત ધર્મના અલાભમાં જે ચાર કારણે બતાવવામાં આવ્યાં છે, તેજ ચારેચાર કારણે વિપરીત રૂપમાં આચરવામાં આવે તે ते या२ २णी धर्म साल भाटे हपयोगी 20 Mय छ. मेवात "१ आरामैगयं वा उज्जाणगय वा" पगारे यार सूत्रो १३ प्रगट ४२वामी मापी छ. " Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवाधिना टोका' सु. १२३ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् १४३ ___ इत्थ केवलिभज्ञप्तधर्मलाभालाभयोः कारणान्युत्त वा सम्प्रति के बलिप्रज्ञप्तधर्मालाभे यानि कारणानि मन्ति तद्विशिष्ट एवं प्रदेशी राजाऽस्ति स कथ मया धर्मआख्येयः ? इति केशिकुमारश्रमणश्चित्र' सारथिमाह-'तुज्न च गं चित्ता! पएसी राया' इत्यादि। हे चित्र ! तव त्वदीयश्च खलु प्रदेशी राजा आरामगतंबा, 'तं चेव सव भाणियव आइल्लएणं गमएणं जाब अप्पोणं आवरेत्ता चिट्टई' इति पाठेन तदेव सर्व गमकजातं भणितव्यम्. केन गमोल ? इत्याह-'आइल्लएणं' इति आदिमेन गमकेन आलाप केन 'उजाणगय वा' उद्यानगतं वा, इत्यारभ्य 'अप्पा आवरेत्ता चिट्टई' आन्मानमात्य तिष्ठति, इति पर्यन्तं भणितव्यम् । एवं विधात्वदीयः प्रदेशी राजाऽस्ति, तत्कथः केन प्र. कारेण खलु चित्र ! एवं विधाय त्वदीयाय प्रदेशिने राज्ञे वयं धर्मम् आख्यास्यामः उपदेक्ष्याम इति ।मु० १२३॥ मूलम्-तएणं से चित्त सारही केसिकुमारसमण एवं वयासी एवं खल्लुभंते ! अण्णया कयाई कंबोएहिं चत्तारि आसा उवणयं उवणीया, ते मए पएसिस्स रपणो अन्नया, चेव उवणीयातं एएणं खलु भंते ! कारगेणं अहं पएसि रायं देवाणुप्पियाणं अंतिए हव्वमाणेस्लामि, तंमा णं देवाणुप्पिया! तुम्भे पएसिस्स रन्नो धम्ममाइक्खमाणा गिलाएजाह, इस तरह धर्म अप्राप्ति और धर्म प्राप्ति के कारणों को कहकर अब केशीकुमारश्रमण चित्र सारथी के प्रति यह प्रकट कर रहे है कि प्रदेशो राजा केवलिपज्ञप्त धर्म के अप्राप्ति के कारणों से विशिष्ट है अतः मैं उसे किस प्रकार से धर्म का उपदेश दू. यही बात केशीकुमारश्रमण चित्र सारथि से यहां से आगे कहते हैं. 'तुझ च णं चित्ता। पासी राया' इत्यादि मूलार्थ में टीका के अनुसार ही इस सब पाठका अर्थ लिख ही दिया गया है। अतःपुनः यहां नहीं लिखा है ॥मू० १२३॥ આ રીતે ધર્મ અપ્રાપ્તિ અને ધર્મ પ્રાપ્તિના કારણોનું સ્પષ્ટીકરણ કરીને હવે કેશીકુમાર શ્રમણ ચિત્રસારથીની સામે આ વાત કહે છે કે પ્રદેશ રાજા કેવલિ પ્રક્ષપ્ત ધર્મના અપ્રાપ્તિના કારણોથી યુક્ત છે. એથી હું તેને કેવી રીતે ધર્મને ઉપદેશ કરું. मे पात शिभा२श्रम थिसारथीन मा प्रभारी छ-"तुज्झ च णं चित्ता! पएसी राया" पोरे मामा ट प्रभाणी ४ २t मधान विश्वेष ४२वाभी मा०यु छ. मेथी मी समर्थ रामपामा मा०यो नथी. ॥सु. १२७॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ ... ..... गजप्रश्नीय - . .. M . ' ' अगिलाए णं सते! तुन्भे पएलिस्तरपणो धम्ममाइक्वेज्जाह, छदेणं भंते! तुझे पएलिस्स इण्णो धम्ममाइक्खेज्जाह । तएणं से केसी कुमारसमणे चित्तं सारहिं एवं वयाली आवीयाइ चित्ता ! जाणिस्तामो। तएणं से चित्ते सारही केसि कुमारसमणं बंदइ नमसइ जेणेव चाउ. पटे आलरहे तेणेव उवागच्छइ, चाउग्घट आसरह दुरूहइ, जामेव दि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए । सू० १२४ ॥ छाया-ततः वल स चित्रः सारथिः के शिकुमारश्रमण मेवमवादीत्-एवं खलु भदन्त । अन्यदा कदाचित् काम्बोजैः चत्वारः अश्वाः उपनयमुपनीताः ने मया प्रदेशिने राज्ञे अन्यदैव उपनीताः, तद् एतेन खलु भदन्त ! कार. णेल अह प्रदेशिनः राजान देवानुप्रियाणामन्ति के हव्यमानेयाम । तत मा खलु देवानुप्रियाः ! यूय प्रदेशिने राज्ञे धर्म माख्यान्तो ग्लायत, अग्लानाः , 'तएणं से चित्ते मारही' इत्यादि। - मन्त्रार्थ-(तए णं) इसके बादं (सें चित्तें मारही) वह वित्र सारथि (केसिकुमारसमण एवं वयासी) के शो कुमारश्रनग से ऐपा बोला (ए ग्वल भते ! अण्णाया. कयाई कंबोएहि चत्तारि आमा. उवणय उवणीया) हे भदन्त ! किमी एक समय कम्बोजदेशवामियोंने चार घोडे भेटरूप में भेजे थे (ते मए पएसिम्स रणो अण्ण याचेच उवणीया उसे मैंने प्रदेशी राजा के समक्ष भेट में उमी दिन दे दिया (नएए ण खलु भते ! कारणेण अह पमि राय देवाणुप्पियाण अंतिए हव्यमाणेस्सामि) अतः इस कारण से हे भदन्त ! मैं प्रदेशी राजाको आप देवानुप्रिय के पाम बहुत हो शीघ्र 'त एणं से चित्ते. सारही' इत्यादि। .... सूत्रा--(त एण) त्या२ पछी (से चित्ते सारही) त यिन सारथिये (केमिकुमारसमण एवं बयासी) शोभा श्रमाने प्रभारी विनती तां यु-(एवं खलु मते ! अण्णयो कयाई कबोएहि चनारि आसा उवणय उवणीया) महत ! मे मते शिवासी गाय या aisi प्रशी ने लेट भा४८या उता. (ते मएं पएसिस्स रणो अण्ण या चेव उवणीया) ते माने में अशी २० साभे लेट३५मा गतिशीधा छ. (त एएण खल भते ! कारणेण अह पामि राय देवाणुपियाण अतिएं हव्यमाणेस्सामि) મેથી હે “દંત! પ્રદેશી રાજાને આપી દેવાનુપ્રિયની પાસે જલ્દી જ ઉપસ્થિત કરીશું. :: : .:... Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवाधिना टोका सू. १२४ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजोवप्रदेशिराजवर्णनम् १४५ खलु भदन्त ! यूयं प्रदेशिने राज्ञे धर्म माख्यात, छन्देन भदन्त ! यूय प्रदेशिने राज्ञे धर्म माख्यात । ततः खलु स के शीकुमारश्रमणः चित्र सारथिमेवमवादीत-अपि च चित्र ! ज्ञास्यामः । ततः खलु स चित्रः सारथिः केशिनकुमारश्रमण वन्दते नमस्पति, यत्रैव चातुर्घण्टः अश्वरथः तत्रैवो लाऊंगा (तमा ण देवाणुप्पिया ! तुम्भे पएसिस रन्नो धम्म माहक्खमाणा गिलाएजाह) तो आप हे देवानुप्रिय ! प्रदेशी राजा को जिनोक्त धर्म का उपदेश करते समय ग्लानि मत करना (अगिलाए ण भते! तुम्भे पए. सिस्म धम्ममाइक्खेजाह) प्रत्युन अग्लानिभाव से ही हे सदन्त ! आर प्रदेशी राजा को धर्म का उपदेश करना (छंदेण भते ! तुम्भे पएसिस्स रणो धम्ममाउय.खेजाह्) तथा आप अपनी इच्छा के अनुसार ही हे भदन्त ! पदेशो राजा को धर्म का उपदेश देना. उसकी इच्छा के अनुसार नहीं (तए ण से केसीकुमारसमणे चित्त सारहिं एवं क्यासी) तब उन केशी. कुमारश्रमणने चित्र सारथि से ऐसा कहा-(अवियाइ चिता जाणिस्सामो) हे चित्र ! अवसर आने पर देखा जावेगा. आप के कथनानुसार उसे धर्मोपदेश देने का मेरा भाव तो है। (तए ण से चिो सारही केसि कुमारसमण वंदइ, नमसई, जेणेव चाउग्बटे आसरहे तेणेव उवागच्छद) इसके अनन्तर चित्र सारथिने केशीकुमारश्रमण को बन्दना की, नमस्कार किया, और फिर वह जहां चार घंटोंवाला अश्वरथ था वहां पर आया (न माण देवाणुप्पिया! तुब्भे एएमिल रन्नो धन्ममाइक्खमाणा गिलाए ज्जाह) ताइवानुप्रिय ! श्री ते प्रशी शसन निनात भनी पदेश ४२तi शानि मनुल नाड. (अगिलाए ण मते ! तुम्भे पएसिस्स रन्नो धम्ममाइक्खेज्जाह) परतु महत ! २५श्री ते अशी सन. सानिमाथी २४ पदेश ४२२. (छदेज भते! तुमे पएसिस्स रण्णो धम्ममाइक्वखेज्जाह) તેમજ હે ભદત ! આપશ્રી પિતાની ઈચ્છા મુજબ જ પ્રદેશ રાજાને ધર્મોપદેશ કરશે. तनी २छा प्रभारी नहि. (तएण से कसीकुमारसमणे चित्त सारहिं एवं वयासी) त्यारे ते शोभा२ श्रभो त यिसाथिनेमा प्रमाणे ह्यु. (अवियाई चित्ता जाणिस्सामों) हे चित्र ! यित अवस२ मावशे त्यारे न शु तभी ४ा है। ते भु०४५ भारी ५ तमने पहेश ४२वानी मावना छ . (त एण से चित्त सारही केसि कुमारसमण वंदेड, नमसइ, जेणेव चाउग्घटे श्रासरहे तेणेव उवागच्छइ) त्या२ पछी यित्र सारथि शिशुभारश्रमाने ना ४२ नम२४१२ ४ा भने पछी त यार टोथी युत म२थ डतो. त्या माव्या. (चाउग्घंटे Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नोयसूत्रे १४६ पागच्छति, चातुर्घण्टमश्वरथं दूरोहति, यामेव दिश प्रादुर्भूतः तामेव दिश प्रतिगतः ॥ स० १२४ ॥ टीका-'तए ण से चित्ते' इत्यादि-ततःखलु स चित्रा: सारथि के शि कुमारश्रमणमेवमवादोत-एवं खलु हे भदन्त ! अन्यदा कदाचित - करिमश्चित् काले काम्बोज सम्बोजदेशवासिभिः चत्वारः चतुःसख्यकाः अश्वाः उपनय मामृतम् उपनीता प्रापिताः, भाभृतत्वेन दत्ता इत्यर्थः, ते मया अन्यदैव-तस्मिन्नेव काले प्रदेशिने राजे उपनीताः तदेतेन कारणेन खलु हे भदन्त ! अह प्रदेशिन राजान देवानुप्रियाणां भवताम् अन्ति के समीपे हव्य शीघ्रम् आनेष्याधि, तत्-तदा हे देवानुप्रियाः ! प्रदेशिने राजे धर्म = जिनोक्तम् आख्यान्तः कथयन्तः सन्तो यूयं मा ग्लायतमालानिं मा भजत, एतावदेव न प्रत्युत छन्देन=स्वकीयाभिप्रायेण यथेच्छमित्यर्थः हे भदन्त ! यूयं प्रदेशिने राज्ञे धर्मम् आख्यान-कथयत । ततः चित्रसारथेः कथना(चाउरघट आसरह दरुहड, जामेव दिसिं :पाउभए तामेव दिसि पडिगए) यहां आकर वह उस चारघटों वाले श्वस्थपर सवार हो गया और जिस दिशा से आया था, उसी दिशा की ओर चला गया.। टीकार्थ-चित्र सारथिने के शीकुमारश्रनग से ऐसा कहा-हे भदन्त ! किसी एक समय मेरे पास कम्बोजदेशवासियों द्वारा भेजे गये ४ घोडे प्रदेशी राजा के लिये भेंटरूप में आये थे सो मैंने उसी दिन वे घोडे प्रदेशी राजाके लिये शिक्षित कर दिये. इस तरह हमारी उनकी परस्पर में पीति है, इसलिये मैं चाहता हूं कि आप उसे जिनप्रतिपादित धर्म का उपदेश देवें मैं उसे आपके पास शीघ्र ही ले आऊंगा, उपदेश देने में भाप किसी भी प्रकार का संकोच न करें. अपनी इच्छा के अनुसार धर्म __ आसरह. दुरुहइ जामेव दिसिं पाउचूए तामेव दिसि पडिगए) त्यां पायाने તે પિતાના ચાર ઘટવાળા અશ્વરથ પર સવાર થઈ ગયું અને જે દિશા તરફથી તે આવેલ હતું તેજ દિશા તરફ પાછો જતો રહ્યો. * , ટીકાર્થ ––ચિત્રસારથિએ કેશીકુમારશ્રમણને આ પ્રમાણે કહ્યું–હે ભદંત! કઈ એક વખતે મારી પાસે કંજ દેશવાસીઓએ રાજાને ભેટમાં આપવા માટે ઘોડાઓ મોકલ્યા હતા. તેજ દિવસે તે ઘડાઓને પ્રદેશી રાજાને મે અર્પિત કરી દીધા. આમ તેમની અમારી સાથે મિત્રતા છે. એથી જ હું ઈચ્છું છું કે આપશ્રી તેમને જિન પ્રતિપાદિત ધર્મને ઉપદેશ કરે. તેમને હું આપશ્રીની પાસે જલદી લાવીશ. ઉપદેશ આપવામાં આપશ્રી પિતાની ઇચ્છા મુજબ ધર્મની વાત પ્રદેશ રાજાને સંભળાવજે. Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोधिनी टीका सु. १२४ सूर्याभदेवस्य पूर्वनवजीवप्रदेशोराजवणनम् नन्तरं खलु केशीकुमारश्रमणः चित्र सारथिम् एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् अकथयत-'अविआई” अपि च हे चित्र ! ज्ञास्याला अवगमिष्याम: यथावसरं करिष्याम इत्यर्थः, त्वत्कथनानुसारेण करणस्य मम भावो वर्नत इत्याशयः ! ततः खलु स चित्रः सारथिः केशिनं कुमारश्रमणं वदन्ते नमस्यति चातुघण्टाश्वरथसमीपे समागत्याश्वरथमारोहति, यामेवदिशं समाश्रित्य प्रादु. - भूतः समागतः तामेवदिशं प्रतिगतः प्रस्थितः ॥मू० १२४॥ ___ मूलम्--तएणं से चित्ते सारही कल्लं पाउपभायाए रयणीए फुलप्पलकमलकोमलुम्मिलिम्ति अहापंडुरे पभाए कयनियमावस्तए सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलंते साओ गिहाओणिग्गच्छइ, जेणेव पएसिस्स रन्नो गिहे जेणेव पएसी राया तेणेव उवागच्छइ, पएसि रायं करयल-जाव कट्टु जएणं विजएणं वद्धायेइ, एवंवयासीएवं खलु देवाणुप्पियाणं कंबोएहिं चत्तारि आसा उवणयं उवणीया ते य मए देवाणुप्पियाणं अण्णया चेव विणइया, तं एएणं साली! ते आसे आइड्डिए पासइ । तएणं से पएसी राया चित्तं सारहिं एवं वयासी-गच्छाहि णं तुमं चित्ता! तेहिं चेव चउहिं आलेहिं आसरहे जुत्तामेव उवटवेहि जाव पञ्चप्पिणाहि । तएणं से चित्ते सारही पए की बाते उसे सुनावे. चित्र सारथि का इस प्रकार कथन सुनकर केशी. कुमारश्रमणने उससे ऐसा कहा-चित्र ! समय आने पर देखा जावेगा. मेरा भाव अयश्य ऐसा हुआ है कि मैं उसे जिनेन्द्रप्रतिपादित धर्म का उपदेश दू। केशीकुमारश्रमण की इस प्रकार की भावना जानकर चित्र सारथिने उनको वन्दनादिकिये और फिर अपने रथ पर सवार होकर अपने स्थान पर वापिस हो गया, ॥ मू० १२४ ॥ ચિત્રસારથિનું આ પ્રમાણે કથન સાંભળીને કેશીકુમાર શ્રમણે તેને આમ કહ્યું કે હે ચિત્ર ! ઉચિત અવસર આવશે ત્યારે જોઈ લઈશું, મારી એવી ઈચ્છા છે કે હું તેને જિનેન્દ્ર પ્રતિપાદિત ધર્મનો ઉપદેશ કરૂં. કેશીકુમાર શ્રમણને આ જાતની ભાવના જાણીને ચિત્રસારથિએ તેમને વન્દન કર્યા અને ત્યારપછી પિતાના રથ પર સવાર થઈને પિતોના નિ સિસ્થાને પાછો આવતે રહ્યો. સ. ૧૨૪ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नायसूत्र ૧૪૮ सिणा रन्नो एवं बुत्ते समाणे हेतु जाव-हियए उवट्टवेइ एयमाणत्तिय पञ्चप्पिणइ । तएणं से पएसी राया चित्तस्स सारहिरूस अंतिए एयमटुं सोचा णिसम्म हटुतुट-जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसगैरे साओ गिहाओ णिग्गच्छइ, जेणामेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, चाउग्घंटं आसरहं दूरुहइ, सेयवियाए नयरीए मज्झंसञ्झेणं णिग्गच्छइ । तएणं से चित्ते सारही त रह गाइ जोयणाई उभामेइ । तएणं से पएसी राया उण्हेण य तहाए य रहवाएण य परिकिलंते ससाणे चित्तं साराह एवं वयासी-चित्ता ! परिकिलंते में सरीरे परावत्तेहि रहं । तएणं से चित्ते सारही रह परावत्तेइ जेणेव सियवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, पएसिं राय एवं क्यासी-एस गं सामी ! मियवणे उज्जाणे एत्थणं आसणं समंकिलामं सम्मं अवणेमो। तएणं से पएसीराया चित्तं सारहिं एवं वयासी-ए होउचित्ता ।१२५॥ छाया-ततः खलु स चित्रः सारथिः कल्य प्रादुम भातायां रजन्यां फुल्लोत्फुल्लकमलकोमलोन्मीलिते अथाऽऽपाण्डुरे प्रभाते कृत न यमायके सहस्र 'तए ण से चित्ते सारही' इत्यादि। मुत्रार्थ--(तए ण) इसके बाद (से चित्ते सारही) वह चित्रसारथि (कल' पाउप्पभायाए रयणीए) दूसरे दिन जब कि प्रातःकाल के रूप में बदल गई और (फुलुप्पलकमल कोमलुम्मिलियम्मि अहापंडुरें पभाए कयनियमावस्सए) कमल विकसित हो चुके तथा नियम और आवश्यक कृत्य जिसमें लोग कर चुके थे ऐसा पीतधवल प्रभात जब हो गया (सहस्स 'तए ण से चित्ते सारही' इत्यादि। . . . सूत्रार्थ:-(त एण) त्या२ पछी (से चित्त सारही) ते यिसाथि-(कल्ल' पाउप्पभायाए रयणीए) मी विसे न्यारे रात्री प्रात:el ३५मा परिशुत थs 5 मने (फुलुप्पलकमलकोप्नलुम्मिलियस्मि अहापंडरे पभाए कयनियमावस्सए) ४भणी विस पाभ्यां तम नियम अने मा१२३४ इत्यो मा सोही वडे ५॥ ४२वाभा माव्या. मे पीतवर मात यारे थयु (सहस्सरस्सिम्मि दिण यरे - Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सू. १२५ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवण'नम् रश्मौ दिन करे तेजसा ज्वलति स्वाद गृहाद् निर्गच्छति, यत्रैव प्रदेशिनो राज्ञो गृहं यत्र व प्रदेशी राजा तत्र कोपागच्छति प्रदेशिन राजान करतलयावत् कृत्वा जयेन विजयेन वर्धयति, एचमवादीत्-एवं खलु देवानुप्रियाणां कम्बोजेषु चत्वारोऽश्वा उपनयम् उपनीता, ते च मया देवानुप्रियेश्यः अन्यदाचैव विनयिताः तद् एत खलु स्वामिन् ! तान् अश्वान् आत्मदिकान् पश्यत । ततः खलु स प्रदेशी राजा चित्र सारथिम् एवमवादीत-गच्छ खलु रस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलं ते साओ गिहाओ णिग्गच्छइ) एवं सहस्रकिरणों वाला मुर्य जब अपने तेज से चमकने लगा-अपने घर से निकला (जेणेव पए सिस्स रणो गिहे जेणेव पएसो राया, तेणेत्र उवागच्छई) निकल कर वह वहां गया जहां प्रदेशी राजा का गृह था और उसमें भी जहां वह प्रदेशो राजा था (पए सिराय करयल जार कई जएण विजएण बद्धावेह) वहाँ जाकर उसने प्रदेशी राजा को दोनो हाथ जोडकर बडे विनय के साथ प्रणाम किया और जय विजय शब्दों का उच्चारण करते हुए उसे बधाई दी (एवं बयासी) बधाई देकर फिर उसने उससे ऐसा कहा--- (एवं ग्वलु देवाणुपियाण कंबोएहिं चत्तारि आप उवणयं उवणीया) कम्बो. जदेशवासियोंने चार घोडे भेंटरूप में आप देनुपिय के लिये भेजे थे (ते य मए देवाणुप्पियाण अण्ण या चेत्र विणइया) उन्हें मैंने आपके लिये विनीत उमी दिन बना दिया है। अर्थात् शिक्षित कर दिया है (तएह ण सामी त आसे आईडिए. पामइ) अतः आप पाईये और स्वकीय प्रशस्त गति आदि तेयसा जलते साओ गिहाओ णिग्गच्छइ) भने सम्म निशाणा सूर्य न्यारे पोताना तथा प्राशित थवा साया. पाताना घरेथी नी४ज्यो. (जेणेव पाएलिस्ल रणो गिहे जेणेव पएसी राया, तेणेव उवागच्छइ) नlxjान ते च्या प्रदेशी AnD गड तुमने मां पy rni ते प्रदेशी In डतो त्यो भयो. (पएमि रायं करयल जाय कट्ट जगणं विजएण वद्धावेइ) त्या ४४ने तेरे प्रदेशी ने બને હાથ જોડીને નમ્રતાપૂર્વક પ્રણામ કર્યાં અને જયવિજયના શબ્દોનું ઉચ્ચારણ ॐरीने तेने धामणी पापी. (एव' क्यासी) वधामणी यापी. तेणे तेने या प्रमाणे धु. (एवं खलु देवाणुप्पियाण बोएहि चत्तारि आसा उवणयं उवणीया) કજ દેશના નાગરિકોએ આપ દેવાનુપ્રિય માટે ચાર ઘાઓ ભેટ રૂપમ મેકલ્યા છે. (तं य मए देवाणुपियागं अण्णया चेव विणइया) ते घामाने मे ते दिवसे भाषश्रीना भाटे योग्य शिक्षित पनावी हीधा छे. (त्त एहण सामी त आसे आइडिए पासइ) मेथी मा५ पधारे। भने स्वीय प्रश1 गति वगेरे शतम्या Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजrateex १७० त्व' चित्र ! तैरेव चतुर्भिरश्वैः अश्वरथं युक्तमेव उपस्थापय यावत् प्रत्यय | तनः खलु स चित्रः सारथिः प्रदेशिना राज्ञा ववमुक्तासन हट तुष्ट-याचत हृदय उपस्थापयति, एतामाज़तिकां प्रत्यर्पयति । तनः खलु स मदेशी गजा चित्रस्य सारथेरन्तिके एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य हृष्ट तुष्ट यावद् अल्पभरणालङ्कृतशरीरः स्वाद् गृहाद् निर्गच्छति, व चातुष्टः अश्वरथ शक्ति से युक्त हुए इन्हें देखिये । (तए ण से पएसी राया चित्तं सारहिं एवं वयासो) तब उस प्रदेशी राजाने चित्र सारथि से ऐसा कहा -- (गच्छाहिणं तुम चित्ता ! तेहिं चैव चउहि असेहि ग्रासरह जुतामेा उबवेहि जान पचपणाहि ) हे चित्र ! तुम जाओ और उन्हीं कम्बोज से प्राप्त हुए चारों घोड़ों से युक्त करके अश्वग्य को तैयार कर ले आओ। और उस त्रात की मुझे पीछे बर दो (नए ण से चित्रे सारही पएक्षिणा रन्ना एवं वृत्ते समाणे हट्ट जान हियए उन एयमाणत्तिय पचपि) इस प्रकार से प्रदेशी राजा द्वारा कहा गया वह चित्र सारथि बडा ही हृष्टतुष्ट चावत् हृदयवाला हुआ और उसने चार घोडों से युक्त करके अश्वस्थ को उपस्थित कर दिया, बाद में प्रदेशी राजा को इसका निवेदन किया (तए णं' से पएसी राया चित्तम्म सारहिस्स श्रंतिए एयम सोचा निसम्म हट्ट जाव अप्पमहग्धाभरणालगिसरीरे साओ गिहाओ णिगच्छद) इसके बाद प्रदेशी राजा चित्र से परसी राया चित्तं यित्रसारथीने या प्रमाणे थी युक्त थयेला ते घारा निरीक्षण . ( सारहिं एवं वयामी) त्यारे ते प्रदेशी राममे ( गच्छहि गं तुम चिता ! तेहि चेत्र चउहि आसेहि आसरह जुत्तामेव उबवेहि जान पञ्च पिणाहि ) हे चित्र ! तमे लगो भने ते गोन्डेशना नागરિકાથી પ્રાપ્ત થયેલા ચારેચાર ઘેાડાઓને રથમાં જોડીને તે અધરથ અહીં ઉપસ્થિત १. अने ते पछी भने आा वातनी अमर या (तएण से चित्तें सारही एसिणा रन्ना एवं वृत्ते समाणे हडतुड जाव हियए उबटुवेइ एयमाणत्तियं पचपिण्ड ) या प्रमाणे प्रदेशी शब्न वडे भाज्ञाचित थयेलो ते चित्रसारथि ખૂબજ હતુષ્ટ હૃદયવાળા થયા અને તેણે ચારેચાર ઘેાડાએથી સજજ કરીને અશ્વરથ ત્યાં રાજાની સેવામાં ઉપસ્થિત કર્યાં. અને ત્યાર પછી તેની ખખર રાજાની પાસે पहाडी. (तए णं से पएसी राया चित्तस्स सारहिस्स अतिए एमई सोचा निसम्म हड्तु जात्र अप्पमद्दग्धाभरणाल कियमरीरे साओ गिहाओ ૧૪૬) ત્યારપછી પ્રદેશી રાજા ચિત્ર સારથિની અશ્વરથ ઉપસ્થિત થઇ જવાની Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टोका. १२५ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिरजवर्णनम् स्तत्र कोपागच्छति. चातुर्घण्टमश्वरथं दूरोहति, श्वेतविकाया नगर्या मध्य. मध्येन निर्गच्छति । ततः खलुः स चित्रः सारथिम्त रथं नैकानि योजनानि उद्भ्रामयति । ततः खलु स प्रदेशी राजा उष्णेन च तृणया च रथ वातन च परिलान्तःसन् चित्र सारथिमेवमबादीत्-चित्र ! परिकान्त में शरीरं, परासारथि को अश्वरथ के तैयार हो जाने की बात को नकर और उसे हृदय में धारण कर बडा ही अधिक हपित एवं तुष्ट चित्त हुआ. उसने उसी समय अपने शरीर पर बहुमूल्य अल्पभार वाले आभूपणों को धारण किया शीघ्र ही वह फिर अपने घर से बाहर निकला (जेणामेव चारघंटे आप रहे तेणेव उवागच्छद) बाहर निकल कर वह वहां पर आया कि जहां पर वह चार घंटों वाला अश्वरथ तैयार किया गया खडा था (चाउरवट आसरह दुरूहइ, सेय वियाए सज्ज मज्झेण गिरगच्छ इ) वहां आकर वह चार घंटों वाले उस स्थ पर बैठ गया. फिर वह श्वेतां बझा नगरी के ठोक मध्यमार्ग से होकर निकला (तए ण से चिशे सारही त रह णेगा जोयणाई उम्भामेइ) बाद में उस चित्र सारथिने उस रथको अनेक योजना तक बहुत तेज चाल से चलाया. (तर ण से पएसी राया उण्हेण च नहाए य रहवाएण य परिकिलते समाणे चित्त सारहि एवं वयासो) इप कारण वह प्रदेशी राजा आतप से, प्यास से और रथगत्युव वायु से खिन्न हो गया, अतः उसने चित्र सारथि से ऐसा कहा-(चत्ता ! परिकि વાત સાંભળીને અને તેને હદયમાં ધારણ કરીને ખુબજ હર્ષિત અને તુષ્ટ ચિત્તવાળો થયો તેણે તેજ ક્ષણે પિતાના શરીર પર બહુમૂલ્ય તેમજ અ૫ભારવાળાં આભૂષણો ધારણ ४ा भने real ते पोताना भड़तथा गडा२ नीज्यो. (जेणामेव चाउग्घटे आस. रहे तेणेव उवागच्छड) २ नीजान ते त्या माव्याच्या न्या२ घटवाणा अवश्य सुसन याने सोडतो. (चाउघंटे आलरह दुरूहह, सेयवियाए नयरीए मज्झ मज्झण णिग्गच्छड) त्या पडाचीन ते या२ घटीवाणा ते मश्वस्थ પર બેસી ગયા અને ત્યારપછી તે તાંબિકા નગરીના ઠીક મધ્યવાળા રાજમાર્ગ પર मन नाण्या. (त ए से चित्त सारही तरह गाई जोयणा उभामेड) ત્યારપછી તે ચિત્રસારથિએ તે રથને ઘણુ જન સુધી બહુજ તીવ્રવેગથી ચલાવ્યું. तए ण से पएसी राया उण्हेण य ताहाए य रहवाएणय परिकिलते समोणे . . चित्त' सारहिं एवं वयासी) तथा ते प्रदेशी २ion तापथी, त२सथी मने २थनी તીવગતિને લીધે સામેથી અથડાતા પવનથી ખિન્ન થઈ ગયું. એથી તેણે ચિત્ર साराथन या प्रमाणे . (चित्ता ! परिकिलते मे सरीरे परावत्तेहिं, रह) Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नोयरस्ने वर्तय रथम् । ततः खलु स चित्रः सारथिः रथ परावर्त यति, यत्रैव मृरा. नमुन्द्यान तत्रैवोपागच्छनि, प्रदेशिन राजानमेवमवादीत-एए खलु स्वामिन मृगवनमुद्यान, अत्र ग्बल अश्वानां श्रम काम सम्यग् अपन यामः। ततः खलु स प्रदेशी राजा चित्रं मारथिमेत्रमवादीत्-एवं भवत चित्र! |मु०१२५।। टीका-'त एण से चित्ते' इत्यादि-ततः खल स चित्रः सारथिः कल्ये-आगामिनिदिन से मादुष्प्रभातायां प्रादुः-प्रकाशितं प्रभात यस्यां, तस्यां 'जन्या रात्री सत्याम, निकायमाने इत्यर्थः, अथ=पुन:फल्लोत्पलकमल. लते मे सरीरे परावतोहि रह) हे चित्र! मेरा शरीर थक रहा है, अतः तुम स्थ को वापिस लौटा लो (नए ण से चित्ते सारही रह परावोइ, जेणेव मियवणे उजाणे तेणेव उवागच्छइ) तब उस चित्र सारथिने स्थको लौटा लिया और जहाँ मृगवन नामका उद्यान था उस ओर चल दिया (पएसि राय पर क्यासी)वहां पहुंच कर उसने प्रदेशो राजा से ऐसा कहा (एमाणसामी मियवणे उजाणे एत्थ ण यासोण सम किलाम सम्म अवणेमो) हे स्वामिन् ! यह मृगवन नामका उद्यान है यहां ठहरकर घोडों को श्रम को और ग्लानि को मैं अच्छी तरह से दर किये लेता है। (तए ण से पएसी राया चित्तं सारहिं एवं वयासी) तब वह प्रदेशी राजो चित्र सारथि से इस प्रकार बोलो (एवं होउ चिना) हे चित्र ! भले तुम ऐसा करो। टीकार्थ-ईसके बाद दूसरे दिन चित्र सारथि प्रातः काल होते ही रात्रिकी समाप्ति होते ही-अपने घर से निकला ऐसा संबध यहां लगाना चाहिये. जब यह घर से निकला उस समयतक कमल विकसित हो चुके હે ચિત્ર! મારું શરીર શ્રમયુકત થઈ ગયું છે, એથી તમે રથને પાછા વાળી લો. (त एण से चिन्त' सारही रह परावत्ते' इ, जेणेव मियवणे उजाणे तेणेव ૩વ્રાજી) ત્યારે તે ચિત્ર સારથિએ રથને પાછો વાળી લીધું અને જ્યાં મૃગવન नामे धान तु ते त२५२थने यो. (पएसिं राय एयवयासी) त्यां पड़ांधीने तेणे अशी ने माम ४यु. (एस ण सामी मियवणे-उज्जाणे एत्थ ण आसाण सम किलाम सम्म अवणेमो) 3 सवामिन् ! मा भृगवन्नामे धान છે. અહીં રોકાઈને હું ઘોડાઓના થાકને અને ખિન્નતાને સારી રીતે મટાડી લઉં છું. (त एण से पएसी रोया चित्त' सारहिं एवं वयासी) त्यारे प्रदेशी रात यित्र सारथिने या प्रमाणे ४ह्यु. (एवं होउ चित्ता) यित्र ! सा त म भाभा २२. ટીકાર્થ–ત્યારપછી બીજા દિવસે રાત્રી પૂરી થતાં તેમજ સવાર થતાં જે ચિત્ર સારથિ પિતાના ઘેરથી નીકળે. એ અર્થ અહીં કરે ઘટે છે. તે જયારે પિતાના Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टोका. सूत्र १२५ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् कोमलोन्मीलिते-कुलोत्पल निकलितकमल, कमलो-हरिणविशेषश्च तयोः कोमल =मृदु उन्मीलनम्-कमलदलानां विकसन हरिणनेनाणासुन्मेषण च यस्मिन्, कमलविकसनसमये हरिणनेत्रोन्मीलनसमये वेत्यर्थः तथाभूते आपा डुरे-आ=समन्तात् पाण्डुरे-पीतधवले, तथा-कृतनियमावश्यके नियमाः सचित्तादित्यागरूपाश्चतुर्दशसंख्यकाः, उक्तश्च-"सचित्त १ दन२ विगई३, बाणह४ तंबोल५ वत्थ६ कुसुमेसु७ । वाहण८ सयण ९ विलेवण१०. बंभ११ दिसि १२ गहाण १३ भत्ते सु१४॥१॥ छाया--सचित्त द्रव्यर विकृत्यु३ पान४-ताम्बूल५ वस्त्र६ कुसुमेषु७। वाहन८ : शयन९ विलेपन १० ब्रा११ दिक्१२ स्नान १३ भक्तपु१४ ॥ इति, आवश्यक प्रतिक्रमण तच्च ह ा कं, तयोः समाहारे नियमावश्यक, कृत = विहित नियमांवश्यक यस्मिन तत्तरिमन् तादृशे प्रभाते-पात:काले तथासहस्ररश्मी-प्सहस्रकिरणसम्पन्ने दिनकरे-सूर्ये तेजसा ज्वलति-दीप्यमाने सति । स्वात-स्वकीयोद् गृहाद निर्गच्छति, रात्रैव पदेशिनो राज्ञो गृह भवन यत्रैव च प्रदेशी राजा वर्तते तव उपागच्छति-समागच्छति, प्रदेशिन' राजान करतल-यावत्-कर तलपरिगृहीत शिरआवत मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा जयेन विजयेन वर्द्ध यति, वयित्वा एवमवादी-एव खलु देवानुप्रियेभ्यः= थे अथवा कमल और हरिणविशेपो के नेत्र निद्रा विगत हो जाने के कारण उघड चुके थे, प्रभात का रंग पीत धवल हो चुका था लोगोंने-धार्मिक जनताने १४ नियमों ले लिया था. और राकि प्रतिक्रमण भी कर लिया था. वे १४ नियमो इस प्रकार से है-'सचित्त दव ' इत्यादि । तथा सहस्रकिरण संपन्न मुर्य भी अपने तेज से दीप्यमान हो चुका था. घर से निकलकर वह पदेशी राजा के पास पहुंचा. वहां पहुच कर उसने प्रदेशी राजा का दोनों हाथ जोडकर नमस्कार किया, उन्हें बधाई दी और फिर ऐसा कहा आप देवानुपिन्य के लिये जो कम्बोजवासियोंने चार घोडे भेंटरूप પરથી નીકળે તે વખતે કમળ વિકસિત થઈ ચૂક્યાં હતાં. અથવા કમલ હરિણ (ભૂગ) શિરીષના નેત્ર નિદ્રા રહિત થઈ જવાથી ઉઘડી ચૂકયાં હતાં. પ્રભાતનો વર્ણ પીધવલ લઈ ચૂકયા હતા. લોકે– ધાર્મિક માણ –૧૪ નિયમને ધારણ કરી લીધા હતા અને રાત્રિક પ્રતિકમણ પણ કરી લીધું હતું. તે ૧૪ નિયમે આ પ્રમાણે છે. 'सचित्त दव्य' इत्यादि. તેમજ સહસકિરણ સંપન્ન સૂર્ય પણ પિતાના તેજથી દેદીપ્યમાન થઈ ચૂક થી નીકળીને સારથિ પ્રદેશી રાજાની પાસે ગયે. ત્યાં પહોંચીને તેણે પ્રદેશી બને હાથ જોડીને નમસ્કાર કર્યા તેમને વધામણી આપી અને પછી આ પ્રમાણે Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीयसूत्रे भवद्भयः काम्बोजैश्चत्वारोऽश्वा उपनयमुपनीता प्राभृतत्वेन समानीताः ते च मया देवानुप्रियेभ्यः भवतां कृते अन्यदैव-तदैव विनयिता विनय प्रापिताः शिक्षिताः, तत्-तस्मात्कारणात् एत आगच्छत तान् आत्मद्धिकान=स्वकीय. प्रशस्तगत्यादिशक्ति सम्पन्नान् अश्वान् पश्यत । ततः खलु स प्रदेशी राजा चित्र सारथिमेवमवादीत्- गच्छ खलु त्वं चिा! तेरेच काम्बोजमाप्तवतु. भिरश्वैः युक्तमेव सजितमेव अश्वरथम् उपस्थापय यावत् प्रत्यर्प य, यावच्छ. ब्देन उपस्थाप्य एतामाज्ञप्तिकां मम प्रत्यर्प य । ततः खल स चित्रः सारथिः प्रदेशिना राज्ञा एवम् अनेन सज्जितस्थोपस्थापनरूपेन प्रकारेण उक्त:कथितः हटतुष्ट यावदृहृदयः, यावच्छब्देन-हष्टतुष्टचित्तानन्दितः प्रीतिमनाः परमसौमनस्यितः हर्षवश विसर्प हृदय सन् उपस्थापयति-तैवतुभिरेवाश्चैर्युक्त मेवाश्वरथमुपस्थित करोति एतां राजोक्ताम् आज्ञप्तिकाम् आज्ञां प्रत्यर्प यति ='युक्त एव रथो मयाऽऽनीत:' इति सूचयति । ततः खलु स प्रदेशी राजा चि*स्य सारथेः अन्तिके समीपे-युक्तरथोपस्थापनरूपम् अर्थ-वाक्यं श्रुत्वा कर्णगोचरीकृत्य, निशम्य हृद्यवधार्य हृष्टतुष्ट यावत्-यावच्छन्देन-हृष्ट तुष्टचित्तानन्दितः प्रीतिमनाः परमसौमनस्यितो हवशविसर्पहृदयानातः कृतबलिकर्मा कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्तः शुद्धमावेश ॥ माङ्गल्यानि वस्त्राणि प्रवरपरिहितः, इति सञ्जाह्यम्, अल्पमहा_भरणालङ्कृतशरीरः एषामर्थस्तु पागुक्त एच, एतादृशः सन् स्वात्-स्वकीयाद् गृहादू भवनात् निर्गच्छति-निस्सरति । में भेजे थे उन्हें मैंने उसी दिन आपके लिये सुशिक्षित कर दिया हैं. अतः आप आ करके उन्हें देख लेवें इस प्रकार चि सारथी, के कथन को सुनकर प्रदेशी राजाने उससे कहा-तुम शीघ्र ही उन्हें रथ में जोनकर यहां ले आओ चित्र सारथीने ऐसा ही किया. जब रथ तैयार हो जाने का वृत्तान्त प्रदेशी राजा को ज्ञात हुआ तब आकर वह उसमें बैठ गया उसके बैठते ही चित्र सारथिने उस रथ को श्वेतांविका नगरी के मध्यमार्ग से કહ્યું કે આપ દેવાનુપ્રિય માટે બે જ દેશના નાગરિકે જે ચાર ઘોડાઓ ભેટરૂપમાં મોકલ્યા હતા તેમને તે જ દિવર્સ આપશ્રી માટે સુશિક્ષિત કરી દીધા છે. એથી આપપધારીને તેમનું નિરીક્ષણ કરી લે આ પ્રમાણે ચિત્રસારથિનું કથન સાંભળીને પ્રદેશી રાજાએ તેને કહ્યું કે તમે સત્વરે તે ઘોડાઓને રથમાં જોતરીને અહીં ઉપસ્થિત કરે. ચિત્ર સારથિએ તે પ્રમાણે જ કામ પૂરું કર્યું જ્યારે રથ તૈયાર થઈ જવાની ખબર રાજાની પાસે પહોંચાડવામાં આવી ત્યારે તે રાજા તે રથમાં બેસી ગ. રાજા જ્યારે સવાર થઈ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लुबोधिनी टीका सु. १२५ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् १५५ ततः खलु स चित्रः सारथिरत' रथं नैकानि=अनेकानि बहूनि योजनानि उद्भ्रा मयति शीघ्रगत्या धावयति । ततः खन्नुस प्रदेशी राजा उष्णेन = आतपेन च तृष्णया = पिपासया रथवातेन = रथगत्युद्भवेन वायुना च परिक्लान्तः = खिन्नः सन् चित्र सारथिमेवमवादीत् हे चित्र परिकात = खिन्नं मे मम शरीरम् अतो रथं परावर्त्तय= निवर्त्तय । ततः खलु स चित्र : सारथिः रथं परावर्त्तयति, यत्रव मृगवनमुधानं तत्रैवोपागच्छति, प्रदेशिन राजानमेवमवादीत्एतत् खलु स्वामिन ! मृगवनमुद्यानमस्ति, अत्र = अस्मिन्नुद्याने स्थित्वा श्रश्वानां श्रम = खेदं क्लम = ग्लानिं च सम्यक् = समीचीनतया अपनयामः दूरीकुर्मः। ततः खलुस प्रदेशी राजा चित्र सारथिमेवमवादीत् - हे चित्र ! एवं भवतु= यथा त्वया कथित ं तथैव भवतु अत्रय तिष्ठामं इति भावः ||० १२५|| मूलम् - तणं से चित्ते सारही जेणेव मियवणे उज्जाणे जेणेव केसिस्स कुमारसमणस्स अदूरसामंते तेणेव उवागच्छइ, तुरए णिगिoes रहं ठवेइ, रहाओ पञ्च्चोरुहइ, तुरए मोएइ, पएसि रायं एवं होकर चलाया, जब नगरी से वह रथ बाहर हो गया तब उसने कई योजनों तक उस रथको इतने अधिकरूप से चलाया कि प्रदेशी राजा परिक्लान्त हो गया, (थकगया) आतप से तप गया और पिपासा की वेदना से व्या कुल हो उठा। तब सारथि से उसने उसी समय रथको लौटाने के लिये कहा. सारथिने आज्ञानुसार रथ को लौटा लिया और मृगवन उद्यान की ओर ले चला। वहां पहुंच कर सारथिने घोडों को विश्रान्ति देने के निमित्त रथखडा कर लिया और प्रदेशी राजा से वहां ठहर कर घोड़ों को मार्गजन्य प रिश्रमको दूर करने की बात कही प्रदेशी राजाने वातको मान लिया । १२५ । ગયા ત્યારે ચિત્ર સારયિએ તે રથને શ્વેતાંબિકા નગરીની મધ્યમાગમાંથી થઈને હાંકયા. આ પ્રમાણે તે રથ જયારે શ્વેતાંખિકા નગરીથી બહાર નીકળી ગયા ત્યારે ઘણા યેાજના સુધી તે રથને તીવ્ર વેગથી ચલાવ્યા કે જેથી તે પ્રદેશી રાજા પરિકલાંત થઇ ગયા, તાપથી તપી ગયા અને તરસની વેદનાથી વ્યાકુળ થઇ ગયા રાાએ સારથિને તરત જ રથ પાછા વાળવાનો આદેશ આપ્યા, સારથિએ રાજાની આજ્ઞા પ્રમાણે રથને પાÈા વાળી લીધા અને મૃગવન ઉદ્યાનની તરફ તે રથને લઈ ગયા. ત્યાં માટે રથ ન ઉભો રાખ્યો અને પહેાંચીને સારથિએ ઘોડાએન વિશ્રાંતિ આપવા પ્રદેશી રાજાને ત્યાં રોકાઈને ઘોડાઓના રસ્તાના થાકને દૂર કરવાની વાત કરી. પ્રદેશી રાજાએ પણ તેની વાત માની લીધી, પાસ. ૧૨પા Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ राजश्री सूत्रे वयासी एहणं सामी! आसाणं समं किलामं सम्मं अवणेमो! तपर्ण से पएसी राया रहाओ पञ्च्चोरुहs, चित्तेण सारहिणा सद्धि आसाणं समं किलोमं सम्मं अवणेमाणे पासड़, जत्थ केसि कुमारसमणं मह महालियाए परिसाए मझगयं मया सदेणं धम्ममाइक्खमाणं पासितो इमेारूवे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था - जड्डा खलु भो ! जडुं वासंति, मुडा खलु भो ! मुंडे पज्जुवासंति, मूढा खलु भो । मूढ पजुवासंति, अपंडिया खलु भो अपंडियं पजुवासंति, निव्विण्णाणा खलु भो ! निव्विण्णाणं पजुवासंति से केसणं. एस पुरिसे जंडु मुंडे मुढे अपडिए निविष्णाणे सिरीए हिरीए उवंगर उत्तप्पसरीरे, एस पुरिसे किमाहारमाहारेइ ? किं परिणामेइ ? कि खायई ? कि पिes ? कि दलइ ? कि पयच्छई ? जं णं एस एमहालियांए मणुस्तपरिसाए मज्झगए महया लोणं वृधाई ? एवं सपेहेइ, चित्तं सारहिं एवं वयासी - चित्ता ! जड्डा खलु भो ! जड्ड' पज्जुवासंति जाव वूयाई, साए वि उज्जाणभूमीए नो संचाएं मि सम्मं पो पकामं पवियरितए | सू० १२६ ॥ छाया - ततः खलु सचित्रः सारथिः यत्र च मृगदनमुधान' व केशिनः : कुमारश्रमणस्य अदर सामन्त तत्रोपागच्छति, तुरगान निगृह्णाति, रथं " - 'तएण से चित्ते सारही' इत्यादि -- मुत्रार्थ - (तसे चिते सारही जेणेव मिनवणे उज्जाणे जेणेव केसिस्स कुमारसमणस्स अनुरसामते तेणेव उवागच्छद् ) इसके बाद वह चित्रसारथि उस मृगवन उद्यान में स्थित केशिकुमारश्रमण के अडूर सामन्त स्थान पर 'त एण' से चित्त सारही' इत्यादि । सूत्रार्थः - (त एण से चित्तो सारही जेणेत्र -मियवणे उज्जाणे, जेणेव केसिस्स कुमारसमणस्स अदरसामते तेणेव उनागच्छ ) त्यार पछी ચિત્ર સારથિ તે મૃગવન ઉદ્યાનમાં સ્થિત કશિકુમાશ્રવણની પાસે રથને લઇ ગયા. • Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका स्तू. १२६ सूर्याभदेवस्य पूर्व अवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् - १५७ स्थापयति, स्थात् प्रत्यरोही, तुरगान मोचयति, प्रदेशिन राजानमेवमवादीअत्र खल स्वामिन् ! अश्वाना मनाम सम्यक अपनामः। ततः खलु स प्रदेशी राजा रथात प्रत्यवोहति, चित्रेण सारथिना साधम् अंश्वानां श्रम काम सम्यक अपनयन पश्यति यन्त्र के शिकुमारश्रमण महातिमहालयायाः परिषदो मध्यगत महत्ता शब्देन धर्ममाख्यान्त' दृष्ट्वा अयंतप आध्यात्मिकः यावत् समुदपयत- जडाः खलु भो ! जड पर्युपासते, मुण्डाः स्थको लेकर गया. (तुरए णिनिहाइ) वहां पहुंचते ही उसने घोडों को रोक लिया (रह नेइ) और रथकों खडा कर दिया (रहाओ पचोरुहई) रथ के खडे हो जाने पर वह रथ से नीचे उतरा. (तुरए मोएइ) नीचे उतर कर घोडों को एच से खोल दिया (पएसि राय ए बयासी) फिर उसने प्रदेशी राजा से एसा कहा-(एह णसम-शिलाम सम्म अवणेमो) हे स्वामिन् ! रथ खडा हो चुका है आप उतर आइये, मैं यहां पर घोडों के श्रम को एवं उनकी मानलिक सलानि को ठीक तरह से दूर करलू (तए ण से पएसी-राया रहाओ पचोरहइ) सारथि के इस कथन से वह प्रदेशी राजारथ ने नीचे उतरा (चित्तेण सारहिणा सद्धिं आसाण सम किलाम सम्म अवणेमाणे पासइ) नीचे उतर कर उसने चित्र. सारथि के साथ वहां घोडों का श्रम एवं क्लम (कादंट) अच्छी तरह से दूर करते हुए, एवं विश्राम करते हुए उस ओर, देवा (जत्थं केसिकुमारसमण सहइमहालियाए परि. साए मझग सहया सद्दे धम्ममाइक्खमाण पासित्ता हमेयारूबे अज्झथिए (तुरए णिमिण्हइ) त्या पहायता,४ तेणे याने राज्या . (रह ठवेइ) मने २थने योसाव्या: (रहोओ - पच्चोरुहइ) २थ क्यारे । २६ गयो त्यारे ते स्थमाथी नीय उता. (भए सोएड) नान्ये उतरीन घामाने २थमाथी भुत ४ा. (पए सिं राय एवं बयाली) त्या२ ५छा तो प्रशी ने मानणे धु(एह सामी ! आमाण सम किलाल सम्म अवणेमो) र स्वामिन् ! २५ 't 2 यूथे। छ. मा५ नीय उत।. एमडी घोडायना भने भने 'तभनी मानसि सानिने सारी शत (२ ४३१ ६७.(तएणले पएसी राया रहाओ पच्चोदाइ) - साथिना 241 ४थनथी ते प्रशी २७ स्थमाथी नीय उत्या. (चित्तण सारहिणा सद्धि आप्ताण सम किल्ला सम्म अवणेमाणे पासई) नीय उतरीन तेरे स्थित्रसा२- થિની સાથે ત્યાં ઘોડાઓનાં શ્રમ અને કલમ સારી રીતે દૂર કરતાં તેમજ વિશ્રામ ४२ता ते त२३ यु (जस्य केसिकुमारसमण महइमहालियाए परिसाए मज्झ. .. गय' महया सहण यस्मलाइकखमाण पासित्ता इमेयोरूवे अज्ञथिए जाव Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ राजप्रश्नीयम खलु भो ! मुण्ड' पर्युपासते, मूढाः खलु भो ! मूढ पर्युपासते, अपण्डिताः खलु भो ! अपण्डित' पर्युपासते, निर्विज्ञाना: खल भो ! निर्विज्ञान पर्य: पासते, स कीदृशः खल एप पुरुषो जडो मुण्डो मूढोऽपण्डितो निर्विज्ञान: श्रियो हिया उपगतः उत्तप्तशरीरः, एप खलु पुरुषः कमाहारमहारयति ? जाव समुप्पजित्था) कि जिस और एक बहुत बडी परिपदा के बीच में बैठे हुए केशीकुमारश्रमण जोर २ से धर्म का व्याख्यान कर रहे थे. इस प्रकार से उन्हें देखकर उसको इस प्रकार का यह आध्यात्मिक यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ (जडा वलु भो! जड पज्जुवासंति, मुंडा खलु भो मुड पज्जुवासाति) अरे ! जो जन जड होते हैं वे जडकी सेवा करते हैं और जो जन मुंड होते हैं, वे मुड की सेवा करते हैं (मृदा खलु भो मूह पज्जासति) तथा जो जन मृह होते हैं, वे मूढ की सेवा करते हैं। (अपांडिया खलु भो अपडियौं पञ्जुवासति) जो अपण्डित होते है वे अपण्डित जन की सेवा करते हैं, (निविण्णागा खलु भो निलि. णाण पज्जुवासति) जो विशिष्टज्ञान से रहित होते हैं, वे विशिष्टज्ञान से रहित की सेवा करते हैं। (से केस ण एस पुरिसे जडे, मु डे, मढे, अपडिय निविण्णाणे सिरीए हिरीए अवगए उत्तप्पसरी रे) परन्तु यह कैसा पुरुष है जो जड, मुंड, मूढ, अपण्डित, निर्विज्ञान होता हुआ भी श्री से और ही से युक्त है (उत्तप्पसरीरे) शरीर की कान्ति से संपन्न है। (एस ण पुरिसे किमाहारमाहारेइ) यह पुरुप क्या किस प्रकार का आहार करता है ? समुप्पज्जित्था) 2 त२३ मे विशण पविहानी ये मेसा शीमा२५भए બહ મેટા સ્વરે ધર્મનું વ્યાખ્યાન કરી રહ્યા હતા. આ પ્રમાણે તેમને જોઈને તેને मा ततन माध्यात्मियावत् भागत स४६५ सत्पन्न । १ (जडा खलु भो! जङ्क पज्जुवासंति. मुंडा खलु भो मुड पज्जुवासति) भरे ! २ वाटी જડ હોય છે, તેઓ જડને સેવે છે અને જે લેકે મુંડ હોય છે. તેઓ મુંડની સેવા ४३ छे. (मूढा खलु भो मूढं पज्जुवासति) तेभन रे । भूढ डोय छ तेमा भूनी सेवा ४२ छे. (अपडिया खलु भो अपडिय पंज्जुवास ति) मा मयडित सोय छ तमा मचायतीने सेवे छ. (निविणाणा खल भो ! निविण्णाण पज्जुवास ति) रेमो विशिष्ट ज्ञानथी हित छ, ते विशि! ज्ञान २डितन सेवे छ. (से केस ण एस पुरिसे जडमुडे, मूढे, अपडिए. निविणाणे सिरोए हिरीए उवगए उत्तष्पसरीरे) ५४ २ वो पु३५ छ । २०, भु, भूद, मति , निविज्ञान डोप छतi श्री. तेभर ली थी युत छ. (उत्तप्पसरीरे) शरीरनी तिथी सपन्न छ. ( एस ण पुरिसे किमाहारमाहारेइ ) मा ५३५ ४४ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवाधिनी टीका' सू. १२६ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् १५९ किं परिणमयति ? किं स्वादति ? किं पिबति ? किं ददाति ? किं प्रयच्छति ? यत् खलु एष एतावन्महालयाय मनुष्यपरिपदो मध्यगतो महता शब्देन ब्रवीति ?. एवं सप्रेक्ष्यते, चि सारथिमेवमवादीत्-चित्र ! जडाः खलु भो ! जड पर्युपासते यावद् ब्रवीति, स्त्रात्यामपि खल उद्यानभूमौ नो शक्नोमि सम्यक् प्रकाम प्रविचरितुम् ॥१० १२६॥ टीका-'तएण से चित्त' इत्यादि ततः खलु स चित्रः सारथियंत्र व मृगवन-मृगवननामकमुद्यान यत्रैव केशिनकुमारश्रमणस्य अदरसामन्त - नातिदर नातिसमीपम्प स्थल तत्रवोप(किं परिणामेइ) किस प्रकार से खाये हुए भोजन को परिणमाता है ? (किं खायइ, किं पियइ, किं दलइ, किं पयच्छई) कैसी रुचिर वस्तु को यह खाता है ? किस प्रकार की रुचिर वस्तु का यह पान करता है ? यह लोगों के लिये क्या देता है ? क्या विशेषरूप से यह उन्हें वितरित करता है ? (जण एस ए महालियाए मणुस्सपरिसाए मज्झगए महया सण' याइ) जो यह पुरुष इतनी बडी विशाल मनुष्य परिषदा के बीच में यैठ कर बडे जोर से बोल रहा हैं ? (एवंसपेहेइ) ऐसा उसने विचार किया (चित्तं सारहिं एवं बयासी) इस प्रकार विचार करके फिर उसने चित्र सारथि से ऐसा कहा-(चित्ता ! जड खलु भो जङ पज्जुवासंति, जाव वूयाइ, साए वि य ण उज्जाणभूमीए नो सम्म पकाम पवियरित्तए) हे चित्र! जड जड की पर्युपासना करते हैं यावत् यह बडे जोर से बोल रहा है। मैं अपनी भी उस उद्यानभूमि में इच्छानुसार अच्छी तरह से घूम नहीं पा रहा हूँ। Iतने मा२ ४२ छ ? (किं परिणामेइ) वीशत माघेसा मानने परिणभावेछ? (किं खायइ, किं पियइ, किं दलइ, किं पयच्छइ) तनी ३यिनी वस्तुना આ આહાર કરે છે? કઈ જાતની રૂચિની વસ્તુનું આ પાન કરે છે? લેકેને આ शु मापे छ ? विशेष३५थी मा शुखाना भाटे वितरित ४२ छ ? (जण एस ए महालियाए मणुस्सपरिसाए मज्झगए महया सण बूयाइ) ५३५ मामी भाटी व परिषदानी ५-ये मेसीन पर भाटा सामाले छ ? (एव' सपेहेइ ) मा प्रमाणे तेरे पिया२ यो (चित्त सारहिं एवं क्यासी) माम विया२ ४शन पछी तेरे यित्र सारथिने २मा प्रमाणे ह्यु-(चित्ता ! जड्डा खलु भो जहुँ पज्जुवासति, जाव याइ, साए वि य ण उज्जाणभूमीए नो सचा. एमि सम्म पकाम पवियरित्तए) यित्र! ४ 30४ ने सेवे छ यावत्मा म मोटर सा' બોલી રહ્યો છે. હું પોતે પણ આ ઉદ્યાનભૂમિમાં સ્વસ્થતાપૂર્વક સારી રીતે હરી ફરી શકતો નથી. Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० .... ....... . ... राजप्रश्नीयसने गच्छति. तुरगान अश्वान मोचयतिस्थात् पृथकोति, प्रदेशिन राजानः . मेवमंचादीत-हे स्वामिन् ! एत-आगच्छत अत्र अयानां हयानां श्रममार्ग जन्य शारीर खेदं कम मानसिकग्लानि च सम्ब-किश्चित्कालावस्थानेन .. समीचीनतया अपनयाम: दूरीकूर्मः। ततः पूर्वोकनिश्चयानन्तरं स प्रदेशी राजा रथात् प्रत्यवरोहति अवतरति, चित्रेण सारथिना वाद्ध तत्राश्वानां स्वस्य च श्रम कलम च सम्यग्र अपनयन दरीकुर्वन विभास्पन सन् पश्यति यन्त्र के शिकुमारश्रमण महातिमहालया अतिमहत्याः, परिषदो मध्यगत-मध्य• स्थित रहता शब्देन-उच्चस्वरेण धर्म जिन प्रणीतम् पाख्यान्तंय.थयातम् । दृष्ट्वा च अयमेत पः वक्ष्यमाणमकारकः : आध्यात्मिा आत्मगतोऽङ्कुरइव । टीकार्थ-इसके बाद वह चित्र सारथि मृगवन नामके उद्यान में पहुंचकर केशी कुमारश्रमण से अधिष्ठित प्रदेश के पास पहुंचा. वह प्रदेश । केशीकुमारश्नमण से न अधिक दूर था, और न अधिक पास. ही. था.... पहुंचकर उसने घोडों को खडा किया । और रथ को रोक दिया. तथा प्रदेशी राजर्जा से ऐसा. कहाँ हे स्वामिन् ! आईथे, यहां हमलोग बोड़ों के : मार्गजन्य शारीरिक खेद को एवं मानसिक ग्लानि को कुछ कालतक ठहर .. कर अच्छी तरह से दर करलें। पूर्वोक्त निश्चय के अनन्तर प्रदेशीराजा रथं से नीचे उतरा और चित्र सारथि के साथ वहां घोडों की एवं निजकी - थकावट को तथा क्लम-मानसिक ग्लानि को-अच्छी तरह से दूर करता हुआ, तथा विश्राम करता हुआ इधर उधर देखने लगा-देखते२ उसकी :दृष्टि वहां पहुंची जहां के शिकुमारश्रमण अतिमहती (विशाल) परिषदा के . बीच बैठ हुए उच्चस्वर से जिनप्रणीत धर्म की प्ररूपणा कर रहे थे. उन्हे . A1: त्या२पछी: ते चित्र साथि भृगवन नामे धानमा पडोयान शीકુમાર શ્રમણ જ્યાં વિરાજમાન હતા તેની પાસે પહોંચશે. તે સ્થાન કેશીકુમાર શ્રમ ણથી વધારે દૂર પણ નહિ તેમજ વધારે નજીક પણ નહિં હતું. ત્યાં પહોંચીને તેણે ઘોડાઓને ઉભા રાખ્યા અને રથને ભાવ્યા. તેમજ પ્રદેશ રાજાને આ પ્રમાણે કહ્યું : - કે હે સ્વામિન્ ! પધારો, અહીં આપણે થોડા સમય સુધી રોકાઈને ઘાડાઓના માર્ગ પર જન્ય શારીરિક ખેદને અને માનસિક ગ્લાનિને સારી રીતે દૂર કરવા યત્ન કરીએ આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તે પ્રદેશ રાજા રથ પરથી નીચે ઉતર્યો અને ચિત્ર સારથિની સાથે ત્યાં ઘોડાઓના અને પોતાના થાકને તેમજ કલમ-માનસિક ગ્લાનિ–ને સારી રીતે દૂર કરતાં તથા વિશ્રામ કરતાં આમતેમ જોવા લાગે. જોતાં જોતાં તેમની નજર અતિ વિશાળ પરિષદાની વચ્ચે બેસીને મેટા સાદે તે પરિષદને જિનપ્રબોધિત ધર્મની Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टोका. सू. १२६ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् जडोऽयमितिरूपः यावच्छब्देन-'चिन्तितः कल्पितः, “प्रार्थितः, मनोगतः संकल्पः' इति संग्राह्यम्, तत्र-चिन्तितः-पुनः पुनः स्मरणरूपो विचारः 'मुण्डोऽय-'मितिलक्षणो द्विपत्रित इव, कल्पितः स एव विचारः 'मुण्डोऽय' मिति रूपः पल्लवितइव, प्रार्थितः, स एवेष्टरूपेण स्वीकृतः “निश्चयेनायमपण्डितः इतिरूपः पुष्पितइव मनोगतः संकल्प: मनसि ढरूपेण निश्चयः 'सत्यय निर्विज्ञान: इतिलक्षणः फलितइच समुदपधत-समुत्पन्नः । तदेव दर्शयति-'जड्डा' इत्यादि, देखकर इसके मन में इस प्रकार का सकल्प-विचार उत्पन्न हुआ. 'यहां यावत् पद से संकल्प के आध्यात्मिक, चिन्तित, कल्पित, मनोगत ये विशेषण गृहीत हुए हैं. उनकी सार्थकता इस प्रकार से है, यह विचार उमकी आत्मा में पहिले अङ्कर के रूप में जमा, अतः वह आध्यात्मिक हुआ बाद में वह पुनः पुनः स्मरणरूप होने के कारण चिन्तितरू हो गया अर्थात् यह मुंड है यह मूढ है इस तरह बार२ स्मृति में आने के कारण यह विचार द्विपत्रित अङ्कुर की तरह चिन्तितरूप बन गया-पुनः वही विचार यह मुण्डित ही है, और कोई नहीं है इसरूप से निश्चयापन्न होने के कारण पल्लवित हुए अंकुर की तरह मार्थित हो गया. 'अयमपण्डित एव निश्चयेन' फिर ऐंमा निश्चय हो जाने से कि यह नियमतः अपण्डित ही है(पण्डित नहीं है) यह विचार पुष्पित अंकुर की तरह इष्टरूप से स्वीकृत हो जाने के कारण पुष्पित हो गया. बाद में 'यह विज्ञान रहित है' इसरूप से मनमें हहरूप से निश्चित हो जाने के कारण मनोगत हो गया. तात्पर्य कहने का પ્રરૂપણ કરતા તે કેશિકુમારશ્રમણ પર પડી. તેમને જોઈને તેમના મનમાં આ જાતનો . સંકલ્પ-વિચાર-ઉદ્ભવ્યો. અહીં યાવત્ પદથી સંકલ્પના આધ્યાત્મિક, ચિંતિત, કલ્પિત, પ્રાર્થિત, મને ગત આ બધા વિશેષણ ગ્રહણ કરવામાં આવ્યાં છે. આ બધા વિશેષણે ની સાર્થકતા આ પ્રમાણે સમજવી. આ વિચાર તેના આત્મામાં પહેલાં અંકુરના રૂપમાં જન્મે. તેથી તે આધ્યાત્મિક થયે. ત્યારપછી તે વારંવાર સ્મરણરૂપ 'હાવા બદલ ચિંતિત રૂપ થઈ ગયે. એટલે કે આ મુંડ છે, આ મૂઢ છે આ પ્રમાણે વારંવાર મૃતિમાં આવવાથી આ વિચાર દ્વિપત્રિત અંકુરની જેમ ચિંતિતરૂપ થઈ ગયે. પછી તેજ વિચાર આ મુંડિત જ છે અન્ય નહિ, આ પ્રમાણે નિશ્ચયાપન હવા બદલ सावित या मनी रेभ प्रार्थित ५६ गया. "अयपण्डित एव निश्चयेन" ત્યાર પછી આ જાતને નિશ્ચય થઇ-જવાથી આ નિયમત અપંડિત જ છે આ વિચાર પુષ્પિત અંકુરની જેમ, ઈટ રૂપથી સ્વીકૃત થઈ જવા બદલ પુષિત થઈ ગયે. ત્યાર બાદ આ વિજ્ઞાન રહિત છે.” આ પ્રમાણે મનમાં દઢરૂપમાં નિશ્ચિત થઈ જેવાથી આ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __राजप्रश्नीयसूत्रे जडा: अलसा उद्योगवर्जितत्वात्, यद्वा-जडा इति विवेकविकलाः कर्तव्याकर्त्तव्यज्ञानराहित्यात् जडम् जडपुरुपमेन पर्युपामते सेवन्ते । तथामुण्डाः एतादृशा एव अनावृतमस्तका; निलं जा इत्यर्थः, त एव मुण्ड=मुण्डितमस्तकमेन' पर्युपासते । तथा-मूहाः-मा हेयोपादेयज्ञानशून्या एच मूढ= सदसद्विवेकश्किलमेन पयुपायते। अपण्डिता व्यावहारिकवुद्धिविकलाम्नत्वज्ञानरहितत्वात्, त एव अपण्डित तत्वज्ञानशून्यमेनं पर्युपामते । निर्विज्ञाना: यह है कि यहां पर विचार के इन विशेषणोंने विचार की आगेर पुष्टि होती हई प्रकट की है। जिस प्रकार अंकुर पहिले जमता है. बाद में वह पत्रित होता है, फिर पुष्पित होता है. और अन्त में फलित होता है इसी प्रकार से यहां उसका विचार आगे२ अधिक२. पुष्ट हाता गण इसी बात को 'जट्ट' आदिपदों द्वारा प्रकट किया गया है-उद्योगवर्जित होने से जो जड-अलस होते हैं अथवा तो कर्तव्याकन व्यरूप विवेक से रहित होने के कारण विवेक विकल हैं वे ही इस जड पुरुष की उपासना-सेवा करते हैं, तथा जो इसी जैसे मुण्ड-अनावृत खुल्ले मस्तक वाले-निर्लज हैं, वे हो इस मुण्डितमस्तकवाले इसकी सेवा करते हैं, तथा जो हेयोपादेय ज्ञान से . शून्य मृढ जन हैं वे ही इस अच्छे बुरे के ज्ञान से विकल हुए इमकी सेवा करते हैं। तत्वज्ञान रहित होने के कारण जो व्यवहारिक वृद्धि से विकल हैं. वेही इस तत्त्वज्ञान शून्य इस अपण्डित की सेवा करते हैं, तथा बुद्धि हीन होने से जो विशिष्टज्ञान से रहित हैं वेही इस सद्बोधरहित को મનોગત થઈ ગયે, તાત્પર્ય એ છે કે અહીં વિચારના આ વિશેષણોથી અનુક્રમે તે પછીના વિચારની પુષ્ટિ જ થાય છે. જેમ અંકુર પહેલાં જામે છે. ત્યારપછી તે પત્રિત થાય છે, પછી પુપિત થાય છે અને છેવટે ફલિત થાય છે તેમજ અહીં પણ તેને વિચાર અનુક્રમે અધિકાધિક પુષ્ટ જ થતો જાય છે. આ વાતને ‘’ વગેરે પદે વડે પ્રકટ કરવામાં આવી છે. ઉદ્યોગ રહિત હવા બદલ જે જડ–આળસુહોય છે અથવા તે જે કર્તવ્યાકર્તવ્યરૂપ વિવેકથી રહિત હોવા બદલ વિવેક વિકલ છે, તે જ આ. ચંડ પુરુષની ઉપાસના-સેવા કરે છે. તેમજ જેઓ એના જેવા જ મુંડ–અનાવૃત મતકવાળા–નિર્લજજ છે તે જ આ મુંડિત મસ્તરવાળાઓની સેવા કરે છે તેમજ જેઓ પાદેયના જ્ઞાનથી રહિત મૂઢ જન છે તે જ આ વિવેકરહિત પુરુષને સેવે છે. તત્વજ્ઞાનરહિત હવાથી જે વ્યાવહારિક બુદ્ધિથી વિકલ છે, તે જ આ તત્વજ્ઞાન શૂન્ય અપંડિતને સેવે છે. તેમજ બુદ્ધિહીન હોવાથી જે વિશિષ્ટજ્ઞાનથી રહિત છે તેઓ જ આ સબંધ રહિત પુરુષની સેવા કરે છે. આ કઈ જાતની Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टोका. १२६ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिरजवर्ण' नम् १६३ विशिष्टज्ञानरहिताः बुद्धिहीनत्वात्, त एवं निर्विज्ञान =सद्बोधरहितमेन पर्यु - पासते । स एप कीदृशः पुरुषः यो जडो सुण्डो सृढोऽपण्डितो : निर्विज्ञानोऽपि थिया==महातिमहालयपरिपदादिशोमया, द्विया=लज्जया-कुचेष्टावर्जनरूपया उपगतः=संपन्नः तथा - उत्तप्तशरीरः = शरीरकान्त्या दीप्यमानो वर्तते इति किं कारणम् ? कारण चिन्तयति - एष खलु पुरुषः क = किम्प्रकारम् आहार = भोजनम् आहारयति=करं ति ? किं = केन प्रकारेण भुक्त भोजन परिणमयति= परिणाम प्रापर्यात ?, किं= कीदृश रुचिर वस्तु खादति ? किं=कोदृशं रुचिर मणकादिक पिचति?, किं ददाति एभ्यो लोकेभ्यः, किं प्रयच्छति = विशेषेण ददाति यत् यस्मात्कारणात् खलु एष पुरुषः एतावन्महालयायाः =महत्याः मनुष्य परिषदो मध्यगतः =मध्योपविष्टः सन् महता शब्देन=उच्चैः स्त्ररेण ब्रवीति= वदति ? | एव ं=पूर्वोक्तप्रकारेण सप्रोक्षते= विचारयति, चित्र सारथिमेवमवा सेवा करते हैं। यह कैसा पुरुष है १ जो जड, मुण्डं, मूढ़, पण्डित एवं निर्वि ज्ञान हुआ भी महनिमहालय परिषदा-याने विशालसभा में शोभा से एवं कुचेष्टावर्जनरूप लज्जा से संपन्न बना हुआ है। एवं शरीरकी कान्ति से देदीप्यमान हो रहा है. इसमें कारण क्या है ? क्या यह इस प्रकार के श्राहारको करता है जो इसके शरीर में ऐसी कान्ति प्रदान करता हैयही बात वह 'क' आहार आहारयति' इत्यादि पदों द्वारा विचार करता है यह किस प्रकार वे आहारको लेता था किस प्रकार से भुक्त भोजन को यह परिणमाता है? यह कैंसी रुचिर वस्तु खाता है?- अगर कैसे रुचिरपान को यह पीता है? यह इन लोको के लिये क्या दे रहा है? क्या विशेषरूप से यह इन्हें प्रदान कर रहा है ? जो गद्द इस बड़ी भारी मनुष्य परिषदा के बीच में बैठा हुआ वडे जोर से बोल रहा है। इस प्रकार से उसने विचार कियाવ્યક્િત છે કે- જે જડ, મુંડ, દૃઢ, અપ'ડિત અને નિવિજ્ઞાન હોવા છતાં પણ મહતિમહાલય પરિષદા એટલે કે વિશાળ સભામાં શાભાથી અને કુચેષ્ટા વજ્રનરૂપ લજ્જા યુકત થયેલા છે તેમજ શરીરકાંતિથી દીપ્યમાન થઇ રહ્યો છે. આનું શું કારણ છે? શું તે આ જાતના આહાર કરે છે કે જે એના શરીરમાં એવી કાંતિ ઉત્પન્ન કરે छन् वात ते 'क' आहारं आहारयति'' वगेरे यह। घडे मतावे छे. या ४६ જાતને આહાર ગ્રહણ કરે છે ? તેમજ કઇ જાતના ભુકત ભાજનને આ પરિણુમાવે છે? આ કઈ જાતની રુચિર વસ્તુના આહાર કરે છે? કેવા રુચિર પાનપદાને આ પીવે છે? આ પુરુષ આ બધાને શુ આપી રહ્યો છે. ? . વિશેષરૂપથી આ બધા એકત્ર થયેલા લાકને આ શુ આપી રહ્યો છે ? કે જે આ બહુ મેાટી વિશાળ પરિષદાની વચ્ચે બેસીને હું મેટા રવરથી ખેલી રહ્યો છે. આ પ્રમાણે તેણે વિચાર કર્યાં ત્યાર Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3D ---१६४----------------- ..... ... ... ..... .राजप्रश्नायसूत्रे दीत-प्रकटमवदव-चित्र ! जडाः खलु जड पर्युपासते, यावत्-यावच्छन्देन पूर्वोक्त सर्व ग्राह्यम्, ब्रवीति उच्चस्वरेण वदति येन कारणेनाह स्वस्यामपि= स्वकीयायामपि उद्यानभूमौ सम्यक् सम्यक्प्रकारेण प्रकामम्-अतिशयं । प्रविचरितु संचरितुं नो शक्नोमि=न समर्थो भवामि ॥मृ० १२६॥. मूलम्-तएणं से चित्त सारही पएसिरायं एवं व्यासी-एसणं सामी। पासावच्चिज्जे केसा नामं कुमारसमणे जाइसंपपणे जावं चउनाणोवगए अधोऽवहिए अण्णजीविए । तएणं से पएसी राया चित्तं सारहिं एवं क्यासी-आहोहियं णं वयासि चित्ता! अण्णजीवियत्त णं वयासि चित्ता ! ? हंता ! सामी ! आहोहियं णं क्यामि अण्णजीवियत्तं गं वयामि । अभिगमणिज्जो णं चित्ता ! एस पुरिसे ? हता! सामी ! अभिगमणिज्जे । अभिगच्छामोणचित्ता ! अम्हे एयं पुरिसं? हंता ! सामी ! अभिगच्छामो ।सू० १२७॥ . छाया-ततः खलु स चित्रः सारथिः प्रदेशिराज मेवमवादीत-एप खेल स्वामिन् ! पार्थापत्यीयः केशी नामकुमार श्रमणः जानिस पन्नः यावत् चतु बाद में यह चित्र सारथि से प्रकटरूप में इस तरह से कहने लगा-चित्र! जद जड की उपासना करते हैं इत्यादि यहां यावत् शब्द से पूर्वोक्त सत्र कथन जो यह जोर२ से इस मनुष्य परिषदा के बीच में बोल रहा है यहाँ तक का ग्रहण हुआ है। इसी कारण मैं अपनी. भी इस उद्यानभूमि में ठीक तरह से घूमः नहीं पा रहा हूं ।। मू० १२६ ॥ . 'तए ण से चिरों सारही' इत्यादि। . . . : ___ मंत्रा--(तए ण से चिते.. सारही पएंसिराय एवं बयासी) तंब પછી તે પ્રટરૂપમાં ચિત્ર સારથિને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યું કે હું ચિત્ર ! જ. જંડની ઉપર્સના કરે છે વગેરે. અહી યા શબ્દથી પૂર્વોકત બંધું કથન-કે જે આ મોટા સાદે મસુષ્ય પંરિષદની વર બેલી રહ્યું છે. અહીં સુધીનું ગ્રહણ કરવું જોઈએ. એથી જ હું આ મારી જ ઉદ્યાન ભૂમિમાં સારી રીતે હરીફરી શકતું નથી. સૃ. ૧૨ 'तए ण से चित्ते सारही' इत्यादि । सूत्रार्थ-(तए ण से चित्ते सारहों पएसिराय एवं वासी) त्या . - Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -सुबोधिनी टोका सू. १२७ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशीराजवर्णनम् १६५ आनोपगतः अधोऽवधिकः आन्नजीदितः । ततः खलु म प्रदेशी राजा चित्र सारथिमेवमवादीद-अधोऽवधिक्य खलु बदसि चित्र ! अन्नजीवितत्व खल उस चित्र सारथिने प्रदेशी राजा से कहा-(एम णमामो ! पालावञ्चिज्जे केमी नाम कुमारसमणे जाइम पणे जाव च उनाणोवगप) हे स्वामिन ! ये पुरोर्ती केशीकुमारश्रमण हैं । जो कि पार्श्वनाथ की शिप्यपरम्परा में उत्पन्न हुए हैं। इन्होंने कुमारावस्था में ही संयम ग्रहण किया है इसलिये इन्हें कुमारश्रमण कहा गया है। ये जातिसंपन्न हैं, यावत् कुलसंपन्न हैं, इत्यादि पूर्व में कहे गये विशेषणों वाले है। इन विशेषणों का अर्थ वहीं पर लिखा जा चुका है. अतः यहां पर पुनः नहीं लिखा है। ये मतिज्ञान, श्रुतज्ञान. अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञान के अधिपति है-चार ज्ञान के धारी हैं (अयोऽअहिए अण्णजीविए) इनका जो अवधिज्ञान है वह परमाधि से किन्चित ही न्यून है। इनका जीवन प्रामुक एपणीय अन्नपान से है. अर्थान् ये प्रामुक एपणी य ही आहार लेते है, उद्गेमादि दोष से दूषित आहार नहीं लेते हैं। (नए ण से पहीसी . राया चित्त मारहिं एवं वयासी) तब प्रदेशी राजाने चित्र सारथि से ऐसा कहा-(आहोहियं णवयासी चित्ता ! अण्णजीवियनणवयासी चित्ता?) हे चित्र ! जो तुम एसा कहते हो कि इनका अवधिज्ञान परमावधि से चित्र साथिये अशी शतने मा प्रमाणे धु (ए सण सामी ! पासावच्चिब्जे केसी नाम कुमारसमणे जाइसम्पपणे जाव चउनाणोवगए) वाभिन ! यी આપણી સામે કેશીકુમાર શ્રમણ છે. કે જેઓ પાર્શ્વનાથની શિષ્ય પરંપરામાં ઉત્પન્ન થયા છે. એમણે કુમારાવસ્થામાં સંયમ ગ્રહણ કર્યો છે. એથી જ એમને કુમારશ્રમણ કહેવામાં આવ્યા છે. એ જતિસંપન્ન છે, યાવત્ કુલસંપન છે, વગેરે પહેલા કહેવાયેલાં વિશેષણથી યુકત છે. આ બધા વિશેષણનો અર્થ પહેલાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે. તેથી અહી ફરી કહેવામાં આવ્યો નથી, એ મતિજ્ઞાન, તજ્ઞાન, અદ્ધિજ્ઞાન અને મન:પર્યવજ્ઞાનના અધિપતિ છે, ચાર જ્ઞાનધારી છે. (अधोऽवहिए अग्णाजीविए) मेमनुरे भवधिज्ञान छ ते ५२भावधियी या છે. એમનું જીવન પ્રાસક એષણીય અન્નપાનથી છે. એટલે કે એ ઓ પ્રાસુક એષણેય આહાર ગ્રહણ કરે છે. ઉદગમ વગેરે દેથી દૂષિત આહાર એઓ ગ્રહણ કરતા નથી: 'तए ण से पएसी या चित्तं सारहिं एवं वयासी) त्यारे अशी शक्तये (यत्र साथिन म प्रमाणे धुं. (आहोहियं ण वयासी चित्ता ! अण्णजीवि. यत्तणं वयासी चिता? यित्र ! तमे २॥ प्रभाए । छ। मेभानु २५4‘ધિજ્ઞાન પરમાવધિ કરતાં થોડું જ અલ્પ છે તેમજે એ પ્રસુક એષણીશ આહાર Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ राजप्रश्नायसो वदसि चित्र ! ?। हन्त स्वामिन् ! आधोऽवधिक्यं खलु वदामि अन्नजीवि. तत्त्व खलु वदामि । अभिगमनीयः ग्रल चित्र ! एप पुरुपः? हन्त ! स्वामिन ! अभिगमनीयः । अभिगच्छाम खलु चित्र वय एनं पुरुषम् ? हन्त ! स्मा मिन् ! अभिगच्छामः ॥ १७॥ टीका-तएण से चित्ते' इत्यादि-ततः खलु स चित्रः सारथिः प्रदेशिराजमेवमवादीत-हे स्वामिन् ! एप अयं-पुरोवती पार्थापत्यीयः पावस्वामि शिप्यपरम्परासंजातः केशी नाम कुमारश्रमण:=कुमारश्चासौ श्रमणश्च कुमारश्रमणः कुमारावस्थायामेव गृहीतसंयमः कीदृशोऽयमित्याह-जातिसंपन्नः यावत् यावच्छन्देन 'कुलसंपन्न.' इत्यादिविशेषणा नसर्वाणि पूर्वमूत्रोक्तानि संग्राह्याणि किंचित् ही न्यून है तथा ये प्रामुक एषणीय ही आहार लेते हैं मो क्या यह बात तुम सत्य कहते हो ? (हता सामी! आहोयिण वयामि, अण्ण जीवियत्त । क्यामि) हां, बामिन ! मैं सत्य कहता हूं कि इनका अवधिज्ञान परमावधि से किंचित् न्यून है और ये प्रामुक एपणीय ही आहार लेते हैं। (अभिगमणि उजे ण चित्ता ! एम पुरिसे) तो हे चित्र ! यह पुरुष अभिगमनीय है. अर्थात् परिचय करने के योग्य है (हता सामी ! 'अमिगमणिज्जे) हां स्वामिन् । ये आपके लिये अभिगमनीय हैं अर्थात् परि चय करने के योग्य हैं । (अभिगच्छामो ण चिना ! अम्ह एवं पुरिन) तो हे चित्र ! मैं इनके साथ परिचय करलु ? (हता सामी ! अभिगच्छामो) हां स्वामिन् ! आप इनके माथ परिचय करें। इसका टीकार्थ इस मूला के जैसा ही है। केवल विशेषता अण्णजवियत्त' पद में है, इसका अर्थ तो मूलाथ में लिया जा चुका है अड ४२ छ तो शुमा वात साथी छ ? (हता सामी! आहोहियण वयामि अण्णजीवियत्त ण चयामी) स्वाभिन ! हुई साथी' पात : अमन અવધિજ્ઞાન પરમાવધિ કરતાં થોડું કમ છે અને એઓ પ્રાસુક એષણીય આહાર अय ४२ छ. (अभिगमणिज्जे णचित्ता ! एस पुरिसे) तो है यिन:! मा पुरुष मलिगमनीय छ मेटमणमा ४२१॥ योग्य छ. (हता सामी ! अभिगमणिज्जे) હાં સ્વામિન ! એઓ આપના માટે અભિગમનીય છે એટલે કે ઓળખાણ કરવી એગ્ય છે. (अभिगच्छामो ण चित्ता! अम्ह एयपु रेस)ता उथिन भनी साथै सामा? (हंता सामी अभिगच्छामो) | स्वामिन त मेमनी साथे साजमा ४Nal. __भा सत्रना टीआय भूसार्थ प्रमाणे १ छ. विशेषता ५५त 'अण्णजीवियत्त' પદમાં છે. આને એક અર્થ તે મૂલાઈમાં જ લખવામાં આવ્યું છે. અને બીજે Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका. सूत्र १२७ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् S १६७ अर्थोऽपि तत एव बोध्यः । चतुर्ज्ञानोपगतः =मत्यादिज्ञानचतुष्टयसंपन्नः अघोsवधिकः = अधः-परमावधेर धोवर्ती अवधिर्यस्य स तथा परमावधेः विश्व -न्यूनावधियुक्तः अन्नजीति = अन्नेन=पापणीयानमात्रेण जी तं जीवनं यस्य स तथा । तथा-' अन्यजीवितः' इति वा छाया तंत्र - अन्यस्मै न तु स्वस्मै सर्वविरतिमत्त्वात् जीवनमरणाशंसामुक्तत्वाद्वा जीवितं जीवनं यस्य स तथा तादृशो वरुते ! ततः खलु स प्रदेशी राजा चित्र सारथि - मेमवादीत हे चित्र ! अस्य मुनेस्त्वम् आधोऽयधिक्यम् = अधोऽवधित्वं वदसि= सत्यं कथयसि ? तथा - अन्नजीवितत्वम् अन्यजीव वास्यमुनेः ! हे चित्र ! त्वं सत्यं कथयसि ? | इति पृच्छानन्तरं चित्र ! सारथिः माह - हे स्वामिन् ! 'हन्न ! इति स्वीकारे 'हूँ।' इनि भाषायाम्, अम्य मुनेरहम् श्रधोऽवधिक्य खलु वदामि सत्यं कथयामि तथा अन्नजीवितम् अन्यजन्तित्वं वा वदामि= सत्यं कथयामि । पुनः मदेशी राजा प्राह- हे चित्र ! एष पुरुषः किम् श्रस्माकम् अभिगमनीयः=परिचय्यग्योति ? हन्त हे स्वामिन ! एष मुनिः अभिगमनीयोऽस्ति । पुनः प्रदेशी राजा पृच्छति एवं तर्हि हे चित्र ! एतं पुरुषं वयम् अभिगच्छाम । अनेन सह परिचयं करवाम ? ! चित्रः सारथिः प्राह-हन्त हे स्वामिन्! श्रभिमच्छाम = अनेन सह वयं परिचयं करवाम ॥ मु० १२७ ॥ मूलम् -- तए णं से पएसी राया चित्तेण सारहिणा सद्धिं जेणेव केसीकुमारसमणे तेणेव उवागच्छइ, केसिस्ल कुमारसमणस्स अदूरसामंते ठिच्चा एवं वयासी-तुम्भे णं भंते! आहोहिया अण्णजीविया ? | तरणं केसीकुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासा-पएसी ! से जहाणामए अंकवाणियाइवा संखवाणियाइवा दंतवाणियाइवा सुकं भंसिउंकामा णो सम्मं पंथ पुच्छति, एवामेव पसी ! तुम्भेवि विषयं भंसे उकामो नो सम्मं पुच्छसि, से णूणं तव और दूसरा अर्थ 'अन्यजीवित' इस छायापक्ष में ऐसा होता है कि सर्वतियुक्त होने से अथवा जीवन मरण की आशमा से रहित होने से इनका जीवन दूसरों के लिये ही है अपने लिये नहीं है ।। . १२७॥ : अर्थ' अन्यजीवित' या 'छायापक्ष'भां आ प्रमाणे थाय छे. અથવા જીવનમરણુની અશ’સાથી રહિત હાવાથી એમનુ જ છે પેાતાના માટે નહિ. ॥ સૂ. ૧૨૭ ॥ सर्वविरतियुक्त होवाथी જીવન ખીજાએના માટે Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ राजप्रशोयसूत्रे पएसी : मम पासित्ता अय मेयारूने अज्झथिए जावं समुप्पजित्था- . जडा खल्लु भो ! जड जपवासति जाव पवियरित्तए से गूणं पएसी ! अष्टे समत्थे ? हंता ! अत्थि ॥सू० १२८॥ - छाया-तनः बलु स प्रदेशी राजा चित्रेण सारथिना सा यत्रैव केशो कुमार श्रमणः तत्र व उपागच्छनि. केशिनः कुमारश्रमणस्प अदूरमामन्ते स्थित्वा एवमवादीत्-युपं खलु भदन्त ! अधोऽवधिकाः अन्ननी: विताः । नतः खलु केशीकुमारश्रमण : प्रदेशिन राजानमेवमवादीत-प्रदेशिन् ! तयथा नाम-अङ्कवणिज इति वा शङ्कवणिज इति वा दन्त वणिज. '.. 'तए णं से पएसी राया चित्तण सारहिणा सदि इत्यादि। मूत्रार्थ-(तए णं) इसके बाद (से पएसी राया वित्तेण. सारहिणा महि) वह प्रदेशी राजा चित्र सारथि के साथ (जेणेत्र केमिकुमारसमणे तेणेव उवागच्छई) जहां के शिकुमार श्रमण थे वहां पर गया (कमिस्स कुमाः रसमणस्स अदरसामते टिच्चा एवं क्यासी) वहां जाकर बह के शिकुमार श्रमण से एसे स्थान पर खड़ा रह गया कि जो स्थान न उनसे अधिक दूर था और न अधिक पाम था। वहीं से खडे२ इसने उनसे एमा कहा(तम्भे गं. भंते ! आहोहिया अण्णजो विग) हे भदन्त ! आपका ज्ञान-अबविज्ञान परमावधि से किंचित् न्यून है, और आप प्रामुक एषणीय हो आहार करते हैं ? (नए गं के माकुमारसमणे पएसिं राय एवं वयासी) तब केशो कुमार, श्रन गने, प्रदेशी राजा से ऐसा कहा- पएपी! से नहा. णामए. अंक आणि इ बा, दंत वाणिपाइ वा, मुक भप्तिकामा. गो. पम्न: । 'तए. ण से पएसी राया चित्तौणे मारहिणा सद्धि' इत्यादि। .: सूत्रार्थ-(लए ण) त्यारपछी (से. पएमी राया चित्रोण सारहिणा सद्धि) ते अशी २० चित्र सास्थानी साथे (जेणेव केसि कुमारसमणे तेणेव उवागच्छई), oriiशिमा२ अभए ता त्यां गया. (केसिस्स कुमारसमणस्स अदूरसाम ते. ठेचा एक वयासी) त्यां धनते शिशुभा२ श्रमथी सेवा स्थान मा, २द्या કે જે સ્થાન તેમનાથી વધારે દૂર પણ નહિ હતું અને વધારે નજીક પણ નહિ હતું त्यi SHt Sell or तो तभने । प्रमाणे यु. (तुम्भेण भते. आहोहिया अण्णजीविया) मईत! मातुशान-परभावधि २ता था४म छ.. भने आ५ प्रासु अषणीय मा.२ ४ अंडय ४३। छ। ? (तए ण केसीकुमारसमणे पएसि राय एवं वासी) त्यारे शोभा२ अंभो प्रदेशी ने भी प्रमाणे घु.. 41 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका. सूत्र १२८ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् १६९ इति वा, शुल्क भ्रशयितुकामा नो सम्यक् पन्थान' पृच्छन्ति, एवमेव प्रदेशिन् ! त्वमपि विनय भ्रंशयितुकामा नो सम्यक् पृच्छसि, अथ नून तब प्रदेशिन् ! मां दृष्ट्वा अयमेतद् प: आध्यात्मिकः यावत् समुदपद्यत-जडाः खल भो ! जडं पर्युपासते यावत् प्रविचरितुं स नून प्रदेशिन् ! अर्थः समर्थ : हन्त ! अम्ति ॥ मू० १२८ ॥ . पंथ पुच्छति) हे प्रदेशिन् ! जैसे अकरत्न के व्यापारी. अथवा शंखरत्न के व्यापारी, या दन्त के व्यापारी, अर्थात् शंख शुभ भी होता है इस. लिये उसको रत्न कहा है, राजदेय भाग को नहीं देने की इच्छा वाले होकर जाने के अच्छे मार्ग को नहीं पूछते हैं (एवामेव पएसी तुम्भे वि यणं भंसेउकामो नो सम्म पुच्छसि) इसी प्रकार से हे प्रदेशिन् ! विनयः रूप प्रतिपत्ति को नहीं करने की कामना वाले बने हुए तुमने मी यह अच्छेरूप से नहीं पूछा है. (मे गूण तव पएसो मम पासित्ता अयः मेयारवे अज्झथिए जाच समुप्पन्जित्था) हे प्रदेशिन् ! मुझे देखकर तुम इस प्रकार का यह आध्यात्मिक यावत् मनोगत संकल्प हुआ है (ज खलु भो! जई पज्जुवासति जाव पवियरित्तए) जड पुरुष जड़ पुरुषको पर्युपासना करते हैं. यावत मैं अपनी भी इस उद्यान भूमि में अच्छी तरह से घूम नहीं पा रहा ह (से गुण पएसी! अट्ठ समस्थे? ) हे पदे शिन ! कहो में ठीक कह रहा हूं न? (हंता, अस्थि) हां, आप ठीक कह रहे हैं। (पएसी! से जहाणामए अंकवाणियाइ वा, संखवाणियाइ वा, दंतवाणि याइ वा, मुक मसिउँकामा णो सम्म पंथ पुच्छंति) प्रहशन् ! म અંકરના વહેપારી, કે શંખરત્નના વહેપારી કે દત્તના વહેપારી (શંખ શુભ પણ ગણાય છે તેથી અહીં તેને રત્નરૂપે ઉલ્લેખવામાં આવે છે) રાજકર આપવાની ઈચ્છા नसता त्यांची वान सास भागी भाटे ५७५२७ ४२ नथी (एवामेव प्रएसी म्भे विवि यण भसेउकामो नो सम्म पुच्छसि) मा प्रमाणे ३ प्रशिन! વિનયરૂપ પ્રતિપત્તિને ન આચરતાં તમે પણ આ વાત શિષ્ટમાવથી-નમ્રતાથી - पछी नथी. (से गृण तव पएसी मम पासित्ता अयमेयारूवे अत्झस्थिए जान समुप्पज्जित्था) 3 प्रशिन भने निधन तभने २॥ प्रमाणेनो माध्यामि यात भना। ४८५ Sपन्न थयो छ ४ (जड्ड। खलु भो ! जड्डे पज्जुवासति बार पबियरित्तए) ४४ पुरुषो ने सेवे छ यावत् हुमा भारी पनि उद्यान अभिभा ५५ सारी शत मारामथा श शरत नथी. (से गूग' पएसो ! अ8 समस्ये १) 3 प्रशिन ! मोटो ई पराम२ छुने ? (हता, अत्थि)si, भा५ | sh Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजश्री सत्रे टीका- 'तरण' से एसी' इत्यादि -- ततः खलु स प्रदेश राजा चित्रण सारथिना सार्धं यत्रैव केशीकुमारश्रमणस्तत्रैवोपागच्छति=समागछति, केशिनः कुमारभ्रमणस्य अदरसामन्ते= नातिदूरे नातिसमीपे स्थित्वा अनुपविश्यैव एवमवादीद यूयं खलु हे भदन्त अधोऽधिकाः- अधोऽवधिसम्पन्नाः ? अन्नजीविताः प्रासुकैपणीयान्नमात्र विनः अन्यजीविनो वा? ततः खलु केशीकुमारश्रमणः प्रदेशिनं राजानमेवमवादीत् - हे प्रदेशिन् ! तद्यथा इति दृष्टान्ते नामेति वाक्यालङ्कारे वणिजः अङ्गरत्नव्यापारिणः 'इति' वाक्यालङ्कारे 'वा' समुच्चये, शङ्खवणिजः = शङ्ख रत्नव्यापारिणः, दन्तवणिजः हस्तिदन्तव्यापारिणः उपलक्षणात्सव रत्नव्यापारिणः शूल्क = राजदेय भाग भ्रशयितुकामाः = अदातुकामाः नो सम्यक् समीचीनतया पन्धान गम्यमार्ग पृच्छन्ति एवमेव अनयैव रीत्या हे प्रदेशिन ! त्वमपि विनय =प्रतिपत्तिरूप' न शयितुकामः = अकर्ते काम नो सम्यक् पृच्छसि । अथ= वाक्यारम्भे नूनः = निश्चयेन हे प्रदेशिन् । तत्र मां दृष्ट्वा अयमेतदुपः = वक्ष्यमा गामकारकः आध्यात्मिकः श्रात्मगतः यावत् कल्पितः प्रार्थित, चिन्तितः मनोगतः-मनः–स्थितः सकल्पः विचारः समुपद्यत = समुत्पन्नः, तदेव दर्श• यति जडाःखलु भो ! जड' पर्युपास्ते यावत् प्रविचरितम्, यावत्पदसंग्राह्यः सर्वोऽपि पाठः पूर्वगतः, स तदर्थश्च तत एवावलोकनीयः । हे प्रदेशिन् ! सोऽथी- मदुक्तस्त्वद्हद्गतविचाररूपोऽर्थः न्नः = निश्चित समर्थो वास्तविको ते ? मदेशी राजा माह-हन्त । अस्ति = अयमर्थः समर्थाऽस्ति सत्य मस्तीति भावः ॥ १२८ ॥ १७० 1 टीकार्थ -- स्पष्ट है. यहां 'इति' शब्द वाक्या'कार में और 'वा' शब्द समुच्चय अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। तथा 'तद् यथा' पद दृष्टान्त में आयी है। उपलक्षण से यहां समस्त रत्न व्यापारी को ग्रहण करना चाहिये. यावत् पंद से संकल्प के कल्पित, प्रार्थित, चिन्तित और मनोगत' ये विशेषण ग्रहण किये गये हैं। तथा - 'पज्जुवासति जाव' के यावत् पद से पूर्वगत समस्त पाठ गृहीत हुआ है। यह पाठ १२६वे सूत्र में प्रकट किया गया है। नू. १२८। टीमर्थ मा सूत्रने टीज़र्थ स्पष्ट ४ है. सड्डी' 'इति' शब्द वाश्यांस''अरमा भने 'चा' शब्द समुय्यय अर्थभां वयःाये छ. ते 'तद् यथा' पढ़ દૃષ્ટાતમાં આવેલ છે. ઉપલક્ષણુ થી અહીં બંધા રત્નના વેપારીઓનુ ગ્રહુંણ સમજવુ જોઇએ. યાવત પદથી સંકલ્પના કલ્પિત, પ્રાતિ, ચિન્વિત અને મનેાગત : यो विशेषाशी थडणु १२वा. ध्ये 'पज्जुवास'ति जात्र' ना यावत् पहथी पूर्वगत સમસ્ત પાઠનુ` ગ્રહણુ સમજવુ જોઇએ. આ પાઠું ૧૨૬માં સૂત્રમાં આપેલ છે. ॥सू ૧૨૮ . Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __सुबोधिनी टीका. १२९ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिरजवर्णनम् ११. मूलम्-तएणं से पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं बयांसी मे केणं भंते! तुझं नाणे वा दसणे वा जेणं तुझे मम एयारूवं अज्जस्थियं जाव संकप्पं समुप्पण्णं जाणह पासह ? तएणं से केसी कुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासी-एवं खल्लु पएसि! अहं समणाणं निग्गंथाणं पंचविहे नाणे पण्णते, तं जहा-आभिणिवोहियणाणे१ सुयणाणे२ ओहिणाणे३ मणपज्जवमाणे४ केवलणाणे५.५ । से किं तं आभिणिवोहियनाणे? अभिणिवोहियनाणे चउबिहे पण्णत्ते, तं जहा-उग्गहे१ ईहार अवाए३ धारणा४। से किं तं उग्गहे ? उसाहे दुविहे पण्णत्ते, जहा नंदीए जाव से तं धारणा, से तं आभिणियो-. हियणाणे। से किं तं सुयनाणे ? सुयनाणे दुविहे पपणत्ते--अंगपविटुं च अंगवाहिरियं च, सव्व भाणियव्व जाव दिदिवाओ। ओहिणाणं भवपञ्चइयंखाओवसमियं जहा नंदीए मणपज्जवनाणे दुबिहे पण्णले, तं जहा--उज्जुमई य विउलमई य, तहेव केवलनाणं सव्व भाणियव्व । तत्थ णं जे से आभिणियोहिनाणे, सेणं मम अथि। तत्थ णं जे से सुयणाणे से वि य ममं अस्थि । तत्थ णं जे से ओहिणाणे से वि य ममं अत्थि। तत्थ णं जे से मणपज्जवनाणे से वि य मम अस्थि । तत्थ णं जे से केवलनाणे से णं मम नस्थि, से णं अरिहताणं भगवंताणं । इच्चेएणं पएसी ! अहौं तव चउठिवहेणं छाउ. मथिएणं णाणेणं इमेयारूवं अज्झत्थियं जाव संकप्प समुपाणं जाणाभि--पासामि ॥ सू. १२९ ॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ७२ राजप्रश्नीयसत्र छाया-ततः खलु स प्रदेशी राजा केशिन कुमारश्रमणम् एवमवादीव-तकि खलु भदन्त ! युष्माकं ज्ञान वा दर्शन' वा, येन यूयं मम एसपम आध्यात्मिक यावत् संकल्प समुत्पन्न जानीथ पश्यध? ततः खलु स केशीकुमारश्रमण : प्रदेशिन राजान एवमवादीव एव' खलु पदे शिनं । अस्माकं श्रमणानां निर्ग्रन्थानां पञ्चविध ज्ञान प्राप्तम्, तद्यथा आमिनियोधिकज्ञानम् १, तज्ञानम् २, अवधिज्ञानम् ३, मनःपर्यवज्ञानम४, केवलज्ञानम् ५ । अथ किं . तद् आभिनियोधिकज्ञानम् ? आभिनियोधिकन्नान 'तए णं से पएसी राया' इति' इत्यादि। सूत्रार्थ--(तए णं से पएसी राया के सि कुमारसमण एवं वयासो) पुनः उस प्रदेशी राजाने केशी कुमारश्रमण से ऐसा कहा-(से केज मते ! तुज्झो, नाण वा दसणे वा जेणं तुज्झो मम एयारूवं अज्झ थिय जाव संकप्प समुप्पण जाणह पासह ?) हे भदन्त ! ऐसा आपका वह कौनसा ज्ञान अथवा दर्शन है कि जिसके द्वारा आपने मेरे इस उत्पन्न हुए आध्यात्मिक यावत् मनोगत संकल्प को जाना है, और देखा है(तए ण से केसी कुमारसमणे पएर्सि राय एवं वयांसी) तय केशीकुमार. श्रमणने उस प्रदेशी राजा से ऐसा कहा-(एवं खलु पएसी अम्ह समगाण जिग्गथाण पंचविहे नाणे पणन तं जहा-आभिणियोहियनाणे, सुधनाणे, ओहिनाणे, मणपज्जवनाणे केवलणाणे)हे प्रदेशिन! हम. श्रमण निर्ग्रन्थों के मत में पांच प्रकार के ज्ञान कहे गये हैं जैसे आभिनियोधिकज्ञान, मतिज्ञान श्रुतझान, अवधिज्ञान. मनापर्यवज्ञान और केवलज्ञान (से किं तं आभिगि 'त एण से पएसी राया' इत्यादि । सूत्रार्थ-(त एण से पएसी राया कसि कुमारसमण एवं वयासी) २ ते प्रदेश २ मा श्रमाने मा प्रमाणे युं (से केण भते ! तुज्झे नाणे. वा दंसणे वा जेण तुज्ज्ञ मम एयावं अन्झस्थिय जाब संकप्प समुप्पण जाणह पासह ?) B महत ! मायना पासे ये ४६ गत ज्ञान દર્શન છે કે જેનાવડે આપ મારામાં ઉત્પન્ન થયેલ આધ્યાત્મિકથાવત્ મનોગત સંકલ્પને Me! या छ।. मने न गया छ।. (तए णसे केसोकुमारसमणे पएसि राय एव' वयोसी) त्यारे 3शीभा२ अ ते अशी तिने 24॥ प्रमाणे अद्यु(एवं खलु पएसी ! अम्ह समणाण णिग्ग थाण पंचविहे. नाणे पणते त जहा-आभिणिवोहियनणे, सुयनाणे, ओहिनाणे, मणपज्जवनाणे, लेवलणाणे) ૨ પ્રદેશિન! અમારા શ્રમણ નિગ્રંથના મતમાં પાંચ પ્રકારના જ્ઞાન કહેવામાં આવ્યાં - - Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सू १२९ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजोवप्रदेशिराजवर्णनम..... १७३ . चतुर्विध प्रज्ञप्त, तद्यथा-अाग्रहः ? १, ईहा २, अवायः ३. धारणा ४॥ अथ कोऽसौ अवग्रहः अपग्रहो द्विविधः प्रज्ञसः यथा नन्यां यावत् सैषा धारणा, तदेतद्, आभिनिवोधिकज्ञानम् । अथ किं तत् श्रुतज्ञानम्? श्रुतज्ञान द्विविध प्रज्ञप्स', तद्यथा-अङ्गमविष्ट' च अङ्गबाहय च, सर्व भणितव्य यावत्दृष्टिवादः। अवधिज्ञान भवप्रत्ययिक क्षायोपशमिक यथा नन्द्याम् (नं. पृ. बोहियनाणे) हे भदन्त ! आभिनिबोधिकज्ञान का क्या स्वरूप है ? (भाभिगिबोहियनाणे चउविहे पण्ण) हे प्रदेशिन् । आभिनियोधिकज्ञान चार प्रकार का कहा गया है। (तं जहा-उग्गहे १ ईहा २ अबाए३ धारणा ४) जैसेअवग्रहः इहा, अवाय और धारणा। (से कि त उग्गहे) हे भदन्त ! अपग्रह ज्ञान का क्या स्वरूप है। (जहान दीए जाव से तं धारणा, से तआभिणि योहियणाणे) अवग्रह से लेकर धारणापर्यन्त सब विवेचन नन्दीमूत्र में कहा गया है, इस प्रकार वह आभिनियोधिकज्ञान का स्वरूप है। (से कि तसुयनाणे) हे भदन्त ! श्रतज्ञान का क्या स्वरूप है ? (सुयनाणे दुविहे. पणत्ते) हे प्रदेशिन् ! श्रुतज्ञान दो प्रकार का कहा गया है। (त जहाअंगपविट्ठच अंगवाहिरियं च) जैसे-अंगप्रविष्ट और अंगवाह्य (सन्न भोणि ययं जाव दिहिवाओ) इन दोनों श्रुतज्ञानों का वर्णन भी नन्दिमूत्र में कहा गया है अतः दृष्टिबाद तरु श्रुतज्ञान का समस्त वर्णन वहां से देखना चाहिये, (ओहिनाण भवपञ्चइयं खओवसमियं जहा नंदीए) अवधिज्ञान भवप्रत्ययिक છે. જેમકે આભિનિધિજ્ઞાન, મતિજ્ઞાન થતજ્ઞાન, અવધિજ્ઞાન,મનઃ૫ર્ચવજ્ઞાન અને કેવલજ્ઞાન. (से किं त आभिणियोहियनाणे) लत ! मालिनिमाधि शान २१३५ छ ? (आभिणियोहियनाणे चउबिहे पाण) हे प्रदेशिन् ! मालानिमाविज्ञान या प्रातु ४वाय छ. (त' जहा-उग्गहे १ ईहा.२ अवाए ३ धोरणा ४) भ3 सवा १, २, मवाय 3, मने धारा ४,. (से कि त उग्गहे) हे मत ! अवार्ड ज्ञान २१३५ 3' छ ? (ग्गहे दुविहे पण्ण) . प्रशिन २५वड शान थे. २ नु रुवाय छ. (जहा नदीए जान से त धारणा, से तं आभिणिवोहियणाणे) અવગ્રહથી માંડીને ધારણ સુધીનું સમરત વિવેચન નંદીસુત્રમાં સ્પષ્ટ કરવામાં भाव्यु छ. या प्रमाणे मालिनिगाधिकाननु स्व३५ छ ? (से कि त सुयनाणे) डे मत ! श्रुतज्ञान २५३५ यु छ ? (सुघनाणे दुविहे पण) के प्रशिन ! श्रुतज्ञान में नु छ. (नजहा अंगपविष्टच अंगवाहिरियं च) म मा प्रविष्ट २ . (ल भाणियन्त्र मात्र दिष्ठियाओ) २५ न्ने शुतज्ञानानु वर्णन પણ નન્દિત્રમાં કરવામાં આવ્યું છે. તેથી દષ્ટિવાદ સુધી શ્રતજ્ઞાનનું બધું વર્ણન त्यांथी aa arejी देनये. (ओहिनाणंभवपञ्चइय खोवसमियौं जहा नदीए) Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रांजप्रश्नीयसूत्र १७४ १६८ पं. ४)। मनःपर्यवज्ञान विविध प्रज्ञप्त, तद्यथा-जुमतिश्च विपुल मतिश्च तथैव केवलज्ञान सर्व भगिनव्यम्। तत्र खलु यत्तत् आभिनिवोधिकज्ञान तत्खलु ममास्ति ? । तत्र खलु यत्तत् श्रुतज्ञानं तदपि च ममास्ति २॥ तत्र खलु यत्तत् अवधिज्ञान तदपि च . ममास्ति ३। तत्र-खलु यत्तद् मनापर्यवज्ञानं तदपि च ममास्ति ४। तत्र खलु यत्तत् केवलज्ञान तत् खलु मम नास्ति, तत् खलु अर्हतां भगवताम् । इत्येतेन प्रदेशिन् ! अहं तव चतुर्विधेन छानस्थिकेन ज्ञानेन एतमेतद्रपम् आध्यात्मिक यावत् संकल्प समुत्पन्नं जानामि पश्यामि ।। मू० १२९ ।। और क्षायोपशमिकके भेद से दो प्रकार का कहा गया है। इसका भी वर्णन नन्दीमत्र में किया गया है। (मणपजवनाणे दुविहे पण्णत्ते) मनःपर्यवज्ञान दो प्रकार का कहा गया है (त जहा-उज्जुमईय. विउलमईय)-ऋजुमति और विपुलमति, (तहेव केवलनाण सव्व भाणियन्त्र) इसी प्रकार केवलज्ञान का वर्णन भी यहां पर करना चाहिये (तत्थ ण जे से आभिणिवोहियनाणे से णं मम अस्थि) इन पांच ज्ञानों में से मुझे मतिज्ञान रूप आभिनिवोधिकज्ञान है। (तत्थ ण जे से मुयनाणे से वि य मम अस्थि) श्रतज्ञान भी है (भोहियणाणे से वि य मम अत्थि) अवधिज्ञान भी है। (तत्थ ण जे से मणपजवनाणे से वि य मम अत्थि) और मुझ मनः पर्ययज्ञान भी है। (तत्थ णं जे से केवलवाणे से णं मम नत्थि) केवल ज्ञान मुझे नहीं है (से ण अरिहंताणं भगवंताणं) यह केवलज्ञान अहेन्त .. भगवन्तों के होता है। (इच्चेएणपएसी ! अह तव चउबिहेण छाउઅવધિજ્ઞાન ભવપ્રત્યયિક અને ક્ષાપશમિકના ભેદથી બે પ્રકારનું કહેવાય છે. આનું qdन पर नन्हीसूत्रमा ४२वामी माव्यु छ. (मणपज्जवनाणे, दुविहे पण्णत्रो) भन्नः पर्यवज्ञान में प्रानु उपाय छ. (त जहा उज्जुमई य विउलमई य) संभ नुमति अन विपुलमति (तहेव केवलनाण सन्न भाणियव्य) 20 प्रमाणे सजाननु वर्णन ५ ४२ मध्ये. (तत्थ ण जे से आभिणियोहियनाणे से ण मम अत्थि) २ पांय हानामाथी भने भतिज्ञान३५ मालिनियाधिशान छ. (तत्थणं जे से सुयनाणे से विय मम अस्थि) श्रुतज्ञान ५ छ. (ओहिय णाणे से विय मम अत्थि) अवधिज्ञान पार छ. (तत्थ ण जे से मणपज्जत्र नाणे से विय मम अत्थि) मने मन:५वज्ञान ५ छ. (तत्थ णजे से केवलनाणे से ण मम नत्थि) ५२'तु भने विज्ञान नथी. (से गं अरिहताणं भगवंताणं, २॥ वज्ञान मर्डन्त सन्तान डाय छ. (इच्चेएण' पएसी ! अब तत्र च उबिहेण छउमस्थिएणणाणेण इमेयारूप अज्झस्थिय जाच संकप्प Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _ १७५ सुबोधिनो टोका सू. १२९, सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजोवप्रदेशिराजवण नम् ____टीका--'तए णं से पएसी' इत्यादि--ततः खलु स प्रदेशी राजा केशिनं कुमारश्रमणमू एवमवादीत्-तत् किम् कीदृशं खलु हे भदन्त ! युष्माकं ज्ञानं वा दर्शनं वा अस्ति येन ज्ञानेन वा दर्शनेन वा यूयं मम एतद्रूपं-पूर्वोक्तमकारम् आध्यात्मिकमू-आत्मगतविचारम् यावत् संकल्पम्, यावच्छन्देन-चिन्तित, कल्पितं, पार्थितं मनोगतम्, इति संग्राह्यम्, संकल्पं समु. त्पन्न समुद्भूतं जानीथ-ज्ञानविषयीकुरुथ पश्यथ-दर्शनविषयी कुरुथा ततः प्रदेशि राजमश्नानन्तरं खलु स केशीकुमारश्रमणः प्रदेशिनं राजानम् एवमवादीत्एवं खलु हे प्रदेशिन ! अस्माकं श्रमणानां निग्रंन्धानां पञ्चविधं ज्ञानं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-भाभिनिवोधिज्ञानम् १ श्रुतज्ञानम् २, अवधिज्ञानम् ३, मनापर्यवज्ञानम् ४, केवलज्ञानम् ५। तत्र-आभिनियोधिक ज्ञानं चतुर्विधं प्रज्ञप्तं, न था-अवग्रहः १, ईहा २, अवायः ३, धारणा ४। अथ कोऽसौ अवग्रहः ! स्थिएगणाणेणं इमेयारूबौं अज्झत्थियं जाव संकप्प समुप्पण्णं जाणामि पासामि) इस तरह से हे प्रदेशिन मैंने इन छालस्थिक चतुर्विधज्ञान के द्वारा तुम्हारे इस प्रकार के समुत्पन्न हुए इस संकल्प को जान लिया है और देख लिया है। . टीकार्थ-इसके बाद प्रदेशी राजाने केशी कुमारश्रमण से इस प्रकार कहा-हे भदन्त ? आपका ज्ञान दर्शन किस प्रकार का है कि जिससे आपने मेरे उत्पन्न हुए इस प्रकार के आध्यात्मिक, चिन्तित, कल्पित, पार्थित एवं मनोगत इस संकल्प को जान लिया है, और देख लिया है ? इस प्रकार के प्रदेशी राजा के पूछने पर केशीकुमारश्रमणने उससे ऐसा कहा-हे प्रदेशिन ! श्रमणनिर्गन्थों का ज्ञान पांच प्रकार का कहा गया है, अभिनियोधिकज्ञान१, श्रुतज्ञान२. अवधिज्ञान३. मनःपर्यवज्ञान४, और केवलज्ञान५. इनमें आभिनिवोधिकज्ञा अवग्रह, ईहा, अवाय, और धारणा के समुप्पण्ण जाणामि पासामि) PAL प्रमाणे उ प्रदेशिन् ! भे' मा छास्थि: यार - પ્રકારના જ્ઞા વડે તમારામાં સમુત્પન્ન થયેલ સંકલ્પ જાણી લધે છે અને જેઈલી છે. • ટીકાથ-ત્યારપછી પ્રદેશી રાજાએ કેશીકુમારશ્રમણને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે ભદંત ! આપનું જ્ઞાનદર્શન કઈ જાતનું છે. કે જેથી આપે મારામાં ઉત્પન્ન થયેલ આધ્યાત્મિક. ચિંતિત, કલ્પિત, પ્રાર્થિત અને મને ગત આ સંકલ્પ જાણી ગયા છે અને જેઈ ગયા છો? આ પ્રમાણે પ્રદેશ રાજાના પ્રશ્નને સાંભળીને કેશીકુમાર શ્રમણે તેમને આ રીતે કહ્યું કે હે પ્રદેશિન! શ્રમણ નિગ્રથનું જ્ઞાન પાંચ પ્રકારનું કહેવાય છે. અભિનિધિ જ્ઞાન ૧,અતજ્ઞાન, અવધિજ્ઞાન ૩, મન ૫ર્યવજ્ઞાન ૪, અને કેવલજ્ઞાન ૫, આમાં આભિનિધિજ્ઞાન અવગ્રહ, ઈહા, અવાય અને ધારણના ભેદેથી ચાર Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ राजप्रश्नोयसूत्रे इति प्रश्ने आह-अवग्रहो द्विविधः प्रज्ञप्तः यथा नन्यां यावत् सैषा धारणा अवग्रहादारभ्य धारणापर्यन्तं सर्वमाभिनियोधिज्ञानविवरणं नन्दीमत्रे विलो. फनीयम् । अर्थस्तु नन्दीमत्रस्य मत्कृतज्ञानचन्द्रिका टीकातो बोध्यः । तदेतद् आभिनिबोधिकज्ञानम् । अथ किं तत् श्रुतज्ञानम् ? श्रुतज्ञानं द्विविध प्रज्ञप्तं, तद्यथा-अङ्गप्रविष्टम् १' अङ्गबाह्य च सर्वश्रतज्ञानविषयक सर्व विवरण भणितव्यं= नन्दीसूत्रोक्तमेवात्र पठितव्यं, यावत्-दृष्टिवादः दृष्टिवादविवरणपर्यन्तमिति२ । अवधिज्ञानं भवप्रत्यविकं क्षायोपशमिकं चेति द्विविध, यथा नन्यां नन्दीसत्रे यथाकथितं तथैव सर्व विज्ञेयम्। अर्थोऽपि तत्रैव मत्कृतज्ञानचन्द्रिकाटीकायामवलोकनीयः३। मनापर्यवज्ञानं विविधं प्राप्तं, त था भेद से चार प्रकार का कहा गया है. अपग्रह का स्वरूप क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में केशिकुमारश्रमण ने कहा कि अर्थावग्रह और व्यजनावग्रह के भेद से अवग्रह दो प्रकार का कहा गया है. नन्दीमूत्र में अवग्रह से लेकर धारणा तकका पूर्ण विषय भनियोधिकज्ञान के विवरणप्रकरण में बहुत ही सुंदर ढंग से स्पष्ट किया गया है। नन्दीसूत्र के ऊपर हमने ज्ञानचन्द्रिका नाम की टीका लिखी है उसमें यह सब विषय स्पष्ट रूप से समझाया गया है. अतःविशेष जिज्ञासु इस विषय को वहां से देख लेवें। श्रुतज्ञान भी अङ्गप्रविष्ट और अबाह्य के भेद से दो प्रकार का कहा गया है. इस विषय का भी स्पष्टीकरण नन्दीसूत्र में किया जा चुका है। भवप्रत्ययिक अवधि और क्षायोपशमिकअवधि इस प्रकार से अवधि मन दो तरह का कहा गया है। इनकामी वर्णन वहीं पर किया गया है। ऋजु. પ્રકારનું કહેવાય છે અવગ્રહનું સ્વરૂપ કેવું છે? આ જાતના પ્રશ્નના ઉત્તરમાં કેશિકુમાર શ્રમણે કહ્યું કે અર્થાવગ્રહ અને વ્યંજનાવગ્રહના ભેદથી અવગ્રહના બે પ્રકારે કહેવાય છે; નદીસૂત્રમાં અવગ્રહથી માંડીને ધારણ સુધીની સંપૂર્ણ વિગત અભિનિ ધિકજ્ઞાનના વિવરણ પ્રકરણમાં ખૂબજ સારી રીતે રજૂ કરવામાં આવી છે. નદીસત્રની ..अभाये 'ज्ञानचन्द्रिका' नामे टी सी छ तभी धी मामतानु सविस्तार - સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવ્યું છે. તેથી વિશેષ જિજ્ઞાસુ સજજને ત્યાંથી જ વાંચવા યત્ન કરે, શ્રતજ્ઞાન પણ અંગ પ્રવિણ અને અંગ બાહ્યના ભેદથી બે પ્રકારનું કહેવાય છે. આ બાબતનું સ્પષ્ટીકરણ પણ નંદીસૂત્રમાં કરવામાં આવ્યું છે. ભવ પ્રત્યમિક અવધિ અને ક્ષાપશમિદ અવધિ આ પ્રમાણે અવધિજ્ઞાન બે પ્રકારનું કહેવાય છે. આ વિષેનું વર્ણન પણ ત્યાં જ કરવામાં આવ્યું છે. બાજુમતિ અને વિપુલમતિનો ભેદથી મનઃ - પર્યવસાન બે પ્રકારનું કહેવાય છે. આ વિષેનું સમસ્ત વિવરણ નંદીસૂત્રમાંથી જાણી Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ लुबोधिनी टीका सू. १२९ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवणं नम् ऋजुमतिश्च । विपुलमति । अस्यापि सर्व विवरणं नन्दोमुत्रे द्रष्टव्यम्। तथैव=नन्दी सूत्रोक्तप्रकारेणैव केवलज्ञानं = केवलज्ञानविवरण सर्वं भणितव्यम् । तंत्र = तेषु पञ्चसु ज्ञानेषु खलु यत्तद् आभिनिवोधिकज्ञानं तत् खलु समास्ति १ । एवं श्रतज्ञानम् २, अवधिज्ञानम्३, मनःपर्यवज्ञान ४ चेति ज्ञानचतुष्टयं ममास्ति । तत्र तेषु पञ्चसु ज्ञानेषु यत्तत् केवलज्ञानं तत् मम नास्ति= न विद्यते तत केवलज्ञानं खलु अर्हतां भगवतां भवति नान्येषामिति। इत्येतेन=पूर्वोक्तेन कारणेन हे प्रदेशिन ! राजन् ! अहं चतुर्विधेन चतुष्पकार केणछाद्मरिथ के न=छनस्थसम्बन्धिना ज्ञानेन तव एतम् एत=त्वदन्तःकरणस्थम् - आध्यात्मिक यावत् संकल्प = मनोगतं संकल्प' समुत्पन्न जानामि पश्यामि|स. १२९। मूलम् -लए णं से पएसी राया के सिंकुमारसमणं एवं वयासी-अहं णं भंते! इहं उवविसामि ? पएसी ! साए उज्जाणभूमीए तुमंसी चैव जाणए, तए णं से पयली राया चित्ते णं सारहिणा सद्धि केसिइस कुमारसमणस्स अदूरसामंते उवविसइ, के सिकुमारसमणं एवं वयासी तुम्भे णं भंते! समणाणं णिग्गंथाणं एसा सण एसा पड़ण्णा एसा दिट्ठी एसा रुई एस हेऊ एस उवएसे संकप्पे एसा मति और त्रिपुलमति के भेद से मनःपर्यत्रज्ञान दो प्रकार का कहा गया है । इसका समस्त विवरण नन्दी सूत्र से जानने योग्य है। इसी प्रकार केवलज्ञान विषयक समस्त कथन भी वहीं से जानना चाहिये । इन प्रदर्शित पांच ज्ञानों में से मुझे चारज्ञान प्राप्त हैं, आभिनिवोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, एवं मन:पर्ययज्ञान, केवलज्ञान मुझे नहीं है. यह ज्ञान अर्हन्त भग वन्तों को ही होता है । अतः हे प्रदेशिन् ! मैं इन चार छावस्थिक ज्ञान से उत्पन्न हुए इस तुम्हारे अन्तःकरणस्थ आध्यात्मिक यावत् मनोगत संकल्प "को जान गया हूं और 'देख चुका हूं ॥ म्रु० १२९ ॥ લેવુ જોઇએ. આ પ્રમાણે કેવલજ્ઞાન વિષયક સમસ્ત કથન પણ ત્યાંથી જ જાણી લેવુ' જોઈએ. ઉપર જણાવેલ પાંચ જ્ઞાનેામાંથી મને ચાર જ્ઞાન પ્રાપ્ત થયેલ છે. અભિનિધિકજ્ઞાન, (મતિજ્ઞાન) શ્રુતજ્ઞાન, અવધિજ્ઞાન અને મન:પર્યયજ્ઞાન મને કેવલજ્ઞાન પ્રાપ્ત થયેલ નથી. આ જ્ઞાન અદ્ભુત ભગવાને જ હોય છે. એથી હું પ્રદેશિન ! હું આ ચાર શ્રાદ્ધસ્થિક જ્ઞાનથી ઉત્પન્ન થયેલ તમારા આ અન્તઃકરણસ્ત્ર આધ્યાત્મિક યાવત્ મનેાગત સ‘કહપને જાણી ગયા છું અને જોઇ ગયા ૢ ॥ સ. ૧૨૯ ૫ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ राजप्रश्नीयसत्रे तुला एस माणे एस पमाणे एस समोसरणे जहा अण्णो जीवोअपणं सरीरं, णा तंजीवो तं सरीरं? तएणं केसीकुमारसरणे पएसिं रायं एवं वयासी- पएसी ! अम्हं समणाणे णिग्गंथाणं एसा सण्णा जाव एस समोसरणे जहा अण्णो जीवो अण्णं सरीरं जो तं जीवो तं सरीरं ॥ सू० १३० ॥ छाया-ततः खलु स प्रदेशी राजा केशिन कुमार श्रणमेवमादीत् मह काट भदन्त ! इह उपरिशामि ? प्रदेशिन् ? एतस्या उद्यानभूमेस्त्वमसि एष झायकः, सतः खलु म प्रदेशी राजा चित्रेण सारथिना साई केशिनः कुमारश्रमणस्य अदूरसामन्ते उपविशति, केशिकुमारश्रमणमेवमवादीत्-युष्माकं 'सए ण से पएसी राया' इत्यादि । सूत्रार्थ-(तए णं से पएसी राया केस कुमारसमण एवं वयासी) इसके पा. केशीकुमार श्रमण से उस प्रदेशी राजाने ऐसा कहा (अहणं भंते! इह उधावसामि) हे भदन्त ! मैं इस स्थान में बैठ जाऊ ? (पएसी! सोए उजाणभूमीए तुमंसि चेव जाणए) तब के शीकुमार श्रमणने उससे कहा हे प्रदेशिन् ! इस उद्यानभूमि के तुम हो ज्ञायक हो-अर्थात् उपवेशन के विषय में या अनुपवेशन के विषय में मैं क्या कह- यह तो स्वयं ही जानो । (तए णं से पएसी राया पित्तणं सारक्षिणा सद्धिं केसिस्स कुमार समणल्स अदूरसामंते उवविसइ) इसके याद वह प्रदेखी रामा चित्र सारथि के साथ के शीकुमारश्रमण के समीप-न अधिक दूर और न अधिक 'त एण से पएसी राया' इत्यादि । सत्रार्थ-(त एण से पएसी राया केसि कुमारसमण एवं पयासी) त्या२पछी शोभारमाने ते प्रदेश मे ॥ प्रभार ४६-(भाग भते ! इह उवधिसामि) हुँ मा स्थाने मे ? (पएसी ! साए उज्जाण भूमीए तुम मि देव जाणए) त्यारे शीभा२प्रभर ते शनने 20 प्रभार કહ્યું કે હે પ્રદેશિન ! આ ઉદ્યાનભૂમિના તમે જ શક છે એટલે કે ઉપવેશન માટે કે અનુપવેશન માટે મારે તમને કહેવું તે અમારા સાધુક૯૫થી બહાર છે જેથી તે भाटे तभ पाते४ वियारी सी. (लए ण से परसी राया नित्तण सारहिणा सद्धि के सिरस कुमारसमणस्स अदूरसामसे उपविसइ) त्या२ पछीत प्रदेशी રાજા ચિત્રસારથિની સાથે કેશિકુમારશ્રમણુની પાસે–વધારે દૂર પણ નહિतम पधारे न0 नाम-या स्थाने मेसी गयी. (केसि कुमारसमण एव' Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : सुधिनी टीका सु. १३० सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीव प्रदेशीराजवर्णनम् १७९ F खलु भदन्त ! श्रमणानां निर्ग्रन्थानाम् एषा संज्ञा एषा प्रतिज्ञा एषा दृष्टिः एषा रुचिः एष हेजुः एष उपदेशः एप सङ्कल्पः एषा तुला एतत् मानम् एतत् समवसरणम् यथा - अन्यो जीवः अन्यत् शरीरम्, नो तत् जीवः तत् शरीरम् ? ततः खलु केशोकुमारश्रमणः प्रदेशिन राजानमेवमवादीत् - प्रदेशिन् अस्माकं श्रमणानां निर्ग्रन्थानाम् एषा संज्ञा यावत् एतत् समवसरण यथाअन्यो जीवः अन्यत् शरीरम्, जो तत् जीवः स शरीरम् || सू० १३० || 7 पास के स्थान में बैठ गया (के सिकुमारसमणं एवं वयासी) और केशि. कुमारश्रमण से इस प्रकार बोला - (तुब्भे णं भंते ! समगाणं निग्गंथाणं एसा सष्णा एसा पइना एसा दिकी, एसा कई एस हेऊ) हे भदन्त ! आप भगन निर्ग्रन्थों की यह संज्ञा है, यह प्रतिक्षा है, (पदार्थ के स्वरूपका निश्रय ज्ञानरूप ) यह दृष्टि है, यह रूचि है, यह हेतु है (एस उवएसे एस संक एसा तुला, एस माणे, एस पमाणे. एस समोसरणे) यह उपदेश है, यह संकल्प है, यह तुला है, यह मान है, यह प्रमाण है, यह समवसरण है (जहा अण्णो जीवो, अन्नं सरीरं) कि जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है, (णो तं जीवो तं सरीरं) न जीव शरीररूप है और न शरीर जीवरूप है । (तए सकुमारलमसिं रायं एवं व्यासी) तथ केशी कुमारश्रमणने प्रदेशी राजा से ऐसा कहा - (पएसी ? अम्हे समणाणं निग्गंथाणं एसा सण्णा जात्र एस समवसरणे जहा अण्णो जीवो. अगं सरीर, णो तं जीवो तं सरीर) 4 एयासी) भने शिष्ठुसार श्रमाने मा प्रमाणे ४धु - (तुम्भे णं भंते! समणाण' निग्गंधा एसा सण्णा एसा पहण्णा एसा दिट्ठी, एसा रुई, एस हेऊ ) हे लहंत ! आप श्रभशु निर्थ थोनी का संज्ञा है, या प्रतिज्ञा है, या दृष्टि छ, मा ३थि छ, या हेतु छे, (एस उनसे, एस संकप्पे एसा तुला, एस माणे. एस पमाणे, एस समोसरणे) मा उपदेश है, या सच है, मातुसा छे, मा भाग है, मा प्रभाएणु छे, या समवसरण छे. ( जहा अण्णो जीवो, ऋण्ण' सरीर, णो त जीवो, तं सरीर) व भने शरीर नुहानुहां है, न व शरीर ३५ अनेन शरीर व३५ ४. (तए । केसीकुमारसमणे पएसिं राय एवं बयासी) त्यारे शीकुमार श्रमणे अहेशी रान्नने या प्रमाणे धुंडे (पएसी ! अम्ह समणा निग्गंथाणं एसा सण्णा जान एस समवसरणे जहा अण्णो जीवो अण्ण सरीर, णोत जीवो तं सरीर) हे अहेशिन ! श्रम निर्थ थोनी आ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० | দীপুম टीका--- 'तए णं से पानी लगाया' इत्पादि-तनः ग्वन्ट, म प्रदेशीराजा केशिन कुमारश्रमणं एवम्-अनुपद वक्ष्यमाण वचनम अवादीत-- हे भदन्त! अह बल्ट इह-अग्मिन म्याने उपविज्ञामि ? ननः कमीकुमार. श्रमण आह-हं प्रदेशिन ! पातम्याः उद्यानभूमेः त्यमेव मायकः असि एमा उद्यानभूमिस्त बनिश्चिमा, नाम्मामुपवमनानुपये छानविपये वक्तुं कलपते, त्वमेव जानासीति भावः । ततः ग्बन्ट र प्रदेशी राजा चित्रण सारथिना नाईकेशिनः कुमारश्रमणस्य अदर सामन्ते नातिको नानिसमीपे उपविशति, उपविश्य स केशिकुमारश्रमणम् एवम्-अनुपद बक्ष्यमाग वचनम् अवादीत-हे. भदन्त ! युष्माकं खलु श्रमणानां निग्रंन्यानाम्. पपा हयं संज्ञा-सम्य. ज्ञानम् अस्ति परमग्रेऽपि क्रिया, पपा प्रतिज्ञा-निश्श्यरूपा स्वीकारः, एमा दृष्टि:-दर्शन-स्वतत्त्वम्, एपा मचिः-श्रद्धापूर्व कोऽभिलापः, एष हेतु:हे प्रदेशिन हम श्रमण निर्ग्रन्यों को यह संज्ञा है, यावत् यह समवसरण है किजीव भिन्न है और शरीरभिन्न है, जीव शरीररूप नहीं है और शरीर जीरम्प नहीं है। ____टीकार्थ--मूलार्थ के जैसा ही ई. परन्तु भावार्थ इसका इस प्रसंगमें से है-केशी कुमारश्रम की एव प्रदेशी राजा की बातचीत के इस प्रसंग में जब प्रदेशी राजाने अपने बैठने की बात पूछी तब इसमें अपनी अनु. मति देना साधुकल्प के अनुकूल नहीं है, अर्थात् तुम बैठो-उठी इत्यादि कहना साधुओं को कल्पना नहीं होने से अयोग्य प्रकट किये, तव प्रदेशी राजा । चित्र सारथि के साथ यहां बैठ गया. फिर उसने केशी कुमारश्रमण से ऐसा पूछा कि हे भदन्त ! आप की ऐसी जो सम्यग्ज्ञानरूप संज्ञा है. ऐसी आपकी तत्वनिश्चयरूप जो प्रतिज्ञा है, ऐसी आपकी दर्शनरूप दृष्टि - સંજ્ઞા છે, યાવતુ સમવસરણ છે કે જીવ અને શરીર જુદાંજુદાં છે. જીવ શરીર રૂપ નથી અને શરીર જવરૂપ નથી. ટીકાઈ–ભૂલાર્થ પ્રમાણે જ છે પણ ભાવાર્થ આ મુજબ છે. કેશીકુમાર શ્રમણ અને પ્રદેશ રાજના વાર્તાલાપમાં જ્યારે પ્રદેશ રાજાએ કેશીકુમાર શમણને ત્યાં બેસવાની વાત પૂછી ત્યારે રીતે કહેવું તે અમારા સાધુકલ્પથી બહાર છે. જેથી તે બાબતમાં તમે વય નિર્ણય કરશે તેમ કહી. તેમની ઈચ્છા પર જ છેડી ત્યાર પછી પ્રદેશ રાજા પોતાના ઉચિત રથાન પર ચિત્રસારથિની પાસે બેસી ગયે. અને ત્યાં બેસીને કેશીકુમાર શ્રમણને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે ભદંત! આપની જે આ જાતની સમ્યગાનરૂપ સંજ્ઞા છે, તત્ત્વ-નિશ્ચયરૂપ જે પ્રતિજ્ઞા છે, દર્શનારૂપ દષ્ટિ સ્વતત્ત્વ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - ; बोधिनी टोका. सू. १३१ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् सर्वस्यापि दर्शनमतिपाधार्थस्य-एतत्कारणम्-युष्माकं दर्शनम्, एक उपदेशःशिक्षावचनम् एप संकल्प:-सर्वदेव भवतां तात्विकोऽध्यवसायः, एपा तुलातुलेव तव स्वीकारः, तत्र तुलासादृश्य च मेयपदार्थपरिच्छेदकत्वेन, एवम् एतत् मानम्-प्रस्थादिमानसशास्तबस्वो कारः, मानलादृश्यसपि मेयपदार्थ परिच्छेदकत्वेन, एतत् प्रमाणप्रत्यक्षादिप्रमाणसदृशस्तव स्वीकारः, प्रत्यक्षादि सादृश्यं च स्वीकारे दृष्टटाविरोधित्वेन, यथा प्रत्यक्षादिप्रमाण दृष्टेष्टं न विरुणद्धि तथा तवस्वीकारोऽपि । एतत् समवसरण-बहूनामेकत्र मिलनम् तहत् तव स्वीकारः, यथा समवसरणे बहयोजना आगत्य मिलन्ति तथैव तव स्वीकारे सर्वाणि तत्त्वानि समाविशन्ति तत्स्वीकारस्वरूपमाह-यथा अन्यो जीवः अन्यत् शरीरमिति-जीव:-उपयोगलक्षणः, अन्य:-शरीराद् भिन्नोऽस्ति, एवं शरीरम् अन्यत्-जीवाद्भिन्नमस्ति, इत्येवं जीवशरीरयोः पार्थक्यमन्वय स्वतत्व हैं, ऐसी जो आपकी श्रद्धापूर्वक अभिलापरूप रुचि है, ऐसा जो दर्शन प्रतिपाद्य समस्त भी अर्थका आपका दर्शन कारणरूप हेतु है, ऐसा जो आपका शिक्षा वचनरूप उपदेश है, ऐसा जो आपका संकल्प है. सर्वदा आपका 'तात्विक अध्यवसाय है, तुला के जैसी मेयपदार्थ की परिच्छेदक होने से ऐसी जो आपकी मान्यता है, प्रस्थादिमाल के जैसी आपकी ऐसी जो स्वीकृति-दृढधारणा है, आपका ऐसा जो दृष्ट-प्रत्यक्ष एवं इप्ट अनुमान से अविरोधी होने के कारण प्रत्यक्षादि प्रमाण स्वरूप जैसा मन्तव्य है, आपकी ऐसी जो कथनी समवसरणरूप है (अर्थात् समवसरण में जैसे अनेक जन आकर के मिलते हैं उसी प्रकार से तुम्हारे स्वीकाररूप सिद्धान्त में समस्ततत्व अन्तहित हो जाते हैं, अतः यह समवसरणरूप है) किउपयोगलक्षणवाला जीव अन्य है-शरीफ से भिन्न है-भिन्न स्वपवाला છે, શ્રદ્ધાપૂર્વક અભિલાષ રુચિ છે, દર્શનપ્રતિપાદ્ય સમસ્ત અર્થનું આપનું દર્શન કારણરૂપ હેતુ છે, શિક્ષા વાચનરૂપ ઉપદેશ છે, સંકલ્પ છે, સર્વદા તાત્વિક અધ્યવસાય છે, તુલાની જેમ મેયપદાર્થની પરિછેદક હોવાથી એવીજ આપની માન્યતા છે, પ્રસ્થાદિમાન જેવી આપની દૃઢધારણ છે, દષ્ટપ્રત્યક્ષ અને ઈન્ટ અનુમાનથી અવિરોધી હોવા બદલ પ્રત્યક્ષ વગેરે પ્રમાણરૂપ આપનું મંતવ્ય છે, આપની એવી જે કથની સમવસરણરૂપ છે (એટલે કે સમવસરણમાં જેમ ઘણા લોકો આવીને એકત્ર થાય છે તેમજ તમારા રવીકારરૂપ સિદ્ધાન્તમાં બધા તો અંતહિત થઈ જાય છે. એથી આ સમવસરણ છે.) કે ઉપગ લક્ષણવાળે જીવ અન્ય છે. શરીર કરતાં જુદે છે, જુદા સ્વરૂપ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ रांजनीयसूत्रे मुखेनोक्त्वा व्यतिरेकमुखेन तदेवाऽऽह - 'गोत" इत्यादि - तत् = शरीर जीवो न जीवश्व शरीर' न. 'णो त' इति वाक्ये उभावपि तच्छन्दावव्ययम् । ततः खलु केशीकुमार श्रमणः प्रदेशिनं राजानमेवमवादीत् अस्माकं श्रमणानां निर्ग्रन्थानाम् एषा संज्ञा यावद् एतत् समवसरणं यथा अन्य जीवः अन्यंत् 'शरीरं, नो तत् जीवो नो स शरीरम् ||५० १३०॥ मूलम् -- तए णं से पएसी राजा केसि कुमारसमणं एवं वयासीजइणं भंते! तुब्भं समणाणं णिग्गंथाणं एसा सण्णा जाव समोसरणे - जहा अण्णो जीवो अपणं सरीरं जो तं जीवो तं सरीर, एवं खलु ममं अज होत्था, इहेव जंबूदीवे दीवे सेयवियाए णवरीए अधम्मिए जाव सस्स वि य णं जणवयस्स नो सम्मं करभरविि पवत्तेइ, से णं तुब्भं वत्तब्वयाए सुबहु पावं कम्मं कलिकलुस समजिणित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु नरपसु णेरइयत्ताए उववृष्णे । तस्स णं अजगस्स अहं नुए होत्था-इड कंते पिए मणुण्णे मामे थे वेसासिए संमए बहुमए रयणकरंडगसमाणे जीवि उस्सविए हिययणंद णिज्जे उंबरपुष्कं पिव दुल्लभे सवणायाए, किमंग और शरीर उससे भिन्न है (यह अन्यमुख से कथन है) । शरीर जीवरूप नहीं हैं ( यह व्यतिरेकमुख से कथन है) सो यह सत्य हैं न ? इस प्रकार प्रदेशी राजा के कृत इस प्रश्न को सुनकर केशीकुमारश्रमणने उससे कहा- हां, प्रदेशिन् | हम श्रमण निर्ग्रन्थों की ऐसी ही संज्ञा यावत् समसरण है कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है. जीव शरीररूप नहीं है और शरीर जीवख्प नहीं है इस प्रकार से दोनों में सर्वथा पृथकता है । मृ. १३०| વાળા છે અને શરીર તેનાથી જુદું છે. (આ અન્વયમુખથી કથન છે) શરીર જીયરૂપ નથી. જીવ શરીરરૂપ નથી. (આ વ્યતિરેક મુખથી કથન છે.) તે આ બધું સત્ય છે ? આ જાતના પ્રદેશી રાજાના પ્રશ્નને સાંભળીને કેશીકુમાર શ્રમણે તેને કહ્યું કે હાં પ્રદેશિન ! અમારા જેવા શ્રમણ નિચેની એવી જ સસ્પેંજ્ઞા યાવતુ સમવસરણ છે કે જીવ જુદો છે અને શરીર જુદુ છે. જીવ શરીરરૂપ નથી અને શરીર જીવપ નથી. આ પ્રમાણે અન્ને સાવ ઝુદા જુદા છે. ! સૂ૦ ૧૩૦ ॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सू. १३१ सूर्याभिदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशीराजवर्णनम् १८३ पुन पासाणयाए ? तं जइ णं से। अजए णं मम आगंतुं वएजाएवं खलु नन्तुया ! अहं तब अजए होत्था, इहेव सेयवियाए नयरीए अधम्मिए जात्र नो सम्मं करभरवित्तिं पवत्तोम, तरणं अहं सुबहुं पावं कम्म कलिकलुस समजिणित्ता नरपसु उववण्णे त माणं नया ! तुमपि भवाहि अधम्मिए जाव णो सम्म करभरवित्ति पवतेहि, माणं तुमपि एवं वेव सुबहु पावकम्मं जाव उवयमिहिसि तअ णं से अजए ममं आगंतुं वएजा तो णं अहं सहेजा पत्तिएजा रोएजा जहा अन्नो नीवो अन्न' सरीर णो तं जीवो णो तं सरीरं, जम्हा णं से अजए ममं आगंतु नो एवं वयासी तम्हा सुपइट्टिया मम पन्ना समणाउसो ! जहा तज्जीवो तं सरीरं ॥ सू० १३१ ॥ छाया - ततः खल्लुस प्रदेशी राजा केशिनं कुमारभ्रमणमेवमवादीत् यदि खलु दन्त ! युष्माकं श्रमणानां निर्ग्रन्धानामेषा संज्ञा यावत् समवसरणं यथा - अन्यो जीवः अन्यत् शरीरम् न तत् जीवः स शरीरम् एवं खलु मम आर्यकोऽभवत् इहैव 'तर ण से पएसी राया' इत्यादि । सूत्रार्थ :- (तएण से पएसी राया केसिंकुमार समण एवं वयासी) तब उस प्रदेशीराजाने केशीकुमारश्रमण से ऐसा कहा - (जह ण भंते ! तुभं समणाणं निग्ग थाण एसा सण्णा जाव ममोसरणे) हे भदन्त ! यदि आप श्रमण निर्मन्थों की ऐसी संज्ञा यावत् समवसरण है कि (अष्णो atri or सरीर) जीव अन्य है और शरीर अन्य है (णो त जीबी त 'त एवं से परसी राया' इत्यादि । सूत्रार्थ - (त एणं से पएसी राया के सिकुमारसमण एव बयासी) त्यारे ते प्रदेशी शन्तये शीकुमार श्रभाणुने भाप्रमाणे ( जइ णं भंते ! तुरंभ समणाणं निग्गंथाणं एसा सण्णा जाव समासरणे) हे लहांत ! ले साथ शेषा श्रम निर्थ यानी श्रेवी संज्ञा यावत् सभवसर छे (अण्णो जीवे। अण्णं सरीर ) लव अन्य अने शरीर गन्य छ (जो तं जीवो त सरीरं) व शरी२३५ 1 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीयसूत्रे जम्बूद्वीपे छीपे श्वेतचिकायां नगर्याग अधार्मिकः यायत स्वकर यापि च खलु जनपदस्य नो सम्यक कारभनत्ति मावत यत्, स खल युधमा उक्तत्यतया सुवहु पाप कम कलिकलुप समय कालमासे काल कृत्वा अन्यतरेपु नरकेषु नैरयिकतया उपपन्नः । तस्य खलु आर्य कस्य अह नातकः अभवम्, इष्टः सरीर') जीव शरीररूप नहीं है. शरीर जीवरूप नहीं हैं. (एवं स्खलु मम अनिए होत्था-इइब जंबूदीवे दीने खेयावियाए णयरीए अधम्मिए जाव सयस्स वि य गजण वयस्त नो सम्मका भरवित्ति पवतेइ) तो इस बातको यदि मेरे पितामह आकर के पुष्ट करें-मुझ से कहे -तो मैं आपके इस कथन पर विश्वास कर सकता ह ऐमा संबध यहां लगाना चाहिये, इसी घात को वह इस आगे के सूत्रपाठ से प्रदर्शित करता है-वह कहता है कि इसी जम्बूद्वीप नामके द्वीप में स्थित इस श्वेताविका नगरी में मेरे पितामह-दादा थे. ये अधार्मिक ये, यावत् आने प्रजाजनों का टेकम लेकर भी उनका पोपण अच्छी तरह से नहीं करते थे. (से गं तुभं वत्तव्ययाए सुबह पाव कम्म कलिकलसं समजिणित्ता कालमासे काल किचा अण्णघरेसु नरएमु गेरइयत्ताए उबवण्णे) वे श्राप के कथनानुसार बहुत पापी थे. अतिमलिन बहुत से पापकर्मों का उपार्जन करके वे कालमास में काल करके किसी एक नरक में नैरयिक की पर्याय से उत्पन्न हुए हैं। (तस्स नथी. AN२ ७५३५ नथी. (एवं खलु मम' अज्जिए होत्था इहेव जंबूदीवे दीवे सेयवियाए णयरीए अधम्मिए जाव सयरस वि य णं जणवयस्स नो सम्म करभवित्ति पवत्तेइ) तो मा पात ने भास पितामह भावीन भने त આપના કથન પર વિશ્વાસ મૂકી શકું તેમ છું. એ સંબંધ અહીં લગાવવો જોઈએ. એજ વાતને તે આ સૂત્રપાઠવડે પ્રદર્શિત કરતાં કહે છે કે આજ જંબુદ્વિપ નામના દ્વીપમાં સ્થિત શ્વેતાંબિકા નગરીમાં મારા પિતામહ હતા. તેઓ અધાર્મિક હતા યાવત પિતાના પ્રજાજને પાસેથી કર વસૂલ કરીને પણ તેમનું સરસ રીતે ભરણ પોષણ तेमका कक्षा ४२ता न उता. (से ण तुम्भ रत्तच्चयाए सुबह पावं कम्मं कलि. कलसं समज्जिणित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु नरएसु णेरइयत्ताए saao) આપશ્રીના કથન મુજબ તેઓ બહુ મોટા પામી હતા. અતિમિલન ઘણું પાપકર્મોનું ઉપાર્જન કરીને તેઓ કાલમાસમાં કોલ કરીને કેઇ એક નરકમાં નૈરચિકની पर्यायमा काम पाभ्यां छ. (तरस णं अज्जगरस अहणतुए होत्था, इठ्ठो कंते Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ सुबोधिनी टीका म्. १३१ पदेनम्य-भवनोत्रप्रदेशिगजवर्णनम कान्तः पियः मनोज्ञः मन्ऽमः स्थैर्यः वेश्वासिकः संमतः बहुमतः अनुमतः रत्नकरण्ड कसमानः जीवितो:मविका हृदयानन्दिजननः, उदुम्बरपुष्ाभित्र दुर्लभः श्रवणतया किमग पुनः दर्शनतया ? तद् यदि खलु स आर्यकः मम आगत्य वदेत्-एवं खलु नातक ! अहं तव आर्यकोभत्रम्, इहैव श्वेतविकायां नगर्याम् अधार्मिको यावत् नो सम्यक् करभरवृत्ति प्रावर्तयम्, ततः खलु ण अजगम्य अहं णतुए होत्या, इठे क ते पिए मणुण्णे मगामे, थेज्जे वेगासिए संमए बहुमए रयणकरंडगममाणे जीविउस्सविए) उन अर्यक का मैं पौत्र है मैं उन्हें अभिलषित था. कान्त था, प्रिय था, मनोज्ञ था .मनोगम्य था, स्थैर्य रूप था, विश्वासपात्र था, सन्मानपात्र था, प्रचुर मानपात्र श्रा, हृदयप्रिय धा, रत्नकरण्डक के जैमा था, जीवन के उत्सव रूप था. (हिययण दिजणणे उंबरपु:फंबिव दुल्लभे मवणयाए, किमंगपुण पायणयाए) उनके हृदय के आनन्द जनक था, उदम्बरपुष्प के समान में उन्हें सुनने के लिये दर्लभ था-देखने की बात तो क्या कहनो (त जड ण से अजए णं मम आगतु वएना) तो यदि वे आयफ आकर के मुझ से ऐमा कहे (एवं खल्ल नत्त्या! अह त अजए होत्था, इहेव से यावियाए नयरीए अधम्मिए जाव नो सम्म करभरविनिं परत्तेमि) हे पौत्र ! मैं तुम्हारा आर्यक-पितामह था, इसी श्वेतांबिका नगरी में अधार्मिक बना हया मैं अच्छी तरह से प्रजाजन से प्राप्त टेकम से उनका पोपण नहीं करता था. पिए सणुण्णे मणामे, थेज्जे बेमासिए संमए बहुमए रयणकर डगममाणे जो विउम्सविए) ते मायने हु पौत्र छु तमना भाटे मनिसापित sal, sia હતો, પ્રિય હતે, મનેસ હતો. મને ગમ્ય હતા, રથયરૂપ હતે, વિશ્વાસપાત્ર હતો, સન્માનપાત્ર હતા, પ્રચુર માનપાત્ર હતો, હૃદયપ્રિય હતો, રત્ન કરંક હતું, बनना सप३५ हतो. (हिययणंदिजणणे उ'वर पुष्फ विव दुल्लहे सवणयाए किमंग पुण पासणयाए) तेमना हयने मान आपना। तो भराना पनी જેમ હું તેમના માટે જોવાની વાત તે દૂર રહી. સાંભળવા માટે પણ દુર્લભ હ (त जडणं से अज्जए ण ममं श्रागंतब एज्जा) तो वे ले ते सायं ४ मावीन भने २मा ४३ (एवं खलु नत्तुया ! अहत अज्जए होत्था, इहेव सेयंनियाए नयरीए अधम्मिए जाच नो सम्म करभरवित्ति पचतेमि) उ.पौत्र! तमाशे આર્યક–પિતામહ હતા. આજ શ્વેતાંબિકા નગરીમાં અધામિક થઈને પ્રજાજનો પાસેથી ४२ वसूख ४शन ५५ तेभनु २६-पोष वगेरे ४२तो न . (तए णं अहं Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ राजप्रश्रीयसूत्रे , अहं च पाप कर्म कालकलुरं समये नरकंषु उपपन्नः, तद् मा खलु नप्तृक ! त्वमपि भव अधार्मिकः यावद् नो सम्यक् करभम्वृतिं प्रवर्तय, मा खलु त्वमपि एत्रमेत्र सुबहु पापकर्म यावद् उपपत्स्यसे तद् यदि ग्लु स आर्यकः मम आगत्य वदेत - ततः खलु अहं श्रध्याम् मतीयाम् रोचयेयं, यथा-अन्े जीवः अन्यत् शरीरम् नो तत् जीवः स शरीरम् यस्मात् खलु स (तए णं अहं सुबहु पावं कम्मं कलिकलुस समजिणित्ता नरएस उनवणे) अतः मैंने बहुत अधिक अतिकल्लुप पापों का संचय किया था और इससे मैं नग्को में से किसी एक नरक में नारक की पर्याय से उत्पन्न हुआ हूं (न माणं नत्तुया ! तुमपि भवाहि अधम्मिए जाव णो सम्मं करभरवित्ति पहि) इसलिये हे पौत्र ! तुम अधार्मिक मत होना, और प्रजाजनों से प्राप्त टेक्स से उनके पोषण में असावधान मत रहना प्रत्युन उमसे उनका पोपण अच्छी तरह से करना ( मागं तुमं पि एवं चेत्र सुब पोत्रकम्मं जाव उववज्जिहिमि ) नहीं तो तुम भी इसी तरह से बहुत अधिक पाप कर्म का यावत् उपार्जन करोगे, इसलिये ऐसे पापकर्मों का उपार्जन मेरे द्वारा न हो इस तरह से ( तं जड़ ण' से अज्जए ममं आगंतुं चएज्जा) यदि वे आर्यक आकरके मुझे समझा (तो णं अहं सहेजा पत्तिएजा एजा जहा अन्नो जीवो अन्नं सरीर णो त जोवो व सरीर) तो मैं आपके इस कथन पर विश्वास करूं और उसे अपनी प्रतीति का विषय बनाऊ', तथा अपनी रुचि के भितर उसे उतारु (जहा भन्नो जीवो, अन्नं सुबहु पावं कम्मं कलिकलुस ममज्जिणित्ता नरएसु उचत्रणे) मेथी भें ઘણા અતિકલશ પાપાના સંચય કર્યાં છે અને એથી જ નરોમાંથી કાઈ એક નકમાં नार४ना पर्यायभां उत्पन्न थयो छ ( त मा णं ननुया ! तुमपि भवाहि अभिए जाव णो सम्मं करभरवित्ति पत्ते हिं) भाटे हे चोत्र ! तमे धार्मिङ थशेो નહિ અને પ્રજાજના પાસેથી કર વસુલ કરીને તેમના પાષણના કામમાં સાવધાન रहेश। नहि थषु तेभनुं सरस रीते पोषण ४३श. (माण तुमं पि एव ं चेव सुबहु पावकम्म जाव उववज्जिहिसि ) नहितर तमे धातु भारी प्रेम ४ ઘણા વધારે પાપકનું ચાવત્ ઉપાર્જન કરશે. આ પ્રમાણે આ જાતનાં પાપકર્માનું ઉપાર્જન भारा वडे थाय नहि तेभ (त' जइ णं' से अज्जए मम आगतुं वएज्जा ) तेथी ते आर्य आवीने भने सभलवे. (तो णं अह सद्दहेज्जा पत्तिएज्जा, रोएज्जा, जहा अन्नो जीवो अन्नं सरीर णो त जीवो त सरीरं) तोहु आपना अ કથન પર વિશ્વાસ કરી શકુ અને તેને મારી પ્રતીતિને તેમજ રુચિના વિષય બનાવી Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवाधिनी टोका. सूत्र ११ सूर्याभदेवम्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् श्रार्यकः मम आगत्य न एवमवादीत, तम्मात सुनिष्ठिता मम प्रतिज्ञा श्रमणाऽऽयुष्मन् ! यथा तज्जीवः स शरीरम् ॥० १३१॥ टीका--'त एणं से पएसी' इत्यादि--ततः खलु स प्रदेशी राजा केशिनं कुमार श्रमणम् एवम् अनुपदं वक्ष्यमाणं वचनम् अवाढीत-हे भदन्त ! यदि चेत खलु युष्माकं श्रमणानां निग्रंन्यानाम् एषा संज्ञा यावत् समवसरणं यथा अन्यो जीवः अन्यन् शरीरं नो तन् जीवः म शरोरम. एवं-वक्ष्यमाणस्वरूपः खलु मम आर्य का पितामहः अभवत, इहैव-अम्मिन्नेव जम्बूद्वी पेद्वीपे श्वेतिकायां नगर्गम् अधार्मिकः धर्माचरणवर्जितः यावत्ः --यावस्पदेन-अधर्मिष्ठ इत्यादीनां पदानां सह एकशततमत्राद् बोध्या: अर्थोऽपि तत्रैव । स्त्रकस्यापि-नस्यापि च ग्वल जनपदम्य-देशस्य करभत्ति करेण स्वग्राह्य भागग्रहणेन यो भरः-मजानां भरण-पोषणं तदपा या वृत्तिस्तां सम्यक्-सुष्टुरीत्या नो पावर्तयत्-अत्र मूले 'पवत्तेइ' इत्यार्षत्वाद भूतार्थे वर्तमाननिदेशः । मः-पूर्वोक्तः आर्यकः ग्वल युष्माकं वक्तव्यतया मतेन मुबह-प्रचुर कलिकलुपम्-अतिमलिनं पापं कर्म समय-समुपायं कालमासे. कालं कृत्वा, अन्यतरेपु-अन्यतमेषु नरकेषु नरयिकतया-नागकतया उपपन्न:समुत्पन्नः। तम्य बलु अार्यकम्य अहं नातृकापौत्रः अभवम्, कीदृशोऽहमसरीरं. णोतं जीवो तं मरीरं) कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, जीवशरीररूप नहीं है, शरीर जीवरूप नहीं है। (जम्हा णं से अजए ममं नो एवं तम्हा मुपइडिया मम पइन्ना समणाउसो ! जहा तज्जीवो तं मरीर) पान्तु जिम कारण से आर्य कने आकरके मुझसे ऐसा कहा नहीं है, इम कारण मे हे श्रमण ! आयुष्मन् ! मेरी यह प्रतिज्ञा सुप्रतिष्ठित-सुस्थिर है कि जो जीव है वही शरीर है और जो शरीर है वही जीव है. टीकार्थ--मलार्थ के अनुरूप ही है. परन्तु जो विशेपता है वह इस प्रकार से है-प्रदेशी राजाने जो अपने को इष्टादि विशेषणों वाला प्रकट किया है सो उसका कारण यह है कि वह आर्थक को अभिलषित था शतेम छु. (जहा अन्नो जीवो, अन्न सरीरं, गो त जीवो, त' सरीर) १०५ मन्य छ भने शरी२ मन्य छ, शरी२३५ नथी. (जम्हाण से अज्जए मम आगतुं नो एवं वयामी, तम्हा सुपइटिया मम पइन्ना समणाउसो ! जहा तज्जीवो तं सरीर) परंतु २ने सीधे माय मापीने भने मा प्रभाग કહ્યું નથી તેથી જ હે શ્રમણ ! આયુષ્મન ! મારી આ પ્રતિજ્ઞા સુપ્રતિષ્ઠિત–સુસ્થિર-છે કે જે જીવ છે તેજ શરીર છે અને જે શરીર છે તે જ જીવ છે. ટીદાર્થ–મૃલાર્થ પ્રમાણે જ છે. પરંતુ વિશેષતા આટલી જ છે કે પ્રદેશી રાજાએ જે પિતાને ઈષ્ટ વગેરે વિશેષણવાળ બતાવ્યા છે. તે તેનું કારણ એ છે કે Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ राजप्रश्नोयन्त्र भवमित्याह-इष्टः-अभिलपितः, कान्त:-कमनीयत्वात, प्रियः-प्रेमपात्रत्वात, मनोज्ञः-मनसा सम्यापेक्ष्यतया ज्ञातत्वोत, मनोऽमः-मनोगम्यः, अतिमियत्वेन मनस्यवस्थितत्वात्, स्थैर्य -स्थिरतागुणसम्पन्नः, वैश्वमिका-विश्वास पात्रम् संमत:-संमानपात्रम्, रहमत:-चुरमान पात्रम्, अनुमतः-हृदयप्रियः तदाज्ञाराधकत्वात्. रत्नकरण्डकसमानः-रत्नानां-करें तनादीनां यत् करण्डक तत्समान:-रत्नकरण्डक-तुल्यत्वं चात्रात्यन्तापेक्षत्वेन बोध्यम्. जीवितोत्सवकः जीवितस्य-जीवनस्य य उत्सव:-उत्सविक उत्सबरूपः, नव नव पजनकत्वात हृदयानन्दिजनन:-हृदयानन्दकार का उदुम्बरपुष्पमिक-दुरवर पुप्प यथा दुर्लभ तथाऽहमपि श्रवणतया-नवणेन, अङ्ग ! हे मुने ! किं पुनः दर्शननयादर्शनेन अपितु दर्शनेनात्यन्त दुर्लभोऽहमित्यर्थः, तत्-तस्मात् यदि-चेन खलु स आर्यकः मम आगत्य वदेत् कथ येत-व.थनीयस्वरूपमाह-एवं खलु मप्तक !-हे पौत्र ! अह तब आर्यका-पितामहः अभवम्, इहैव-अस्यामेव देताविकायां नगर्याम् अधार्मिको यावत् नो सम्यक करभरवृत्तिं पावर्तयम्अत्रापि स्मूले 'पवत्तेमि' इत्यार्पत्वादू भूतार्थे वर्तमान निर्देशः । ततः तस्मा इसलिये इष्ट था, कमनीय-सुदर होने से कान्त था, प्रेमपात्र होने मे प्रिय था, सन से उसे अच्छी तरह से अपेक्ष्य रूप से जाना था इसलिये मनोज्ञ था, अतिमिय होने के कारण मनमें अवस्थित था. इसलिये वह मनोऽम था, मनोगम्य था. स्थिरतागुण से संपन्न था-अत: स्थैर्यरूप था विश्वासपात्र होने से वैश्वसिक था, सन्मानपात्र होने से संमत था. प्रचुररूप में मानपात्र, होने से प्रचुर मानपात्ररूप था. उसकी आज्ञा का आराधक होने से अनुमत-हृदय प्रिय था अत्यन्त अपेक्षित होने से रत्नकरण्डक के समान था. नव२ हर्षजनक होने से उत्सविक उत्सवरूप था, इसीलिये हृदया। हलादक था. मूल में 'पबत्तेमि' ऐसा जो वर्तमानरूप से निर्देश हुआ है તે આર્યકને અભિલષિત હતો–એથી ઈષ્ટ હતો, કમનીય હોવાથી કાન્ત હતો, પ્રેમપાત્ર હોવાથી પ્રિય હતો, અને તેને સારી રીતે અપેક્ષ્યરૂપથી જાણી લીધું હતું એથી તે મને હતું, અતિપ્રિય હોવાથી તે મનમાં અવસ્થિત હતો એથી તે મનોમ હતોમને ગમ્ય હતાં. સ્થિરતાના ગુણથી સંપન્ન હતે. એથી ીર્યરૂપ હતે, વિશ્વાસપાત્ર હવાથી વૈશ્વસિક હતું, સન્માનપાત્ર હોવાથી સંમત હોતે, પ્રચુરરૂપમાં માનપાત્ર હોવાથી પ્રચુરમાનપાત્ર રૂપ હતું. તેની આજ્ઞાને માનનાર હોવાથી અનુમત-હૃદયપ્રિય હતે, અત્યંત અપેક્ષ્ય હેવાથી રત્નકરંડકની જેમ હતે. નવનવીન હર્ષજનક હોવાથી सNि:-त्स१३५ हता-मेथी याselts तो, भूखमा 'पवत्तमिवार Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९ सुवोधना टाका सू. १३१ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवण नम् कारणात्-खलु अह सुबहु-अन्यन्तं ऋलिकलुपम् अतिमलिनं पापं कर्म समय-ममुपायं नरकेषु उपपन्न:-नारकतयोत्पन्नोऽभवम्. तत--तस्मात्कार णात् नप्तुक!-हे पौत्र ! त्वमपि तथा मा भव, अधानिको यात नो सम्यक करभर पनि मवर्तय-निषेधार्थकपदद्वयं प्रकृतार्थ दृढयतीति त्वमवश्यमेव धार्मिकातिविशेषणविशिष्टो भूत्या स्वकस्य जनपदस्य करभरवृत्ति सम्यक मव येति भावः । मा खल त्वमपि एवमेव-अहमिव सुबहु-पापकर्म यावत यावच्छन्देन समुपायं-नर के पु नैरयिकतया इति संग्राह्यम्, उत्पत्स्यसे मा उत्था इत्यर्थः, तत्-तस्मान् कारणा-यदि-चेत् ग्वल आर्यको मम आगत्य वदेत्-कथयेन, ततः-तदा खलु अहं श्रध्याम्-भवद्ध चने श्राहां कुर्याम् प्रतीयां-विशेषतो विश्वस्याम, रोचेयं रुचि विषयीकुर्याम् यथा अन्यो जीवो ऽन्यच्छरोरम नो तन जीवः स शरीरम-इति। यस्मात् हेतोः खलु स: पूर्वोक्त आर्य कः ममागत्य नो-न एवं पूर्वोक्तप्रकारेण अवादीत-हे श्रमणायुधमन ! तस्माद हेतोः मम प्रतिज्ञा सुप्रतिष्ठिता-सुस्थिरा यथा तत् जीवः स शरीरम् इचि ॥.१३१।। मूलम्-तएणं केसीकुमारसमणे पएल राय एव वयाप्ती-अस्थि णं पएली! तव सूरियकता णास देवी ? हंता अस्थि, जइ णं तुम पएसी त सूरियतं देविं हाय कयवलिकम्स कयको उयमंगलपायच्छित सव्वालंकारभूसिय केणइ पुरिसेण पहाएणं जाव सव्वालकारभूलिएण सद्धिं इट सदारितासरूवे गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पचणुभवमाणि पासिजलि तस्स णं तुझं पएसी ! पुरिसस्सक डंडं निव्वत्तेज्जासि ? अहंण भते ! तं पुरिसं हत्थच्छिण्णगं वह श्राई होने से भृत अर्थ में हुआ है 'तमाण नत्तुया ! तुमंपि' इत्यादि मन्त्र में आगत दो निषेधार्थक पद प्रकृत अर्थ की पुष्टि करते हैं अर्थात् तुम अवश्य ही धार्मिक आदि विशेषणों वाले होकर अपने जनपद की करभरकृति को अच्छी तरह से चलाओ-यह अर्थ पुष्ट होता है ॥ १३१॥ વર્તમાનરૂપમાં નિર્દેશ થયેલ છે તે આર્ષ હોવાથી ભૂત અર્થમાં જ થયેલ છે. આમ सभा: 'तमा नत्या ! तुमपि कोरे सत्रमा uei मे निषेधार्थ ४५ प्रकृत અર્થમેં જ પિષે છે. એટલે કે તમે અવશ્યમેવ ધાર્મિક વગેરે વિશેષણોથી સંપન્ન થઈને પિતાના જનપદની કારભરવૃત્તિને સારી રીતે ચલાવે–આ અર્થ પુષ્ટ થાય છે. . સ. ૧૩૧ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीयसूत्रे १९० -% 3D चा सूलाइगं वा सूलभिन्नगं वा पायच्छिन्नगं वा एगाहच्चं कूडाहच्चं जीवियाओ ववरोवएज्जा । अहणं पएसी से पुरिसे तुम एवं वदेजामा ताव से सामी ! सुहृत्तगं हत्थच्छिण्णगं वा जाव जीवियाओ ववरोवेहि जाव तावं अहं मित्तणाइणियगसयणसंबंधिपारयणं एवं वयामि एवं खलु देवाणुप्पिया। पावाई कम्माइ समायरेत्ता इमेयारूवं आवई पाविजामि, त मा णं देवाणुप्पिया ! तुन्भेवि केइ पावाई कम्माई समायरइ, मा णं भे वि एवं चेव आवई पावेजाहि य जहा णं अहं, तस्ल णं तुम पएसी। पुरिसस्स खणमवि एयमटुं पडिसुणेजासि ? णो इण सम, कम्हा गं ? जम्हा | भंते ! अबरोही णं से पुरिसे, एवामेव पएसी! तववि अज्जए होत्था इहेव सेयवियाए णयरीए अधम्मिए जाव णो सम्न कारभरविनि पत्ते, से गं अम्हं वत्तव्वयाए सुबहु जाव उववानो, तस्स ण अजगस्त तुभ णतुए होत्था इहे कंते जाव पासणयाए, से of इच्चइ माणुसं लोग हव्वमागच्छित्तए णो चेव णं संचाएइ हव्वमागच्छित्तए। चांह ठाणेहिं पएसी अहुणोववण्णए नरएसु नेरइए इच्छेइ माणुस लोग' हव्वमागच्छित्तए नो चेव णं संचाएड-१ अहुणोववन्नए नरएसु नेरइए से णं तत्थ महन्भूयं वेयणं वेदेमाणे इच्छेजा माणुस्सं लोगं हव्वमागच्छित्तए णो चेवणं संचाएइ ।२। अहुणोववन्नए नरपसु नेरइए नरयपालेहिं भुजो भुजो समहि िजमाणे इच्छइ माणुसं लोग हव्वमागच्छित्तए नो चेवणं संचाएइ ।।अहुणोववन्नए नरएसु नेरइए निरयवेयणिजंसि कम्मसि अक्खीणसि अवेइयंसि Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखाधना टीका सू. १३० सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवण'नम् _ १९१ अनिजिन्नसि इच्छइ माणुसं लोग हव्वमागच्छित्तए नो चेव गं सचाएइ हव्वमागच्छित्तए ।। एवं निरयाउंसि अवखीणे, अचेहए, अणिजिपणे इच्छेजा माणुस्सं लोग हव्वमागच्छित्तए नो चेव पं संचाएइ । इच्छेएहिं चऊ हिं ठाणेहि पएसी ! अहुणोववन्ने नरएसु नेरइएसु नेरइए इच्छइ माणुसं लोग हव्वमागच्छित्तए नो चेवणं संचाएइ । तं सहाहि गं पएसी ! जहा-अन्नो जीवो अन्न सरीरं नो तं जीवो तं सरीरं ॥सू० १३२॥ छाया- ततः खलु केशाकुमारश्रमणः प्रदेशिनं राजानमेवमवादोत अस्ति खलु प्रदेशिन् ! तब मूर्यकान्ता नाम देवी ? हन्त अस्ति, यदि खलु त्वं प्रदेशिन् ! तां मुर्यकान्तां देवीं स्नातां कृतलिकी कृतकौतुकमङ्गलप्रा. यश्चित्तां मलिङ्कारभृषितां केनापि पुरुषेण स्नातेन यावत् सर्वालङ्कारभूपि. तेन मार्द्ध म इष्टान् शब्दस्पर्श रसरूपगन्धान पञ्चविधान् मानुष्यकान काम 'तए णं केसीकुमारसमणे पएसि रायं एवं वयासी इत्यादि । मूत्रार्थ-(नए ण केसीकुमारसमणे) इसके बाद केशीकुमारथमणने (पाम राय एवं वयासी) पदेशो राना से ऐसा कहा-(अस्थि णं पएसी! तव मरियकता णामं देवी ? हे प्रदेशिन तुम्हारी मूर्यकान्ता नामकी देवी हैं? (ता, अस्थि) हां भदन्त ! है (जइ णं तुमं पएसी! तं मूरियक तं देवि हाय कयवलिकम्म' कयकोउयमंगलपायच्छित्त' सव्वालंकारभूसियं केणह पुरिसेणं हाएणं. जाव सबालंकारभूसिएणं सद्धिं इट्टे सदफरिसरसरूवे गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पञ्चणुभवमाणि पासिज्जासि) यदि हे प्रदेशिन्! 'तए ण केसीकुमारसमणे पएसिं राय एवं वयासो' इत्यादि । सूत्रार्थ-( तए ण केसीकुमारसमणे) त्यारपछी शीभार श्रमणे (पएसों राय एवं वयासी) प्रथी २ion मा प्रभारी ४युं. (अत्थि जपएसी ! तव मुरियकता णोम देवी ? ) प्रशान् ! तमारी सुर्यान्ता नाम हैवी छ ? (हता, अत्थि) it'त! छ. (जइणं तुम पएसी ! त मरियत देवि हाय कयवलिकम्म कयकोउयमंगलपायच्छित्तं सवाल कारभूसियं केणई पुरिसेग हाएण', जाव सव्वाल कारभूसिएणसद्धिं इह सदफरिसरसरूचगधं पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पञ्चणुब्भवमाणि पासिज्जासि) त ६ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नोयग्नु भोगान प्रत्यनुभान्तीं पश्येः (नदा) तम्य ग्वल त्वं प्रदेगिन् ! के दण्ड निर्वन येः ? अह खलु भवन्त ! न पुरुप हस्तच्छिन्नकं वा शूलानिगं वा शुलभिन्नक वा पादच्छिन्नक वा एकाघात कुटाघात जीविताद् व्यपरोपयेयम् अथ ग्वछ प्रदे शन ! म पुरूपः त्वाम् एवं वदेत् मा यावत् तुम स्नान, कृत बलि कर्मा-(काक आदि को अन्नादिका भाग देनेच्या उस देवीओं कि जिमने कौतुक, मंगलरूप प्रायश्चिने कर लिया है, और समस्त अलङ्कारों से जो विधूपित बनी हुई है किसी भी स्नान यावत मङ्किारविभूपित परपुरुष के साथ इष्ट शब्द, स्पर्श, रम, रूप, गध इन पांच प्रकार के मनुज्यमा संबंधी कामभोगों का अनुभव करती हुई देवलो तो (नम्म ण तुमं पएमी ! पूरिसस्म के हंड निवृत्त जामि ?) नो हे पदे. शिन् ! तुम उस पुरुष के लिये क्या-कसा दण्ड दो ? (अहं णं भंते ! तं पुरिसं हत्थविणगं वा मूलाडगं वा मूलभिन्नगं वा पाय छिन्नगं वा एगा हच कूडाहच्च' जीविषाको बोकए जा) तव प्रदेगी गजाने कहा-हे भदन्त ! मैं उम पुरुष का ऐमा दंड दूं कि जिससे उसके दोनों हाथ काट लिये जावे, या उसे शूली पर चढ़ा दिया जावे, या उसके दोनों पग काट लिये जावे, या एक हो महार में उसका प्राण ले लिया जावे, वा किसी पर्वत शिग्वर पर उसे चढाकरे वहां उसे धकेल दिया जावे. कि जिससे वह अपने जीवन से रहित हा वैठे। (अहणपएपी ! से पुरिसे પ્રદેશિન્ તમે જેણે સ્નાત, કૃત બલિશર્મા-કાગડા વગેરેને અન્ન ભાગ આપે છે એવી તે દેવીને કે જેણે કોતક મંગલરૂપ પ્રાયશ્ચિત્તો કરી લીધા છે. અને સમસ્ત અલંકારથી જે વિભૂષિત થઈ ગયેલી છે અને ગમે તે સ્નાન યાવત્ સર્વાલંકારવિભૂષિત પરપુરૂષની સાથે ઈષ્ટ શબ્દ, સ્પર્શ, રસ, રૂપ, ગંધ આ પાંચ પ્રકારના મનુષ્યભવ संधी आमलोग सोचती होते (नस्स ण तमं पएमी! पुरिसस्स क. डड निव्वुज्जासि ?) तो प्रशिन् ! तमे ते पु३पने * तना शिक्षा २थे। ? (अहं पं भंते ! तं पुरिसं हन्धविण्णगं वा मूलाइगं वा मुलमिन्नगं वा पायच्छिन्नगं वा एगाहच्चं कूडामच जीवियानो बबरोवेज्जा) त्यारे प्रदेशी रात કહ્યું હે ભદત ! હું તે પુરૂષને આ જાતની શિક્ષા કરીશ કે જેથી તેના બન્ને હાથ કાપી લેવામાં આવે કે તેને થળી પર ચઢાવવામાં આવે કે તેના બંને પગ કાપી નાખવામાં આવે કે એક જ ઘામાં તેને મારી નાખવામાં આવે અગર પર્વતશિખર ર લઈ જઈ તેને ત્યાંથી નીચે ફેંકી દેવામાં આવે કે જેથી પરિણામે તે મૃત્યુ પામે. Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९३ सुबोधिना टाका. सु. १३२ सूर्याभदेवस्य पुर्व भवजोवप्रदेशिराजवर्णनम म्चामिन ! मुहुर्तक हस्तच्छिन्न वा यावत् जाविताद व्यपापय यावत् मावद् अहमित्र ज्ञाति-निजक स्वजनसम्बन्धिपरिजनम् एवं वदामि-एवं खलु दवानुप्रिया ! पापानि कर्माणि समाचर्य इमामेत पाम् आपत्ति प्राप्नोमि, तत मा खलु देवानुपियाः! ययमपि केचित् पापानि कमोणि ममाचरत, मा ___ग्वल यगमपि एवमेव आपत्ति प्राप्तुत यथा खलु प्रह, तस्य खलु वं प्रदे. तुमं एवं वएज्जा-मा ताव मे सामी ! मुहुनगं हत्यच्छिण्णगं वा जोवियाओ चरोवेहि जाव तात्र अह मित्तणाइणि यगमयणसंबंधिपरियणं एवं. क्यासी) इस प्रकार से पदेशी राना का कथन सुनकर केशीश्रमणने उसमे गमा कहा-हे मदोशन ! यदि वह तुमसे ऐसा कहे-हे स्वामिन् ! आप थोडी देर तक ठहरिये. मेरे हाथ पैर न काटिये यावत् मुझे जीवन से हिन न कीजिये, तब तक मैं मित्र, माता आदि ज्ञाति, स्वपुत्रादिक निजक, पितृव्यादि वजन श्वशुर आदिफ सम्बधिजन, दासी दास आदि परिजन, इन सब मे ऐसा कह दू कि( एवं खलु देवाणुपिया ? वाईफम्मासमायरेत्ता इमेयास्वं आवई पाविजामि) हे देवानुप्रियो! मैं पापकों को समाचरित करके इस प्रकार की आपत्ति को पा रहा हूँ (नमा ण देवाणुप्पिया! तुम्भे वि केई पागाई कम्माई समायरइ) इमलिये हे देवानुपियो ! आप लोग कोई भी पापकर्म मत करना कि (मा णभे वि एवं चेत्र आवह पावेजाहि य जहा णं अहं) जिसमे तुमको भी ऐसी आपत्ति में पडना पडे, जैमा (अह णं पएसो ! से पुरिमे तुमं वदेता मा ताव मे सामी ! मुहुत्तगं हत्य. च्छिण्णगं वा जान्य जीवियाओ क्रोवेहि जाव ताव अ मित्तगाइणियगसयणसंबंधिपरियणं एवं वयामि) मा प्रभा प्रथी AM ४थन समगीन કેશીકુમાર પ્રમાણે તેમને કહ્યું કે હે પ્રદેશિન! જે તમને આ પ્રમાણે કહે કે સ્વામિન! આપ શેડી વખત ભી જાવ. મારા હાથપગ કાપે નડિ યાવતું મને જીવન રહિત પણ બનાવે નહિ. હું મિત્ર, માતા, પિતા વગેરે જ્ઞાતિ, સ્વપુત્રાદિક નિજક પિતૃવ્યાદિ સ્વજન, વશુર વગેરે સંબંધીજન, દાસદાસી વગેરે પરિજન આ બધાને ' मा प्रमाणे ही ' (एवं खलु देवाणुपिया! पावाई कम्माइं समायरेता इमेयारूवं आवई पाविजामि) हे देवानुप्रिये ! हुँ पापभानु मायर ४शन Al ordनी शिक्षा नवी २al छु. (तं माण देवाणुप्पिया! तुम्भे वि केइ पाबाई कम्मोई समायरइ) मेथी के देवानुप्रियो तमे आपा तनु पा५४ मायरता नाहि. (माण भे वि एवं चेव आवई पावेज्नाहि य जहा ण अE) थी तभने मान शिक्षा लागवी ५ वी सागवी २घो छु Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ राजमनीयसूत्र 7 शिन् ! पुरुषस्य क्षणमपि एतमर्थ प्रतिशृणुयाः ?, नायमर्थः समर्थः, कम्मात् खलु ?, यस्मात् खन्नु भदन्त ! अपराधी खलु मन पुरुषः, एवमेव प्रदेशन ! तत्रापि आर्यवत् इहैव श्वेतविकायां नगर्याम् अधार्मिको यावत नो सम्यक् कंग्रवृत्तिमावर्तयत स खलु मम वक्तव्यतया सुबहु यावत् उपपन्नः, तस्य खलु आर्यकस्य त्वं नप्तृकोऽभवः, उम्रः कान्तः यावद् दर्शनतया, स खलु इच्छति मनुष्यं लोक शीघ्रमागन्तु नैव खलु शक्नोति शीघ्रमागन्तुम्, चतुर्भिः स्थानः प्रदेशिन्। अधुनापपन्नकः नरकेषु नैरयिककि पड़ गया हूं । (तस्स णं तुम पएसी । पुरिमस्म खणमत्रि एवम पाडणेजामि ? ) तो हे प्रदेशिन् ! तुम क्या उस पुरुष की बात की थोडी सी भी देर के लिये स्वीकार कर लोगे ? (गो हई समहं) हे भदन्त ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् उसकी यह बात स्वीकार नहीं की जावेगो (जम्हा) क्योंकि (णं सं स ते 1 अवराही णं से पुरिसे) है भदन्त 1 वह पुरुष अपराधी है। (एवमेव पएसी ! तत्र वि अज्जए होथा) तो इसी तरह से हे प्रदेशिन् ! तुम्हारे भी आर्यक हुए हैं । (एवामेव इत्र सेयचिया घरीए अवम्मिए णो, सम्म कर भर विपित्तह) उन्होंने इस श्वेतांबिका नगरी में अपना जीवन अधार्मिक बनाया है, तथा प्रजाजन से प्राप्त टेक्स से उनका उन्होंने अच्छी तरह से पालनपोषण नहीं किया है। (सेणं अहं वत्तवाए सुबह जब उन्नो ) इस तरह मेरी चव्यता के अनुसार वे अनेक अतिमलिन पाप कर्मों का अर्जन करके यावत् किमी एक नरक की पर्याय से उत्पन्न हुए हैं । (तस्स णं अजगरसं तुम नुए हत्था, इट्ठे कते जाव पासणयाए ) उन्हीं आर्यक के तुम इष्ट कान्तं ( तस्स णं तुमं पएसी । पुरिसस्स वणमवि एयम पडिसुणेज्जासि १) તે હૈ પ્રદેશિન ! શુ' તમે તે પુરુષની વાતને ઘેાડા વખત માટે પણ · સ્વીકારી લેશે? (णो इट्ठे . समट्ठे ) डे लहंत ! आ अर्थ समर्थ नथी भेटते तेनी मा वात zals:zahi »nað alg. (1771) dhì (q°Ã¤Â ! xxâ q'à gâà) हे अदृत! ते पुरुष अपराधी है. (एवामेत्र पएसी ! तत्र वि अज्जए होत्या) तो मा प्रभाणे ४ हे अद्देशिन तभाश भाटे पशु आर्य, थयां छे. (एवामेव इहे सेविया जयरी अधम्मिए णो सम्म करभावित पत्ते ) तेम પાંતાનુ જીવન શ્વેતાંબિકા નગરીમાં અધાર્મિક રીતે પસાર કર્યું... છે તેમજ પ્રજાજના पासेथी ४२--प्रसून 'उरीने पशु तेभनु सारी पेठे - पोषणु यु' नथी तन्वाए सुबहु जाव उववन्नो) मा प्रभा भारा प्रथम भु પાપકર્માનુ અર્જન કરીને યાવત્ કોઇ એક નરકમાં નારકની પર્યાયથી જન્મ પામ્યાં છે. ( तस्स ण' अन्जंगस्स तुमं पातुए होत्था, इहे कंते जात्र पासणयाए ) ( से णं अम्ही तेभणे घशु : A Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टोका. १३२ भदेवस्य पुत्र पवनीवप्रदेशिरजवर्णनम इच्छति मानुष्यं लोक शीघ्रमागन्तुं नैव खलु शक्नाति-१ अधुनोरपन्नकः नरकेषु नैरयिकः स ग्वलु तत्र महन्दतां वेदनां बेदयन् इच्छेन मानुष्यं लोक शीघमागन्तुं नैव खलु शक्नोति । २ अधुनोपपन्न को नरकेषु नैरयिका नरकपालैः भूयो भूयः समधिष्ठीयमानः, इच्छति मानुष्यं लोकं शोधमागन्तुं आदि विशेषणों वाले पौत्र हो (से ण इच्छइ माणुसं लोग हबमागच्छित्तए णो चेव णं संवाएइ. हवमागच्छित्तए) वे तुम्हारे आर्यक ! यद्यपि इय मनुष्यलोक में वहां से जल्दी से जल्दी आना चाहते हैं, परन्तु वे वहां से आने के लिये असमर्थ हैं। (चउहि ठाणेहि पासी ! अgणोक्षणए नरएस्सु नेरइए इच्छई, माणुमं लोगं हव्वमागच्छित्तए जो चेवण संचाएइ) क्यों की हे प्रदेशिन् ! अधुनोपपन्नक नारक चार कारणों को लेकर मनुष्यलोक में शीघ आने की इच्छा करता हुआ भी वह वहां से शीघ्र नहीं आ सकता है (१अहुणोववन्नए. नरएसु लेरईए-से ण तत्थ महब्भ्य वयणं वेदमाणे इच्छेज्जा माणुस्सं लोग धमागाच्छित्तए णो चेव णं संचाएइ) वे चार कारण इस प्रकार से हैं--अधुनोपपन्नक नैरयिक नरकों में बहुत बडी वेदना का अनुभव करता है, अतः वह चाहता है कि मैं मनुष्य. लोक में उत्पन्न हो जाऊ-परन्तु वह वहां से निकलने में सर्वथा असमर्थ होता है-वहां नहीं आ सकता है ? (२अहुणोवबन्नए नरपसु नेण्डए नरय ते माया तमे Ue xid को विशेष पोत्र छ. (से ण इच्छई माणुसं लोग हच्चमागच्छिनए जो चेव णं मचाएइ. हवामागच्छन्तए) मा ते આર્યક છે કે મનુષ્યલેકમાં ત્યાંથી જલદીમાં જલદી આવવા ઈચ્છે છે, પરંતુ તેઓ त्यांची भाषामा असमर्थ छ. (चउहि ठाणेहि पएसी! अहंणोववण्णए निरएसु नेरहए इच्छड, माणुमं लोग हममागच्छिनए णो चेव ण संचाएइ) કેમકે હે પ્રદેશન ! અને પપન્નક નારક ચાર કારણોને લીધે મનુષ્યલેકમાં જલદી मावदानी ४२छ। धरावे छ छतां ते त्यांची ही मावी शत नयी. (१ अहुणोववन्नए, नरएसु नेरइए से ण तत्थ प्रहन्भूयं वैयण वेदेमाणे इच्छेज्जा माणुस्स लोग हवंमागच्छित्तए णों चेव ण संचाएइ) ते यार अ२॥ २॥ પ્રમાણે છે. અધુને પપન્નકનરયિક નરકેમાં તીવ્ર વેદનાને અનુભવે છે એથી તે ઇચ્છે . છે કે હું મનુષ્યલેકમાં જન્મ પામું પરંતુ તે ત્યાંથી નીકળવામાં સર્વથા અસમર્થ डाय छ, मी ते आवी शो नथी १. (२ अहुणोववन्नए नरएस नेरइए परयपाले हिं भुज्जो भुज्जो समहिटिज्जमाणे इच्छइ, माणुस लोग हब्वमाग Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ राजश्री सूत्रे नैव खलु शक्नोति । ३ अधुनोपपन्नकः नरकेषु नैरयिकः निरयवेदनीये कर्मणि अक्षीणे अवेदिते अनिर्जिणे इच्छति मानुष्य लोक शीघ्रमागन्तु ं नैव खल्लु शक्नोति । ४ एवम् अधुनोपपन्नको नरकेषु नैरयिको निरयाऽऽयुपि कर्मणि अक्षीणे अवेदिते अनिर्जीर्ण इच्छति मानुष्य लोक शीघ्रमागन्तुं नैव खलु नीति शाघ्रमागन्तुम्' इत्येतैश्चतुर्भिः स्थानैः प्रदेशिन् ! अधुनोपपन्नका पालेहिं भुज्जो भुज्जो समहद्विजमाणे इच्छ, माणुसे लोग हन्त्रमागच्छितर नो चेवणं संचाएइ) अधुनोपपन्न नारक नरकों में परमाधार्मिकरूप नरकपालों द्वारा बार बार आक्रम्यमाण होता हुआ यह चाहता है कि मैं मनुष्यलोक में शीघ्र उत्पन्न हो जाऊं, परन्तु वह मनुष्यलोकमें शीघ्र उत्पन्न नहीं हो मकता है २ (३अणोववन्नए नरएस नेरइए निस्यवेग्रणिसि कम्मंनि अवखीर्णसि अवेइयंसि अनिज्जिन्नंसि इच्छइ माणुम लोग हन्यमागच्छित्तए णो चेवण ं संचाएइ इंत्रमागच्छित्तए) अधुनोपपन्नक नारक नरक में नरकभोग्य अशावेदनीय कर्म के अक्षीण होने पर, अननुभूत होने पर एवं अनिर्णि नाश होने पर, मनुष्यलोक में आनेका अभिलाषी होता हुआ भी नहीं आ सकता है३ (४ एवं नेरयाउसि अक्ग्बीणे अइए अणिज्जिणेइच्छेज्जा माणुस्स लोग हन्त्रमागच्छितए नो चेवणं संचाएइ) इसी प्रकार चौथा कारण यह है कि उसके नरकसंच धी वेदन नहीं हो चुका है, तथा नारक आयु की निर्जरा भी नहीं हुई है इसी आयु क्षीण नहीं 'हुआ हैं, उसका कारण से वह मनुष्यलोग में आने को इच्छा करता हुआ भी नहीं आ सकता है। (इच्चेच्छित्तए नो चेत्र ण संचाएइ) अधुनापन्नः नार नारीभां परमाधार्भि ४३५ નરકપાલે વડે વાર વાર આકંમ્યમાણુ થઇને તે એમ ઇચ્છે છે કે હું મનુષ્યલેાકમાં જી उत्थन्न थाङ' परंतु ते मनुष्यखेोभां ही उत्पन्न थ शतो नथी, २. (३ अरुणोचवन्नए नरएस नेरइए निरयवेयणिज्जसि कम्मोंस अक्खीणंसि अवेयंसि अग्निज्जिन्नंसि इच्छइ माणुस लोगं हवमागच्छित्तए णो चेव णं संचाएइ हन्त्रमागच्छित्तए) मधुनापयन्न नासु नरम्भां लोभ्य अशात वेहनीय भक्षी - હાવાથી અનનુભૂત હાવાથી અને અનિણુ હાવાથી મનુષ્યલેાકમાં આવવાની અભિલાષા राजे छ छतांगे ते त्यांथी मुक्त था राहतो नयी. अने (४ एवं नेरइयाउंसी अक्खीणें अवेइए अणिज्जिणे इच्छेज्जा माणुस्मं लोगं हन्यमागच्छित्तए नो चेत्र णं संचाएइ) मा प्रभा थोथु अरशु मा प्रभाहो नरम्समधी તેનું આયુ ક્ષીણ થયું નથી, તેનુ વેદન થયુ' નથી "મજ નારક આયુની નિર્જરાપણ થઇ નથી એથી જ તે મનુષ્યલેાકમાં આવવાની ઇચ્ડ ધરાવે છે છતાંએ આવી Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका मु. १३२ सूर्याभदेवम्य पूर्वभवजीवदेशीराजवर्णनम् १९७ नरकेषु नैरपिकः इच्छति मानुष्य लोक शीघमाग्न्तु नैव खलु शवनोतिः। तत् श्रद्धेहि ग्वलु प्रदेशिन् ! यथा-अन्यो जीव अन्यत् शरीरम् नो तज्जीवः स शरीरम् ॥ म. १३२॥ टीका--'नए । केमीकुमारसमणे' इत्यादि-ततः-तदनन्तरम्, खलु के शीकुमारश्रमणः प्रदेशिन राजानमेवमवादीत-हे प्रदेशिन !तब मर्यकान्तानाम देवी गज्ञो अस्ति खलु , ततः प्रदेशी राजोत्तरयति-हेन्त !' इति एहि चाह ठाणेहि पएमी! अहुणाचवन्ने नरएस नेग्इ पसु नेरइए इच्छड :माणम लोग हबमागच्छित्तए नो चेव ण संचाएइ) इस प्रकार इन चार कारणों से हे प्रदेशिन् ! अधुनोपपन्नक नारक मनुष्यलोक में शीघ्न जाने का अभिलाषी होता हुआ भी वह वहां से शीघ्र मनुष लोक में नहीं आ सकता है। (न सहाहि णं परमी ! जहा :अन्नो जीवो अन्नं मरीरं नो तं जोवो तं मरीर) इसलिये हे प्रदेशिन् ! तुम ‘स यात पर अवश्य विश्वास करो, कि जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है.।। टीकार्थ- केशीकुमारश्रमणने प्रदेशी राजा से जो कहा वह इस मूत्र द्वारा प्रकट किया गया है. इसमें जीवं भिन्न है और शरीरभिन्न है इम बानको उमके आयक-(पितामह दादा) नरक से आकर उसे क्यों नहीं समझाते हैं इस बात का उत्तर उसे समझाया गया है. उससे केशी. कुमारश्रमणने कहा हे प्रदेशिन ! तुम्हारी जो सूर्यकान्ता देवी है, उससे यदि कोई मनुष्य उसी के जैसे विशेषणों वाला बन कर मनोऽनुकूल शब्द, ust नथी. (इच्चेहि चाह ठाणेहि पएसी! अहुणोववन्ने नरएसु नेर इएस नेरइए इच्छइ माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए नो चेत्र णं संचाएइ) આ પ્રમાણે આ ચારે ચાર કારણથી હે પ્રદેશિન! અધુનોપપનક નારક મનુષ્યલેકમાં જલદી આવવાની ઈચ્છા રાખતો હોય છતાં એ ત્યાંથી જલદી મનુષ્યલેકમાં આવી थत नथी (तसहाहि पएसी जहा अन्नो जीवो अन्न सरीर', नोतं जीवो तसरीरं) मेथी र प्रहशिन ! तमे मा वात ५२ अवश्य विश्वास । ભિન્ન છે અને શરીર ભિન્ન છે. : ટીકા–કેશીકુમારશ્રમણે પ્રદેશી રાજાને જે કંઈ કહ્યું છે તે બધું આ સૂત્ર વડે પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે. આમાં છવ ભિન્ન છે અને શરીર ભિન્ન છે એ વાતને તેના આર્મક (પિતામહ-દાદા)નરકમાંથી આવીને કેમ સમજાવતા નથી એ વાતઆ પ્રમાણે તેને સમજાવવામાં આવી છે. કેશીકુમારશ્રમણે કહ્યું કે હે પ્રદેશિન! તમારી જે સૂર્યકાંતાદેવી છે તેની સાથે જે કઈ માણસ તેના જેવા વિશેષણથી યુક્ત થઈને Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ गजप्रश्नोयसुत्र स्त्रीकारे अनि-विद्यते मम सूर्य का ता देवा ! ततः केशाकुमारश्रमण आह-यदि-चेन खलु व पदेशी राजा तां-पूर्वोक्ता मर्यकान्तां देवीं म्नानां-कृनम्नानां कृतवलिकर्माण-कृतवायमादि निमित्तान्न भागां, कृत. कौतुकमङ्गलमायश्चित्ता-कृतमपीपुण् तिलकादि मङ्गलार्थ पापशोधन क्रियां, सर्वा. लङ्कारभूपिता-सकलाङ्गोपाङ्गाभरणीलङ्कृतां केनापि केनचित् पुरुषेण साई, कीदृशेन ? इल्याह-स्नातन ? त्याह-स्नातेन यावत्-यावत्पदेन-हसबलिकमणा कृतकौतुकमालपायश्चित्तेन' इत्येषां सङ्ग्रहः, तथा सर्वालङ्कारभूपितेन सार्द्ध इष्टान्मनोऽनुकूलान शब्द-स्पर्श रसरूप-गन्धान, पचविधान-पञ्च. मकारान मनुष्यकान्-मानुष्यलोकभवान कामभोगान्-पूर्वोक्तान शब्दादीन्द्रिय विषयान् मत्यनुभवन्तोम्-अनुभवविषयीकुर्वतीम् पश्येथ, तम्मिन्नवमरे हे प्रदेशिन् ! त्वं तस्य-पूर्वोक्तस्य खलु क-कीदृशं दण्डं निग्रहं निर्वतये:-कुर्याः ? | नतः प्रदेशिराज आह-हे भदन्त ! अहं खलु त-कृततादृशदुराचार पुरुष हस्तांच्छन्नक-हस्तौ छिन्नौ यस्य तादृशं वा-अथवा शूलातिगशलारोपितं वा भिन्नक-शूलेन भिन्नः शुलभिन्नः स एव शूलभिन्नकस्तम्, वा-अथवा पादच्छिन्न-छिन्नौ पाद यस्य तम् वा अथवा एकाऽऽघातम् एकः सत् श्राघात: महाग यस्मिन् , तम्,कूटाऽऽघात-कूटेन-पर्वतशि खरेण तदुपरिसमारोपणद्वारा पातनेन श्राघात:-वधो यस्य तं तथा, जीवितात-न्यपरोपयेयं-वियोजयेयम्, जोवरहित कुर्यामित्यर्थः, इति प्रदेशिराजनिवेदनानन्तरं पुनः केशीश्रमण: पृच्छति-अथ खलु हे प्रदेशिन ! यदि सः पुरुषः त्वाम् एवम् अनुपद वश्यमाणं वचनं वदेत्-कथयेत्-तथाहि-मे-मां हे स्वामिन् ! यावत्-मित्रास्पर्श-रस-रूप गधादि पांच प्रकार के मनुष्य भाव मबधो कामभोगों को भोगे और तुम इस बात को देखलो तो उस असर में हम उस पुरुष के लिये क्या दण्ड दो ? तच प्रदेशी राजाने कहा-हे भदन्त ! ऐसे दुराचारी पुरुष को मैं अङ्गभङ्ग का यावत् जीवरहित होने का दण्ड दूं ठीक हैइल पर यदि वह पुनः तुम से ऐसा निवेदन करे कि हे स्वामिन ! थोडी देर आप मुझे इस दण्ड से रहित कर दीजिये इतने में मैं अपने मित्रा. રમણ કરે મનેડનું ફૂલ શબ્દ સ્પર્શ રસ રૂપ ગંધ વગેરે પાંચ પ્રકારના મનુષ્યસંબંધી કામગો ભેગવે અને તમે આ બધું કરતાં જોઈ લો તે તે વખતે તમે તે પુરુષને શી શિક્ષા કરે ત્યારે પ્રદેશ રાજાએ કહ્યું કે હે ભદ્રતા એવા દુરાચારી પુરુષને - હું અંગભંગની યાવત્ નિષ્ણાણ કરી મૂકવાની શિક્ષા આપું તે ચગ્ય કહેવાય. એના પછી તે ફરી તમને એવી રીતે વિનંતી કરે કે હે સ્વામિન્ ! થોડા વખત માટે મને રજા આપે કે જેથી હું મિત્ર વગેરે સ્વજનોને આમ કહું કે હે દેવાનુપ્રિયે તમારામાંથી Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवाधिनी टाका सू. १३२ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशीराजवर्णनम् १९९ दीन् प्रति वक्ष्यमाणविषयनिवेदनसमयावधिमुहूर्त मुहुर्तमानं मां हरतच्छिन्नक वा यावत्-यावन्पदेनोपर्युक्तपदानां संग्रहा बोध्यः, तदर्थ चोपयुक्त एव, जीवितान मा व्यपरोपय-न वियोजय, मा मारयेत्यर्थः यावत्-यतामय. पर्यन्तं 'तावत' इति वाक्यालङ्कारे, अहं मित्र-ज्ञाति-निः क-स्वजन-सम्बन्धि परिजनं मित्राणि-सुहृदः, ज्ञानय:-मातापितृभ्रात्रादयः, निजकाः-स्वपुत्रादयः वजना:-पितृव्यादयः, सम्बन्धिन:-श्वशुरादयः, परिजना:-दांसी दासादयः, एषां समाहारो मित्र-जाति-निजक स्वजन-सम्बन्धि-परिजनं, तत्तथा, एवम् अनुपदं वक्ष्यमाणं वचनं वदामि-कथयामि, यथा-हे देवानमियाः ! ययम् एवं-वक्ष्यमाण शृणुत-'अहं पापानि कर्माणि समाचर्य-कृत्वा इमाम्- एतपा पदेगिराजोपनीयमानां कुमारणया जविताद् व्यपरोपनीयतारूपाम् आपत्तिम्आपदं प्राप्नोमि-प्राप्तोऽऽस्मि, तत्-तग्मात्कारणात-पापकर्मणामापत्तिप्राप. कत्वाद्धेतोः, हे देवानुप्रियाः ! यूयमपि-मदीयमित्रादयः केचित-केऽपि पापानि कर्माणि मा ममाचरत-न प्रकुरुत 'वि' इति यूयमपि एवमेव अनेनेप्रकारेण आपत्ति मा प्राप्नुत-यथा खलु अहम् इति । तस्य खलु त्वम् एतंतत्कथनरूपम् अर्थ हे प्रदेशिन् ! प्रतिशुणुयाः-स्वीकुर्याः ? प्रदेशी कथयनिअयम्-अनन्तरीक्तोऽर्थः नो समर्थः-न युज्यते, कस्मात् खलु न समर्थः ? इति जिज्ञासायामाह-'यामात्' इत्यादि-हे भन्त ! यस्मात् खलु स पुरुषः मे-मम अपराधी वर्तते' इति हेतोः अंगमर्थो न समर्थः, केशीकुमारश्रमणः . दिजनौ से ऐसा कह दूं कि हे देवानुप्रियो ! तुम लोगों में से कोई भी जन ऐसा पापकर्म नहीं करना नहीं तो मेरी जैसी आपत्ति को भोगना पडेगा तो क्या है. प्रदेशिन् ! तुम उसकी इस बातको मान लोगे! यदि कहो कि नहीं तो इस पर पुनः यही पूछा जा सकता है कि क्यों नहीं? तुम कह सकते हो? इसके उत्तर में वह अपराधी है। तो इसी प्रकार से है प्रदेशिन ! तुम्हारे जो आर्यक (दादा) है वे भी अनेक मलिन पापकर्मों को कमाकर यहां से नरक में नारक की पर्याय से उत्पन्न हुए हैं-अतः जब तक वे, वहाँ की पूरी स्थिति को नहीं भोग लेते है-तवंतक वे अपनी इच्छा કેઈપણ એવું પાપકર્મ કરશે નહિ નહિતર મારાં જેવી શિક્ષા ભેગવવી પડશે તે શું" હે પ્રદેશિન તમે તેની આ વાત સ્વીકારી લેશે હવે જે તમે આમ કહે કે નહિ. તે એના પર ફરી તમને પૂછવામાં આવે કે કેમ નહિ ? એના ઉત્તરમાં તમે ' शा. अपराधी छे तो मा 'प्रमाणे · प्रहशिन - मा.रे मार्य छ . તેઓ " પણ ઘણું પાપકર્મોનું અર્જનકરીને અહી થી" નરકમાં ન રકની પર્યાયેથી જન્મ પામ્યા છે. એથી જ્યાં સુધી તેઓ ત્યાંની સંપૂર્ણ પ્રાપ્ત Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० ........... ... ...: राजप्रश्नीयम पाह-हे पदेशिन् ! एवमेव-अनेनैव प्रकारेण तवापि आर्यकाऽभवत्, पिताः । मद्दो कोदर्शोऽभवन् ?. इत्याह-सच इहैवःश्चेतविकायां नगर्यामधामको यावत्नो सम्यक् करभरान पावर्त यत् । सः-तवार्यकः खलु मम वक्तध्यतया-कथनानुसारेण स्लुबह यादत-यावसदेन-"पार कर्म माणातिपनिादिकं ममर्त्य नरकेषु" इत्येषां पदानां सः उत्पन्नः समुत्पन्नः" तस्य-पूर्वोकस्य । आर्य कग्य खलुः । त्वं नप्तकः पौत्रोऽभाः कीदृशः ? इतिजिज्ञासायामाइ-इष्टः कान्ता यावद दर्शन तया,। मः-नर प्रपन्नः बलु सम्प्रति मानुष्य लोकं हव्य-शीनमागन्तुमिच्छति, परन्तु स शोनमागन्तुं न शक्नोति । कुंतो न उति जिज्ञासोयां शणु-हे प्रदेशिन ! चतुभिः स्थान:-कारणेः, अधुनोपपन्न:-तत्कालोपन्नो नरकेषु-नरक.मध्ये, नैरयिका नारकः मानुष्य लोकं शीनमागन्तुमिच्छति- परन्तु शीघ्र आगन्तुनो शाक्नोति-नानि चत्वारि स्थानान्येवम्-अधुनोपपन्नो नरकेषु नायिकः सः खलु तत्र-नरकेपु महः द्भूनां-मही वेदनां वेदयन्-अनुभवन मानुष्यं ला शीघ्रमागन्तुमिच्छेत .. परन्तु श्रागन्तुं नैव शक्नोति । अधुनोपपन्नो नर के पु नयको नरकपाल:परमावामि के देव भूगोभूयः-पुनःपुनः समधिष्ठीगमान:-आक्रम्यमाणः मन इच्छति मानुष्यं लोकमागन्तुं किन्तु न शक्नोति२ । तृतीय स्थानमाह-अधुनोपान्नो नरकेषु नैरयिकः. निरयवेदना ये नरकभाग्ये अशातवेदनीये कर्मणि अक्षीणे-क्षयमप्राप्ते अवेदिते अननुभूने, अनिर्जीणे-नाशमप्राप्ते च सति इच्छति मानुष्यं लोरमागन्तुं किन्तु न शक्नोन्यागन्तुम्।३। अनेन प्रकारेण निर: यायुपि-नरकसम्बन्धिनि आयुःकर्मणि अक्षीणेऽवेदितेऽर्नीिजणे-निर्जरामः प्राप्ते च मति, इच्छति मनुष्यं लोकमागन्तुं किन्तु न शक्नोति।४। इत्येतेः अनन्नरोक्तश्चतुर्भिः स्थानः हे प्रदेशिन् ! अधुनोपपन्न इत्यादीनां विवरण पाग्वत् । तत्-तम्मात्कारणात् हे प्रदेशिन् ! त्वं श्रद्धेहि-मद्वचने विश्वमिहि खल. यथा-'अन्यो जोनः. अन्यन शरीरम्. नगे य जीवः तत् शरीरम्' .. के अनुसार यहां नहीं आ सकते हैं. क्यों कि नारक जीवों को यहां आने में चार कारण बाधक हैं. जो मूलार्थ में प्रकट किये जा चुके हैं। इसलिये हे प्रदेशिन् ! तुम मेरे इस वचन पर कि जीव भिन्न है, और शरीर भिन्न . है, जीव शरीररूप नहीं हैं, और शरीर जीव रूप नहीं है विश्वास रखो,.. સ્થિતિને ભોગવી લેશે નહિ ત્યાં સુધી તેઓ પિતાની ઈચ્છા મુજબ અહીં આવી शशे नाह.भ. ना२४लवाने : महा भाववा भाटे यार या छ.10 भूतार्थ भी मतावाम मा०या छ. मेथी 3 प्रहशिन् ! तमे भारी क्यान. ५५- ७५ मिन्न छ भने शरीर लिन्न छ, शरी२३५ नथी, भने शरीर ७१३५ नथी, Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ ___ सुबोधिनी टीका स. १३३ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् इति । यदि जीव-शरीरयोदो न स्यात्तदा पूर्वोक्तकारणचष्टयेन नरकभोगं कः कुर्यात् ? शरीरस्य तु मनुष्यलोक एव नष्टत्वात, शरीरभिन्नत्वे तु जीवस्य शरीरनाशेऽपि मत्वादुक्तहेतुचतुष्टयेन नरकभोगं कर्तुं जीवः शक्यो भवति ॥. सू० १३२॥ __मूलम्-तएणं से पएसी राश केसि कुमारसमणं एवं वयोलाअस्थि णं भंते ! एग पण्णाओ उवमा, इमेण पुण कारणेण नो.उवागच्छइ । एवं खलु भंते ! सम अज्जिया होत्था इहेव सेयवियाए नयरीए धस्मिथा जवि वित्ति कप्पेमाणी समणोवासिया अभिगय जीवा० सोवष्णओजाव अप्पाणं भावमाणी विहरइ, साणंतुझ वत्तव्ययाए सुबहु पुन्नोवचयं समजिणित्ता कालमासे कोलं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववण्णा, तीसेणंअजियाए अहं नतुए होत्था इहे कंते जाव पासणयाए, तं जइ णं ला अजिगा सम आगंतुं एवं वएजाएवं, खल्लुत्तुआ ! अहः तब अजिया होत्था, इहेव सेयवियाए नयरीए धरिमया जाव वित्त कप्पेमाणी समणोवासिया जाव विह. यदि जीव और शरीर में भेद नहीं होता तो पूर्वोक्त कारण चतुष्टय में नरक भोग कौन करे? क्यों कि शरीर तो मनुष्यलोक में ही नष्ट हो जाता । उसके नष्ट होने पर तदभिन्न जीव भी नष्ट हो जायेगा। परन्तु जब शरीर से भिन्न जीव को माना जाता है तो शरीर के नाश होने पर भी जीव का सद्भाव रहता ही है। अतः उक्त हेतु चतुष्टय से नरकभोग करने के लिये जीव समर्थ होता है। इस प्रकार से यह टीका का भाव लिखा गया है ॥ सू. १३२ ॥ વિશ્વાસ રાખો. જે જીવ અને શરીરમાં ભિનતા ન હોત તે પૂર્વોક્ત કારણ ચતુષયમાં નરકગ કરે કેણ? કેમકે શરીર તે મનુષ્ય લેકમાં જ નષ્ટ થઈ જાય છે, તેના નાશ . પછી તદુભિન્ન જીવ પણ નષ્ટ થઈ જ જશે જ. પરંતુ જ્યારે શરીર કરતાં ભિન્ન જીવને માનવામાં આવે છે તે શરીરના વિનાશ પછી પણ જીવને સદ્ભાવ રહેજ છે. ઉકત હેતુ ચતુષ્ટયથી નરકંગ માટે જીવ સમર્થ હોય છે. આ પ્રમાણે આ ટીકા ને ભાવ લખવામાં આવ્યા છે. સુ. ૧૩રા Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ राजप्रश्नोयसूत्रे रामि,। तए णं अहं सुबहुं पुण्णोवचयं समजिणित्ता कालमासे कालं किच्चा देवलोएसु उववण्णा, तं तुमंपि णत्तुया ! भवाहि धम्मिए जाव विहरोहि, तएणं तुमंपि एवं चेव सुबहु पुण्णोवचयं समज्जिणित्ता जाव उववजिहिसि, त जइ णं आजया मम आगतुं एवं वएज्जा तो णं अहं सद्दहेजा पत्तिएज्जा रोएज्जा जहा अण्णो जीवो अण्णं सरीर, णो तं जावो तं सरीरं, जम्हा सा अज्जिया ममंआगतु णो एवं वयासी तम्हा सुपइट्रिया मे पइण्णा जहा तं जीवो तं सरीरं नो अन्नो जीवो अन्न सरीरं ॥ सू० १३३ ॥ छाया-ततः खलु स प्रदेशी राजा केशिनं कुमारश्रमण मेवमवादीत् अस्ति खल भदंत ! एषाःप्रज्ञात उपमाः, अनेन पुनः कारणेन नो उपागच्छति, 'तएणं से पएसी राया' इत्यादि । सूत्रार्थ-(तए ण) इसके बाद (से पएसी राया केस कुमारसमणं एव वयासी) उस प्रदेशी राजाने के शीकुमारश्रमण से इस प्रकार कहा(अस्थि णं भंते ! एसा पण्णाश्रो उवमा इमेण' पुण कारणेण नो उवागच्छइ) हे भदन्त ! जीव और शरीर को भिन्न प्रकट करने में 'मेरे आर्यक-(पिता-सह) इस कारण से नहीं आते हैं। यहां त 6 के सन्दर्भ से जो आपने उपमा दी है , मो यह उपमा प्रज्ञात-दृष्टान्त है। यह वास्तविकी उपमा नहीं है) तो भी मैं यह मान लेता हूँ कि मेरे पितामह-आर्यक आपके द्वारा प्रदर्शित कारणों की वजह से यहां नहीं आते हैं-सो भले न जावे परन्तु (एवं खलु भंते ! "त ए से पएसी राया' इत्यादि। सनार्थ-(तए णं) त्या२ पछी ( से पएसी राया केस कुमारसमणं एवं वयासी) ते प्रदेश २: शीभा२ श्रमाने मा प्रमाणे -अस्थि ण मंते ! एसा पण्णाओ उवमा इमेण पुण कारणेण नो उवागच्छह) मत ! જીવ અને શરીરને ભિન્ન પ્રકટ કરવામાં “મારા આર્યક (પિતામહ) આ કારણને લીધે આવતા નથી” અહીં સુધીના સંદર્ભ લગી જે કંઈ પણ તમે ઉપમા રૂપમાં કહ્યું છે તે તે ઉપમા પ્રજ્ઞાત-દષ્ટાન્ત છે, આ વાસ્તવિકી ઉપમા નથી, છતાં એ હું તમારી આ વાત સ્વીકારી લઉં કે મારા પિતામહ આયંક તમારા વડે પ્રદર્શિત કારણેને सीधे । म मावी Azता नथी. तो तय न भावे. परंतु (एवं खलु भते! Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिनी टीका सू. १३३ सूर्गभदेवस्य पूर्व नवज वप्रदेशिराजवणं' नम् २०३ , एवं ग्वल भदंत ! मम आर्यिकाऽभव, इहैव श्वेतविकाय नगर्या धार्मिकी यावद् वृत्तिं कल्पयमाना श्रमणोपासका अभिगतजीवा० सर्वो वर्णकः यावद् आत्मानं भावयन्ती विहरति सा खलु तत्र वक्तव्यतया सुबहु पुण्योपचयं समय कालमासे कालं कृत्वा अन्यतरेषु देवलोकेषु देवतयोपपन्ना, तस्याः खलु आर्यिकायाः अहं नप्तृकोऽभवम्, इष्टः कान्तः यावद् दर्शनंतया, तद् यदि खलु माssयिका मम आगत्य एवं वदेत् एवं खलु नप्तृक ! अहं - मम अज्जिया होत्था इहेत्र सेयविधाए नयरीए धम्मिया जात्र वित्ति कप्पेमाणी समणोवासिया अभिगय जीवा० सव्वओ वण्णओ जाव अप्पा भावेमाणी विरइ) हे भदन्त ! मेरी जो आर्यिका - ( दादी) हुई है, वह तो इस श्वेतांका नगरी में धार्मिकधी यावत् धर्म से ही अपनी जीवनयात्रा चलाती थी, श्रमणोपासिका श्री, जीवअजीव तत्र के स्वरूप को जानती थी, इत्यादि सर्व वर्णन यहां पर करना चाहिये. यावत् वह आत्मा को भक्ति करती हुई अपने समय को व्यतीत करती थी ( साणं तुज्झ वसन्याए सुबहु पुण्णोवचयं समनिणित्ता कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएस देवताए उन्ना) वह आपके कथनानुसार बहुत अधिक पुण्य का उपचय करके कालमास में काल कर देवलोकों में से किसी एक देवलोक में देव की पर्याय से उत्पन्न हुए हैं। (नीसे णं अज्जियाए अहं नए होत्था ) में उसका पौत्र हुआ हू (इट्ट े ते जाव पासणयाए) मैं उसके लिये इष्ट अभिलषित. कान्त या यावत् दर्शन के लिये भी दुर्लभ था. मम अज्जिया होत्था इहेव सेयंवियाए नयरीए धम्मिया जाव वित्ति कप्पेमाणी समणीवासिया अभिगयजीवा० सओ वण्णओ जाव अप्पाण भावेाणी विरह) हे लहंत ! भारा ? मार्थि । (हाही ) थया छे ते तो मा શ્વેતાંખિકા નગરીમાં ધાર્મિક હતા યાવતુ ધર્મનું આચરણ કરીને પેાતાનું જીવન પસાર કર્યું હતુ. તેઓ શ્રમણેાપાસિકા હતા, જીવ અજીવતત્ત્વના સ્વરૂપને જાણુતા હતા. વગેરે બધુ વન અહી' સમજી લેવુ જોઇએ. તેએ પેાતાના આત્માને ભાવિત ईश्ता पोताना सभय पसार रता हुता. (साणं तुज्झ वन्त व्वयाए सुबहु पुष्णोवचय' समज्जिणित्ता काल किच्चा अण्णयरेसु देवलोपसु देवत्ताए उवचन्ना) તે આપના ક્થન મુજબ ખૂબજ પુણ્ય સંચય કરીને કાલ માસમાં કાલ કરીને देवोऽभांथी । ये देवसोम्भां हेवनी पर्यायभां नन्भ याभ्या छे. (ती से ण* अज्जियाए अहं न ए होत्था) तेभनो हु' चौत्र थयो छु . ( इट्ठे कते जाब j पासणयाए) हुँ तेभना भाटे छष्ट, अभिलषित, झांत तो यावत् दर्शन भाटे पशु Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ गाजप्रश्नोपत्रे तब आर्यिकाऽभवम्, इहैव श्वेतविकायर्या नगर्या धार्मिकी यावत् प्रांत कल्पयमाना श्रमणोपासिका याबद् विहरामि । ततः चलु अहं सुबई पुग्यो पचयं समय कालमासे काल' कृत्वा देवलोकेषु उपपन्ना, तत् त्वपि नप्तक ! भव धार्मिकः यावद विहर, ततः खल त्वमा एकमेव सुबह (तं जहणं मा अजिया मम आगंतुं एवं एज्जा) यह यदि आर्यिका (दादा) मुझ से आकर के ऐसा कहे (एवं खलु नत्तया ! अह नव अज्जया होत्या, इहेब सेयवियाए नयरीए धम्मिया जाब वित्ति कप्पेमाणी समणोवासिया जान विहरामि) हे पौत्र ! मैं तुम्हारी दादी थी. इसी श्वेतांचिका सूजी में में धार्मिक जीवन व्यतीत करती हुई यावत् अपनी जीवनयात्रा लाती थी.. जीव अजीव तत्व के स्वरूप को ज्ञाता श्री, तथा तप और संयम से अपनी आत्माको भावित करती हुई अपने समय को व्यतीत किया करती थी. (तए णं अहं सुबहु पूण्णायचयं समज्जिणित्ता कालमामे कालं किच्चा, देवलोएस उववण्णा) इस तरह मैंने बहुत अधिक पुण्य का संचय किया और संचय करके जब मैं मरण के अवसर पर मरी तो देवलोकों में से किसी एक देवलोक में देव की पर्याय से उत्पन्न हुई हूं (तं तुम पि लत्या! भवाहि धम्मिए जाब विहराहि) इसलिये हे पौत्र! तुम भी धार्मिक जीवन व्यतीत करो..और धर्मानुग आदि विशेषणों वाले बनो! तथा धर्म से ही अपनी जीवनयात्रा करते हुए यावत् श्रमणोपासक Tea sal. (त जइ ण' सा अज्जिया मम आगंतु एवं वएज्जा ) ते ४ (all) ने भने मावीन माम ४ ॐ (एवं ग्बन नत्तुया ! अहं तव अज्जिया होन्था, : इहेव से यावियाए नयरोए धम्मिया जाव वित्तिं कप्पेमाणी समणोवासिया जाव विहरामि) हे पौत्र ! ईतमारी पितामही ती. શ્વેતાંબિકા નગરીમાં ધાર્મિક જીવન પસાર કરતી યાવત્ પિતાની જીવન યાત્રા છેડતી હતી. હું શ્રમણ પાસિકા હતી, જીવ અજીવ તત્ત્વના સ્વરૂપને જાણતી હતી તેમજ તપ અને સંયમથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતી પિતાને સમય પસાર કરતી હતી. (तए ण अहं सुबहु पुण्णोवचयं समज्जिणित्ता. कालमासे काल किचा, नेवलोएमु उपवण्णा) शते में ! पुश्यना सेयय ज्यों मने सयम प्रशन મારે મરણ કાળે મરી ત્યારે દેવકેમાંથી કઈ એક દેવકમાં દેવની પર્યાય म पाभी छु. (ततुमपि नया ! भवाहि धम्मिए जाव विहराहि) मेथी । હે પૌત્ર! તમે પણ ધાર્મિક જીવન પસાર કરે અને ધર્માનુગ વગેરે વિશેષણથી સંપન્ન બને. તેમજ ધર્મથી જ પિતાની જીવનયાત્રા આગળ ધપાવતાં યાવત, सपना Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधिनी टीका सू. १३३ सूर्याभिदेवम्य पूर्वभव जीवनदेशिराजवणं नम् लम पुण्योपचय समर्थ्य यावद् उपपत्स्यसे, तः यदि खलु आर्यिका श्रागत्य एवं वदेत्, तदा व अह श्रहव्यात पतीयां रोचयेयं यथाअन्यो जीवः, अन्यच्छरीरम् नो तज्जीवस्तच्छरीरम् । यस्मात् साऽऽर्यिका ममागत्य नो एवमवादीत, तम्मात् सुप्रतिष्ठिता मे प्रतिज्ञा यथा-तज्जीवः स्वच्छरीरम्, नो अन्यो जीवः, अन्यच्छरीरम् ||० १३३ || واب * 1 बनो. (तए णं तुमपि एवं वेव सुबहु पुण्णोवचय सममज्जिणित्ता जाब उववज्जिहिसि) इस तरह करके तुम भो मेरो ही तरह से पुण्य का उपचय करके यावत् देवलोक में किसी एक देवलोक में देव की पर्याय से उत्पन्न हो जाओगे. (तं जइण अज्जिया सम आगंतु एवं बएज्जा, तो णं अज्जा, पत्तिएज्जा, रोइज्जा, जहा अण्णो जीवो, अण्णं सरीरं णो तं जीवो तं सरीर) इस तरह से हे भदन्त ! वह आर्यिका आकर के मुझ से ऐसा कहे तो मैं तुम्हारे इस कथन पर कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है तथा जीव शरीररूप नहीं है और शरीर जोवरूप नहीं है विश्वास कर सकता हूं प्रतीति कर सकता हूं और उसे अपनी रुचि का विषय बना सकता हूं । ( जम्हा सा अज्जिया मम आगंतु णो एवं बयासी - तम्हा सुपट्टिया मे पद्दण्णा - जहा तं जीवो अन्नं सरीर) परन्तु जिस कारण से वह आर्यिका मुझ से आकर के ऐसा कहती नहीं है, अतः इस कारण से मेरा यह मन्तव्य है कि जीव है वही शरीर है जीव शरीर से भिन्न नहीं है और शरीर जीव से भिन्न नहीं है सुस्थिर है अर्थात् सत्य है । श्रमणोपास थायो (तए ण तुमपि एवं चैव सुबह पुण्णवचयं समज्जिणित्ता जाव उववज्जिहरि ) या प्रमाणे तसे यशु भारी लेमन पुण्योपयय हेवनी पर्यायथी अन्भ यामशी. (तं जडण अज्जिया मम आगंतुं एवं बज्ना तो अहं सदहेज्जा. परिज्जा, जहा अण्णो जीवों, अण्ण सरीरं हे तं जीरो त सरीर) या प्रमाणे हे लढत ! ते आर्थि भावने भने साम आहे. તે હું તમારા આ પૃથન પર કે જીવ અન્ય છે અને શરીર અન્ય છે તેમજ જીવ શરીરરૂપ નથી અને શરીર જીવંરૂપ નથી—વિશ્વાસ કરી શકું છું. પ્રતીતિ કરી શ छु'. अने तेने पोतानी रुथिने गमतो विषय मनावी शड़े छु. ( जम्हा सा अज्जियाँ आगो एवं व्यास - तम्हा सुपइडिया में पइण्णा - जहात जागो तं सरीरं नो अन्नो जीवो अन्नं मरीर) परंतु ने भरने सीधे या क માવીને આ પ્રમાણે કહેતા નથી તે કારણથી જ મારું આ જાતનું મન્તવ્ય છે કે જે થવ તે જ શરીર છે જીવ શરીરથી ભિન્ન નથી અને શરીર જીવથી ભિન્ન નથી. આ વાત સુસ્થિર છે-સત્ય છે Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीयसूत्र टीका-'तएण से पएसी' इत्यादि ततः-तदन्तर, स मदेशी राजा केशिन कुमारश्रमणम्, एवम्-अनु पदं वक्ष्यमाण वचनम्, अवादीत-हे भदन्त ! जीवशरीर योमें दें अनेन पुन: कारणेन नो उपागच्छति)-इत्यन्तसन्दर्भेण या उपमा भवता दत्ता, एपा खलु पज्ञात =बुद्धिविशेषात्-बुद्धिविशेपजन्या उपमा दृष्टान्तः भस्ति, नत्वियं वास्तविको उपमाऽस्ति, तथापि मन्ये यन्मपितामही भवदुक्तकारणै?पागच्छत्यिति । परन्तु हे भइन्त ! मम-आर्यिका-पितामही खलु एवं वक्ष्यमाणप्रकारा अभवत्-सावाऽभवादति जिज्ञासायामाह-इहैबेत्यादि-इहैव अम्यामेवश्वेतीविकायां नगर्याम् . मा कीदृशी ? इत्यत्राहधार्मिकीत्यादि-धार्मिकी-धर्माचरणशीला, यावत्-यावत्पदेन "धर्मानुगा, धर्मिष्ठा धर्माख्यायिनी धर्मप्रलोकिनी धर्मप्ररचना धर्मसमुदाचारा धमे गैव" इत्येषां संग्रहः, तत्र-धर्मानुगा धर्मम् अनुगच्छति अनुसरति या सा तथा, धर्मिष्ठान्धर्मप्रिया, धर्माख्यायिनी-धर्मप्रतिपादिका, धर्मपलोकिनी-धर्म । टीकार्थ-इम के बाद प्रदेशी राजाने केशीकुमारश्रमण से ऐमा कहाहे भदन्त ! जीव और शरीर को भिन्नता प्रदर्शित करने के निमित्त जो आपने उपमा दी है, वह तो केवल आपकी बुद्धि से जन्य एक दृष्टान्नमात्र है. यह उपमा-दृष्टान्त सत्यार्थकोटि में नहीं आ सकती है। फिर भी आपके कथनानुसार यह मान लेता हूं कि मेरे आर्यक पदर्शित चार कारणों के कारण यहां नहीं आ सकते हैं। सो वे नः आवें-परन्तु मेरी जो दादी थी-जो कि इसी श्वेतांबिका नगरी में रहती थी, और धार्मिकधमोचरण शील थी यावत् जो धर्मानुगधर्म का अनुसरण करने वाली थी, धमिष्ठा-धर्मप्रिया थी, धर्माख्यायिनी-धर्म का उपदेश देनेवाली थी, धर्म ટીકાર્થ–ત્યારપછી પ્રદેશ રાજાએ કેશીકુમાર શ્રમણને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે ભરંત ! જીવ અને શરીરની ભિન્નતા પ્રદર્શિત કરતા જે તમે ઉપમા આપી છે તે તે ફકત તમારી બુદ્ધિથી કલ્પિત કરેલ એક દષ્ટાંત માત્ર જ છે. એથી તમારી આ ઉપમા દષ્ટાન્ત–સત્યાર્થ કટિમાં આવી શકે તેમ નથી. છતાંએ તમારા કહ્યા મુજબ આ વાત માની લઉં છું કે મારા આર્યક તમે કહેલા ચાર કારણોને લીધે અહીં આવી શકતા નથી તે ભલે તે ન આવે પરંતુ મારા જે દાદી હતા–કે જેઓ આ તાંબિકા નગરીમાં રહેતા હતા, અને ધાર્મિક-ધર્માચરણશીલ હતા યાવત્ જે ધર્માનુગા-ધર્મને અનુસરનારા હતા, ધર્મિષ્ઠા-ધર્મપ્રિય હતા, ધર્માખ્યાયિની-ધર્મને ઉપ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबाघिनी टीका. सूत्र १३४ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् दर्शिनी, धर्म' परञ्जना=धर्मानुरागिणी, धर्म समुदाचारा=भार्मिकसदाचारसंपन्ना, धर्मेणैत्र=जिनोक्तधर्मेणैव वृत्ति=जीवनयात्रां कल्पयमाना- कुर्वाणा, पुनःसा कीदृशी ? इति जिज्ञासायामाह - " अभिगतजीवाऽजीवे" -त्यादि सर्वः वर्णकःवर्णनकारकपदसमूहो वोध्यः, यावद् आत्मानं भावयमाना व्यहरत | अन्नत्य यावत्पदेन-'अभिगतजीवाजीवा' इत्यादि सर्वोऽपि पाटवतुर्दशाधिकैकशततमनुत्रतः स्त्रीत्वनिर्देशेन बोध्यः । अर्थोऽपि तत्रत एवं विज्ञेयः । सा= श्रनन्तरोक्ता आर्यिका पितामही खलु तच वक्तव्यतया तवमतेन सुबहुमअतिप्रचुरं, पुण्योपचयं - पुण्यकर्म समूहं समय समुपाज्य' कालमासे काल प्रलोकिनी श्री, धर्म परञ्जना-धर्मानुरागवाली थी, धर्म समुदाचारा - धार्मिक सदाचार से संपन्न थी. और जिनाक्तधर्म से ही अपनी जीवनयात्रा करने चालो थी. तथा जीव और अजीव तत्व के स्वरूप की ज्ञाता थी. अभिगतजीवाजीवा' इत्यादिरूप से वर्णन करने वाला पदसमूह और यहां यावत्पद से गृहीत पदसमूह ११४ वे सूत्र में वर्णित हुआ है, सो उसे यहां स्त्रीलिङ्ग की विभक्ति लगाकर ग्रहण कर कहना चाहिये तथा इन पदों का अर्थ भी वहां से जानना चाहिये. ऐसी वह आर्यिका - पितामहीदादी आपके मन्तव्यानुसार अतिमचुर पुण्य का उपचय करके कालसास में जब मरी तब वह अनेकविध देवलोकों में देव की पर्याय से उत्पन्न हुई है. उस आर्यिका का मैं पौत्र हूं, जो धर्म उसको बहुत अधिक इष्ट यावत् कान्त था. यावत् पद से वहाँ १३२ वे सूत्र में प्रोक्त इस विषय के विशेषणगृहीत हुए हैं। ये विशेषण वहां उसके पितामह के प्रकरण दिये गये हैं । २०७ हेश १२नारा हुता, धर्म'असोहिनी - धर्मदृशिंना हुता, धर्मप्रमना-धर्मानुरागवाणा इता, ધ સમુદાચારા–ધાર્મિક સદાચાર સ ંપન્ન હતા અને જિનેાકત ધમ પ્રમાણે જ પેાતાનુ જીવન પસાર કરતા હુ । તેમજ જીવ અને અજીવ તત્ત્વના સ્વરૂપને જાણનારા હતા 'श्रभिगत जीवाजीवा' व भने भने अव वगेरे उपमां वर्णुन उरनार यह समूह અને અહીં યાવત્પદથી ગૃહીત પદ સમૂહ ૧૧૪મેા સૂત્રમાં વર્ણિત થયેલ છે. અહીં તેને સ્ત્રીલિગની વિભક્તિ લગાડીને અ કરવા જોઇએ તેમજ આ પદીને અર્થ પણ ત્યાંથી જ જાણી લેવા જેઈએ. એવી તે આયિકા દાઢી તમારા મન્તવ્ય મુજબ અતિપ્રત્યુર પુણ્યના સંચય કરીને કાલમાસમાં જયારે મરણ પામ્યા ત્યારે તે ઘણા દેવલાકામાં દેવની પર્યાયથી જન્મ પામ્યા છે. તે આયિકાના હું' પૌત્ર છું તેમને ધર્મ ખૂબજ ઇષ્ટ યાવત્ કાન્ત હતેા યાવત પદથી અહીં ૧૩૨માં સૂત્રમાં પ્રેાકત આ વિષયના વિશેષણા ગૃહીત થયાં આ વિશેષણા ત્યાં તેના દાદાના પ્રકરણમાં Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ লম্বা कृत्वा अन्यतरेपु-अनेकविधेषु देवलोवेषु कस्मिंश्चिदेवलोके देवतया देवत्वेन उपपन्नाः, तस्याः खलु आर्यि कायाः अनप्तकः-पौत्रः अभवम्. कीदृशः? ' इत्यात्राऽऽह-इष्टाकान्तः यावत्-दर्शनतया. अत्र यावत्पदेन द्वात्रिंशदुत्तर शकतमसूत्रे एतत्पितामहवक्तथ्यतारूपः सर्वोऽपि पाठः संग्राह्यः । व्या. च्यामि तव विलोकनोया। नत्-तस्मात् यदि खळ मा-पूर्वोक्ता आर्यिका मम आगत्य-एवम्-- अनुपद वक्ष्यमाण वचन, व देश-कथये-नातक ! हे चौत्र ! एवं खलुवध्यमागपकारक शृणु-अह तब आर्यिकाऽभवम् कुत्र ! इत्यत्राऽऽह-इहैवअम्यामेव वेतविकायां नगर्या धार्मिकी, यावा-धर्म व हात्त कल्पयमाना श्रमणोपा सिका-श्राविका यावत-व्यहरम् । तत:-तस्मात्कारणात सुब -- प्रचुरतरं पुण्योपचयं समय कालमासे कालं कृत्वा देवलोकेषु उपपन्ना, त:तस्मात्कारणात् नप्तक !-हे पौत्र ! त्वमपि धार्मिको यावत-धर्मानुगादि विपणविशिष्टो भव, तथा धर्मेणैव हत्ति कल्पयमानः अभिगत जीवाजींवादि विशेषणविशिष्टः श्रावको भूत्वा विहर । ततः-ताशाचरणेन खलु त्वमपि अत: वहीं से इन्हें और इनके अर्थ को जानना चाहिये. ऐसी वह मेरी आधिकादादी आकर के मुझ से ऐसा यदि कहे कि हे नातृक-पौत्र ! मैं इसी श्वेलांविका नगरी में तेरी दादी थी. और धार्मिक यावत् धर्म से ही अपनी जीवन यात्रा चलानेवाली.थी. श्रमणोपासिका-श्राविका थी. इत्यादि मैंने प्रचुरतर पुण्य का उपार्जन कर कालमास में जब मरण किया-तो मैं" देवलोकों में से किसी एक देवलोक में देव की पर्याय से उत्पन्न हुई हूं. इसलिये हे पौत्र ! तुम भी धार्मिक यावत् धर्मानुग आदि विशेपणों बाल बनो, तदा धर्म से ही अपनी जीवन यात्रा का निर्वाह करते हुए जीव और अजीव तत्व के स्वरूप के ज्ञाता बनो और सच्चे अर्थ में श्रावक बनઆવેલાં છે તેથી જિજ્ઞાસુઓએ ત્યાંથી જ જાણી લેવા જોઈએ, એવા મારા આર્થિક દાદી આવીને મને જે આ પ્રમાણે કહે કે હે પીત્ર! હું આ તાંબિકા નગરીમાં તારી દાદી હતી અને ધાર્મિક યાવત ધર્માચરણથી જ પિતાની જીવનયાત્રા પસાર કરતી હતી. હું શમણે પાસિકા-શ્રાવિકા હતી વગેરે પ્રચુરતર પુણ્યનું ઉપાર્જન કરીને કાલમાસમાં જ્યારે મૃત્યુ પામી ત્યારે દેવલેકમાંથી કોઈ એક દેવલોકમાં દેવની પર્યાયથી જન્મ પામીછું. તેથી તે પોત્ર! તમે પણ ધાર્મિક યાવત્ ધર્માનુગ વગેરે વિશપણે વાળા તેમજ ધર્મથી જ પિતાનું જીવન પસાર કરતા જીવ અને અજીવ તત્ત્વના સ્વરૂપને જાણનાશ થાઓ, અને સાચા અણુમાં શ્રાવક થઈને પિતાના જીવનને સફળ બનાવે, તો તમે આ પ્રમાણે ધાર્મિક આચરણયુકત અન્તઃકરણવાળા થાઓ તો તમે Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सू. १३३ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशीराजवर्णनम् . २०९ एवमेव अहमिव सुबहु प्रचुरतर पुण्योपचयं समज्यं यावत्-यावत्पदेन कालमासे काल कृत्वाऽन्यतरेषु अनेकविधेषु देवलोकेषु कस्मिंश्चिदेवलोके उपपरस्ट से-उत्पन्नो भविष्यास, तत्-त माद् हेतोः यदि खलु आर्यिका मम आगत्य एवं वदेत् तदा खलु अहं श्रध्यां-तद्वचने विश्वस्याम्, प्रतीयांविशेषतो. विश्वासं कुर्याम्, गेचये-रुचिविपयं कुर्याम् थथा-अन्यो जीवः त्यत् शरीरम, ना तज वास्सशरीरम्, इति । यस्मात्-कारणान सा-पूर्वोक्ता आर्यिका मम आगत्य एवम् अनन्तरोक्तप्रकारम् वचनं नो-न अवादीत-नाकथयत् तस्मात-कारणात् मे-मम प्रतिज्ञा-स्वीकारः सुप्रतिष्ठिता-सत्याऽस्ति, प्रतिज्ञाविषयमाह यथेत्यादि-यथा तथाहि-तज्जीवःस्सशरीरम्, नो अन्यो जीवः, अन्यच्छरीरम्, इति ॥मू० १३३।। कर अपने जीवन को सफल करो, यदि तुम इस प्रकार के धार्मिक आचरण से वासितान्तःकरणवाले हो जाते तो तुम मेरे जैसे ही प्रचुरतर पुण्य का उपार्जन करके यावत्-कालमास में कालकर अनेकविध देवलोकों में से किसी एक देवलोक में देवकी पर्याय से उत्पन्न हो जाओगे. इस प्रकार से मेरी आर्यिका-दादी मेरे पास आकर ऐसा कहे तो मैं आपके इस वचन पर विश्वास करूं, प्रतीति-विशेषरूप से विश्वास करूं, उस पर रुचि करूं, कि जीव भिन्न है, शरीर भिन्न है, वह शरीर जीवरूप नहीं है, और जीव शरीररूप नहीं है-परन्त जिस कारण से वह अभीतक मुझ से आफर के ऐसा नहीं कहती है. इसी कारण से हे भदन्त ! मैं अपनी इस मन्तव्य पर कि 'जीव और शारीर एक हैं जीव भिन्न नहीं है और शरीर भिन्न नहीं है अटल है, उसे सत्य मान रहा ह ॥ मू० १३३॥ પણ મારી જેમ જ પ્રચુરતા પુણ્યનું ઉપાર્જન કરીને યાવતું કાલમાસમાં કોલ કરીને અનેકવિધ દેવલેકેમાંથી કઈ પણ એક દેવલોકમાં દેવના પર્યાયથી જન્મ પામશે, આ પ્રમાણે જે મારા આર્થિકા-દાદી મારી પાસે આવીને આમ કહે તે હું તમારી પર વિશ્વાસ કરું, પ્રતીતિ–વિશેષરૂપથી વિશ્વાસ કરું, તેમાં રુચિ ઉત્પન્ન કરું કે જીવ ભિન્ન છે, શરીર ભિન્ન છે, અને શરીર જવરૂપ નથી અને જીવ શર રરૂપ નથી, પરંતુ જે કારણને લીધે હજી સુધી તેઓ મારી પાસે આવીને મને કહેતા નથી તે કારણને લીધે હે ભદંત! મારા આ વિચાર પર કે જીવ અને શરીર એકજ છે જવ ભિન્ન નથી, અને શરીર ભિને નથી. દઢ છું, તેને જ સત્ય માનીને વળગી રહું छु ।स. १३३॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૧૦ राजप्रश्नीयम् मूलम्-तएणं केसी कुमारसमणे पएसि रोयं एवं वयासी-जइ णं तुमं पएसी! पहायं कयवलिकम्मं कयकोउयमंगलपायच्छित्तं उल्लपडसाडगं भिगारकडुच्छयहत्थगयं देवकुलमणुपविसमाणं केइ य पुरीसे वच्चघरंसि ठिच्चा एवं वदेजा एह ताव सासी! इह मुहतग आसयह वा चिटुह वा निसीयह वा तुयह वा, तस्स णं तुम पएसी ! पुरिसस्त खणवि एयमटू पडिणिज्जामि ? णो इण समटे । कम्हा ? भंते ! असुई असुइसामंते । एवामेव पएसी ! तववि अजिवा होत्था इहेव लेयवियाए णयरीए धम्मिया जाव विहरइ, सा णं अम्हं वत्तव्ययाए सुबहु जाव उववन्ना, तीसे गं अजियाए तुमं मनुए होन्था इडे जाव किमंगपुण पासणयाए ? सा णं इच्छइ माणुसं लोग हव्वमागच्छित्तए, जो चेव णं संचाएइ हव्वमागच्छित्तए। ___चऊहिं ठाणेहि पएसी। अहुणोववण्णए देवे देवलोपसु इच्छेना माणुसं लोग हव्वमागच्छित्तए णो चेव णं संचाए इ-अहुणोववणे देवे देवलोएसु दिव्वेहि कामभोगेहि मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववष्णे से णं माणुसे लोगे नो आढाइ नो परिजाणाइ मे गं इच्छिज्जा माणुसं नो चेव णं संचाए-इ१। अहुणोववण्णए देवे देवलोएसु दिव्वेहिं कामभोगेहि मुच्छिए जोव अज्झोपवण्णे, तस्स णं माणुस्से पेम्मे वोच्छिन्ने भवइ दिव्वे पेम्मे संकंते भवइ, से णं इच्छेजा माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए नो चेव संचाएइ (२] अहुणोववण्णे देवे दिव्वेहि कामभोगेहिं मुच्छिए जाव अज्झोववणे, तस्स णं एवं भवइ-इयाणि गच्छं मुहुत्तणं गच्छ तेणं कालेणं इट्ट Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनो टोका. १३४. सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिरजवर्णनम् .. २११ अप्पाउया णरा कालधम्मुणा संजुत्तो भवंति, से णं इच्छेज्जा माणुस्सं लोगं हव्वमागच्छित्तए णो चेव णं. संचाएइ।३।अहुगोववण्णे देवे दिव्वेहिं जाव अज्झोववण्णे, तस्स माणुस्सए उराले दुग्गंधे पडिकूले . पडिलोमे यावि भवइ, उद्धपि य णं जाव चत्तारि पंच जोयणलए ___ असुभे माणुस्सए गधे अभिसमागच्छइ, से णं इच्छेज्जा माणुसं लोग हव्वमागच्छित्तए णो चेव णं संचाइ।४। इच्चेएहिं चउहि ठाणेहि पएसी! अहणोववाणे देवे देवलोएसु इच्छेजा माणुसं लोगं हव्वमागच्छित्तए णो चेव णं संचाएइ हव्वमांगच्छित्तए तं सदहाहि णं तुम पएसी ! जहा-अन्नो जीवो अन्नं सरीरं, नो तं जीवो तं सरीरं २ ॥सू० १३४॥ छाया-ततः खलु केशीकुमारश्रमण: पदेशिनं राजानमेवमवादीत यदि खलु त्वं प्रदेशिन् ! ग्नात कृतबलिकर्माण कृतकौतुकमङ्गल-प्रायश्चित्तम् आर्द्र पटशाटक भृङ्गारकटुच्छुकहस्तगत देवकुलमनुमविशन्त कोऽपि पुरुषो . 'तए ण केसीकुमारसमणे' इत्यादि। मुत्रार्थ-(तए ण) इसके बाद (केसी कुमारसमणे) केशीकुमारश्रमणने (पए सि रायं) प्रदेशी राजा से (एवं वयासी) ऐसा कहा-(जइण तुम पएसो ! हाय कयवलिकम्म, कयकोउयम गलपायच्छित्तं उलगडमाडग) हे प्रदेशिन् ! जिस समय तुम कृतस्नान होकर, कृतलिकर्मा होकर,-बायसादिको के लिये कुन अन्नविभागवाले होकर, कृत मपीतिलकादि मांगलिक प्रायः श्विन विधि वाले होकर, जलसिक्तवस्त्रशाटकयुक्त होकर (भिगारकडच्छुयहत्थगय) एवं भृङ्गार कटुच्छुक हस्तगत होकर (देवकुलमणुपविसमाण) 'तए ण केसी कुमारसमणे' इत्यादि। ..... सूत्रार्थ-(तए ण) या२पछी (केसीकुमारसमणे) अशीभा२श्रणे (पएसिं रायं) प्रदेशी बने (एवं वयापी) मा प्रमाणे ४ह्यु (जइण'. तुम पएसी! हाय करवलिकम्म, ‘कयकोउयमंगलपायच्छित्तं उल्लपडसाडग) 8 प्रशिन જે વખતે તમે સ્નાન કરીને, બલિકર્મ–એટલે કે કાગડા વગેરેને અન્ન ભાગ આપીને • તિલક વગેરે રૂપ માંગલિક પ્રાયશ્ચિત્ત વિધિ પતાવીને પાણી વડે પળલેળાધોતવસ્ત્ર Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ गाजप्रश्नीयस्त्रे वों गृहे स्थित्वा एवं वदेव-एत तावत् स्वामिन् ! इह मुहर्तकम् आस्ध्वम् वा तिष्ठत वा निपीदत वा त्वग्यतयत चा, नस्य ग्वल प्रदेशिन ! पुरुषस्य क्षणमपि एतमर्थ प्रतिशृणुयाः ? नो अयमर्थः समर्थः । कस्मात ? भदन्त ! अशुचि अशुचिसामन्तम् । एवमेव प्रदेशिन ! तवापि आर्थिया ऽभवत इहेचश्वेत्तविकायां नगर्या धार्मिकी यावत् व्यहरत्. सा खलु अस्माकं यक्षायतन में घुस रहे हो, उस समय (केइ य पुरिसे) तुम से कोई पुरुष (बच्चघरंसि ठिच्चा एवं वएज्जा) विष्टागृह में स्थित होकर ऐसा कहे (एक ताव सामी ! इह मुदत्तग आमय ह, वा चिट्टह वा, निसीयह वा,तुयह वा) है 'वामिन् ! आप आईये और एक मुहुर्न मात्र समयतक यहां बैठिये, अथवा ठहरिये, सुखपूर्वक रहिये लेटिय (तन्म तमपएसी! पुरिमस्स खणवि एयम8 पडिसुजासि) हे प्रदेगिन् ! तुम उस पुरुप की उस बात को एक क्षण के लिये भी स्वीकार कर लोगे क्या ? (णो इणठे सम? हे भदन्त ! उस समय उभ पुरुप की यह बात स्वीकार योग्य नहीं हो सकती है (कम्हा) हे प्रदेशिन् ! किस कारण से उस पुरुप की वह बात स्वीकार योग्य नहीं हो सकती है ? (भते ! असुई असुइ सामते) हे भदन्त ! क्यों कि वह स्थान अपवित्र हैं और सब तरफ से अपवित्र वस्तु से युक्त हैं। (एवामेव पएसी ! तब वि अज्जिया होत्था, इहेच, सेयावियाए णयरीए धम्मिया जार विहर इ) इसी प्रकार से हे भुत थछन (भिंगारकडच्छयहत्थगय) भने मा२ तमा ४८२७४ साथमा साधन (देवकुलमणुपविसमाण) यक्षायतन (व्य'तरायतन)मा प्रवेशता डाय ते समये (के इणपुरिसे) तभने ४ भाणुस (वच्चमी ठिच्चा एवं वएज्जा) ४३भां २डीन 2 प्रभारी ४ (एह ताव सामी ! इइ मुहुत्तगं आसयह वा चिट्ठह वा निसीयह वा, तुयह वा) 8 स्वामिन् ! तमे माव! मने तो मुद्धृत रेखा समय सुधा मी से GAL २31, सुयी २ मा२:भ ४२१. (तस्स ण तम' पएसी ! पुरिसस्स खणमवि एयमÉ पडिसणेज्जानि) तो में प्रशिन! तमे ते भासनी ते वातने योi and भोटे प २वी ? (णो इण सभट्ट) हे महत! ते मते ते भासनी पात स्वा२पाभा यावरी नहि. (कम्हा) ई प्रशिन् ! ॥ २थी त भाणुसनी ते पात तभासमा वीर्य थरी ना ? (भंते ! असुई असुइ सामंते) मत ! म ते स्थान अपवित्र छ भने मधे ते अपवित्र वस्तुमाथी युत छ. (एवामेव पएली! तव वि अज्जिया होत्था, इहे। सेयं. वियाए णयरीए धम्मिया जाव विहरइ) PAL प्रमाण हे प्रशिन, मा श्वेतi Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका स. १३४ र्याभदेवम्य पूर्वभवजीवप्रदेशोराजवणनम् २१३ वक्तव्यतया सुबहु यावद् उपपन्ना तस्याः खलु आर्यिकायाः त्वं नको ऽभवः इष्टः यावत् किमङ्ग ! पुनदेर्शनतया ? सा खलु इच्छइ मानुष्यं लोक' शोधमांगन्तु, नैव खलु शक्नोति शीघ्रमागन्तुम् । चतुर्भिः स्थानः प्रदेशिन ! अधुनोपपन्नो देवो देवलोकेषु इच्छेत् मानुष्यं लोकं हव्यमागन्तुं नैन खलु शक्नोति । अधुनोपपन्नो देवो देवपदेशिन ! इस श्वेतांत्रिका नगरी में तुम्हारी आर्यिका-दादी भी धार्मिक यावत धर्मानुगगादि विशेषणों से विशिष्ट हुई है (मा ण अम्हवत्तव्ययाए सुबहु जाव उववन्ना, तीसे ण अज्जियाए तुमं णनए होत्था' इठे जाव किम ग पुणपामणयाए) वह हमारी वक्तव्यता के अनुसार-मान्यता के अनुसार अतिशय बहुत अधिक पुण्य का उपार्जन करके और कालमा में काल करके देवलोकों में से किसी एक देवलोक में देव की पर्याय में उत्पन्न हो गई है। उस आर्थिका-दादी के तुम पौत्र हुए हो, जो उसे तुम इष्ट कान्त आदि विशेपणों वाले थे, और उनम्बर पुप्प के समान उसे सुनने के लिये उस समय तुम दुर्लभ थे, फिर तुम्हारे देखने की बात ही क्या कहनो, (सा ण इच्छइ माणुम लोग हबमागच्छित्तए __णोचेव ण संचाएइ हन्धमागच्छत्तिए) वह आर्यिका-दादी मनुष्यलोक में आने की इच्छा तो करती हैं, परन्तु आ नहीं सकती है ! इसमें चोर कारण हैं जो इस प्रकार से हैं-(चहि ठाणेहि पएसी• अहुणोववन्नए देवे देवलोपसु इच्छेज्जा माणुम लोग हन्धमागच्छित्तए, णो चेव ण संचाएइ) બિકા નગરીમાં તમારા આયિકા દાદી પણ ધાર્મિકી યાવતુ ધર્માનુરાગ વગેરે વિશેષ पाणी थया छ. (सा णं अम्हं वत्तयार सुबह जाव उववन्ना, तीसे ण अज्जियाए तुम णतुए होत्था इठे जाव किमंगपुणपासणयाए) ते भारी વકતવ્યતા મુજબ-માન્યતા મુજબ અતિશય પુણ્યનું ઉપાર્જન કરીને કાલમાસમાં કાલ કરીને દેવલોકમાંથી કઈ પણ એક દેવલેકમાં દેવની પર્યાયથી જન્મ પામ્યાં છે. તે આયિકા-દાદીના તમે પૌત્ર છે, તમે તેના માટે ઈષ્ટ કાન્ત વગેરે વિશેષણોવાળા હતા અને ઉર્દુબર પુષ્પની જેમ તમે તેના માટે શ્રવણદુર્લભ હતા, તો પછી તમારી नेवानी तो पात शी ४२वी. (सा णं इच्छड माणुमं लोगं हवमानच्छित्तए णो' चेव ण संचाएइ हन्धमागच्छत्तिए)ते माय हाही मनुष्यामा मापवानी ઇચ્છા તે રાખે છે, પણ આવી શકતા નથી. આનાં ચાર કારણે છે તે આ પ્રમાણે छ. (चऊहिं ठाणेहि पएसी हुणोववन्नए देवे देवलोएसु इच्छेज्जा माणुलं लोग हव्यमागच्छित्तए, णो चेव ण संचाएइ) प्रशिन ! ते या२ ॥२॥ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - - २१४ राजप्रश्नायसूत्रे लोकेषु दिव्येषु कामभोगेषु मूर्छितो गृद्ध ग्रथितः अध्युपपन्नः स ग्वल मानुष्यान् भोगान नो आद्रिय ते नो परिजानाति. स खलु इच्छेन मानुष्यं लोगं हव्यमागन्तुं नैव खल शक्नोति । अधुनोपपन्नो देवो देवलोकेषु दिव्येषु कामभोगेषु मूर्छितो यावत् अध्युपपन्नः, तस्य खलु मानुगप्रेम हे प्रदेशिन ! वे चार कारण ऐसे हैं कि जिनके कारण से अधुनोपपन्नक देव देवलोक में तत्कालोत्पन्न देवमनुष्यलोक में शीघ्र आना चाहता है, परन्तु वह नहीं आसकता है. सो उसमें प्रथम कारण ऐसा है-(अहणो बन्नए देवे देवलोएमु दिव्वेहि काममोगेहिं मुछिए गिद्धे गढिए अज्झो. वत्रणे से माणुसे लोगे णो आढाइ, नो परिजाणाइ) अधुनोपपन्नक देव देवलोकों में दिव्यकामभोगों में मूर्छित हो जाता है, गृद्ध-विषयोपभोग की अभिलापा से ग्रस्त हो जाता है, ग्रथित-विपयों में आसक्त हो जाता है, अभ्युपपन्न-उनमें अत्यन्त आसनिवाला बन जाता है । अत: वह मनुष्य लोक संबधी शब्दादिक विषयों को आदर की दृष्टि से नहीं देखता है, उनकी अपेक्षा नहीं करता है, और न ,हे जानने की ही इच्छा परता है (से ण इच्छेजा माणुम नो चेच ण मचाएइ ?) ऐसा वह देव किसी प्रकार मनुष्यलोक में आनेकी इच्छा करे तो भी देवभोगों की आसक्ति से बह यहां नहीं आना चाहता है। (अहुणोववष्णए देवे देवलोएसु दिव्वेहि कामभोगेहिं मुछिए जाव अझोववणे) अधुनोपपन्न देव देवलोक આ પ્રમાણે છે કે જેને લીધે અધુનાપપનદેવ દેવલોકમાંથી તત્કાલત્પન્ન દેવ મનુષ્યલોકમાં જલદી આવવા ઈચ્છે છે પરંતુ તે આવી શકતા નથી તેનું પહેલું ४२ २ प्रमाणे छ- (अहणोवचन्नए दवे देवलोएसु दिव्वेहि कामभोगेहि मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववण्णे से माणुसे लंगे जो आढाइ नो परिશાળા અધુને પપન્નક દેવ દેવલેકમાં દિવ્યકામોમાં મૂર્ણિત થઈ જાય છે, મૃદ્ધ- વિભેગની અભિલાષાથી આક્રાંત થઈ જાય છે, ગ્રથિત-વિષમાં આસકત થઈ જાય છે. અને અગ્રુપપન્ન અને તેમાં અતીવ આસકિત યુકત થઈ જાય છે. એથી મનુષ્યલોકના શબ્દ વગેરે વિષયને સન્માનની દષ્ટિએ જેતે નથી, તેની . તે અપેક્ષા રાખતું નથી અને તેના સંબંધમાં તે કંઈપણ જાણવાની પણ ઈરછા धरावत नथा. (सेणं इच्छेज्जा माणुमं नो चेव णं संचाएइ ?) वो ते द्वेष જે કદાચ મનુષ્યલેકમાં આવવાની ઈચ્છા રાખતું હોય તે પણ દેવભેગની આસકિત ने सीधे ते मी आपछता नथी. (अहुणोचवण्णए देवे देवलोएमु दिवेहिं कामभोगेहिं मुच्छिग जाव अज्झोववष्णे) मधुन५५न्न हेव हेवामा दिव्य Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टाका सू. १३४ मूर्या नदेवस्य पूर्व भव नोवप्रदेशिराजवर्णनम् २१५ व्युच्छिन्न भवति दियौं प्रेम संक्रान्तं भवति. स खलु इच्छेत् मानुष्यं लोकं हव्यमागन्तुं नैव खलु शवनाति २ । अधुनोपपन्नो देवो दिव्येषु कामभोगेषु मुर्छितो यावत् अध्युपपन्नः, तस्य खलु एवं भवति, इदानीं गमि. ज्यामि मुहूर्तेन गमिष्यामि तस्मिन् काले इह अल्पायुषो नराः कालधर्म ण संयुक्ता भवन्ति. स खलु इच्छेत् मानुष्यं लोकं हव्यमागन्तुं नैव खल शक्नोति में दिव्य कामभोगों में मूर्छित हो जाता है यावत् अध्युपपन्न हो जाता है मो (तस्स ण माणुस्से पेम्मे वोच्छिन्ने भवई, दिवे पेम्मे सकते भवइ) इमका मनुष्य-संबंधि प्रेम व्युच्छिन्न-टूट जाता है और देवलोक संबंधी प्रेम उसके हृदय में मकान्त-प्रविष्ट हो जाता है । (मे ॥ इच्छेजा माणुस लोग हबमाग छत्तए, नो चेव मचाण्ड) अतःवह मनुष्यलोक में आनेका अभिलापी होता हुआ भी आना नहीं चाहता है. (अहुणोवचन्ने देवे दिव्वेहि कामभोगेहि मुच्छिए जाव अज्झौववाणे, तन्न ण एवं भवह, इयाणिं गच्छ, मुहुत्तेण गच्छ', तेण कालेण इस अप्पाउमा णरा, कालधम्भुणा संजुत्ता भवति, से ण इच्छेज्जा माणुस्स' लोग हब्वमागल्छित्तए णो चेव ण संचाएइ) अधुनोपपन्न देव देवलोक में दिव्य कामभोगों के द्वारा मच्छित हो जाता है यावत् अध्युपपन्न-आसक्त हो जाता है सो उसके मन में ऐसा होता है कि अब जाता है, थोडे काल पीछे जाऊंगा-उस काल में मर्त्यलोक में मनुष्य-माता, पिता, पुत्र, कलत्रादिक कि जिन की आयु समाप्त हो चुकी होती है, वे कालधर्म से संयुक्त हो जाते કામોમાં મૂરિષ્ઠત થઈ જાય છે યાવતું અદ્ભુપપન્ન થઈ જાય છે તે (ત ण माणुम्से पेम्मे वोच्छिन्ने भवइ, दिवे पेम्मे संकते भवह) तेना मनुष्य સંબંધી પ્રેમ વ્યછિન્ન થઈ જાય છે અને સ્વર્ગલેકમાં સંબંધી પ્રેમ તેના હૃદયમાં संत प्रविष्ट-25 onय छ. (से णं इच्छेज्जा माणुसं लोग हव्यमान्छित्तए नो चेव संचाएइ) मेथी ते मनुष्यसोभा मापानी मामा रातो राय छतi पण ते मी आqा २छा नथी. (अहुणोचवन्ने देवे दिव्वेहि कामभोगेहि मुच्छिए जाव अज्झोवत्रणे, तम्स ण एवं भवइ, इयाणि गच्छं, मुहुनेणं गच्छंतेण कालेण' इस अप्पाउया णरा कालधम्मुणा सजुत्ता भवति, से ण इच्छेज्जा माणुस्स लोगं हव्वमागच्छित्तए णो चेत्र णं संचाएह) अधुना५पन्न व सीमा દિવ્ય કામભેગો વડે મૂર્શિત થઈ જાય છે યાવત અગ્રુપપન થઈ જાય છે, અને એવી પરિસ્થિતિમાં તેના મનમાં આ પ્રમાણે થાય કે હવે જઈશ, થોડા વખત પછી જઈશ, તે સમયે મર્યલેકમાં માણસ માતા, પિતા, પુત્ર કલત્ર વગેરે બધા Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 २१६ राजनीयसूत्रे ३। अधुनापपन्नो देवो दिव्येषु यावत अध्युपपन्नः, तस्य मानुष्यकः उदारः दुर्गन्धः प्रतिकूलः प्रतिलोमकापि भवति, ऊर्ध्वमपि च खलु यात्रचतुःपञ्च योजनशतम् अशुभ गन्धोऽभिसमागच्छति स खलु इच्छेत् मानुष्यं लोकं हव्यमागन्तुं नैव खलु शक्नोति । इत्येतैः चतुर्भिः स्थानः प्रदेशिन ! अधु है, सो वह देव मनुष्यलोक में आने का अभिलापी बना रहने पर भी यहां नहीं आ सकता है । (श्रोत्र ने देवे दिन्वेहिं जात्र झोववणे. तस्स माणुस्सए उराले दुग्धे पडिकूले पडिलोमे यात्रि भवइ) चौथा कारण यहां पर नहीं सकने का ऐसा है कि अधुनोपपन्न देव दिव्य कामभोगों में यावत् अध्युपपन्न हो जाता है, सो उसके लिये औदारिक शरीर संबंधी गोमृतककलेवरादिसमुत्पन्न दुर्गन्ध-प्राणेन्द्रिय के अनुकूल नहीं पड़ता है, प्रत्युत वह उसे प्रतिकूल - अनिष्ट कर प्रतीत होता है (उ पिय णं जाव चत्तारि पंच जोयणसए असुभे माणुस्सए गंधे अभिसमागच्छड, सेणं उन्ले माणुस लोग हन्वान्छित नो चेत्र ण सं'चाएड) तथा वह मनुष्यलोक संबंधी अशुभ गंध चारसौ या पांचमी योजन तक ऊपर में सब तरफ फैल जाता है अतः मनुष्यलाक में आने का अभिलाषी बना हुआ वह देव उस दुर्गंध के कारण यहां नहीं आ सकता है अर्थात् युगलियों के समय में चार सौ योजन और मनुष्य में पांचसौ योजन तक दुर्गंध जाता है (इच्च एहिं चउहिं ठाणेहिं पएसी ! अगो મૃત્યુ પ્રાપ્ત કરી ચૂકે છે અને આમ તે ધ્રુવ મનુષ્ય લેામાં આવવાની અભિલાષા रामतो होय छताये महीं भावी राहतो नथी. (अहृणोववन्ने देवे दिव्वेहिं जान अझवणे, तर माणुस्सए उसले दुग्गंधे पडिले पडिलोमे यात्रि भवई) અહીં ન આવવાનુ ચેાથુ કારણુ આ પ્રમાણે છે કે અનાપપન્નક દેવ દિવ્ય કામ ભાગેામાં ચાલતુ અધ્યુપપન્ન થઇ જાય છે, તેા તેના માટે ઔદારિક શરીર સૌંબધી ગામૃતક લેવરા દિ સમુત્પન્ન દુગ્ ધ થ્રાણેન્દ્રિયના માટે અનુકૂલ કહી શકાય નહિ, પણ सेना विरुद्ध ते तेने प्रति अनिष्ट१२ लागे छ. (उपि य णं जाब चनारि पंच जोयणसए असुभे माणुस्सए गंधे अभिसमागच्छ, सेणं इच्छेज्जा माणुस लोग छन्नमार्गच्छित्तर णो चेव णं संचाएइ) तेमन ते મનુષ્ય લેાક સંબંધી અશુભ ગધ યારસે કે પાંચસેા યાજન સુધી’ઉપર આકાશમાં ચામેર પ્રસરીને રહે છે એથી મનુષ્યલાકમાં આવવાની અભિલાષા ધરાવતા હાય છતાંએ તે દેવ તે દુ ધને લીધે અહી` આવી શકતા નર્થ એટલે કે યુગલીઓના સમયમાં यारसो योन्नने मनुष्यमां पांथसो योनन सुधी हुर्गंध लय छे. ( इच्च एहिं Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवोधनी टीका. सून १३४ सूर्योभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २१७ नोपपत्नो देवो देवलोकेषु इच्छेत् मानुष्यं लोकं शीघ्रमागन्तुं नैव शक्नोति हव्यमागन्तुम् तत् श्रद्धेहि रत्रलु त्वं प्रदेशिन् ! यथा-अन्यो जीवः अन्यत् शरीरम, ना तज्जीवः स शरीरम् २ ॥१० १३४॥ टीका-'तए णं केसीकुमारसमणे' इत्यादि-तनः खलु केश कुमारश्रवणः प्रदेशिरोजम् एवम्-वक्ष्यमाणवचनमवोदीत्-हे प्रदेशिन् -! -यदि-चेत् .खल्लु त्वां स्नातं कृतस्नान कृतवलिकर्माण कृतवायसादिनिमित्तानभागं कृतकौतुकमङ्गलमायश्चित्त-कृतमषीतिलकादि माङ्गलिकप्रायश्चित्तविधिम्. आर्द्रपटशाटकंजलसिकवस्त्रशाटकयुक्तं भृङ्गारकटुच्छुकहस्तगतं-हस्तगृहीतभृङ्गारदर्वीका, देवकुल--यक्षायतनम् अनुनविशन्तम्-गच्छन्नम्, कोऽपि-कश्चिदपि पुरुपो वर्चीगृहे विष्ठागृहे स्थित्वा एवम्, वदेत-कथयेल हे स्वामिन् ! यूयमिह ताबद एत आगच्छत इह मतं पर्वतमात्रलमय यावत् आस्ध्वम्-उपविशत, वा. अथवा निष्ठत इस्थिता भरत. निपीदत्त-समुख मुपविशत, त्वग्वत्यत-शयन कुरुन, अत्र वा शब्दो वाक्यालङ्कारे, तस्य पुरूपस्य खलु हे प्रदेशिन् ! त्वम् एतमर्थ किम् मलिशणुयाः स्वीकुर्याः ? प्रदेशीमाहनायमर्थः समर्थ:-अयमर्थः स्वीकार योग्यो नास्ति किमर्थमित्याह हे-भदन्त ! तत्स्थानम्-अशुचि-अपवित्रम्, अशुचिमामन्नम्मर्वतोऽशुचि युक्तम्. तस्माबवण्णे देवे देवलोएल इच्छेजा माणुम लाम हव्यमागच्छित्तए णो चेश ण संचाएइ हरमागन्छिन्तए, त महाहि णं तुमं पएमी ! जहा अन्नो जीवो अन्न मरीरं, नो तं जोवो त सरीरं) हे प्रदेशिन् ! ये चार कारण हैं जो . अधुनोपपन्न, देव को मनुष्यलोक में आने की इच्छा करने पर भी उले यहां आने में बाधक होते हैं । इसलिये है प्रदेशिन् ! तुम मेरे कहने में श्रद्धा करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य हैं जीव, शरीररूप नहीं है और शरीर जीवरूप नहीं है। __टीकार्थ-इन मन्त्र का मूलार्थ के जैमा ही है ॥. १३४॥ चउहि ठाणेहि पएसी ! अहुगोववण्णे देवे देवलोएलु इच्छेज्जा माणुस लोगं हवमागच्छित्तए णो चेव ण संचाएइ हव्वमागच्छित्तए, तं सदहाहि णं तुम परमी । जहा अन्नो जीत्रों अन्न लरीरं नो न जीवो त सरीर) હે પ્રદેશનું ! આ ચાર કારણ છે કે જેથી અધુને પપન્ન દેવ મનુષ્ય-લેકમાં આવવાની ઈચ્છા રાખતા હોય છતાંએ તે અહીં આવી શકતું નથી. એટલા માટે છે પ્રદેશિન! તમે મારી વાત પર શ્રદ્ધા રાખો કે જીવ અન્ય છે અને શરીર અન્ય ક છે, જીવ શરીર રૂપ નથી અને શરીર જીવ રૂપ નથી. ટીકાર્થ:–આ સૂત્રને ટીકાર્થ મૂલાર્થ પ્રમાણે જ છે. ૧૩૪ના Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ राजप्रश्नीयसूत्रे न्नोचितोऽयमर्थः इति बोध्यम्, के शीश्रमणः प्राइ-हे प्रदेशिम ! एकमेव इत्यमेव तवापि आर्यिकाऽभवत् कुत्र साऽभवदित्यत्राऽऽह-इहैव श्वेतविकायां नगर्या धार्मिकी-यावत्-यावत्पदेन-धर्मानुगादिविशेषणविशिष्टा व्यहरत, सा-आर्यिका खलु मम वक्तव्यतया मम मतेन सुबह यावा-यावत्पदेन"पुण्योपचयं समज्य कालमासे कालं कृत्वाऽन्यतरेषु देवलोकेषु देवतया उपपन्ना, तस्याः खलु आर्थिकायाः त्वं नप्तक:-पौत्रोऽभवः, कीदृशः ? इत्यत्राऽऽह-इष्टः यावद-यावत्पदेन-इष्टकान्तादिविशेषणविशिष्टः उदुम्दर पुष्पमित्र दुर्लभः श्रवणतया, किमङ्ग पुनदर्शनतया, एतादृशम्त्वमभूः । साआर्यिका खलु मानुष्य लोकमागन्तुमिच्छति किन्तु नैव शक्नोति । कुतो न शक्नोति ? इति जिज्ञासायामाह-हे पदेशिन् ! चतुर्भि:स्थानः अधुनोपपन्न:-तत्कालोत्पन्नो देवः देवलोकेषु मानुष्यं लोकं शीघ्र मागन्तुमिच्छेद-अभिलषेत् किन्तु नैव शक्नोति-तत्र प्रथमकारणमाहअधुनोपपन्नो देवो देवलोके पु कामभोगेषु मृर्छितः-मू मधिगतः, गृद्धःविषयोपभोगाभिलापग्रस्तः, अथितः आसक्तः, अध्युपपन्नः-प्रत्यारक्तः स खलु मानुष्यान्-मानुष्यलोकसम्बन्धिनः भोगान-शब्दादीन् विषयोन नो आद्रियते नापेक्षते, अतएव नो परिजाना त-विज्ञातु नेच्छति, स खलु देवः कचित् मानुष्य लोकमागन्तुमिच्छेदपि किन्तु देवभोगासक्तया नवागन्तु शक्नोति-नेच्छतीत्यर्थः ११ द्वितीयस्थानमाह-अधुनोपपन्न इत्यारभ्य अध्युपएन्नः' इति पर्यन्तानां विवरण प्राग्वत्, तम्य-देवस्थ मानुष्य-मनु प्यसम्बन्धि प्रेम व्युच्छिन्न मनुष्यलोकसुखापेक्षयाऽधिकदिव्य सुखेन प्रति हत भवति तथा-दिव्य-स्वर्गलोकसम्बन्धि प्रेम संक्रान्त-हृद्यनुमविष्ट भवति, तेन हेतुना स देव आगन्तु न शक्नोति २॥ अधुनोपपन्नो देवो दिव्येषु कामभोगेपु मूच्छितो गृद्धो अथितोऽध्यु पपन्नो भवति, तस्य खलु देवस्य एवम्-अनुपद वक्ष्यमाणस्वरूपो मिलापो भवति तथाहि-इदानीम्-अधुना गमिष्यामि, तथा महतेन घटिकाद्वया. नन्तर गमिष्यामि । तस्मिन् काले इह-मयं लोके नगा:-मातापितृपुत्रकलत्रादयः अल्पायुप. अल्पजोविनः कालधर्मेण-मृत्युन। मयुक्ताः भवन्ति, सः देव आगन्तुं न शक्नोति ३॥ अथ चतुर्थ स्थानमाह-"अधुनोपपन्नो देवो दिव्यभोगासक्तो भवति, तम्य देवस्य औदारिक औदारिकशरीरसम्बन्धी गोमृतककले बरादिसमुद्भूतो दुर्गन्धः प्रतिकूलः घ्राणेन्द्रियाननूकूलः, प्रतिलोमः प्राणानिष्टकरश्चापि भवति । तथा अशुभः सः गन्ध ऊर्ध्वमाप उपरिप्रदेशेऽपि च Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयोधना टाका सू. ३५ सूर्याभदेवस्य पूर्व भय जोवप्रदेशिराजवण नम् खलु यावच्चतुःपञ्चयोजनशत-चत्वारि वा पञ्च वा योजनानां शतानि यावत् अभिसमागच्छति अभितः प्रसरति. स देवः मानुष्य लोकमागन्तुम्, इच्छेन् परन्तु तगन्धवशादागन्तुं न शक्नोति ४। हे प्रदेशिन् । इत्येतैः चतुभिः स्थान:-देवा आगन्तुं न शक्नुवन्तीति । नत् तस्मात्कारणात् हे प्रदेशिन् ! वं श्रद्धहे-मद्वचने श्रद्धां कुरु यथा-अन्यो जीवः अन्यत् शरीरम् नो तजीव: स शरीरम्, इति ॥ १३४॥ मूलम्-तएणं से पएसी राया केमि कुमारसमणं एवं वयासीअस्थिणं भंते ! एला पण्णा उवमा, इमणं पुण कारणेण णो उवागच्छइ, एवं खल्लु भंते ! अह अन्नया कयाई बाहिरियाए उबटाणसालाए अणेगगणणायक-दंडणायग राईसर-तलवर-माडंबिय कोडं. यि - इभ से सेणावइ – सत्थवाह-मंति-महामंति-गणग. दोवारिय-अमच्चचेड-पीढमद्द-नगर-निगम-दूय-सधिवालेहिं सद्धिं संपखिडे विहरामि । तएणं मम णगरगुत्तिया ससक्खं सहोढं सगेवेज अवउडमबंधणबद्धं चोरं उवणेंति, तएणं अहं तं पुरिसं जीवत वेव अउकुंभीए पक्खिवावेमि, अउमएणं पिहाणएणं पिहावेमि,अएण य तउएण य आयावेमि, आयपञ्चइएहिं पुरिसेहि रक्खावेग्नि, तए अह अण्णया कयाइं जेणामेव सा अउकुंभी तेणामेव उवागच्छामि, उवागच्छित्ता त आउकुंभ उग्गलस्थात्रेमि, उग्गलस्थावित्ता तं पुरिस सयमेव पासामि णो चेव णं तीसे अयकुंभीए केइ छिड्डेइ वा विवरेइ वो अंतरेइ वा राईवा जओ णं से जीवे अंतोहितो बहिया णिग्गए, जइ णं भते ! तीले अउकुंभीए होजा केइ छिड्डे वा जाव राई वो जओ णं से जीवे अंतोहितो बहिया णिग्गए, तो गं अहं सदहेज्जा पत्तिएज्जा रोएज्जा जहा-अन्नो जीवो अन्न सरीर नो त Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० राजप्रश्नोयस जीवो त सरीर, जम्हा णं भते ! तीसे अउकुभीए णत्थि केइ छिड्ड वा जाव निग्गए, तरहा सुपइटिया में पइण्णा जहा-तं जीवो त सरीरं, नो अन्नो जीवो अल्न सरीरं ॥सू०१३५॥ छाया-तताखलु स प्रदेशी राजा केशिनं कुमारश्रमणमेवमवादीत् अस्ति खलु भदन्त ! एपा प्रज्ञा उपमा, अनेन पुन:कारणेन नो उपाग. च्छति, एवं खलु भदन्त ! अहमन्यदा कदाचित् वात्यायाम् उपस्थानशाला. याम् अनेकगणनायक-दण्डनायक-राजेश्वर-तलघर-माडम्बिक-कौटुम्बि केभ्य-श्रेष्ठि-सेनापति-सार्थवाह-मन्त्री-महामन्त्री-गणक-वारिका-ऽमात्यचेट-पीठमई-नगर-निगम-दूत-धि पालैः साई संपनिवृतो विरामि । _ 'तएणं से पएसी राया इत्यादि । पुत्रार्थ-(तए णं) इसकेबाद (पएसी रामा केसिंकुमारसमण एव · बयासी) प्रदेशी राजाने के शीकुमार श्रमण से ऐसा कहो-(अस्थि णं भंते ! एसा पण्णा उवमा, इमेण पुण कारणेण णो उवागच्छइ) हे भदन्त ! यह जीव एवं शरीर में भेदरूप बुद्धि केवल उपमामात्र है, जैसा कि अभी .. प्रकट किया गया है-कि इस कारण से देव यहां नहीं आता है. (एवं खलु भने ! अहं अन्नया कयाई बाहिरियाए उबटाणसालाए) हे भदन्त ! • किसी एक समय मैं बाह्य उपस्थान शाला में (अणेगगणणायक, दडणायक-राईसर-तलवर-भाडंविध-कोडविय-२०भ-सेटि-सेणावइ- सत्यवाह. मंति-महामति-गणग-दोवारिय-अमच्च-चेड-पीठमद-नगर-निगम-दूयसंधिवालेहि सद्धिं संपरिवुडे विहरामि) अनेक गणनायक, दण्डनायक, राजा, सूत्रार्थ:-(तए णं) त्यारपछी (पएपी राया के सि कुमारसमणं एवं क्यासी) प्रदेश २ शी भा२ श्रमथने 21 प्रमाणे ४- (अस्थि एं भंते ! एसा पण्णा उवमा. इमेणं पुण कारणेणं णो उवागच्छद) के महान ! तमे वने અહીં ન આવવા માટે જે કંઈ કર્યું છે તેના વડે તે જીવ અને શરીરમાં ભેદરૂપ 'मुद्धि ४ पभाभात्र छ माम स्पष्टपणे माषित थाय छ. (एवं खलु भंते ! अन्नया कयाई बाहिरियाए उहाणसालाए) हे महत! ये मते 'ola S५स्थानशाणाभा हु (अणेगगणणायकदंडणायक-राइसर-तलवर-माईघिय कोंड्डविय-इन्भ-सेटि-सेणावइ-सत्यवाह-मति-महामति-गणग-दो चारिय-अमञ्च-चेड-पीठभद-नगर-निगम-दूय-संधि-वालेहि-सद्धिं संपरि Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सू. १३५ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीव देशिराजवण नम् २२१ ततः खलु मम नगरगुप्तिकाः समक्ष महोद मवेयकम् अबको गन्धनबद्ध चौरमुपनयन्ति, तनाग्वलु अहं नं पुरुपं जीवन्तमेव अयाकुम्भ्यां प्रक्षेपयामि, अयामयेन पिधान केन पिघापयामि. अयमा च त्रपुणा च आतापयामि, आत्मप्रत्ययिकैः पुरुषैः रक्षयामि. ततोऽहमन्यदा कदाचित् यत्रच सा अन्य ईश्वर ऐश्वर्यसंपन्न, तलवर, माडम्बिक, कौटुबिक, इश्य, श्रेष्ठो. सेनापनि, साथै गह, मन्त्री, महामंत्री, गणक, दौवारिक. अमात्य, चेट, पोटमई, नगर निकायोजन, व्यापारिगग. दान. यन्धिपाल, इन मय के साथ बैठा हुआ था. (तएणं मम जगरगुनिया समव', सहोद लगेवेज', अब उडमध. णवद्ध चोर उदणेति) इतने में नगा रक्षक मेरे समक्ष महोद-चुराई हुई वस्तुओं सहित, सङ्गवेयक-ग्रोवा में जिसने चुराई हुई वस्तुओं को वांधा है ऐसे चोर को अवकोटक-(मुमक्रिया) बधन से बांधकर लाये (नवण अह तं पुरिसं जीवंत चेव अउकुभोए पविखवावेमि) मैं उस पुरुष को 'जीवितावस्था में ही लोह की कोठी में बन्द करवा दिया-और (अउमएण पिहाण एणं पिहावेमि) उसके सुख को-कोठी के मुाव को लोह के ढक्कन से बन्द करवा दिया-ढकवा दिया. (एण य तउएण य अायावेमि) वाद में फिर मैंने उसे द्रवीभृत लोहे से और द्रवित रांग से अङ्कित करवा दिया, (आयपचड एहि पुरिसे हि रक्खावेमि) यह सब करवाकर फिर मैंने अपने विश्वासपात्र पुरुषों को उसकी रक्षा के नि मत्त नियुक्त करवा दिया. • खुढे विरामि) घ रानायी, नायी, IM, Uश्वर, सवय, संपन्न, तवर भांड, औटम, एल्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह, मत्री, महभित्री, ग, हावा२४, २ममात्य, येट, पाम, नगनिवासीन, पडेपारीया, तो, सविपासा, मा यानी साथे गेठो तो, (तए णं मम णगरगुत्तिया ससग्व सहोद, सगेवेज्जं, अवउडमबंधणबद्ध चोर उवणेति) मेटदामा ना२२१४ भारी सामे सडाद -ચોરાએલી વસ્તુઓની સાથે, સરૈવેયક-જેની ડોકમાં ચેરાએલી વસ્તુઓ બાંધવામાં भावी छ मेवा यारने अपीट-न्ने थिये से गांधीन खाव्या. (तए णं अह त पुरिस' जीवंत चेव अउभीए पक्खिवावेमि) में ते पुरुषने वो १४ सामना नामा म ४२वी पी. मने (अमएणं पिहाग एणपिहावे मि) ते नजान सामना ढiryथी म ४२वी सीधी. (अएण य तउएण घ आयावेमि) ‘ત્યાર પછી મેં તેને દ્રવીભૂત લોખંડ તેમજ દ્રવિત રાંગથી અંકિત કરાવી દીધો. (आयपच्चइएहि परिसेहि रक्खावे मि). २. मधु ४२पने पछी में तेना २क्षा Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्तप्रश्रायसूत्र म्कुम्भो तौव उपागच्छामि. उपागम्य तामय कुम्भोम, उन्क्षेश्यामि उन्क्षेप्य तं पुरुष स्वयमेव पश्यामि नो चैव खलु तस्यां अपम्कुम्भ्यां किचिन छिद्रमिति वा विवरमिति वा अन्तमिति वा राजिरिति वा यतः खलु स जीवः अन्तः राद बहिनिर्णनः, यदि खलु भदन्त ! तस्यां अयस्कुम्भ्यां भवेत् किमपि छिद्रं वा यावद् राजि; गतः ग्वल म जीवः अन्तराद बहिनिर्गतः, तदा खलु अह श्रध्यां प्रतीयां रोचयेयं यथा-अन्यो जीवः अन्यन शगेर नो तज्जोत्र (नए अह गया कयाई जेणामेव सा अउनुभो तेणामेव उवागच्छानि) एक दिन की बात है कि मैं उस अयाकुम्भी के-लोहेकी कोठी के पाय गया (उवागच्छित्ता तं आउभि उग्गलत्यावे मि) वहां जाकर मैंने उप लोहे की कोठो को खुलवाया (उग्गलस्थावित्ता तं पुरिसं लयमेव पासामि णा चेव णं तीसे अयकु भीए केइ छिडेइवा विवरेइ वा, अंतरेइ वा राइ वा जओण से जीवे अंतोहितोचहिया निग्गए) खुलवाकर मैंने स्वयं उस चोर को देखा तो वह वहां मरा पडा था, जबकि उस लोहे की कोठो में न कोई छिद्र था, न कोई विवर था, न अवकाश था, न कोई रेखा थी, कि जिससे होकर उस चोर पुरुष का जीव उस लोहे की काठी के भीतर से बाहर निकल जाता (जइज भते ! तीसे अउकुभीए- होजा केइ छि वा जाव राई वा जओ ण से जीवे अंतोस्तिो बहिया णिरगए) हां भदन्त ! यदि उम लोहे की कोठी में, कोई छिद्र वा यावत् रेखा होती तो उससे होकर वह चोर पुरुष का जाव भीतर से बाहर भाटे विश्वासपात्र ५३षा-1 नियुड़ित शहांधी. (तए अह अण्णया कयाई जेणामेव मा अउभी तेणामेव उवागच्छामि) मे हसनी पात छ त सोमना नमा पास गयो, (उवागच्छित्ता तं आउकुभि उगलत्यावेमि) त्यi ने में छ सोयना नजाने धाव्या. (उम्गलस्थाविना तं पुरिस सयमेव पासामि, णो चेव णे तोसे अयकुभीए के छिड् इ वा विवरेइ वा. अंतरेइ वा, राई. वा, जओण से जीवे अंतोहितो वहिया निग्गए) Gधावीने में पोते ते यारने છે. તે તે તેમાં મૃતાવસ્થામાં પડેલે હતું. જ્યારે તે લોખંડના નળામાં ન છિદ્ર હતું કે ન વિવર હતું કે ન અવકાશ હતા કે ન રેખા હતી કે જેથી તે ચરને पत योभना नामांथा गडा२ नीजी तो २९. (जइ णमंते ! तोसे अउछु भीए होज्जा के छिडू वा जाव राड वा जमोग' से जीवे अंतोहितो पहिया णिग्गए) मत ! न बोभना नाम छिद्र यावत् २॥ डात तो तमांथी थने ते या२ ५३पना १ अस्थी महा२ नीजी शत. (तोण Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सबोधिनी टाका मू. १३५ मभदेवम्य पूर्व भवजोवप्रदेशिराजवर्णनम् २२३ मशरारम्. यस्माद भदन्त ! तम्या अयस्कुम्भ्याः नाम्ति किश्चित् छिन्द्रबा यावत् निर्गतः, तस्मात् सुप्रतिष्ठिता मे प्रतिज्ञा यथा -सजीव नत् शरो. रम, नो अन्यो जीवोऽन्यच्छरोरम् ।।मु० १३५॥ . टीका-तपणं से पएसी राया' इत्यादि-तत:-केशिकुमारवचनश्रवणानन्तर खलु म प्रदेशी राजा केशिन कुमारश्रमणम् एवम्-अवादितहे भटन्न ! एपा-जावशरीरयो में दरूपा प्रज्ञा-बुद्धिः उपमा उपमामात्र अस्त-विधते. यद् अनेन कारणेन देवो नो उपागच्छतोति । हे भदन्त ! एवं-पूर्वीक्तप्रकारेणान्यदपि वृत्तमस्ति यद् अहम्-अन्यदा-सदाचित-अन्यस्मिन् करिमश्चित् ममये-वाह्यायाम-उपस्थानशालायाम् अनेकगणनायक-दण्डनायकराजे-श्वर-तलब -माडम्बिक-कौटुस्विके-भ्य-श्रेष्ठेि-सेनापति- मार्थवाहनिकलना (तो ण अह सद्दडेजा पत्तिएज्जा-रोएजा जहा-अन्नो जीवो अन्न सरीरं नो त जीवो तं मरीर) तो मैं आपको इस बात पर विश्वास कर लेना. पतीति कर लेता, उसे रुचि का विषय बना लेना कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, जीव शरीर रूप नहीं है और शरीर जीवरूप नहीं है (जम्हा ण भाते ! तीसे अउकु'भीए णथि केइ छिड़े वा जाब निग्गए. तम्हा मुपटिया मे पइण्णा जहा-तं जीवो तं सरीरं, नो अन्नो जीवो अन्न सरीर) जिस कारण हे भदन्त ! उस लोहे की कोठी में कोई. छिद्र अथवा यावत् रेखा नहीं थी कि जिससे उसका जीव बाहर निकल जाता. अत:छिद्रादि के अभाव से निकलने में अशक्त होने के कारण मेरा ही यह मन्तव्य ठीक है कि जो जीव है, वही शरीर है, जीव शरीर से भिन्न नहीं है और शरीर जीव से भिन्न नहीं है। अहं सद्दहेज्जा पत्तिएज्जा रोएज्जा जहा-भन्लो नीवो अन्न सरीर नो तं जीवो त सीर) तातभारी मा पात ५२ विश्वास छरी देत. प्रतीति કરી લેત અને તેને મારી રૂચિને વિષય બનાવી લેત કે જીવ અન્ય છે અને શરીર मन्य छ, ०१ शरी२३५ नवी मने शरी२ ०१३५ नथी. (जम्हा ण मते ! तीसे अउकुभीए णस्थि के छिड़े वा जाब निग्गए, तम्हा सुपहडिया में पडणा जहा-न जीवो त सरीर, नो अन्नो जीत्रो अन्न सरीर) ने दी નદત! તે લેખંડના નળામાં કઈ છિદ્ર કે યાવત રેખા નથી કે જેથી તેને જીવ બહાર નીકળી જતો. રહે માટે છિદ્ર વગેરેના અભાવમાં બહાર નીકળવામાં અશક્ત હેવા બદલ મારી જ આ જાતની માન્યતા ઉચિત લાગે છે કે જે જીવ છે. તે શરીર છે, જવ શરીરથી ભિન્ન નથી અને શરીર જીવથી ભિન્ન નથી. । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ সপ্তাহ मन्त्रि-महामन्त्रि-गणक-दौवारिका-ऽमान्य-चेट-पीठमई- नगर -निगमइत-मधिपालैः-अनेके ये गणनायका दयः-तन्त्र गणनायकार-गाम्बामिनः, दण्डनायका:-दण्डविधायकाः, राजानः-प्रमिद्धाः, ईश्वरा-ऐश्वर्य समपन्नाः, ललवरा:-सन्तुष्टराजदत्तपबन्धपरिभूषितराजकल्पाः, मोड म्बिका:-ग्रामपञ्च तीपतयः, यद्वा-साईक्रोशद्वयपरिमितमान्तरैर्विच्छिद्य विच्छिध स्थितानां ग्रामाणामधिपतयः, कौटुम्बिका:-बहकुटुम्बप्रतिपालकाः, इभ्याः-इभो-हस्ती तत्प्रमाण द्रव्यमहन्तीत इभ्याः, ते च जघन्य-मध्यमोत्कृष्टभेदात् त्रि. प्रकाराः, लत्र हस्तिपरिमितमणिमुक्ता-प्रवाल-सुवर्ण रजतादिद्रव्यराशि स्वा. मिनो जघन्याः, हस्तिपरिमितवज्रमणिमाणिक्यराशिस्वामिनो मध्यमाः. टीकार्थ-स्पष्ट हैं-परन्तु जो इप्समें गणनायक आदि पद आये हैं उनकी ज्यादा इस प्रकार से है-गण के जो स्वामी होने हैं, वे गणनायक हैं दण्ड का जो विधान करते है. वे दण्डनायक हैं, गना प्रसिद्ध हैं, ऐश्वर्य से जो युक्त होते हैं वे ईश्वर हैं. सन्तुष्ट हुए राजा द्वारा जिन्हें विशेष पोशाक दी गाती है ऐ जतुला व्यक्तियों का नाम तलवर है पांच सौ ग्राम के जो अधिपति होते हैं वे माडम्यक है, अथवा ढाई ढाई कोस के अन्तर से बसे हुए ग्रामों के जो अधिपनि होते हैं वे 'माडम्बिक है, बहुत कुटुम्ब का पालन पोषण करनेवाले जो होते है कौटुम्बिक हैं, हस्तिप्रमाण द्रव्य-मणि-मुक्ता-प्रराव-सुवर्ण-रजत-आदि द्रव्यराशि के जो स्वामी होते हैं. वे जन्य इभ्य है तथा-हस्तिपरिमित बज, मणि, माणिक्यमाशि के जा स्वामी होने हैं वे मध्यम इभ्य हैं हस्तिपरिमित ટકાર્થ–ટીકા સ્પષ્ટ જ છે. પરંતુ આ સૂત્રમાં ગણનાયક વગેરે જે પદે આવેલ છે તેમની વ્યાખ્યા આ પ્રમાણે છે. ગણના જે સ્વામી હોય છે તે ગણનાયક છે. દંડનું જે વિધાન કરે છે. તે દંડનાયક છે. રાજ પ્રસિદ્ધ છે. ઐશ્વર્યથી જે સપન હોય છે તે ઇશ્વર છે. સંતુષ્ટ થયેલા રાજા વડે જેમને પહેરવાના વસ્ત્રો આપવામાં આવે છે એવી રાજતુય વ્યકિતઓ તલવર કહેવાય છે. પાંચ ગ્રામના જે અધિપતિ હોય છે. તે માડંબિક છે અથવા તે અઢી અઢી કેસના અંતરે વસેલા * ગ્રામના જે અધિપતિ હોય છે તે માડંબિક છે. ઘણા કુટુંબોનું પાલન-પોયણુ કરનાર २ हाय छ ते ४ छ. स्तिभार द्रव्य-मणि-मुश्ता-प्रवास-सुवा-२०त વગેરે દ્ર રાશિના જે સ્વામી હોય છે તે જઘન્ય ઈભ્ય છે. તેમજ - હસ્તિપરિમિત જીમણિ, માણિજ્ય રાશિના જે સ્વામી હોય છે તે મધ્યમ ઉલ્ય છે, ફકત હસ્તિ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मुबोधिनी टीका. सूत्र १३९ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराअवर्णनम् २५५. हस्तिपरिमितकेवलवत्र राशिस्वामिन उत्कृष्टाः, द्वेष्ठिनः-लक्ष्मोकृपाकटाक्ष. प्रत्यक्षलक्ष्यमाणद्रविणलक्षलक्षणविलक्षणहिरण्यपहसमल तमू(नो नगरप्रधान. व्यवहारकारिणः, सेनापतयः-चतुरङ्गासेनानायकाः सार्थवाहा-गगिम-धरिममेय-परिच्छेद्यरूप-क्रयविक्रेयवस्तुजातमादाय लाभेच्छया देशान्तराणि जनता सार्थ बाहयन्ति-योग-क्षेमाभ्यां परिपालयन्ति, दीनननोकराय मलधन दत्ता तान् समर्द्ध यन्तीति तथा, तत्र पणिमम्-एक-द्वि-त्रि-तुरादिसंख्याक्रोग यहीयते, यथा-नारिकेल-पूगीफल-कदलीफलादिकम्, धरिमम्-तुलासूत्रेगो. सोल्य यहीयते, यथा-व्रीहि-यव-लवण-सितादि, मेय-शरावलघुभाण्डादिनी. सोल्य यदीयते. यथा-दुग्ध-धृत-तैल-प्रभृति, परिच्छेद्य च-प्रत्यक्षतोनिक पादिपरीक्षया यहीयते, यथा-मणिमुक्ता-प्रबालाऽऽभरणादि. मन्त्री-रहस्य. कार्यकारी स एव महान् महामन्त्री, गणका ज्योतिषवेत्सारः, दौवारिका:-द्वारिनियुक्ताः द्वारपालाः, अमात्याः राज्याधिष्टायकाः सहवासिगजपुरुषविशेषाः, बेटा:-चरणसेवकाः किराः, पीठ मह:-राजसमीपस्थायिनो राजवयस्काः सेवकाविशेषाः, नगरेति नागरा नगरनिवासिनो जनाः, निगमा:-व्यापारिगणः, केवल वनराशि के जो स्वामी होते हैं वे उत्कृष्ट इभ्य हैं. लक्ष्मी की जिनपर पूरी २रुपा है, और इसी कृपा के कारण जिनके लाखों के खजाने हो, तथा जिनके मस्तक पर उन्ही को सूचित करनेवाला चान्दी का विलक्षण पह शोभायमान हो रहा हो एसे नगर के प्रधानन्यापारी श्रेष्ठी कहलाते हैं । चतुरङ्ग सेना के नायक जो होते हैं वे सेनापति है, जो गणिम-गिनकर खरीदने बेंचने योग्य नारियल, सुपारी केला आदि मेय-शराब आदि से नापकर खरीदने में चने योग्य दूध, घी, तेल, आदि वस्तुओं का तथा परिच्छेध-कसोटी आदि पर परीक्षा करके खरीदने में चने योग्य मणि, मोती, मूगा, गहना भांदिवस्तुओं को लेकर नाम के लिये देशान्तर में जाने પરિમિત વજરાશિના જે સ્વામી હોય છે તે ઉત્કૃષ્ટ ઇભ્ય છે. જેની ઉપર લક્ષમીન પૂર્ણ કૃપા છે અને એથી જ જેમની પાસે લાખેના ભંડાર ભરેલા છે તેમજ જેમના મસ્તક પર તેમને જ સૂચવતે ચાંદીને વિલક્ષણ પદ શેભાયમાન થઈ રહ્યો હોય એવા નગરના પ્રધાન વ્યાપારી શ્રેષ્ઠી કહેવાય છે. જે ચતુરંગ સેનાના નાયક હાથ છે તે સેનાપતિ છે જે ગણિી-ગણીને વેપાર કરવા યોગ્ય નારિયેલ, સોપાળ કેળા વગેરે વસ્તુઓને ગણિમ કહે છે મેય-શરાવા વગેરે નાના વાસણ વગેરેથી માપીને વેપાર કરવા ચર્ચા દધ, ઘી, તેલ વગેરે વસ્તુઓને બેય કહે છે તેમજ પરિચ્છેદ્ય કસોટી વગેરે પર પરીક્ષણ કરીને વેપાર કરવા એગ્ય મણિ, મેતી પ્રવાલ, આભૂષણે વગેરે વસ્તુઓને સાથે Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २२६. - राजप्रश्नीयम दूता:-वार्ताहारिणो जनाः, सन्धिपाला:-राज्यसन्धिरक्षकाः, एतैः अनेक गणनायकादिभिः साद्ध संपरितः-परिवेष्टितः विहरामि-तिष्ठामि । ततःतदनन्तरम् तस्मिन् काले नगरगुप्तिका:-नगररक्षकाः, मम समक्ष सहोदचोरितवस्तुसहितम् । सवेयकम्-ग्रीवावद्धचोरितवस्तुकम् अरकोटकवन्धनबद्धम-अवकोटकेन-ग्रीवायाः पश्चाद्भागे मोटनेन यत्तया सह हस्तयोर्वन्धन', तदवकोटकबन्धन, तेन बद्ध चौरम् उपनयन्ति-ममसमीपे आनयन्ति, ततः वाले सार्थ को ले जाते हैं, तथा योग-नई वस्तु की माप्ति और क्षेम-प्राप्तवस्तु की रक्षा के द्वारा उनका पालन करते है, अनाथ की भलाई के लिये उन्हें पूजी देकर व्यापारद्वारा धनवान बनाते है वह सार्थवाह है. रानो के लिये उचितमंत्र सलाह देनेवाले का नाम मंत्री है इन मत्रीयों के ऊपर जो मंत्री होता है वह महामंत्री है, ज्योतिषशास्त्र के वेत्ता का नाम गणक है. द्वार पर रक्षा के निमित्त नियुक्त हुए व्यक्ति का नाम द्वारपाल है, राज्य के अधिष्ठायक सह. वासिराजपुरुषविशेष का नाम अमात्य है. चरण सेवक का नाम चेट है, राजा की उसर के बराबर जो व्यक्ति राजा के ही पास रहते हैं ऐसे सेवक विशेष का नाम पीठमर्द है, नगरनिवासी जनता का नाम नागरिक है. व्यापारिगण का नाम निगम. हैं। सन्देश हर का नाम दूत . है. राज्यसन्धिके रक्षक का नाम सन्धिपाल है। ग्रीवा के पश्चाद्धंग में : मोडने से जो उसी ग्रीवा के साथ दोनों हाथों का बांधना जिस बंधनः . में होता है उस बन्धन का नाम अबकोटक बंधन है। प्रदेशी राजा के લઈને લાભ માટે દેશાંતરમાં જનાર સાઈને લઈ જાય છે તેમજ ચગ-નવી વસ્તુની પ્રાપ્તિ અને ક્ષેમ પ્રાપ્ત વસ્તુની રક્ષા વડે તેમનું પાલન કરે છે ગરીબ માણસના ભલા માટે તેમને દ્રવ્ય આપીને વેપારવડે તેમને ધનવાન બનાવે છે તે સાર્થવાહ કહેવાય છે छ. तिने योग्य मत्र-साड माथै छ ते भत्री छे. मा भत्रियानी ५२ २. મંત્રી હોય છે તે મહામંત્રી છે. તિષશાસ્ત્રને જાણનાર ગણુક કહેવાય છે. દ્વાર પર રક્ષા માટે નિયુકત કરેલ માણસને કરપાલ કહે છે. રાજ્યના અધિષ્ઠાપક સહવાસિ રાપરૂપ વિશેષનું નામ અમાત્ય છે. ચરણ આવકનું નામ ચેટ છે. રાજાની ઉમરની જ જે વ્યકિત રાજાની પાસે રહે છે એવી સેવક વિશેષ વ્યકિતનું નામ પીઠમદ, छ. २ निवासी. नता नगरि वायं छ. पारी नामनिराम छ. छ. संदेश र नाम इत छ. २.यस धिना २क्षतुं नाम पिपासा. छ. श्रीवाने પાછળની તરફ વાળવાથી તે ગ્રીવાની સાથે બને હાથે જે બંધનથી બાંધવામાં આવે छ त धननु नाम 4318 मधन छ. अशी Ind मा प्रभारी छ। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनो टोका. १३५ सूर्याभदेवस्य पूव भवजीवप्रदेशिरजवर्णनम् .२२७ 3.5 "... खलु अह त पुरुष जीवन्तमेव अयस्कुम्भ्यां लोहकोष्ठिभायां प्रक्षेपयामि, तामयस्कुम्भीम् अयोमयेन-लोहमयेन विधानेन-आच्छादनेन पिधापयामि आच्छादयामि, तामयस्कुम्भी च-पुनः अयसा-द्रवीभूतलोहेन च-पुन:त्रपुणा त्रपुद्रवेण अङ्कयामि-अङ्कितां करोमि-मुद्रिता करोनीत्यर्थः । तामयस्कुस्भीम. आत्मप्रत्ययिकैः-निजविश्वासपात्रः पुरुषैः रक्षयामि-रक्षितां कारयामि, ततः तदनन्तरम् , अहम् अन्यदा कदाचित्-अन्यस्मिन् कस्मिंश्चित्काले यत्रैव चोरयुक्ता अयस्कुम्भी तत्रव-उपागच्छामि, उपागम्य-तामयस्कुम्भीम् 'उग्गल, . स्थावेमि' ति उत्क्षेपयामि उच्चाटयामि, अत्र-उत्पूर्व कम्य क्षिपधातो गल.. .. स्थादेशेन रूपसिद्धि ोध्याः। "हैम० । ८।४।१४३।" उत्क्षेप्य-उद्घाटथ । तत्रस्थित त पुरुष-चोर स्वयमेव पश्यामि, नैव खलु तस्यां अयस्कुभ्यां ... किश्चित्-किमपि छिद्रमिति वा विवरं-बिलम् इति वा अन्तरम्-अवकाशाः , इति वा राजिः-लेखा इति वा आसीत्, यता-यस्मात् छिद्रादितःस जीव: चोरपुरुषजीवः अन्त:-अयस्कुभ्या अन्तरप्रदेशात् बहिः-बहिः प्रदेशे निर्गत निमृतो भवितुम त, हे भदन्त ! यदि-चेत् खलु तस्या अयस्कुभ्याः । किञ्चित् छिद्र यावत-यावत्पदेन-"विवरम, अन्तरम्, राजि" इत्येषां... सहो योध्यः एवं च छिद्रादि भवेत्-स्यात् यतः यस्मात् छिद्रादितः खलु स जीव: अन्तः अयस्कुम्भीमध्यात बहिनिर्गतः स्यात तदा-अयस्कुस्मीमध्यतः स्तचोरजीवनिस्सरणे सति खलु अश्रध्यां तव वचने विश्वस्याम,मतीयां- ... विशेषतो विश्वस्याम्. रोचयेय रुचिविपयं कुर्याम्, यथा-अन्यों जीवः अन्यत् शरीरम् नो तत जीवः ‘स शरीरम् । यस्मात-कारणात् खलु भदन्त ! तस्याः । कहने का अभिपाय ऐसा है कि जब चोर को पूर्वोक्त रूप से · बांधकरः लोहे की कोठी में बन्द कर दिया गया और लोहे को गलाकर तथा रॉग को गलाकर उसके ढकन सहित सुख को इस तरह से बन्दकर दिया गा कि उसमें थोडा सा भी छिन्द्र आदि न रहा । तब ऐसी स्थिति.. में वह चोर उसमें मर गया. इस पर ऐसा विचार उस प्रदेशी राजा को हुआ कि यदि जीव और शरीर भिन्न २ हैं तो उस कोठी में . छिन्द्र आदि के अभाव से उसका जीव उसमें से कहां से होकर निकला, જ્યારે ચારને પૂર્વોક્ત રીતે બાંધીને લોખંડના નળામાં બંધ કરવામાં આવ્યું અને લખંડને પીગળાવીને તેમજ રાંગને પીગાળીને તે ઢાંકણ સહિત મુખને એવા પ્રકારે બંધ કરવામાં આવ્યું કે તેમાં જરાએ છિદ્ર વગેરે રહ્યું નહિ. ત્યારે એવી પરિસ્થિતિમાં તે ચેર તેમાં મરણ પામે. એને લઈને તે પ્રદેશી રાજાને આ જાતને Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - : गजननीयसो भयस्कुम्भ्याः नास्ति, किश्चन छिद्र वा यान् राजियां, यतः स जोवो. ऽन्त: मध्याद बहिनि गतःस्यात् । तस्मात् कारणात् छिद्रादिविरहेण निःसर्वमशक्तस्वात् मे मम प्रतिज्ञा मन्तव्यरूपा सुप्रतिष्ठिता मुण्ठ समवस्थिता न ६ खण्डिंसा यया तज्जीवः स शरीरम, नो अन्यो जीवः अन्यच्छरीरम् ॥म.१३५।। मूलम्-तए णं केसीकुमारसमणे पएसिं रायं एवं क्यासीसे जहानामए कूडागारसाला सिया दुहओ लित्ता गुत्ता गुत्तदुवारा णिवायगंभीरा, अह णं केइ पुरिसे भेरि च दंडं च गहाय कूडागारसालार अंतो अंतो. अणुप्पविसइ तीसे कूडागारसालाए सव्वओ समंता घणणिचियनिरंतर्राणेच्छिड्डाइंदुवारवयणाई पिहेइ, तीसे कूडागारसालाए बहुमज्झदेसभाए ठिच्चा तं भेरि दंडएणं महया महया सद्देणं तालेज्जा, से पूर्ण पएसी ! से सद्दे णं अंतोहितो पहिया निग्गच्छइ ? हंता णिग्गच्छइ, अस्थि णं पएसी! तीसे कुडागार. सालाए केइ छिद्दे वा जाव राई वा जओ णं से सद्दे अंतोहितो पहिया णिग्गए ? नो इण सम8, एवामेव पएसी ! जीवे. वि अप्पडिहयगई पुढविभिच्चा सिलभिचाअतोहि तो बहिया णिग्गच्छइ, त सहाहि णं तुम पएसी अण्णो जीवो अण्णं सरीरं, नो तं जीवो तं सरीरं ३ ॥सू, १३६॥ अतः निकलने के अभाव यही प्रतीत होता है कि जीव शरीर से भिन्न २ नहीं है जो जीव है वही शरीर है और जो शरीर है वही जीव है ।।स.१३५॥ વિચાર થયે કે જે જીવ અને શરીર જુદાં જુદાં તે હોય તે નાળામાં છિદ્ર વગેરે ન હોવાથી તેને જીવ તેમાંથી કયાં થઈને નીકળે ? નીકળી ન શકવાને લીધે આ વાત રષ્ટ રીતે જણાય છે કે જીવ શરીરથી ભિન્ન નથી. જે જીવ છે તેજ શરીર છે અને જે શરીર છે તેજ જીવ છે. સુ. ૧૩પ છે Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सु. १३६ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २२९ छाया-ततःखल केशी कुमारश्नमणः प्रदेशिन राजानमेनमवादोत् । सा यथानामकं फूटाकारशाला स्यात् द्विधातो लिप्ता गुप्ता गुप्तद्वारा निवातगम्भीरा, श्रथ खलु कश्चित् पुरुषः भेरी च . दण्डं च गृहीत्वा कूटाऽऽकार-शालायामन्तरन्तः अनुःप्रविशति तस्याः कटाऽऽकारशालायाः सर्वतः समन्तात् घननिचितनिरन्तरनिश्छिद्रागि द्वारवदनानि पिदधाति, तस्याः क्टाऽऽकार 'तरण केसी कुमारसमणे' इत्यादि। .. मूत्रार्थ-(तए णं केसीकुमारसमणे) इसके बाद केशीकुमार श्रमणने (पएसि रायं एवं वयासी) प्रदेशी राजा से ऐसा कहा (से जहा नामए कूडागारसाला सिया दुईओ लित्ता गुत्ता गुप्त दुबारा. णिवायगंभीरा) हे प्रदेशिन ! जैसे कोई एक कुटाकारशाला हो पर्चत की शिखर जैसी आकृतिवाला भवन हो और वह भीतर बाहर में आच्छादित हो, आच्छादित द्वार प्रदेशवालीहो, निवात गंभीर हो वायुहित होती हुई गंभीर अन्तः प्रदेशवाली हो (अहण केइपुरिसे भेरिं च दंडं च महाय कूडागारसालाए अंतो अणुप्पविसइ) अय कोई पुरुष भेरी और दंडे को लेकर उस कूटाकारशाला के भीतर घुस जाता है, (तीसे कूडागारसालाए सबओ समंता घणनिचियनिरंतरणिच्छिड्डाई दुवारवयणाइपिहेइ) और घुसकर वह उसके दरवाजों को चारों तरफ से इस तरह से बन्दकर लेता है कि जिससे उनके कियाड आपस में बिलकुल सट 'जाते हैं थोडासा भी अन्तर उनमें नहीं रहता है. छिद्र उनके बन्द हो जाते हैं, 'तएणं केसीकुमारसमणे' इत्यादि। . . . . सूत्रार्थ-(तए णं केसीकुमारसमणे), त्यार पछी ४१भा२ श्रभरे (पएर्सि रायं एवं बयासी) प्रदेशी ने मा प्रमाणे ४यु (से जहा नामए कूडागारसाला सिया दुहओ लित्ता गुत्ता-गुत्तदुवारा णिवायगंभीरा) હે પ્રદેશિન્ ! જેમ કોઈ એક ફૂટકારશાળા હોય પર્વતના આકાર જેવું ભવન હોય અને તે બહાર અને અંદરના ભાગમાં આચ્છાદિત દ્વારા પ્રદેશયુકત હોય, નિવાત neीर डाय-५वन. २डित तेमका ला२ मत: प्रदेश 'युत डोय, (अहणं के पूरिसे भेरि च दंडं च गहाय कूडागारसालाए अंतो" अणुप्पविसह) वे Bई पुरुष ले भने ने सन १२ मा पेसी 14 छ. (तीसे कूडा. गारसालाए सव्वी समंता, घमनिचियनिरंतरणिच्छिाई दुचारवयणाई पिहेइ) मने पेसीन ते चा वाराने २ प्रमाणे ५ ४श छ थी तमना બારણાના કમાડો એકદમ અડીને બંધ થઈ જાય છે. તેમની વચ્ચે થોડું પણ એના Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२३० रोजप्रश्नीयसूत्रे शालायाः बहुमध्यदेशभागे स्थित्वा तां भेरी दण्ड केन महता महता शब्देन ताडयेत्, अथ न्न प्रदेशिन् ! स शब्दःखलु अन्तः बहिनिर्गच्छति ? हन्त निर्गच्छति । अस्ति खलु प्रदेशिन् ! तस्याः कूटाऽऽकारशालायाः किञ्चित् छिद्रवा यावत् राजिा यतः खलु स शब्दोऽन्तर्बहिनिर्गतः ? नायमर्थः समर्थः, एवमेव मदेशिन् जीवोऽपि अप्रतिहत्गतिः पृथिवीं भित्वा शैलं भित्वा अन्तर्बहिनिर्गच्छति तत् श्रद्धेहि खलु त्वं प्रदेशिन् ! अन्यो जीवः अन्यच्छरीर, नो तज्जीवः स शरीरम् ॥ मू० १३६।। टीका-'तए ण केमीकुमारसमणे' इत्यादि-ततःखल केशी कुमारश्रमणः एवमवादीत-तद् यश नामक यथा दृष्टान्तम् एतद्विषये दृष्टान्त प्रदश्यते, काचित् कूटाऽऽकारशाला-पर्वतशिखराकृतिकभवनम् स्यात् भवेत्, सा च द्विधात:-अन्तर्बहिःप्रदेशयोः गुप्ता आच्छादिता, गुप्तद्वाराआच्छादितद्वारप्रदेशा निवातगम्भीरा निवाता पवनरहिता सतो गम्भीरागम्भीरान्तःप्रदेशा स्यात् । अथ खलु तस्याः कूटाकारशालायाः अन्तरन्तः. हैं, (तीसे कूडागारसालाए बहुमज्झदेसभाए ठिच्चा तं भेरि दंडएणं महया २ सणं तालेजा) इस तरह से करके अब उस कूटाकार शालाके बिल. कुल मध्यभागमै खडा होकर उस भेरी को जोर २ से उस डंडे से इस दंग से बजाता है कि जिससे उसमें से बहुत ही अधिक जोर की उची अ.वाज निकले (सेणूणं पएसी से सद्दे अंतोहितो वहिया निग्गच्छइ) अब प्रदेशिन ! यह कहो वह उसका शब्द जो कि दण्डाघात से उत्पन्न हुआ है उस कूटाकारशाला के मध्य प्रदेश से बाहर निकलता है या नहि ? (हंता, णिग्गच्छई) हां, भदन्त ! बाहर निकलता है। (अस्थिणं पएसी ! तीसे कूडागारसालाए केइछिद्देवा जाव राई वा जओणं से सद् अंतोहितो बहिया णिग्गए) तो हे प्रदेशिन् ! विचारो उस कूटकारशालामें न २७ती नथी. तभनi nा छिन्द्रो म य य छ. (तीसे कूडागारसालाए बहुः मासदेसभाए ठिच्चा तं भेरी दंडएणं मसया महया सदेणं तालेजा) આ પ્રમાણે કરીને તે કૂદાકારશાળાના એકદમ મધ્યભાગમાં તે ઉભે થઈને તે ભરીને તે દંડાથી આ આ પ્રમાણે વગાડે છે કે તેમાંથી બહુ જ ભયંકર શબ્દ નીકળે. (से ते पएसी से सद्दे अंतोहितो वहया निग्गच्छइ ?) व प्रशित्त भने। કહે તે લેરીમાંથી ઉત્પન્ન થતા શખતે કુટાકાર શાળાને મધ્યપ્રદેશમાંથી બહાર નીકળે , छ. (हंताणिग्गच्छइ) RE२ नाणे छ.(अस्थिणं पएसी। तीसे कूडागारसालोए कालिट्टे वा जाई वा जी णं सहें अंतो वहियो णिग्गए) प्रशन ! तमे पियार Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - सुबोधिनी टीका सू. १३६ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवण'नम् प्रयन्त मध्यप्रदेशे कश्चित् कोऽपि पुरुषः भेरी च पुनः दण्ड गृहीत्वा अनुपवि शति, स प्रविष्टः पुरुषः तस्याः कूटाऽऽकारशालाया:-तस्कूटाकारशाला सम्बन्धीनि घननिचितनिरन्तरनिश्छिद्राणि-घनानि निबिडानि निचितानि-अत्यतमिलितानि भत एव निरन्तराणि-अन्तररहितानि च-पुनः निछिद्राणिछिद्ररहितानि द्वारवदनानि-द्वारमुखोनि सर्वतः-सर्वदिक्षु समन्तात्सर्व विदिक्षु पिदधाति-आच्छादयति, तस्याः पिहितायाः कूटाकारशालायाः बहु मध्वदेशमागे-अत्यन्तमध्यदेशभागे. स्थित्वा स पुरुषः तां भेरी दण्ड केन महता महता शब्देन यथा अत्युच्चः शन्दः समुत्पधेत तथेत्यर्थः ताउयेव-अथः नून हे प्रदेशिन् ! स:-दण्डाघातजनितः शब्दः मेरीशब्द: अन्तः-मध्य प्रदेशात पहिः-बहिप्रदेशे निर्गच्छति ?-निस्सरति ? इति प्रश्नः । प्रदेशी पाह. -हन्त ! इति स्वीकारे हे भदन्त ! निर्गच्छति-केशी कुमारश्रमणः कथयति हे प्रदेशिन् ! तस्याः-कूटाऽऽकारशालाया किञ्चित् छिद्र वा यावत विवर वा अन्तरं वा राजिवी अस्ति यतः यस्मात् स शब्दः अन्तः कूटाकारशालाऽ भ्यन्तरप्रदेशाद् वहिनिगतानिसृतः स्यात् ? । इति केशिना पृष्टे प्रदेशी माहनायमर्थः समयः छिद्रादि रूपोऽर्थस्तत्र न युज्यते सर्वथाऽऽवृतत्वात् । पुनरपि केशीमाह-हे प्रदेशिन् ! एवमेव-एतद्दष्टान्तनुसारेणैव अप्रतिहतगतिः-अंकठितगतिः जीवोऽपि पृथिवीं भिवा शिलां-प्रस्तरं भित्या पर्वतं भित्वा अन्तः मध्यप्रदेशात् यहिनिर्गच्छति, ततू-तस्मात-उक्तदृष्टान्तेन हे प्रदेशिन् ! त्वं श्रद्धेहि-मद्वचने श्रद्धां कुरु अन्यो जीवः अन्यत् शरीरम्, नो स जीवः ताछरीरम् ॥ सू० १३६ ॥ कोई छिन्द्र है, यावत् न कोई रेखा है कि जिससे होकर वह शग्द उसमें से बाहर निकला हो ? (णो इणद्वे समढे) हे भदन्त ! यह अर्थ · समय नहीं है. अर्थात् वहां पर कोई छिद्रादि नहीं है. (एवामेव पएसी! जीवेविअप्पडिहयगई पुढ़िय भिच्चा, सीलं भिच्चा अंतोहितो पहिया णिग्गरछ।) इसी प्रकार हे पदेशिन् ! जीव भी अमतिहत गतिवाला है अतः वह पृथिवी को भेद करके, शिला को भेद करके उसके भीतर से होकर बाहर निकल जाता है। (तं सट्टाहिणं तुमं पएसी! भगो. કરો કે તે કૂટાગાર શાળામાં કેઈ છિદ્ર નથી યાવત્ કઈ રેખા (તરા) પણ નથી કે मनाथी त ह तमाथी पडा नीतीय १ (जो इण? सम) 3 मत ! भा अर्थ समथ नथी भेटतम छिद्र वगेरे नथी. (एवामेव पएसी ! जीवे वि अप्पडिह यगई, पुढविभिचा, सिलं भिचा, अंतोहितो बहिया गरच्छइ) मा प्रभारी प्रशिन ! मप्रतिहत गति युत . मेथी તે પૃથિવીનું ભેદન કરીને, શિલાનું ભેદન કરીને, તેની અંદર થઈને બહાર નીકળી 14 छ. (सहहाहि णं तुमं पएसी ! अण्णो जीवो अण्णं सरीरं णो तं जीवो Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - २३२.. .. ....." .............. राजप्रश्नीयसूत्रे ... मूलल...-तए णं पएसी राया केसिकुमारसमणं एवं वयासी अस्थिणं भंते! एसा पण्णाओ उवमो, इमेण पुण कारणेणं णो उवागच्छइ, एवं खल्लु भंते ! अहं अन्नया कयाइ बाहिरियाए उवटाणसालाए जाव विहरामि, तएणं ममं णगरगुत्तिया ससक्खं जाव उवणे ति, तएणं अहं तं पुरिसं जीवियाओ ववरोवेमि, ववरोवेत्ता अउकुंभीए पक्खिवावेमि अउमएणं पिहाणएणं पिहावेमि जाव आयपच्चइएहिं पुरिसेहिं रक्खावेमि, तएणं अहं अन्नयो कयाई जेणेव ता अउकुंभी, तेणेव उवागच्छामि, तं अउकुंभिं उग्गलस्थावेमि, तं अउकुंभिं किमिकुंभिपिव पासामि, णोचेवणं तीने अउकुंभीए केइछिड्डे वा जोव राईइ वा जओ णं ते जीवा वहिवाहितो अणुप्पविठ्ठा, जइ णं तीसे अउकुंभीए होज्जा केइ छिड्डेइ वा जोव अणुप्पविटा, तो णं अह सद्दहेज्जा, जहा-अन्नो जीवो तं चेव, जम्हा णं तीसे अउकुभीए नत्थि केइ छिड्डेइ वा जाव अणुप्पविटा तम्हा सुष्पइटिआ मे पइण्णा जहां-तं जीवो तं सरीरं तं चेव ॥ सू० १३७ ॥ - छाया--ततःखलु प्रदेशी राजा केशीकुमारश्रमणमेवमवादीद अस्ति । खलु भदन्त ! एपा प्रज्ञात उपमा अनेन पुनाकारणेन नो उपागच्छति), जीयो अण्णं सरीरं णो त जीवो तं सरीर) अतः हे प्रदेशिन ! तुम विश्वास करो जीव. भिन्न है. और शरीर भिन्न है. जीव शरीर रूप नही है और शरीर जीवरूप नहीं है। टीकार्थ को लेकर ही यह मूलार्थ लिखा है. भावार्थ इसका केक यही है कि जिस प्रकार शब्द अप्रतिहतगतिवाला है उसी प्रकार से भीव भी अप्रतिहतगतिवाला है अतः वह किसी भी स्थितिमें प्रतिहतगति वाका नहीं हो सकता है ...।। १०.१३३ ॥ ........ ... तर ण पएसी रोया' इत्यादि। मुत्रार्थ:-(तएणं) इसके बाद (पएसी राया) प्रदेशो राजाने (केसी.. तं सरीरं) मेथी- हशिन् । तमे विधास. ४२ मिन्न छ भने शरीर રિન છે. જીવ શરીર રૂપ નથી અને શરીરે જીવું રૂપ નથી. . . . साथ-सक्ष्यमा राजान, मा भूदार्थ वामां आव्यो छ.. माना। ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે કે જેમ શબ્દ અપ્રતિહત ગતિ યુક્ત હોય છે. એથી તે ગમે તે સ્થિતિમાં પણ પ્રતિહત ગતિયુક્ત થઈ શકે નહિ. . . ૧૩૬ 'त एणं पएसी रोया' इत्यादि।..! सूत्राथ-(त एणं) त्या२५छी (पएसी राया) ४शी भा२ श्रमणुन २मा प्रभाव Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका. सू. १३७ सूर्याभिदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्ण' नम् ૩. * एवं खलु भदन्त ! अहमन्यदा कदाचित् वाह्माणम् उपस्थानशालायां यात् विहरामि ततः खलु मन नगर गुमिकाः ससाक्ष्यं यावद् उपनयन्ति ततः खलु अहं तं पुरुष जीविताद् व्यपरोपयामि, व्यपरोष्य अयस्कुम्भ्यां प्रक्षे पयापि अयोमयेन पिधानकेन विधापणमि यावत् आत्मप्रत्ययः पुरुषैः रक्षयामि ततः खलु अहं अन्यदा कदाचित् यत्रैव सा अयस्कुम्मी तत्रैव कुमारसमणं एवं वयासी) केशीकुमारश्रमण से ऐसा कहा - (अस्थि णं भंते! एखा पण्णाओ उनमा) हे सदन्त ! यह आपके द्वारा कही गई उपमा - (दृष्टान्त) बुद्धिविशेष रूप है (इसेण पुण कारणेण णो उ० ) किन्तु इस वक्ष्यमाण कारण से मेरे मनमें जीव और शरीर का भेद नहीं आता 1- युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता है । इसी बात को अब मदेशी राजा प्रकट करता है . - ( एवं खलु भते ! अहं अन्नया कमाई बाहिरियाए उवद्वाणसालाए जान विराम) हे भदन्त ! मैं एक दिन बाहर की उपस्थान शाला में यावत् बैठा हुआ था (तपूर्ण समं णगरगुप्तिया ससक्खं जाव उवणेति) उस मेरे नगर रक्षकोंने साक्षिसहित यावत् एक चोर को उपस्थित किया (तपणं अहं तं पुरिसं जीविद्यायो ववरोवेमि) मैने उन चोर को प्राणरहित कर दिया (वरीत्ता उकु भीए पक्खिवावेसि अउमएणं पिाणयणं पिहावेसि ) माणरहित करके फिर मैने उसे अयस्कुमी (लोहेकी कोठी) में अपने पुरुषों से डलवा दिया (जा आयपच एहि पुरिसेहिं रक्खावेथि) यावत् फिर मैंने अपने आत्मरक्षक पुरूषों का वहां पहरा नियुक्त कर दिया. (तएण अहं अ- (अस्थि भंते ! एसा पण्णायो उनमा) हे लहंत ! था तभाश पडे प्रयुक्त उथभा (हृष्टांत) शुद्धि विशेष ३प 9. (हमेण पुण कारणेणं णो उ०) એનાથી મારા મનમાં જીવ અને શરીરની ભિન્નતાના વિચાર ઉત્પન્ન થા નથી સને આ વાત યુકિત પણ લાગી નહિં. એજ વાત હવે પ્રદેશી રાજા આ પ્રમાણે अ१८ १२ छ . (एवं खलु भंते ! अहं अन्नया कयाr वाहिरियाए उवहाण सालाए - जान विहरामि ) हे लहांत ! हुँ थोङ दिवस महारनी उपस्थान शाणामां मेठी हुतो. (तए णं ममं णगरगुत्तिया ससक्खं जान उबणें ति) નગર રક્ષકા એક સાક્ષિત સહિત યાવતુ એક ચારને મારી સામે ઉપસ્થિત र्थी (तएं णं अह तं पुरिसं जीविया रोम) में ते थारने भारी नाथ्यो, ( चवरोवेer कुंभीए पक्खिवाda are पिाणएणं पिहावेमि ) મારીને તેને મે" લાખના નળામાં પોતાના માણુસા ન"ખાવી દીધા. (11 आयपचइएहिं पुरिसेहिं रक्खावेमि) यावत् पछी में त्यां आत्मरक्षः पुरुषाने સાશ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीयसूत्रे · उपगच्छामि तामस्कुम्भीमुत्क्षेपयामि, तामयस्कुम्भी क्रमिकुम्मींमित्र पश्यामि 'नैव खलु तस्याः कुम्भ्याः किञ्चित् छिद्रमिति वा यावद् राजिरिति वा यतः खलु ते जीवा बाह्याद् अनुप्रविष्टाः, यदि खलु तस्याः अयस्कुम्भ्याः भवेत् किञ्चित् छिद्रमिति वा यावद् अनुप्रविष्ठाः तदाऽहं श्रदध्यां यथा -अन्यो जीवः तदेव, यस्मात् खलु तस्या अयस्कुम्भ्याः नास्ति किमपि अन्नया क्याई जेणेव सा अउकुंभी तेणेव उवागच्छामि ) कुछ दिनों के बाद फिर मैं उस अयस्कुभी के पास गया (तं अकुभि उग्गलत्थावेमि) उस अयस्कुंभी को उघाडा (तं अकुभिं किमिकुर्भिपिव पासामि, णो वेत्र णं तीसे अडकुंभीए केइ छिड्डे वा जाव राईइ वा जओ णं ते जीवा बहियार्दितो अणुपविट्ठा) उघाडते ही मैंने उसमें देखा कि वहां उस अयूस्कुभी में कृमिकुलों को देखा कि जिससे वह अयस्कुंभी कीटमयी हो रही थी. अब विचारने की बात यहां ऐसी है कि जब उस अयस्क भी में न कोई छिन्द्र था यावत् न कोई रेखा ही थी, कि जिससे होकर वे जीव उसमें वाहिर से आये (जइणं तीसे अकु भीए होज्जा केइ छि वा जाव अणुपविट्ठा) यदि उसमें कोई छिन्द्रादि होता तो यह बात मान भी ली जाती कि वे उनमें होकर उसमें प्रविष्ट हो गये हैं ( तो णं अहं सद्द हेज्जा - जहा - अन्नो जीवो तं चेत्र, जम्हाणं तीसे अडकुंभीए णत्थि केइ छिड्डेइ वा जाव अणुष्पविट्ठा तम्हा सुपइइट्टिया मे पहण्णा जहा-तं जीवो गोठवीं हीथा. (तए णं अहं अन्नया कयाइ जेणेव सा अडकु भी तेणेत्र _उवागच्छामि ) थोडा दिवसो माह हु इरी ते लोखंडना ( तं अयकुंभि उग्गलत्थावेमि) ते बोजडना नजाने उघाडये। अयकुभिं किमिकुभि पित्र पासामि, णो चेवणं तीसे अडकुंभीए . केt छिवा, जात्र राईइ वा जओ णं ते जीवा बहियाहितो अणुष्पविट्ठा) ઉદ્દઘાટિત કરતાંની સાથે જ મેં તે લાખ’ડના નળામાં કૃમિકુલાને જોયા ——તે નળેા ક્રીયુકત થઇ ગયા હતા. હવે આ વાત વિચાર કરવા ચાગ્ય છે કે જ્યારે નળામાં કોઈ પશુ છિન્દ્ર યાવતુ કોઇ પણ રેખા (તાડ) નહાતી કે જેથી તે જીવા મહારથી तेभां अविष्ट थ थ (जणं तीसे आउकुंभीए होज्जा केइ छिड्डइ वा जाव अणु) ले तेमां छिद्र वगेरे होत ते! यावी वात मानवामां पशु भावी शौ तेमां थर्धने ते नणाभां हृभियो प्रविष्ट थयां छे. (तो णं अहं सहेजा - जहा -अन्नो जीवो तं चेत्र, जण्हाणं तीसे अउकुंभीए णत्थि केइ छिड वा जाव अणुपविट्ठा तम्हा सुपट्टियां मे पहण्णा जहा तं जीवो तं सरीरं नजानी पासे गया (तं २३४ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सू. १३७ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवणं नम् २३५. छिद्रमिति वा यावद् अनुपविष्टाः, तस्मात सुप्रतिष्ठिता मे प्रतिज्ञा यथा तज्जीवः स शरीरं तदेव ॥ मू० १३७ ।। - 'तए णं पएसी राया' इत्यादि टीका--ततः खलु प्रदेशी राजा पुनः के शिकुमारश्रमणम् एवंः " मवादीत् हे भदन्त ! एषा-भवदुक्ता उपमा दृष्टान्तः प्रज्ञाता वुद्धिविशे.. पात, बुद्धिविशेषजन्या अस्ति, किन्तु अनेन-वक्ष्यमाणेन पुनः कारणेन मे-मम मनसि जीवशरीरयो मेंद: नोपागच्छति न संगच्छते युक्तियुक्तो नो प्रतिभातीत्यर्थः । तदेव दर्शयति-हे भदन्त ! एवम्-इत्थं खलु अहम् । अन्यदा कदाचित्-अन्यस्मिन् कस्मिंश्चित्काले बाह्यायाम् उपस्थानशालायां .. यावत्-यावत्पदेन-अनेकगणनायकादिभिः साई संपरित्तो विहरामि, ततः तदा खलु मम नगर गुप्तिका:-नगररक्षका:-ससाक्षिक-साक्षिसहितम्, यावत्-याव. त्पदेन-सहोढादिविशेषणविशिष्ट' चोरम् उपनयन्ति-उपस्थापयन्ति; ततः खलु अहं तं-पूर्वोक्त चोरं जीवितात् व्यपरोपयामि-प्राणरहितं करोमि, व्यपः रोप्य मारयित्वा अयस्कुम्भ्यां प्रक्षेपयामि-स्वपुरुषै निधापयामि, प्रक्षेपितचोर :: तामयस्कुम्भीम् अयोमयेन-लोहमयेन पिधानेन पिधापयामि-आच्छादयामि, यावत् यावत्पदेन-अयसा च त्रपुणा च अङ्कयामि, आत्मपत्ययिकैः-स्ववि. तं सरीरं चेव) और इसी कारण मैं भी यह श्रद्धा करता हूँ कि जीव । अन्य है और शरीर अन्य है । जिस कारण से उस अयस्कुभी में कोई .. छिद्र आदि नहीं थे. फिर भी उसमें जीव आ गये तो इस कारण से : मैं तो यही विश्वास करता हूँ कि मेरा कथन कि जीव शरीर रूप हैं और शरीर जीवरूप है. सुप्रतिष्ठित हैं। टीकार्थ इस मूलार्थ के जैसा ही है, यहां 'उवट्ठाणसालाए जाव' के इस यावत् पद से पूर्वोक्त अनेक गणनायक आदिकों का ग्रहण हुआ है । तथा 'ससक्खं जाव' के इस यावत्पद से सहोहा दिविशेषणों का ग्रहण જેવ) અને એથી જ મને પણ આ વાતમાં ફરી શ્રદ્ધા છે કે જીવ અન્ય છે અને શરીર અન્ય છે. જે કારણથી તે લેખંડના નળામાં છિન્દ્ર વગેરે નહેતા છતાંએ તેમાં જ પ્રવેશ પામ્યા તે કારણથી મને તે એ જ લાગે છે કે જીવ શરીર રૂપ છે. અને શરીર જીવરૂપ છે. એ કથન પર ભારે સંપૂર્ણપણે વિશ્વાસ સુપ્રતિષ્ઠિત છે. ' या सूत्राटी भूतार्थ प्रमाणे ४ छ. मी 'उवट्ठाणसालाए जाव' ના આ “યાવત પદથી પૂર્વોકત અનેક ગણનાયક વગેરેનું ગ્રહણ થયું છે. તથા 'ससक्खं जाव' नासा यावत्पथी साताहि विशेष| थयु छ. 'पिहा. Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ राजप्रश्नीयसूत्रे भ्वासपात्रः पुरुः रक्षयामि, ततः खलु अहम् अन्यदा कदाचित् यत्रैव-यस्मिन्नेव स्थाने सा-सुरक्षिता भवरफुम्भी तत्रैव-तस्मिन्नेव स्थाने उपागच्छामितदन्तिकं गच्छामि, गत्वा ताम् उत्क्षेपयामि-उद्घाटयामि । तामयस्कुम्भी कृमिकुम्भीमिव कीटमयीमेव-कुम्भी पश्यमि नैव खलु तस्याः-मुरक्षितायाः अयस्कुम्भ्याः किञ्चित्-किमपि छिद्रमिति वा यावत्-विवरं अन्तरम् राजि नास्ति यता-यस्मात-छिद्वादेः ते कृमिजीवा वाह्यात-बाहामदेशात् अनु. भविष्टा:-अभ्यन्तरे प्रविष्टा भवेयुः । यदि-चेत खल तस्याः-सुरक्षितायाः, अयस्कुम्वाः भवेत्-स्थात् किञ्चित् छिद्रम् यावद् विवरादिकं भवेत्, यतस्ते जीवाः चारप्रदेशा अनुप्रविष्टाः स्यु ता खलु अहं नदध्या--तव वचने विश्वस्याम्, अन्यो जीवः तदेव-पूर्वोक्तक्षेत्र अन्यो जीवः अन्यच्छरीरं नो तज्जीवः स शरीरम इति । यस्मात-कारणात खलु तस्था:-सुरक्षिताया: अय. स्कुम्भ्याः नास्ति किञ्चित किमपि छिद्रादिकं यतस्ते जीवाः बाह्यप्रदेशाव अनुमविष्टिाः स्युः तस्मात् मे-मम प्रतिज्ञा-स्वीकारः सुप्रतिष्ठिता-स्थिरा यथा--तज्जीवः स शरीर तदेव-पूर्वोक्तमेव नो अन्यो जीयोऽन्यच्छरीरम् इति ॥ सू० १३७ ॥ ___ मूलम--तए णं केलीकुमारसमणे पएसि रायं एवं क्यासी ! अस्थिणं तुमे पएसी कयाह अएधंतपुव्वे वा धमावियपुव्वे वा ? हंता अस्थि,से धुणं पएसी ! अपधते समाणे सव्वे अगणिपरिणए भवइ,? हंता भवइ, अत्थिणं पएसी ! तस्स अयस्स केइ छिड्डइ वा जेणं से हा है। 'पिहावेमि जाव' में आये हुए इस यावस्पद से 'द्रवित लोहे से और द्रवितरांग से मैने उसे अत्यन्त करवा दिया' इस पूर्वोक्त पाठ का ग्रहण हुआ है। इस सूत्र का भावार्थ ऐसा है कि जब कि उस अयस्कुमी में किसी श्री प्रकार का कोई भी छिद्रादि नहीं था तो उसमें बाहर से जीव कैसे प्रविष्ट हो गये, वहां तो केवल चोर का ही वह गृत शरीर पडा था अतः जीव और शरीर भिन्न २ नहीं है यही कथन समुचित है ।मू. १३७॥ बेमि जाव' मा पास यावत् पहथी द्रवित यामाथी भने अदित संपाथी में तेने અંકિત કરાવી દીધ” આ પાઠનું ગ્રહણ થયું છે. આ સૂત્રને ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે કે જ્યારે તે લેખંડના નળામાં કેઈપણ છિદ્ર વગેરે ન હોવા છતાં તેમાં બહારથી જ કેવી રીતે પ્રવેશ પામ્યા. ત્યાં તે ફકત ચેરનું મૃત શરીર પડયું હતું એથી જીવ અને શરીર ભિન નથી, આ વાત સમુચિત છે. સ.૧૭૭! FE Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधिनी टीका सु. १३८ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशोराजवर्णनम् ...... २३७ जोई बहियाहिंतो अंतो अगुप्पविद्वे ? णो इणढे समटे एवामेव पएसी! जीवोऽवि अप्पडिहयगई पुढवि भिच्चा लिलंभिच्चा बहियाहितो.अणुप्पविसइ, तं सदहाहि णं तुमं पएसी ! तहेव ।सू० १३८॥ छाया-ततः खलु केशीकुमारश्रमणः प्रदेशिनं राजानमेवमवादीत् अस्ति. खलु त्वया प्रदेशिन् ! कदाचिद् अयोध्मातपूर्व वा ध्मापितपूर्व वा १ हन्त अस्ति, स नूनं प्रदेशिन् ! अयोध्मातं सत् सर्व अग्निपरिणतं भवति ? हन्त भवति, अस्ति खलु प्रदेशिन् ! तस्य अयसः किन्चित छिद्रः मिति वा येन तत् ज्योतिः बाह्यात् अन्तग्नुपविष्टम् नो अयमर्थः समर्थः, तए ण केसीकुमार समणे' इत्यादि। सूत्रार्थ--(तए णं) इसके बाद (केसीकुमारसमणे पएसिं रायं एवं क्यासी) केशीकुमार श्रमण ने प्रदेशी राजा से ऐसा कहा (आत्थि ण भंते! पएसी! कयाइ अएपंतपुव्वे वा धमावियपुब्वे चा) हे प्रदेशिन् । तुम्हारे पास ऐसा लोहा है कि जिसे तुमने पहिले कभी अग्नि में तपाया हो या किसी से तपवाया हो ? (हेता अत्थि) हां भदन्त ! है (से णूणं -पएसी अएते समाणे सव्वे अगणि परिणए भव:) तो हे प्रदेशिन् मैं तुमसे ऐसा पूछता हूँ कि वह लोहा जब अग्निमें तपाया जाता हैं तब वह सम्पूर्णरूपसे अग्निरूप से परिणत हो जाता है न? (हंता ? भवह ) प्रदेशीने कहा हां हो जाता है ( अंत्यि णं पएसी ! तस्स अयस्स कई छिइ वा जेणं से जोई बहियाहिंतो अंतो अणुप्पविद्वे?) 'त एणं केसोकुमारसमणे' इत्यादि। सूत्राथ:-(तएण) त्या२. पछी (केसीकुमारसमणे पएस रायं एवं क्यासी) शीभार अभए प्रशी ने PAL प्रमाणे धु--(अस्थि णं भंते ! पएसी ! कयाइ अएघंतपुरवे वा धमाविय युधे वा) है शिन् ! तमारी पासे ये ५५ सोम. . ने यहां गमे त्यारे मनिमां यु ४२व्युय ? (हंता अस्थि) लाल मदत ! छ. (से गूगं पएली अएचंते समाणे सव्वे 'अगणि .. परिणए अवई ?) ता. हशिन ! तमने सा प्रश्न छु टामा - જ્યારે અંગ્નિ પર તપાવવામાં આવે છે. ત્યારે તે સંપૂર્ણપણે અગ્નિ રૂપમાં પરિણત थप तय छ. (हंता भाइ) प्रशीमे उत्तरमा झुंडा, महत थ य छ. (भस्थिणं पासी ! तस्स अयस्स केई छिट्टेइ वा जेणं से जोई बहियाहिंतो - अंतो अणुप्पविठे ?) तो शु हशिन् ! ते म छिडीय छ था Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ राजप्रश्नीयसूत्रे श्वासपात्रः पुरुपैः रक्षयामि, ततः खल्ल अहम् अन्यदा कदाचित् यत्रैव-यस्मिन्नेत्र स्थाने सा-सुरक्षिता अपरफुम्मी तत्रैव-तस्मिन्नेव स्शने उपागच्छामितुदन्तिकं गच्छामि, गत्वा ताम् उत्क्षेपयामि-उद्घाटयामि । तामयस्कुम्भी कृमिकुम्भीमिव कीटमयीमेव-कुम्भी पश्यमि नैव ग्वलु तस्याः-मुरक्षितायाः अयस्कुम्भ्याः किश्चित्-किमपि छिद्रमिति वा यावत्-विवरं अन्तरम् राजिवानास्ति यतः-यस्मात-छिद्रादेः ते कृमिजीवाः बाह्यात-बाह्यपदेशात् अनु. पविष्टा:-अभ्यन्तरे प्रविष्टा भवेयुः । यदि-चेत् खल्लु तस्या:-सुरक्षितायाः, अयस्कुम्भधाः भवेत् स्यात् किन्चित छिद्रम् यावद् विवरादिक भवेत, यतस्ते जीवाः बामप्रदेशा अनुप्रविष्टाः स्यु ता खलु अहं नदध्या--तव वचने विश्वस्याम्, अन्यो जीवः तदेव-पूर्वोक्तक्षेत्र अन्यो जीवः अन्यच्छरीरं नो तज्जीवः स शरीरम् इति । यस्मात-कारणात् खलु तस्था:-सुरक्षितायाः अय. स्कुम्भ्याः नास्ति किठिचत किमपि छिद्रादिकं यतस्ते जीवाः बाह्यप्रदेशात अनुमविष्टिाः स्युः तस्मात् मे-मम प्रतिज्ञा-स्वीकारः सुप्रतिष्ठिता-स्थिरा यथा--तज्जीवः स शरीर तदेव--पूर्वोक्तमेव नो अन्यो जीवोऽन्यच्छरीरम् इति ॥ सु० १३७ ॥ मूलम-तए णं केलीकुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासी ! अथिणं तुझे पएसी कयाइ अएपंतपुव्वे वा धमावियपुव्वे वा ? हंता अस्थि से पूर्ण पएसी अवधते समाणे सव्वे अगणिपरिणए भवइ,? हंता भवइ, अस्थिणं पएसी ! तस्स अयस्स केइ छिड्डेइ वा जेणं से हा है। "पिहावेमि जा' में आये हुए इस यावत्पद से 'द्रवित लोहे से और द्रवितरांग से मैने उसे अत्यन्त करवा दिया' इस पूर्वोक्त पाठ का ग्रहण हुआ है। इस सूत्र का भावार्थ ऐसा है कि जब कि उस अयस्कुली में किसी भी प्रकार का कोई भी छिद्रादि नहीं था तो उसमें बाहर से जीव कैसे प्रविष्ट हो गये, वहां तो केवल चोर का ही वह गृत शरीर पडा था अतः जीव और शरीर भिन्न २ नहीं है यही कथन समुचित है ।म. १३७) मि जाव' मा मावस बावत् प६थी द्रवित साथी भन द्रवित माथी में तन અંકિત કરાવી દીધે આ પાઠનું ગ્રહણ થયું છે. આ સુત્ર ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે કે જ્યારે તે લેખંડના નળામાં કેઈપણ છિદ્ર વગેરે ન હતા છતાં તેમાં બહારથી જ કેવી રીતે પ્રવેશ પામ્યા. ત્યાં તે ફકત ચેરનું મૃત શરીર પડ્યું હતું એથી જીવ અને શરીર ભિન નથી, આ વાત સમુચિત છે. સૃ.૧૩૭ - Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगधिनी टीका सु. १३८ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशोराजवर्णनम् .. २३७ जोई बहियाहिंतो अंतो अगुप्पविष्टे ? णो इणटे समटे एवामेव पएसी ! जीवोऽवि अप्पडिहयगई पुढवि भिच्चा सिलंभिच्चा बहियाहितो अणुप्पविसइ, ते सदहाहि णं तुमं पएसी ! तहेव ।सू०१३८॥ ___ छाया-ततः खलु केशीकुमारश्रमणः प्रदेशिनं राजानमेवमवादीत् अस्ति. खलु त्वया प्रदेशिन् ! कदाचिद् अयोध्मातपूर्व वा ध्मापितपूर्व का ? हन्त अस्ति, स नूनं प्रदेशिन ! अयोध्मातं सत् सर्व अग्निपरिणतं भवति ? हन्त भवति, अस्ति खलु प्रदेशिन् ! तस्य अयसः किञ्चित् छिद्र. मिति वा येन तत् ज्योतिः बाह्यात् अन्तग्नुपविष्टम् नो अयमर्थः समर्थः, 'तए ण केसीकुमार समणे' इत्यादि। - मुत्रार्थ--(तए णं) इसके बाद (केसीकुमारसमणे परसिं रायं एवं क्यासी) केशीकुमार श्रमण ने प्रदेशी राजा से ऐसा कहा (आत्थि णं भंते ! पएसी ! कयाइ भएपंतपुव्वे वा धमावियपुब्वे चा) हे प्रदेशिन् । तुम्हारे पास ऐसा लोहा है कि जिसे तुमने पहिले कभी अग्नि में तपाया हो या किसी से तपवाया हो ? (हंता अत्थि) हां भदन्त ! है (से गूणं पएसी अएते समाणे सम्वे अगणि परिणए भवड) तो हे प्रदेशिन् मैं तुमसे ऐसा पूछता है कि वह लोहा जव अग्निमें तपाया जाता हैं तब वह सम्पूर्णरूपसे अग्निरूप से परिणत हो जाता है न? (हंता? भवह) प्रदेशीने कहा हां हो जाता है ( अस्थि णं पएसी ! तस्स अयस्स के छिडे वा जेणं से जोई बहियाहिंतो अंतो अणुप्पविढे?) 'त एणं केसोकुमारसमणे' इत्यादि । सूत्राथ:-(त एण) त्या२ पछी (केसीकुमारसमणे पास रायं एवं क्यासी) शोभा२ भए प्रशी ने २ प्रमाणे ह्यु-(अस्थि णं भंते ! पएसी ! कयाइ अएपंतपुत्वे वा धमाविय पुरे वा) प्रशिन ! तमारी पासे को ५ स .. रेने पर गर्भ त्यारे PASH a यु ४२व्युय ? (हंता अस्थि) 0 RE ! छ. (से गृणं पएसी अएते समाणे सव्वे अगणि परिणए सवइ ?) त प्रहशिन ! तमने माम प्रश्न ४२.छु त सोम જ્યારે અગ્નિ પર તપાવવામાં આવે છે. ત્યારે તે સંપૂર્ણપણે અગ્નિ રૂપમાં પરિણત ४ तय छ. (हना भइ) प्रदेशीय उत्तरमा यु डी, महत 25 तय छ. (भस्थिणं परसी ! तस्स अयस्स केई छिड्ने वा जेणं से जोई बहियाहिंतो अंतो अणुप्पविद्वे ?) तो शु शिन् ! auमा छिडोय छ ? था Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्रीयसूत्रे २३८ एवमेत्र प्रदेशिन्। जीवोऽपि अप्रतिहतगतिः पृथिवीं भित्त्वा शैलं भिच्चा याहयात् अनुप्रविशति, तत् श्रद्धेहि खलु त्वं प्रदेशिन्। तथैव ४ ।। मृ० १३८ ॥ 'तपणं केसीकुमारसमणे' इत्यादि । टीका - ततः खलु केशीकुमारश्रमणः प्रदेशिनं राजानम् एवम् वक्ष्यमाणं वचनम् अवादीत् हे प्रदेशिन्। त्वया कदाचित् कस्मश्चित्काले अयो=लोहं ध्मातपूर्वं पूर्वं ध्मातम्=अग्निना संयोजितम् ? वा अथवा ध्मापितपूर्व = पूर्व केनचित्पुरुषेण ध्मापितम् अस्ति ? इति प्रश्नः, प्रदेशीप्राह - हन्त अस्ति । केशी पृच्छति - हे प्रदेशिन् ! तद्अयः लोहं नूनं निश्चितम् ध्यातं सत् सर्व अग्नि परिणतम् - अग्निस्वरूपतया परिणतं भवति ? प्रदेशीमाह-हन्त भवति । पुनः केशी पृच्छति हे प्रदेशिन् ! तस्य अयसः - लोहस्य, किञ्चित्-छिद्रमिति वा० छिद्रादिकम् अस्ति ? येन - कारणेन तत् ज्योतिः - अग्निः वाह्यात् बहिः - तो क्या हे प्रदेशिन ! उस लोहे में कोई छिन्द्र होता है कि जिससे होकर वह अग्नि बाहर से उस के भीतर घुस जाती है ? प्रदेशीने कहा(जो इन समट्ठे) हे भदन्त ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् उस लोहे में कोई भी छिद्रादिक नहीं है । (एवामेत्र पएसी ! जीवोऽवि अप्पडि• गई पुढवि भिच्चा, सिले भिच्चा, बहियाहिंतो अणुत्पत्रिसह, तं सदहाणि तुमं पएसी तब ) इसी तरह से हे प्रदेशिन् ! जीव भी अमतिहवगतिवाला है अतः वह पृथिवी को शिला को भेदकर वहि:प्रदेश से भीतर में घुस जाता है इस कारण हे प्रदेशिन् ! तुम मेरे वचन पर विश्वास करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है |४| टीकार्थ स्पष्ट है. इस सूत्र का भावार्थ ऐसा है कि जिस प्रकार छिद्रा दिसे रहित लोहे के गोले में अग्नि बाहर से उसके प्रत्येक प्रदेश में ते अग्नि महारथी तेमां प्रविष्ट था लय छ ? प्रदेश मे उधुं. ( गो इण्डे समट्ठे) હું ભહન્ત ! આ અર્થ સમય નથી એટલે કે તે લેાખંડમાં કાઇ પણ છિન્દ્ર વગેરે નથી. ( एवामेत्र पएसी ! जीवोऽवि अप्पडियगई पुर्वि भिच्चा बहियाहितो अणुष्पविस, तं सदहाहि णं तुमं पएसी तहेत्र ) प्रमाणे हे प्रदेशिन् a પણ અપ્રતિહત ગતિયુકત હાય છે એથી તે પૃથિવીને, શિલાને છઠ્ઠીને બહારના પ્રદેશથી અંદરના પ્રદેશમાં પેસી જાય છે. આ કારણથી હું પ્રદેશિન્ ! તમે મારી વાત પર વિશ્વાસ કરે કે જીવ ભીન્ન છે. ટીટ્ઠા-સ્પષ્ટ જ આ સુત્રના ભાવાર્થ આ સહિત લાખડમાં અગ્નિ મહારથી તેના દરેકે દરેક પ્રદેશમાં પ્રવિષ્ટ અને શરીર ભિન્ન પ્રમાણે છે કે જેમ છે. ॥ સૃ. ૪ ૫ છિદ્ર વગેરેથી થઈ જાય છે Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सू. १३८ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशीराजवर्णनम् २३९ पदेशात् अन्तः-अयसोऽभ्यन्तरप्रदेशे अनुप्रविष्टं स्यात् ? प्रदेशो कथयति नायमर्थः समर्थः नास्ति तत्र छिद्रादिकमित्यर्थः। केशीमाह-हे प्रदेशिन् ! एव मेव-छिद्रादि विनाऽपि तज्ज्योतिषोऽयोऽभ्यन्तरेऽनुप्रवेशवदेव जीवोऽपि अपतिइतगतिः अकुण्ठितगतिः पृथिवीं भित्त्या शिलां-भस्तरं भित्वा बाह्यात् -बहिः पदेशात् अन्तरनुमविशति, तत्-तस्मात् कारणात् हे प्रदेशिन ! त्वं श्रद्धेहि मद्वचने विश्वसिहि तथैव पूर्वोक्तमेव अन्यो जीवोयन्यच्छरीरम् नो तज्जीवः सशरीरम्' इति ।। सू० १३८॥ ____ मूलम्-तए णं पएसी राया केसिकुमारसमणं एवं वयासी -अस्थि णं भंते ! एसा पण्णाओ उवमा इमेण पुण मे कारणेणं नो उवागच्छइ, अस्थि णं भंते ! से जहानामए केइपुरिसे तरुणे जाव निउणसिप्पोवगए पभू पंच कंडगं निसिरित्तए ! हंत पभू ! जइ णं भते ! से चेव पुरिसे बाले जाव मंदविन्नाणे पभू होजा पंच कंडगं निसिरित्तए, तो णं अहं सदहेजा जहा-अन्नो जीवो तं चेव, जम्ही णं भते ! से चेव पुरिसे बाले जाव मंदविन्नाणे णो पभू पंच कंडयं निसिरित्तए तम्हा सुप्पइट्रियो मे पइण्णा जहा तं जीवो तं चेव ॥ सू० १३९ ॥ ___छाया-ततः खलु प्रदेशी राजा केशीकुमारश्रमणमेवमवादीत् अस्ति खलु भविष्ट हो जाती है, और इस कारण वह अग्निमय बन जाता है. इसी प्रकार से उस लोहे की टंकी में भी छिद्रादिक के अभाव में भी बाहर से जीव प्रविष्ट हो जाते हैं क्यों कि जीव अकुण्ठित गतिवाला है. इसकी गति कहीं पर भी नहीं रुक साती है ॥ सू० १३८ ॥ __ 'तए णं पएसी राया' इत्यादि । सूत्रार्थ-(तए णं पएसी राया केसिकारसमणं एवं क्यासी) तब प्रदेशी राजाने અને આથી તે અગ્નિમય થઈ જાય છે. તેમજ તે લેખંડનાં નળા (કઠી) માં છિદ્ર વગેરે ન લેવાં છતાંએ બહારથી પ્રવિષ્ટ થઈ જાય છે. કેમકે જીન અપ્રતિહલ ગતિવાળે છે. એટલે કે જીવની ગનિ કેઈ પણ જગ્યાએ રોકી શકાતી નથી. તેની ગતિ અંકુઠિત છે. સુલ ૧૩૮ છે _ 'तए णं पएसी राया' इत्यादि । सूत्रार्थ:-(तए णं पएसी राया केसिकुमारसमणं एवं वयासी). त्यारे Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - . ૨૪૦ . . . . . राजप्रश्नीयसूत्र भदन्त ! एषा प्रज्ञात उपमा अनेन पुनः कारणेन नो उपागच्छति, अस्ति खलु भदन्त ! स यथानामकः कश्चित् पुरुषः तरुणः यावतू निपुण शिल्पोपगतः प्रभुः । पञ्च काण्डकं निस्स्रष्टुम् ? हन्त प्रभुः! यदि खलु भदन्त ! स एव पुरुषो बालः यावत् मन्दविज्ञानः प्रभुमवेत् पञ्चकाण्डकं निस्रष्टुम्, तदा खलु अहं श्रद्दध्यां यथा-अन्यो जीवः तदेव, यस्मात् खलु भदन्त ! स केशीकुमार श्रमण से ऐसा कहा (अस्थि णं भंते ! एसा पणाओ उवमा) हे भदन्त ! यह जो आपने उपमा दी हैवह केवल बुद्धिविशेष से जन्य होने के कारण वास्तविक नहीं है (इमेण पुण मे कारणेणं नो उवागच्छइ) क्यों कि जो कारण में प्रदर्शित कर रहा हूँ उससे मेरे हृदय में जीव और शरीर का भेद जमता नहीं है। (अस्थि णं भते! से जहा नामए केइ पुरिसे तरूणे नाव निउणसिप्पोवगए पभू पंचकंडग निसिरित्तए) वह कारण ऐसा है-हे भदन्त ! जैसे कोइ युवापुरूप हो यावत् वह निपुणशिल्पोपगत हो, तो वह पांचवाणों को एक ही साथ पांच लक्ष्योंको वेधने के लिये छोडने में समर्थ हो सकता है न ? (हंता पभू) केशीकुमार श्रमणने कहा--हां हो सकता है। (जइ णं भंते ! से चेव पुरिसे बाले जाव मंदविन्नाणे पभू होजा पंच कंडग निसिरित्तए) अव यदि वही पुरुषवाल, यावत् मन्दविज्ञान वाला अपनी अवष्यापन्न हुआ पांचकाण्डकको-पांचवाणों को छोड़ने के लिये समर्थ हो जावे तो मैं आपके वचनों को श्रद्धा के विषयभूत बनाउ' और यह मानलू कि जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है, जीव शरीर रूप नहीं प्ररशी २०- ४शीभा२श्रमानने ॥ प्रभारी ४थु (अधिणं भंते ! एसा पण्णाओ उवमा) महत ! म प्रमाणे तभाये ५मा मापी छ. ते मात्र गुद्धिविशेष न्य हावाथी वास्तवि: नथी. (इमेण पुण मे कारणेणं नों उवागच्छद) भ? જે કારણ હું બતાવી રહ્યો છું તેથી મારા હૃદયમાં જીવ અને શરીરની ભિન્નતાની વાત OME नथी. (अस्थि णं भंते ! से नहानामए केइपुरिसे तरुणे जाव निउणसिप्पोवगए पभू पंच कंडगं निसिरित्तए ते २४ मा प्रभारी छ. ભદંત! જેમ કે યુવક હેય ચાવતુ તે નિપુણશિલ્પપગત હય, તે તે પાંચ બાણને सी. साथे पांय सक्ष्योनु वेधन ४२पामा समर्थ थ छ?(हंता पम) शोभार भयो ४ह्यु डाल, थश छ. (जह णं भंते ! से चेव पुरिसे याले. जाव मंदविन्नाणे पभृ होजा पंच कंडगं निसिरित्तए) वेत युवर मात, यावा મંદવિજ્ઞાનવાળે પિતાની અવસ્થાપન થયેલ પાંચકાંડને-પાંચ બાણોને છોડવામાં સમર્થ થઈ જાય તે હું તમારા વચનને શ્રદ્ધા એગ્ય માની શકું તેમ છું અને આ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका. सूत्र १३९, सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवणम् २४३ एव पुरुषो बाला यावत् सन्दविज्ञानो नो प्रयुः पञ्च काण्डकं निस्रष्टुम् तस्मात् सुपतिष्ठिता मे प्रतिज्ञा यथा-तज्जीवः तदेव ।। स० १३९ ।। टीकार्य-'तए णं पएसी राया' इत्यादि । ततः-तदनन्तरं खलु प्रदेशी राजा के शिकुमारश्रमणम् एवम्-अनेन प्रकारेण अबादीत-हे भदन्त! एषा-इयम् उपमा-सारश्यम् प्रज्ञाता=बुद्धिविशेषाद् अस्ति न तु वास्तविकी यतः अनेन-वक्ष्यमाणेन पुन: कारणेन जीवशरीरयोमेंदो मे-मम हृदये नोपागच्छति-न संगच्छते न स्वीकारयोग्यतामर्हति । तदेव दर्शयति-हे भदन्त ! अस्ति-भवेत् खलु स यथा नामकः अनिर्दिष्टनामा कश्चित् पुरुषः कीदृशः ? इत्याह-तरुणा-युवा यावत् -यावत्पदेन-"युगवान् बलवान अल्पातङ्कः स्थिरसंहननः स्थिरोग्रहस्तः प्रति- . है, और शरीर जीवरूप नहीं है। अतः हे भदन्त ! जिस कारण से वह तरूणादि विशेषणों वाला पुरूप जब बाल यावत् मन्दविज्ञानवालो होता हे, तब पांच वाणों को छोड़ने के लिये समर्थ नहीं होता है इस कारण से मेरी यह भतिज्ञा है कि जीव और शरीर एक है, जो जीव है, वही शरीर है और जो शरीर है वही जीव है सुपतिष्ठित है। टीकार्थ-बाद में प्रदेशी राजाने केशीकुमार श्रमण से ऐसा कहा हे भदन्त ! आपने जो अभी उपमा देकर जीव और शरीर की पृथक्ता प्रकट की है सो जय में अपनी इस बात का विचार करता है तब यह उनकी पृथक्ता मेरे चित्त में नहीं जमती है, वह बात इस प्रकार से है जैसे कोई एक तरूण पुरूष हो और यावत वह निपुणशिल्पोपगत हो यहां यावत् पद से 'युगवान् बलथान. अल्पातङ्कः स्थिर संहननः स्थिरा. વાત પર વિશ્વાસ કરી લઉં કે જીવ ભિન્ન છે અને શરીર ભિન્ન છે. જીવ શરીર રૂપ નથી અને શરીર છવ રૂપ નથી. એથી હે ભદંત ! જે કારણને લીધે તે તરુણ વગેરે વિશેષણોથી યુક્ત યુવક જયારે બાળ યથાવત મંદવિજ્ઞાનવાળો હોય છે, ત્યારે તે પચ બાણેને છોડવામાં સમર્થ હોતો નથી. આથી જ મારી જીવ અને શરીર એક છે. જે જીવ છે તે જ શરીર છે અને જે શરીર છે તે જ જીવ છે આ પ્રતિજ્ઞા સુપ્રતિષ્ઠિત છે. ટીકાર્ય–ત્યાર પછી પ્રદેશી રાજાએ કેશીકુમાર શ્રમણને આ પ્રમાણે કહ્યું છે ભદંત! તમેએ જે હમણ ઉપમા વડે જીવે શરીરની પૃથકતા પ્રકટ કરી છે તે વિષે હું જ્યારે મારા મનમાં વિચાર કરું છું ત્યારે આ વાત મારા મનમાં બરાબર જાતી નથી. કેમકે જેમ કે એક તરુણ પુરુષ થાય અને વાવત તે નિપુણ શિબત થાય As 'यावत' ५४थी 'युगवान, बलवान, अल्पात, स्थिरसंहननः, स्थिरा Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२. राजप्रश्नीयसूत्र पूर्णपाणिपादपृष्ठान्नरोरुषःणतः घननिचितवृत्तालितस्कन्धः चमेंटकच घण मुष्टिकयामाहानमात्र उसनवलपमन्वागतः तलयमलघुगमवाह: लखनप्लवन जवनप्रमद्देन थः छेश दक्षः मष्ठः कुशलः मेधावी इत्येतेपा पदानां वह, निपुण बोरगत.. एलव्याख्या सप्तममत्रतो बोध्या । एतादृशः पुरुषः पञ्चकाण्डकं बाणपञ्चक युगपत् पञ्चलक्ष्यवेधनाय निस्रष्ट-प्रक्षेन्तुप्रभुः-समर्थों भवेत् ? इति पदेशिश्न: के शीमाह-हे राजन् ! हन्त ! मभुः पञ्चकाण्डक प्रक्षेप्तुं स समर्थो भवेत् ? प्रदेशो कथयति हे भदन्त ! यदि चेत् खलु ग्रहस्तः, प्रतिपूर्णपाणिपादपृष्ठान्तरोरुपरिणतः, घननिचितत्तवलितम्कन्धः, चमें ष्टक घणनुष्टिकसमाहतः गात्रा, उरस्यवलसमन्वागत: तलयमलयुगलबाहुः, लङ्घनप्लवनजवनप्रमई नसमर्थः छेका, दक्ष, पृष्ठः, कुशलः, मेधावी" इस पाठ का संग्रह हुया है। इन पदों की व्याख्या सातवें मूत्र में को जा चुकी है अतः वहीं से इसे देखना चाहिये. ऐसा वह पुरुष पांच वाणों को एक साथ पांचलक्ष्यों को वेधन करने के लिये हे भदन्त ! छोडने में समर्थ हे सकता है न ? केशीकुमार श्रमणने तव कहा हे राजन् ! ऐसा पूर्वोक्त विशेषणों वाला वह युवा पुरुष एक साथ पांचवाणों को छोडने में समर्थ हो सकता है परन्तु हे भदन्त ! जब वही पुरुष वाल यावत् मन्दविज्ञानवाला होता है तब पांच वाणों को एक साथ पाँचलक्ष्यों को वेधन करने के लिये छोडने में समर्थ नहीं होता है. यदि वह ऐसा करने में समर्थ होता तो मैं आपकी इस बातको कि जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है तथा जीव शरीररूप नहीं है शरीर जीवरूप नहीं ग्रहस्तः, प्रतिपूर्णपाणिपादपृष्ठान्तरोरूरिणतः, धननिचितत्तवलितस्कन्धः, चमे ष्टकद्रुधणमुप्टिकसमाहतगात्र, उरस्यवलसमन्वागतः . तलयमल युगलवाहुः, लङ्घनप्लवनजवनप्रमई नसमर्थः, छेकः, दक्षः पृष्ठः कुशलः मेधावी" मा पानी सड थय। छ. २१ गया पहोनी व्याच्या सातमा सूत्रमा કરવામાં આવી છે. એથી જિજ્ઞાસુઓ ત્યાંથી જાણી લેવા પ્રયત્ન કરે. એવા તે યુવક ને પાંચ બાણોને એકી સાથે એકજ લક્ષ્યપર છેડીને ભદંત શું તે લક્ષ્યવેધનમાં સફળ થશે ? કેશીકુમાર શ્રમણે આ સાંભળીને કહ્યું કે રાજન એવો તે પૂર્વોક્ત વિશેષણથી યુકત તે યુવક એકી સાથે પાંચ બાણેને છોડવામાં સમર્થ થઈ શકશે. પણ હું જ દંત ! જ્યારે તે યુવક બાળ યાવતું મંદ વિજ્ઞાન સંપન્ન હોય છે. ત્યારે તે પાંચ બાણ વડે એકી સાથે પાંચ લક્ષ્યાનું વેધન કરવામાં સફળ થશે નહિ. જે તે એવું કરી શકતું હોય તે હું તમારી જીવ ભિન્ન છે અને શરીર ભિન્ન છે તેમજ જીવ, શરીર રૂપ નથી અને શરીર જીવરૂપ નથી, Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SMS सुबोधिनी टीका सू. १३९ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवंप्रदेशिराजवर्णनम् स एचपुरुपा वाल: यावत् यावत्पदेन-'अयुगवान् ,अबलवान्, सातङ्कः अस्थिरसंहननः, अस्थिराग्रहस्तः अप्रतिपूर्णपाणि पादपृष्ठान्तरोरुपरिणतः अघन निचितत्तवलितस्कन्धः, अचमें टकघणमुष्टिकसमाहतगात्रः उरस्यबलाऽसमन्वागतः अतव्यमलयुगलबाहुः लङ्घनप्लयनजवनप्रमईनासमर्थः अच्छेकः अद् क्षः अप्रष्ठ: अकुशलः अमेधावी' इत्येषां संग्रहो वोध्या, एपामपि व्याख्या वैपरीत्येन सप्तममूत्रतो चोध्या, मन्दविज्ञान:-अल्पकौशलः, एतादृशः स यदि पश्वकाण्डकं निस्रष्टु-प्रक्षेप्तुं प्रभुः-समर्थो भवेत् तदा खलु अहं श्रद्धध्यांतवं वचनं श्रद्धाविषयीकुर्याम्, यथा-अन्यो जीवः तदेव-पूर्वोक्तमेव-अन्यच्छ. रीरम् नो तज्जीवः स शरीरम्, इति, । हे भदन्त ! यस्मात् कारणात् .. खलु यस्तरुणादिविशेषणविशिष्टः स एव यदा वाल: यावद् मन्द विज्ञानो भवेत् तदा न पचकाण्डकं निस्रष्टुं प्रभुः-समयों भवति तस्मात् सुप्रनिष्ठिता-समुचिता मे प्रतिज्ञा यथा-तज्जीवः, तदेव-पूर्वोक्तमेव तच्छरीरम् 'नो अन्यो जीवः अन्याछरीरम् इति ॥ सू. १३९ ॥ है श्रद्धा का विषय कर लेता "चालः यावत्" में यावत् पद से ."अयु. गवान्. अबलवान् , सातङ्कः अस्थिरसंहननः, अस्थिराग्रहस्तः, अप्रतिपूर्ण पाणिपादपृष्ठान्तरुपरिण, अवननिचितवत्तवलितस्कन्धः, अचमें ष्टकदुदुघण. मुष्टिकसमन्वागतगात्रः, उरस्यबलासमन्वागतः, अतलयमलयुगलवाहुः, लवानप्लवनजवनप्रमई ना समर्थः अच्छेकः, अदक्षः, अपृष्ठ, अकुशलः, अमेघावी" इनपदों का संग्रह हुआ है इसकी व्याख्या सातमें मूत्र से निषेधार्थपरक रूप में करनी चाहिये. तात्पर्य कहने का इस मूत्र का यही है कि उस युवा पुरुष का और बाल पुरुप का वही शरीर और वही जीव है. उसमें कोई भिन्नता नहीं है, भिन्नता केवल उपकरणों में है क्यों कि जो बालपुरुष - मा वात ५२ विश्वास ४श देत. 'वाल: यावत' मा 'यावत्' ५४थी 'अयुगवान, अबलवान, सातङ्कः, अस्थिरसंहननः, अस्थिराग्रहस्तः, अप्रतिपूर्णपाणिपादपृष्ठान्तरोपरिणतः, अधननिचितवृत्तवलितस्कन्धः अचमेंटकद्रुधणमुष्टिकसमन्वागतगात्र:, . उरस्ययलासमन्वागतः, अतलयमलयुगलबाहु, लधन. प्लवनजवनममईनासमर्थः, अच्छेकः अदक्षः, अपष्ठः अकुशल, अमेधावी “આ પદેને સંગ્રહ થયેલ છે. આ પદેન વ્યાખ્યા સાતમા સૂત્રમાંથી નિધાર્થક રૂપે કરવી જોઈએ. મતલબ આ પ્રમાણે છે કે તે યુવા પુરૂષને તેમજ બાલ પુરૂષને તેજ જીવે છે. તેમાં કઈ ભિન્નતા નથી. ભિન્નતા તે છે ફકત ઉપકરણમાં છે. Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ राजप्रश्नीयसूत्रे ___ मूलम-तए णं केसीकुमारसमणे पएसिं रायं एवं क्यासी से जहानामए केइपुरिसे तरूणे जाव निउणसिप्पोवगए णवएणं धणुणा नवियाए जीवाए नवएणं इसुणा पभू पंचकंडग निसिरित्तए ? ता पभू ! सो चैव णं पुरिसे तरुणे जाव निउणसिप्पोवगए कोरलिएणं धणुणा कोरिल्लियाए जीवाए कोरिल्लिएणं इसुणा पभू पंचकंडग णिसिरित्तए? णो इणढे सम? । कम्हा ? भंते ! तस्स पुरिसस्स अपजत्ताई उवगरणाई हवंति, एवामेव पएसी! सो चेव पुरिसे बाले जाव मंदविन्नाणे अपाजत्तोवगरणे, णोपभू पंचकंडयं निसिरित्तए, तं सदहाहि णं तुमं पएसी ! जहा-अन्नो जीवो तं चेव ५॥ सू० १४० ॥ छावा--ततः खलु केशीकुमारश्रमणः प्रदेशिनं राजानमेवमवादीत स यथानामकः कश्चित् पुरुषः तरुणः यावत् निपुणशिल्पोपगतः नवकेन धनुषा नविकया जीवया नदकेन इपुणा प्रभुः पन्चकाण्डक निस्रष्टुम् ? था वही तो युवा हुआ है. अतः उस जीव में और उसके शरीर में भिन्नता कसे मानी जा सकती है ॥ सू० १३९ ॥ 'तए णं केसीकुमारसम्मणे इत्यादि। मुत्रार्थ-(तए ण केसीकुमारसमणे पएर्सि रायं एवं बयासी) इसके थोद केशीकुमारश्रमणने (पपसि रायं एवं बयासी) प्रदेशी राजा से इस प्रकार कहा (से जहानामए के पुरिसे तरुणे जात्र निउणसिप्पोवगए ) हे भदन्त ! जैसे कोई युवा पुरुप हो और वह यावत् निपुण शिल्पोपगत हो (णवएण धणुणा नवियाए जीवीए नवएणं इसुणा पभू पंचक डग निसिरित्तए) કેમકે બાલ પુરૂષ હતો તેજ યુવા થયેલ છે. એથી તે જીવમાં અને તેના શરીરમાં ભિનતા કેમ કરીને માની શકાય. સૂ૦ ૧૩લા __ "त एणं केसीकुमारसमणे' इत्यादि। सूत्रार्थ :-(त एणं कसीकुमारसमणे पएसि रायं एव' वयासी) त्यार ५। शी भा२ श्रमणे (पएलि राय एवं क्यासी) प्र. २०ने या प्रमाणे g: ( से जहानामए केह पुरिसे तरुणे जाब निउणसिप्पोवगए ) 3 महत! म 1 युवा ५३५ साय मने ते यावत् निपुण शिपायात लाय,(णवएण धणुणा नवियाए जीवाप भवएणं इसुणा पथ पंचकडग निमिरित्तए) गोवा ते Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनो टोका. १४० सूर्याभदेवस्य पूर्व भव जीवप्रदेशिरजवर्णनम् २४५ हन्त ! प्रभुः स एव खलु पुरुषः तरुणः चारत् निपुण शिल्पोपगतः जिर्णेन धनुषा जीर्ण या जीवया जीर्णेन इषुणा प्रभु, पञ्च काण्डकं निस्रष्टुम् । नायमर्थ सः मर्थः । कस्मात् भदन्त । तस्य पुरुषस्य अपर्याप्तानि उपकरणानि भवन्ति, एवमेव प्रदेशिन ! स एव पुरुषः बालो यावत् मन्दविज्ञानः अपर्यासोपकरणः नो प्रभुः पञ्चकाण्डकं निस्सष्टुम् तत् श्रद्धेहि खलु त्वं प्रदेशिन् ! यथा अन्यो जीवस्तदेव ५ ।। मृ० १४० ॥ ऐसा वह पुरुष नवीन धनुष से, नवीन प्रत्यञ्चा से, नवीन बाण से पांच याणों को एक साथ पांच लक्ष्यों का वेधन करने लिये छोड़ने में समर्थ है क्या ? (हंता पभृ) तब प्रदेशीने कहा--हां, समर्थ होना है (सो चेवणं पुरिसे तरुणे जाव निउणसिपोरगए कोरिल्लिएणं धणुगा कोरिल्लिए जीवाए, कोरिल्लिएणं इसुणा पधू पंचकडगं निसिरितए) पुनः केशीने पूछा-हे प्रदेशिन् ! यदि वही युवा पुरुष यावत् निपुणशिल्पोपगत बना हुआ जीर्ण धनुष्य से, जीर्ण प्रत्यञ्चासे जीर्ण वाण से पांच बाणों को छोड़ने के लिये समर्थ हो सकता है क्या? प्रदेशीने कहा-(णो इण? सम?) हे भदन्त ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। केशीने पूछा-(कम्हा) हे प्रदेशिन् ! इसमें क्या कारण है कि जिससे यह अर्थ समर्थ नहीं है। (भंते ! तस्स पुरिसस्स अपजत्ताइ उरगरणोइ हति) प्रदेशी राजाने कहा हे भदन्त ! उस पुरुषके उपकरण अपर्याप्त हैं (एवामेव पएसी! सो चेव पुरिसे बाले जाव मंदविन्नाणे अपज्जात्तोरगरणे, णो पद्म पंचकंडयं निसिरित्तए, तं सहवाहिणं तुमं पएसी ! जहा-अन्नो जीवो तं चेव ५) પુરૂષ શું નવીન ધનુષ વડે, નવીન બાણ વડે પાંચ બણને એકી સાથે પાંચ લક્ષ્ય ना धन माटे छापामो समय डाय छ? (हता पभू) त्यारे प्रशन् रातो पु-sis, समर्थ साय छ. (सो चेव णं पुरिसे तरुणे जाव निउणसिप्पोवगए कोरिलिएणं घणुगा कोरिल्लयाए जीवाए, रिल्लिएणं इसुणा पभू पंच कंडग निसिरित्तए) २री उशीय प्रश्न ४ ई मशिन् ! . ते युवा पुरुष થાવત્ નિપુણશિગત થઈને જીણું ધનુષથી, જીર્ણ પ્રત્યંચાથી, બાણથી પાંચ माणन छ।उवामी समर्थ था 3 तेभ छ ? प्रशान्ये ४पु. (जो इणढे समद्दे) त! | अथ समय नथी. (भंते ! तस्ल पुरिसस्स अपज्जनाई उवगरणाई हवं ति) प्रदेशी राणे ४ र मत ! ते ५३५ना उप४२|पति नथी. (एवामेव पएसी ! सो चेव पुरिसे बाले जाय मंदविन्नाणे अपज्जत्तोषगरणे, णो पभू पंच कडयनिसिरित्तए, तं सहाहि णं तुमं एएसी ! जहा-अन्नो जीवो तं चेव ५) त्यारे अशी ४- २ प्रमाणे प्रशिन.! ते ३५ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीम ૨૪૬ 'तरणं केसीकुमारममणे' इत्यादि । टीका - ततः खलु केशीकुमारश्रमणः प्रदेशिनं राजानम् एवमवादीत्-स नामकः कथित- कोऽपि पुरुषः- ताः यावत् यावत्पदेन- "युतवान् गळ चान् अल्पातङ्कः स्थिराग्रहस्तः मतिपूर्णपाणिपादपृष्ठान्तरोकपरिणतः घन निचितवृत्तचलितस्कन्धः चर्मेष्टक दुवणमुष्टिकसमाहनगात्रः उरस्थलसम न्वागतः तलग मलयुगलचाहुः लङ्घनप्लानजवनममनममर्थः छेकः दक्षः तब केशीने कहा - इसी तरह से पदेशिन् । वही पुरुष जब बाल यावत् मन्दविज्ञानवाला होता है वह पर्याप्त उपकरणचाला होता है अतः पांच बाणों को मक्षिप्त करने के लिये समर्थ नहीं होता है। इस कारण हे प्रदेश ! तुम श्रद्धा करो कि जीव अन्य है और शरीर अन् है जीव शरीररूप नहीं है और शरीर जीवरूप नहीं है । ५ । टीकार्थ — तब केशीकुमार श्रमणने प्रदेशी राजा से ऐसा कहाजैसे अनिर्ज्ञात नामा कोई एक पुरुष हो, जो वह तक हो यावत्-युगवाद हो, वलवान हो, अल्प आतङ्कवाला हो, स्थिर अग्रहायवाला हो, पाणि. पाद, पृष्ठान्तर एवं उरु ये सब जिसके मनिपूर्ण हो, और परिणत विवे कशील एवं वयस्क हो. कवे दोनों जिसके खूब भरे हुए हो गोल हो, शरीर जिसका चष्टक आदि से समाहत होने से विशेषरूप में पृष्ठ शारीरिक बल एवं मानसिक बल जिसका वहा चढा हो, ताडवृक्ष के जैसे जिसके दोनों बाहू लम्बे हों, लांघने में, उछलने में कूदने में दौडने જ્યારે માળ યાવતુ મંદ વિજ્ઞાનવાળા હોય છે ત્યારે તે અપર્યાપ્ત ઉપકરણવાળેા હોય છે, એથી જ તે પાંચ ખાણાને પ્રશ્ચિમ કરવામાં સમાઁ હાતે નથી. આથી હે પ્રદેશિન ! તમે મારી વાત પર વિશ્વાસ કરો કે વ શિન્ન છે અને શરીર ભિન્ન છે. જીવ શરીરરૂપ નથી અને શરીર જીવપ નથી. પા ટીકા :ત્યારે કેશીકુમાર શ્રમણે પ્રદેશી રાજાને આ કેાઈ અનિાંતનામા કોઇ એક પુરૂષ હાય, જે તરૂણ હાય णणवान होय, यादपश्यात वाणी, स्थिर भरतवाणी (પગ) પૃષ્ટાન્તર અને ઉર્ફે આ બધા જેના પ્રતિપૂર્ણ હોય અને વય હોય, બન્ને ખભા જેના પુષ્ટ હોય, ચમે ટક વગેરેથી સમાહત હોવાથી વિશેષરૂપથી તેમજ મનની શિત. વધારે પરિપુષ્ટ થયેલી હોય. અન્ને હાથે લાંમા होय, આળ’ગવામાં પ્રમાણે કહ્યું કે જેમ ચાવતા યુગવાન્ હોય, होय, पाणि (हाथ) चाह અને પરિણત–વિવેક યુકત ગાળ હોય, જેનુ શરીર પુષ્ટ હોય, જેનું શરીર તાડવૃક્ષ જેવા જેના वामां કૂદકાઓ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ सुबोधिनी टीका सू. १४० सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीव प्रदेशिराजवर्णनम् प्रष्ठः कुशलः मेघावी" इत्येषां पदानां सग्रहः एषां व्याख्या सप्तममुत्रे कृता । निपुण शिल्पोपगतः - सम्यग्विज्ञानसमन्वितः एतादृशः पुरुषः नवकेन - नूतनेन धनुषा, नविकया नूतनया जीवया- धनुर्गुणेन चतुर्दवरिकयेत्यर्थः नत्रकेन- नूतनेन इषुणा - वाणेन प्रभुः समर्थः पञ्चकाण्डक - बाणपञ्चकं युगपन पञ्चलक्ष्यवेधनाय निस्रष्टु- पक्षेप्तुम् । प्रदेशीमाह-हन्त ! प्रभुः समर्थः । केशी कथयति-यदि स एव खलु पुरुषस्तरुणः यावत् निपुणशिल्पोपगतः 'कोरिल्लएणं' इति देशी शब्दो जीर्णार्थ कस्तेन जीर्णेन घुणखादितेन धनुषानापेन जीर्ण' या - प्रत्यञ्चया धनुर्गुणेनेत्यर्थः जीर्णेन इषुणा - बाणेन पञ्चकाण्डक'- काण्डकपञ्चकं निस्रष्टु - प्रक्षेप्तु ं प्रभुः समर्थः स्यात् ? इति केशिपश्नः, प्रदेशी - उत्तरयति - नायमर्थः समर्थः, केशी कारणं पृच्छति - कस्मात्कारणात् आदि क्रिया में जो बराबर समर्थ हो, छेक हो, दक्ष हो पष्ठ हो, कुशल हो मेधावी हो और निपुणशिल्पोपगत- सम्यग्ज्ञान समन्वित हो । इन युगवान् आदि पदों की व्याख्या सातवें सूत्र में की गई है. सो वहीं से जान लेना चाहिये। ऐसा वह पुरुष नवीन धनुष से, नवीन प्रत्यञ्चा से धनुषकी डोरी से एवं नवीन वाण से हे प्रदेशिन क्या वाण पंचक को युगपत् पांच लक्ष्यों का वेधन करने के लिये छोड सकता है ? तब प्रदेशीने कहा- हां, भदन्त ! छोड सकता है । पुनः केशीने उससे पूछा- यदि वही पुरुष जो कि तरुणादि पूर्वोक्त विशेषणोपाला प्रकट किया गया हैं, कोरिल्ल - जीर्ण- घुण खादित ऐसे धनुष से, जीवा - प्रत्यञ्चा से, तथा जीर्ण वाण से वाण पंचक को छोडने में समर्थ हो सकता है ? तब प्रदेशीने कहा - हे भदन्त ! ऐसी स्थिति में वह इस प्रकार से करने में समर्थ नहीं हो सकता है. इस મારવામાં, દાડવામાં વગેરે ક્રિયાઓમાં જે ખરાખર સમ હોય, છેક હોય, દક્ષ હાય પ્રશ્ન હૈાય, કુશળ હેય, મેધાવી હાય અને નિપુણ શિલ્પાપગત-સમ્યકજ્ઞાનયુકત હોય આ યુગવાન વગેરે પદોની વ્યાખ્યા સાતમા સત્રમાં કરવામાં આવી છે. જિજ્ઞાસુઓએ ત્યાંથી જાણવા પ્રયત્ન કરવા જોઇએ. એવા તે પુરુષ નવીન ધનુષથી, નવીન પ્રત્ય’યાથી, ધનુષની દોરીથી અને નવીન ખાણથી હું પ્રદેશિન! શું માણુ પ`ચકને યુગપત પાંચ લક્ષ્યાના વેધન માટે છોડી શકશે ! ત્યારે પ્રદેશીએ કહ્યું-હાં ભ ત ! ડી શકશે. ફ્રી કેશીએ તેને પ્રશ્ન કરતા કહ્યું–જો તેજ પુરૂષ-કે જે તરૂણ વગેરે પૂર્વउत विशेषशेोवाणी छे, 'कोरिल्ल'-- (धै वह भवायेस धनुषथी "जीव।'-प्रत्थચાથી તેમજ જીણુ માણુથી ખાણ પચકાને છોડવામાં સમર્થ થઈ શકે તેમ છે ? ત્યારે પ્રદેશીએ કહ્યું-હે ભદત ! એવી પરિસ્થિતિમાં તે થઇ શકશે નહિ. આ પ્રમાણે તેના અસામર્થ્ય નું આ પ્રમાણે કરવામાં સમર્થ કારણ શું હાઈ શકે ! - Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ राजप्रश्नीय खलु सोऽर्थो न समर्थः ? प्रदेशो माह-भदन्त ! तस्य-पूर्वोक्तपुरुषस्य उप करणानि-धनुरादि साधनानि अपर्याप्तानि जीर्णत्वादसमर्थानि भवन्ति, एवमेव-उक्तप्रकारेणैव हे प्रदेशिन् ! स एव पुरुपः वाल यावत-याव त्पदेन अयुगवानित्यादीमामनन्तरसूत्रे संगृहीतानां पदानां सङ्ग्रहो बोध्यः, तदर्थस्तु वैपरीत्येन सप्तमसूत्रे प्रतिपादित स्ततोऽधसेयः। मन्दविज्ञान:अल्पविज्ञानयुक्तः अत एव अपर्याप्तो करण:-अपर्याप्तम्-असमर्थम्-उपकरणम् शरीरेन्द्रियबलबुद्धयादिरूप साधनं यस्य स तथा, एतादृशःपुरुपः पञ्चकाण्डक निस्रष्टु-प्रक्षेप्तु नो प्रमुः-समर्थो न भवति, तत्-तस्मात् कारणात हे प्रदेशिन् । त्वं श्रद्धेहि यथा अन्यो जोवः तदेव-पूर्वोक्तमेव अन्यत् शरीरम् नों तज्जीवः स शरीरम् ।। सू० १४०॥ मूलम्-तएणं पएसी रायो केसिकुमारसमणं एवं वयासीअस्थि णं भंते ! एसा पण्णाओ उवमा इमेण पुण कारणेणं नो प्रकार की उनकी असमर्थता का क्या कारण है। तव प्रदेशीने उत्तर दिया भदन्त ! उस पृवोंक्त विशेषण सम्पन्न पुरुषके उपकरण-धनुरादिसाधन जीर्ण होने के कारण अपर्याप्त-असमर्थ हैं। अब पुनः केशीश्रमण उससे पूछते हैं-हे प्रदेशिन् ! यदि तरुण पुरुष युगवान आदि विझेषणों से रहित है अर्थात् बाल अयुगवान् आदि विशेषणों से विशिष्ट है और शरीर, इन्द्रिय, बल, बुद्धि आदि रूप साधन उसके अपर्यात् हैं, तो क्या वह याणपंचक को छोड़ने के लिये समर्थ हो सकता है? तब प्रदेशीने कहानहीं हो सकता है । तो हे प्रदेशिन् । इससे तुम्हें यही मानना चाहिये शरीर भिन्न है और जीव भिन्न है. शरीर जीवरूप नहीं है और जीव शरीररूप नहीं है ॥ सू० १४०॥ ત્યારે પ્રદેશીએ જવાબ આપતાં કહ્યું–હે ભદત ! તે પૂર્વોક્ત વિશેષણ યુકત પુરૂષના ઉપકરણે-ધનુષ વગેરે સાધનેજીર્ણ હોવાથી લક્ષ્યવેધનમાં અસમર્થ છે. હવે ફરી કેશીશમણું તેને પ્રશ્ન કરે છે કે હે પ્રદેશિન! જે તે તરણ પુરૂષ યુગવાન વગેરે વિશેષણથી રહિત એટલે કે બાળ, અયુગવાન વગેરે વિશેષણથી યુકત હોય અને શરીર, ઈન્દ્રિય, બળ, બુદ્ધિ વગેરે રૂપ સાધને તેની પાસે અપર્યાપ્ત હેાય તે શું તે પાંચ બાણ છેડીને લક્ષ્યવેધન કરી શકશે? ત્યારે પ્રદેશીએ કહ્યું-કે નહિ, તે હે પ્રદેશિન્ ! એથી તમારે આ વાત માની લેવી જોઈએ કે શરીર ભિન્ન છે અને જીવ ભિન્ન છે. શરીર જીવરૂપ નથી અને જીવ શરીરરૂપ નથી. એ સૂત્ર ૧૪૦ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका मु. १४१ सूर्याभदेवस्य पूर्वभव जीवदेशोराजवर्ण नम्. २४९ उवागच्छइ अस्थि णं अते ! से जहानामए के पुरिसे तरुणे जाव निउणसिप्पोवगए पभू एणं मह अयभारगं वा तउयभारगं वा सीसगभारगं वा परिवहितए ? हंता पभू । से चेवणं भंते ! पुरिसे जुन्ने जराजजरियदेहे सिढिलवलिअतयां विणट्रगत्ते दंडपरिग्गहियगहत्थे पविरलपरिसडियदंतसेढी आउरे किसिए. पिवासिए दुब्बले छहापरिकिलते नो पभ एगं महं अयभारगं वा जाव परिवहित्तए जइणं भते! सञ्चव पुरिसे जुन्ने जराजजरियदेहे जावं परिकिलंते पभू एग मह अयभाहं वा जाव परिवहितए तो णं सदहेजा तहेव, जम्हा णं भंते ! से चेव पुरिले जुल्ने जाव किलते नो पभू एग महं अयभारंवा जाव परिवहित्तए, तम्हा सुपइट्रिया मे पइण्णा तहेव ॥ सू० १४१॥ छाया-ततः खलु प्रदेशी राजा केशिकुमारश्रमणमेवमवादीत-अस्ति खलु भदन्त ! एपा प्रज्ञात उपमा अनेन कारणेन नो उपागच्छति, अस्ति खलु भदन्त ! म यथानासकः कश्चित् पुरुषः तरुणः यावत् निपुण शिल्पो. 'तएणं पएसी राया' इत्यादि। मुत्रार्थ-(तएणं पएसी राया) तब प्रदेशी राजाने (के सिकुमारसमणं एवं वयासी) के शीकुमारश्रमग से ऐसा कहा (अस्थि णं भंते ! एसा पण्णाओ उवमा इमेण कारणेणं नो उवागच्छइ) हे भदन्त ! यह उपमा मझा. सेजन्य है अतः वाग्लविकी नहीं है, क्यों कि जो कारण में प्रदर्शित कर रहा हूँ उस कारण से सेरे हृदय में जीव और शरीर को भेद् नहीं जम - 'तएणं पएमी राया' इत्यादि । , सूत्रार्थ-(तए णं पएसी राया) त्यारे प्रदेशी २०१२ (केसिकुमारसमणं एवं वयासी) शीमा२ श्रमाने. २८ प्रमाणे :-(अस्थि णं भंते ! एसा पणा. ओ उधमा इमेण पुण कारणेण' नो उवागच्छइ) महत! २L GH પ્રજ્ઞાથી જન્ય છે એથી વાસ્તવિક નથી. કેમકે જે કારણ હું બતાવી રહ્યો છું તેથી, भास (यमा ७ मने २२नी मिन्नत मी थी. (अस्थिणं भंते !से जहा नामए केइ पुरिसे तरुणे जाव निउणसिप्पोवगए पथू एग म अयभारगं Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० राजप्रश्नीयसूत्रे पगतः प्रभुः एक महान्तमयोभारकं वा त्रपुकमारक वा शीशकभारक वा परिवोदुम् ? हन्त प्रभुः। स एव खलु भदन्त ! पुरुपः जीण जराजर्जरितदेहः शिथिलवलितत्वचाविनष्टगानः दण्डपरिगृहीताग्रहस्तः अविरलपरिश टितदन्त श्रेणिः आतुरः कृशः पिपासितः दुर्बलः क्षुधापरिक्लान्तः नो प्रभुरेकं पाता है (अस्थि णं भंते ! से जहानामए केइ पुरिसे तरुणे जाव निउणसि प्पोचाए पभू एगं महं अयभारगं वा तउयभारगंवा सीसगभारगं वा परिवहित्तए) वह कारण इस प्रकार से है-जैसे कोई एक पुरुष हो, और वह युवा यावत निघुगशिष्योपगत हो, अर्थात् सम्यग्ज्ञान सम्पन्न हो तो ऐसा वह पुरुष विशाल लोहे के भार को. त्रपुक के भार को शीशा के भार को वहन करने में समर्थ हो सकता है न ? तब के शीकुमारश्रमण ने उससे (इंता, पथू) हां, प्रदेशिन् ! ऐसा वह पुरुप उस लोहे आदि के विशाल भार को वहन करने में समर्थ हो सकता है। (से चेव ण भंते ! पुरि से जुन्ने जराज जरियदेहे सिढिलवलिअतयाविणगते दंडपरिग्ग हियग्गहत्थे) अब प्रदेशी राजाने केशीकुमारश्रमण से फिर ऐसा पूछाहे भदन्त ! वही पुरुप जब वृद्धावस्था को प्राप्त हो जाता है और जरा से जारित शरीर वाला होने के कारण शक्ति से शिथिल हो जाता है, त्वचा जिसकी झुर्रियों से युक्त हो जाती हैं और इसी से जिसको शारीरिक शक्ति प्रतिहत हो चुकी होती है, तथा दक्षिण हाथ में जो दण्डा लेकर चलने लगता है (पविरल परिसडियदतसेढी, आउरे, वा तउयभारगं वा सीसगभारगं वा परिवत्तिए) ते ४।२५ मा प्रमाणे छ. रेम કેઈ એક પુરૂષ હોય અને તે યુવા યાવતુ નિપુણ શિલ્પપગત હોય એટલે કે સમ્યક જ્ઞાન યુક્ત હોય તે એવો તે પુરૂષ વિશાળ ખંડના ભારને ત્રપુકના ભારને શીશાના ભારને વહન કરવામાં શું સમર્થ થઈ શકે છે? ત્યારે કેશીકુમાર શ્રમણે તેને (हंता पभू) , प्रशिन, वो ते ५३५ ते ५ वगेरेना विशाल मारने पान ४२वामी समर्थ थ छे. (से चेत्रणं भने ! पुरिसे जुन्ने जराजज्जरियदेहे मिहिलबलिअतयाविणगत्ते दंडपरिगहियग्गहत्थे ) हवे अशी मागभणे પ્રદેશી રાજાને આ પ્રમાણે પ્રશ્ન કર્યો કે હે ભદંત! તે જ પુરૂષ જ્યારે ઘરડો થઈ જાય છે અને વૃદ્ધાવસ્થાને લીધે જર્જરિત શરીરવાળો હોવાથી અશકત થઈ જાય છે, ચામડી જેની કરચલીઓથી યુકત થઈ જાય છે અને એથી જેની શારીરિક : શકિત પ્રતિહત થઈ જાય છે તેમજ જમણા હાથમાં જે લાકડી ઝાલીને ચાલવા લાગે છે. (पविरलपरिसडियद तसेढी, आउरे, किमीए, पिवासिए, दुव्बले छुहा. परिकिल ते नो पभू पग मह अयभारग वा जाव परिहिवत्तए) नीत Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सू. १४१ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २५ महान्तमयोभारकं वा यावत् परिवोदुम्, यदि खलु भदन्त ! स एव पुरुषः जीर्णः जराजर्जरितदेहः यावत् परिक्लान्तः प्रभुः एकं महान्तमयोभारकं वा यावत् परिवोदुम्. तदा खलु श्रध्यां तथैव, यस्मात् खलु सदन्तं ! स एव पुरुषः जीर्णों यावत् लान्तः नो मथुरेकं महान्त मयोभारं वा यावत् परिवोढुं तस्मात् लुप्रतिष्ठता मे प्रतिज्ञा तथैव ॥४० १४१॥ किसीए, पिवासिए, दुबले, छुहाकिलते पभू एग मह अयभारगं बा जाव परिवहित्तए) दांतों की पाक्ति जिसकी विरल हो जाती है, शटित हो जाती है, तथा काल, श्वास आदि से जो सर्वदा पीडित बना रहता है, और इसीसे जो कश एवं अशक्त वन जोता है, उठ करके पानी पीने तक भी शक्ति जिससे जाती रहती है, जो बिलकुल शक्ति रहित हो जाता है, भूख से जो-पीडित बन जाता है ऐसा वह पुरुष एक विशाल लोहे के भार को, पुक के भार को या शीशा के भार को वहन करने के लिये समर्थ नहीं रहता है। (जइ णं मंते ! सच्चेव पुरिसे जुन्ने जराजजरियदेहे जाव परिकिलंते पभू एग महं अयभारं वा जाव परिवहित्तए तो णं सदहेज्जा तहेव) यदि हे भदन्त ! वही पुरुप जीर्ण होने पर, जरा से जजेरित देह होने पर यावत् क्षुधा से परिक्लीन्त होने पर एक विशाल लोहमार को यावत वहन करने के लिये समर्थ बना रहता तो मैं आपके इस कथन पर कि जीव शरीर से भिन्न है और शरीर जीव से भिन्न है जीव शरीररूप नहीं हैं, शरीर जीवरूप नहीं है विश्वास कर लेता (जम्हा ण પંકિત વિરલ થઈ જાય છે, શટિત થઈ જાય છે, તેમજ કાસ, શ્વાસ વગેરેથી જે હંમેશા પીડિત રહે છે અને એથી જે કૃશ અને દુર્બલ થઈ જાય છે, ઉભા થઈને પાણી પીવાની પણ જેનામાં તાકાત હોતી નથી જે સાવ અશકત થઈ જાય છે, ભૂખથી જે પીડિત થઇ જાય છે એ તે પુરૂષ એક મોટા લોખંડના ભારને કે શિશાના मारने पडन ४२वामी समर्थ थ शत नथी. (जएण भते ! सच्चेव पुरिसे जुन्ने जराजज्जरियदेहे जाव परिकिलते पभू एग' मह अयभार वा जाव परिवहित्तए तो ण सदहेज्जा तहेव) B महत ! ५३५ ॥२॥ હોવા છતાં એ ઘડપણથી જર્જરિત શરીરવાળા હોવા છતાં એ યાવતું ભૂખથી પરિકલાંત હોવાં છતાં એક ભારે જોખંડના ભારને યાવત્ વહન કરવામાં સમર્થ થઈ શકત તો હું તમારા જીવ શરીરથી ભિન્ન છે અને શરીર જીવથી ભિન્ન છે, જીવ શરીર રૂપ નથી અને શરીર જીવ રૂપ નથી આ કથર પર વિશ્વાસ કરી લેત, Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोजप्रश्नीयसूत्रे टीका-"तए णं पदसी इत्यादि-ततःखलु प्रदेशी राजा केशिकुमारश्रमणम् एवमवादीत्-एपा-इयम् उपमा प्रज्ञातः अस्ति अनेन वक्ष्यमाणेन पुनः कारणेन नो उपागच्छति-न संगच्छति, तदेवाऽऽह-एव खलु हे भदन्त ! स यथानामकः कश्चित् पुरुषः तरुणा: यावत्-यावत्पदेन-अनन्तरसूत्रे संगृहितानि युगवान् बलवानित्यादीनि पदानि संग्रहीतव्यानि, तदर्थश्च सप्तमसूत्रतो बोध्यः, निपुणशिल्पोपगतः-सम्यग्विज्ञानसंम्पन्नः, एतादृशः पुरुषः एक महान्त-विशालम् अयोभारकस्-लोभार पुकभारकं-धातुविशेषभार वा शीशकभारकं वा परिवोदु-नेतुं प्रभुः-समर्थः स्यात् ? इति प्रदेशिप्रश्न: - केशीश्रमणः कथयत्ति-हन्त ! हे राजन्! प्रभु-समर्थः स्यात् । हे अदन्त ! । भंते ! से चेत्र पुरिसे जुन्ने जाब किले नो पभू एग मह अयभार या जाव परिवहितए, तम्हा सुपहिया मे पडण्णा तहेव) जिस कारण से हे भदन्त ! वही पुरुष जीर्ण यावत् हो जाने पर एक विशाल लोहमारको यावत वहन करने के लिये समर्थ नहीं होता है-इस कारण से मेरा यह मन्तव्य जीव और शरीर के एक होने का सुप्रतिष्ठित है अर्थात् वहीं जीव और वही शरीर है, जीव भिन्न नहीं है और शरीर भिन्न नहीं है ऐसा मेरा मन्तव्य सत्य है। .. टीकार्थ--इस मूलार्थ के जैसा ही है. 'तरुणः यावत् लिपुणशिल्पोपगतः' में जो यह यावत्पद आया है. उससे अनन्तन सूत्र में संगृहीत युगवान बलवान् इत्यादि पद यहां गृहीत हुए हैं। इन पदों का अर्थ सप्तम । सूत्रकी टीका में लिखा जा चुका है, अतः वहीं से यह जानना चाहिये 'अयभारग (जम्हाणं भंते ! से चेब पुरिसे जुन्ने जाव. किलंते नो पभू. एग मह . अयभारं वा जाव परिवहितए, तम्हा सुपहिया मे पडण्णा तहेव) २. .. शुथी 3 Rk ! ते८ ५२५ यु (३२७) यावत् थ पाथी न्ये विशाmar ડના ભારને યાવતું વહન કરવામાં સમર્થ થઈ શકતો નથી તે કારણથી જ જીવ અને શરીર એકજ છે એવી મારી ધારણું સુપ્રતિષ્ઠિત જ છે. એટલે કે જીવ અને શરીર બને એકજ છે. જીવ ભિન્ન નથી અને શરીર ભિન નથી આ મારી માન્યતા ગ્યજ છે. टाथ-मा सूत्रन टी मृदा वा ४ छ. 'तरुणः यावत निपुणशिल्पो. - पगतमा २ यावत् १६ वे छ तेथी bile ०४२या-ये सहीत युगवान्, બળવાન વગેરે પદ અહીં સંગૃહીત થયાં છે. આ પદનો અર્થ સાતમા સૂત્રની * ટીકામાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે. એથી ત્યાંથી જ જાણવા પ્રયત્ન કરે જઈએ. Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सू १४२ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशीराजवर्णनम् स एव भारवाहकः पुरुषो जीर्णः-द्धोपस्यां प्राप्तः अत एव जराजर्जरितदेहःवृद्धावस्थामन्दशरीरशक्तिकः शिथिलवलितत्वचाविनष्टगात्र:-शिथिला अतएव बलिाना--वलियुक्ता त्वचा--चर्म तया विनष्टगात्र:--प्रतिहतशरीरसामर्थ्यः दण्डपरिग्रहीताग्रहस्त-अग्रहस्तेन-हस्ताग्रभागेन परिगृहीत:धोरितो दण्डो येन तथा, प्रपिरलपरिशटितदन्तश्रेगि:-प्रविरलो-अत्यन्ताल्पा. शटिना च दन्तश्रेणिः--दन्नति यस्य स तथा, आतुरः कासश्वासादिपीडितः, कृशः-अशक्तः, पिपासितः उत्थाय जलं पातुमप्यसमर्थः, दुर्बलः बलहीनः क्षुधापरिक्लान्तः-क्षुधापरिपीडितः, एतादृशः पुरुप : एक महान्तमयोभारक वा यावत्-'यावत्' पदेन-त्रपुकमारक वा शीशक भारक वा परिवोदुनो प्रसुः-समर्थो न भवति. पुनः प्रदेशी पाह-मदन्त ! यदि खलु स एच. पुरुपो जीर्णः जराजर्जरितः यावत् क्षुधापरिक्लान्तः एतादृशः पुरुषः एक महान्तमयोभार वा यावत् शीशकभारा परिवोटु प्रभुः स्यात् तदा खलु अहं श्रद्दध्यां तथैव-अन्यो जीवः अन्यच्छरीरम् नो तज्जीवः स शरीरम्, इति । अथ पुनः प्रदेशी पाह-हे भदन्त ! यस्मात कारणात खलु स एव पुरुषः जीण: क्षुधापरिक्लान्तः एक महान्तमयो- भार वा यावत् शीशकभार वा' इत्येतत्कारणात् परिवोढुं नो प्रभुः-समर्थो न भवति, तस्मात् कारणात् मे-मम प्रतिज्ञा स्वीकारः, सुप्रतिष्ठिता-स्थिरा, तथैव-तज्जीवः स शरीरम्, नो अन्यो जीवोऽन्यच्छरीरमिति ॥सू १४१॥ म्लम्-तए णं केसीकुमारलमणे पएसि रायं एवं वयासीसे जहानोमए केइ पुरिसे तरुणे जाव सिप्पोवगए णवियाए विहंवा जाव परिवहितए' में आये हुए यावत्पद से 'त उग भारगवा' सीसग भारगं वा इन पदों का संग्रह हुआ है। इस मूत्र का भावार्थ ऐसा है कि युवादि विशेषणों वाला जो जीव है वही जीव अयुवादि विशेषणों वाला भी है अतः वह वही जीव है और वही उसका शरीर है ये दोनों भिन्नर नहीं हैं। यही वात प्रदेशीराजाने इस मूत्र से प्रमाणित की है ॥सू. १४१॥ 'अयभारगं वा जाव परित्रहिन्तए' मा आवेदी यावत् पहथी 'तउगभारगं वा सीसगभारगं वा' मा ५होने। सड थये। छ. 20 सूत्री मावा या प्रमाणे છે કે યુવા વગેરેથી યુકત વિશેષણવાળો જે જીવ છે તેજ જીવ અપવા વગેરે વિશેષણથી પણ સંપન્ન છે. એથી તે તેજ જીવ છે અને તેનું શરીર પણ તેજ છે એઓ બન્ને જુદાં જુદાં નથી પ્રદેશ રાજાએ એજ વાત આ સૂત્રથી પ્રમાણિત કરી છે. સૂ૦ ૧૪૧ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ पजिप्रश्नीयसूत्र गियाए णवएहि सिकाएहिं णबपहिं पच्छियपिंडएहिं पह एग मह अयसारं जाव परिवहितए ? हन्ता पभू। पारसी ? से चेव णं पुरिमे तरुणे जाव सिप्पोवगए जुलियाए दुबलियाए घुणकवड्याए विह गियाए जुण्णएहिं दुबलएहि घुणखइएहि सिदिलतयापिणद्धाहि सिकएहि जुण्णएहि दुव्बलएहि घुणक्खइएहि पच्छियपिंडएहिं पभू एगं मह अयभारवा जाव परिवहित्तए ? जो इण सम । कम्हाणं भंते! तस्त पुरिसस्त जुण्णाई उवगरणाई भवति । पएसी ? से चेव पुरिसे जुन्ने जाव हाकिलंते जुन्मोवभरणे नो पथू एग महं अयसारं वा जाव परिवहितए, तं सदहाहि णं तुम पएसी जहाअन्नो जीवो अन्नं सरीरं ॥सू० १४२॥ छाया-ततःखलु केशीकुमार श्रमणः प्रदेशिन राजानमेवमवादी-स यथानामकः कश्चित् पुरुपः तरुणो यावत् शिल्पोपगतः नविकया विहङ्गिकया नवकाभ्यां शिक्यकास्यां नवकाभ्यां पक्षिपिटकाभ्यां प्रमुः एक महान्तमयोभार यावत् परिचोढुम् ? हन्त ? प्रभुः प्रदेशिन ! स एव खलु पुरुपः 'तए णं के सीकुमारसमणे' इत्यादि। . सूत्रार्थ-(तए णं केसीकुमारसमणे पएसिं राय एवं वयासी) के शीकुमार श्रमणने प्रदेशी राजा से ऐसा कहा-(से जहानामए केह पुरिसे तमणे जाव सिप्पोवगए णवियाए विह गियाए णव एहिं सिकएहिं णवएहि पच्छियपिंडाएहि पहू एग महः अयभार जाव परिवहितए ?) जैसे कोई एक पुरुष हो और वह तरुण यावत् शिल्पोपगत हो, ऐसा वह पुरुप नवीन विहगिका 'तएणं के सी कुमारसम्मणे' इत्यादि । सूत्रार्थ-(तए णं केसीकुमारसमणे पए सिं राय एवं क्यासी) प्यार पछी शोभा२श्रभो अशी ने मा प्रमाणे ४ह्यु-(ले जहानामए केइ पुरिसे तरूणे जार सिप्पोवगए णवियाए विहंगियाए णवाह मिक्कए हिं, णवएहिं पच्छियपिंड पहू एगं सह अयभारं जाव परिवहित्तए ?) भ ગમે તે-કોઈ પુરુષ હોય અને તે તરુણ યાવત્ શિપગત હૈય, એવો તે પુરૂષ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनो टोका सू. १४२ सूर्णभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २५९ तरुणो यावत् शिल्पोपगतः जीण या दुलिया घुणवादितया विहङ्गिकया जीर्ण काभ्यां दुर्बलकाभ्यां घुण खादिताभ्यां शिथिलत्वचापिनद्धकाभ्यां शिक्य काभ्यां जीणकाभ्यां दुईलिकामा घुण खादिताभ्यां पक्षितपिटकाश्यां प्रभुः एकं महान्तमयोभार वा यावत् परिवोढुम् ? नो अयसर्थः समर्थः से भारयष्टि का से (कावड से), नवीन सिक्यकाओं से नवीन पक्षितपिटकाओं से एक विशाल लोहमार को यावत त्रपुमार को अथवा शीशक भार को वहन करने में समर्थ होता है न? तब प्रदेशी राजाने कहा(हता, पभू) हां, भदन्त ! ऐसी वह पुरुष उसे वहन करने में समर्थ होता है। (पएसी! से चे। णं पुरिले तरूणे जाव सिप्पोचगए दुब्बलियाए घुणक्खइयाए विहंगियाए जुण्णएहिं दुयलिए हिं, घुणकखइएहि, सिढिलतया पिणद्वएहि, सिक्कएहि दुबलिहिं जुष्णेहिं घुणक्खएहि पच्छियपिंडएहि पभू एग मह अयभारं वा जाव परिवहितए) हे प्रदेशिन् ! अब मैं तुम से ऐसा पूछता हूं कि वही तरुणापुरूप जो यावत् निपुणशिल्पोपगत है जीर्ण दुवेल, घुन ले खाई हुई मारयष्टि से, तथा जीण, दुर्वल और धुन से खाई हुई तथा शिथिल त्वचा से पिनद्ध हुई ऐसी शिक्यकाओं से, एवं दुर्वलिक, घुण खादितऐमो पक्षितपिटकाओं से एक विशाल लोहमार को अथवा भार को या शीशक मार को वहन करने में समर्थ हो सकता है ? प्रदेशीने कहा-(णो हण्टे समठे) हे भदन्त ! यह अर्थ समर्थ નવીન વિહંગિકાથી ભારષ્ટિથી (કાડથી) નવીન સિકયકાથી નવીન પક્ષિતપિટકઓથી એક વિશાળ ખંડના ભારને યાવત્ ત્રિપુભારને અથવા શીશક ભાર વહન ४२पामा शु समय ४४ छ ? त्यारे अशी २२००२ये ह्यु-(हंता, पथू) i', मत ! वो ते ५३५ ते पहन ४२वामा समथ थ श छ. (पएसी ! से चेव णं पुरिसे तरुणे जाव सिप्पोरगए, जुन्नियाए, दुबलियाए घुणक्खयाए विहंगियाए, जुण एहिं, दुबलि एहि. घुणकखइएहि, रिपहिलतया पिणद्धएहि, सिक्करहिं जुण्णेहिं दुयलिएहि घुणक्खइएहि पच्छियपिंडएहिं पभू एगं महं अयभार वा जाव परिवहितए) 3 प्रशिन् ! वे तमने टु माम प्रश्न ४३ छु ते ॥ १३॥ ५३५ २ यावत् निपुण शिल्पायात छ. ण हु , ઉધઈ ખાધેલી ભારષ્ટિથી (કાવડથી) તેમજ જીર્ણ, દુર્બળ ઉઘેઈટ ખાધેલ તેમજ શિથિલ ત્વચાથી પિનદ્ધ થયેલ એવી શિકયકાઓથી અને દુર્બલિક, ઉધઈ ખાદેલ એવી પક્ષિતપિટકાઓથી એક મોટા લોખંડના ભારને અથવા ત્રપુભારને કે શીશકભારને વહન ४२पामा शुसमर्थ २७ ? प्रदेशीये ४युं (णो इणले समहे) इ महत ! Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ राजनीयम् कस्मात् ? भदन्त ! तस्व पुरुषस्य जीर्णानि उपकरणानि भवन्ति ममेशिन् ! स एव पुरुषः जीर्णो यावत्धापरिक्ान्तः जीर्णोपकरणः ना मधुः एक महान्तमयो भार वा यावत् परिवोदुम् तत् श्रद्धेहि ख त्वं प्रदेशिन ! यथा - अन्यो जीवः अन्यत् शरीरम् ६ | || मृ० १४२ ॥ 3 नहीं है- अर्थात् वही युवादि विशेषणों वाला पुरुष जीर्णादि विशेषणांवाली विङ्गिकादि (ड) द्वारा विशाल लोहार को वहन नहीं कर सकता है। केशीकुमार श्रमणने पूछा- (कम्हा) वह ऐसा किस कारण से नहीं कर सकता है। तब प्रदेशीने कहा - ( भंते ! तस्स पुरिसम जुग्णाई' उनगरणाई भवति) हे भदन्त ! लोह भार आदि को वहन करने के जो उसके साधन हैं-वे जीर्ण हैं । (पएसी से चैव पुरिसे जुन्ने जाव छापरिकिलंते जुन्नोवगरणे पभू एंग मह अयभार वा जाव परिवत्तिए - तं सद्दहाहि गं तुम पएसी अन्नो जीवो अन्नं सरीर) पुनः केशी ने मदेशी से पूछा- हे प्रदेशिन् ! यदि वही पुरुष जीर्ण, वृद्ध यावत् १४१चे सूत्र में कथितविशेषणोंवाला एवं क्षुधा परिक्लान्त हो जाता है वह जीर्णोरकरण वाला होने से शरीर पल वृद्धि आदि उपकरणों की जीर्णतावाला होने से एक विशाल अयोआर को यावत् शीशक भार को वहन करने में समर्थ नहीं होना है युवावस्था और वृद्धावस्था में जीव की समानता होने पर भी उपकरण के अभाव से वृद्ध भार को वहन करने के लिये समर्थ नहीं होता है. इस कारण हे प्रदेशिन ! આ અર્થ સમ નથી. એટલે કે તેજ યુવા વગેરે વિશેષણાથી યુકત પુરૂષ છ વગેરે વિશેષણાથી યુકત વિહંગિક (કાવડ) વગેરે વટ વિશાળ લાખડના ભારને વહુન ન કરી શકે તેમ છે. કેશીકુમાર શ્રમણે કહ્યું. (1) તે આમ શા કારણથી નહિ मेरी शडे ? त्यारे प्रदेशी (भंते! तरस पुरिसम्स जुण्णाई उनगरणाह भवंति) हे लढ'त! लोग उना लार वगेरेने वहन श्वानाने साधनों है ते छर्छु है. (१ एसी से चेत्र पुरिसे जुन्ने जात्र छुकापरिकिल ते जुन्नोवगरणे नो पभू एगं मई अयभारं वा जाव परिवत्तिए - तं सदहाहि मं तुमं पएसी अन्तो जीवो अन्नं सरीरं) इरी देशीये प्रदेशीन या प्रमाणे प्रश्न हे अहेशिन् ! જે તે જ પુરૂષ જીણું વૃદ્ધ યાવત્ ૧૪૧ માં સૂત્રમાં આવેલ વિશેષણેાથી સંપન્ન હાંય ક્ષુધા પરિકલાંત થઇ જાય છે તે તે છ પકરણવાળા હેાવાથી-શરીર બળ બુદ્ધિ વગેરે ઉપકરણા છ હાવાથી એક વિશાળ લેાખડના ભારને યાવત્ શીશકભારને વહન કરવામાં સમથ થઇ શકે તેમ નથી. યુવાવસ્થામાં અને વૃદ્ધાવસ્થામાં જીવની સમાનતા હેાવા છતાં એ ઉપકરણના અભાવે વૃદ્ધ ભારને વહન કરવામાં સમર્થ થઈ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबधिनीटीका. सूत्र १४२सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २५७ टीका-"तए ण केसी कुमारसमणे" इत्यादि-ततः खलु केशी कुमा. रश्नमणः प्रदेशिनं राजामम्, एवमवादीत-स यथानामकः कश्चित्-कोऽपि पुरुषः तरुणः यावत्-निपुण शिल्पोरगतः नविकया-नूतनया विहङ्गिकया-भार• यष्टिकया-शिक्यावलम्बनदण्डविशेषरूपया नवकाभ्या-नवीनाभ्यां शिक्यकाभ्यां नवकाभ्या-नूतनाभ्यां पक्षितपिटकाभ्यां-वंशवेत्रादिनिर्मितपात्रविशेषाभ्याम् एक महान्तमयोभार' वा यावत् त्रपुभार वा शीशकभारवा एतादृशमयो भारादिक परिवोढुं प्रभुः-समर्थः स्यात् ? इति केशिप्रश्नः, प्रदेशी प्राइइन्त ! प्रभुः-समर्थः स्यात् ! केशीकथयति-प्रदेशिन् ! स एव खलु पुरुषः तरुणः यावत् निपुणशिल्पोपगतः, एतादृशः पुरुषः जीण या दुर्वलिकयानिःसत्वया घुणखादितया-काष्ठकीटभक्षितया-विहङ्गिकया-आरयष्टया तथाजीर्णकाभ्यां-दुर्बलिकाभ्यां घुणवादिताभ्यो शिथिलत्वचापिनद्धकाभ्यांशिथिलदवरिकायद्धाभ्यां शिक्यकाभ्यां, तथा दुईलिकाभ्यां घुणखादिता. भ्यां पक्षितपिटकाभ्याम् एकं महान्तमयोभार वा यावत् त्रपुभार' वा शीशकभार वा परिवोढुं प्रभुः-समर्थः स्यात् ? । प्रदेशी पाह-नो अयमर्थ:समर्थः- पूर्वोक्तसाधनैर्भारो वोढुं न शक्यत इत्यर्थः। केशी श्रमणो हेतु पृच्छति-कस्मात्कारणात ? । प्रदेशी कश्यति-हे भदन्त ! तस्य पूर्वोक्तस्य तरुणतादिविशिष्टस्य पुरुषस्य उपकरणानि जीर्णानि भवन्ति सन्ति, उपकरणानां जीर्णत्वादिकारणान्नायोभारादिपरिवहनयोग्यता, इतिभावः । केशी तुम मेरे वचन में विश्वास करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, वह. जीवरूप नहीं है और न जीव शरीररूप है.। टीकार्थ--स्पष्ट है यहां जो 'विहगियाए. सिक्कएहिं, पच्छियपिंडएहि ये शब्द आये है वे भार उठाने के अर्थ में आये हैं। वंश, वेत्र आदिकों से निर्मित पात्र विशेषका नाम पक्षितपिटक है. तात्पर्य इस सूत्र का ऐसा શક્તિ નથી. એથી હે પ્રદેશિન! તમે મારી વાત પર વિશ્વાસ કરો કે જીવ અન્ય છે, અને શરીર અન્ય છે, શરીર જવરૂપ નથી અને જીવ શરીર રૂપ નથી. टी-२५ट ४ छ. ('विहगियाए, सिक्कएहि, पच्छियपिडएहिये શબ્દ આવેલ છે. તે ભાર વહન કરવા માટેના વિશેષ સાધનોના અર્થમાં પ્રયુકત કરવામાં આવ્યા છે. વંશ, વેત્ર વગેરેથી નિર્મિતપાત્ર વિશેષણનું નામ પક્ષિતપિટક છે. આ સૂત્રને સંક્ષેપમાં ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે કે સમર્થ પુરૂષ જે ઉપકરણે Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ राजप्रनीयसूत्रे " माह - हे पदेशिन् ! स एव पुरुषो यदि जीर्णः - वृद्धः यावत् त्रिचत्वारिंशदधिकशततमसृत्रोक्त विशेषणविशिष्टः पुनः क्षुधापरिक्लान्तः क्षुधाखिन्नः, एतदृश: पुरुषो, जीर्णोपकरणः शरीरबल बुद्धद्याप करणरहितो भवति तदा एक महान्तमयोभार' वा यावत्-शीशकभार वा परिवोढु ं न प्रभुः-न समयो भवति, तारुण्ये वार्धक्ये च जीवस्य समानत्वेऽपि उपकरणाभावान्न वृद्धो भार बोढुं समर्थो भवतीति भावः । तत् तस्मात् कारणात् हे प्रदेशिन् । त्वं श्रद्धेहि मद्वचने विश्वसिहि यथा अन्यो जीवः अन्यच्छरीरम् नो तज्जीवः स शरीरम, इति ६ | |म्० १४२ ॥ 60 मूलम--तए णं से पएसी के सिकुमारसमणं एवं वयासी अस्थि पणं भंते ! जाव नो उवागच्छइ, एवं खलु भते । जोव विहरामि, तणं मम जगरगुत्तिया जाव चोरं उवर्णेति, तएणं अहं तं पुरिसं जीवतगं चेव तुलेमि, तुलेत्ता छबिच्छेयं अकुव्वमाणे जीवियाओ ववरोवेमि मयं तुलेमिणो चेवं णं तस्स पुरिसस्स जीवंतस्स वा तुलियस्स वा मुयस्स वा तुलियस्स केइ आणाते वा नाणत्ते वा उम्मत्तत्ते वा Sahil Champs हैं कि समर्थ पुरुष उपकरणों को बलवत्ता में लोहे आदिरूप भार की उठा सकता है. तथा वही समर्थ पुरुष उपकरणों की असमीचीनता में लोहे आदिरूप भार को नहीं उठा सकता है, तथा वही पुरुष वृद्धावस्थापन्न होने पर भी अयभार को नहीं उठा सकता अतः इससे यही प्रतीत होता है कि जीव की समानता होने पर भी उपकरणों की असमानता में भारवहन नहीं होता है- इससे यहि मानना चाहिये है और शरीर भिन्न है । ६ ॥ म्रु १४२ ॥ સશકત હોય તે લેાખંડ વગેરેના ભારને વહન કરી શકે છે. તથા તેજ સમથ પુરૂષ જો ઉપકરણે અશકત અસમીચીન-હાય તે લેખડ વગેરે રૂપ ભારને વહન કર શકે તેમ નથી. તેમજ તેજ પુરૂષ વૃદ્ધાવસ્થાપન હેાવાથી લોખંડના ભારને વહન કરી શકે तेभ नथी. ૧. એથી આ વાત સ્પષ્ટ થાય છે કે જીવની સમાનતા હોવા છતાં मे ७५४६ो। (साधना)ना असमानताने सीधे लारनु बहन पुरी शाय तेम नथी એથી આ વાત માની લેવી જોઈએ કે જીવ ભિન્ન છે અને શરીર ભિન્ન છે.।૬।૧૪રા Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ma . . . माम . . . . -- - जुबोधिनी टीका सू. १४३ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवण नम् "तुच्छत्ते वा गुरुयत्ते वा लहुयत्ते वा, जइ णं भते ! तस्ल पुरिसस्स जीवंतस्स वा तुलियस्त मुयस्स वा तुलियस्स होज्जा केइ नाणत्ते वा जाव लहुयत्ते वा तो गं अहं सदहेजा तं चेव, जम्हा णं भंते ! तस्स पुरिसस्स जीवंतस्स वा तुलियस्स मुयस्स वा नुलियस्त नस्थि केइ नन्नत्ते वा जाव लहुयत्ते वा तम्हा सुपइदियो मे पइण्णा जहा तं. जीवो त चेव ।।सू० १४३ ॥ - छाया-ततः खलु स प्रदेशी के शिकुमारश्रमणमेवमवादीत-अस्ति खलु... भदन्त! यावत: नो उपागच्छति, एवं खलु भदन्त! यावद विहरामि, ततः खलु मम नगरगुप्तिकाः यावत् चोरमुपनयन्ति, ततः खलु अहत पुरुपं जीवि - तकमेव तोलयामि तोलयित्वा छविच्छेदम् अकुर्वाणः जीविताद् व्यपरोप: तए णं से पएसी इत्यादि । मुत्रार्थ- (तए णं से पएसी केसिकुमारसमणं एव वयासी) इसके वाद उस मदेशीने केशीकुमारश्रमण से एसा कहा-(अस्थि ण भते जाव नो उवागच्छद) हे भदन्त ! यह उपमा बुद्धि जन्य है अतः वास्ता विक नहीं है. मुझ. इस वक्ष्यमाण कारण से जीव और शरीर का भेद प्रतीत नहीं होता है (एवः खलुभाते-जाव विहरामि) वह कारण इस प्रकार से है-एक दिन की बात है कि मैं गणनायक आदिकों के साथ बाह्यउपस्थानशाला में बैठा हुआ. था. (तएणं मम जगरगुत्तिया जाव चोर उव.. णे ति) इतने में मेरे नगररक्षक साक्षियुक्त आदि विशेषण संपन्न किसी एक.. चोर को पकड कर ले आए (तए णं अहं तं पुरिसं जीवितगं चेत्र तुलेमि): तएणं से पएसी' इत्यादि । सूत्रार्थ-तए ण से :पएसी के सिकुमारसमगं एवं वासी) या पछी ते अशी. सन 20 मार श्रमाने २मा प्रमाणे यं. (अस्थिभंते जाव नों उचागच्छइ) मत ! मा उपमा गुद्धिन्य छ मेथी वास्तवि: नथी. पक्ष्यमा २६थी मने शरीरनी मिन्नत मा। मनमा मती नथी. (एवं खलु .भंते !' जाव विहरामि) ते २९] २मा प्रभारी छ-मे हिवसनी वात छ गना वगेरे.. नी साथे गाव उपस्थानशा (मानी ध्ये)मा मेटे हुतो. (एमं मम गंगर-. गुत्तिया जाव चोर उवणेति) ते quते भा। ना२२क्ष सालित वगैरे विशेषणाथी संपन्न 1 मे या२ने पडसाव्या. (त एणं अहं तं पुरिस "DARA Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - राजप्रश्नीयस यामि मृत तोलयामि ने चैत्र खलु तस्य पुरुषस्य जीवतो वा तोलितस्य मृतस्य वा तोलितस्य किञ्चित् नानात्व' वा उन्मात्रत्व वा तुच्छत्व वा गुरुकत्वं, घा लघुक त्वं वा, यदि खलु भदन्त ! तस्य पुरुषस्य जीवतो वा तोलितस्य मृतस्य वा तोलितस्य भवेत किञ्चित् नानात्वं वा यावत् लघुत्व वा तदा खलु अहं श्रद्दध्यां तदेव, यस्मात् खलु भदन्त ! तस्य पुरुषस्य जीवतो वा उसे मैंने जीवित ही तोला (तुलेत्ता छविच्छेय अकुचमाणे जीवियाओ ववरोवेमि, मयं तुलेमि) तोल कर फिर मैंने उसे अंग भंग किये बिना जीवन से रहित कर दिया और फिर मरे हुए उसे तोला (जो वेवणं... सस्स पुरिसस्स जीवंतस्स वा तुलियस्स मयस्स वा तुलियस्स केइ नाणसे वा उम्मत्तत्ते वा तुच्छत्ते वा गुरुयत्ते वा लघुयते वा) तय जीविततुले हुए उसमें और मरे तुले हुए उसमें मुझे किसी भी तरह की न्यूनाधिकता नहीं दिखाई दी. न उस में भार वढा न वह उसका भार कम हुआ नउसमें गुरुता आई न उसमें लघुता आई. (जइ णं भंते। तस्स पुरिसस्स जीवंतस्स वा तुलियस्स. मयस्स वा तुलियस्स वा होज्जा केई नाणो वा जाव लघुयत्ते. वा) हे मदन्त! जीचिततुले हुए और मरे तुले हुए उस पुरुष में यदि कोई न्यूनाधिकता : हो जाती यावत् लघुता हो जाती (तो णं अहं सदहेजा तं चेव) तो मैं श्रदा कर लेता कि जीव अन्य है, और शरीर अन्य है वह जीव शरीर नहीं है. वह शरीर जीव नहीं है. जीवितग चेव तुलेमि) में भवितावस्थामा त यु. (तलेताछविच्छेय : अकुचमाणे जीवियाओ ववरोवेमि, मयं तुलेमि) तीन - पछी मैं तेने અંગ ભંગ ક્યાં વગર જ જીવન રહિત બનાવી દીધું અને મર્યા પછી. २री ते में न ४२व्यु: (णो चेव णं तस्स पुरिसस्स जीव तस्स चो तुलि. यस्स मयस्स वा तुलियम्स केइ नाणत्त वा उम्मत्तत्त वा तुच्छत्त वा गुरुयत्ते वा लधुयत्त वा) त्यारे तi aorशयेसा तभी अने मृत्यु पाभ्या . પછી વજન કરાયેલા તેમાં મને કઈ પણ જાતની ન્યૂનાધિકતા લાગી નહીં, તેમાં ભાર” पधारे ५५ थयो। नही, मने तमाथी मार: माछ। ; पण थयो :ना. तेमां शु३ता : गावी नथी. तभ. तभा . Aधुता पशुः : मापी नथी. (माइणं मते ! तस्स पुरिसस्प जीवंतस्म वा तुलियस्त मयस्स बा तुलियस्स पा होज्जा केई नाणत्त वा जाव लहयत्त चा) मत ! पीतावस्थामा કરેલા વજનમાં અને મૃતાવસ્થાવામાં કરેલા તે ચેરના વજનમાં જે કંઈ પણ જાતની न्यूनाधिरता था त यावत् सधुता 25. Md. (तो गं अई. सदहेज्जा त चेव) : Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुयोधिनी टीका. १४० सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिरजवर्ण नम् २६१ तोलितस्य मृतस्य वा तालितस्य नास्ति किञ्चित् नानात्व वा यावत् लघु...। कत्व वा। तस्मात् सुप्रतिष्ठिता में प्रतिज्ञा यथा-तज्जीवः तदेव ।।मू०१४३।। टीका-'तए णं से पएसी' इत्यादि ततः तदनन्तर खलु स प्रदेशी.राजा केशि कुमारश्रमणम्, एवमवादीत हे भदन्तं! अस्ति खल यावत यात्पदेन 'एपा प्रज्ञा-:: तउपमा अनेन पुनः वक्ष्यमाणेन कारणेन' इत्येषां पदानां सहः एतद्वि-वरणं पूर्व तर (१४०) चत्वारिंशदधिकैशशततमसूत्रे कृतम्, नो उपाग च्छति-जीवशरीरयोः परस्पर भेदो मे-मम मनसि न संगच्छते । तदे जम्हा णं भते ! तस्स पुरिसस्स जीव तस्स वा तुलियस्स मयस्स वा तुलियस्स नत्थि केइ नन्नत्थे वा जाव लहुयो वा, तम्हा सुपहटिया में पइण्गा जहातं. जीवो तं चेव) जिस कारण हे भदन्त ! जीते हुए तोले गये उस पुरुष में और मरे हुए तोले गये उसी पुरुष में जब कोई भिन्नतान्यूनाधिकता यावत् लघुना मैं नहीं देखता हूं-उस कारण से मेरा यहः . मन्तव्य कि वही पूर्वोक्त जीव है और वही शरीर है, न अन्य जीव है, और न अन्य शरीर है सुस्थिर है। . . . टीकार्थ--केशीकुमार श्रमण का जीव शरीर भिन्नता-विषयक कथन सुनकर प्रदेशी राजाने उनसे इस प्रकार कहो-हे भदन्त ! आपने जो यह उपमा जीव शरीर की भिन्नता प्रकट करने के लिये प्रकट की है. बह... केवल उपमामात्र है-बुद्धिजन्य होने से वास्तविक नहीं है. अतः जो बात - તે હું આ વાત પર શ્રદ્ધા કરી શકત કે જીવ અન્ય છે અને શરીર અન્ય છે. તે જીવ શરીર नथी ने AA२ ०4. नथी. (जम्हा ण भते ! तम्स पुरिसस्स जीव, तस्स वा तुलियस्स मयस्स वा तुलियस्स नत्थि केइ नन्नत्थे वा जाव लहुयते वा, तम्हा सुपइंडिया मे पइण्णा जहा, तंजीयो त चेत्र) Pथी . ભતી જીવીતાવસ્થામાં વજન કરાયેલ તે પુરૂષમાં અને મૃતાવરથામાં વજન કરાયેલ તેજ પુરૂષમાં જ્યારે કોઈ પણ જાતની ભિન્નતા-ન્યૂનતાધિકતા યાવતું લઘુતા મારા ધ્યાનમાં આવતી નથી તેથી મારી એવી માન્યતા છે કે જે જીવ છે તે જ શરીર છે. ०५ भन्य नथी तभा शरी२ ५४ अन्य नथी. ... . . ટીકાથ- કેશી કુમારશ્રમણનું જીવ શરીર ભિન્નતા સંબંધી કથન સાંભળીને પ્રદેશી રાજાએ તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દંત! તમે જીવ અને શરીરની ભિન્નતા સ્પષ્ટ કરવા માટે જે ઉપમા આપી છે તે માત્ર ઉપમા જ છે. તે બુદ્ધિ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ - राजप्रश्नीयसूत्रे वाऽऽह-एवं खलु हे भेदात ! यावा-यावत्पदेन वायायामुपस्थानशाला यामनेकगण नायक-दण्डनायक-राजेश्वर-तलबर-माडम्बिक-कौटुम्बिकेभ्यः श्रेष्ठि-सेनापति-सार्थवाह-मन्त्रि-महामन्त्रि गणक-दौवारिकामात्य-चेट पीठमर्द नगरनिगमदूतसन्धिपालैः साई संपरितः" इत्येवा पदानां सङ्ग्री वोध्या, एपी व्याख्या पत्रिंशदधिकशतनममत्र गता। विहामि-तिष्ठाभि,' iv ... . .... मैं कह रहा हूं उससे इन दोनों की अभिन्नता ही प्रकट होती है, यह बात इस प्रकार से है-मैं एक दिन गणनायक आदिकों के साथ अपनी बाय उपस्थान शाला में बैठा हुआ था. नगर रक्षक एक चोर को पकड.. कर मेरे समक्ष लाये-मैं ने उसे पहिले तो जीवितावस्था में तोला, बाद में उसे मार कर तोला. तोलने पर उसके भार में कुछ भी न्यूनाधिकता नहीं आई. अंतः इससे मैं इसी निष्कर्ष पर पहुँचा हूं कि उस चोर का वहीं जीव है और वही शरीर है. न जीव अन्य है और न शरीर अन्य है। यहां 'जाव नों उवागच्छड़' में जो यावत्पद आया है उससे 'एपा प्रज्ञात उपमा, अनेन पुनः वक्ष्यमाणकारणेन' इस पाठका संग्रह हुआ है। इनका विवरण १३८वें मूत्र में किया जा चुका है। "जा विहरामि' में आये हुए यावत्पद । से 'बाह्यायामुपस्थानशालाया अनेक गणनायक-दण्डनायक, राजेश्वर, तलवर. माडम्बिकेभ्य-श्रेष्ठि-सेनापति-सार्थवाह-मंत्रि-महामंत्रि गणक-दौवारिका मात्य-चेट-पीठमद नगर निगम-दूतसंधिपालैः साध संपरितृतः' इस पाठ का જન્ય હોવાથી અવાસ્તવિક જ છે. એથી જે વાત હું કહું છું તેથી એઓ બન્નેની ममिन्नत 2 थाय छ. ये बात मा प्रभारी छोर हिवस मनाय વગેરેની સાથે મારી બાહ્ય ઉપસ્થાનશાળામાં બેઠા હતા ત્યાં નગરરક્ષકે એક ચોરને ५४ीन भारी सामे सा०या. में पडसा तेनु: Ouri ar rन यु त्या२ पछी तेने भाशन पछी तेनु वान यु. तो तेना वनमा ५५. तनी न्यूनाधिता x नहि. मेथी या निष्प ५२ माव्या. छुते यारना, छશરીર છે. અને શરીર છે તેજ જીવ છે જીવ અન્ય નથી અને શરીર અન્ય નથી અહીં 'जाव नो उवागच्छ भांजे यावत् १६ मावेस छ तथी (एपा प्रज्ञातउपमा, अनेन पुनः वक्ष्यमाणकारणेन'' Pा पाइने! सय थये। छ. मानु स्पष्टी४२५५ १३८ मा सूत्र ४२वाम: माव्यु छ. (वाह्यायामुखस्थानशालायां अनेकगण . . नायक-दण्डनायक राजेश्वर, तलार माड विक, कौटुम्बकम्य श्रेष्ठिसेनापति-सार्थवाह-मत्रि-महामत्रि गणक-दौवारिकामात्य-चेट पीठ मई . Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सू. १४३ सूर्याभदेवस्प पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २६३ ततः-तदा खलु मम नगरगुप्तिका:-नगररक्षकाः ससाक्ष्य-साक्षियुक्त यथा तथा यावत्-सहोदादिविशेषणविशिष्ट चौरमुपायन्ति-मत्समीपे समानयन्ति, ततः खलु अहं तं चौरं पुरुषं जीवितकमेव तोलयामि, तोलयित्वा. छविच्छेदम्-अङ्गादिभङ्गम् अकुर्वाणः अकुर्वन्नेव जीविताद् व्यपरोपयामिमारयामि, मारयित्वा पुनस्त मृत तोलयामि, नव च खलु तस्य मारित चोरपुरुषस्य जीवतःसतः तोलितस्य वा-अथवा मृतस्य च तोलितस्य किञ्चित् - किमपि नानात्वं-न्यूनाधिकत्वं पश्यामि, नानात्वस्य रूपं दर्शयति-उन्मावत्वभाराधिक्य, वा-अथवा, तुच्छत्वं-भाराल्पत्वं वा गुरुकत्वं-गुरुना वा, लघु. कत्व-लघुता वा, यदि खलु हे भदंत! तस्य पुरुषस्य जीवतो वा तोलितस्य मृतस्य वा तोलितस्य किञ्चित् नानात्वं यावत् लघुकत्वं वा भवेत, तदा खलु, अह. श्रध्यां तदेव-अन्यो जीनोऽन्यच्छरीरम्, नो तज्जीवः स शरीरम् इति । हे भदन्त ! यस्मात् कारणात् खलु तस्य पुरुषस्य जीवतो वां तोलितस्य, मृतस्य वा तोलितस्य नास्ति किञ्चिद् नानात्व' लधुकत्व वालस्मात मे-सुमतिष्ठिता-सुस्थिस प्रतिज्ञा यथा तज्जीव, तदेव-पूर्णत: तमेव-तज्जीवः स शरीरम्. नो अन्यो जीवोऽन्यच्छरीरम्, इति ॥ १४३॥ मलमू-तए ण केसीकुमारसप्तणे पएसिं रायं एवं वयासीअस्थि णं पएसी ! तुमे कयाइ वत्थी धंतपुठवे वा धमावियपुठवे वा? हंता अस्थि । अस्थि णं पएसो! तस्स वत्थिस्त : पुण्णस्त वो तुलियस्त अपुण्णस्त वा तुलियस्ल केइ नाणत्ते वा जाव लघुयत्ते वा णोइण समटे एवामेव पएसी! जीयस्स अगुरुलइयत्तं पडुच्च जीवं तस्स वा तुलियस्स मयस्स वा तुलियस्त नत्थि केइ. नाणत्ते वा जाव . लहुयत्ते वा, तं सद्दहाहि ण तुम पएसी! तं चेव७ ॥ सू० १४४ ।। . संग्रह हुआ है इन पदों की व्याख्या १३५वे सूत्र में की जा चुकी है। 'जाव चोर उधणेति' मैं ससाक्षी सहोढादि विशेषोंका यावत् पदसे ग्रहण हुआ है ॥१. १४३॥ -नगर-निगम द्रुतसंधिपालैः सार्ध संएरिवृत्तः१.२॥ पाइने सड थ्यो.. पानी व्याज्य १3५ मा सूत्रमा ४२वाम मावी छ: 'जाद चोर उरणे ति માં સસાક્ષી-સહટાદિ વિશેષણનું યાવત પદથી ગ્રહણ થયું છે. માત્ર ૧૪રા : Se Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ राजप्रश्नीयसूत्रे छाया-ततःखल केशीकुमारश्रमणः प्रदेशिनं रानमेवमवादीत् अस्ति खलु प्रदेशिन् ! तब कदाचिद् बस्तिः ध्मातपूर्वे धमापितपू» वा ? हन्त अस्ति । अस्ति खलु प्रदेशिन् ! तस्य वस्तेः पूर्णस्य वा तोलितस्य अपूर्णस्य वा तोलितस्य किञ्चित् नानात्व वा यावत् लघुकत्व वा ? । नायमर्थः समर्थः। एवमेव प्रदेशिन जीवस्यागुरुलधुकत्वं प्रतीत्य जीवतो 'तए णं से केसीकुमारसमणे' इत्यादि। सूत्रार्थ-- तए णं से केसोकुमारसमणे पएसिं रायं एवं बवासी) इसके बाद उन केशीकुमारश्रमणने प्रदेशी राजा से इस प्रकार कहा-- (अस्थि णं पएसी ! तुमे कयाई वत्थी धंतपुत्वे वा धमावियपुठवे वा १) हे प्रदेशिन्ः ! तुमने कभी भस्त्रिका को वायु से पूरित की है, या किसी से करवाई है ? (हंता अस्थि) तब प्रदेशांने कहा-हां, भदन्त ! की है और कराई है। (अस्थि णं पएसी ! तस्स वत्थिस्स पुण्णस्स वा तुलियास अपु. णस्स वा तुलियस्स केई नाणत्ते वा जाव लहुयत्ते वा) पुनः केशीकुमार. श्रमणने उमसे कहा-हे पदेशिन् ! जब तुमने उस भस्त्रिका को वायु पूरित करके तोला तब, और वायु से अपूरितावस्था में तोला तब उसमें तुम्हे कुछ न्यूनाधिकता यावत् लघुता दृष्टिगत हुई ? प्रदेशीने कहा-(णो इणढे . सम) हे भदन्त ! यह अर्थ समर्थ नहीं है-अर्थात् उसमें न्यूनाधिकता यावद लधुता कुछ भी दृष्टिगत नहीं हुई है (एवामेव पएसी जीवस्स अगुरुल हु. 'त एणं केसीकुमारसमणे' इत्यादि। - सूत्रार्थ:-(त एणं केसीकुमारसमणे परसिं राय एवं वयासी) त्यार पछी ते शीमा२माणे प्रदेशी २ मा प्रमाणे घु-(अस्थि णं पएसी ! तुमे कयाइ बन्धी वतपुव्ये वा धमावियपुव्वे वा!) प्रहशिन् ! तभे आध પણ દિવસે ભસ્ત્રિકા (ધમણ) માં હવા ભરી છે. કે કેઈની પાસેથી જ રાવડાવી છે ? (हता अत्थि) त्यारे प्रशी रातये ४थु, i मत ! डा मरी छ भने सराआवी छ. (अस्थि ण पएसी! तस्स वस्थिस्स पुग्णस्स वा तुलियस्स अपुग्णस्स वा तुलियम्स केइ नाणो वा जाव लहुयो वा) श्री शीभा२श्रमाणे तेन કહ્યું–હે પ્રદેશિન્ ! જ્યારે તમે તે ધમણનું હવા ભરીને વજન કર્યું અને પછી હવા બહાર કાઢીને તેનું વજન કર્યું ત્યારે તમને માં કંઈક ન્યૂનાધિકતા યાવત્ લચ્છતા rus १ प्रदेशीय यु (णो दृण: सम?) 8 मत ! मा पर्थ समर्थ नथीम्मेदवे न्यूनाधिzal यावत, सधुता ४५ पy agi नाड (एवामेव पएसी Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3E सबोधिनो टीका स. १४ । सूर्याभदेवम्य पर्वभव नीवप्रदेशोरागनम २६५ वा तोलिनस्य मृतस्य वा तोलिनस्य नास्ति किश्चित् नानात्व वा यावत लघुकत्व वा, तन नदेहि खलु त्वं प्रदेशिन् ! तदेव.७१मू० .१४४॥ टीका-"तए णं केसी कुमारसमणे" इत्यादि-ततः खलु के शीकुमार. 'श्रमणः प्रदेशिन राजानम् एवमवादीत-हे प्रदेशिन ! तब कदाचित्-३ मि 'श्चित्काले बस्ति:- दृतिःचनपुटरूपमबिको ध्मानपूर्ण:--पूर्व मातः-वायुभिः पूरितः, वा-अथवा धमापितपूर्व : पूर्व केनापि ध्मापितः वायुभिः पूर्णः कारितः इति केशिप्रश्नः, तत्र प्रदेशी प्राह-हन्त ! अस्ति । पुनः केशी पृच्छति हे प्रदेशिन ! तस्य बस्तेः पूर्णस्य वायुभृतस्य नोलितस्य, वा-अथवा अपू. र्णस्य-बायुभिरपूरितस्य वा तोलितस्थं मतः किश्चित् किमपि नानात्व यावर लघुकत्व वा अस्ति ? इति केशिप्रश्नः प्रदेशी पाह-नायमर्थः समर्थ:-- नानात्वसद्भावरूपोऽर्थो न विद्यते । केशो कथयति-एवमेव हे पदेशिन् । जीवस्य अगुहलघुकत्व-गुरुनलघुत्वहिनत्वं प्रतीत्य-आश्रित्य जीवतो वा तोलिनस्य मृतस्य वा तोलितस्य नास्ति किञ्चित् नानात्व वा यावत् लघुकावा, तत् तस्मात् कारणात् हे प्रदेशिन !त्वश्रद्धेहि मचने श्रद्धां कुरु, तदेव-यथा-नों तज्जोवास शरीरम्, अन्यो जीवोऽन्यच्छरीरमिति, मु. १४४॥ - यत्तं पडुच्च जीवंतस्स वा तुलियस्म मयस्स वा तुलियस्स नस्थि केह नाणते वा. जाव लहुयो वा, तं महाहि णं तुम पएमी तं:चेव७) तो इसी प्रकार से हे प्रदेशिन् ! जीव के गुरुलधुत्व रहिनपने को प्रतीत करके जीवित अवस्था में तोले गये वाद में मृत अवस्था में तोले गये उस चोर के शरीर में कुछ भी नानात्व अथवा लधुत्व नहीं है। इस कारण हे प्रदेशिन्! तुम मेरे वचन में श्रद्धा करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है। . टीकार्थ इसका स्पष्ट है ॥ सू० १४४ ॥ जीवस्स अगुरुलयत्तं पड्डच्च जीव तस्स वा तुलियस्स मयस्स वा तुलियस्स नस्थि केइ नाणसे वो जावं लहुयत्तेवा, तसदहाहि ण तुम पएसी त चेव ७) तो मा प्रभारी प्रहशिन ! न मशु३सधुत्व गुणेन-शु३त्वसाधुत्व રહિતાવરથાને સામે રાખીને જીવિતાવસ્થામાં કરાયેલા તે ચેરના વજનમાં અને મૃતાવસ્થામાં કરાયેલા તે ચોરના વજનમાં કઈ પણ જાતનું નાનાત્વ કે લઘુત્વ નથી. એથી હે પ્રદેશિન ! તમે મારી આ વાત પર વિશ્વાસ કરી લો કે જીવ અન્ય છે અને શરીર અન્ય છે. આ સૂત્રને ટીકાર્થ સ્પષ્ટ જ છે. ૧૪૪ . . Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलम्-तए णं पएसा राया केसि कुमारसमणं एव वयानी -अस्थि णं भंते! एसा जाव नो उवागच्छइ, एवं खल्ल भंते! अहं अन्नया जाव चोर उवणे ति, तएणं अहं तं पुरिसं सव्वओ सनंता समभिलोएमि, नो चेव णं तत्थ जीव पास्तामि, तएणं अहं तं पुरिसं दुहा फालिय' करेमि करितो सव्वओ समंता समभिलोएमि, नो _चेव णं तत्थ जीवं पासामि, एवं तिहा चउहा संखेजहा फालियं करेमि, नो चेव णं तत्थ जीव पासाम, जइ णं भते! अहं तंसि पुरिसंसि दुहावा तिहा वा चउहा वा संखेजहा वा फालियंसि जीव पासेज्जा, तो गे अह सद्दहेज्जा तं चेव, जम्हा णं भते! अहं तसि दुहा वा तिहा वा चउहा वासंखिजहा वा फालियंसि जीन पासामि तम्हा सुपइट्रिया मे पइण्णा, जहा-त जीवोत सरीरं त चेव ।सू,१४५॥ । छाया--ततः खलु प्रदेशी राजा के शिनं कुमारश्रमणमेवमवादीअस्ति खलु भदन्त ! एषा यावद् नो उपागच्छतिः एवं खलु भदन्त । '... 'तए णं पएसी राया' इत्यादि। मत्रार्थ-(तए णं पएमी राया केसि कुमारसमणं एवं यासी) इसके घाद प्रदेशी राजाने केशीकुमारश्रमण से ऐसा कहा-(अस्थि णं भंते! एमा जाव नो उवागच्छइ) हे भदन्त ! यह उपमा वुद्धिजन्य होने से वास्तविक नहीं है इस वक्ष्यमाण कारण से मुझे जीव और शरीर का भेद प्रतीत नहीं होता है. वह वक्ष्यमाण कारण (एवं भंते !) हे भदन्त ! इस प्रकार से है .. 'तएणं पएसी राया' इत्यादि । .. .... . .. सुत्रार्थ-(तए णं पएसी राया केसि कुमारसमण एवं बयासी) .. त्या२ पछी प्रदेश मे भार भने २ प्रमाणे ह्यु, (अत्धि णं भने! एसा जाव नो उबांगच्छद) Hd ! L:५मा मुद्धि प्रेरित पाथी वातવિક નથી. આ નિમ્ન કારણથી મારા મનમાં જીવ અને શરીરની ભિન્નતાની વાર્ત गमती नथी. (एवं भंते) Med! ते मा प्रभारी छ. (अहं अन्नया जाव Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुबोधिनी टीका. म. १७७ मा भोवस्य पत्र भवजोवप्रदेशिगजवर्णनम् . २६७ अहमन्यदो यावत् चोरमुपनन्ति , तत: खल अहं त पुरुष मतः समन्तात . समभिलोके नैव खलु तत्र जीवं पश्यामि, तनः ग्वल अहं तं पुरुषं द्विधा स्फाटितं करोमि, कन्या सर्वतः समन्तात सममिलोके. न चैव खल तत्र जीव पश्यामि, एवं त्रिधा -तुर्धा संख्येयधा स्फाटितं करोमि न चैव तत्र जीवं पश्यामि, यदि खलु भदन्त ! अहं तस्मिन् पुरुषे द्विधा वा त्रिधा वा चतुर्धा वा अहं अन्नया जाव चोर उवणेनि) मैं एक दिन १३५३ सूत्र में कथित अनेक गणनायक आदिकों के माथ उपस्थानशाला में बैठा हुआ था वहां , पर मेरे नगर रक्षक मुमकिया बन्धन से बांधकर एक. चोर को लाया (तए णं अहं तं पुरिसं सबओ ससंता ममभिलोएमि) मैंने उस. पुरुष को मम्तक से लेकर चरणपर्यन्न अच्छी तरह से देवा (नो चेव णं तत्थ जीवं पासामि) परन्तु मुझे वहां पर जीत दखने में नहीं आया. (तए णं अहं तं पुरिसं दुहा फालियं करेमि) इसके बाद मैंने उस चोर के दो टुकडे कर दिये. (करित्ता मन्त्र ओ समंना मामिलोएमि.) दो टुकडे करने के बाद फिर मैंने उपका अच्छी तरह से सब ओर से निरीक्षण किया (नो चेव णं तस्थ जीवं पायामि) परन्तु फिर भी वहां पर मुझो जोव देखने में नहीं आया (एवं तिहा, चउहा, संखेजहा फालिय' करेमि-नो चेवणं तत्थ जीव पासामि) तदनन्तर मैंने उसके तीन टुकडे फिये, चार टुकडे किये, यावत संख्यात (सैंकडे) टुकड़े किये परन्तु फिरभी वहां मुझे जीव नहीं दिखा (जइ णं भंते! अहं तसि पुरिसंसि दुहा वा तिहा बा चउहा चोरं उवणे ति) ये हिपसे १३५ मा सुत्रमा यित घl नायवगैरेની સાથે બાહ્ય ઉપસ્થાન શાળામાં બેઠે હતું. ત્યાં મારા નગરરક્ષકે એક ચિરને भुटाट माधान भारी सा दाव्या. (तपणं अह त परिसं सवओ समंता ममभिलोएमि) में ते ५३पने भतथी भांडी पा संधी सारी शत भयो. (नो चेव णं तत्थ जीव पासामि) पY भने तेभा १ हेमायो नही. (तएणं अहं तं पुरिसं दुहा फालियं करेमि) त्यार पछी मैं ते यार ५३पना मे ४४४ 30 नाभ्या. (करित्ता सवओ समंता समभिलोएमि) मे आया. उशन पछी में तेनु सारी शत निरीक्षy यु: (नो चेव तस्थ जीवं पासामि) पय भने त्यो भाय नही. (एवं तिहा. चउहा. संखेज्जहा फालियं करेमि-नो चेव णं नस्थ जीबपासामि) त्यार पछी मैं तेना न ४४ ४यो, प्यार ४४४॥ या ચાવતું સંખ્યાલ (સેંકડે) કકડા કર્યા પણ છતાં એ ત્યાં મને જીવ' દેખાય નહીં. Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८. राजप्रश्नोयसूत्रे संख्येयधा वा स्फाटिते जीवं पश्येयं, तदा खलु अहं श्रदश्यां तक यस्मात् खलु भदन्त ! अहं तस्मिन् द्विधा वा त्रिधा वा चतुर्धा वा संख्ये: यधा वा स्फाटिते जीवं न पश्यामि. तस्मात् सुप्रतिष्ठिता मे प्रतिज्ञा यथा.... तज्जीवः स शरीरं तदेव । ।।मू०-१४५|| .. .... ... टीका--'तए णं पएसी राया' इत्यादि-ततः खल प्रदेशी राजा केशिनं कुमारश्रमणम्, एत्रमवादीत-हे भदन्त ! अस्ति खलु एषा इयम् यावत्-याव... त्पदेन-'प्रज्ञात उपमा, अनेन पुनः कारणेन' इत्येषां पदाना संग्रहः, प्रज्ञप्त:बुद्धिविशेषाद् उपमाऽस्ति, किन्तु अनेन वक्ष्यमाणेन कारणेन भवदुत्तो. जीवशरीरभेदो नो उपागच्छति,-न संगच्छते। तत्कारणं दर्शयितुमुपक्र मते-एवं खलु हे भदन्त ! एवं-वक्ष्यमाणरीत्यो अहम् अन्यदा-अन्यम्मिन काले यावत् यावत्पदेन-बाह्यायामुपस्थानशालायां षत्रिंशदधिकशततमसूत्रोक्तानेकगणनायकादिपदादारभ्य .'अवकोटकवन्धनबद्ध' इति पर्यन्तपाठोक्तविशेषणविशिष्ट चोरमुपनयन्ति, ततः खलु अहं तं पुरुपं सर्वतः ओपादमस्तक, समन्तात् साङ्गोपाङ्ग समभिलोके सम्यगू-आभिमुख्येन पश्यामि किन्तु तत्र-तस्मिन्-चोरे जीव नैव पश्यामि, ततः खलु अहं त-चोर द्विधा-द्विखण्ड स्फाटित -विदारित करोमि कृमा सर्वतः समन्तात् समभिलोके, .. वा संखेजहा वा फालियंसि जीवं पासेजा तो of अहं सदहेज्जा तं चेव). अतः यदि भदन्त ! मुझे उस पुरुष के दो, तीन चार, अथवा संख्यात टुकड़े करने पर उसका जीव दिखला तो मैं आपके इस कथन पर विश्वास कर लेता कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है. जीव शरीररूप. नहीं है, शरीर जींवरूप नहीं है (जम्होणं भंते! अह तेसिं दहा वा तिहा वा.. चउहा वा संखिज्जा वा फालियंसि जीवन, पासामि-तम्हा सुपट्टिया मे. पइण्णा-जहा ते जीवों तं सरीर तं चेव) जिस कारण से हे भदन्त ! मैंने (जइणं भंते ! अहं तंसि पुरिसंसि दुही वा तिहावा चउहा वा संखेज्जहा वा फालियंसि जीव पासेंज्जा तो णं हसदहेज्जातं चेव) मेथी में महत! અમે તે પુરૂષના બે ત્રણ ચાર અથવા સંખ્યા કકડાઓ કરવાથી તેનો જીવ લેવામાં આવ્યું હોત હું તમારા કથન પર વિશ્વાસ કરી લેતકે જીવ.અન્ય છે અને શરીર અન્ય છે. જીવન शरी२३५ नथी -माने २२: ०१३५ नथी (जम्हाणं भते। अहं तोसिं दुहां वा निहा वा चउहाचा संखिज्जहां वा, फालियंसि जीवन पासामि-तम्हा सुपर टिया मे पइण्णा जहा तं जीवो तं सरीरं तं चेव) २४थी 3 त! में *. . i Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिना टोका सू. १:१२ सूर्याभदेवस्य पूव भव जीवप्रदेशिराजवणनम् २६९. किन्तु ता जोव नैव खलु पश्यामि-अनेन प्रकारेण त्रिधा-त्रिखण्ड स्फाटितं, चतुर्धा-चतु:खण्डं स्फाटितं संख्येयधा-संख्यातखः स्फाटित करोमि, किन्तु तत्र तम्मिन् द्वित्रिचतुःसंख्येयधा स्फाटि ते चोरे जीव नैव पश्यामि, हे भदन्ता 7. यदि खलु अह तस्मिन्न-बोरपुरुषे द्विधा वा त्रिया वा चतुर्धा वा संख्येयधा वा स्फाटिते जीव पश्येय तदा-जीवदर्शने खलु अह श्रदध्यां भवतोक्ने विश्व स्थाम् । तदेव-नो तज्जीवः स शरीरम् अन्यो जीवोऽन्यच्छरीरम्, इति, यस्मात् खलु हे अदन्त ! अह तस्मिन् चोरे द्विधा वा त्रिधा वाचतुर्धा वा संख्येयधा वा स्फाटिते जी। न पश्यामि, तस्मात-जीवादर्शनकारणात् मे-मम प्रतिज्ञा-स्वीकारः, सुपतिष्ठिता-मुस्थिा यथा--तज्जीवः स शरोर' तदेव--- नौ अन्यो जीवोऽन्यच्छरीरमिति । ॥ मू० १४५।। म्लम्--तए णं केसि नारसनो परसिं रोयं एवं वयासी-मूढताए गं तुमं पएसी ताओ कट्टहोराओ, ! के णं भते कहारए ? पएसी! से जहाणामए केइपुरिसो वणत्थी वणोवजीवी वणगवेसणयाए जोई च जोइभायणं च गहाय कट्ठाणं अडवि अणुपविट्ठा, तए णं ते पुरिसा तीसे अगामियाए अडवीए-किंचिदेसं अणुपत्ता समाणा एगं पुरिसं एवं वयासी-अम्हे गं देवाणुप्पिया! कटाणं अडवि पविसामो, एत्तो णं तुम जोइभायणाओ जोइं गहाय अम्ह असणं साहेज्जासि, अह तं जोइभायणे जोई विज्झवेज्जा एत्तो णं तुमं कट्टाओं जोई गहाय उसके दो तीन चार अथवा संख्यात टुकड़े कर देने पर भी जीव नहीं देखा उस कारण से मेरा मन्तव्य कि जीव शरीररूप है. और 'शरीर जीवरूप है. जीव भिन्न नहीं है, शरीर भिन्न नहीं है सुस्थिर है। टीकार्थ स्पष्ट है ॥.मु०-१४५॥ तेना में न यार अथवा Avयात ४३i-, या पछी ५ नये न त તે કારણથી મારી જીવ શરીરરૂપ છે અને શરીર જવરૂપ છે, જીવ ભિન્ન નથી અને शश३ मिन्ना नयी वा भान्यता सुस्थिर छ ટકાથે સ્પષ્ટ જ છે. સુ૧૪પા Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭૦ - राजप्रश्नीयसो अम्हं असणं साहेजासित्ति कहु कटाणं अडविं अणुपविट्ठा । तए णं से पुरिसे तओ मुहुत्त तराओ तेसिं पुरिसाणं असणं साहेमित्ति कई जेणेव जोइभायणे तेणेव उवागच्छइ जोइभायणे जोई विज्झायमेव पाइ, तएणं मे पुरिसे जेणेव से कहे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता तं कटुं सव्वओ समंता समभिलोएइ नो चेव णं तत्थ जोई पासइ, तए णं से पुरिसे परियरं बंधइ फरसुं गिण्हइ न कह दुहा फालियं करेइ सवओ समता समभिलोएइ नो चेव ण तत्थ जोई पासइ एवं जाव संखेजहा फालियं करेइ सव्वओ समता समभिलोएइ नो चेत्र णं तत्थ जोइं पासइ, तए णं से पुरिसे तसि दुहा फालिए वा जाव संखेजहाःफालिए वा जोई अपासमाणे भंते तंते परितंते निविण्णे समाणे फरसु एगते एडेइ, परियर मुयइ एवं वयासीअहो! मए तेसिं पुरिसाणं असणे नो साहिएत्ति कटु ओहयमणसकप्पे चिता सोगसागरसंपविढे करयलपल्लंथमुहे अट्टज्झाणोवगए भमिगयदिटिए झियायइ तरण ते पुरिसा कट्टाई छिंदति जेणेव से पुरिसे तेणेव उवागच्छति,तपुरिसं ओहमयणसंकप्प जाव झियायमाण पासंति एवं वयासी-किणं तुमं देवाणुप्पिया! ओहयमणसंकप्पे जात्र झियायसि? तए णं से पुरिसे एव वयासी-तुज्यण देवाणुप्पिया! कट्टा णं अडवि अणुपविसमाणो मम एवं वयोसी-अम्हे णं देवाणुप्पिया ! कट्टाणं अडवि जाव अणुपविटा, तए णं अहं तत्तो मुहुर्ततराओ तुझं अलणं साहेमित्ति जेणेव जोइभायणे जोव झियामि, तए ण Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सू. १४६ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशीराजवर्णनम् २७१ तेसि पुरिसाणं एगे पुरिसे छेए दक्खे पत्तट्रे जाव उवएसलदे ते पुरिसे एवं क्यासी-गच्छह गं तुझे देवाणुप्पिया ! पहाया कयबलिकम्मा जाव हव्यमागच्छेह जा णं अहं असणं साहेमित्ति कटु परिवरं बंधइ फरसु गिण्हइ स करेइ सरेण अरणिं महइ जोइं पाडेइ जोइं संधुवखेइ तेसिं पुरिसाणं असणं साहेइ, तए णं ते पुरिसा पहाया कयबलिकम्मा जाव पोयच्छित्ता जेणेव से पुरिसे तेणेब उवागच्छंति, तए णं से पुरिसे तेसिं पुरिसार्ण सुहासणवरगयाणं तं विउलं अ. सर्ण पाणं खाइमं साइमं उवणेइ। तए णं ते पुरिलो तं विउलं असणं पाणं खाइम माइमं आसाएमाणा वीसाएमाणा जाव विहरंति । जिमियभुत्तु तरोगयावि य णं समाणा आयंता चोक्खा परमसुइभूया तं पुरिसं एवं वयाली-अहो ! णं तुमं देवाणुप्पिया जड्ड मूढे अपंडिए गिविण्णाणे अणुबएसलद्धे जे णं तुम इच्छसि कटुंसि दुहा फालियसि वा जाव जोइ पासित्तए, से एएणट्रेणं पएसी! एवं वुच्चइ मूढतराए गं तुमं पएसी ! ताओ कटहाराओ। सू० १४६ । छाया--ततः खलु केशिकुमारश्रमणः प्रदेशिन राजानमेवमवादीमूढतरकः खलु त्वं प्रदेशिन् ! ततः काष्ठहारात, कः खलु भदन्त ! काष्ठ तए णं केसिकुमारसमणे' इत्यादि। सूत्रार्थ-(तए णं केसिकुमारसमणे परसिं राय एवं क्यासो) इसके बाद केशीकुमारश्रमणने प्रदेशी राजा से इस प्रकार कहा (मूढतराए णं तुमं पएसी। ताओ कहहाराओ) हे प्रदेशिन् ! तुम उस काप्ठहर से भी : 'तएणं केसिकुमारसमणं' इन्यादि। " - संत्राथ-(नए ण केसिकुमारसमण परसिं रार्थ एवं वयासी) त्या२ one शीभाभो अशी सजन मा प्रभारी ४ (मूढतराए णं तुम पएसी! ताओ कट्ठाराओ) से प्रशिन् ! तमे भने पेला १४४२ ४२di ५ धारे - Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ राजप्रभोगसूत्रे हारकः ! प्रदेशिन ! ते यथानामकाः केचित् पुरुषाः वनार्थिनः वनोपजीविनः चनगवेषणया ज्यातिश्च ज्यानिर्भाजनं च गृहीत्वा काष्ठानामवमनुपविष्टाः, ततः ग्वलु ते पुरुषाः तस्याः अग्रामिकायाः यावत किञ्चिद्दे राम'नताः सन्तः एक पुरुषमेवमनादिः -वयं खन्त्र देवानुप्रिय ! काष्ठानामटवीं प्रविशामः, इनः खलु त्वं ज्योतिर्भाजनात् ज्योनिगृहीत्वाऽस्माकम ་ मुझे अधिक मूर्ख प्रतीत होते हो (के णं भंते! कहरए) हे मंदन्त ! वह काष्ठहर कैसा था ? इस प्रकार जब प्रदेशीने कहा -- तथ (एमी )केशीकुमारश्रमणने कहा- हे प्रदेशिन् ! सुनो ( से ज्धा णामए केइ पुरिसो aणस्थी णोजीची वणगवेसणयाए जोड़ च जोइभायणं च गहाय का asti अणुपट्ठिा) कितनेन बनार्थी और वनोपजीवी काष्ठेहारक पुरुष थे। न की गवेषणा करते२ किसी एक अटवी में प्रविष्ट हो गये, साथ में उन्होंने अग्नि रखने का आधारभूत पात्र ले रखा था. उस अटवी में इन्धन बहुत था. (तए णं ते पुरिमा तीसे अग्गमियाए अडवीए किंचि देसं अणुपत्ता समाणा ) जब वे पुरुष उस ग्रामरहित अटवी में कुछ दूर तक पहुंच चुके, तच (एग पुरिसं एवं व्यासी) उन्होंने एक पुरुष से ऐसा कहा - ( अम्हे णं देवाशुप्पिया ! कट्टाणं अवि पविसामो ) हे देवानुमि ! हमलोग इस काष्ठप्रधान अटवी में आगे प्रविष्ट होते हैं (एत्तोणं तुमं जोइमायणाओ जोड़ गहाय अम्ह असणं माहेज्जासि) तबतक तुम तो ? मा भूर्भ लागे छ. ( के णं भंते ! फारए) के लहंत ते अउडर है प्रभाणे न्यारे अहेशी शब्नये -त्यारे (बएसी ! ) शीकुमार श्रमणे धुं अहेशिन् ! सांभणी ( से जहानामए केई पुरिसो वण्णत्थी वणोवजीवी वणगवेसणयाए जोइच जोइभायणं च गहाय कहाणं श्रड अणुपवित): उटवाउ વનાથી અને વનોપજીવી કાòાહારક પુરૂષ હતા. તેઓ વનમાં શેાધતાં શોધતાં કોઇ એક અટવીમાં પ્રવિષ્ટ થઇ ગયા. તેમણે પેાતાની સાથે અગ્નિ તેમજ અગ્નિને મૂકવામાં માટે આધારભૂત પાત્ર લઇ રાખ્યાં હતા. તે અટવીમાં લાકડાએ પુષ્કળ प्रभाशुभां इता. (तए णं ते पुरिसा तीसे अग्गमिपाएं अंडवीए किंचिदेस अणुपत्ता समाणा) न्यारे ते मधाते ग्रामरहित निर्मान अटवीमां थोडी दूरगया त्यारे ( एवं पुरिस एवं वयासी) तेभो : पुरुषने या प्रमाणे धु (अम्हे o Zangfèqer! zgrå azfá afta191) & Pangluu! 247; 3108 अधान मटवीभां बुधु मागण प्रवेशीये छीमे. (एतो णं तुझं जोइभायणाओ जोड़ f Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोधिनी दोका. १४६ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २७३ शनः सांधयेः इति कृत्वा काष्ठानामटवीमनुप्रविष्टाः, ततः खलु स पुरुषः ततो मुन्तिरात् तेषां पुरुषाणामशन माधयामीति : कृत्वा यत्रैव ज्योतिर्भाजन तत्रैव उपागच्छति, ज्योतिर्भाजने ज्योतिर्विध्यातमेव पश्यति, ततः खलु स पुरुषः . यत्र व ततः : काष्ठ तत्र व उपागच्छति, उपागम्य, तद यहीं पर रह कर अग्नि के इस पात्र से अग्नि को लेकर हम लोगों के लिये भोजन तैयार करलो (अह ने जोइ भायणे जोई विझवेत्त) यदि उस पात्र में अग्नि बुझ जावे (एनो णं तुम कहाओ जोई गहाय अम्हं असणं साहेज़्जासि तिक कट्ठाण अडयिं अणुपविठ्ठा) तो देखो जो यह लकडी पडी है. सो इसमें से अग्नि को उत्पन्न कर लेना और हमलोगों के लिये भोजन बना लेना इस प्रकार कह कर वे उस इन्धन वाली अटवी में आगे प्रविष्ट हो गये (तएणं से पुरिसे तओ मुहत्त तराओ तेसिं पुरिसाण असणं माहेमित्ति कटु जेणेव जोइभायणे तेणेव उचागच्छड) उनके चले जाने पर उस पुरुषने ऐसा विचार किया-कि चलो जल्दी से उन लोगों के लिये भोजन तैयार करलू-ऐसा विचार करके वह जहां पर वह अग्नि का पात्र रखा था वहां पर गया (जोइभायणे जोई विज्झायमेव पासइ) वहां जाकर उसने उस ज्योतिपात्र में अग्नि को बुझा हुआ ही देखा. (नए णं से पुरिसे जेणेव से कहतेणे गहाय अम्हं अमणं साहेज्जासि) त्या सुधी तमे मी' २७ीन भनिना २॥ पात्रमाथी मनिने स ममा। माटे मोशन तैयार ४२१. (अह तं जोइभायणे जोई विज्झवेत्ता) ने 20 पात्रमा मनि मोवाs otय. (एत्तों ण तुम कहाओ जोई गहाय अम्ह असण साहेज्जारि त्ति कटु कठ्ठाण अडविं अणुपरिट्ठा) तो तुमी, PAL ५यु छ, तांथी मनि उत्पन्न ४० देने અને અમારા માટે ભેજન તૈયાર કરો. આ પ્રમાણે બધી વિગત સમજાવીને તેઓ ते ४५ ४ाजी मटवीमा माग प्रविष्ट था गया. (तएणं से पुरिसे तओं मुहत्ततराओ तेसि पुरिसाणं नामित्ति कटु जेणेव जोइभायणे तेणेव उवागच्छइ) तमो अधा न्यारे त्यांची तl Pा त्यारे तेणे 20 प्रमाणे વિચાર કર્યો કે-સારું જલ્દી તેઓ બધા માટે જમવાનું તૈયાર કરી લઉં. આમ विन्या२ ४0 ते न्यi AGन पात्र तु त्यां गया. (जोइभायणे जोई विज्झायमेव पोसइ) त्यां ने तेथे ते मनिपात्रमा मनिने माणा गयेस र नयो. त एण से पुरिसे जेणेव से कटे तेणेव उवागच्छइ) त्या२ पछी ते ५३५ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ राजप्रश्नीयसूत्रे काष्ठ सर्वतः समन्ताद समभिलोकते, नो चैव खलु तत्र ज्योतिः पश्यति, ततः खलु स पुरुषः परिकर बध्नाति, गृह्णाति, तत् काष्ठे द्विधा स्फाटित करोति सर्वतः समन्तात् समभिलोकते नो चैव खलु तत्र ज्योतिः पश्यति, एवं यावत् संख्येयधा म्फाटित करोति सर्वतः समन्ताव समभिलोकते नो चैव खलु तत्र ज्योतिः पश्यति, ततः खलु स पुरुपः तस्मिन् काष्ठे द्विधा स्फाटिते वा यावत् संख्येगधा म्फाटिते वा ज्योतिरपश्यन् श्रान्तः तान्तः परितान्तः निर्विष्णाः सम पर. उबागच्छइ) इसके बाद वह पुरुष वहां गया जहां वह काष्ठ पडा हुआ था (उवागच्छित्ता तं कहूँ सनओ समंता सभिलोएइ) वहाँ जाकर के उसने उस काष्ठ को चारों ओर से अच्छी तरह से देखा (जो चेव णं जोइपासेइ) परन्तु उसमें उसे अग्नि दिखाई नहीं दी (तए णं से पुरिसे परियर' बंधड) तब उस पुरुषने अपनी कमर बांधी (फरसुगिण्हइ) कुल्लाडी उठाई और (त' को दुहा फालिह करेइ) उस काष्ठ के दो टूकडे कर दिये (सचओ समता समभिलोएइ) फिर उसे चारों ओर से अच्छी तरह से उसने देखा (णो चेव णं तत्थ जोड़' पासइ) परन्तु उसमें उसे अग्नि दिखाई नहीं दी (एव जाव संखेज्जहा फालिह करेइ) इसी प्रकार से फिर उसके यावत् संख्यात टुकडे तक कर दिये (सधओ समंता समभिलोएइ) परन्तु सब तरफ से अच्छी तरह देखने पर भी (णो चेव ण तत्थ जोइ पासइ) उसे उनमें अग्नि दिखाई नहीं दी (तए णं से पुरिसे नसि कहासि दुहा फालिए वा जाव संखेज्जहाफालिए वा जोई अपास त्यां गयेयां पे ४०४ (ख) ५यु तु. (उवागच्छित्ता त कट्ठ सनो समता समभिलोएड) त्यां धन तेरे ते साराने यारे माथी सारी शत आयु (णो चेव ण जोई पासेइ) पण तेभा तेने भनि हेमायो नहि. (एण से पुरिसे परियरं बंधह) त्यारे ते पुरुष पातानी मांधी. (फरसु गिण्डइ) मुछाडी हाथमा सीधी भने (त' क8 दुहा फालिह करेइ) ना मे ४४६ ४२री नाया. (मम्वी समता समभिलोएइ) पछी तेरे न्यारे तथा तेन न्यु: (णो चेव णं तत्थ जोई पासइ) ५ तभी तन मन लेवामां माव्य नहि. (एव जाव मखेज्जहा फालिह करेड) 24t प्रमाणे पछी तर तेना यावत् से 31 ४४ामा ४३॥ नाभ्या. (सव्यओ समता समभिलोएइ) ५ तमने सारे त२५ सारी शते लेवा छतांये (णो चेव तत्थ जोई पासइ) तमनामा मनि माया ना. (नएण से पुरिसे तामिछसि दुहा फालियं बा जाव सखेज्ज हा फालिए Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका. सूत्र ९४६ सूर्याभिदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २७५ शुमेकान्ते एडति ( मुञ्चति) परिकर मुञ्चति एवमवादीत् अहो ! मया तेषां पुरुषाणामशन नो साधितमिति अपहृतमनः नःसंकल्पचिन्ताशोकसागरस - प्रविष्ट: करनलपर्यस्तमुखः आध्यानोपगतः भूमिगतदृष्टिको ध्यायति ततः खलु ते पुरुषाः काष्ठानि छिन्दन्ति, यत्रैव स पुरुषः तत्र वापागच्छन्ति, माणे संते परितंते निविष्णे समाणे परसु एगते एडे३) इसके बाद जब उस पुरुष को उस काष्ठ के दो टुकडे यावन संख्यात टुकडे करने पर भी जब अग्नि दिखाई नहीं दी, तब वह थक कर, क्लान्त होकर, परितान्त होकर विशेष दुःखित हुआ और उसने उस कुल्हाडी को किसी एकान्त स्थान में रग्व दिया ( परियर मुयइ) कमर का बंधन भी खोल दिया ( एवं वयासी) इस प्रकार कहने लगा (अहो मए तेसि पुरिसाणं असणे नो साहिए कि ओहह्यमणसंकष्पे चिनासोगसागरसंपट्ठेि करतलपलत्थमुहे अझाणो गए भूमिगयदिट्ठीए झियाई) अरे ! मैं उन पुरुषों के लिये भोजन तैयार नहीं कर सका अब क्या करूं ! इस प्रकार विचार कर वह बड़ा ही दुःखिन हुआ उसकी ममग्न मानसिक अभिलाषाएँ नष्ट हो गई और वह चिन्ता, एवं शोक रूपी समुद्र में निमग्न हो गया. कपोल पर हथेली रख कर आतध्यान करने लगा दृष्टि उसकी नीचे जमीन की ओर हो गई - इस प्रकार वह चिन्ना में फंस गया (तए णं ते पुरिसा कट्ठाइ छिदति) अब उन पुरुषोंने जब लकडियों को काटलिया- तब वे ( जेणेव वा जोड़ अपासमाणे संते तंते निचिष्णे समाणे परसु एगते एडेड) ત્યાર પછી જયારે તે પુરૂષને તે કાષ્ઠના એ કડાએ યાવત સયાત કકડાએ કર્યો પછી પણ જ્યારે અગ્નિ જોવામાં આવ્યે નહિ, ત્યારે તે થાકીને, કલાન્ત થઈને, પરિતાન્ત થઈને વિશેષ દૃખિત થયા અને તેણે ત કુહાડીને કઇ એકાંત સ્થાને મૂકી हीधी (परियर मुग्रह) उभरनुं मंधन पण पोती नाथ्यु (एव वयासी) पछी ते या प्रमाणे उड़े। साध्ये. (अहो मए नेसि पुरिसाण असणे नो साहिए कि ओहमणस कप्पे चिंतासोगसागरसं पट्टि करतलपल्लत्थमुहे अट्टझाणो गए भूमिगयदिट्ठीए झियाग्रह) भरे ! हु' ते भाणुसो भाटे लोन्न બનાવી શકચેા નહિ. હવે શુ કરૂ ? આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તે ખૂબ જ દુ:ખો થયા. તેની બધી માનસિક ઇચ્છાએ નષ્ટ થઈ ગઈ, અને તે ચિંતા અને શાકરૂપી સમુદ્રમાં નિમગ્ન થઇ ગયા. કપાળ પર હથેળી મૂકીને તે આધ્યાન કરવા લાગ્યા. तेनी न४२ भीन तर नीचे थह गई, आम ते चिंताभां डूजी गया. (तएण ते पुरिमा कडाइ छिरि ) हवे ते भाणुसोमो साउडायो अभी सीधा त्यारे तेथे। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭૬ - राजप्रश्नायम तं पुरुषमपहतमनःसंकल्पं यावत् ध्यायन्तं पश्यन्ति, एकमवादिषुः-कि खलु त्वं देवानुप्रिय ! अपहतमनःमंकल्प: यावत् ध्यायसि ? ततः खेल स पुरुष एवमवादीत्-यूय ग्वल देवानुपियाः! चाण्ठानामटवीमनुपविशन्त: मम एवमवादिषुः:-वयं खलु देवानुपिय! काष्ठानामटवीं यावत् अनुपविष्टाः, स पुरिसे तेणेव उवागच्छति) जहां वह पुरूप था, वहां पर आये त पुरिसं ओहयमणसंकल्प जाच झियायमाण पानति) वहां आकरके उन्होंने उस पुरुष को मानसिक अभिलाराओं से रहित हुआ और शोक तथाः चिन्तारूपो सागर में निमग्न हुआ, कपोल पर हथेली रख कर आतध्यान करता हुआ, एवं नीचे दृष्टि किये हुए देखा, देवकर फिर उन्होंने (एवं वयासो) उससे ऐसा कहा-(कि णं तुम देवाणुप्पिया ! ओह यमणसंकप्पे जाव झियायसि) हे देवानुप्रिय ! तुम किस कारण से अपहतमनः संकल्प वाले बने हुए हो और यावत् चिन्ता कर रहे हो (नए ण से पुरिस एवं वयामो) तब उस पुरुषने उनसे ऐसा कहा-(तुज्झे णं देवाणुपिया ! कट्ठाम अडवि अणुपत्रिसमाणा मम एवं वयामा) हे देवानमियों! आपलोग जब लकडी काटने के लिये अटवी में प्रविष्ट होने के लिये तैयार हुए थे-तब मुझसे ऐसा कहा था-(अम्हे ण देवाणुप्पिया! कट्ठाण अडविं जाव अणुपविट्ठा) हे देवानुपिय हम लोग लकडो काटने के लिये इस जंगल में आगे जाते (जेणेव से पुरिसे तेणेव उवागच्छति) यो त पु३५ हुतो, त्यां गया. (त पुरिस ओहयमणस कप्प जाब झिगायमाण पामति) त्यो l तेभो त. પુરૂષને માનસિક ઈચ્છાઓ જેની નષ્ટ પામી છે એ અને શેક તેમજ ચિંતા રૂપી સમુદ્રમાં નિમગ્ન થયેલ કપિલ પર હથેળી મૂકીને આર્તધ્યાન કરતે અને નીચી हट ४२वो नमो. नछन पछी तभए (एवं वयासी) ते२ मा प्रभारी युं(किं णं तुम देवाणुप्पिया! ओहयमणसंकरपे जाव झियायसि) 8 वानुप्रिय ! તમે શા કારણથી અપહત મનઃસંક૯૫ વાળા થઈ ગયા છે અને યાવત્ ચિંતા કરી રહ્યા છે. (तएण से पुरिसे एवं यासी) त्यारे ते पुणे तेभने २मा प्रभारी . (तुज्झण देवाणुप्पिया ! कट्ठाणं अर्वि अणुपविसमाणा मम एवं वयासी) હે દેવાનુપ્રિયે! તમે સૌ જ્યારે લાકડાઓ કાપવા માટે અટવીમા પ્રવિષ્ટ થવા તૈયાર थया ता त्यारे भने २मा प्रभारी युतु-(अम्हेणं देवाणुप्पिया! कठ्ठाण अडविं जाव अणुपविठ्ठा) हे देवानुप्रिय ! म मया साम्य आपा भाटे । અટવીમાં આગળ જઈએ છીએ. તે તમે ત્યાં સુધી અગ્નિ પાત્રમાંથી અગ્નિ લઈને Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ सुबाधिनी टीका सू. १४६ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवण'नम् ततःखलु अहं ततो मुहुन्निरात् युष्माकमशन साधयामि' इति कृत्वा यंत्र व ज्योतिर्भाजन यावत् ध्योयामि, ततः ग्वल्लु तेषां पुरुषाणामेकः पुरुषः हैं-सो तुम तब तक अग्नि के पात्र से अग्नि को लेकर हम लोगों के लिये भोजन बनाना. यदि उप्त पात्र में अग्नि बुझ जावे तो तुम इस काष्ठ से ज्योति-अग्नि को तैयार कर लेना और हम लोगों के लिये भोजन बनाना, इस प्रकार कह कर आपलोग अटची में भविष्ट हो गये, (तएण अहं त्ततो मुहत्ततराओ तुज्झे अमण साहेमि त्तिक जेणेव जोईभायणे जाब झियामि) इसके बाद मैं ने गेमा विचार किया कि चलो बहुत जल्दी आप लोगों के लिये भोजन बनाद-ऐसा विचार कर ज्यों ही मैं जहां वह ज्योति भाजन (अग्निपात्र) रखा था, वहां पर गया-तो क्या देखता हूं कि उसमें अग्नि बुज्ञी पडी है. फिर मैं जहां वह काष्ठथा-वहां पर गया. वहां जाकर मैंने उस काप्ठ को अच्छी तरह से सब ओर से देखा, परन्तु मुझे वहां अग्नि दिखाई नहीं दी, फिर मैंने अपनी कमर कसी और कुठार को लेकर उस काष्ठ के दो टुकड़े किये फिर मैंने उसे सब ओर से अच्छी तरह देखा परन्तु फिर भी मुझे वहां अग्नि के दर्शन नहीं हुए. इस तरह फिर मैंने उसके तीन चार यावत सैकडो तक टुकडे कर डाले और उन मन को अच्छी तरह से चारों ओर से देवा, परन्तु वहां कहीं भी અમારા માટે ભોજન તયાર કરો. તે પાત્રમાં અગ્નિ ઓળવાઈ જાય તે તમે તે કાષ્ઠમાંથી અગ્નિ ઉત્પન્ન કરી લેજે. અને અમારા માટે ભોજન તૈયાર કરજે. આમ ४डीने तमे गधा मटवीमा प्रविष्ट थ६ गया ता. (त एणं अहं तत्तो मुहुतंतराओ तुज्झे असण साहेमि त्ति कह जेणेव जोइभायणे जाव झियामि) ત્યાર પછી મેં આ જાતને વિચાર કર્યો કે ચાલો, બહુ જ જલદી તમારા માટે ભેજન તેયાર કરી લઉ. આમ વિચાર કરીને હું જ્યારે અગ્નિપાત્ર જયાં રાખ્યું હતું ત્યાં ગયે તો તેમાં મને અગ્નિ ઓળવઈ ગયેલ દેખાયું. ત્યાર પછી હું જ્યાં લાકડું હતું ત્યાં ગયે. ત્યાં જઈને મેં તે કાઠને સારી રીતે જોયું, ચારે તરફ જોયું પણ મને તેમાં અગ્નિ દેખાય નહિ. પછી મેં કમ્મર બાંધી અને કુહાડી લઈને તે કાષ્ઠ (લાકડા)ના બે કકડાઓ કર્યા. પછી તે કકડાઓને ચારે તરફથી સારી રીતે જોયા મને તેમાં પણ અગ્નિ દેખાય નહિ. આમ મેં તેના ત્રણચાર ત સં યાત કકડાઓ કરી નાખ્યા બધા કકડાઓને ચારે તરફથી સારી રીતે જોયા પણ ત્યાં મને જરા પણ અગ્નિ દેખાય નહિ. ત્યારે હું થાકને, તાન્ત, પરિતાન્ત થઈને અને ખેદ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭૮ राजप्रश्नीय %3D 3D - - - - छेकः दक्षः प्राप्तार्थः यावत् उपदेशलब्धः तान् पुरुषान् एवमवादीत-- गच्छत ग्वलु यूयं देवानुमियाः ! स्नाताः कृतवलिकर्माणः यावत् शीवमा. गच्छत यावत् खलु अहमशन साधयामीति कृत्वा परिकर बध्नाति पर, मुझे अग्नि का नामतक भी नहीं पाया. नर मैंने थककर तान्न, परि. तान्त होकर और खेद विन्न होकर कुल्हाडी को एकान्त में एक और रख दिया और कमर को खोल दिया-फिर मैंने ऐमा विचार किया-मैं अपहतमनः संकल्पवाला बना हुआ शोक एवं चिन्तारूपी समुद्र में इवा हु'. कपोल पर हथेली रखकर बैठा हुआ है, आर्त ध्यान कर रहा है और लज्जा के मारे जमीन की ओर देख रहा हूँ (तएण तेमिं पुरि साण एगे पुरिसे छेए दक्खे, पत्तट्टे जाव उपासलद्धे ते पुरिसे एवं बयासी) इस के बाद उन पुरुपों के बीच में एक पुरुष ऐग्ग था तो ठेक-अवसर का ज्ञाता था, दक्ष-कार्यकृ.गल था, मानार्थ-अपनी कुशलना से जिसने साध्यार्थ-को अधिगत कर लिया था, यावत् गुरूपदेश जिमने प्राप्त किया था. उसने उन काष्टहारक पुरुषों से ऐसा कहा-(गच्छह ण तुज्झे देवाणुप्पिया ! हाया, कयवलिकरमा जाव हबमागच्छेह, जा ण अह' असा साहेमि त्त को पार कर बंधड) हे देवानुमियों ! आप लोग जाइये, स्नान कीजिये, वलिकर्म-काक आदि को अन्नादि का भाग देने ખિન્ન થઈને કુહાડીને એક તરફ મૂકી દીધી અને બાંધેલી કેડ ખોલી નાખી પછી મેં આ જાતને વિચાર કર્યો. હું તે માણસો માટે હાજન બનાવી શક્યું નહિ. આ કેવી દુ:ખ અને આશ્ચર્યની વાત છે. આ પ્રમાણે વિચાર કરીને હું અપહત મનઃ સંક૯૫વાળો થઈને શેક અને ચિંતારૂપી સમુદ્રમાં મગ્ન થઈને, કપિલ પર હથેલી મૂકીને બેઠો છું, અને આર્તધ્યાન કરી રહ્યો છું. શર્મથી મારી નજર નીચી भीन १२४ वणी । छ. (नएणं ते मि पुरिगणं एगे पुरिसे छेए दक्खे, पनटे जाव उपाय लढे ते पुरिने एवं यामी) त्या२ पछी ते माणुसमां से माणुस. એ પણ હતું કે જે છેક ચોગ્ય સમયને પિછાણનાર, દક્ષ-કાર્યકુશળ પ્રાસાર્થપિતાની કુશળતાથી--જેણે સાધ્યાર્થી પ્રાપ્ત કરિ લીધે છે, એ યાવત્ ગુરુપદેશ જેણે प्रास या छ मेवो तो. ते ४।४।२४ भारसाने मी प्रमाणे . (गच्छह णं तुज देवाणुप्पिणा ! पहाया, कयवलिकम्भा जाच हव्वमागच्छेद, जाण अह अमण माहेमि त्ति कटु परिकर बंधइ) 8 वानुप्रियो (तमेयो। स्नान ७२, બલિકમ-કાગડા વગેરે અ વગેરેને ભાગ આપીને નિશ્ચિત્ત થઈ જાવ. યાવત Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सु. १४६ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीव प्रदेशिराजवर्णनम == ૨૨ गृह्णाति गृहीत्वा शर कराति शरेण अणि मध्नाति ज्योतिः पातयतिः ज्योतिः संधुक्षते तेषां पुरुषाणामशनं साधयति ततः खलु से पुरुषाः स्नाताः कृतबलिकर्माणः यावत् प्रायश्चित्ताः यत्रैव स पुरुषः तत्रैव उपागच्छन्ति, ततः खल स पुरुषः तेषां पुरुषाणां सुखासनवरगतानां तद् विपुलमशन पान खादिमं रूप कार्य से निश्चिन्न हो जाइये, यावत् कौतुक मंगलरूप प्रायश्चित्त कर लीजिये और फिर जल्दी आजाइये तबतक मैं आपलोगों के लिये भोजन तैयार करता है । ऐसा कहकर उसने अपनी कमर कसी आर (फरसु गिors) कुल्हाडी को उठाया (सर करेड़, सरेण अरणि महेइ) उससे पहिले उसने लडकी को इतना छीला कि जिससे वह वाण के जैसी लाई के रूप में हो गई. फिर उससे उसने अरणिकाष्ठ का मंथन किया (जोड़ पाडेई) मंथन करने से अग्नि उसमें प्रकट हो गई (जोई संधुवखे :). प्रकट हुई उस अग्नि को उसने पवन वगैरह आदि साधनों से विशेष चैतन्य किया. अर्थात् धोंका ( तसि पुरिसा असणं साहेड) अग्नि के तैयार हो जाने पर फिर उसने उन सब पुरुषों का भोजन बना दिया (एण ते पुरिसा व्हाया कपबलिकम्मा जाव पायच्छित्ता जेणेव से पुरिसे तेणेत्र उत्रागच्छइ) इतने में वे पुरुष स्नान करके, बलिकर्म - काकयादि को अन्नादि का भाग दे करके यावत्-कौतुक मंगलरूप प्रायश्चित्त करके उस स्थान पर आये - थीते जाए लेवी शसाक्ष કૌતુક મ ́ગળરૂપ પ્રાયશ્ચિત્ત કરી લે. અને પછી જલદી અહીં ઉપાસ્થિત થઇ જાવ. આટલામાં હું તમારા માટે ભાજન તૈયાર કરૂ છુ. આમ કહીને તેણે પોતાની કેડ जांधी ने (फर' 'गण्ड) डुडाडी हाथभां सीधी (मरं करेड सरेण अरणि महेड) तेथे सौ पडेसां साम्डाने खेवी शेते छोट् वु थयुं पंछी तेनाथी तेथे भरष्टितुं मंथन यु (जोड़ पाडे) मंथन १२वाथी तेभांथी माग्न आउट थ गयो (जोड़ संधुकखेइ ) अउट थयेस ते व्यग्निने पवन वगर- साधनाथी तेने सविशेष अनवसित यो (तमि पुरिसाण असणं साइ) अग्नि क्यारे अवक्षित था गयो त्यारे तेथे ते घर सोडी भाटे सोन तैयार . (तएण ते पुरिसा पहाया कवबालकम्मा जान पायाच्छता जेणेव से पुरिसे तेणेव उवागच्छड़) भाटलाभां ते मघा भाणुसे स्नान रीने, मसि કાગડા વગેરેને અન્ન વગેરેનો ભાગ આપીને યાવત કૌતુક મંગળરૂપ પ્રાયશ્ચત્ત કરીને ते नभ्यामे 'यावी गया. न्यां ते पु३ष हुतो. तए णं से पुरिसे तेमिं पुरिमाणं सुहास वरयाणं तं विरलं असणं, पाणं खाइमं साइमं उवणे तपणं ते पुरिमा " Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० राजप्रश्नीयम् स्वादिमम् उपनयति, ततः खलु ते पुरुषाः तद विपुलमशनं पान ग्वादि मं स्वादिमम् आस्वादयन्तो विम्वादयन्तो यावद विहन्ति, जिमितभुक्तो,त. रागता अपि च खलु मन्तः आचान्ताः चोक्षाः परमशुचिभृताः तं पुरुष मेवमवादिषुः-ग्रहो ! ! ग्वल व देवानुपिय ! जडः मूढः अपण्डितः निर्विज्ञान: अनुपदेशलब्धः यः खलु वामन्छमि काष्ठ द्विधा स्फाटिने वा यावत् जहां कि वह पुरुष था. (तएण से पुरिसे नेमि पुरिमाणं सुहासणवरगया णं तं विउलं असणं पाणं ग्वाइमं माइमं उवणेइ, नपण ते पुरिमा त विउल अमण पाण खाइम साइम आनापमाणो विमाएमाणा जाब विहरति) वहां आकरके वे सबके सब पुरुप अपने२ सुग्वासन पर बैठ गये. उनके वैट जाने पर फिर उस पुरुप ने उम प्रचुर ग्वादा आदि सामग्री को लाकर उनके समक्ष रख दिया और परोस दिया, उन सबने उम भोजन सामग्री चारों प्रकार के आहार को-उसका स्वाद जानने के लिये पहिले तो चखा रुचि से उसे खाया (जिमियभुत्तत्तगगया वि य समाणा आयंता चोकवा परमसुइभृया त पुरिस एवं वयासी) ग्वा पीकर जब वे निश्चिन्त हो गये-तब वहां से उठे. और उठकर आचमन किया, आचमन-कुल्ला करने के बाद फिर उन्होने अपने हाथ मुह आदि को अच्छे प्रकार से धोकर माफ किया. इस तरह परम शुचियुक्त होकर फिर उन्होंने उस पहिले पुरुष से ऐसा कहा-(अहो तुम देवाणुप्पिया ! जड़ें, मूढे, अपडिए निविणाणे. अणुवएमलद्धे, जे ण तुम इच्छसि कट्ठसि दुहा तं विउलं असणं पाणं खाइमं माइमं आसाएमाणा विसाएमाणा जाव विहरति) त्यो भने ते मया ५३थे। पातपाताना स्थाने सुमासन ५२ मेसी ગયા. તેઓ જ્યારે બેસી ગયા ત્યારે તે પુરૂષે તે પ્રચુર ખાદ્ય વગેરે સામગ્રીને લાવીને તેમની સામે મૂકી દીધી અને પીરસી દીધી. તેઓ બધાએ તે ભજન સામગ્રીને ચારે પ્રકારના આહ(રને–તેના સ્વાદને જાણવા માટે પહેલાં તો તેને ચાખે પછી भू०५ ३यिपूर्व तेने. भ्या. ('मियभुत्तनगगगा वि य णं समाणा आयंता चोखा परममुहभूया तं पुरिसं एवं वयासी) माध-पीने न्यारे तेमा निश्चत થઈ ગયા ત્યારે તેઓ ત્યાંથી ઉભા થયા અને ઉભા થઈને આચમન–કેગળા–કરીને પછી તેમણે પિતાના હાથ મેં વગેરેને સારી રીતે ધોઈને સ્વચ્છ કર્યા. આ પ્રમાણે ५२भ शुथियुत धने पछी तेभरे ते पडसा पुरुष मा प्रभारी ४ढुं. (अहो गं तमं देवाणुप्पिया। जड्डे! मूढे अपंडिए निरिणाणे, अणुवएसलद्धे, जे गं Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - सुबोधिनी टीका स. १४६ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशोराजवर्णनम् २८१ ज्योतिद्रष्टुम्, तदेतेनार्थेन प्रदेशिन् ! एवमुच्यते मूहतरकः खलु त्वं प्रदेशिन् ! ततः काष्ठहारकात् । ॥ मू०.१४६ ॥... टीका--'तए णं केसिकुमारसमणे' इत्यादि-ततः खलु केशिकुमारश्रमणः प्रदेशिन राजानमेवमवादीत-हे प्रदेशिन । ततः-तस्मात् काष्ठहारात् पुरुषात् त्वं मूढतरकः-अतीव मूर्खः खलु प्रतिभासि! तत्र प्रदेशी हेतु पृच्छति-हे. भदन्त ! काः खलु असौ काष्ठहारकः ? केशी पाह-हे प्रदेशिन् ! फलियासि वा जाव जोइ पासित्तए) हे देवानुप्रिय ! तुम जड हो, अग्नि को उत्पन्न करने के साधन से अनभिज्ञ हो, मुर्ख हो-विवेक रहित हो, अपण्डित हो-भतिभा से युक्त नहीं हो, निर्विज्ञान-कुशलता तुम में नहीं है, अनुपदेशलब्ध-तुम ने इस विषय में गुरू का उपदेश प्राप्त नहीं किया है, अर्थात् अशिक्षित हो, इसीलिये लकडी में अग्नि को पाने के लिये तुमने उसे फाडा है, दो बडे किये हैं, तीन टुकड़े किये हैं, चार टुकडे किये हैं. यारत सरूयात टुकड़े किये हैं, फिर भी तुम उसमें अग्नि नहीं देख सके-अतः तुम सच्चेरूप में मूढत्वादि पूर्वोक्त विशेषणों से शून्य नही हो. (से एएणडेणं पसं. ! व दुई। मृढ़तराए ण तुम पए सी. ! ताओ कहाराओ) इस प्रकार से मढ़तरत्वसाधक दृष्टान्त का कथन कर उपसंहार करते हुए अब केशी प्रदेशी से कहते हैं-हे प्रदेशिन् ! तुम इस दृष्टान्तोक्त पुरुष की अपेक्षा भी अधिक मूर्ख हो जो तुम . पुरुष के शरीर को छिन्न भिन्न करके उसके जीव को देखने के लिये अभिलाषी बने हो । एम इच्छसि कति दुहा फालियसि वा जाव जोई पासित्तए) वानुપ્રિય! તમે જડ છે, અગ્નિ ઉત્પન્ન કરવાના સાધનથી, અનભિજ્ઞ છા, મૃખ છે, विवे: २हित छt, PARत छ।, प्रतिमा २हित छौ, निविज्ञान-शता हित छ।, અનુપદેશલબ્ધ-તએ આ બાબતમાં. ગુરૂનો ઉપદેશ પ્રાપ્પ કર્યો નથી, એટલે કે તમે આશિક્ષિત છો, એથી જ લાકડીમાંથી અગ્નિ મેળવવા માટે તમે તેના કકડા કરી નાખ્યા છે. બે કઠા કરી નાખ્યા છે. ત્રણ કકડા કરી નાખ્યા છે, ચાર કકડાઓ કરી નાખ્યા છે યાવત્ સખ્યાત કકડા કરી નાખયા છે. છતાં એ તમને તેમાં અગ્નિ દેખાય નહિ, એથી તમે ખરેખર મૂઢત્વ વગેરે પૂર્વોકત વિશેષણોથી રહિત નથી. (से एएणह णं पएसी ! एवं वुचई मूहतराए ण तुमं पएसी ! ताओ कट्ट हाराओ) मा प्रभारी मदत२१ साध दृष्टांत डीने ५२ ४२ता शी प्रशीन કહેવા લાગ્યા કે હે પ્રદેશિન! તમે આ દષ્ટાન્તમાં આવેલ પુરૂષ કરતાં પણ વધારે ભૂખે છે. કેમકે તમે માણસના શરીરના કકડા કરીને તેમના જીવને જેવા તત્પર થયા હતા, Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૨ राजप्रश्नायसूत्रे ते यथानामकाः अनिर्दिष्टनामानः केचित् पुरुषाः वनार्थिन:-वनमेवार्थोऽस्त्येषामिति वनार्थिन:-वनप्रयोजनयुक्ताः वनोपजीविनः वनेन वन्यकाष्ठादिना उपजीविनः जीवन निर्वाहकारिणः काष्ठहारका इत्यर्थः, बनगवेपणया-वननिज्ञा सया ज्योतिः-अग्निं च ज्योतिर्भाजनम्-अग्निपात्रं च गृहीत्वा काष्टानाम्इन्धनानाम् स्थानभूताम् अटवीम् अनुपविष्टाः, ततः-तदनन्तरम् ते पुरुषाः तस्याः अग्रोमिकाया:-जनवसतिरहितायाः, अटव्याः किञ्चिद्देश- स्वल्पदेशम् अनुमाप्ता:-क्रमेण गताः सन्तः एक पुरुषम् एवमवादिषुः-हे देवानुप्रिय ! वयं काष्ठानामटवीं पविशामः, इतः खलु त्वं ज्योतिर्भाजनात्-अग्निपात्रात् ज्योतिः अग्नि गृहीत्वा अस्माकमशनं साधये:-निष्पादयेः. अथ-भोजननिष्पादनसमये ज्योतिर्भाजने तत्-पूर्व तो रक्षिन ज्योतिः विध्यायेत्-- शाम्येत् तदा इत:-एतस्मात् कोप्ठात् खलु त्वं ज्योति:-अग्नि गृहीत्वा अस्माकमशन साधयेः इति कृत्वा-इत्याज्ञाप्य ते काष्ठहारकाः काष्ठाना मटवीमनुप्रविष्टाः, ततः तेषां गमनानन्नर खलु स पुरुपः ततः-मुहूर्ताः' न्तरात्-किञ्चित्कालोनन्तरम् तेपां-वन प्रविष्टानां पुरुषाणाम् अशन' साधयामीति कृत्वा-इत्यभिप्रेत्य यत्र व-यम्मिन्नेव स्थाने ज्योतिर्भाजनमासीद तत्र व-तस्मिन्नेव स्थाने उपागच्छति, परन्तु ज्योतिर्भाजने-अग्निपात् ज्योतिःअग्निम् विध्यातमेव-प्रशान्तमेव पश्यति, ततः खलु सः-अशननिष्पादनार्थी पुरुषः यत्रैव तत् काष्ठ तत्रैव उपागच्छति. उपागत्य तत् काष्ठ सर्वतः समन्तात् समभिलोकते नो चैव-नैव खलु तत्-काष्ठे ज्योतिः-वहि पश्यति. ततः तदनन्तरम् स पुरुषः परिकर कटिन्धनं बध्नाति परशु-कुठारं गृह्णाति तत् काष्ठद्विधा स्फाटित-विदारित करोति-सर्वतः समन्तात् स्मभिलोकते नो चैव खलु तत्-काष्ठे ज्योतिः-वह्नि पश्यति, एवम्-अनेन प्रकारेण यावत्-- यावत्पदेन 'त्रिधा स्फाटित चतुर्धा स्फाटितम्' इत्येषा पदानां सङ्ग्रहो बोध्यः, संख्येयधा-संख्यातखण्ड' स्फाटित क ोति. कृत्वा सर्वतः समन्तात् समभिलोकते, नो चैव तत् ज्योतिः पश्यति, ततः तदनन्तरम् खलु स पुरुषः तस्मिन्-कृतकुठारपहारे काष्ठे द्विधा स्फटिते यावत् संख्येयधासंग्च्यातखण्डशः स्फाटिते वा ज्योतिः अपश्यन् श्रान्तः-श्रम मातः, तान्तः -क्लान्तः, परितान्तः-विशेषतःक्लान्तः, निर्विणः-खिन्नः सन् परशु-कुठारम् एकान्ते-रहसि एडति-देशीयोऽयमेडधातुर्मोचनार्थः, तेन 'मुश्चति' इत्यर्थः. मुक्त्वा परिकर-कटिबन्धन मुश्चति, मुक्त्वा एवमवादीत-अहो!! Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवे धिना टीका. सू. १४६ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २८३ विम्मयोऽत्र यत् मया मन्दभाग्येन तेषां पुरुषाणामशन-भोजनं नो साधिनम्, इति कृत्वा-उति विचिन्त्य अहतमनःसंकल्पः-नष्टमनोऽभिलापः, चिन्ताशोकसागरसंपविष्टः--चिन्तायो कपमुद्रनिमग्नः, करतलपर्यस्तमुख:कालनिहितकोलः, मुख शब्दस्प मुवावयवकपोलपरत्वात्, बात ध्यानोपगत:-आतध्यानयुक्तः, भूमिगतदृष्टिकः-पृथिवीतलनिरीक्षणतत्परः-अधोमुखः, ध्यायति-चिन्तां करोति. तत इतश्च ते-अटवीमनुपविष्टाः पुरुषाः काष्ठानि छिन्दन्ति, छित्वा यत्रैव सः अशननिष्पादनाथी पुरूषः तत्रैव उपा. गच्छन्ति, उपागत्य त पुरुषम् अपहतमनःसंकल्प यावत्-यावत्पदेन "चिन्ताशोकसागरसंपविष्ट', करतलपर्यस्तमुखम्, आतध्यानोपमत, भूमि गतदृष्टिकम्" इत्येषां पदानां सङ्ग्रहो बोध्यः, ध्यायन्त-चिन्तां कुर्वन्त टीकार्थ स्पष्ट है-इस सत्र का भावार्थ ऐसा है-कि जिस प्रकार प्रथम पुरुष को काष्ठ में अग्नि के दर्शन नहीं हुए और द्वितीय पुरुष को हो गये. उसी प्रकार तुम्हें भी उस चोर पुरुषके शरीर में छिन्नभिन्न करने पर भी उसको जीव के दर्शन नहीं हो सके एतावता यह कैसा कहा जा सकता है कि जोच दिखाई नहीं देने से जीव नाम का कोई स्वतंत्र पदार्थ नहीं है. इसलिये जीव और शरीर एक हैं ऐपी तुम अपनी मान्यता का परित्याग कर यह मानो कि जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है. ये दोनों एक नहीं हैं। यहां मूत्र में जो 'करतलपर्यस्तमुखः' ऐसा पद आग है -उनमें मुखशब्द मुख के अवयवभूत कपोल अर्थ में आया है 'अपहतमनःसंकल्प जाव' में जो यह यावत् पद आया है-उससे 'चिन्ताशोकसागरसंपविष्टः, करतल पर्यस्तमु वः, पानध्यानोवगतः, एवं भूमिगत दृष्टिकः' ટીકાર્ય આ સૂત્રનો સ્પષ્ટ જ છે. આ સૂત્રનો ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે કે જેમ પહેલા માણસને કાષ્ઠમાં અગ્નિના દર્શન થયા નથી અને બીજા માણસને થયા તેમજ તે ચેર પુરૂષના શરીરના કકડે કકડા કરવા છતાં તેના જીવના દર્શન તમને થયા નથી. એનાથી આ કેવી રીતે કહી શકાય કે જીવ દેખાતો નથી. . તેથી જીવ નામનો કેઈ સ્વતંત્ર પદાર્થ જ નથી. એથી જીવ અને શરીર એક જ છે. એવી તમારી જે માન્યતા છે તેને તમે છોડી દો અને આ વાત સ્વીકારી લેકે જીવ (भन्न छ भने शरीर भिन्न छ मेयो भन्ने सनथी. मडी सूत्रमा 'करतल. पर्यस्तमुख' मा त ५४ छ तभी भुभ शम भुमना अवयवमत योस अर्थमा मा छ "अपहतमनः सकल्प जाव" भारे यावत् प६ मावेस छ, तेथी 'चिन्ताशोकसागरसंपविष्टः करतलपर्यस्तमुखः आतध्यानोपगतः एवं Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीयसूत्रे २८४ पश्यन्ति, दृष्टी एवम् अनुपदं वक्ष्यमाण बचनम, अवादिषु:-कि-- कारण खलु ? हे देवानुधिय ! त्वम् अपहतमनःसंकल्पः यावत-ध्याय. सि ?-चिन्तां करोपि ?, ततः-तदनन्तरम् खलु स पुरुषः एवमवादीत-हे देवानुमियाः। यूयं ग्वलु काष्ठानामटवीमनुपविशन्तः मम एवमवादिष्ट-कथि तवन्तः, किमित्याह-हे देवानुपिय! वयं खलु कोष्ठानामटवीं यावत्-यावपदेन "प्रविशामः, इतःखलु त्वज्योतिर्भाजनात ज्योतिर्गृहीत्वाऽस्माकमशन साधयेः, अथ तज्योतिर्भाजने ज्योतिर्विध्यायेत् इतः खलु वंकाष्ठान ज्यो. तिगृहीत्वाऽस्माकमंशन साधयेरिति कृत्वा काप्ठानामटवीम" इत्येर्पा पदानां सङ्ग्रहो बोध्यः, अनुपविष्टाः, ततः-तदनन्तर खलु अहः ततो-मुहू न्तिरात् युप्माकमशन साधयामीति कृत्वा यत्रैव ज्योतिर्भाननं यावत्-याव, पदेन "तत्र व उपागच्छामि ज्योतिर्भाजने ज्योतिर्विध्यातमेव पश्यामिः ततः खलु अहं यत्रैव तत् काष्ठं तत्र व उपागच्छोमि, उपागम्य तत् काष्ठं सर्वतः समन्तात समभिलोके नो चव तत्र ज्योतिः पश्यामि, ततः खलु अह परिकरं वन्नामि परशुगृह्णामि तत् काप्ठं द्विधा स्फाटितं करोमि कृत्वा सर्वतः समन्तात् समभिलोके. नो चैव तत्र ज्योतिः पश्यामि, एवं यावत् त्रिधा चतुर्धा संख्येयधा स्फाटितं करोमि सर्वतः समन्तात् समभिलोके नो चैव तत् ज्योतिः पश्यामि, तत् . खलु अह तस्मिन् काठे द्विधा स्फाटिते वा यावत् त्रिधा चतुर्धा संख्येयधा वा स्फाटिते ज्योतिरपश्यन श्रान्तः तान्तः परितान्तः निर्विणः सन् परशुमेकान्ते (एडामिदे०) मुश्चामि मुक्त्वा इन पदों का ग्रहण हुआ है। 'काष्ठानामटवीं यावत् में आये हुए यावत्पद से 'प्रविशाम:. इतः खलुत्वं ज्योतिर्भाजनात् ज्योति हीत्वाऽस्माकमशन साधये, अथ तज्जयोतिर्भाजने ज्योतिर्विध्यायेत्-इतः खलु व काष्ठान ज्योतिर्गहीत्वा अस्माकमशन साधयेरिति, कृता काष्ठानामटवीम्' इस.पाठ का संग्रह हुआ है। ‘एवं यावत् संख्येयधा' में आये हुए यावत्पद से त्रिधा स्फाटित', चतुर्धा स्फाटितम्'. इन पदों का संग्रह हुआ है। 'एडति' यह शब्द देशीय भूमिगत दृष्टिक आ पहोर्नु यह थयु छ. 'काष्टानामटवीं यावत, भा.मावेस यावत् ५४थी 'प्रविशामः इतः खलु त्वं ज्योतिर्भाजनात् ज्योति हीत्वाऽस्माकमशन साधये, अथ, तज्ज्योतिर्भाजने , ज्योतिर्विध्यायेत् इतः खलु स्व' काष्ठात् ज्योति हीन्वा, अस्माकमशन साधयेरिति कृत्वा काष्टानामटको' मा पाइने सड थया छ.: 'एवं यावत् संख्येयधा'. मां आवेदी : यांवत् : पंथी 'त्रिधा :स्फाटितं चतुर्धास्फाटतं' - पहोने सड थथे।-- छ.. "एडत्ति' मा Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिना टोका सू. १४५ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवण नम् परिकर मुञ्चामि एवमवादिपम्-अहो ! ! मया तेषां पुरुषाणामशन' ना साधितमिति कृत्वा अपहत्तमनः संकल्पः चिन्ताशोकसागरसंमविष्टः करतल. पर्यस्तमुखः आतध्यानोपगतो भूमिगत दृष्टिकः” इत्येषां सङ्ग्रहो योध्यः, एपां व्याख्याऽस्मिन्नेव सूत्रे पूर्व कृता, ध्यायामि-चिन्तां करोमि, ततः-तदनन्तरं तेषां पुरुषाणां मध्याद्. एकः कोऽपि पुरुषः छेकः-अवसरज्ञः, दक्षः-कार्यकुशलः, प्राप्ता:-निजकौशलेनाधिगतसाध्यरूपार्थः, यावत-यावत्पदेन"वुद्ध, कुंशला, महामतिः विनीतः विज्ञानप्रासः” इत्येषां पदानां सङ्ग्रहो बोध्यः, एषां व्याख्या पूर्वगता, नथा उपदेशलभः-प्राप्तगुरूपदेशः, शिक्षित इति यावत्, एतादृश एकः पुरुषः तान-काष्ठहारकान् पुरुषान एवमवा. दोत्-हे. देवानुप्रियाः ! यूयं गच्छत खलु स्नाता:-कृतस्नानाः कृतवलि. कर्माण:-कृतवायमादिनिमित्तान्नदानाः, यावत-प्रायश्चित्ता:-यावत्पदेनकुनकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्ताः" इत्येतत्पदसङ्ग्रहो बोध्यः, एतादृशाः सन्तः शीध्रमागच्छत्त, किंयता कालेन ? इति जिज्ञासायामाह-यावत् -यावत्कालेन खलु अहम् अशन-भोजन साधयामि-नष्पादयामि. इति कृत्वा-इत्युक्त्वा पार कर बनाति-कटिबन्धनं करोति, परशु-कुठारं गृह्णाति, गृहीत्वा शरबाणसंशं प्रतनुकाष्ठं करोति तेन शेरेण-तनूकृतकाष्ठेन अरणि-काष्ठ: विशेष म नाति-संघर्षति, ज्योति:-अग्निं पातयति-निष्काशयति, पातयित्वा जयतिः-वहिं संघुक्षते-संदीपति, संदीप्य ते पुरुषाणामशनं साधयति, तत:-अशननिष्पादनानन्तरम् खलु ते पुरुपा:स्नाता: कृतवलिकर्माणः यावत् प्रायश्चित्ता:-कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्ताः सन्तः यत्र व स पुरुषं आसीत तत्रत्र : उपागच्छन्ति, ततः खलु स पुरुषः तेषां पुरुषाणाम्, · सुखासनवरगतानांहै. इसमें एड धातु मोचन अर्थ में है। 'अहो' शब्द वि.सयार्थक है। ‘पत्तट्ट जाब' में जो. यावत्पद पाया है-उससे यहां 'बुद्धः, कुशल, महामतिः, विनीतः, विज्ञानप्राप्तः' इन पदों का संग्रह हुआ है। इन पदों की व्याख्या पहिले की जा चुकी है। 'कयवलियम्मा जाव' में आये हुए यावत् पद से 'कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्ताः' इम पद का संग्रह हुआ है। 'दुहा फालियंसि शम् देशीय छ.. २माम "एड' धातु' 'मोचन' अर्थ मा छे. 'अहो' शण्ट विस्मयार्थ छ. 'पत्तडे जाव" भरे यावत् १६ मावेल छ. तेथी मी 'वुद्धः, कुशलः,. महामतिः विनीतः, विज्ञानप्राप्तः,'. २मा पहोना सब थयो छ. या पहानी व्याज्या पडदा ४२वामा भावी छ. · 'कयवलिकम्मा जा' भां मावसं यावत् १४थी 'कृतकौतुकमङ्गलमायश्चित्ताः' मा पहनेसंघ थयो छ. 'दुहा फालिय सि Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नायसूत्रे सुग्वदोत्तमासनोपविष्टानाम्, सताम् पुरतः तत्-माधित, विपुलं - पुष्कलम, अकान पान खादिमं स्वादिमम् उपनयति-परिवेशयति, ततः खलु ते पुरुषाः तद्विपुलमशनं पान खादिमं स्वादिमम् आस्वादयन्तः - सामान्यतः स्वादयन्तः, विस्वादयन्तः - विशेषेण स्वादयन्तः यावत्- यावत्पदेन - " परिभा जयन्तः परिभुञ्जाना' इत्यनयोः पदयोः सङ्ग्रो बोध्यः, तत्र परिभाजयन्त:परितो वण्टयन्तः, परिभुञ्जानाः-परित - आवृत्ति भुञ्जाना, विहरन्ति तिष्ठन्ति । जिमित भुक्तोन्तरागताः - जिमितं चतुर्विधमशनं तस्यायतं भोजनं तदुत्तरं तदनन्तरं कालम् आगता प्राप्ताः अपि च मन्तः आचन्ता - कृताऽऽनमनाः, चोक्षाः सामान्यतः शुद्धाः परमशुचिभूताः - गण्डूषादिभिर्विशेषतः शुद्धाः तम् पुरुषम्, एवम्-अनुपदं वक्ष्यमाणं वम अवादिषुः - अहो !! देवानुप्रिय ! स्वं खलु जडः जडसदृशः - विशिष्ट चेतनारहितत्वात् मृढ: - मूर्ख, अपण्डितःसदसद्विवेक विकलत्वात् निर्विज्ञान:- कौशलरहितः, अनुपदेशलब्धः - अमाप्तगुरूपदेशः श्रशिक्षितश्चासि, स्वम् खल द्विधा स्फटिते काष्ठे यावत् त्रिधा चतुर्धा संख्येयधा वा स्फटिले काष्ठ ज्योतिः वहिं द्रष्टुमिच्छसि इति मूढ तरसाधकदृष्टान्तमुक्त्वोपसंहरति हे प्रदेशिन् तदेतेन - अनन्तरोनेन अर्थेनदृष्टान्तरूपेण एत्रम्-इत्थम् उच्यते कथ्यते यद हे पदेशिन् ! तस्मात् अपाचकात् काष्ठहारात मूढ़तर:- अतिमूर्ख : असि ॥ सृ० १४६|| 9 मूलम--तए णं पएसी राया केसिकुमारसमणं एवं वयासीजुत्तए णं भंते! अइदक्खाणं बुद्धाणं कुसलाणं महामईणं विणयाणं विष्णाणपत्ताणं उवएसलद्धाणं अहं इमीसाए महइ महालयाए परिसाए मझे उच्चावएहिं आउसेहि आउसित्तए, उच्चावयाहिं उद्धसणाहि उद्धसित्तए, एव उच्चावयाहि निब्भछणाहि निब्भछत्तए, उच्चावयाहिं निच्छोडणाहिं निच्छोडित्तए ? ॥ सू० १४७॥ २.८६ १ - वा जाव' में यावत् पद से 'त्रिधा, चतुर्धा, संरूयेयधा वा स्फाटिते काष्ठे " इन पदों का संग्रह हुआ है | मु. १४६ ॥ वा जात्र' भां यावेस यावत् पढथी 'त्रिधा, चतुर्धा, संख्येयधा वा स्फाटिते काष्ठे' આ પટ્ટાના સંગ્રહ થયા છે. ાસુ ૧૪૬ના Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सू. १४७ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशीराजवर्णनम् २८७ छाया-ततः खलु प्रदेशी राजा केशिकुमारश्रमणमेवमवादीत-युक्तः खलु भदन्त ! युस्माकम् अतिच्छेकानां दक्षाणां बुद्धानां कुशलानां महामतीनां विनीतानां विज्ञान प्राप्तानाम् उपदेशलब्धानाम् अहम् अस्याः महाति महालयाः परिषो मध्ये उच्चावचैः आक्रोशैः अक्रोष्टुम्, उच्चावचाभिरुद्धपणाभिरुद्धर्षयितुम्, उच्चावचाभिनिर्भत्सनाभिनिर्भसंयितुम्, चावचा भिनिश्छोटनाभिनिश्छोटन्तिम ? । मु० १४७॥ . ... 'तए णं पएसी राया' इत्यादि। मूत्रार्थ-(तए णं पएसी राया केसिकुगारसमणं एवं वयासी) हमके बाद प्रदेशी राजाने केशीकुमार श्रमण से ऐसा कहा-(जुत्तएण' भते ! अइदक्खाण बुद्धाण कुसलाण महामईग विणीयाण विण्णाणपत्ताण, उत्र एमलद्धाणं) हे भदन्त ! अतिच्छेक-अवसरज्ञ, दक्ष-चतुर, बुद्ध-तत्वज्ञ, कुशलकर्तव्या-कर्तव्य निर्णायक. महामति औत्पत्तिको आदिबुद्धियों से युक्त, विनीत- शिष्ट, विज्ञानप्राप्त-सत् असत के विवेक से संपन्न, एवं उपदे शलब्ध-गुरु के उपदेश को प्राप्त करने वाले ऐसे आपके लिये (अहमी साए महइमहालियाए परिसाए म झ) मुझ से इस अतिविशाल परिषदा के बोच में (उच्चावएहिं आउसेहिं आउसित्तए, उच्चावयाहिं उद्धमणाहिं उद्धासित्तए) उच्चावच-नाना प्रकार के कठिनवचनरूप आक्रोशों से संलाप करना नानाप्रकार की अनादर सूचक बचनरूप उद्धपणाओं से मुझे उद्धर्षित करना, (एवं उच्चावयाहिं निभंछणाहिं निभंछित्तए, उच्चावयाहिं 'तए णं एएसी राया' इत्यादि । सूत्रार्थ-तरणं पएसी राया केसिकुमारसमणं एवं वयासो) त्या२ पछी प्रहा. २-येशीभार श्रमाने २मा प्रमाणे ह्यु-(जुत्तएणं भंते ! अइदउखाणं वुद्धाणं कुसलाणं महामईणं विणीयाणं, विण्णाण पत्ताणं, उवएसलहाणं) ९ मत ! पति छ४-२अवस२, ४क्ष-यतुर, सुद्ध-तत्वज्ञ, शग-व्यातव्य नि. યક, મહામતિ-ઔત્પત્તિકી વગેરે બુદ્ધીઓથી યુકત, વિનીત-શિષ્ટ, વિજ્ઞાન પ્રાપ્તસત્ અસતના વિવેકથી યુકત અને ઉપદેશલધ–ગુરૂના ઉપદેશને પ્રાપ્ત કરનાર એવા तभा। 43 (अहं इमीसाए महईमहालियाए परिसाए मज्झे) भारी साथे मा.मतिविशा परिषद्यानी ये (उच्चोवएहिं आउसेहि आउसित्तए, उच्चावयाहिं उद्धंसणाहिं उद्धसित्तए) श्यावय-मने andना २ क्यन३५ मा-शाथी સંલાપ કરવું–અનેક પ્રકારના અપમાન સૂચક વચનરૂપ ઉદૂઘર્ષણથી ઉદૂધર્ષિત કરવું Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजनीयसूत्रे टीका--"तए णं पएसी" इत्यादि - ततः खलु म प्रदेशी राजा केशिकुमारभ्रमणमेवमवादीत् - हे भदन्त ! अतिच्छेकानाम् अवसरज्ञानां, दक्षाणाम्चतुराणां बुद्धानाम् तत्वज्ञानां कुशलानाम् कर्तव्यावर्तयनिर्णायकानां, महामनीनाम् औत्पत्तिक्यादिबुद्धियुक्तांना विनीतानाम् शिष्टानां विज्ञानमातानाम - सदसद्विवेक सम्पन्नानाम्, उपदेशलज्धानां प्राप्तगुरूपदेशानाम, युष्माकम अस्याः उपस्थितायाः, महाति महालयायाः अतिविशालायाः परिषदः सभाया मध्ये 'उच्चावचैः - नानाविधैः, ओक्रोशैः कठिनवचनरूपैः, आक्रोष्टुम् - संलपितुम, उच्चावचाभिः - नानाविधाभिः उदूघर्षणाभिः श्रनादर सूचकवचनलक्षणाभिः, उद्धर्षयितुम् वक्तम् उच्चावचाभिः नानाविधाभिः निर्भर्त्सनाभिः - अबहेनाभिः, निर्भयितुम्, अवहेल हितुम-उच्चावचाभिः नानाप्रकाराभिः निश्चोटनाभिः- नीरसवचनावलीभिः, निइछोटयितुम-संभावितुम, अह किं युक्तक: ?युक्तोऽस्मि योग्योऽस्मि ? सभासमक्षमेतादृग्वचन् रूपों व्यवहारो मत्कृते भवादृशानां महापुरुषाणां नोचित इति भावः । मृ० १४७ ॥ - मूलम् - तए णं केली कुमारसमणे पएसि राय एवं वयासीजाणासि णं तुमं पएसी ! कइ परिसाओ पण्णत्ताओ ? | जाणामि चत्तारि परिसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा- खत्तियपरिसा १, गाहावईपरिसार, माहणपरिसा ३, इसिपरिसा ४ । जाणासि णं तुमं पएसी ! एयासि चउन्हं परिसाणं कस्स का दडणीई पण्णत्ता ? हता !! जाग । म जे पणं खत्तियपरिसाए अवस्झइ से गं हत्थच्छिण्णए वा I ६. २८८ - ". निच्छांडणार्हि निच्छोडित्तए) नाना प्रकार की अबहेलनारूप निर्भर्त्सनाओं द्वारा मेरी निर्भर्त्सना करना तथा नाना प्रकार की नीरसवचनरूप निश्छोटनाओं मुझ से बोलना क्या योग्य योग्य है ? अर्थात् आप जैसे महापुरुषों को सभा के समक्ष ऐसा वचनरूप व्यवहार मेरे साथ करना उचित नहीं है। टीकार्थ- स्पष्ट है ॥ मु० १४७ ॥ द्वारा (एवं उच्चावयाहिं निव्र्भछणाहि निव्र्भछित्तए, उच्चावयाहिं निच्छोडणाहि निच्छोચિત્ત) અનેક પ્રકારના અવહેલનારૂપ નિભૃત્સનાઆવડે મારી ભત્સ ના કરવી તેમજ અનેક પ્રકારની નરસવચનરૂપ નિશ્ચેટના વડે મને ગમે તેમ ખેલવુ" શું ચાગ્ય છે ? એટલે કે તમારા જેવા મહાપુરૂષોને સભાની વચ્ચે આ જાતના વનાનું ઉચ્ચારણ अयत नहि वाय. टीडार्थ स्पष्ट ४ ६. ॥ सू० १४७॥ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनीटीका. सूत्र १४८ सूर्याभदाय पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २८९ पायच्छिण्णए वा सीसच्छिण्णए वा मूलाइए वा एगाहच्चे कूडाहच्चे जीवियाओ ववरोविज्जइ ? जे णं गाहावइपरिसाए अवरज्झइ से णं तएण वा वेढेण वा पलालेणं वा वेढित्ता अगणिकाएणं झामिज्जइ २। जे णं माहणपरिसाए अवरज्झइ से णं अणिवाहि अकंताहि जाव. अमणामाहिं वग्गूहिं उबालेभित्ता कुंडियालंछणए वा सुणगलंछणए वा कीरइ, निव्विसए वा आणविज्जइ ३ । जेणं इसिपरिसाए अवरज्झइ से णं गाइअणिटाहिं जाव णाइ अमणामाहिं वग्गूहिं उबालब्भइ ४ । एवं च तात्र पएसी! तुमं जाणासि तहावि गं तुमं ममं वान वामेणं, दंड दडेणं, पडिकूलं पडिकूलेणं, पडिलोम पडिलोमेणं. विवजा विवज्जासे वास ? सू० १४८॥ छाया-तनः खलु कशी कुमारश्रमणः प्रदेशिन रोजानमेवमवादीत-- जानासि खलु त्वं प्रदेशिन् ! पतिपरिषदः । प्रज्ञप्ताः? | जानामि चतसः परिपदः प्रज्ञताः, तद्यथा-क्षत्रिय परिपत् १, गाथापतिपरिषत् २, ब्राह्मणपरिपत 'ताण केसीकुमारसमणे' इत्यादि । त्रार्थ-(तए ण) इसके बाद (केसी कुमारसमणे) केशीकुमारश्रमणने (पएसिं राय एवं श्यामो) प्रदेशी राजा से ऐसा कहा-(जाणासि णं तुम पएसी ! कइ परिसायो पण्णत्ताओ १,) हे प्रदेशिन् ! तुम जानते होकितनी परिषदाएँ कहो गई हैं ?. प्रदेशोने कहा-(जाणामि चत्तारि परिसाओ पणनामो) हां भदन्त ! जानता हूं-वार परिषदा कही गई हैं। (त जहा___ 'तएणं केसीकुमारसमणे' इत्यादि । सूत्राथ-(तएणं) त्या२ पछी (केसी कुमारसमणे) शी भा२ श्रभरे (पए सिं राय एवं वयासी) अशी २०ने मा प्रमाणे ह्यु. (जाणासि गं तुम पएमी ! कर परिसाओं पणत्ताओ?) प्रहशिन ! तंभे on ® ४ पक्षिायो geel बाय छ ? 'प्रदेशीय.यु. (जाणामि चत्तारि परिसायो पण्णताओ) હા જી, ભદંત! હું જાણું છું કે ચાર જાતની પરિષદાઓ કહેવામાં આવી છે. (तं जहा, खत्तियपरिसा १, गाहावइपरिसो २, माहणपरिसा ३, इसि. परिसा ४) २ २ प्रमाणे छ-क्षत्रिय परिषहा, १ गाथापत्ति परिष। २, माझा Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . ... . - २९० __ राजप्रश्नोयसूत्र ३, ऋपिपरिपत ४। जानासि खलु त्वं प्रदेशिन् ! एतासां चतसृणां परिषदां (मध्ये) कस्य का दण्डनीतिः मज्ञप्ता ? हन्त ! ! जानामि-यः खलु क्षत्रियपरिषदि अपराध्यति स खलु हस्तच्छिन्नको वा पादच्छिन्नको वा मोर्षः च्छिन्नको वा शूलायितो वा एकाहत्य कूटाहत्यं जीविताद व्यपरोप्यते । यः खलु गाथापतिपरिपदि अपराध्यति स खलु स्वचा वा वेष्टेन वा पला : लेन वा वेष्टयित्वा अग्निकायेन ध्माप्यते २। यः खलु ब्राह्मणपरिषदि - खत्तियपरिसार गाहावईपरिसार, माहणपरिसा३, इसिरिसा४) जो इस प्रकार से हैं. क्षत्रियपरिपदा१, गाथापतिपरिपदार, ब्राह्मण परिषदा३ और ऋपिपरिपदा४, (जाणासि णं तुमं पएसी ! एयासिं च उण्हं परिमाणं कस्म का दंडणीई पण्णत्ता) हे प्रदेशिन् ! तुम जानते हो-इन चार परिषदाओं के वीच में किस अपराधी के लिये किस प्रकार दण्डनीति कही गई है ? (हता, जाणामि जेणं खत्तियपरिसाए अवरजह से णं हत्थच्छिण्णए वा पायच्छिण्णए वा, सीसच्छिण्णए वा मूलाइ वा एगाहच्चे, कुडाहच्चे जीवियाओ ववरो. विज्जइ)हां जानताह-क्षत्रियपरिषदामें-क्षत्रिय वर्ग जो काई क्षत्रीय अपने वर्ग में जिस किसी का भी अपराध करता है उसका या तो हाथ काट दिया जाता है, अथवा पग काट दिया जोता है, या शिर काट दिया जाता है, या शूली पर उसे चढा दिया जाता है, या उसे एक ही घाव से या पर्वत ऊपर से गिरा देने से प्राणरहित कर दिया जाता है। (जेणं गाहावइपरि. साए अवरजइ-से णं तरण वा वेढण वा पलालेणं वा वेढित्ता अगणिकाए णं जामिजह२) गाथापति परिषदा में-गृहपतिवर्ग में जो कोई गाथापति जिस किसी क परिषः 3, अने ऋषि परिषदा ४, (जाणासि णं तुम पएसी ! एयामि चउण्डं परिसाणं कस्स का दंडणीई पण्णता) र प्रदेशिन ! तमे ng! छ। ६ मा या२ पश्चिा-मामा - ordनी नीति अपामा मापी छ ? (हता, जाणामिजेण खात्तियपरिसाए अवरज्जइ सेण हत्थच्छिष्मए वा पायच्छिण्णए वा सीसच्छिण्णए वा मूलाइचा, एगाहच्चे कूराहच्चे जीवियाओ ववरोविज्जइ) હાજી જાણું છું. ક્ષત્રિય પરિષદામાં ક્ષત્રિયવર્ગમાં જે કંઈ ક્ષત્રિય પિતાની જાતિમાં કે પરજાતિમાં ગમે તેને અપરાધ (શુને) કરે છે તે તેને કાં તે હાથ કાપી નાખવા માં આવે છે, અથવા પગ કાપી નાખવામાં આવે છે, કે માથું કાપી નાખવામાં આવે છે કે તેને એક જ ઘામાં મારી નાખવામાં આવે છે કે પર્વત પરથી તેને ધકેલીને प्रारहित ४री नाभवामां आवे छ. (जे णगाहावइ परिसाए अवरज्जइ-से ण तएण वा, वेदेण वा, पलालेण वा वेद्वित्ता अगणिकाएण: जामिज्जा २) Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका. सू. १४८ सूर्याभदेवस्य भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २९१ अपराध्यति स खलु अनिताभिः अकान्ताभिः यावत् अमनोऽमाभिः वाग्भिः उपालभ्य कुण्डिलान्छनको ग शुन्य लान्छनको वा क्रियते, निर्विषयो वा श्राज्ञाप्यते ३ । यः खलु ऋषिपरिषदि अपराध्यति स खलु नात्यनिष्टाभिः यावत-नात्यमनामाभिः वाग्मिः उपलभ्यते ४ । एवं च तावत् प्रदेशिन् ! भी अपराध करता है, वह वृक्षादि की छाल से अथवा तणादिनिर्मित रस्सी से, या पलाल से परिवेष्टित किया जाकर अग्नि से जला दिया जाता है(जे ण माहणपरिमाए अवरज्जइ, से णे अणियाहिं अताहिं जाव अमणामाहि बग्गाहिं उबालभित्ता कुडियालंछणए वा सुणगलंछणए वा कीरह, निधिसए वा आणविजइ) ब्राह्मण परिषदा में जो ब्राह्मण जिस किसी का भी अपराम करता है, वह अनिष्ट-सामान्यरूप से अनभिलषित, अकान्तविशेषरूप से अनभिलषित-अप्रिय-प्रमवर्जित, अमनोज्ञ असुन्दर एवं अमन आम-मनः प्रतिकूल ऐमी वागियों से उपालंभ युक्त किया जाता है, तथा तप्तलोहे के तकये द्वारा कमण्डल के जैसे आकार वाले लांछन से ललाट में चिह्नित किया जाता है, अथवा कुचे के पग के जैसे आकारवाले चिह से लांछित किया जाना है, अथवा देश से बाहर निकाल दिया जाता है. तुम हमारे देश से निकल जाओ ऐसी आज्ञा उसके लिये दी जाती है३: (जेणं इसिपरिमाए अवरजह से णाइ अगिहाहिं जाव णाइ अमणामाहि चरहिं उबालभई ४) तथा जो ऋषि परिषदा में-ऋषिवर्ग में-ऋषि ગાથાપતિ પરિષદામાં-ગૃહપતિ વર્ગમાં જે કોઈ ગાથાપતિ ગમે તેને અપરાધ કરે તે તે વૃક્ષ વગેરેની છાલથી અથવા તૃણ વગેરેથી નિર્મિત દેરી કે પલાલથી પરૂિ टित ४२४ मनि43 वाम .या छ... (जेणं माहणपरिसाए अवर.. ज्जह से णं अणियाहिं अकंताहिंजाब अमणा माहिं वग्नहि उवालंभित्ता कुडिया लंछणए वा सुणगलंछणए वा कीरइ. निधिसए वा आणविज्जइ) ग्राम पर ષદામાં જે બ્રાહ્મણ ગમે તેને અપરાધ કરે છે તે તે અનિષ્ટ–સામાન્ય રૂપથી અને ભિલાષિત, એકાંત-વિશેષરૂપથી અનલિષિત યાવત્ અપ્રિય-પ્રેમવજિત, અમનેઅસુંદર અને અમન આમ મન:પ્રતિકૂલ એવી વાણીઓથી ઉપાલંભયુકત કરવામાં આવે છે તેમજ તપત થયેલ લેખંડના સળિયા વડે કમંડલું જેવા આકારથી ચુકત ચિહ્નથી લલાટમાં ચિન્હિત કરવામાં આવે છે. અથવા કૂતરાના પગ જેવા આકારવાળા ચિન્હથી લાંછિત કરવામાં આવે છે અથવા દેશ બહાર કરવામાં આવે છે. તમે અમારા शथी ता २: मेवी माज्ञा तेने भावामा भावे छ. 3, (जेण इसिपरिसाए अवरज्जइ से ण णाइ अणिहाहि नाव णाइ अमणामाहिं वग्गूहि उवालगभइ ४) Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ राजप्रश्नीयम स्वजानासि तथापि खलु त्वं मां बामवामेन, दण्डदण्डेन. प्रतिक्लपतिकूलेन, प्रतिलोम प्रतिलोमेन, विपर्यास विपर्यासन बसे ।। मृ० १४८॥ . टीका-"तए ण' के मी" इत्यादि-ततः तदनन्तर खलु केशी कुमारश्रमणः प्रदेशिन राजानम् एव -वक्ष्यमाणप्रकार वचनम् . अवादीत्-कथित बान-हे प्रदेशिन् ! त्वं जानासि किं परिषद:-वर्गाः कति-कतिसंख्यकाः प्रज्ञप्ताः ? । प्रदेशी राजा प्राह-जानामि-परिषदश्वतन:-चतुः रख्यकाः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-ता यथा-क्षत्रियपरित १, गाथापतिपरिप्त् २, ब्रह्मणपरिषत् ३, ऋपिपरिषत् ४ । केशी कुमार श्रमण : पृच्छति-हे प्रदेशिन् ! जानामि खलु जिस किसी का भी अपराध करता है वह न अति अनप्ट. यावत्-न अति अकांत, न अति अमिय, न अति अमनोज्ञ और न अति अमन आम ऐसी वाणियों द्वारा उपालंभयुक्त किया जाता है. (एवं तार पएसी ! तुम जाणासि-तहा विणं तुम मम वाम वामेणं. दंड दडेणं, पडिकूल पडिकूलेणं,पडिलोमं पडिलोमेणं, विवजासं विवज्जासेणं वसि) हे प्रदेशिन तुम इस पूर्वोक्त प्रकारवाली नीति 'को-दाउ नीति को-निश्चय से जानते हो, फिर भी तुम मेरे पतिवामवामरुप से ति विरुद्धव्यवहार से, दण्ड दण्डरूप से-दण्डवत् स्तव्धरूप व्यवहार से-अति अहङ्कार- युक्त व्यवहार से, प्रतिकूल प्रतिकूलरूप से अति विपक्षी भूत व्यवहार से, प्रतिलोम प्रतिलोम से-अतिविपरीतरूप व्यवहार से और विपर्यास विपर्यास से-सर्वथा विरुद्धरूप व्यवहार से प्रवृत्त हो रहे हो।' . . . . टीकार्थ स्पष्ट है ॥१४८॥ તેમજ જે કષિ પરિષદામાં-ષિવર્ગમાં કેઈ પણ ઋષિ અપરાધ કરે છે તે ન અતિ અનિષ્ટ યાવત્ ન અતિ એકાંત ન અતિ અમને અને ન અતિ અમન આમ એવી पालीमा 43 पामयुत ४२वामा मावे छ. (एवं ताव पासी ! तुम जाणासि -तहा विण तुम मम वाम बामेण दंड दंडेण पडिकूल, पडिकूलेण, पडिलोम पडिलोमेण, विवज्जासं विवज्जो सेणं वहसि , प्रशिन ! ' तमे આ પૂર્વોક્ત નીતિને–દંડનીતિને–સારી રીતે જાણો છે, છતાં એ તમે મારા પ્રતિ વામ વામરૂપથી-અતિ વિરૂદ્ધ વ્યવહારથી, દચ્છ દડરૂપથી–દડવત્ સ્તબ્ધરૂપ વ્યવહારથી અતિ અહંકારયુકત વ્યવહારથી, પ્રતિકૂળ, પ્રતિકૂળરૂપથી અતિ વિપક્ષિ, વ્યવહારથી પ્રતિમ પ્રતિમથી-અતિ વિપરીતરૂપે વ્યવહારથી અને વિપર્યાસથી સર્વથા વિરૂદ્ધરૂપ વ્યવહારથી પ્રવૃત્ત થઈ રહ્યા છે. ટીકાર્થ સ્પષ્ટ જ છે. છ સ. ૧૪૮ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधिनी टीका सू. १४८ सूर्यभिदेवस्य पूर्वभवजीव प्रदेशिराजवण नम् त्व ? एतासां चतसृणां परषदां मध्ये कस्य अपराधिनः का- क्रिप्रकारा दण्डनीतिः - दण्डविधानरूपा ज्ञप्तः - कथिता ? | प्रदेशी माह- हन्त ! जानामि तदेवाह - क्षत्रियपरिषद-क्षत्रियवर्गे खलु antara after For वास्य कस्यापि, अपराध्यति अपराधः करोति स खलु हम्तच्छिन्नकःछिन्नस्तः । क्रियते, अथवा पादच्छिन्नकः, अथवो शीर्षच्छिन्नकः, वा.. अथवा शूलायितः - शूलारोपितः वा अथवा एकाहत्यम् - एकाघातेन, कूटाहत्य पर्वनपोतेन जीवितान-प्राणभ्यः व्यपरोप्यते- पृथ कयते । गाथापतिपरिषद “गृहपतिवर्गे यः खलु कश्चिद् गाथापति र्यस्य कस्यापि अपराध्यति सः खलु त्वचा-वृक्षादिच्छदिनावा नावा अथवा वेष्टन तृप वेष्टेन तृणादिनिर्मित रज्ज्वा वा अथवा पलालेन - प्रसिद्धेन वेष्टयित्वा परिवेष्य अग्निकार्यन-अग्निना धमाध्यते - ज्वा oad २ | ब्राह्मणपरिषद - ब्राह्मणवर्गे यः ग्वलु कश्चिद ब्राह्मणो यस्य कस्यापि अपराध्यति म खलु अनिष्टाभिः - सामान्यतोऽनभिलपिताभिः अकान्ताभिः -- विशेषतोऽनभिलषिताभिः यावच्छब्देन - "अमियाभि- मे मवर्जिताभिः - असु न्दरीभिः" इति संग्राह्यम् अमनोऽमाभिः मनप्रतिकूलाभिः वाग्भिः वाणीभिः उपालभ्य उपालम्भ दत्वा कुण्डिकालाञ्छनकः कुण्डिका- कमण्डलुः तदाकारक लाव्छनक-तप्तशलाकया ललाटे चिह्न यस्य स तथाभूतः - अथवा शुनकलान्छन कः- ललाटे शुनक पदाकारक चिह्न यस्य स तथा नृतः क्रियते वा अथवा निर्विषय:- निर्वासितोः यथा भवेत्तथा श्राज्ञाप्यते- 'नमः स्मादेशान्निर्गच्छ इत्याज्ञातमै दीयत इति भावः ३ ऋ षपरिपदिऋपि यः खलु कश्चिन ऋपियस्य कस्यापि अपराध्यति स खलु नात्य निष्टाभिः यावद-यात्रच्छन्न-नात्यिकान्ताभिः नात्यमिवाभिः नात्यमन ज्ञाभि." इति संग्राह्यम्. नात्यमानोऽमाभिः वाग्भिः- वाणीभिः उपलभ्यते-तस्मै उपालम्भो दीयते इति भावः ४ । केशी कुमारभ्रमणः कथयतिप्रदेशिन एवं पूर्वोक्तप्रकारां दण्डनीति 1. दण्डनीति तावत- निश्चयेन त्वं जानासि तथापि स्व मां प्रति चामवामेन अतिशयवामेन - अतिविरुद्धेन व्यवहारेण एवं दण्डदण्डेन - अतिदण्डरूपेण दण्डवत्स्तब्धरूपेण - अत्यह रियुक्तेनेत्यर्थः मतिकूलं प्रतिकूलेन - अप्रतिकूलेन - विपक्षीभूतेनेत्यर्थः प्रतिलोमप्रतिलोमेन अतिमतिलो मेन-अतिविपरीतेनेत्यर्थ: विपर्यासविपर्यासेन अतिविपर्यासेन सर्वथा विरु दोनेत्पर्थः, एतादृशेन व्यवहारेण वर्तसे ||० १४८ ॥ . how २०३ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ राजश्रीसू त मूलम् - तणं पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं वयासीएवं खलु अहं देवाप्पिएहिं पढलिएणं चेत्र वागरणेणं संलत्ते मम इमेयारूवे अज्झत्थिए जाव संकप्पे समुपजित्था - जहा जहा णं एयस्स पुरिसस्स वामं वामेणं जाव विवच्चासं विवच्चासेणं हिस्सामि तहा तहा णं अहं नाणं च नाणोवलंभं च चरणं च चरणोवलभ च दसणं च दंसणोवलभं च जीवं च जीवोवलंभं च उवल भिस्लामि, त एएणं अहं कारणेणं देवाणुपियाणं वामं वामेणं जात्र विवच्चासं विवच्चासेणं वट्टिए || सू० १४९ ॥ ... छाया - ततः खलु प्रदेशी राजा केशिन कुमारभ्रमणमेवमवादोत् एवं खलु अहं देवानुमियैः मायमिकेनैव व्याकरणेन संलपितः तदा खन्दु मन अपने आध्यात्मिकः यावत् संकल्पः समुदपद्यन यथा यथा वलु 'नए णं पएमी गया' इत्यादि । मुत्रार्थ - (तए ण) इसके बाद (परमी गया) प्रदेशी गजाने केर्मिकुमारसमणं एवं ग्रामी) केशी कुमारश्रमण से ऐसा कहा - ( एवं ग्वल ह' देवाणुप्पिएहिं पढमिलुएणं चेच वागरणेग' संलते) हे भदन्त ! आप देवानुप्रिय के द्वारा मैं सर्व प्रथम बोला गया हूं अर्थात् - आप देवानुमित्र ! मुझ से मत्र से पहिले चले हैं - आप के साथ मेरी यह प्रथम भेट हैं, इसके पहिले हमारा आपका कोई मिलन नहीं हुआ है ( प णं मम इमेगारूवे अज्झथिए जाव संकप्पे समुप्पज्जित्था ) अतः जब सत्र से 'तए णं पएसी गया' इत्यादि । सत्रार्थ - (नए ण) त्याच्छी (पएसी राया ) अहेश रान्नमे ( के सिं कुमार समण एवं वयासी) श्रीकुमार श्रमणने या प्रमाणे ४६ - ( एवं खलु अहं देवापिएहिं पढमिल्लुए चैव गगरणेण सलत्ते) हे महंत ! साथ हेवाઇપ્રિયવડે હું સાથી પહેલાં ખાલાયે છુ' એટલે કે આપ દેવાનુપ્રિય ! મારી સાથે સૌથી પહેલાં ખેલ્યા છે. આપની સાથે આ મારી પહેલી મુલાકાત છે. એના પહેલાં यानी भारी साथै लेट नहोती थ. (तए णं मम उमेयारूवे श्रज्झत्थिए जाव कप्पे मसृपज्जित्था ) गोथी न्यारे तभे भारी साथै सर्व प्रथम આ પ્રમાણે Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका. १४९ सूर्याभदेवम्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् एतस्य पुरुषस्य वामवामेन या. विपर्यासविपर्यासेन वर्तिष्ये तथा तथ खलु अहं ज्ञान च ज्ञानोपालम्भच चरणं च चरणोपालम्भं च दर्शन च दर्शनोंपालम्भं च जीवं च जीवोपालम्भ च उपलप्स्ये, तत्. एतेनाह कागेन देवानुप्रियाणां वामवामेन. यावद् विपर्यासविपर्यासेन वर्तितः ॥१०१४९।। . टीका-तए णं पएसी' - इत्यादि-तनः खलु प्रदेशी राजा के शिनं कुमारश्रमणमेवमवादी-एवं खलु अह देवानुपियैः-भवद्भिः प्राथमिकेनैवव्याकरणेन-संलापेन, संलपिनः-संभाषितः, तदा खलु मम अयमेनपःआप मुझ से सर्व प्रथम इस प्रकार से बोलेतो मेरे मन में यह इस प्रकार का यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ कि (जहा २ ण एयरस पुरिसस्स चाम वामेण जाव विवच्चासं विवचासेणं वहिस्सामि, तहाँ २ ण अह नाणं च नाणोवलंभ च चरणोलंबभ वदंसण' च दमणोवल में च जीव च जीबोवलंभं च उचलंभिस्सामि) मैं जैसा इस पुरुष के साथ वाम चामरूप से. यावत्-दण्ड देण्डरूप से, पतिक्ल प्रतिकूल रूप से प्रतिलोम प्रतिलोमरूप से एवं विपर्यास विपर्यासरूप से व्यवहार करूगा, वैसा वैसा २ मैं ज्ञान को-पदार्थ ज्ञान को ज्ञानोपालम्भको-ज्ञान की प्राप्ति को. चारित्र को, चारित्रके लाभ को, तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यत्त व को, दर्शनलाभ को जीव के स्वरूप को, और जीव के स्वरूपकी प्राप्ति को पा जाऊंगा (तं :एएण अहं कारणेण देवाणुप्पियाणं वामं वागणं जाव विश्चासं विचासेण वहिए) अतः इसी कारण से आप देवानुपिय के साथ मैं अतिविरुद्धरूपव्यवहार से यावत् सर्वथा विरुद्धरूप व्यवहार से प्रवर्तित हुआ है। . माया त भास भनमा म त यावत् ४८५ अत्यन्न थय। (जहार णं एयरस पुरिसम्स वामं वामेण जाब विवञ्चास विवञ्चासेणं वहिस्सामि, तहा २ णं अहं नाणं च नाणोलंभं च चरणं च चरणोवलंभ च, देसणं च सणोवलंभं च जीवंच: जीवोवलभ च उवलंभिस्सामि) भरेम मा ३१नी સાથે વામ વામ રૂપથી યાવત-દંડદંડરૂપથી, પ્રતિકૂળ પ્રતિકૂળ રૂપથી, પ્રતિલોમ પ્રતિમ રૂપંથી અને વિધર્યાસી વિપર્યાસરૂપથી વ્યવહાર કરશ-આચરણ કરીશ તેમ તેમ હું ज्ञानने, पहा ज्ञानने, ज्ञानायलने ज्ञानप्रातिने. या२त्रने, या सामने, તત્ત્વાર્થે શ્રદ્ધાનરૂપ સમ્યકત્વને, દશનલાભને, જીવના વરૂપને અને જીવના સ્વરૂપની प्रालितने भगवास. (त एएणं अहं कारणेणं देघाणुप्पिया णं वाम बामेण जाव : विवच्चास बिच्चासेण वट्टिए) केटा माटे मा५ हेवानुप्रियानी साथ में भति. વિરૂદ્ધરૂપ વ્યવહારથી યાવતું સર્વથા વિરૂદ્ધરૂપ વ્યવહારથી પ્રવર્તિત થયો છું. તે Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ , वक्ष्यमाणश्वारकः, आध्यात्मिकः - आत्मगतो विचारः यावत्-यावच्छेदेन-चिन्तितः कल्पितः प्रार्थितः मनोगतः' इति " । संकल:- विचारः समुद्रपधत - संजातः, तदेवाह-यथा यथा खलु अहम् एतस्य पुरुषस्य नामवामेन - अतिविरुद्धेन व्यवहारेण यावन-पावच्छन्देन दण्डदण्डेन प्रतिकूलप्रतिकूलेनः प्रतिकामपलिलोमेन' इति संग्राम, विपर्यास विपर्यामेन' एवामथेऽव्यत्र नपूर्वमुत्रे गतः, वर्तिष्यै तथा तथा खलु अहं ज्ञान च-पदार्थज्ञानं च ज्ञानोपालम्भ - ज्ञानप्राप्ति चच-पुनः चरणं चारित्र' चरणोपालम्भ चारित्रलाम च पुनः दर्शनार्थ दर्शनोपालम्भ दर्शनलाभ च--- पुन --- जीवो - - जीवस्वरु -- जीरो पालम्भ - जीवस्त्ररूपः प्राप्तिम् उपलप्स्ये -- प्रारस्यामिः तद् एतेन खलु कारणेन अह देवानुप्रिंगणांनी मेन- प्रतिविरुद्वेत रेग यावतू पर्या सेन - सर्व याविरुद्धेन व्यवहारेण वर्तितः- अहं वामत्रामादिक व्यवहार वनितवानिति भावः । ॥ मु० १४९ ॥ . : राजप्रश्नीयसूत्रे + मूलम् तए णं केसीकुमारसमणे पयसि रायं एवं व्यासीजाणासि णं ! कइ ववहारगा पण्णत्ता ? हंता ! ! जाणामि चत्तारि ववहारगा पण्णत्ता, त जहा- देइ नामेगे णो सण्णवेइ १, सण्णवेइ नामंगे नो देइ २ । एगे देइ वि सण्णवेइवि ३ । एगे जो देइ णो टीकार्थ स्पष्ट है. इस मंत्र का भावार्थ ऐसा है कि मदेशी गजाने केशी कुमार श्रमण से अपने द्वारा किये गये प्रतिकूल व्यवहार के पति ऐसा कहा है भदन्त ! आप की और हमारी यह प्रथम भेंट है. इसमें जो आपने मुझसे संभाषण किया उससे मैंने यह निष्कर्ष निकाला कि मैं इनके प्रति जैसा २ टेड़ा चलूंगा-विरुद्ध व्यवहारकरूगा-वैमा २ मुझे इनसे ज्ञान आदि माप्त होगा अतः मैने आपके साथ इस प्रकार का व्यवहार किया है ॥ मु० १४९ ॥ ટીકા' સ્પષ્ટ જ છે. આ સૂત્રનેા ભાવાય આ પ્રમાણે છે કે પ્રદેશી રાજાએ કેશીકુમાર શ્રમણને પાતાના વડે આચરેલ પ્રતિકૂલ વ્યવહારને લઇને આ પ્રમાણે કહ્યું છે કે હું ભત! આપની અને મારી આ પહેલી મારી સાથે સભાષણ કર્યું તેથી મને નિષ્ઠ રૂપે આ તમારા પ્રતિ જેમ જેમ વિરુદ્ધ માલીશ તેમ તેમ મને તમારાથી જ્ઞાન વગેરેની પ્રાપ્તિ શે, આ કારણથી જ મેં આપની સાથે આ જાતનું આચરણ કર્યુ છે. પ્રસ્૦૧૪ના પગલા ભરતીતિ થઈ કે હું છે. આમાં જે આપશ્રીએ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 २९७ सुबोधिनी टीका सू. १५० सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशीराजवर्णनम् सणवेइ ४ | जाणासि णं तुम पएसी ? एएसि चउन्ह पुरिसाणं S के ववहारी के अववहारी ? ! होता !! जाणामि तत्थ णं जे से पुरिसे देइ णो सण्णवेइ सेणं पुरिसे ववहारी, तत्थ णं जे से पुरिसे तत्थ णं जे से पुरिसे णो देइ सण्णवेइ से णं पुरिसे बवहारी २, देइ विसपणवेइ वि से पुरिसे वबहारी ३, जो देइ णो णवेइ से णं अववहारी ४ । एवामेव तुमपि ववहारी, तत्थ णं जे से पुरिसे णो चैव णं तुमं पएसी ! अववहारी ॥सू० १५०॥ लक्ष बाली अपनी छाया - ततः खलु केशकुमारश्रमणः प्रदेशिराज मेवमवादीत्-जानासि खलु त्व प्रदेशिन् ! कति व्यवहारकाः प्रज्ञप्ताः 21 हन्तः !! जानामि - चत्वारो व्यवहारकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - ददाति नामकः नो संज्ञापयति १ संज्ञापयति नामैको नो ददाति २, एको ददाति अपि संज्ञायति अपि f. 'तए णं केसीकुमारसमणे' इत्यादि । 0 2017 1. सूत्रार्थ - (तए णं) इसके बाद (केसी कुमारसमणे) के शीकुमार श्रमणने : (परसि राय एवं वयासी) प्रदेशी राजा से ऐसा कहा - ( जाणासि णं तुम पएसी ! कइ ववहारगा पण्णत्ता ?) हे प्रदेशिन् ! व्यवहार कितने होते हैं, जाणामि) हां, भदंत ! जानता, क्या तुम इस बात को जानते हो ? हदें गये हैं । (ल जहा- द६. हुँ (चन्तारि ववहारगा पण्णत्ता) व्यवहार चार नामेगे, णो सण्णवेइ १ सण्णवेह नामेगे जो देह २, एंगे देइ वि, सण्णवेइ 'तएण केसीकुमारसमणे' इत्यादि। .. सूत्रार्थ – (तए णं) त्यार पछी (केसीकुमारसमणे) देशी कुमार श्रमाणे (पएस राय एवं वयासी) अहेशी शन्नने या प्रमाणे उर्छु- (जाणासि णं तुम पसी ! कई ववहारगा पण्णत्ता ?) हे अहेशिन ! शुतभे लगे है। व्यवहार डेंटली नतना डेोयं छ ? (हंता, जाणामि) si, महतो! लागु छ (चत्तारि हारंगा पण्णत्ता) व्यवहार यार उडेवाय छे. (त जहा देइ, नामेगे, णो संण्ण वेइ १, सण्णवेइ नामेगे णो देइ २, एगे देइ वि, सण्णवेइ वि ३, एगे Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीयसो एकोनो ददाति नो सज्ञापयति ४ । जानासि खलु त्वं प्रदेशिनु ? एतेषां चतुर्णा पुरुषाणों को व्यवहारी ? कोऽव्यवहारी ? हन्त !! नानामि। तत्र खलु. यो स पुरुषो ददाति नो संज्ञापयति स खलु पुरुषो व्यवहारी । तत्र खलु यः स पुरुषो नो ददाति संज्ञापयति स खलु पुरुषो व्यवहारी। तत्र.: खलु यः स पुरुषो ददात्यपि संज्ञापयत्यपि स पुरुषो व्यवहारी । तत्र ग्वल वि.३, एगे णो देइ णो सण्णवेई ४, जो इस प्रकार से हैं-एक कोइ पुरुष किसी वस्तु को किसी के लिये देता तो है. पर उसके साथ वह मिष्टं भाषण द्वारा अच्छा संतोषपदव्यवहार नहीं करता है १, एक पुरुष, मिष्ट भाषण द्वारा दूसरे के प्रति संतोषप्रद व्यवहार तो करता है, परन्तु देता कुछ भी नहीं है २, एक पुरु, देता भी है और लेने वाले के.. प्रति मिष्टषचनद्वारा संतोषपद व्यवहार भी करता है ३, एक पुरुष ऐसा होता है जो न देता है और न मिष्टवचन द्वारा संतोषप्रद व्यवहार ही करता है. ४, (जाणासि णं तुम पएसी ! एएसिं चउण्हं पुरिसाणं के ववहारी के अववहारी ? ) केशी ने प्रदेशी से पूछा-हे प्रदेशिन् ! तुम , जानते. हो इन चार · व्यवहारी पुरुषों के बीच में कौन व्यवहारी है और कौन अव्यवहारी है? तब प्रदेशीने केशिकुमार श्रमण से कहा-(हंता, जाणामितस्थ णं जे से पुरिसे देइ णो सण्णवेइ से णं पुरिसे ववहारी?) हां, जानता हुं, इनमें जो पुरुष देता है और सम्यग् पालाप से संतोष उत्पन्न नहीं करता है वह पुरुष व्यवहारी कहा जाता है (तत्थ ण जे से पुरिसों णों णों देई णो संणवेइ ४) रे मा भाणे छ. ४ भाणुस 1 yyad inઆપે તે છે પણ તેની સાથે તે મિષ્ટ સંય ષણવડે અચ્છ સતોષપ્રદ વ્યવહાર કરતે નથી? એક માણસ મિષ્ટ ભાષણવડ બીજાની સાથે સંતોષપ્રદ વ્યવહાર તે કરે છે પણ આપને કંઈ નથી ૨, એક માણસ આપે પણ છે અને લેનાર માણસને મિષ્ટ વચનો વડે સતેષ પણ આપે છે. ૩) એક માણસ એ પણ હોય છે કે જે કંઈ પણ આપતું નથી અને મિણ વચનોથી સંતોષજનક, વ્યવહાર પણંકર નથી (जाणासि · तुमं पएसी! एएसिं चउण्हं पुरिसाणं के ववहारी': के के अववहारी ?) अशीय प्रदेशाने प्रश्न या प्रशिन् ! तमे on छ। ) मा यार.. ०यवहारी छ ? त्यारे प्रदेशीये. ह्युः (हंता, जाणामि, तत्थणं जे. से। पुरिसे दें। णो सणवेइ से णं पुरिसे बवहारी ?) si, onlY छु': मामाot માણસ આપે છે અને સારા વચનોથી સંતોષ આપતું નથી તે પુરૂષ વ્યવહારી કહે पाय छ. (तत्थ णं जे से पुरिसे णो देइ सणावेइ से णं पुरिसे ववहारी,२) । Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका. सू. १५० सुर्याभिदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् २९९ 'यः स पुरुषो नो ददाति नो संज्ञापयति स खन्द्र अव्यवहारी । एवमेव त्वमपि व्यवहारी, नो चैत्र खलु त्वं प्रदेशिन् ! अव्यवहारी ॥ १५० ॥ टीका - "तएण केसीकुमारसमंणे" इत्यादि - - ततः -- अनन्तरोक्त - मकारेण वर्त्तनानन्तरं खलुं केशी कुमारभ्रमणः प्रदेशिराजम् एवमवादीत - 5 सणवेह से णं पुरिसे बेबहारी२) तथा जो पुरुष देता नहीं है किन्तु सम्यगू. आलाप से संतोप उत्पन्न करता है वह पुरुष व्यवहारी है। ( तस्य णं जे से पुरिसे देह वि, सण्णवेइ वि, से पुरिसे वहारी३) तथा जों पुरुष देता भी है और सम्यक् आलाप द्वारा संतोष भी उत्पन्न कराता हैं वह पुरुष व्यवहारी है । (तस्थ णं जे से पुरिसे णो देइ णो - सण्णयेड़ से पुरिसे से णं अववहारी) तथा जो पुरुष न देता है और न सम्यक् संभापण द्वारा संतोष उत्पन्न करता है वह पुरुष - अव्यवहारी है। ( एवामेव तुम - पिवहारी जो चेव णं तुमं पएसी ! अववहारी) इसी तरह से अर्थात् भङ्गत्रयोक्त पुरुष, के बीच में एक भंग विशेष की तरह हे प्रदेशिन् तुम भी व्यवहारी हो, चतुर्थ भङ्गोक्त पुरुष की तरह तुम अव्यवहारी नहीं हो - तात्पर्य कहने का यह है कि यद्यपि हे प्रदेशिन् ! तुमने सम्यकू आलाप द्वारा सन्तुष्ट कर मुझसे व्यवहार नहीं किया है- फिर भी मेरे विषय में भक्ति और बहुमान, तो किया ही है - अतः तुम आधभङ्गो पुरुष की तरह व्यवहारी ही हो - अव्यवहारी नहीं हो । RC તેમજ જે પુરૂષ આવતા નથી પણ સારા સંભાષણથી સંતાષ ઉત્પન્ન કરે છે. તે व्यवहारी छ. ( नृत्थ णं जे से पुरिसे देइ, वि, सण्णवेइ वि. से. पुरिसे वचहारी : ३) તેમજ જે પુરૂષ આપે પણ છે અને સમ્યક આલાપવડે સ ંતેષ પણ ઉત્પન્ન કરે. छे ते चु३ष व्यवहारी छे. (तत्थण जे से पुरिसे णो देह णो सण्णवे से पुरिसेणं अवहारी) तेभन ? युरेष आयतो नथी तेभन - सभ्य आसाथ या उश्ते! नथी એટલે કે સારા સંભાષણથી સ ંતાષ ઉત્પન્ન કરતેા નથી તે પુરુષ અવ્યવહારી છે. ( एवामेव तुमं पिवत्रहारी णो चेव णं तुमं पएसी ! अववहारी) या अभा હે પ્રદેશિન તમે પણ વ્યવહારી છે. J 2 ચતુર્થાં ભંગમાં કહ્યા મુજબ તમે અન્યવહારી નથી. તાત્પ આ પ્રમાણે છે કે હું પ્રદેશિન્ ! તમાએ સમ્યકૢ આલાપરૂપ સારા વ્યવહાર મારી સાથે કર્યાં નથી છતાંએ મારા વિષયમાં ભકિત અને બહુમાન તે તમે કર્યાં છે. એથી તમે આદ્યભ’ગાકત પુરૂષनीरेमे व्यवहारी छो. मव्यवहारी नथी. Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : : ___ _ राजप्रश्नीया हे - प्रदेशिन् त्वं जानासि खलु यत् कति-कियन्तो व्यवहारकाः-व्यवहारा:-प्रवृत्तयः प्रज्ञप्ता : ?" इति प्रश्नानन्तर प्रदेशी पाह-हन्त ! जानामि तत्र ज्ञायमानविपय प्रकाशयति- चत्वार:-चतुः सख्यका व्यवहाराः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-एक:-कश्चित् पुरुषः ददाति-किञ्चिद् वस्तु : कस्मैचित- समर्पयति किन्तु न. संज्ञापयति--सम्यगालापेन संतोष नोल्पादाति १ । एका सका पयति किंतु नो ददाति २ ।एको ददात्यपि सज्ञापयंत्यपि ३। एको नों ददाति नो संज्ञापयति ।। इति चत्वारो भङ्गाः । तत्र केशी मदेशिन पृच्छ... ति-हे प्रदेशिन् ! त्वं जानासि खलुः एतेषां चतुर्णा पुरुषाणां दान-तद। संज्ञापन - १-सज्ञापनाऽदान २-दानसंज्ञापनोभय ३-तदुभयराहित्यरूप ४ वृत्तिसम्पन्नानां मध्ये कः पुरुपो व्यवहारी ? इति जानासि ? इति प्रश्ने प्रदेशी पाह-हन्त !! जानामि तदेव दर्शयति "तत्थ ण" इत्यादिना-तत्रमनचतुष्टये खलु यः सः-प्रथमभङ्गोक्तः पुरूषः ददाति नो संज्ञापयति सःदान-तदसंत पिनसम्पन्नः खलु पुरुषः व्याहारी कथ्यते १ । एवं तत्र खलु यः सः-द्वितीयभगोक्तः, 'नो ददाति नो संज्ञापयति'-सज्ञापनाऽदानसम्प. टीकार्थ जब केशिकुमारश्रमणने प्रदेशी राजा से ऐसा पूछा कि हे प्रदेशिन ! तुम जानते हो कि व्यवहार कितने प्रकार का होता है ? इस प्रकार से पूछने का कारण यह हुआ कि प्रदेशी राजाने १४९वे सूत्र में , अपने द्वारा कृतव्यवहार के विषय में सफाई उपस्थित की है. केशीकुर मारश्रमण के प्रश्न को सुनकर उसने कहा हां, भदन्त ! जानता हूं व्यवहार चार प्रकार का होता हैं. एक व्यवहार में देनेवाली पुरुष किसी के लिये कोई वस्तु देता है, परन्तु अपने सम्यकू आलाप से बातचीत से वह उसके लिये संतोष उत्पन्न नहीं करता है, दूसरे व्यवहार में देनेवाला, या शोभा श्रभ शी ने मा प्रभारी न या प्रशि! तमेत छ। व्यवहार सा प्रश्नालाय छ १ मा प्रमाणेપ્રશ્ન કરવામાં આવે છે તેનું કારણ એ છે કે પ્રદેશી રાજાએ ૧૪૯ મા સૂત્રમાં જે જાતનું આચરણ કર્યું છે તેના સંબંધમાં સપષ્ટીકરણ કરવામાં આવ્યું છે. કેશી शुभांर श्रभयना प्रश्नने समजान तर ह्यु: i. HE ! छु.: ०यवहा२: यार - પ્રકારના હોય છે. પ્રથમ વ્યવહારમાં દાનકર્તા પુરુષ કેઈના માટે કઈ વસ્તુ આપે. छ, ५ पोताना सभ्य मासायथी-सारी भीही पातयातथी त सामना भासने, સંતેષ આપતે નથી દ્વિતીય વ્યવહારમાં દાનકર્તા પુરૂષ પિતાની મીઠી વાણીથી બીજાને Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सू. १५० सूर्याभदेवस्य पूर्व भंवजीवप्रदेशिराजवणं नम् .. ३०१ नः सः खलु पुरुषो व्यवहारी २, एवं तत्र यः सः तृतीयभङ्गोक्तः पुरुषः ददात्यपि संज्ञापयत्यपि' सः-दान-तत्संज्ञापनसम्पन्नः पुरुषो व्यवहारी ३। . पुरुष अपनी मिष्ट भाषणरूप प्रनि से दूसरे को संतोष तो उत्पन्न करा देता है, परन्तु अपनी वस्तु उसे देता नहीं है. तृतीय व्यवहार में देनेवाला अपनी वस्तु दे भी देता है और अपनी मिष्ट भाणणरूप प्रवृत्ति से उसे संतोष भी उत्पन्न करदेता है, चतुर्थ व्यवहार में कोई देता भी नहीं है और संतोष भी उत्पन्न नही कराता है. इस प्रकार ये चार भङ्ग हैं। इन में केशीकुमारश्रमण प्रदेशी राजा से पूछते हैं-हे प्रदेशिन् ! तुम जानते हों कि इन चार-दान-तदसंज्ञापन, संज्ञापन दाने संज्ञापन उभय एवं तदुभय रहितरूप वृत्तिसंपन्न पुरुषों के मध्य में कौन पुरुष व्यवहारी है ? तब प्रदेशीने कहा हां, भदन्त ! जानता हूं, इस : भङ्गचतुष्टय में जो प्रथम भङ्गोक्त पुरुष है-देता तो है मिष्टभाषण द्वारा सतोष उत्पन्न नहीं कराता है-वह दानं तदसंज्ञापन सम्पन्न पुरुष व्यवहारी कहा जाता हैं अर्शत जो 'ददाति नो संज्ञापयति' इस भगवाला है वह व्यवहारी है इसी तरह. जो द्वितीयभङ्ग में कहा गया है सज्ञापयति, नो ददाति' वह संज्ञापना अदान संपन्नपुरुष व्यवहारी है. इसी प्रकार जो तृतीय भंग में कहा गया है 'ददात्यपि' संज्ञापयत्यधि' ऐसा वह दान तत्सासम्पन्न पुरुष व्यवहारी સંતોષ આપી દે છે પણ પિતાની વસ્તુ સામેવાળા માણસને આપતા નથી. તૃતીય વ્યવહારમાં દાનકર્તા પિતાની વસ્તુ આપી પણ દે છે. અને પોતાની મધુર ભાષણરૂપ પ્રવૃત્તિથી તે સામેના માણસને સંતુષ્ટ પણ કરી દે છે. ચતુર્થ વ્યવહારમાં તે કઈ પણ વસ્તુ યાચકને આપતે પણ નથી અને મધુર સંલાપથી સામેના માણસને સંતુષ્ટ પણ કરતા નથી. આ પ્રમાણે આ ચાર ભંગ છે. એના સંબંધમાં કેશી કુમારશ્રમણ પ્રદેશી રાજાને પ્રશ્ન કરે છે કે હે પ્રદેશિના તમે જાણો છો કે આ ચાર-દાન તદસંજ્ઞાપન, સંજ્ઞાપન, દાને સંજ્ઞાપન ઉભય અને તદુભવ રહિતરૂપ વૃત્તિ સંપન્ન પુરૂ માં કેણ વ્યવહારી છે? ત્યારે પ્રદેશીએ કહ્યું-હાં ભદંત ! જાણું છું. આ ભંગ ચતુષ્ટયમાં જે પ્રથમ ભકત પુરૂષ છે-તે આપે તો છે પણ મિષ્ટ ભાષણવડે સંતોષ ઉત્પન્ન કરતો નથી તે દાન તદસંજ્ઞાપન સમ્પન્ન પુરૂષ વ્યવહારી કહેવાય છે. એટલે ३.२ 'ददाति नो संज्ञापयति' मा वाण छ त व्यवहारी छ मा प्रभारी २ द्वितीय हे छ 'संज्ञापयति, नो ददाति' ते संज्ञापना महान संपन्न पुरुष व्यवहारी छ. २मा प्रभारी ने तृतीय मम स छ-'ददात्यपि संज्ञाप_यत्रापि' मेवा ते हान तसज्ञापना सम्पन्न पु३५ ०यारी छ. ५ २ यतुर्थ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .३०२ राजप्रश्नीय सत्र तत्र खलु यः सः-चतुर्थ भगोक्तः पुरुष: 'नो ददाति नो संज्ञापयति'. स:: अदानासंज्ञापनोमयसम्पन्नः पुरुषः उभयविभव्यवहाररहिततया अव्य-- चहारी । एवमेव-भङ्गत्रयोक्तपुरुवाणां मध्ये एकभङ्गविशेष वदेव हे. प्रदेशिन! त्व खलु अव्यवहारी चतुर्थ भङ्गोक्तपुरुषवत् नो चैव-नवासि । यद्यपि त्व सम्यक्रमलापेन मां संतोप्य न पर्त से, तथापि मम विपये भक्ति-बहुमान च' करोपि अतस्त्वमाद्यभोक्तपुरुषवद् व्यवहार्ये व नत्यव्यवहारीति भावः म.१५०॥ " मूलम--तए ण पएसी राया केसिकुमारसमणं एवं वयासी -तुब्भेणं भंते! अइच्छेया दक्खा जाब उबएमलद्धा समत्थाःणं भंते ! मम करयललि वा आमलयं जीवं सरीराओ अभिनिवट्टित्ता ण उवदंसित्तए ? . तेणं कालेणं तेणं समएणं पएसिस्स रणो.अदूरसमिते बाउयाए संवुत्ते, तणवणस्सइकाए ऐयइ वेयइ चलइ, फंदइ घट्टइ उदीरइ त त भाव परिणमइ, तए णं केसीकुमारसमणे : पएसिं रायं एवं बयासी-पाससि णं तुमं पएंसिराया ! एयं तणवणस्सई एयंत है. परन्तु जो चतुर्थ भगोक्तपुरुप है 'नो ददाति नो संज्ञापयति' वह आदान असंज्ञापनारूप उभयत्ति संपन्न पुरुष उभयविधव्यवहार, रहित होने के कारणं अव्यवहारी है। इसी तरह से हे प्रदेशिन् ! इन तीन भंगो में कहे गये पुरुषों के वीचमें एकभोक्तः पुरुप विशेप की तरह तुम भी हो. चतुर्थ भङ्गोक्त पुरुप की तरह अव्यवहारी नहीं हो. यधपि तुमने. सम्यक् आलाप द्वारा मुझ संतोप उत्पन्न कराकर प्रवृत्तिरूप.व्यवहार नहीं किया है फिर भी मेरे विषय में भक्ति और बहुमान तो किया.ही है, इसलिये तुम आधभङ्गोक्त पुरुप की तरह व्यवहारी ही हो, अव्यवहारी नहीं हो।।मू. १५०॥ Hd y३५ छ. 'नो ददाति नो संज्ञापयति' ते माहान मसज्ञापना ३५ ઉભયવૃત્તિ સંપન્ન પુરૂષ ઉભયવિધ વ્યવહાર રહિત હવાથી અવ્યવહારી છે. આ પ્રમાણે હે મશિન ! આ ત્રણ ભાગમાં કહેલ પુરૂષોમાં પ્રથમ ભગત પુરૂષ વિશેષની જેમ તમે પણ છે. ચતુર્થ ભંગકત પુરુષની જેમ તમે આવ્યહારી નથી. તમે સમ્યક આલાપારા મને સંતોષ આપીને પ્રવૃત્તિરૂપ વ્યવહાર કર્યો નથી છતાંએ મારા વિષયમાં ભકિત અને બહુમાન તે તમોએ કર્યા જ છે. એથી તમે આદ્ય ભંગકત પુરૂષની જેમ વ્યવહારી જ છે, અવ્યવહારી નથી. શાસ્ત્ર ૧૫૦ ૧ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका स. १५१ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशोराजवर्णनम् ३०३ जाव त त भोव परिणमंत? हंता!! पासामि । जाणासि णं तुम पएसी! एयं तणवणस्सई कायं 'क देवो चालेइ असुरो वा चालेइ. जागो. चालेइ किनरो वा चालेइ किंपुरिसो वा चोलेइ महोरगो वा चालेइ गंधब्बो वा चालेइ ? हंता जाणामि-णो देवो चालेइ जाव णो गधन्वो चालेइ। वाउकाए चालेइ पालसिणं तुम पएली! एयस्स वाउकायस्स सरूविस्ल सकम्मल सरागस्त समोहस्स सवेयस्स्स सलेसस्ता स सरीरस्स एवं?। णो इणटे समटे जइ गं तुमं पएसिराया! एयस्स वाउकायस्स सरूविस्स जाव स सरीरस्त रूवं न पाससि तं कह णं पएसी! तब करयल सि वा आमलग जीव उवदंसिस्लामि ?। एव खल्ल पएसी ! दसटाणाई छउमत्थे मणुस्से सब्वभावेणं न जाणइ न पासइ, तं जहा-धम्मत्थिकायं १, अंधम्मस्थिकार्यर, आगासत्थिकार्य३, जीवं असंरीरबद्धं ४, परमाणुपोग्गल ५, सद६, गधं७, वायं अयं जिणे भविः स्सई वा णो भविस्तइ९, अयं सव्वदुक्खाणं अंतं करिस्सइ वा नो वा करिस्सइ १०। एयाणि चेव उत्पन्ननाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली सव्वभावेणं जाणई पासइ, तं जहा धम्मत्थिकायं जाव नो वा करिस्सइ, सदहाहि णं तुम पएसो ! जहां अन्नो जीवो तं चेव? ।सू१५१, ! छाया-ततः खलु पदेशी राजा केशिकुमारश्रमणमेवमत्रादीत-यूय खलु : · भदन्त ! अतिच्छेका दक्षाः यावत् उपदेशलब्धाः समर्थाः खलु भदन्त !:: तएणं, पएसी राया' इत्यादि । ...... . सूत्रार्थ--(तए णं) इसके बाद (पएसी राया) प्रदेशीने (केसिकुमारसमण एवं वयासी) केशीकुमार श्रमण से ऐसा कहा-(तुम्भे णं भते ! अइच्छेया ... तए णं पएसी राया' इत्यादि। ... (स्त्रार्थ (तए णं) त्या२ पछी (पएसी राया) प्रदेशी २ (केसिकुमार समणां एवं बयासी) अशी भा२ श्रमाने. २. प्रमाणे यु-(तुम्भे णं भंते ! Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ %3 राजप्रश्नीयम मम करतले वा आमलकं जीव शरीराद अभिनिवयं खलु उपदर्शयितुम्।। तस्मिन् काले तस्मिन् समये प्रदेशिनो राजः अदरसामन्ते वायुकायः संवृत्तः, तृणवनस्पतिकायः एजते व्यजते चलति स्पन्दते घट्टते उदीत तं ते भाव परिणमते । ततः खलु केशीकुमारश्नमणः प्रदेशिराजमेयमवादीत्-पश्यसि दक्खा नात्र उवएसलहा समत्था णं भते ! मम करयल सि वा आमलयं जीव सरीराओ अभिनिवाहिता ण उबदमित्तए) हे भदन्त ! आप अवसर के ज्ञान में अतिनिपुण हैं दक्ष हैं-कार्य के सम्पादन में कुशल हैं, यावत् उपदेशलब्ध हैं-गुरु के उपदेश को प्राप्त किये हुए हैं. इसलिये हे भदन्त ! शरीर से जीव को निकाल कर क्या श्राप हस्ततल में स्थित आंवले की तरह उसे मुझे दिखा सकते हैं ? (तेण कालेण तेण समएणपए. सिस्स रणो. अदूरसामते वाउयाए संवुत्ते) उस काल और उस समय में प्रदेशी राजा के नजदीक-न अतिदूर और न अतिपास स्थान पर । घायुकायप्रवृत्त हुआ (तणवणस्सइकाए एयई, वेयइ, चलेइ, फंदई, घटइ, . उदीरइ, तन भावं परिणमइ) इससे तूंणवनस्पतिकाय सामान्यतः एवं विशेषतः कंपित होने लगा, इधर से उधर रूकने लगा. परस्पर में संघर्षित होने लगा एवं कोई२ जमीन ऊपर ही रूक गया. इस तरह वह तृणवनस्पतिकाय एजनादिरूप भिन्न२ प्रकार के व्यापार में परिणत हो गया (तए ण अइच्छेया दक्खा जाव उचएसलद्धा समत्था णं भंते ! ममं करयलोस . वा आमलयं जीवं सरीराओं अभिनिवद्वित्ता णं उवदंसित्तए) महात! माप અવસરને સરસ રીતે જાણવામાં અતિ નિપુણ છે, કાર્યના સંપાદનમાં કુશળ , થાવત્ ઉપદેશ લબ્ધ છે, ગુરૂના ઉપદેશને પ્રાપ્ત કરેલ છે. એથી જ હે ભદન્ત ! શરીરમાંથી જીવને બહાર કહાડીને શું તને હસ્તામલક, મને બતાવી શકે છે? (ते णं कालेणं तेणं समएणं पएसिस्स रणो अदरसामंते वाउयाए संयुत्ते) તે કાળે અને તે સમયે પ્રદેશી રાજાની પાસે ન અતિ દૂર અને ન અતિ પાસેના स्थान ५२ वायुय प्रवृत्त थयो. (तणवणस्सइकाए एयई, वेयइ, चलइ. फंदइ, घट्टइ, उदीरइ, तं तं भावं परिणमइ) नाथी तृणवनस्पतिय सामान्यतः અને વિશેષતઃ કંપિત થવા માંડે. આમથી તેમ નમવા માંડશે, પરસ્પર સંઘર્ષિત થવા માંડે, અને કેઈક જમીન પર જ નમી ગયે. આ પ્રમાણે તે તૃણ વનસ્પતિ ४ाय मेनाहि३५ मिन्न भिन्न तना व्यापारमा परिणत थ६ गया. (तए णं, . Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०५ सुबोधिनी टीका सू. १५१ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् खलु व मदेशिराज ! एत तृणवनस्पतिकायम् एजमान यावत् ततौं भाव परिणममानम् ! हन्त ! पश्यामि। जानासि खलु त्वं प्रदेशिन् ! एत' . तृणवनस्पतिकाय किं देवश्चालयति असुरो वा चालयति नागो वा चालयति किन्नरो वा चाल यति किंपुरुषो वा चायति महोरगो वा चालयति गन्धर्यो वा चालयति ! हन्त !! जानामि-नो देवश्वालयति जाव नो गन्धर्वश्चालयति केसीकुमारसमणे पएसिराय एवं वयासी-पाससि ण तुम पएसी राया! - एय तणवणम्सई एयंत जाव तत भावं परिणमत') तब केशीकुमारश्र. मणने प्रदेशी राजा से इस प्रकार कहा-हे प्रदेशिन् ! तुम इस तृणवनस्पति काय को सामान्य विशेषरूप से कपित होते हुए यावत् एजनादिरूप भिन्नर प्रकार के व्यापार में परिणत होते हुए देख रहे हो न? तब प्रदेशी राजाने कहा (हता, पासामि) हां, भदन्त ! देख रहा (जाणासि णं तुमं पएसी! एय तणव. णसइकाय किं देवो चालेइ, असुरोवा चालेइ, णागोवा चालेइ, किन्नरो वा चालेइ, किंपुरिसो वा चालेइ, महोरगो वा चालेइ, गधन्वो वा चाइ) तष केशीकुमारश्रमण ने उससे कहा हे प्रदेशिन् ! तुम जानते हो कि इस... तृणवनस्पतिकाय को कौन चलाता है? क्या देव चलाता है, या नाग, चलाता है या किन्नर चलाता है, या किंपुरुष चलाता है, या महोरगचलाता है या गंधर्व चलाता है ? प्रदेशीने कहा-(हता, जाणामि) हां, भदन्त ! जानता हूं (णो देवो चालेह जाव णो गंधवो चालेइ वाउकाए केसी कुमारसमणे परसिं रायं एवं वयासी-पाससि ण तुमं पएसि राया । एये तणवणस्सइ एयंतं जाव तत भाव परिणमंति) त्यारे शी भा२ श्रमण પ્રદેશી રાજાને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે પ્રદેશિન ! તમે આ ખૂણવનસ્પતિકાયને સામા ન્ય વિશેષરૂપથી કંપિત થતાં યાવત્ એજનાદિરૂપ ભિન્ન પ્રકારના વ્યાપારમાં પરિशुत मा छ।. ? त्यारे प्रदेशी २०-ये ४थु (हता पासामि) i महत ! शो छु (जाणासि ण तुम पएसी! एयं तणवणस्सइकार्य किं देवो चालेइ, असुरो वा चालेइ, णागो वा चालेइ, किन्नरो वा चालेइ, किपुरिसो वा चालेइ, महोरगो वा चालेइ, गंधयो वा चालेई) त्यारे शीमा२ श्रभो तेने ह्यु હે પ્રદેશિન્ ! તમે જાણો છો કે આ તૃણવનસ્પતિકાયને કેણ ચલાવે છે? શું દેવ ચલાવે છે? કે અસુર ચલાવે છે? કે નાગ ચલાવે છે? કે કિન્નર ચલાવે છે? Y३५ सावे छ, 'ध यावे छ ? प्रदेशी २०४॥ये घु-(हता, जाणामि) Si मत ! aur g. (णो देवो चालेइ, जाव णो गंधव्वो चालेइ, वाउकाएं Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६.. राजप्रश्नीयम, वायुकायः चालयति । पश्यसि खलु त्वं प्रदेशिन् ! एतस्य वायुकायस्य सरूपिणः सकर्मणः सरागस्य समोहस्य सवेदस्य सलेश्यस्य रूपम् ! नायमर्थः समर्थः । यदि खलु त्व प्रदेशिराज एतस्य वायुकायस्य सरूपिणो यावत् सशरीरस्य रूप न पश्यसि तत् कथं खलु प्रदेशिन् ! तब करतले इत्र आमलकं जीवमुपदर्शयिष्यामि !। एवं खलु प्रदेशिनू ! दश स्थानानि छद्मस्थो मनुष्यः सर्वभावेन न जानाति, न पश्यति, तद्यथा-धर्मास्तिकायम् १, अधर्मास्तिकायम्२, आकाश.. .. .. चालेइ) इसे न देव चलाता है, यावत् न गधर्व चलाता है । (पाससि ण तुम पएसि ! एयस्स बाउकायस्ल सरूविस्स सरागस्स समोहस्स सवेयस्स सले सस्स ससरीरस्स रूब) केशीकुमारश्रमणने तव उससे कहा-हे प्रदेशिन! तुम इस सरूपी, सकर्मा, सराग, समोह, सवेद, सलेश्य, सशरीर वायुकाय के रूप को देखते हो ? (णो इण समो) तव प्रदेशीने कहा-हे भदन्त! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् वायुकाय के रूप को मैं नहीं देखता हूँ तब उससे केशीकुमारश्रमणने कहा-(जइ ण तुमपएसि राया ! एयस्स वाउकायस्स सरूविस्स जाव ससरीस्स ख्वं न पाससि त कह ण पएसी! तव करयल सि वा आमलगी उवद सिस्सामि) हे प्रदेशिराजन्! जब तुम इस सरूपी यावत् सशरीर वायुकाय के रूप को नहीं देख पा रहे हो तो फिर मैं हे प्रदेशिन् ! कैसे तुम्हे करतलस्थित आंवले की तरह जीच दिखा सकता हूं। (एवं खलु पएसी! दसठाण' छउमत्थे मणुस्से चालेइ) माने न हेव सावे छ, यावत् न ध यक्षाव छ. वायुय यावे. छ.... (पाससिः : ण तुम' पएसि ! एयरस वाउकायस्स सरूविस्स सकम्मस्सः सरागस्स समोहरम सवेयस्स सलेसस्स ससरीरस्स रूव) शीभा२. अभ: त्यारे तेने धु-हे. प्रशिन्! तमे । स३पी, सभा, स, समोड, सह, सोश्य: सशरीर, वायुआयना ३पने भुग छ ? (जो इणटे सभ) त्यारे प्रदेशीय यु- HER ! L अर्थ समर्थ नथी. कोटले वायुयना : ३५नता ना. त्या२ पछी ५२ अशी भा२ श्रम तेने ह्यु. (जडणं तुमं पएसि राया ! एयः म्स. वाउकायस्स सरूविस्स जाव ससरीरस्स स्व न पाससि त कह : पएसी ! तव करयलंमि वा आमलगं जीवं उवदसिस्सामि) 3 : રાજન ! જ્યારે તમે આ સરૂપી યાવત્ સશરીર વાયુકાયનારૂપને જોઈ શકતા નથી તે પછી તે પ્રદેશિન હું કેવી રીતે તમને કરતલ થિત આમળાની જેમ જીવન माडी शयु. (एवं खलु पएसी! दसहाणाई छउमत्थे मणुस्से सव्व. भावेण न जाणइ न पासई) भई प्रदेशिन ! ७१२५ मा ६५ स्थानान, Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७ सुबोधिनीटीका. सून १५१ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् स्तिकाय म्३, जीवमशरीरबद्धम् ४ परमाणुपुद्गलं५, शब्दं६, गन्धं७, वातम्८, अयं जिनो भविष्यति वा नो भविष्यति९, अयं सर्वदुःखानामन्त करिध्यति वा नो वा करिष्यति१० । एतानि चैव उत्पन्नज्ञानदर्श नधरः अहन जिनः केवली सर्वभावेन जानाति पश्यति, तद्यथा-धर्मास्तिकाय यावत् नो वा करिष्यति, तत् श्रद्धेहि खलु स्व' प्रदेशिन् ! यथा-अन्यो जीवः तदेव९ ॥ मू० १५१॥ सव्वभावेण न जाणइ, न पासइ) क्यों कि हे प्रदेशिन् ! छद्मस्थ जीव इन इन दश स्थानों को सर्व भाव से नहीं जानता है और नहीं देखता है (त जहा) वे दशस्थान इस प्रकार से हैं (धम्मत्थिकाय१, अधम्मत्थिकाय२, आगोसस्थिकार्य३, मोव' असरीरबद्ध ४, परमाणुपोग्गल ५, सद६, गध वाय'८ अयजिणे भविस्मइ वा णो भविस्सइ९, अयं सव्वदुक्खाण अंतो करिस्सइ नो वा करिस्सइ१०) धर्मास्तिकाय १, अधर्मास्तिकाय२, आकाशा स्तिकाय३, अशरीर बद्ध जीव४, परमाणुपुद्गल५. शब्द६, गंध, वाता. यह जिन होगा, या नहीं होगा९, और यह समस्त दुखों का अन्त करेगी या नहीं करेगा१० (एयामि चेव उप्पणनाणदसणधरे अरहा निणे' केवली सव्वभावेण जाणइ पासइ) इन्हें तो उत्पन्न ज्ञान दर्शन धारी अन्ति जिन केवली सर्व भाव से जानते हैं। (त जहा धम्मस्थिकाय जाव नो वा करिस्सइ-त सदहाहि ण तुमपएसी! जहा अन्नो जीवो तं चेव) अत::: जंब अर्हन्त जिन केवली धर्मास्तिकायादि१० स्थानों को जानते देखते हैं: समापथी adyat नथी भने नेता नथी. (त जहा) ते ६शयाने या प्रमाणे छ. (धम्मत्थिकायं १, अधम्मत्थिकार्य २, आगासस्थिकार्य ३, जीवं असरीरवाद्धं ४, परमाणुपोग्गल ५. सद्द६ गंध ७. वाय ८, अय जिणे भविस्साइ वा णो भविस्साइ ९, अयं सावदुक्खाणं अंतो करिस्सइ १०.) भौतिय' : ૧, અધર્માસ્તિકાય ૨, આકાશાસ્તિકાય ૩, અશરીર બદ્ધ જીવ ૪, પરમાણુ પુદ્ગલ ५, २०४६, ७, पात ८. मा नि नहि थशे. ८. मन मा समस्त हुमाना गन्त ४२ ॐ नहि ४२. १०. (एमाणि चेव उप्पण्णनाणदसणधरे । अरहा जिणे केवली सवभावेण जाणई पासइ) मेमने तो अपन्न शान ४शनधारी मलिनी समाथी त छ भने तुवे छ. (तं जहा ' धम्मस्थिकायं जाव नो वा करिस्सइ त सहवाहिणं तुमं पएसी! जहा अन्नी जीवो त चेत्र) मेथी न्यारे मांडत पक्षी घमास्ताय वगेरे १० स्थाना ને જાણે છે જુવે છે અને છઘરથ એમને જાણતા નથી તેમજ જેતા પણ નથી. . તે હે પ્રદેશિન ! તમે શ્રદ્ધા કરો કે જીવ અન્ય છે અને શરીર અન્ય છે. ઈત્યાદિ. Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजश्री ३०६. वायुकायः चालयति । पश्यसि खलु त्वं प्रदेशिन् ! एतस्य वायुकायस्य संरूपिणः सकर्मणः सरागस्य समोहस्य सवेदस्य सलेश्यस्य रूपम् ! नायमर्थः समर्थः । यदि खलु त्वं प्रदेशिराज एतस्य वायुकायस्य सरूपिणो यावत् सशरीरस्य रूप न पश्यसि तत् कथं खलु प्रदेशिन ! तत्र करतले इत्र आमलकं जीवमुपदर्शयिष्यामि ! | एवं खलु प्रदेशिनू ! दश स्थानानि छद्मस्थो मनुष्यः सर्वभावेन. न जानाति, न पश्यति, तद्यथा-धर्मास्तिकायम् १, अधर्मास्तिकायम्र, आकाश: चालेइ) इसे न देव चलाता है, यावत् न गंधर्व चलाता है । (पाणि तुम परसि ! एयस्स बाउकायस्स सरूविस्स सरागस्स समोहस्स सवेयर ससस्स ससरीरस्स रूब) केशीकुमारश्रमणने तव उससे कहा- हे प्रदेशिन ! तुम इस सरूपी, सकर्मा, सराग, समोह, सवेद, सलेइय, सशरीर वायुकाय के रूप को देखते हो ? ( णो इट्टे समहे) तब प्रदेशीने कहा- हे भदन्त ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् वायुकाय के रूप को मैं नहीं देखता हू तव उससे केशीकुमारश्रमणने कहा - ( जइ ण तुम पएसि राया ! एस्स बाउकार्यस्स संरूविस्स जाव ससरीस्स रूवं न पाससि त कह ण पएसी ! त करयल सि वा आमलगी उवद सिस्सामि) हे प्रदेशिराजन् ! जब तुम इस रूपी यावत् सशरीर वायुकाय के रूप को नहीं देख पा रहे हो तो फिर मैं हे प्रदेशिन्! कैसे तुम्हे करतलस्थित आंवले की तरह जीव दिखा सकता हू । (एवं खलु पएसी ! दसहाण छउमत्थे मणुस्से चालेइ) याने न हेव सावे छे, यावत् न गंधर्व यावे छे. वायुभय असावे है. ( पाससि ण तुम एसि ! एयरस वाउकायस्स सरूविस्स सकम्मस्स:: सरागस्स समोहस्स सवेयस्स सलेसस्स ससरीरस्स रूप ) शीकुमार श्रमाणे त्यारे तेने उधु -हे, अहेशिन् ! तभे या सइची, सम्र्भा, सराग, सभोह, सवेह, सोश्य सशरीर, वायुभयना ३चने लुग्यो छ ? ( जो इणडे समट्टे) त्यारे प्रदेशीये उधु - हे 'लदृ'त ! आा अर्थ समर्थ नथी. गोटो में वायुभयना इथने हु लेते। नथी. त्यार पछी इरी डेशी ठुभार श्रमणे तेने धुं. ( जइ णं तुमं पएसि राया ! एय रस- वाउकायस्त संरूविस्स जाव ससरीरस्स रूवं न पाससि तं कहौं ण पएसी ! तव करयलंमि वा आमलगं जीवं उवद् सिस्सामि) हे अहेशि રાજન્! જ્યારે તમે આ સરૂપી યાવત્ સશરીર વાયુકાયનારૂપને જોઇ શકતા નથી તે પછી હું પ્રદેશિન્ હું કેવી રીતે તમને કરતલ સ્થિત આમળાની જેમ જીવને हेगाडी शत्रु' '४'. (एवं खलु पएसी ! दसाणाई छउमत्थे मणुस्से सबभावेण न जाणइ न पासइ) उभडे हे अहेशिन ! छद्मस्थ छ१ मा दृश स्थानान Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनीटीका. सूत्र १५५ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ३०७ स्तिकाय म्३, जीवमशरीरबद्धम्४ परमाणुपुद्गलं५, शब्द६, गन्धं, वातम्८, अयं जिनो भविष्यति वा नो भविष्यति९, अयं सर्वदुःखानामन्त करिष्यति वा नो वा करिष्यति१०। एतानि चैव उत्पन्नज्ञानदर्श नधरः अहन जिनः केवली सर्वभावेन जानाति पश्यति, तद्यथा-धर्मास्तिकाय यावत् नो वा करिष्यति, तत् श्रद्धेहि खलु स्व प्रदेशिन् ! यथा-अन्यो जीवः तदेव९ ॥ सू० १५१॥ सब्वभावेण न जाणइ, न पासइ) क्यों कि हे प्रदेशिन् ! छद्मस्थ जीव इन इन दश स्थानों को सर्व भाव से नहीं जानता है और नहीं देखता है. (तौं जहा) वे दशस्थान इस प्रकार से हैं (धम्मत्थिकाय१, अधम्मत्थिकाय२, आगोसस्थिकार्य ३, जोव' असरीरबद्ध ४, परमाणुपोग्गल५, सद६, गंध वाय'८ अयं जिणे भविस्मइ वा णो भविस्सइ९, अयं सव्वदुक्खाण अंतो करिस्सइ नो वा करिस्सइ१०) धर्मास्तिकाय१, अधर्मास्तिकाय२, आकाशा स्तिकाय३, अशरीर बद्ध जीव४, परमाणुपुद्गल५, शब्द६, गंध७, वात८ यह 'जिन होगा, या नहीं होगा९, और यह समस्त दुखों का अन्त. करेगो या नहीं करेगा१० (एयामि चेव उप्पण्णनाणदसणधरे अरहा जिणे केवली सव्वभावेण जाणइ पासइ) इन्हें तो उत्पन्न ज्ञान दर्शन धारी अर्हन्त. जिन केवली सर्वभाव से जानते हैं। (त जहा धम्मत्थिकाय जाव नो वा! करिस्सइ-त सदहाहि ण तुम पएसी! जहा अन्नो जीवो तं चेव) अतः जब अर्हन्त जिन केवली धर्मास्तिकायादि१० स्थानों को जानते देखते हैं: समावथी तो नथी भने नेता नथी. (त जहा) ते शस्थान मा प्रभारी छ । (धम्मत्थिकायं १, अधम्मत्थिकायं २, आगासत्थिकायं ३, जीवे असरीरवद्धं ४, परमाणुपोग्गल ५. सद्द६ गंधं ७. वाय ८. अयं जिणे भविस्साइ वा णो भविस्साइ ९, अयं सव्वदुक्खाणं अंतो करिस्सइ १०.) घीस्तिय ૧, અધર્માસ્તિકાય ૨, આકાશાસ્તિકાય ૩, અશરીર બદ્ધ જીવ ૪, પરમાણુ પુદ્ગલ ५, श६ ६, ५ ७, पात ८. २oिrt 3 नहि थशे. ८. मने या समस्त गानी गन्त ४२री नडि ४२शे. १०. (एमाणि चेव उप्पण्णनाणदसणधरे । अरहा जिणे केवली सवभावेण जाणई पासइ) भने तत्पन्न शान शनधारी मत or asी साथी on) छ भने नुवे छ. (तं जहा.. धम्मस्थिकायं जाव नो वा करिस्सइ त सदद्दादि णं तुमं पएसी! जहा अन्नी जीवो त चेर) मेथी न्यारे मा नि पक्षी मास्तिय बोरे १० स्थान : ને જાણે છે જુવે છે અને છઘરથ એમને જાણતા નથી તેમજ જેતા પણ નથી. . તે હે પ્રદેશિન, ! તમે શ્રદ્ધા કરે કે જીવ અન્ય છે અને શરીર અન્ય છે. ઈત્યાદિ. Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजनीयसूत्रे टीका- 'तणं पएसी राया' इत्यादि - ततः खलु प्रदेशी राजा केशिकुमारश्रमणम् एवमवादीत् - हे भदन्त ! यूयं खलु अतिच्छेका :- अवसरज्ञानातिनिपुणाः, दक्षा - कार्यसम्पादनकुशलाः, यावत् - यावत्पदेन 'प्राप्तार्थाः कुद्धाः कुशलाः महामतयः विनीताः विज्ञानप्राप्ताः' इत्येषां पदानां सङ्ग्रहः एप व्याख्या पूर्व गता । उपदेशलब्धी : - प्राप्तगुरूपदेशा:, अतो हे भदन्त यूयं शरीरात् जीवमभिनिवर्त्य -- निष्काश्य करतले - हस्ततले स्थितम् आमलकमित्र मम उपदर्शयितुं समर्था: - - शक्ताः । ३०८ और छद्मस्थ इन्हें जानता देखता नहीं है तो हे प्रदेशिन् ! तुम श्रद्धा करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, इत्यादि । टीकार्थ स्पष्ट है - ' दुक्खा जाव उपएसलद्धा' में जो यावत् पद आया है उससे यहां 'प्राप्तार्थाः कुद्धाः कुशलाः, महामतयः, विनीताः, विज्ञानमाप्ताः ' इन पदों का संग्रह हुआ है, इन पदों की व्याख्या पहिले की जां चुकी है। उस काल और उस समय में का तात्पर्य है जब मदेशी राजाने केशीकुमारभ्रमण से शरीर से निकालकर जीव को हस्तामलकवत् दिखाने की बात कही तब | 'एयंत जात्र तं त' में जो यावत् पद आया है उससे यहां 'व्येजमानं, चलन्तैः स्पन्दमानं, घट्टमानम्' इन पदों का संग्रह हुआ है । इन पदोंकी व्याख्या इसी सूत्र में पहिले की जा चुकी है. इन पदों में वायुकाय एकेन्द्रिय जीव है - अतः वह रूप युक्त है, कर्म सहित है, रागसहित है, मोहसहित है, नपुंसक वेद सहित है, औदारिक, वैक्रिय, तैजस और कार्मण इस चार टीअर्थ स्पष्ट ४ छे, 'दुक्खा जाव उपएसलद्धा' भां ? यावत् यह आवेस छे. तेथी गडी' 'प्राप्तार्थाः बुद्धाः कुशलाः महामतयः, विनीताः विज्ञानप्राप्ताः, या पहोनो संग्रह थयो छे मा पहोनी व्याच्या चहेतां श्वामां भावी છે. તે કાળે અને તે સમયે જે કહેવામાં આવ્યું છે તેની સ્પષ્ટતા આ પ્રમાણે છે કે જ્યારે પ્રદોશી રાજાએ કેશી કુમાર શ્રમણુને શરીરમાંથી બહાર કાઢીને જીવને હસ્તાभसम्वत् मतापवानी वात उडी त्यारे (एयंत जात्र त त) भां ? यावत् यह छे तेथी अडी' ""येजमानं, चलन्त स्पन्दमान, घट्टमानम्" मा होना सौंथड થયા છે. આ પટ્ટોની વ્યાખ્યા આ જ સૂત્રમાં પહેલાં કરવામાં આવી છે. આ પદોમાં પ્રત્યયકૃત જ વિશેષતા છે. ધાવ કૃત વિશેષતા નથી વાયુકાય એકેન્દ્રિય જીવ છે. એથી તે રૂપયુકત જીવ છે. કસહિત છે, રાગસહિત છે, માહસહિત છે, નપુંસક वेह सहित छ, मोहारिए, वैडिय, तेन्स भने अर्भशु मा यार शरीरवाणी है. हृणु. Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सू. १५१ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशराजवर्णनम् ३०९ .... तस्मिन् काले के शिकुमारश्नमण प्रति जीवस्य शरीरान्निष्काशनपू क. कराऽऽमलकवदुपदर्शनमार्थनाकाले तस्मिन् समये-अवसरे प्रदेशिनो राज्ञः अदूरसामन्ते नातिदूरे-नातिसमीपे वायुकायः संवृत्ता-प्रवृत्तोऽभवत्, तेन तृणवनस्पतिकायः एजते-सामान्यतः कम्पले, ततो व्येजते-विशेषतः कम्पते, चलति-चपली भवति, स्पन्दते-ईषच्चलति, घट्टते-परस्परं संघर्ष प्राप्नोति. उदीर्ते-उत्कम्प ते एवं तं तं भावम्-एजनादिरूपं व्यापारं परिण मते-प्राप्नोति, ततः-वायुकायसंवर्तनवशात् तृण वनस्पतिकायस्यैजनादिभावो. पगमनानन्तरम् खलु केशी कुमारश्रमणः प्रदेशिरानमेवमवादीत-हे प्रदेशिराज! त्वं पश्यसि-चक्षुर्गोचरं करोषि खलु एतम्-इमम् तृण वनस्पतिम्, एजमानं यानतु-यावत्पदेन-'व्येजमानं चलन्त स्पन्दमान घट्टमानम् उदीराणम्' इत्येषां पदानां सङ्ग्रहो बोध्यः एपां व्याख्याऽत्रैव सूत्रे पूर्व कृना, तत्र प्रत्ययकृतो विशेषः, धात्वर्थस्त्वविशेष एव द्रष्टव्यः । तं तं भावं परिणममानम्. ?। इति केशिप्रश्ने प्रदेशी प्राह-हन्त ! पश्यामि । पुनः केशी कुमारश्रमणः प्रदेशिराज पृच्छति-हे प्रदेशिन ! त्वं वल जानासि एतं वनस्पतिकायं किं देवश्चालयति? कि वो असुरचालयति ? किं वा नागा-नागदेवश्चालयति ! किंवा किन्नर:तदाख्यदेवविशेषश्चोलयति ! किं वा किं.पुरुषश्वालयति ! किं वा महोरगःव्यन्तरविशेषो देवश्वालयति । किं वा गन्धर्वश्चालयनि ! । प्रदेशी पाह-हन्त!! जानामि-नो देवश्चालेयति, यावत्-नो गन्धर्वश्चालयति, तर्हि ऋचालयति ! इति जिज्ञासायामह-वायुका यश्चालति । केशी पृच्छति-हे प्रदेशिन् ! त्वमें तस्य स्वकीयेऽदरसामन्ते संप्रवृत्तस्य वायुकायस् , रूप पश्यसि, तस्य कीदृशस्येत्यत्राऽऽह सरूपिणः-रूपयुक्तस्य सकर्मण:-कर्म सहितत्य सरागस्य-रागस हितस्य समोहस्य-मोहसहितस्य सवेदस्य-नपुसक वेदसम्पन्नस्य सलेश्यस्यकृष्णनीलकापोतलेश्यात्रययुक्तस्य सशरीस्य-औदारिकवैक्रियतेजप्तकार्मण शरीरचतुष्टययुक्तस्य एतादृशस्य वायुकायस्य रूप किं पश्यसि। इति पूर्वे. णान्वयः। इति प्रश्ने प्रदेशी पाह-नायमर्थः समर्थ:-ताशस्थ वायुकायस्य दर्श नरूपोऽर्थः न समर्थ :- न तस्य रुप पश्यामीति भावः। केशीकुमारशरीरोंवाला है, कृष्ण, नील, एवं कापोत इन तीन लेश्याओंवाला है यही बात सरूपी आदि विशेषणों द्वारा वायुकाय में प्रकट की गई है । अब शिष्ट मूत्रस्थ पदों का अर्थ स्पष्ट है ।। मू. १५१॥ નીલ અને કાપિત આ ત્રણ લેશ્યાઓવાળે છે. એ જ વાત સરૂપી વગેરે વિશેષણ વડે વાયુકામાં પ્રકટ કરવામાં આવી છે. બાકી રહેલા પદોને અર્થ સ્પષ્ટ જ છે .૧૫ના Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीयसूत्र श्रमणो वायुकास्थाशक्यदर्शनत्वे प्रदेशिनमाह-हे प्रदेशिराज ! यदि त्व खलु एतस्य वायुकायस्य सरूपिणः यावत्-सशरीरस्य रूपं न पश्यसि तत्-तदा कथं-केन प्रकारेण खलु करतले आमलक वा-इव जीव तव उपदर्शयि. प्यामि ? वायुकायस्य तव जीवस्य च समानरूपत्वादेकस्या शक्यदर्शनत्वेऽप. रस्थापि अशक्यदर्शनत्वात् । वक्ष्यमाणच्छमस्थमनुष्यस्य जीवादिस्थानानां सर्वभावेन ज्ञानदर्शनाऽयोग्यत्वात् कथं चक्षुर्गोचर कारयिष्यामीति भावः। तदेव दर्शयति-हे प्रदेशिन्! एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण खलु छद्मस्थो मनुष्यः दशस्थानानि वक्ष्यमाणानि धर्मास्तिकायादीनि सर्व भावेन सम्पूर्णतया न जानाति, न पश्यति । कानि तानीत्याह तद्यथा-धर्मास्तिकायम् ?, अधर्मास्तिकायम २, आकाशास्तिकायम्३, जीवशरीरवद्धम्-शारीरतोऽसंस्पृष्टम्४, परमाणुपुग्दलम्५, शब्दम्६, गन्धम७, वात- वायुम८, अयं जिनो भविष्यति वा-अथवा नो-न भविष्यतीति? ९, अयौं सर्वदुःखानामन्त करिष्यति वा नो करिष्यती ति१० एतानि दशस्थानानि उत्पन्नज्ञानदर्शनधरः अर्हन् जिनः केवली एव सर्व भावेप-साकल्येन जानाति तथा पश्यति, नद्यथा-धर्मास्तिकाय यावत्-नो वा करिष्यति तत्तस्मात्कारणात हे प्रदेशिन् ! त्व. श्रद्धेहि, यथा-अन्यो जीव: तदेवपूर्वोक्तमेव-अन्यच्छरीरम्. नो तज्जीवःस्स शरीरम् इति ॥ मू० १५१ ।। मूलम्-तए णं से पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं वयासी से नूर्ण भंते ! हस्थिस्स य कुंथुस्स य समे चेव जीवे ? हंता पएसी हस्थिस्स य कुथुस्स य समे चेव जीवे। से पूर्णभंते ! हथिउ कुंथू अप्पकम्मतराए चेव अप्पकिरियतराए चेव अप्पासवतराए चेव एवं अप्पाहारनीहारउस्तासनीसासड्डियतराए अप्पजुइयतराए चेव, एवं कुंथुओ हत्थी महाकम्मतराए चेव महाकिरियतराए चेव जाव ?, महज्जुइयतराए चेव । हंत ? हत्थीओ कुथ अप्पकम्मतराए चेव कुंथुओ वा हत्थी महाकम्मतराए चेव महाकिरियतराए चेव तं चेव । कम्हा णं भंते! हथिस्स कुंथुस्त य समे चेव जीवे। पएसी से जहाणामएकूडागारसाला सिया जाव निवायगंभीरा, अह णं केइ पुरिसे जोइं च Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - सुबोधिनी टीका. १५२ सूर्याभदेवस्य पूर्व भव जीवप्रदेशिराजवर्णनम् पदीयं च गहाय तं कूडागारसालं अंतो२ अणुपविसइ, तीसे कूडागारसालाए सव्वओ समंता घणनिचियनिरंतराइं णिच्छिड्डाई दुवारवयणाइं पिहेइ, तीसे कूडागारसालाए बहुमज्झदेसभाए तं पईवं पलीवेज्जा, तए णं से पईवे तं कूडागारसालं अंतोर ओभासइ उज्जो वेइ तावइ पभोसइ, णो चेव णं बाहिं । अह णं से पुरिसे तं पईवं इड्डरएणं पिहेजा, तए णं से पईवे तं इड्डरय अंतो२ ओभासेइ४, ___णो चेव णं इड्रगस्स बाहिं णों चेव णं कूडागारसालाए बाहिं। एवं गोकिलिंजेणं, पच्छियपिडएणं गंड मणियाए, आढएणं, अद्धाहएणं, पत्थएणं, अद्धपत्थएणं, कुलवेणं चौउब्भाइयाए, अटुभाइयाए, सोलसियोए, बत्तीसियाए, चउसट्टियाए, दीवचंपएण, तए णं से पईवे दीवचंपगस्स अंतोर ओभासेइ४, नो चेव णं दीवचंपगस्स बाहिं नो चेव णं चउसट्टियं नो चेव णं चउसट्टियाए बाहि, णो चेव णं कूडागारसालं णो चेव णं कूडागारसालाए बाहि, एवामेव पएसी जीवे वि ज. जारिसयं पुत्वकम्मनिबद्ध बोंदि णिव्वत्तेइ तं असंखेज्जेहिं जीवपएसेहिं सचित्तं करेइ सुड्डिय वा महालिय वा, तं सदहाहि णं तुम' पएसी ! जहा-अण्णो जीवो त चेव णं १०॥ ॥ सू. १५२ ॥ - छाया-ततः खलु स प्रदेशी राजा केशिनं कुमारश्रमणमेवमवादीतस नून भदन्त ! हस्तिनः कुन्थोः वा सम एव जीवः १ हन्तं ! ! प्रदेशिन् ! ' 'तए णं से पएसी राया' इत्यादि। मुत्रार्थ--(तए णं) इसके बाद (ते पएसी राया केसि कुमारसमणं एव' क्यासी) उस मदेशी राजाने (केसि कुमारसमणं एवं वयासी) केशी 'तए णं से पएसी राया' इत्यादि। सूत्रार्थ-(तए णं) (यार पछी (ते पएसी रोया के सि कुमारसमणं एवं वयासी) ते प्रदेशी २०-ये 3शी भा२ श्रमणुने PAL प्रमाणे. यु. (से नूण Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामप्रश्नीयसूत्रे हस्तिथ कुश्च सम एव जीवः । अथ नूनं भदन्त ! हस्तिनः कुन्थुः अल एवम् अल्पाहार नीहारो कर्मतर एव अल्पक्रियतर एव अल्पाखवतर एव, च्वासनिः श्वासऋद्धिकतर : अल्पद्युतिकतर एक, एवं महाकर्मतर एव महाक्रियतर एव यावत् महाद्युतिकतरएव ? हन्त ! प्रदेशिन् ! च कुन्थुतः हस्ती ३१२ } कुमारश्रमण से ऐसा कहा - ( से पूर्ण भाँते ! हस्थिस्स य कुंथुस्सय समे चेव जीवे) हे भदन्त ! हाथी का जीव और कुशु का जीव क्या तुल्यप रिमाण वाला है या न्यूनाधिकपरिमाणवाला है? तब केशीकुमारश्रमण ने उससे कहा - (हता, पएसी ! हत्थस्स य कुथुस् य समे चेत्र जीवे) - हां प्रदेशिन ! हाथी का और कुथुका जीव तुल्यपरिमाणवाला है, न्यूना-धिक परिमाणवाला नहीं है । ( से णूग भले ! हत्थी कुथू अप्पकम्मतराए चेव, अप्पकिरियतराए चैत्र, अप्पासaaराए चेत्र ) हे भदन्त ! हस्ती की अपेक्षा कुन्थु क्या अल्पकर्मवाला ही होता है ? अत्यल्प कायिकादि क्रिया वाला ही होता है ? अत्यल्प आव वाला ही होता है ? ( एवं अप्पाहारनीहार उस्सासनीसातयतराए, अप्पजुडयतराए चैत्र ) अल्पतर आहारवाला ही होता है ? अल्पत्तर नीहार वाला ही होता है ? अल्पतर उच्छ्वास निश्वास वाला ही होता है ? अल्पतर ऋद्धिवाला ही होता है ? अल्पतर ध्रुति शरीर की कान्ति वाला ही होता है। ( एवं कुथुओ हत्थी महाकम्म नराए चैत्र, महाकिरियतराए चैव जाव महज्जुइयतराए चेव ) इसी प्रकार से · क भंते! हस्थिस्य कुथुस्स य समे चेत्र जीवे) हे महंत ! हाथीने કુંથુના જીવ શુ' તુલ્ય પરિણામ વાળા છે કે ન્યૂનાધિક પરિમાણવાળા છે ? ત્યારે કેશી कुमार श्रमणे तेने उधु - (हंता, परसो ! हत्थिस्स य कुंथुस्स य संमे चैव जीवे) हां प्रदेशिन ! हाथीनेो मने हुंथुनो व तुल्य परिणामवाणी छे. न्यूनाधिः परिणाभवाणो नथी. (से पूर्ण भंते ! हस्थित थुकुंथू अपवस्तरा चे अप्प किरियतराए चेत्र, अप्पासचतराए चेच) हे लहंत ! हाथीनी अयेક્ષાએ શુ શુ અલ્પક`વાળુ' જ હોય છે ? અત્ય૫કાયિક વગેરે ક્રિયાવાળું હાય छ ? सत्यस्य भावयुक्त होय छे ! ( एवं अप्पाहारनोहार उस्सासनीसासइडियतराए, अप्पजुइयतराए चेत्र) अस्तर भाडावालु' न होय छ ! स्थ. -- તર નીહારવાળુ' જ હોય છે. અપતર ઉચ્છવાસ નિશ્વાસ યુકત હાય છે ! (Ë कुथु हत्थी महाकम्मतराएचेत्र, महाकिरियतराए 'चें जाव' महज्जु इयतराए चेच) या प्रमाणे हुंथुनी अपेक्षा शु हाथी महादुर्भतर हाय छ, 1 "' Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनीटीका. सून १५२ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् । ३१३ हस्तितः कुन्थुश्च अल्पकमतर एच, कुन्थुतो वा हत्ती महाकर्मतर एव तदेव।। कस्मात् खलु भदन्त ! हस्तिनश्च कुन्थोश्च सम एव जीवः । प्रदेशिन् ! तद् यथानामक कूटाऽऽकारशाला स्यात, यावत् निर्वातगम्भीरा, अथ खलु कश्चित् पुरुषः ज्योतिर्वा प्रदीपं वा गृहीत्वा तो कूटाऽऽकारशालाम् अन्तरन्तरनुम कुन्थु की अपेक्षा हाथी क्या महाकम तर ही होता है, महाक्रियोतर ही होता है? यावत् महाधुतितर ही होता है ? इस प्रदेशी के प्रश्न के उत्तर में केशी कुमारश्रमणने कहा-(हंत, पएसी! हथिओ कुंथू अप्पकम्मतराए चेव, कुंथुओं वा हत्थी महाकम्मतराए चेव महाकिरियतराए चेव-त' चेव) हां, प्रदेशिन! ऐसी ही बात है-हाथी से कुन्थु अल्पतर कर्मवाला ही होता है, इत्यादि इसी प्रकार कुन्थु की अपेक्षा से हाथो महाकर्मतरवाला ही होता है, महाक्रियावाला ही होता है इत्यादि। (कम्हा गं भंते ! हथिस्स.य कुंथुस्स य समे चेद जीवे) अब प्रदेशी इस प्रकार पूछता है कि-हे भदन्त ! आपने जो हाथी और कुन्थु के जीव को समानपरिमाणवाला कहा है. सो इसका क्या कारण है ? केशीकुमारश्रमणने उससे कहा-(पएसी! से जहा नामए कूडागारसाला सिया जाव निवायगभीरा) हे प्रदेशिन् ! जैसे एक कूटाकारवाली पर्वत के शिखर के आकार जैसी शाला हो और यावत् वह निर्वात-वायुपवेश रहित होने के कारण गंभीर हो. (कह णं केइ पुरिसं जोई पदीव च गहाय तं कूडागारसाल अंतो२ अणुपविसइ) अब कोई મહાફિયાતર હોય છે? યાવત્ મહાતિતર જ હોય છે? પ્રદેશના આ પ્રશ્નના उत्तरमा शी भा२ श्रभो ह्यु- (हता पएसी ! हत्थीओ कुथू अप्प कम्मतराए चेब, कुथुओ वा हत्थी महाकम्मतराए चेव महाकिरियतराए चेव तंचेव) i, प्रशिन ! पात मेवी ४ छ. डाथी ४२ता थु मध्यतर भरता डोय છે. વગેરે. આ પ્રમાણે કુન્થ કરતાં હાથી મહાકર્મ કર્તા હોય છે, મહાક્રિયા યુકત डाय छ. बगेरे. (कम्हाणं भंते ! हत्थित्स च कुंथुस्स य मामे चेध जीवे) हुवे પ્રદેશી આ પ્રમાણે પ્રશ્ન કરે છે કે હે ભદંત! તમે જે હાથી અને કુંથુના જીવને સમાન પરિણામવાળે કહ્યો છે તે એનું શું કારણ છે? કેશી કુમાર પ્રમાણે તેને કહ્યું (पएसी ! से जहानामए कूडागारसाला सिया जाव निवायगंभीरा) હે પ્રદેશિન ! જેમ કે કેઈ એક કુટાકારવાળી–પર્વતના શિખરની આકૃતિ જેવી– Alोय मने यावत् ते निर्वात-पाय प्रवेश हित पाथी भी लीय, (अहं ___णं केइ पुरिसे जोइ च पइव च गहाय तं फूडागारसालं अंतो २ अणु Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ राजप्र श्रीषसूत्रे : विशति, तस्याः कूटाकारशालायाः सर्वतः समन्तात् घननिचितनिरन्तराणि निछिद्राणि द्वारवदनानि पिदधाति, तस्याः कूटाऽऽकारशालाया बहुमध्यदेशभागे तं प्रदीप मदीपयेत् ततः खलु म प्रदीपः तां कूटा शा लाम् अन्तरन्तः अवभासयति उद्योतयति तापयति प्रभासयति, नो चैत्र खेल बहिः अथ खलु स पुरुषः तं मदीपम इडरकेण विदध्यात् ततः खलु i पुरुष अग्नि और दीपक को लेकर उस कूटाकारशाल के भीतर घुसकर बिलकुल ठीक मध्यभाग में जाकर खडा हो जाता है (ती से कूडागारसालाए सच्चओ संमता घर्णानिचियनिरंतराइ णिच्छिडाई दुवारवयणा विहेड़ ) फिर वह उस कूटाकारशाला के चारों ओर के सब दरवाजों को इस तरह से चन्द कर देता हैं कि जिससे उनके आपस में किवाड इस प्रकार से सट जाते हैं कि उनमें जरासा भी छिद्र नहीं रहने पाता है. इस तरह से दरवाजों को अच्छी तरह से बन्द कर (तीसे कूडागार सालाए बहुमज्जदे सभाए तं पत्र पलीवेज्जा ) फिर वह उस कूटाकारशाला के बहुमध्य देशभाग में उस 'प्रदीप को प्रज्जवलित करता है. (तए णं से पईवे त कूडागारसाल अतो२ ओभा सइ) इस तरह वह दीपक उस कूटाकारशाला के पूरे भागको ही प्रकाशित करता है (उज्जोइ, तावइ पभाव ) उद्योतित करता है, तापित करता है एवं घटपटादि पदार्थों को दिखाने से उसे प्रभासित करता है (णोचेंब वाहिं) उस कूटाकारशाला के बाहिरी भाग को वह न प्रकाशित करता है, न उद्योतित करता है, न तापित करता है और न घटपटादिकों को पंविसाई) हवे अ ३ष अग्नि तेन हीच सहने ते टूटा अरथाजानी अंडर प्रविष्ट थर्धने हभ तेना मध्यभागमां- लाने उलो था लय छ (तीसे कूडागारंसालाए सन्त्रओ समंता घणनिचियनिरंतराई णिच्छिाई दुवारवयणाईँ पिहेइ) પછી' તે માણસ તે કૃટાકાર શાળાના ચારે તરફના બધા દ્વારાને એવી રીતે અંધ કરી દે છે તેના પરસ્પર એકદમ બધ થયેલા કમાડામાંથી નાનુ' સરખું પણુ કાણુ रेडेतु' नथी. (तीसे कूडागारसालाए बहुमज्झदेसभाए तं पई पलीवेज्जा) પછી તે` માણુસ તે ફૂટાકારશાળાના મહુમધ્ય દેશભાગમાં તે દીપકને પેટાવે છે. (तए णं से पईवे तं कूडागारसाल अंतो २ ओभासह) आ प्रमाणे ते द्वीप ते ईटाहार शाणाना अहरना लागने प्राशित १२ छे, (उज्जोवेइ, तावइ "भावई) उद्योतित पुरे छे, तापित रे छे, मने घटपट वगेरे यहाथैने मतावीने तेभने प्रतिलासित ४३ छे (जो चेत्र णं वाहि) ते टार शाजाना भंडारना ભાગને તે પ્રકાશિત કરતા નથી, ઉદ્યોતિત કરતા નથી, સંતાપિત કરતા નથી અને 1 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -धिनी टीका सू. १५२ सूर्याभिदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ३१५ -समदीपः तद् इडरकम् अन्तरन्तः अवभासयति४, नो चेत्र खलु इडरकस्य वहिः, नो चैव खलु कूटाssकारशालायाः बहिः । एवं गोकिलिन्जेन, पक्षिपिट - केन, गण्डमाणिकया. आढकेन, अर्धाढकेन, प्रस्थकेन, अर्ध प्रस्थकेन, कुडवेन, अद्धकुडवेन, चतुर्भागिकया, अष्टभागिकया, पोडशिकया, द्वात्रिंशत्कया, दिखाने से उसे प्रभासित करता है | ( अहण से पुरिसे तं पईवं इंडरएणं पिज्जा, तरण' से पईवे व इरय अतोर ओमासेइ ४) यदि वह पुरुष 1. उस दीपक को किसी बडे ढक्कन से ढंक देता है तो वह दीपक उस बडे ढक्कन के भीतरी भाग को ही प्रकाशित करता है यावत् उसे प्रभासित करता है (णो चेत्र ण इरगस्स वाहिं णो चेव न कूडागारसाला वाहिं) उस बडे ढ़कन के बाहिरी भाग को एवं कूटाकारशाला के बाह्यदेश को ...प्रकाशित यावत् प्रभासित नहीं करता है । ( एवं गोकिलिंजेण, पच्छि पिंडणं, गडमणियार, आढएणं, अद्धाढएणं, पत्थपण, अद्धपत्थपूर्ण कुल वेण, वाउन्माइयाए, अट्टमाझ्याए, सोलसियाए) इसी तरह उस दीप को गोकिलिञ्ज से - गाय का खाना जिसमें रखा जाता है ऐऐसी कुण्डिका से, तथा पक्षी के आकरवाले वंशशलाका निर्मित पात्र विशेष से, गण्ड मणिका से- धान्य नापनिका से, आढक से, अर्धाढक से, प्रस्थक से, अर्धप्रस्थ से, कुडवसे, अर्धकुडव से, न सब देश विशेष में प्रसिद्ध धान्यमापक पात्र विशेषों से ढक देता है तथा चतुर्भागिका से, अष्टभागिका घटपट वगेरे पहार्थेने गतावीने तेभने प्रतिभाषित या १२तो नथी. (अहं णं. से रिसे तं पडणं पिज्जा, तप णं से पर्व त इडय तो २ ओभासेइ ४ ) वे ले ते पु३ष ते हीयने मोटा ढांडणाथी ढांडी हे तो ते द्वीप તે માટા ઢાંકણાના અંદરના ભાગને જ પ્રકાશિત કરે છે, યાવત્ તેને પ્રતિભાસિત કરે 79. (णो चेत्र णं इडरगस्स बाहि णो चेव णं कूडागारसालाए,बाहि) .. તે મોટા ઢાંકણાના બહારના ભાગને તેમજ તે ક્રાકાર શાળાના માહ્ય પ્રદેશને પ્રકાશિત यावत् तेने प्रतिलासित उरतो नथी, ( एवं गो किलिजेग पच्छिपिंडणगडमणियार, आढएण, अद्धहणं, पत्थएणं, अद्धपत्थरणं, कुलवेण, चाउ माइयाए, अडभाड्याए, सोलसियाए) मा प्रमाणे ते भाणुस ते ही चहुने गोड़ि सिन्थी - गायने मां मा भूस्वामां आवे छे. सेवा डुंडीथी, तेभक पक्षीना । આકારવાળા વશ શલાકાનિર્મિત પાત્ર વિશેષથી, ગંડ મણિકાથી-ધાન્ય માપનિકાથી, माढम्थी, अर्द्धाढस्थी, प्रस्थ थी, अर्धप्रस्थ थी, हुडवथी, अर्धउवथी, या मधा देश વિદેશમાં પ્રસિદ્ધ ધાન્યમાપક પાત્ર વિશેષાથી તેને ઢાંકી દે છે તેમજ ચતુર્ભાગીકાથી, Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ गंजप्रश्नीयसूत्र चतुष्षष्टथा, दीपचम्पलेन, ततः खलु स प्रदीपः दीपचम्पकस्य अन्तरन्तः अवभासयति४, नो चैव खल्लु दीपचम्पकम्य वहिः नो चैव खलु चतुष्पष्टिका, नो चैव खलु चतुप्पष्टिकाया बहिः, नो चैव खलु कूटाऽऽकारशालां, नो चव खलु फूटाऽऽकारशालाया बहिः, एवमेव मदेशिन् ! जीवोऽपि यां यादृशी पूर्व कर्म निवद्धां बोन्दि निर्वतयति तामसंख्येयैर्जीवपदेशैः सचिनां करोति शुद्रिकांचा महतीं वा, तत् श्रद्धेहि खलु त्वं प्रदेशिन्! यथा अन्यो जीवः तदेव खलु १० ।म. १५२॥ से, पोडशभागिका से इन सब चतुर्भागिका से चतुप्पष्टिकापर्यन्त के मगधदेशप्रसिद्ध रसमापक पात्रविशेषण से ढक देता है तथा दीप के ढंकने 'से ढंक देता है (तए ण से पईवे दीवपंचगस्स अंतो २ ओभासेइ) ते। वह प्रदीप जिन २ से ढंका गया है उन्हीं २ के भीतरी को ही प्रका. शित करता है, उनके बाहिरी भाग को नहीं इसी तरह से वह दीपचम्पक के ही भीतरी भाग को प्रकाशित करता है, (जो चेव ण दीवचंगस्स बाहिं नो चेव ण चउसट्टिय', नो चेव ण चउसट्टियाए वाहि, णो चेव ण कूडागारसाल, कूडीगारसालाए बाहि) दीपचम्पक के वाहिरी भाग को नहीं-या दीपक के वाहिर के प्रदेश को नहीं, चतुष्पष्टिका को नहीं, चतुष्पष्टिका के बाहिर के प्रदेश को नहीं, कुटाकारशाला को, और कूटाकारशाला के बाहर के प्रदेश को नहीं प्रकाशित करता है ' (एवामेव पएसी ! जीवे वि जे जारिसयं पुव्वकम्मनिबद्ध बोदि णिवत्तेह) मट ailuथी, पाश माथी (बत्तीसियाए, चउसट्टियाए, दीवचंपएणं) બત્તીસિકાથી, ચતુષ્પષ્ટિકાથી, આ બધી ચતુર્ભગિકાથી ચતુષષ્ટિક પર્યરતના મગધ “દેશ પ્રસિદ્ધ રસમાપક પાત્ર વગેરેથી ઢાંકી દે છે તેમજ દીપચંપકથી–દીપકના ઢાંક थी - dil हे छ. (तए ण से पईवे दीवच पगस्स अंतो. २ ओमासेइ) તે તે પ્રદીપ જે જે વસ્તુથી ઢાંકવામાં આવે છે તે તે વસ્તુના અંદરના ભાગને ' જ પ્રકાશિત કરે છે. તેમના બહારના ભાગને પ્રકાશિત કરતો નથી. આ પ્રમાણે તે हीयय ५४ना मरना सामने प्राशित ४रे छ. (जो चेव ण दीवच पगस्स चाहिनो चेव ण चउसहिय, नो चेव ण चउसष्टियाए वाहि, णो चेव 'ण' कूडागारसाल, णो चेट ण कूडागारसालाए वाहि) दीपय पना "બહારના ભાગને નહીં, કે દીપક ચંપકના બહારના પ્રદેશને નહીં, ચતુષ્કટિકાને નહીં, ચતુષષ્ટિકાના બહારના પ્રદેશને નહીં, કૂટકારી શાળાને નહીં, અને ફૂટકારશાળાના मरना प्रदेशने प्रशित ४२तो नथी. एवामेव-पएसी! जीवें वि जे. जारि- . सय पुवकम्मनिवद्ध वादिं णिवतोइ) मा प्रमाणे प्रदेशिन् ०१ ] पूर्व - Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टोका. १५२ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् . टीका-'तए णं से पएसी राया' इत्यादि-ततः खलु स प्रदेशी राजा केशिनं कुमारश्रमणम् एवमवादी-हे भदन्त ! स शरीराद्भिन्नः जीवा नूननिश्चयेन हस्तिनः कुन्थो:-त्रीन्द्रियक्षुद्रप्राणिविशेषस्य च समः-तुल्यपरिमाण एव न न्यूनाधिकपरिमाणः। इति प्रश्नः । केशी पाह-हन्त ! हे प्रदेशिन ! इसी तरह से हे प्रदेशिन् ! जीव भी पूर्व भवोपार्जित कर्मद्वारा निघद्ध जैसे शरीर को उत्पन्न-प्राप्त करता है (त असंखेज्जेहिं जीवपएसेहि सचित्त करेह खुड्डिय वा महालिय. बा) चाहे वह छोटा हो या बडा उसे अपने .', असंख्यात प्रदेशों से सचित्त-जीव युक्त कर लिया करता है. (त सदहाहि. ण तुमपएसी! जहा अण्णो जीवो त चेव ण १०) इसलिये हे प्रदेशिन्! तुम इस बात पर विश्वास करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य हैं इत्यादि। टीकार्थ-इस मूलार्थ के ही अनुरूप है-परन्तु जो विशेषता है-बह इस प्रकार से है-कुन्थु वह तीन इन्द्रियों वालो-ते इन्द्रिय जीव है. और हाथी पांच इन्द्रियों वाला-पंचेन्द्रिय जीव है. जबकेशीकुमार श्रमणने १५१वे सूत्र में प्रदेशी से ऐसा कहा कि वायुकायिक जीव में और तुम्हारे जीव . में समानता है तो प्रदेशी के चित्त में ऐसी आशंका का उठना स्वभाविक ही हैं कि कुन्थु के जीव में और हाथी के जीव में समानता है या असमानता है ? इसीलिये उसने ऐसा प्रश्न पूछा है. इसके समा. धान में केशीने उससे ऐसा कहा कि हे प्रदेशिन् ! जीव में चाहे वह लापतिमा निद्धशरीरन पन्न-प्रात ४२ छ. (त असखेज्जेहिं जीवपएसेहि सचित्त करेइ खुड्यि वा महालिय वा) पछी म ते पछी - નાનું હોય કે મોટું–લઘુ હોય કે મહાન તેને પિતાના અસખ્યાત પ્રદેશથી સચિત્ત वयुश्त से छ. (तं सहाहि णं तुम पएसी ! जहा अण्णोजीव त चेव ‘ण १०) मेटला भाटे महाशिन् ! तमे भारी मा वात पर विश्वास है व मान्य छ भने शरीर मन्य छ. वगेरे ! " } ટીકાઈ_આ સૂત્રને ટીકાથે મૂલાથે પ્રમાણે જ છે. પણ સવિશેષ સ્પષ્ટતા मी प्रमाणे छ-उथु-येण धन्द्रिया युत-ते छन्द्रिय छ. सने हाथी पांय ઈદ્રિ યુકત પચેન્દ્રિય જીવે છેજ્યારે કેશ કુમાર શ્રમણે ૧૫૧ મો સૂત્રમાં પ્રદશીને આ પ્રમાણે કહ્યું કે વાછુંકાયિક જીવમાં અને તમારા જીવમાં સમાનતા છે તે * પ્રદેશને ચિત્તમાં એવી આશંકા ઉદ્દભવે કે કુંથુના જીવમાં અને હાથીના જીવમાં समानता छ समानता ? को पात वालावि छ. मेटसा भोटे तेरेम। तन नयाँ छ: मेना समाधानमाशीम तने या प्रमाणे युं प्रशिन! । . Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ जिप्रश्नीयस्त्र हस्तिनः कुन्थोश्च जीवः सम एव । प्रदेशी कथयति-हे भदन्त ! तत्र-हस्तिकुन्थ्योर्मध्ये हस्तितः- हस्तिनमपेक्ष्य, अत्र ल्यव्लोपे कर्मणि पन्चमी कुन्थुः नूनं-निश्चयेनाल्पकर्मतरः-अत्यल्पाऽऽयुरादिरूपकर्मवान् एव, अल्पक्रियतर:अत्यल्पकायिका दिक्रियावान एव, अल्पास्रवतर:-अत्यल्पप्राणांतिपातादिरूपा सववान् एव, एवम्-अनेन प्रकारेण अल्पाऽऽहारनीहारोच्छासनिःश्वासऋद्धि कतरः अल्पधुतिकतरः अल्पशब्दस्य सर्वत्र सम्बन्धात अल्पोहारतर एव अल्पं. नीहारतर एव अल्पोच्छासतर एच अल्पऋद्धिकतर एव, अत्र ऋद्धिः परि'वारादिरूपा ग्राह्या, अल्पधुतिकतर एवेत्यर्थः, धुतिश्च-शरीरकान्तिरूपा । एवं-यथा-हस्तिनमपेक्ष्य कुन्थुग्ल्पतरकर्मत्वादिविशिष्ट उक्तस्तथा, कुन्थुत:कुन्थुमपेक्ष्य हस्ती-महाकर्मतर:-अधिकायुरादिकरूपकम वान्, एव, महाकि. यतर याव यावत्-यावत्पदेन-महास्रवतर एव महानीहारतर एव महोच्छा. .सार एव महर्दिकतर एव महाद्युतिकतर एव' इत्येषां सङ्ग्रहो बोध्यः। इति .. प्रश्ने केशी प्राह-हन्त ! प्रदेशिन् ! हस्तितः कुन्शुरल्पकर्म तर एव कुन्थुतो वा हस्ती महाकर्मतर एव, तदेव-पूर्वोक्तमेव-कुन्थुपक्षे अल्पक्रियतर एव - अल्पास्रवतरः हस्तिपक्षे-महाक्रियतर एव महास्रवतर एवेत्यादि बोध्यम् । इति -हस्ति-कुन्थ्योः परस्परं कर्मादिभेदं श्रुत्वा प्रदेशी तयोर्जीवसाम्ये कोरणं पृच्छति-'कस्मात् खलु भदन्त ! इत्यादि-हे भदन्त ! कस्मात् कारणात् खलु हस्तिनः कुन्योश्च. जीवः सम एव!, केशी पाह-हे प्रदेशिन् ! तद् यथाना-~-मक-यथादृष्टान्तम् कूटाऽऽकारशाला-पर्वतशिखराकारा स्यात्, यावत्-याव "पदेन द्विधातो लिप्ता गुप्ता गुप्तद्वारेति पदानां सङ्ग्रहो वोध्यः, निर्वात कुन्थु का हो चाहे हाथी का हो सब में समानता है एक जीव में असं. ख्यात प्रदेश होते हैं. इन प्रदेशों की अपेक्षा सब समान है. कोई भी • जीव ऐसा नहीं है कि जिसमें इन प्रदेशों की समानता न हो. पूर्वो. पार्जित शरीर नाम कम आदि के द्वारा जिस जीव को जैसा शरीर प्राप्त " होता है। वह जीव उसमें अपने प्रदेशों को संकोच विस्तारवाला बना लेता है. જીવમાં–પછી ભલે તે કુળ્યું ને હય કે હાથીને સમાનતા છે. એક જીવમાં અસં. ખ્યાત પ્રદેશ હોય છે. આ પ્રદેશોની અપેક્ષાએ આપણે વિચાર કરીએ તે બધા જીવો સમાન જ છે. કોઈ પણ આવો નથી કે જેમાં આ પ્રદેશોની સમાનતા હોય નહિ. પર્વોપાર્જિત શરીર નામકર્મ વગેરે વડે જે જીવને જેવું શરીર પ્રાપ્ત થાય છે તે જીવે તેમાં પિતાના પ્રદેશને સંકેચ વિરતાયુકત બતાવી લે છે, દાખલા તરીકે Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सू. १५२ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशीराजवर्णनम् ३१९ गम्भीरा, अथ खलु कोऽपि पुरुषः 'ज्योति:-अग्नि च दीप च गृहीत्वा तां-कूटाकारशालाम्, अन्तरता-अत्यन्ताभ्यन्तरे अनुप्रविशति । तस्याः कूटा कारशालाथाः सर्वतः-सर्वदिक्षु, समन्तात्-सर्वविदिक्षु घननिचित्तनिरन्तराणिघन-निविड यथा स्यात्तथा निचितानि-संघातितानि निरन्तराणि-अन्तरर हितानि तानि तथा, अस्य 'द्वारवदनानी'-त्यनेन सम्बन्धः, पुनः निश्छिद्राणि छिद्रर. हितानि द्वारवदनानि-द्वारमुखानि, पिदधाति-आच्छादयति, तस्याः-कूटाऽऽ काटशालायाः बहुमध्यदेशभागे-अत्यन्तमध्यप्रदेशे त प्रदीप प्रदीपयेत्-मज्वालयेत्, ततः खलु स प्रदीपः तां कुटाकारशालाम् अन्तरन्त:-सर्वान्तर्भागेसर्वान्तर्भागावच्छेदेनेति भावः। अवभासयति-प्रकाशयति, उद्योतयतिउत्कर्षेण प्रकाशयति, तापयति-संतप्तां करोति प्रभासयति-घटपटादि दर्शनया प्रकर्षण प्रकाशमाना करोति, किन्तु यहिः-कूटोकारशालाया बहिभांग नो चैत्र-नैव अवभासयति उद्घोतयति तापयति प्रभासयति । अथ खलु स पुरुषः तं पदीपा इट्टर केण-महापिटकेन-श्रावरणविशेषेण 'पिदध्यात्-आच्छादयेच्चेत; ततः खलु सः-पिहितः प्रदीपः तत्-प्रदीपपिधानभूतम् इड्डरकम् अन्तः आभ्यन्तरावच्छेदेन अवभासयति किन्तु इडरकस्य यहि-बहिःप्रदेश नो चैव-नैव खलु अवभासयति तथा कूटाकारशालायाः । यहि नो चैव अचंभासयति, एवम्-अनेन प्रकारेण गोकिलिंजन-गोकिलि जं-गवां भक्ष्यस्थापनकण्डिका: तेन, तथा पक्षिपिटकेन-पक्षिपिटक-पक्ष्या. कारो वंशशिलाकानिर्मितपात्रविशेषः, तेन, तथा गण्डमाणिकाया-गण्डमा. । णिका-धान्यमापनिका, तया, आढकेन, अर्धाढ़केन, प्रस्थकेन, अर्धप्रस्थ केन, कुडवेन, अर्धकुडवेन, आढकादारभ्या कुडवपर्यन्तानि धान्यमापकानि देश. विशेषप्रसिद्धानि पात्रविशेषाणि तैः प्रदीप पिदध्यादिति पूर्वेण सम्बन्धः, तथा चतुर्भागिकया, अष्टभागिकया पोडशिकया द्वात्रिंशत्कया चतुष्पष्टिकयाचतुर्भागिकादि चतुष्पष्टिकापयर्यन्ता मगधदेशप्रसिद्धा एव रसमापकपात्रविशेषास्तैः प्रदीपं पिदध्यादिति पूर्वेणान्वयः, एवं-दोपचम्पकेन-दीपपिधानेन प्रदीप पिदध्यादिति पूर्व गान्वयः, ततः खलु स:-पिहितः प्रदीपः दीपजैसे दीप का एक कोडे (एक घर) में रख दिया जावे तो वह उस कोठे "भर को जहां तक उसका प्रकाश फैल सकता है प्रकाशित करता है और उसी दीपक को यदि मिट्टी के छोटे वतन के अन्दर बन्द कर रख दिया દીપકને એક ઘરમાં મૂકવામાં આવે છે તે સંપૂર્ણ ઘરને જ્યાં સુધી તેને પ્રકાશ જઈ શકે ત્યાં સુધી પ્રકાશિત કરે છે અને તેજ દીપકને જે માટીના નાના વાસણની અંદર મૂકવામાં આવે છે તે તેના અંદરના ભાગને જે પ્રકાશિત કરે છે વગેરે ધગેરે, Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीयसूत्रे चम्पकस्य अन्त:-मध्यभागम् अवभासयति उद्द्योतयति तापयति प्रभासयति नो चैवः खलु दीपचम्पकस्य बहिः, नो चैव खल चतुष्टिका नो चैव खलु चतुष्पष्टिकाया बहिः, एवं दीपचम्पकाच्छादितो दीपः, नो चैत्र खलु द्वात्रिंशिकां, नो चैव खलु द्वात्रिंशिकायाः वहिः, इत्यादि पश्चादानुपूर्वक्रमेण यावत् नो चा कूटाफारशालाम्, नो चैव कटौंकारशालाया बहिः अबभासयति उद् योतयति तापयति प्रभासयति' इति योजना कार्या एवमेव-प्रदीपदृष्टान्तानु सारेणैव हे पदेशिन् ! जीवोऽपि यां कांचित्-यादृशीं-पूर्वकर्म निवद्धां-पूर्व.. भवोपार्जितकर्मनिबद्धां योन्दि-तनु निर्वर्तयति-उत्पादयति तो बोन्दिम् असंख्येय असंख्यातैः जीवप्रदेशैः सचित्ता-जीवयुक्तां करोति-सम्पादयति, तो बोन्दि कीदृशीम् ! इति जिज्ञासायामाह क्षुद्रिकाम्-अतिलध्वीम्, महती -विशालाम् वा सचितां करोति' इति पूर्वेणान्वयः । तत्-तस्मात्-दीपदृष्टाः न्तेन जीवस्य पूर्वभवकृतकर्मनिबद्धातिलघुमहाशरीरानुप्रवेशनकारणा,त् हेप्रदेशिन् ! त्वं श्रद्धेहि-मद्वचने श्रद्धां कुरु, यथा-अन्यो जीवः तदेव-पूर्वोक्त-- मेव अन्यच्छरीरम् नो तज्जीवः स शरीरम, इति । ॥ म० १५२ ॥ ' मूलम--तए णं पएसी राया केसि कुमारसमणं एवं वयासी-एवं खल्लु भंते ! मम अजगस्स एसा सन्ना जाव समोसरणं जहातज्जीवो तं सरीरं, नो अन्नो जीवो अन्न सरीरं। तयाणंतरं च णं मम पिउणो वि एसा सण्णा जाव समोसरणं। तयाणंतरं च णं मम जाता है तो वह उसके भीतरी भाग को ही प्रकाशित करता हैं. आदि तो जिस प्रकार से दीपक के प्रकाश में संकोच विस्तार करने का स्वभाव है, उसी प्रकार से जीव में भी अपने प्रदेशों को संकोच विस्तार करने का स्वभाव है. यही सब विषय इस मूत्र में स्पष्ट किया गया है. 'हत्थीउ कुथू' इसका अर्थ है हस्ती की अपेक्षा करके । ऋद्धि शब्द से यहां , परिवारादिरूप ऋद्धि गृहीत हुई हैं ।। सू० १५२॥ તે. જેમ દીપકના પ્રકાશમાં સંકોચ વિસ્તાર કરવાને સ્વભાવ છે તેમજ જીવમાં પણ પિતાના પ્રદેશને સંકુચિત છે વિરતુત કરવાને સ્વભાવ છે. આ બધી વાત આ-- सूत्रमा २५८ ४२पामा मवी छ. 'हस्थी उ कुंथ' या अर्थ 'हाथीनी २५ पेक्षा એ છે. ઋદ્ધિ શબ્દથી અહીં પરિવારદિપ દ્ધિનું ગ્રહણ થયું છે. સૂત્ર ૧૫ર Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका स. १५३ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ३२१ वि एसा सण्णा जाव समोसरणं, त नो खलु अह बहुपुरिस. परंपरागयं कुलनिस्तियं दिट्टि छंडेस्सामि ॥ सू० १५३ ॥ . . छाया-ततः खलु प्रदेशी राजा केशिनं कुमारश्रमणम्-एवमवादीत् एव खलु भदन्त ! मम आर्यकस्य एषा संज्ञा यावत् समवसरणं यथा-तज्जीवस्तच्छरीरम्, नो अन्यो जीवोऽन्यच्छरीरम्, तदनन्तरं च खलु मम पितुरपि एषा संज्ञा यावत् समवसरणम् । तदनन्तरं ममापि एषा संज्ञा यावत् समवसरणम्, तत् नो खलु अहं बहुपुरुषपरम्परागतां कुलनिश्रितां दृष्टिं मोक्ष्मामि ॥ सू० १५३ ॥ . 'तए णं पएसी. राया' इत्यादि। सूत्रार्थ-(तएणं) इसके बाद (पएसी राया) प्रदेशी राजाने (केसि कुमारसमणं एवं वयासी) केशीकुमारश्रमण से ऐसा कहा (एवं खलु भंते ! मम अजगस्स एसा सन्ना जाव समोसरणं जहा तज्जीवो तं सरीरं, नो अन्नो जीवो अन्नं सरीरं) हे भदन्त मेरे आर्यक-पितामह की यह संज्ञाथी, यावन · समवसरण था-कि वही जीव है वही. शरीर है-जीव शरीर से भिन्न नहीं है शरीर जीव से भिन्न नहीं हैं (तयाणंतरंच णं मम पिउणो वि एसा सण्णा जाव समोसरणं,) उनके बाद मेरे पिताकी भी ऐसी ही संज्ञा यावत् ऐसा ही समवसरण रहा, (तयाणंतरं च णं मम वि एसा सण्णा जाव समोसरण तं नो खलु बहुपुरिसपर परागयं कुलनिस्सियं दिदि छंडेस्सामि) वाद में मेरी भी यही संज्ञा यावत् ऐसा ही समवसरण है-अतः अनेक पुरुष परम्परा से चली आई हुई इस कुलाधीनमान्यता को नही छोड़ेगा, इसलिये जीव और शरीर एक ही है भिन्न २ नहीं है। . 'तए णं पएसी राया' इत्यादि। सूत्रा--(तए णं) त्या२६ (पएसी राया) प्रदेशी २० (केसि कुमारसमणं एवं क्यासी) अशी भा२ श्नभाने मा प्रभारी श्यु-(एवं खलु भंते ! मम अज्जगस्स : एसा सन्ना जाव समोसरणं जहा तज्जीवो तं सरीरं, नो अन्नो जीवो अन्नं सरीरं) मत ! भा२। मा-पिताभानी सज्ञा હતી યાવત્ સમવરણ હતું કે તેજ જીવે છે, તે જ શરીર છે, જીવ શરીર કરતાં मिन्न नथी. (तयाणंतरं च णं मम पिउणो वि एसा सण्णा जाव समोसरणं) ત્યાર પછી મારા પિતાની પણ એવી જ સંજ્ઞા યાવતુ એવું જ સમવસાણ રહ્યું. (तयाणंतरं च णं मम वि एसा सण्णा जाव समोसरणं तं नो खलु बहुपुरिसपरंपरागयं कुलनिस्सियं दिद्धि छंडेरसामि) त्या२ पछी भारी 4 मेवी ५ संज्ञा થાવત્ સમવસરણ છે. એટલા માટે અનેક પુરૂષ પરંપરાથી ચાલી આવતી આ કુલાધીન માન્યતા ને હું ત્યજીશનહીં એથી જીવ અને શરીર એકજ છે ભિન્નભિન્ન નથી, Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीयसूत्रे ३२२ टीका-'तए णं पएसी राया' इत्यादि ततः खलु प्रदेशी राजा केशिनं कुमारश्रमणम्, एवमवादीत्-एवं खलु हे भदन्त ! मम आर्यकस्य-पितामहस्य एपा संज्ञा यावत्-यावत्पदेन एपा प्रतिज्ञा एपा दृष्टिः एपा हेतुः एप उपदेशः एपः संकल्पः एपा तुला एतद् मानम् एतत् प्रमाणम्" इत्येषां पदानां संग्रहो बोध्यः समवसरणमासीत् । एपां व्याख्या-एकत्रिंशदधिकशततमसूत्रतो विज्ञेया । यथा -तज्जीवः तच्छरीरम् नो अन्यो जीवोऽन्यच्छरीरम्, इति मम पितामहस्य मन्तव्यमासीत् । तदनन्तरं च खलु मम पितुरपि एपा-अनन्तरोक्ता संज्ञा यावत् समवसणमासीत् । तदनन्तरं च खलु ममापि एपा संज्ञा यावत् समवसरणमस्ति, तत्-तस्मा। कारणात् खलु अहं बहुपुरुपपरम्परागतां-पितामहादिपरम्परासमागतां कुलनिश्रितां कुलनिश्रया समागतां दृष्टिम् नो मोक्ष्यामि-न त्यक्ष्यामि- अपि तु तजीवः स शरीरं नो अन्यो जीवोऽन्यच्छरीरमिति मतमेव स्वीकरिष्यामि ॥सू०१५३।। मूलम्-तए णं केसी कुमारसमणे पएसि रायं एवं वयासी-माणं तुमं पएसी ! पच्छाणुताविए भवेजोसि, जहा व से पुरिसे अयहारए। के णं भंते ! से अयहारए ?। पएसी ! मे जहाणामए केई पुरिना अत्थरिथया अत्थगवेसिया अत्थलुद्धया अत्थकंखिया अथपिवासिया अत्थगवेसणयाए विउलं पणियभंडमायाए सुबहु भत्तपाण पत्थयणं गहाय एगं मह अगामियं छिन्नावायं दीहमद्धं अडवि अणुपविटा । टीकार्थ-स्पष्ट है-'सन्ना जाव समोसरण' में जो यह यावत् पद आया है उस से यहां-एपा प्रतिज्ञा एपा दृष्टिः एपा रुचिः, एप हेतुः, एपः उपदेशः, एपः संकल्पः, एपा तुला, एतद् मानम् एतत् प्रमाण) इन पदों का संग्रह हुआ है. इन सब पदों की व्याख्या तथा 'समवसरण' इस पद की व्याख्या १३० वें सूत्र में की जा चुकी है। अतः मैं जीव शरीर की अभिन्नता को ही स्वीकार करूंगा, भिन्नता को नहीं ॥ सू० १५३ ॥ ___ ---२५ट छ. 'सन्ना जाव समोसरणं' मां यावत् ५४ छ तेथी मी 'एषा प्रतिज्ञा एपा दृष्टिः एष उपदेशः एपः संकल्पः एपा तुला, एतत् मानम् एतद् प्रमाणम्" मा पानी सड थयो छ. या सर्व पहानी व्याખ્યા ૧૩૦ મા સૂત્રમાં કરવામાં આવી છે. એથી હું જીવ તેમજ શરીરની અભિન્નતાને જ સ્વીકારીશ ભિન્નતાને નહિ. સ. ૧૫૩ . Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका स. १५४ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशीराजवर्णनम् ३२३ == तएणं ते पुरिसा तीसे अगामियाए अडवीए जाव कंचिदेसं अणुपपत्ता समाण एवं महं अयागरं पासंति, असणं सव्वओ समता आइपणं वित्थिणं सच्छडौं उवच्छड फुड अणुगाढं पासंति, पासित्ता हट्टा तुट्टा जाव हियया अन्नमन्नं सदावेंति, एव वयासी एस णं देवाशुप्पिया ! अयागरे इट्टे कंते जाव मणामे, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं अयभारगं बंधत्तएत्ति कट्टु अन्नमन्नस्स एयमट्टे पडसुर्णेति, अयभारं बंधेति अहाणुपुवीए संपत्थिया । तए गं से पुरिसा अगामि याए जाव अडवीए किंचिदेसं अणुपत्ता समाणा एगं महं तउआगरं पासंति, तउएणं सव्वओ समंता आइपणं तं चैव जाव सहावेत्ता एवं वयासी- एस र्ण देवाप्पिया ! तउआगरे हे जाव मणामे, अप्पेणं चेत्र तउएणं सुबहु अए लब्भइ, तं सेयं खल्ल अम्ह देवाणुप्पिया अयभारगं छड्डेत्ता तउयभारग बंधित्तएत्तिकट्टु अन्नमन्नस्स अंतिए . एयमट्टं पडिसुर्णेति अयभारं छड्डेति तउयभार बंधति । तत्थ एगे पुरिसे णो संचाएइ अयभार छड्डेत्तए तउयभार बंधित्तए, तर ते पुरिसा तं पुरिसं एवं वयासी - एस णं देवाणुप्पिय । ! तउआगरे जाव सुबहु अए लब्भइ, तं छड्डेहि, पणं देवाणुप्पिया ! अयभारगं, तउयभारगं वं धाहि । तए णं से पुरिसे एवं वयासी- दूराहडे ए देवापिया ! अए, चिराहडे मए देवाशुप्पिया ! अए, अइगाढबंधणबद्ध मए देवाशुप्पिया ! अए, असिढिलव' घणबद्धे मए देवाप्पिया ! अए, धणियबंधणबद्धे मए देवाशुपिया ! अए णो संचाएमि अयभारगं छत्ता तउयभारगं बंधित्तए । तर णं ते Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ राजप्रश्नीयसूत्रे पुरिसा तं पुरिसं जाहे णो संचायंति बहूहि आधवणाहि य पण्णव. णाहि य परूवणाहि य आधवित्तए वा पण्णवित्तए वा परुवित्तए वा तया अहाणुपुबीए संपत्थिया ! एवं तवागर' रुप्पागर, सुवण्णागरं रयणागरं, वइरागर । तए णं ते पुरिसा जेणेव सया जणवया जेणेव साई साई नगराइ तेणेव उवागच्छति, वयरविकिणणंकरे ति, सुबहु दासीदासगोमहिसगवेलगं गिह ति, अट्रतलमूसिय पासायवलिंसगे, कारावेंति, पहायो कयवलिकम्मा कायकोउयमंगलपायच्छित्ता उम्पि पासायवरगया फुट्टमाणेहिं मुइंगमस्थएहिं बत्तीसइवद्धएहिं नाडएहिं वरतरुणीसंपउत्तेहिं उवणच्चिजमाणा उवगिजमाणा उवलोलिज्जमाणा इ8 सदफरिसरसरूव-गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पच्चणुभवमाणा विहरति । तए णं से पुरिसे अयभारेण जेणेव सए नयरे तेणेव उवागच्छइ, अयभारगं गहाय अयविकिणणं करेई तसि अप्पमोल्लंसि निट्टियंसि खीणपरिब्बए तें पुरिसे उपि पासाय__ वरगए जाव विहरमाणे पासइ, पासित्ता एवं वयासी-अहो! णं अहं अधण्णो अपुन्नो अकयत्थो अकयलक्खणो हिरिसिरिवजिओ हीणपुण्णचाउदंसे दुरंतपंतलक्खणे। जइणं अहं मित्ताण वा णाईण, वा नियगाण वा वयणं सुणतओ तो गं अहं पि एवं चेव उत्यि पासायवरगए जीव विहरेंतओ । से तेणटुणं पएसी ! एवं वुच्चइमा तुम पएसी! पच्छाणुताविए भविजासि, जहा व से पुरिसे अयभारए ॥ सू० १५४ ॥ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सु. १५४ सूर्याभिदेवस्य पूर्वभ जाव प्रदेशिराजवर्णनम् ३२५ छाया - ततः खलु केशी कुमारश्रमणः प्रदेशिं राजानमेवमवादी न मा खलु त्वं प्रदेशिन ! पश्चादनुतापिको भवेः, यथा वा स पुरुतोऽयोहाकः । कः खलु भदन्त ! सोऽयोहारकः ? | प्रदेशिन् ! ते यथा नामकाः केचित् पुरुषा अर्थार्थिकाः अर्थगवेषकाः अर्थलुब्धकाः अर्थकांक्षिनः अर्थपिपासिताः अर्थगवेषणायै विपुलं पणितभा डमादाय सुबहु भक्तपानपथ्यदनं गृहीत्वा एका महतीम् अग्रामिकां छिन्नाऽऽपातां दीर्घाध्यान अटवीमनुप्रविष्टाः । ततः खलु ते पुरुषाः तस्याः अग्रामिकाया याव । 'तए केसीकुमारसमणे' इत्यादि । ण सूत्रार्थ – (तएगं) इसके बाद ( केसीकुमारसमणे) केशीकुमार श्रमणने (पर्सि - रायं एवं वयासी) प्रदेशी राजा से एसा कहा ( मागं तुमं पएसी ! पच्छाणुतात्रिए भवेज्जासि – जहा व से पुरिसे अप्पहारए) हे प्रदेशिन् ! तुम पश्चात्तापयुक्त मत बनो जैसा कि वह अयोहारक - लोहवणिक - पश्चात्तापयुक्त बना, अब प्रदेशी उससे परिचय को जानने के अभिप्राय से पूछता है (के णं भंते ! से अग्रहारए) हे भदन्त ! वह अयोहारक कौन था ? इस पर केशीकुमारश्रमण कहते हैं - (पएसी ! से जहाणामए केई पुरिसा अत्थस्थिया अत्थगवेसिया अत्थलुद्वया, अत्थकखिया, अत्यपिवासिया, अत्थगवेसणयाए विउलं पणियभंडमायाए सुबहुँ भत्तपाणपत्ययगं गहाय एवं महं अग्गामियं छिन्नावायं दीहमद्धुं अडविं अणुपविट्ठा) हे प्रदेशिन् । अनिर्दिष्ट नामवाले कितनेक पुरुष जो कि धन के अर्थी थे, धन के गवेषक थे, धन" के लोलुप थे, धनकी कांक्षा से युक्त थे, धनकी प्यासवाले थे, धनकी गवेषणा के लिये विपुल कयाणक 'तए णं केसीकुमारसमणे' इत्यादि । सूत्रार्थ - (तए णं) त्यार चड़ी (केसीकुमारसमणे) કેશી કુમારશ્રમણે (पसिं राय एवं वयासी) प्रदेशी रान्नने या प्रमाणे धुं. ( मा णं तुम पएसी ! पच्चाणुताविए भवेज्जासि - जहाव से पुरिसे अयभारए) हे अहेशिन् ! તમે પેલા અચૈાહારક–લાહ વણિક–ની જેમ, પશ્ચાત્તાપ ન કરો. હવ પ્રદેશી તેના સંબંધમાં संबंधी विगत भगुवा भाटे या प्रमाणे पूछे छे (किं णं भंते ! से अथहारए) डे ભત તે અચૈાહારક લેાખડના વજેપારી કાણુ હતા? તેના જવાબમાં કેશી डुभार श्रम, उडे 8-(पएसी ! से जहाणामए केई पुरिसा अत्थत्थिया अत्थगवेसिया अत्थद्वया, अत्यखिया, अत्यपिवासया, अत्थगवेसणयाए विउलं पणियभंड मायाए सुबहु भत्तपाणपत्थयणं गहाय एगं महं अग्गामियं छिन्नावायं दीहम अडाव अणुपविठ्ठा) हे अहेशिन ! अनिर्दिष्टानाभवाजा કેટલાક પુરૂષો કે જેઓ ધનાથી હતા, ધનના ગવેષક હતા, घनना बोलुच हृता + Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीयसूत्रे ३२६ अटव्याः कंचित् देशमनुप्राप्ताः सन्तः एकं महान्तम् अयआकारं पश्यति, अयसा सर्वतः समन्ताद् आकीर्णं विस्तीर्ण सच्छटम् उपच्छटं स्फुटम् अनुगाढं पश्यन्ति, दृष्ट्वा हृष्टाःतुष्टाः यावत् हृदयाः अन्योऽन्यं शब्दयन्ति, एवमवादिपुः-एप खलु देवानुप्रियाः ! अयआकरः इष्टः कान्तः यावत् मनामः, तन श्रेयः खलु देवानुप्रियाः वस्तु समूह को लेकर तथा साथ में पर्याप्त अशनपानरूप पाथेयलेकर एक विशाल अटवी में जो वसति से रहित थी, हिंसक जतुओं के भय से मनुष्यों का गमनागमनरूप संचार जिसमें क्लिकुल नहीं था और दीर्घमार्गयुक्त थी जा पहुँचे (तए णं से पुरिसा तीसे अग्गमियाए अडवीए कचिदेसं अणुप्पत्ता समागा एगं महं अयागरं पासंति) इसके बाद वे पुरुप जव उस अग्रामिका, छिन्नापातयुक्ता एवं दीर्घावावाली अटवी के और आगेके प्रदेश में आ चुके तब उन्होंने वहां पर एक लोहे की खान को देखा (अएणं सचओ समंता आइणं - सच्छ उवच्छडं फुडं अणुगाढं पासंति] यह खान सब तरफ से लोहेसे आकीण बनी हुई थी. स्पष्टरूप में नहीं थी बहुत विस्तारव ली थी समीचीन छटा-चाकचिक्यवाली थी. छटायुक्त थी. स्पष्टरूप में नहीं थी. (पासित्ता हतुवा जाव हियया अन्नमन्नं सद्दावेंति) इस लोहे की खान देखकर वे बहुत अधिक हृष्ट एवं तुष्ट यावर हृदयवाले हुए और फिर उन्होंने आपस में एक दूसरे को बुलाया (एवं चयासी) बुलाकर ऐसा कहा (एस णं देवाणुप्पिया ! अयागरे इटे कंते, ધનની કાંક્ષાથી યુક્ત હતા, ધનની તરસવાળા હતા, ધનની ગવેષણ માટે વિપુલ ક્રયાણુક વસ્તુ સમૂહને લઈને તેમજ સાથે પર્યાપ્ત અશનપાનરૂપ પાથેય લઈને એક વિશાળ અટવીમાં–કે જે એકદમ નિર્જન હતી, હિંસક જંતુઓના ભયથી માણસની અવરજવર જેમાં સદંતર બંધ હતી અને દીર્ઘ માર્ગ યુકત હતી75 पडi-या. (त एणं ते पुरिसा तीसे अग्गमियाए अडवीए कंचिदेसं अणुप्पत्ता समाणा एगं महं अयागारं पासंति). त्या२ पछी ते माणसाने मयाમિકા, છિન્નાપાત યુકત અને દીર્યાવાવાળી અટવીની અંદર ખૂબ આગળ જતા २ह्या त्या तेभ मिनी मोटी न. (अएणं सवओ समंता आइष्ण वित्थिण्ण सच्छड उवच्छडं फुडं अणुगाढं पासंति) २ मा यामे२ यो ડથી આકી હતી. બહુ જ વિસ્તાર યુક્ત હતી. સમીચીન છુટા એટલે કે ચાકચિક્ય વાળી હતી, છંટાયુક્ત હૈતી. સ્પષ્ટરૂપથી દેખાતી હતી- અને એક પુંજ રૂપમાં હતી. छिन्नभिन्न ३५i न ती. (पासित्ता हतुट्ठा जाव हि यया अन्नमन्नं सद्दावेंत्ति) તે લોખંડની ખાણને જોઈને બહુજ વધારે હષ્ટતુષ્ટ યાવત્ હદયવાળા થયા અને પછી तभो ५२२५२ सेमीन मासाव्या. (एवं चयासी) मालावीन .मा प्रमाणे ४थु. (एस ण देवाणुप्पिया ! अयागरे इटे, कंते, . जाव मणामे) Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका. १५४ भदेव पूर्व भी प्रदेशिराजचणं नम् ३२७ अस्माकम् अयोमारकं वम् इति कृत्वा अन्योऽन्यस्य एतमर्थं प्रतिशृण्वन्ति, " अयोभारं वघ्नन्ति, यथाऽनुपूर्व प्रस्थिताः । ततः खलु ते पुरुषाः अग्रामिकाः यावत् अटव्याः किञ्चिदेशन अनुप्राप्ताः सन्तः एकं महान्तं त्रष्वाकरं पश्यन्ति, त्रपुणा सर्वतः समन्तात् आकीर्ण तदेव यावत् शव्दयित्वा एवमवादिषुः - पप खलु देवानुप्रियाः ! त्रष्वाकरः इष्टः यावत् मनओमः, अल्पेनैव त्रपुणा सुवहु अयो लभ्यते, तन श्रेयः जाव णामे] हे देवानुप्रियो ! यह लोहे की खान इष्ट है, यावर मनोज्ञहै ( तं सेयं खलु देवाणुपिया । अहं अयभारगं वंधित्तए त्ति कट्टुअन्नमन्नस्स एयम पडि - सुर्णेति ) अतः उचित है कि हम लोग इस लोहे के भार यहां से ले लेवें इस प्रकार विचार करके उन्होंने आपके इस विचार को निश्रय का रूप दे दिया (अयभारं ति) और लोहे को वहां से ले लिया ( अहाणुपुच्चिए संपत्थिया) और लेकर वहां से क्रमशः चल दिया (तए णं से पुरिसा अगामियाए जाव अडवी कंचिदेस अणुपत्ता समागा एगं महं तउआगर पासंति) इसके बाद वे चलते २ जब और अधिक आगे निकल गये तब उन्होंने उस अग्रामिक आदि विशेषणवाल अटवी में एक बहुत बडी त्रपु - रांगा की खान को देखा (तए सव्व समता आणी तं चैव जाव सद्दावेत्ता एवं वयासी) संतुष्ट यावत् हृदय वाले हुए बाद में उन्होंने आपस में एक दूसरे को बुलाया बुलाकर ऐसा कहा - (एस णं देवानुप्पिया ! तउआगारे इडे जात्र मणामे] हे देवानुप्रिया ! यह रांगा તે લેાખ ડની ખાણ ઇન્ટ छे, अंत यावत् भनोज्ञ छे. (तं सेयं खलु देवाणुपिया ! अम्हं अयभारगं बंधित तिकडे अन्नमन्नस्स एयमहं पडिसुणे ति) એથી અમારા માટે આ વાત ખરાખર છે કે અમે બધા આલેખંડના ભારને અહીથી લઈ જઈએ. આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તેમણે પરસ્પર કરેલ આ વિચારને નિશ્ચયાभ४३५ मा यु. (अयभारं : वर्धति) भने बोडने त्यांथी सीधु . ( अहाणु पुव्विए संपत्थिया) भने सहने त्यांथी उभश: આગળ ચાલતા था. (तएण से पुरिसा अगामियाए जाव अडवीए कंचिदेसं अणुपत्ता समाणा एवं मह तउआगर पास ति) त्यार पछी तेथे तां तां न्यारे भूज दूर नीडजी गया ત્યારે તેમણે અગ્રામકા વગેરે વિશેષણેાથી યુક્ત અટવીમાં એક અહુ વિશાળ त्रयुरांगा (उथीरनी जाणुने ले. (त एणं सव्वओ समंता आइण्णं तं चैवजाघ सहावेत्ता एवं वयासी) ते रांगानी माशु याभेर रांगाथी भाडी रही, यावत् એક પ્જ રૂપમાં હતી. આ ખાણને જોઇને તે સર્વે ખૂબજ હૃષ્ટ અને સતુષ્ટ યાવતુ હૃદયવાળા થયા. ત્યાર પછી તેમણે એક બીજાને ખેલાવ્યા અને ખેલાવીને म अभागे उर्छु - (एस णं देवाणुपिया ! तउआगारे हे जाव मणामे) हे हेवा Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ राजपनी मूत्र खलु देवानुप्रियाः ! अस्माकम् अयोभारकं मुक्त्वा त्रपुकमारकं बढुम, इतिकृत्वा अन्योऽन्यस्य अन्तिके एतमर्थं प्रतिगण्वन्ति, अयोभारं मुञ्चन्ति, त्रपुकभारं वनन्ति! तत्र खलु एकः पुरुषो नो शक्नोति अयोभार मोक्तुम् त्रपुकभार बछुम् । ततः खलु ते पुरुषाः तं पुरुषमेवमत्रादिपु:-एप खलु देवानुप्रिय ! प्वाकरः यावत् सुबहुअयो लभ्यते, तद् मुञ्च खलु देवानुप्रिय ! अयोभारकम, त्रपुकमारकं वधान। ततः स पुरुषः एवमवादीत्-दूराऽऽहृतं मया देवानुप्रियाः ! अयः, चिराऽऽहृतं मया खान इष्ट यावत् मन आम-अर्तिहर होने से मनः गम्य है [अप्पे णं चेव तउएण सुवह अए लभइ) थोडे से ही रांगा से बहुत अधिक लोहा हमें मिल सकता है (तं सेयं खलु अम्ह देणुप्पि ! अयभारग उडेता तउयभारगं बंधित्तए त्ति कटु अन्नमन्नस्स अंतिग एयम पडिसुणे ति) अतः हमारी भलाई अब इसी में है कि हम इस लोहे के भार को छोडकर इस रांगा को यहां से बांध ले, इस प्रकार का विचार करके उन्होंने आपस के इस कृत विचार को निश्चय का स्थान दे दिया. (अयभार छड्डे ति, त उपयारं बंधे ति) और लोहके भार को छोडकर रांगा के भार को वांघ लि (तत्थ ण एगे पुरिसे णो संचाएइ, अयभारं छड्डत्तए, तउएभारं वंधत्तए) परन्तु इनमें एक पुरुप ऐसा भी था जो लोहे के भार को छोडने में और रांगा के भार को ग्रहण करने में वांधने में असर्थथा, अर्थात वह ऐसा करना नहीं चाहता था. (तएण ते पुरिसा નુપ્રિ ! આ રાંગાની ખાણ ઈષ્ટ યાવત્ મન આમ-અર્તિવર હોવા બદલ મનગમ્ય છે. (अप्पे णं चेव तउएणं सुबहुं अए लव्भइ) या संपाथी मभने धाशु होम भणी छ. (तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया ! अयभारगं, छडेत्ता तउयभारगं वंधित्तए त्ति कट्ट अन्नमन्नस्स अंतिए एयम पडिसुणेति) सेवी અમારા માટે એ જ સારું છે કે અમે લેખંડના ભારને ત્યજીને આ રાંગાને અહી થી બાંધી લઈએ. આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તેમણે પરસ્પર કૃત આ વિચારને નિશ્ચયા(म४३५ माथी सीधु. (अयभारं छेडेंति, तउयभार बंधति) मने वो ना मारने भूलने Hinl मारने साथ 45 सीधे. (तत्य णं एगे पुरिसे णो संचाएइ, अपभारं छडेत्तए, तउए भार चंधित्तए) ५ तेमधाम से मस मेसो पा हुने सामना मारने त्याने ने अडवानी वातने यिन भान न तो. (तए गं ते पुरिसा त पुरिस एवं वयासी) त्यारे ते ५३षाये तने म प्रमाणे - (एस ण देवाणुप्पिया ! तउआगरे जाव सुवह अए लब्भइ) 8 हेवानुप्रिय ! આ રાંગાની ખાણ છે, ઈષ્ટ કાંત વગેરે વિશેષણોથી યુકત છે. થોડા રાંગાથી પણ माप प सोम भेषी शीमे तेम छाये. (तं..... ण देवाणुप्पिया ! Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सू. १५४ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशीराजवर्णनम् ३२९ देवानुप्रियाः ! अयः, अतिगाढवन्धनवद्धं मया देवानुप्रियाः! अयः, अशिथिलयन्धनबद्ध मया देवानुप्रियाः ! अयः, अत्यन्तगाढवन्धनबद्धं देवानुप्रियाः ! अयः, नो शक्नोमि अयोभारकं त्यक्त्वा पुकमारकं बद्धुम । ततः खलु ते पुरुषाः तं तं पुरिसं एवं वयासी) तव उन पुरुषोंने उस पुरुष से ऐसा कहा-(एस णं देवाणुप्पिया ! तउ आगरे जाव सुबहु अए लब्भइ) हे देवानुप्रिय ! यह रांगे की खान है. इष्ट कान्त आदि विशेषणोंवाली है. थोडे से रांगा से ही बहुत अधिक लोहा प्राप्त किया जा सकता है। (तं छड्डेहि णं देवाणुप्पिया ! अयभारगं, तउयभारगं बंधाहि) इसलिये ! तुम हे देवानुप्रिय ! इस लोहे के भार को छोड दो और रांगा के भार को बांध लो-लेलो (तएणं से पुरिसे एवं वयासी) तव उस पुरुषने ऐसा कहा (दूराहडे मए देवाणुप्पिया ! अए, चिराहडे मए, देवाणुप्पिया ! अए अइगाढव धणबद्धे मए देवाणुप्पिया! अए, असिढिलन धणबद्धे मए देवाणुप्पिया ! अए, धणियवंधणवढे मए देवाणुप्पिया ! अए, णो संचाएमि अयभारगं छड्डे त्ता तउयभारगं बंधित्तए) हे देवानुप्रियो ! इसलोहके भारको मैं बहुत दूर से लाया हूं, बहुत समय से इसे लादे हुए हू, हे देवानुप्रियो ! मैने इसे बहुत ही गाढ बंधन से बांधा है अर्थात् बहुत अधिक कसकर बांधा हुआ है. अशिथिल वंधन से-अब खुल सके ऐसे बन्धन से नहीं बांधा है किन्तु हे देवानुप्रियो ! मैंने इस लोहे को ग्रचुर बंधन से बांधा है, अतः अव मैं अयोभार को छोडकर पुक भारको ग्रहण करने के लिये समर्थ नहीं है अर्थात् लोहे के भार को छोड कर रांगा के भार को नहीं लूं । (तएणं ते. अयभारग, तउयभारग' वधाहि) मेटला भाटे तर देवानुप्रियो ! - सोमना मारने भूी है। मने साना मारने viधी al. (त एण से पुरिखे एवं चयासी) त्यारे ते पु३ २मा प्रमाणे यु-(दुराहडे मए देवाणुप्पिया! अए, चिराहडे मए, देवाणुप्पियाँ अए गाढबंधणबद्धे. मए देवाणुप्पिा ! अए,. धणिअबंधणबद्धे मए देवाणुप्पिया ! अए, णो संचाएमि अयभारग' छ डेत्ता तउयभारग बधित्तए) वानुप्रियो ! म सोना मारने हुम हस्थी साव्या છું, ઘણા સમયથી મેં આને ઉપાડી રાખ્યો છે હે દેવાનુપ્રિયે ! આને મેં સખત ગાઢ બંધન બાંધ્યું છે એટલે કે મેં આને કસીને બાં છે. હવે બોલી શકાય એવા બંધનથી બાંધ્યું નથી પણ હે દેવાતૃપ્રિયે ! મેં આ લોખંડના ભારને પ્રચુર બંધનથી બાંધ્યો છે. એટલા માટે હવે હું આ લેખંડના ભારને ત્યજીને ત્રપુકભારને ગ્રહણ કરવામાં સમર્થ નથી. એટલે કે લેખંડના ભારને મૂકીને રગાના ભારને હવે Sla नी. (तए ण ते पुरिसा त पुरिसं जाहे णो संचाएंति बहुाह Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीयसूत्रे पुरुपं यदा नो शक्नुवन्ति बहुभिः आख्यापनाभिश्च प्रज्ञापनाभिश्च प्ररूपणाभिश्च आख्यापयितु वा प्रज्ञापयितुवा प्ररूपयितुवा तदा यथाऽऽनुपूर्वि संप्रस्थिताः। एवं ताम्राऽऽकर रूप्याऽऽकरं सुवर्णाऽऽकरं वज्राऽऽकर। ततः खलु ते पुरुषाः यत्रैव स्वानि स्वानि नगराणि तत्रैव उपागच्छन्ति, वज्रविक्रयण' कुर्वन्ति, सुबहु पुरिसा तं पुरिसं जाहे णो संचायंति बहूहिं आघवणाहि य, पण्णवणाहि य, परूवणाहि य, आघवित्तए वा पण्णवित्तए वा परूवित्तए वा तया अहाणुपुबीए संपत्थिया) तब उन पुरुषों ने जब कि उसे अनेक दृष्टान्तरूप आख्यापनाओं द्वाग, हेयोपादेय-प्रतिबोधक प्रज्ञापनाओं द्वारा, तथा यथार्थ स्वरूपनिरूपक प्ररूपणाओं द्वारा समझाया परन्तु वह नहीं समझा, वहां से आगे क्रमशः प्रयाण करना ग्रारंभ कर दिया. (एवं तंवागरं, रुप्पागरं, सुवण्णागरं, वइरागरं) ज्यों २ वे आगे चले उन्होंने वैसे २ ताम्र की खान को, रूप्य की खान को सुवर्ण की खान को, रत्न की खान को और हीरे की खान को देखा (तएणते पुरिसा जेणेव सया जणवया जेणेव साइं साई नगराई तेणेव उवागच्छति) वहां २ से अल्प मूल्य की उन २ ताम्रादिग्प वस्तुओं का परित्याग करते हुए और लोह भारग्रहण करने में ही आदर बुद्धिवाले बने हुए उस पुरुष को उन २ वस्तुओं के भरने के विषय में समझाने पर भी उसकी हढाग्राहिता को छुडवाने में असमर्थ बने हुए वे सब पुरुप जहां अपने २ जनपद-देश थे और उनमें जहां २ अपने २ नगर थे वहां पर वज्रमणियों को लिये हुए आये (वइरविकिणणं करेंति) वहां आध,णाहि य पष्णवणाहि य, परु णाहि य आधवित्तए वा पण्णवित्तए वा परू वित्तए वा, ता अहाणुपुब्बीर संपत्थिया) त्या२ पछी ते ५३पोन्मे घri Hit રૂપ આખ્યા૫નાઓ દ્વારા, હે પાદેય પ્રતિબોધક પ્રજ્ઞાપનાઓ દ્વારા, તેમજ યથાર્થ સ્વરૂપ નિરૂપક પ્રરૂપણુઓ દ્વારા સમજાવ્યો, પણ તે માન્ય નહિ, ત્યાંથી બધાએ मश: यावा भांडयु. (एवं तवागर , रुप्पागर, सुवण्णागर, रयणागर, बहरागर) જેમ જેમ તેઓ આગળ વધતા ગયા તેમ તેમ તેમણે તાંબાની ખાણોને, ચાંદીની ખાણને, સુવર્ણની ખાણને, રત્નની ખાણેને અને હીરાઓની ખાણોને જોઈ. (तए ण ते पुरिसा जेणेव सया जणवया जेणेव साई साई नगराई तेणेव उवागच्छति) त्यांथी २६५भूयनी ते ताम्रदिपस्तुयाने भूभन भने सोडमार ગ્રહણ કરવામાં જ પ્રવૃત્ત થયેલા તે માણસને તેઓએ મૂલ્યવાન વસ્તુઓને લેવા માટે આગ્રહ કર્યો છતાંએ તેના હઠાગ્રાહિતાને છોડાવવામાં અંતે નિષ્ફળ ગયા. અને આમ તેઓ બધા જ્યાં પિતપોતાને જનપદ-દેશ હતો અને તેમાં પણ જયાં પિતપોતાનું ना इतु त्या मागो बोरे पडया गया, (वइरविकिणण करेंति) Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका स. १५४ सूर्याभदेवस्य पूर्व भरजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ३३१ दासीदासगोमहि गवेलक' गृह्णन्ति, अष्टतलोच्छ्तिप्रासादाक्त सकान् कारयन्ति, स्नाताः कृतबलिकर्माणः कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्ताः उपरिप्रासादवरगताः स्फुटद्भिसृदङ्गमस्तकैः द्वात्रिंशद्वद्धकैर्नाटकैर्वरतरुणीस प्रयुक्तैरुपनय॑माना उपगीयमानाः उपलालगमानाः इष्टान् शब्द-स्पर्श-रसरूपगन्धान पञ्चविधान् मानुष् कान् कामभोगान प्रत्यनुभवन्तो आकरके उन्होंने वज्रमणियों का विक्रय किया. (सुबहुदासीदासगोमहिसगवेलगं गिण्हंति और उसे प्राप्त द्रव्य से अनेक दासी, दास, गो महिष तथा गवेलको को खरीदा अर्थात् इनका संग्रह किया (अट्ठतलमूसियपासायवर्डिसगे कारावेंति) और आठ खण्डों से सुशोभित ऊंचे २ श्रेष्ठ प्रासादों का निर्माण कराया (व्हायाकयवलिकम्मा, कयकोउयमंगलपायच्छित्ता) स्नान करके बलिकर्म-बायसादिको अन्नादि का भाग देने रूप वलिंकर्म करके एवं कौतुक, मंगलरूप प्रायश्चित्त करके वे उन (उप्पिं पासायवरगया) प्रासादों के ऊपर ही रहते (फुटमाणेहिं, मुइंगमत्थएहिं, बत्तीसइबद्धएहिं नाडएहिं, वरतरुणी संपउत्तेहिं) और वहीं रहकर वे अतिवेग से ताडित किये गये मृदङ्गों के निनादों से तथा सुन्दर २ तरुणियों द्वारा अभिनीत किये गये बत्तीस प्रकार के नाटकों से (उवणच्चिजमाणा) उपनर्त्यमान (उवगिज्जमाणा, उवलालिज्जमाणा) उपगीयमान और उपलाल्यमान होते हुए (इट सद्दफरिस-रस-रूव-गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पच्चणुभवमाणा विहरंति) इष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध इन पांच प्रकार के मनुष्यसंबधी कामभोगों को भोगते २ आनन्दपूर्वक अपना समय व्यतीत करने लगे (तएणं से त्यां पहचान भो मायानु वेया :यु (सुबहुदासीदासगोमहिसगवेलग गिण्हति) मने द्रव्य मन्यु तेनाथी पशु हासी. हास, ग, महिप तमन गवसान भरी श. मेरो ओमनी सह या. (अमृतलमसियपासायचर्डिसगे कारावे ति) मने. 218 भाजामाथी सुशामित या या श्रेष्ट प्रसाहानु नि ४२२०यू. (हाया कयवलिकम्मा, कयकोउयम गलपायच्छित्ता) નાન કરીને, બલિકર્મ-કાગડા વગેરેને અન્ન વગેરેને ભાગ આપીને અને કૌતુક મંગલ ३५ प्रायश्चित्त ४शन तेयो ते (उर्षि पासायवरगया) प्रासोनी ॥ २वा साया. (फूट्टमाणेहि, मुइंगमस्थपहि, बत्तीसइबद्धएहिं नाडएहिं, वर तरुणी सपउत्तेहि) मने त्यांश २खीन ते मतिथी प्रताडित ४२सा भृगाना નિનાથી તેમજ સુંદર સુંદર તરૂણ સ્ત્રીઓ દ્વારા અભિનીત કરાયેલ બત્રીસ પ્રકારના नाटाथी (उणचिज्जमाणा) नृत्यभान (उवगिज्जमाणा, उबलालिज्जमाणा) Bीयमान मन Seleयमान थता (इडे सद्द फरिस-रस-रूव-गधे प चविहे माणुस्सए कामभोगे पच्चणुभवमाणा विहरांति) शुण्ड, २५, २स, ३५, બંધ આ પાંચ પ્રકારના મનુષ્ય સંબંધી કામને ઉપભેગ કરતા આનંદપૂર્વક Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीयसूत्रे ३३२ विहरन्ति । ततः खलु स पुरुषः अयोभारेण यत्रैव स्वं नगरं तत्रैव उवागच्छन्ति, अयोभारकं गृहीत्वाः योविक्रयणं करोति, तस्मिन अल्पमूल्य निष्ठिते क्षीणपरिव्ययः तोन् पुरुषान् उपरि प्रासादवरगतान यावद् विहरतः पश्यति, हा पुरिसे अयभारेण जेणेव सए नयरे तेणेव उवागच्छ ) अब वह पहिला पुरुष कि जिसने हित वचनों की अवहेलना की और लाह के भार को ही अच्छा समझा उस लोहार के साथ ही अपने नगर में आया (अयभारगं गहाय अयविक्किणणं करेइ) वहां आकार के उसने उस लोहे के भार को लेकर बेचना प्रारंभ किया (सि अप्पमोल्लंस, निडियंस, हीणपरिव्वए ते पुरिसे उपिं पासायवरगए जाव विहरमाणे पास) जब वह पूरा चिक चुका तो उससे जो उसे द्रव्य प्राप्त हुआ, वह बहुत थोडा सा प्राप्त हुआ क्यों कि वह लोह उसका अल्पमूल्य में विका अतः उससे प्राप्त द्रव्य आहार वस्त्र आदि के लाने में ही समाप्त हो गया. इस तरह क्षीणपरिव्ययवाले बने हुए उस पुरुष ने उन वज्रविक्रयी पुरुषों को जो कि अपने २ रम्य प्रासादों में रहकर यावत् - अतिवेग से ताडित (बजाते) हुए मृदङ्गों के निनादों से एवं ३२ प्रकार के सुन्दर तरुण युवतियों द्वारा अभिनीत किये गये नाटकों से उपनर्त्यमान थे और उपलाल्यमान थे एवं इष्ट शब्द-स्पर्श रस, रूप, गंध, इनपाँचप्रकार के मनुष्यभव संबंधी कामभोगों को भोगते हुए आनन्द के साथ अपना समय व्यतीत પેાતાના સમય પસાર ४२वा साग्या. (तरण से पुरिसे अयभारेण जेणेव सए नयरे तेणेत्र उगच्छ) हवे ते पेयो योजना भारवाणी माणूस ! भेोगे जीन લેાકેાના હિત વચના સાંભળ્યા નહિ અને લેાખડના ભારને ઉત્તમ માન્યા હતા. नगरभां याव्या. (अग्रभार हाय अयविक्किगण करेइ) त्यां भावाने तेथे ते सोयडना लारने सघने वेया आरंभ : ( तंसि अप्पमोल्लं सि नियंसि हीणपरिव्वए ते पुरिसे ऊं पासा यवरगए जात्र विहरमाणे पासड़) જ્યારે તે લાખડના ભાર વેચાઈ ગયે ત્યારે તેનાથી જે દ્રશ્ય મળ્યુ હતું. હતું કેમકે તે લેાખંડ અલ્પ મૂલ્યમાં જ વેચાયુ હતું. તેનાથી જે પ્રાપ્ત થયું હતું. તે તેા આહાર વસ્ત્ર વગેરેની ખરીદીમાં જ પૂરૂ થઇ ગયું હતું. આ પ્રમાણે તે ક્ષીણ પશ્તિાપવાળા તે પુરૂષા તે વજ્ર વિક્રયી પુરૂષાને કે જેઓ પાતપેાતાના રમ્ય પ્રાસાદોમાં રહીને ચાવત્ અતિવેગથી પ્રતાડિત થયેલ મૃદ ગાના નિનાદાથી અને ૩૨ પ્રકારના સુ ંદર સુંદર તરૂણ સ્ત્રીએ દ્વારા અભિનીત કરાયેલા નાટકાથી ઉપ-મમાન હતા, ઉપગીયમાન હતા, અને ઉપલાલ્યમાન હતા અને ઇષ્ટ; શબ્દ, સ્પ રસ, રૂપ, ગંધ, આ પાંચ જાતના મનુષ્ય ભવ સંબંધી કામ ભાગેાની ઉપભોગ કરતક मान'दृपूर्व? पोतानो समय पसार उरी रह्या हता लेया (पासित्ता एवं व्यासी c. ने અત્ય૫ અલ્પન Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सू. १५४ सूर्याभदेवस्य पूर्वभाजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ३३३ एवमवादीत्-अहो !! खलु अहम् अधन्यः अपुण्यः अकृतार्थः अकृतलक्षणः हीश्रीवर्जितः हीनपुण्यचातुर्दशो दुग्न्तप्रान्तलक्षणः । यदि खलु अहं मित्राणां वा ज्ञातीनां वा निजकानां वा वचनम अश्रोष्यं तदा खलु. अहमपि एवमेव उपरि प्रासादवरगतः यावद् व्यहरिष्यम् । तत् तेनार्थेन प्रदेशिन् ! एवमुच्यते-मा त्वं ! प्रदेशिन् ! पश्चादनुतापितो भवेः, यथा:वा स पुरुषोऽयोहारकः । ॥ सू० १५४॥ कर रहे थे देखा(पासित्ता एवं बयासी-अहोणं अहं अधन्ना, अपुन्ना, अकयत्था. अकयलक्खणो हिरिसिरिवजिओ हीणपुण्णचाउद्दसे दुरंतपंतलक्खणे) तो देखकर इस प्रकार विचार किया-अरे ! मैं कितना अधन्य हूं, पुण्यहीन हूं, :अकृतार्थ हूं, शुभलक्षण रहित हूं, लजा लक्ष्मी दोनों से वर्जित हूं, हीनपुग्यचातुर्दश हूं अर्थात् हीनपु यवाला हू इसी लिये कृष्णपक्ष की चतुर्दशी में जन्मा हूं, दुरन्त प्रान्तलक्षणवालाहूं-दुष्टावसानवाले अमनोज्ञ लक्षणों से युक्त हूँ (जइ णं अहं मित्ताण वा णाईण वा णियगाण वा वयणं सुणे तओ तो णं अह पि एवं चेव उप्पि पासायवरगए जाव विहरेंतओ) यदि मैं साथ गये हुए मित्रों के, अथवा पितृव्यादि ज्ञातिजनों के वा अपने हितैपियों के वचनों को मान लेता, तो मैं भी इन्हीं साथ के आये हुए वज्रविक्रेता पुरुषों की तरह ही प्रासादों में रहता हुआ विवि व सुख सम्पन्न बनकर अपने समय का आनन्दपूर्वक व्यतीत करता (से तेणेट्टणं पएसी ! एवं चुचइ, मा तुमं पएसी ! पच्छाणुताविए भविजासि, जहा व से पुरिसे अयभारए) इसी कारण हे प्रदेशिन् ! मैंने ऐसा कहा है कि अहो णं अहं अधन्नो, अपुन्नो अकगत्थो, अक बलवणो हिरिसिरिवज्जिओ हीणपुष्णचाउद्दसे दुरंतप तलक्षणे) तेभने निधन २मा प्रमाणे. क्यार કર્યો કે અરે ! હું કેટલો અભાગિ છું. અધન્ય છું. પુણ્યહીન છું, અકૃતાર્થ છું શુભલક્ષણ રહિત છું, લજજા લક્ષ્મી બનેથી વર્જિત છુ હિનપુણ્યચાતુર્દશ છું, એટલે કે હીન પુણ્યવાળો છું. એથી જ કૃષ્ણ પક્ષની ચતુર્દશીના દિવસે જન્મ પાચ્ય છે, દુરંત પ્રાન્ત લક્ષણવાળે છુ, દુછાવસાવવાળા અમને લક્ષણોથી યુકત છું. (जड्ण अह मिचाण बा णाईण वा णियगाण वा वयण सुणे तओ तो ग अह' पि एच चेव उप्पि पासायवरगए जाव विहरतओ) ले साथवा भित्रना કે ષિતૃવ્યાદિ જ્ઞાતિજનોના કે પિતાના હિતેચ્છુઓના વચને માની લેતે તે હું હું પણ મારી સાથે આવેલ વજીવિકેતા પુરૂષોની જેમ જ પ્રાસાદામાં રહીને વિવિધ सुप सपन्न नान पोताना समयने मान पूर्व पसा२ ४२त. (से सेणहोणं पएसी ! एवं वुच्चइ, मा तुमं पएसी ! पछाणुताविए भविज्जासि, जहाव से पुरिसे अयमारए) मेथी ४ ७ प्रशिन् ! में' मा प्रभारद्यु. । २५ अयो. Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजमनीयमंत्र टीका-"तए णं केसीकुमारसमणे" इत्यादि-ततः बलु केशीकुमारश्रमणः प्रदेशिगजम् एवमवादीत्-हे प्रदेशिन ! त्वं बलु पश्चादनुतापिक:-पश्चात्तापयुक्तो मा भवेः, यथा-येन प्रकारेण सः-चक्ष्यमाणः अयोहारकः-लोहवणिक पश्चादनुतापिकोऽभूत् ।, प्रदेशी तत्परिचयं पृच्छति-कः खलु हे भदन्त ! सः अयोहारकः ? इति प्रश्नः । केशीकुमारश्रमण आह-ले ययानामकाः-अनिर्दिष्टनामानः केचित् पुरुषाः अर्थायिकाः-धनार्थिनः, अर्थगवेपिका'-धनान्वेषिणः, अर्थलुब्धका:-धनलोलुपाः अर्थका क्षता:-धनकायुक्ताः, अर्थपिपासिताः-धनपिपासायुक्ताः, अर्थगवेपणाय-धनगवेपणार्थ विपुलं पणितभाण्डं-क्रयाणकवस्तुजातम् आदाय तथा-सुबहु-पर्याप्तं भक्तपानपथ्यदनम अशनपानरूपं पाथेयं गृहीत्वा एका जेसा यह अयोहारक पुरुप पश्चातापयुक्त हुआ है-इसी कारसे तुम्हें न होना पडे-अतःतुम मेरे कहे हुए पर श्रद्धा करो और माना किजीव और शरीर मिन्न है इत्यादि। ___टीकार्थ-सी मूलार्थ के जैसा है-परन्तु जहाँ पर विशेषता है-वह इस प्रकार से है "हट्टतुट्ठा जाहिया" में जो यापन पद आया है. उससे"चित्तानन्दिताः, परमसीमनस्विताः, हर्षवश विसपंद्" इन पदों का संग्रह हुआ है. इन पदों की व्याख्या पूक्ति जैसी ही है. "इट्ट, कंत जाव" में जी यह यावत्-पद आया है-उससे यहां पर "प्रियः, मनेाज्ञः' मन आमः" इन पदांका ग्रहण हुआ है. इष्ट शब्द का अर्थ-मनोरथ को पूरा करने वाला है. कान्त शब्द का अर्थ-सहायकारी होने से अभिलपणीय है, प्रिय शब्द का अर्थ-उपकारक होने से प्रेम का उत्पादक है, तथा-मनोज्ञ शब्द का अर्थ-हितकारी होने से मनोहर ऐसा है और मन आम शब्द का अर्थ आतिहर होने से मनागम्य ऐसा હા-ક પુરૂષ પશ્ચાત્તાપ-યુક્ત થયે છે–તેમ તમારી પણ સ્થિતિ થાય નહિ, એથી તમે મારી વાત પર શ્રદ્ધા રાખો અને મારી વાત માની લો કે જીવ અને શરીર ભિન્ન ભિન્ન છે. ઈત્યાદિ. ટીકાઈ–આ મૂલાર્થ વિશેષતા છે તે આ પ્રમાણે છે. "हट्टतुट्ठा जाव हियया" __'चित्तानन्दिताः, परमसौमनस्थिताः हर्षवश विसर्पद' २५ पानी सबाड थये। छ. 2मा पानी व्याच्या पडदा भु ४ छ. "इटे, कते जाव" मा यावत ५४ छ तथी डी "प्रियः, मनोज्ञः, मनः आम" मा पहनु ग्रहण थयु छ. ध शहनी मर्थ मनोरथ ने પૂરનાર છે. કાંત શબ્દનો અર્થ સહાયકારી હોવાથી અભિલષણીય છે, પ્રિય શબ્દના અર્થ–હિતકારી હોવાથી પ્રેમને ઉત્પાદક છે, તથા મનોજ્ઞ શબ્દનો અર્થ હિતકારી હોવાથી મને હર એ થાય છે. મન: આમ શબ્દનો અર્થ આર્તિહર હોવાથી મને Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सु. १५४ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ३३५ महतीं-विशालाम् अग्रामिकाम्-वसतिरहितां, छिन्नाऽऽपाताप-छिन्न-हिंसकजन्तुभयेनोपहतः आपात -मनुष्याणां गमनागमनं यत्र ताम् दीर्घाध्वां-दीर्घमार्गाम, अटवी अनुप्रविष्टाः । ततः खलु ते पुरुपाः तस्याः अग्राभिकायाः यावत छिन्नाऽऽपातायाः दीर्घावाया अटव्याः कंचिद्देशम-अटवीविभागम, अनुप्राप्ताः सन्तः तत्र एकम अयआकरं-लोहखनिम, पश्यन्ति-दष्टवन्तः, तमाकरम् अयसा-लोहेन सर्वत्र सर्वदिक्षु. समन्ता -सर्वविदिक्षु आकीर्ण-व्याप्तं, विस्तीर्ण-विस्तारप्राप्तम्, सच्छटंसती-समीचीना छटा-चाकचिक्यं यत्र तम, उपच्छटं-छटायुक्तम, स्फुट-प्रकटम, अनुगाढं-पुञ्जपं पश्यति-दृष्टवन्तः, दृष्ट्वा हृष्टतुष्ट याव -यावत्पदेन "चित्तानन्दिताः, परमसौमनस्यिताः, हर्पवशविसपद्" इत्येग सङ्ग हो वोध्यः, हर्पवशविसपद्" इत्यस्य "हृद।" इत्यनेन योगाद् "हर्षवशविसर्पढदयाः" इति, एतद्वधाख्या प्राग्वत्, एतादृशाः सन्तः अन्योऽन्य-परस्परं, शब्दयन्ति-आन्ति , . शब्दयित्वा एवम्वादिपुः-उक्तवन्तः-हे देवानुप्रियाः ! एषः-अयं खलु अयआकरःलोहाऽऽकरः इष्टः कान्तः यावत् यावत्पदेन-"प्रियः, मनोज्ञः मनआम" इति पदानां संग्रहः, तत्र इष्टः-मनोरथपूरकः, कान्तः सहायकारित्वादभिल रणीयः, प्रियःउपकारिकत्वेन प्रेमोत्पादकः, मनोज्ञः-हितकारित्वान्मनोहरः, मनआमः-आतिहरत्वान्मनोगम्यः, अस्ति ता-तस्मात् कारणान हे देवानुभियाः । अस्माकम् अयोभारं- लोहमारं बछ ग्रहीतुं श्रेयः-प्रशस्तम्. इतिकृत्वा-इति निश्चित्य अन्योऽन्यस्यपरस्परस्य एतम्-अयोभारग्रहणल्पा अर्थन-प्रतिशृण्वन्ति-कर्तव्यतया स्वीकुर्वन्ति, प्रतिश्रुत्य अयोभारं-लोहमारं बन्नन्ति, बचा यथानुपूर्वि-यथाक्रमं संग्रस्थिताः-अग्रे गन्तुं प्रवृत्ताः । ततः खलु ते पुरुपाः अग्रामिकायाः यावत्-"छिन्नाऽऽपाताशः दीर्धाध्यायाः अटकाः किञ्चिद्देशं-किञ्चिरप्रदेशम् अनुप्राप्ताः सन्तः एकं महान्तं वप्वाकरं-त्रपु-धातुविशेषरतस् Tऽऽकरं, पश्यन्ति-दष्टवन्तः तम् त्रपुकेण सर्वतः समन्ताद् आकीर्ण तदेव-पूर्वोक्तमेर “विस्तीर्ण , सच्छटम्, उपच्छदं स्फुटं गाद पश्यन्ति, दष्ट्वा हृष्टतुष्टाः, चित्तानन्दिताः, परमसौमनस्थिताः, हर्षवशविसर्पदयाः, हैं। 'अग्गामियाए जाव" में जाये हुए इस यावत्पद से “छिन्नापाता।" दीघाध्यायाः" इन पदों का संग्रह हुआ है. "तं चेव" इस पाठ से “विस्तीर्णः सच्छटम् उपच्छटं स्फुटं गाहं पश्यन्तिः दृष्ट्वाहृष्ट तुष्टाः, चित्तानन्दिताः, परमसौमनस्थिताः, हर्षवश विसर्पहृदयाः अन्योन्यं शब्दयति" इस पाठ का यहां ग्रहण सभ्य मेवा थाय छ. 'अग्गमियाए, जाव' मां मावेस मा यावत् पहथी छिन्नापातायाः,दीर्घाध्यायाः, PAL पहानी संग्रह थियो छ. 'तंचेव' मा पाथी 'विस्तीर्ण सच्छटम्, उपच्छटम्, स्फुटं, गाढं पश्यन्ति, दृष्ट्वा हृष्टतुष्टाः, चित्तानन्दिताः, परमसौमनस्पिताः, हर्षवशविसर्पदुहृदयाः अन्योन्यं शब्दयन्ति" on & अड Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गजप्रश्नीयसूत्रे अन्योऽन्यं शब्दयन्ति, शब्दयित्वा. एवम् अबादिपुः-हे देवानुप्रियाः ! एप खलु त्रप्वाकरः यावत्-यावत्पदेन 'इष्टः, कान्तः, प्रियः, मनोज्ञः" संग्राह्यम् मनआमः. अल्पेनैव त्रपुकेण सुबहु-अतिप्रचुरम् अयः-लोहः लभ्यते-प्राप्यते, तत्-तस्मात् कारणात हे देवानुमियाः ! अयोभारं मुक्त्वा-विहाय वपुकमारं बर्बु श्रेष:. इति कृत्वा अन्योऽन्यस्य अन्तिके-सर्मापे एतम्-त्रपुभारग्रहणरूपम् अर्थम् प्रतिशृण्मन्ति कर्तव्यतया स्वीकुर्वन्ति, प्रतिश्रुत्व अोभार मुञ्चन्ति- त्यजन्ति त्रपुकभार वनन्ति -गृह्णन्ति, तत्र-त्रपुभारग्रहण वपये खलु एकः कश्चित् पुरुपः अयोभार मोक्तुंत्यक्तुं नो शक्नोति, तथा-त्रएकभार बड़े-ग्रहीतुं नो शवनोति, ततः खलु ते पुरुषाः तम्-लोहमारवन्तं पुरुषम् एवमवादिपुः-हे देवानुप्रिय ! एप खलु बप्वाकरः. यावत्-या त्पदेन-“इष्टः, कान्तः. पिय:, मनोज्ञः, मनआम, अल्पेनेच वपुकेण" इत्येषां सहो बोध्यः, सुबहु -अतिप्रचुरू अय:-लोहः, लभ्यते तत्तस्मात कारणात् हे देवानुप्रिय ! अगेमारकं-लोहमार मुञ्च-त्यन तथा पुकभारकं वधान-गृहाण, ततः खलु सः-लोहमारवाहकः पुरुपः एवमवादीन-हे देवानुप्रियाः-मया अयः-लोहः दूराऽऽहृतं-दुराः-दूरप्रदेशाद् आइतप्-आनीतम, हे देवानुप्रियाः ! मया अयः-चिराऽऽहृतम्-चिरान बहुकालाय आहतम.अहम्, हे देवानुप्रियाः ! मया अयः अतिगाढ-बन्धनबद्धम्-अत्यन्तदृढवन्धनेन बद्धम् अत एव हे देवानुपियाः! मया अयः अशिथिलबन्धनबद्धम्-अशिथिलबन्धनेन दृढबन्धनेन बद्धप हे देवानुप्रियाः! मया अथः प्रचुरवन्धनबद्धम्-"घणि" इति प्रचुरार्थों देशीयः शब्दः, अतोऽहम् अयोभारं त्यक्त्वा पुकभारकं वढुं-ग्रहीतुं नो चैत्र शक्नोमि । ततः खलु ते पुरुषाः तम-लोहभारवाहक पुरुपं यदा बहुभिः-बहीभिः आख्यापनाभिः-दृप्टान्तरूपाभि" च पुनः प्रज्ञापनाभिः हेयोपादेयप्रतिवाधिकाभिश्च किया गया है । "इडे जाव मणामे" में आये हुए यावत्पद से “इष्टः. कान्तः प्रियः, मनोज्ञः" इन पदों का संग्रह हुआ है ! "तउ आगरे जाव" पद से भी इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मन आम" इन पदों का संग्रह किया गण है। "षणीय" यह शब्द देशीय है और प्रचुर अर्थ का वाचक है ॥ १५४॥ · थयो छ. "इटे जाव मणामे' मा मावेस यावत् प६थी 'इष्टः, कान्तः, प्रियः, मनोज्ञः २॥ पाना संग्रह थथे. छ. 'तउआगरे जाव' ५४थी ५ए 'इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मन आम' मा पहनु अडएर थथुछ. 'धणिय' या श शीय छ भने પ્રચુર અર્થને વાચક છે. સુ. ૧૫ઝા ! . Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सु. १५४ सूर्याभदेस्य पूर्व भाजीप्रदेशिराजवर्णनम् ३३७ प्ररूपणामिः-यथार्थस्वरूपनिरूपिकाभिश्च आख्यापयितुं वा प्रज्ञापयितुं वा प्ररूपयितुं वा नो शक्नुवन्ति-समर्था नाभवन् , तदा यथानुपूर्वि यथाक्रमम्, संप्रस्थिताःततोऽग्रे प्रयाताः। एवम्-अनेन प्रकारेण ताम्राऽऽकरं, रूप्याऽऽकरं, सुवर्णाऽऽकरं, रत्नाऽऽरं, वज्राऽऽकर, हीरकरवनिं पश्यन्ति इत्यादि लोहनप्वाकरदर्शनवदेव सर्व वर्णन बोध्यम् । - ततः-लोहमारग्रहणकृताऽऽदरदुर्घ द्धिपुरुषस्यानेकय था.प्रबोधकवाकयप्रपञ्चैः प्रबोधनाःसामर्थ्यानन्तरं खलु ते अल्पमूल्यकपूर्व पूर्व वस्तुपरित्याग पूर्व कबहुमूल्योत्तरोत्तरवस्तुग्रहणवद्धाऽऽदरतया गृहीतवज्रमणिभाराः: पुरुषाः यत्रैव स्वाः- स्वकीयाः जनपदाः-देशाः, यत्रैव स्वानि स्वानि-निजानिःनिजानि नग राणि तत्रैव आगच्छन्ति । वज्रविक्रयण-वज्रमणिविक्रय कुर्वन्ति-कृतवन्तः। तद्विक्रयेण - लब्धबहुद्रव्यैः सुबहुदासीदासगामहिषगवेलकं-सुवहु-अतिप्रचुरं यद् दासी-दास-गो महिप-गवेलकः-तत्र दासी-दास-गो-महिषाः प्रसिद्धाः, गवे. लकाः-मेषाश्चेत्येषां समाहारस्तथा, तत् गृह्णन्ति, अष्टतलोच्छित प्रासादावन्तंस कान् -अष्टौ तलानि यत्र ते अष्टतला:-अष्टभूमिकाः, ते च ते उच्छ्रिताः-उन्नताः गगनचुम्विनः प्रासादावतंसकाः-श्रेष्ठप्रासादास्तान् कारयन्ति, तत्र च स्नाताः कृतस्नानाः, कृतवलियर्माणः-कृनवायसादिनिमित्तानविभागाः, कृतकौतुलमङ्गलप्रा श्चित्ताः दुःस्वमादिफलविघाताय .. धृतदध्यक्षताश्रयाः . . सन्तः उपरि-उध्वं प्रासादवरगताः--मनोहर प्रासादस्थिताः विहरन्तीत्युत्तरेणान्वयः, . किं कुर्वन्तो विहरन्तीत्याह-स्फुटद्भिः-अतिरभसा स्फालनात् स्फुटद्भिरिवः, मृद्गमस्नकैः मृदङ्गमुखपुटैः, द्वात्रिंशद्रद्धकैः- द्वात्रिंशत्प्रकाररचना युक्तः नाटकैः, ते कीदृशैः ? इत्यत्राऽऽह-वगतरुणीसंप्रयुक्तः-विशिष्ट स्त्रीसम्पादितैः, उपनय॑मानाः, नृत्यदृश्यमानाः, उपगीयमानाः गानं श्राव्यमाणाः, उरलाल्यमानाः घिलास्यमानाः, इष्टान , अभिलपितान, शब्दस्पर्श रसरूपगन्धान, पञ्चविधान् मानुष्यकान् कामभोगान् प्रत्यनुभव तो विहरन्ति तिष्ठन्ति । ततः खलु इतश्च सः-अवहेलितहितवचनो लोहभारवाहकः पुरुषः अयोभारेण सह यत्रैव स्वं-निज नगरं, तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य तत्र अयोभारकं गृहीत्वा अयोविक्रयणं करोति । तस्मिन्-लोहविक्रयलब्धे, अल्पमूल्ये स्वल्पद्रव्ये आहारवस्त्राद्यानयनेन निष्ठिते-समाप्ते सति स लोहवणिकः पुरुषः क्षीणपरिव्ययः-क्षीण:. मन्दः परिव्ययः परितो व्ययः-द्रव्योपयोगो यस्य तथाभूतः, तान्-वन विक्रयिणपुरुषान् उपरि-ऊर्ध्व भागे, प्रासादवरगतान्-रम्यप्रासादस्थितान यावंद् विहरमाणात स्फुटद्भिर्मृदङ्गमस्तकैः द्वात्रिंशद्ध?ः नाटकैः वरतरुणीसंप्रयुक्तैः उपनय॑मानान् उपगीयमानान् उपलाल्यमानान् इष्टान् शब्द-स्पर्श-रस-रूप-गन्धान पञ्चविधान् मानु Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ राजप्रश्नीयसूत्र प्यकान कामभोगान नुभवन्तो विहरमाणान् पश्यन्ति । दृष्ट्वा एवम्-अनुपदं वक्ष्यमाण वचनम् अवादीत्-अहो ! वित्मयः खलु अहम् अधन्य:-धन्यो न, अपुण्य:पुण्यहीनः, अकृतार्थः अकृतेष्टसिद्धिकः, अकृतलक्षणः- शुभलक्षणहीनः, हीश्रीवर्जितःलज्जालक्ष्मीहीनः, हीनपुण चातुर्दशः-हानपुण्य:-क्षीणपुण्यः, अत एव चातुर्दशःकृष्णचतुर्दश्यां जातः, दुरन्तान्त लक्षणः-दुरन्तं-दुप्टा सानम् अत एव प्रान्तम् अमनोज्ञ लक्षण यस्य स तथा-कुलक्षणयुक्तः, अहममि । यदि-चेत् खलु अहं मित्राणां-सहगतानां वा-अथवा ज्ञातीनां-पितृव्यादीनां वा निजकानांहितैपिणां वा वचनम् अश्रोष्य-श्रवणपथमानेष्यम् तदा-तर्हि खलु अहमपि एवमेव-मत्सहागतवज्रमणिविक पुरुपवदेव, अरि-अ-भागे, प्रासादवरगतः-सुन्दरप्रासादस्थितः वज्रमणिविक्रयिसदृशो भूत्वा यावद् हरिण्यम्-अस्थास्यम् विविधसुखसम्पन्नोऽभविष्यम् । तत्-त माद्धेतोः, तेन-अनन्तरोक्तेन अर्थेन-लोहवणिरूपेण दृष्टान्तेन, हे प्रदेशिन् ! एवम्-इत्थम्, उच्यते-कथ्यते यत् हे देशिन ! त्वं पश्चादनुतापिको मा भवेः, यथा-येन प्रकारेण सः-अन्तरोक्तः, अयोहारकः पश्चादनुतापिकोऽभूत् । ।।सू० १५४॥ मूलम्-तए णं से पएसी रायो संबुद्धे केसिकुमारसमणं वंदइ जाव एवं वयासी-जो खल्लु भंते ! अहं पच्छाणुताविए भविस्तामि जहा चेव से पुरिने अयभारए । त इच्छामि गं देवाणुप्पियाणं अंतिए केवलिपन्नत्त धम्मं निसामित्तए । अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध करेह । धम्मकहा, जहा चित्तस्स तहेव जाव गिहिधम्म पडिवज्जइ, जेणेव सेयविया नयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए।१५५।। छाया-ततः खलु स प्रदेशी राजा संबुद्धः केशिकुमारश्रमणं वन्दते यावत् एवमादीत्-नो खलु भदन्त ! अहं पश्चादनुतापिको भविष्यामि यथैव स पुरुपो 'तए णं से पएसी राया' इत्यादि। सूत्रार्थ-(तएणं से पएसी राया संयुद्धे) इस तरह से वहुत समझाने पर वह प्रदेशी राजा बोध को प्राप्त हो गया (केसिकुमारसमणं जाव बंदइ 'तए णं से पएसी राया' -इत्यादि। सुत्रार्थ-(तएणं से पएसी राया संबुद्धे) मा प्रमाणे या समाथी ते प्रदेश राजने गाध प्रास थयो ! (केसि कुमारसमणं जाव वंदइ एवं वयासी) पछी.तेणे Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका स. १५५ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजी प्रदेशिराजवर्णनम् ३३९ ऽयोहारकः । तदिच्छामि खलु देवानुप्रि णामन्तिके केवलिप्रज्ञप्तं धर्मं निशमयितुम् । यथासुखं देवानुप्रियाः । मा प्रतिबन्धं कुरुत्त. धर्मकथा, यथा : चित्रस्य तथैव यावत् गृहिधर्म प्रतिपद्यते नैव वेतांविका नगरी तत्रैव प्राधारयद् गमनाय ॥ मु० १५५ ।। = • एवं वयासी) फिर उसने वंदना की यावत् केशिकुमारश्रमण से ऐसा कहा - (णो खलु भंते । अहं पच्छाणुता विए भविस्सामि, जहा चेव से पुरिसे अग्रहारए) हे भदंत ! मैं उस अयोहारक - लाहवणिक पुरुष की तरह पश्चादनुतापित नहीं होऊंगा ( तं इच्छामि णं देवाणुपिणं अंतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं निसामित्तए) अत मैं आप देवानुप्रिय से केवलिप्रज्ञप्तः धर्म सुनने का अभिलाषी हो रहा हू (अहा सुहं देवानुप्पिया ! मा पडिबंध करेह) तब केशीकुमारश्रमण ने उससे कहा- हे देवानुभि ! आप को जिससे सुख ऊपजे एसा करो परन्तु इस विषय में विलम्ब करना उचित नहीं है । (धम्म कहा) प्रदेशी राजाको तब केशीकुमारश्रम ने मुनिर्म और गृहस्थधर्म का उपदेश दिया. ( जहा चित्तस्स तहेव गिहिधम्मं पडिवइ) यहां वह धर्म कथा १११ वें सूत्र में जैसी कही गई है वैसी जाननी चाहिये, तब प्रदेशी राजाने द्वादशविधरूप गृहीधर्म स्वीकार करलिग (जेणेव सेयं वियागयरी तेणेव पहारेत्थ गमगाए) इस प्रकार गृहिधर्म धारणकर वह प्रदेशी राजा जहां श्वेतांचिका नगरीथी उस ओर : चलदिया ईशी कुमारश्रभाणुने वहना पुरी यावत ठेशिकुमार श्रमने या प्रमाणे धु' - (णो खलु भंते ! अहं पच्छातावि भविस्सामि, जहा चेव से पुरिसे अयहारए) हे लढत ! हु ते भयोहार मोडलिङ यु३षनी प्रेम पश्चानुतापिः ४श नहि. (तं इच्छामि णं देवाप्पियाणं अंतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं निसामित्तए) मेथी हु खाय हेवाઇપ્રિય પાસેથી કેવલિ પ્રજ્ઞપ્ત ધર્મને સાંભળવાની અભિલાષા રાખું છું. (अहासु देवानुप्रिया ! मा पबिध करेह) त्यारे शीकुमार श्रम तेने अधु हे देवानुप्रिय ! તમને જેમાં આનંદ થાય તેમ કરે. પણ આ વિષયમાં વિલંબ ઉચિત નથી. (धम्मका) प्रदेश | रामने त्यारे उशी कुमार श्रमाणे मुनिधर्मः मने गृहस्थधर्मना उपदेश यांच्या. (जहा चित्तस्स तत्र गिहिधम्मं परिवज्जड ) सही ते धर्मस्था ૧૧. મા સત્ર પ્રમાણે કહેવામાં આવી છે. ત્યારે પ્રદેશ રાજાએ દ્વાદશ વિધરૂપ गृहीधर्मना स्वीकार भ्यो. ( जेणेव सेयंविया णयरी तेणेत्र पहारेत्थ गमणाए ) આ પ્રમાણે ગૃહીધમ ધારણ કરીને તે પ્રદેશી રાજા જ્યાં શ્વેતાંખિકા નગરી હતી તે તરફ રવાના થઈ ગયા. Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... . राजप्रश्नीयसूत्रे : ३४० टीका-"तए ण से पएसी गया" इत्यादि-ततः खलु स प्रदेशी. राजा संबुद्धः बोधं प्राप्तः, सन् केशिकुमारश्रमणम् वन्दते-स्तौति, यावत्-याव- - त्पदेन 'नमम्यति सत्करोति सम्मानयति कल्याण मङ्गलं. दैवतं चैत्यं पर्युपाग्ते" इत्येषां पदानां सङ्ग्रहो बोध्यः। एपां व्याख्या गता। वन्दनाद्यनन्तरम् एवमवादीत्-हे भदन्त ! अहं खलु पश्चादनुतापिको नो भविष्यामि, यथा येन प्रकारेण सः-अनन्तरोक्तः अयोहारकः-लोहवणिक, पुरुषः पश्चादंनुतापिकोऽभवत्, तत् तस्मात् कारणाद् अहं खलु देवानुत्रियाणां भवाम् अन्तिके पावें केवलिप्रज्ञप्त, धर्म भवसागरनिमज्जत्प्राणिगणोद्धरणधुरीण' श्रुतचरित्रलक्षण निशमयितुं श्रोतुम्, इच्छामि अमिलपाभि । केशी प्राऽऽह-हे देवानुपिय ! यथासुख यथातुभ्यं रोचते तथा कुरु इति भावः, किन्तु प्रतिबन्धं विलम्ब मा कुरु । धर्मकथा अनगारागारधर्मकथा. यथा चित्रस्य. द्वादशाधिकैकशततमसूत्रोक्ता. तथैव तदं नुसारिण्येव विज्ञेया। ततः प्रदेशी गृहिधर्म द्वादशविधं प्रतिपद्यते स्वीकरोति, अंतिपद्य स यत्रेव श्वेतांविका नगरी तत्रैव गमनाय प्राधारयत् मनसि निश्चितवान । ॥सू०१५५।। मूलम--तए णं केसी कुमारसमणे पएसिं रायं एवं वयासीजाणासि गं तुमं पएसी ! कइ आयरिया पन्नत्ता ?, हंता जाणामि, टीकार्थ—स्पष्ट है "वंदइ जाव एवं वयासी' में ओ- यावत्पद आया है. उससे-"नमस्यति-सत्करोति-सम्मान पति-लाणं मङ्गलं देवतं-चैत्य-पर्युपास्तें इन पड़ों का संग्रह हुवा है, तात्पर्य-कहने का यह है कि-जब प्रदेशी राजा बोध को प्राप्त हो गया. तब उसने केशी कुमार श्रमग की स्तुति की, उन्हे नमस्कार किया उनका सत्कार फिा सन्मान किया और कल्ागरूप मङ्गलरूप एवं-देवस्वरूप उन चैत्य ज्ञान प्रदाता गुरुदेव की ऊसने पर्युपासना की, फिर उसने भवसागर में डूबते हुवे प्राणियों का उद्धार करने में समर्थ ऐसे श्रुत... चारित्ररूप धर्म को सुनने की अपनी अमिलापा प्रकट की ॥ सु. १५५ ॥ सार्थ-२५०८४ छ. 'वंदह जाव एवं वयासी भा २ यावत् प६ यावर छ. तथा 'नमस्यति-सत्करोति सम्मानयति कल्याणं-मङ्गलं-दैवतं-चैत्यं-पर्युपास्ते' . આ પદેને સંગ્રહ થયેલ છે. તાત્પર્ય આમ છે કે જ્યારે પ્રદેશી રાજાને બેધ પ્રાપ્ત થઈ ગયે. ત્યારે તેણે કેશી કુમાર શ્રમણની સ્તુતિ કરી. તેમને નમસ્કાર કર્યો, તેમને સત્કાર કર્યો, સન્માન ક્યું અને કલ્યાણરૂપ, મંગલરૂપ અને દેવસ્વરૂપ તે અત્યજ્ઞાન પ્રદાતા ગુરૂદેવની તેમણે પર્યું પાસના કરી. ત્યાર પછી તેમણે ભવભ્રાગરમાં ડૂબતા પ્રાણીઓના ઉદ્ધારમાં સમર્થ એવા શ્રત ચારિત્રરૂપ ધર્મને સાંભળવાની પિતાની ४२छ। ४८ 3. ॥सू. १५॥ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ सुबोधिनी टीका स. १५६ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवावप्रदेशिराजवर्णनम् ३४१ तओ आयरिआ पण्णता, तं जहा-कलायरिए१, सिप्पायरिए२, धम्मायरिए३ । जाणासि णं तुम पएसी ! तेसिं तिण्हं आयरियाणं कस्स का विणयपडिवत्ती पउंजियव्वा ? । हंता ! जाणामि, कलायरियस्स सिप्पोयरियस्स उवलेवणं संमजणं वा करेजा, पुरओ पुप्फाणि वा आणवेजा मंडावेजो भोयावेज्जा वा विउल जीवियारिह पीइदाणं दलएज्जा पुत्ताणुपुत्तियं वित्ति कप्पेज्जारा जत्थेव धम्मायरियं पासिज्जा तत्थेव वंदेजा गमंसेजा सकारेजो सम्माणेजा कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासेजा फासुएसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेजा पाडिहारिएणं पीढफलगसिज्जासंथारएणं उवनि मंते । एवं जाणासि तहाविणं तुमं मम वामं वामेणं जाव वट्टित्ता ममं एयम अक्खामित्ता जेणेव सेयवियो णयरी तेणेव पहा. रत्थ गमणाए ॥ सू० १५६ ॥ छाश-ततः खलु केशीकुमारंश्रमणः प्रदेशिनं राजानम् एवम् अवादीत्जानासि खलु त्वं प्रदेशिन् ! कति आचार्याः प्रज्ञप्ताः १, हन्त ! जानामि त्रय "तएणं केसी कुमारसमणे" इत्यादि । सूत्रार्थ-"तएण" इसके बाद "केसी कुमारसमणे" केशीकुमारश्रमणने "पएसिं" रायं एवं वासी" प्रदेशी राजा से ऐसा कहा "जाणासि णं तुम पएसी ? कइ आयरिया पत्ता-" हे प्रदेशिन्-! तुम जानते हो कितने आचार्य कहे गये हैं-१ पदेशीने कहा-“हता ? जाणामि-तओ आ रिया 'तएणं केसीकुमारसमणे' इत्यादि। सूत्राय:--'तएणं' त्या२ पछी 'केसी कुमारसमणे 3थी भा२ श्रभो 'पएसिं रायं एवं वासी' अशी ने मी प्रमाणे धुं 'जाणासिं णं तुम पएसी ! कई आयरिया पण्णत्ता" प्रशिन् तभेत. छमाया मा प्रजाना 3वाय छ ? घंशीये ह्यु-'हंता ? जाणामि-तओ आयरिया पण्णत्ता" i wa Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ३४२ . ... ... ... राजप्रश्नीयसूत्रे आचार्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-कलाऽऽचार्यः १, शिल्पाऽऽचार्यः २, धर्माऽऽचार्यः ३ । जानासि खलु त्वं प्रदेशिन् ! तेषां त्र णामाचार्याणां कस्य का विनम्प्रसिपत्तिः प्रयोक्तव्या ? हन्त ! जनामि-कलाऽऽचार्यस्य शिल्पाऽऽचार्यस्य उपलेपनं संमार्जनं वा कुर्यात्, पुरतः पुष्पाणि वा आनयेत् मार्जयेत् मांडयेत् भोजयेत् वा विपुलं जीवितार्ह प्रीतिदानं दद्यात् पौत्रानुपुत्रिकी वृत्रि करुदयेत् २ । यत्रैव धर्माऽचार्यं पश्येत् पण्णत्ता-" हां भदन्त-! जानता हूं-तीन आचार्य कहे गये हैं। "तं जहाकलायरिए-सिप्पायरिए-धम्मायरिए" जो इस प्रकार से हैं-कलाचार्य-१ शिल्पाचार्य-२: और तीसरा धर्माचार्य । 'जागामि ण तुमं पएसी-".. तेसिं तिहे: आरिणं कस्स का विणयपडिवत्ती पउंजियव्या-" हे पदेशिन्-! तुम जानते हो, इन तीन आचार्यों में किस आचार्यका कैसा विनय प्रकार करने को कहा गया है- प्रदेशीने ब.हा-"हता. १ जाणामि ‘हां भदन्त ३ जानता हूं कलायरियस्स सिप्पायरियस्स; उवलेव समज्जग वा ३ रेज्जा पुरओ पुण्फाणि वा आणवेज्जा मंडावेज्जा भोयाविज्जा वा विउलं जीवियांरिहं पीइदाणं दलएज्जा पुत्ताणुपुत्तिय वित्ति कप्पेज्जा-" व लाचार्य और-शिल्पाचार्य के शरीर में तेल का मदन करना, उन्हें स्नान व राना, तथा उनके समक्ष पुष्पों में ला र भेटके रूप में रखना, पुष्पमाला आदिसे उन्हें अलकृत करना भोजन कराना उनकी आजीविका के योग्य सहर्ष प्रीतिदान देना वस्त्रादि प्रदान वरना. एवं-पुत्र aaj धु-त्रा मायायो उपाय छ. "तं जहा-कल परिए सिप्पायरिग धम्मायरिए" ते प्रभाए छ-४साया: १ शिपायार्य २ अने धर्मायाय, 3, " णासि ण' तुम पएसी तेसि निण्हं. आयरियाण कस्स का विणय डिवत्तो पउंजियव्या" હે પ્રદેશિનું તમે જાણે છે કે આ ત્રણ આચાર્યોમાં કયા આચાર્યને કઈ જાતનો विनय ४२ ४२वा वाभा माव्यां छ. १, प्रदेशीये घु-"हं ? जाणामि" i, महन्त ? oil छु. “लायरियस्स सिप्पायरियरस उवलेवण समजण वा करेजा पुरओ... "पुष्पाणि वा... आणवेजा भंडावेजा भोयावेजा वा विउलं जीवियारिहं पीइदाण' दलएज्जा पुत्ताणु पुत्तिय वित्तिं व.पेजजा सान्याय मने शिपायाय न शशरमा तसनी भासीय ४२वी, તેમને ન ન કરાવવું તેમજ તેમની સામે પુષ્પોની ભેટ મૂકવી, પુષ્પમાળા વગેરેથી तेभने त ४२१ न रावयु, तेमनी मालविश भाट याज्य सहक प्रीतिદાન આપવું અને પુત્ર-પત્ર વગેરેના ભરણપોષણ મેગ્ય આજીવિકાની વ્યવસ્થા Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सु. १५६ सूर्यभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशीराजवर्णनम् ३४३ तत्रैव वन्देत नमस्येत सत्कुर्यात् सम्मानयेत् कल्याण मङ्गलं दैवतं चैत्य पर्यु पासीत, प्रासुकैपणीयेन अशन पान खोदिमस्वादिमेन प्रतिलम्भयेत्, प्रातिहारिकेण पीठफलकशय्यासंस्तारकेण उपनिमन्त्रयेत, एवं च तावत् त्वं प्रदेशिन ! एवं जानासि तथापि खलु त्वं मम वाम गमेन यावद् वर्तित्वा मम एतमर्थम् - अक्षामत्विा यत्रैच श्वेतविका नगरी तत्रैव प्राधास्यत् गमनाय । ॥ सू० १५६ ॥ ... पौत्रादि के निर्वाह योग्य आजीविका लगा देना. इस प्रकार से यह कलाचार्य ७२ -प्रकार की वलाओं को सिखानेवालों की, और-शिल्पाचार्य विज्ञान सिखानेवाला को ..विनयप्रतिपत्ति है। "जत्थेव धम्मायरिय पासिज्जा, तत्थेव वंदेज्जा, णमंसेज्जा, सकारेज्जा, सम्साणेज्जा, कल्लाणं-मंगलं-देवय चेइयं पज्जुवासे ज्जा-' तथा-धर्माचायी विनय प्रतिपत्ति इस प्रकारसे है जहां पर भी धर्माचार्य को देखलिया जावे, वहीं पर उनकी वन्दना करना, नमस्कार करना, सर पर करना, सम्मान करना. कल्याण-माल-देवस्वरूप उन चेत्य ज्ञानदायक की पर्युपासना रना, तथा-"फासुएसंणिज्जेगं असण-पाण-खाइम-साइमेगं पडिलाभेज्जा, पाडिहारिए। पीढ-फलग-सिज्जा संथारएणं उबनिमंतेज्जा-" प्रासुक एषणीय अशन पान खादिम स्वादिम रूप चारां प्रारके आहार से उन्हें प्रति लाभित करना, पडिहारिपीठफलक... शय्या संस्तारक को ग्रहण करने के लिये उनसे प्रार्थना : रना-३ इस प्रकार की यह धर्माचार्य की विनयप्रतिपत्ति है"एवं ताव तुम पएसी-2 एवं-जाणासि तहाविण. तुमं मम वामं वामेण કરવી. આ પ્રમાણે આ કલાચાર્યું કે જે ૭૨ પ્રકારની ક્લાઓનું શિક્ષણ આપે છે मन शिपायार्थ - विज्ञान शिक्षण मापना२नी विनयप्रति ५ 'जत्थेव धम्मायरियं पासिज्मा, नत्थेव वदेज्जा, णमंसेज्जा सारेज्जा, सम्माणेज्जा, कल्लाण मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासेज्जा" तेम धर्मायायनी विनयप्रतिपत्ति । પ્રમાણે છે-જયાં ધર્માચાર્ય દેખાય કે તરતજ ત્યાં તેમને વન્દન કરવા, નમસ્કાર કરવા સત્કાર કરવો, સન્માન કરવું, કલ્યાણ-મ ગાળ દેવસ્વરૂપ તે જ્ઞાનદાયક ની પર્યુવાસના १२वी ते . . "फासुएसणिज्जेण असणाणखाइमसाइमेण पडिलाभेज्जा, पाडिहारिएण पीढफलगसिज्जा संथारएंण उवनिमंतेज्जा" प्रासु मेषएाय २५शनપાન ખાદિમ સ્વાદિય રૂ૫ ચાર પ્રકારના આહારથી તેમને પ્રતિલાભિત કરવા, સમપણીય પીઠફલક, શય્યાસંસ્તાર ને ગ્રહણ કરવા માટે તેમને વિનંતી કરવી ૩, આ तनी मा धर्मायायनी विनय, - प्रतिति छ.. "एवं ताव तुम ५ एसी ? एब जाणासि त्हावि ण तुमं ममं वाम,वामेण जाव पट्टिता मम एयम8 अक्खामित्ता जेणेच सेयविया गयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए".3 प्रशिन् ! न्यारे तभै मा प्रमाणे Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ राजप्रश्नीयसूत्रे टीका-"तए णं केसीकुमारसमणे" इत्यादि-ततः खलु केशाकुमारश्रमणः प्रदेशिनं रानानम् एवमवादीत्-हे प्रदेशिन् ! त्वं जानासि · यत् कति-कियन्त आचार्याः प्रज्ञप्ताः ? । इति प्रश्ने प्रदेशा प्राह हन्त ! जानामि, यत् त्रयः-त्रिसंख्यकाः आचार्याः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-कलाऽऽचार्यः-द्वासप्तति प्रकारकलाशिक्षकः १, शिल्पाऽऽचार्यः-विज्ञानशिक्षकः २, धर्माऽऽचार्यः-धर्मोपदेशकः ३। पुनः केशी पृच्छति-हे प्रदेशिन ! त्वं जानासि खलु यत् तेपाम्-अनन्तरोक्तानां त्रयाणामाचार्याणां मध्ये कस्याऽऽचार्यस्य का-कीर्शा ? विनयप्रतिपत्तिः-विनयप्रकारः प्रयोक्तव्या कर्तव्या ? । हन्त ! जनामि, तत्र कलाऽऽचार्यस्य शिल्पाऽऽचार्यस्य च उपलेपनं तैलाभ्यङ्गः, तथा-संमज्जनं-स्नपनं कुर्यात्-स्नपये दित्यर्थः, तथा पुरतःतयोरग्रे, पुष्पाणि वा समानयेत्, मण्डयेत्-पुष्पमाल्यादिनाऽलकुर्यात्, भोजयेतभोजनं कारयेत्, विपुलं-बहु जीविताह-जीवनयोग्यं प्रीतिदान सहर्ष वस्त्रादिदानं दद्यात्, तथा पुत्रानुपौत्रिकी-पुत्रपौत्रादि निर्वाहयोग्यां वृत्तिं जीविकां कल्पयेत्-सम्पादयेत् २ । इति कलाऽऽचार्य-शिल्पाऽऽचार्ययोर्विनयप्रतिपत्तिमुक्त्वा धर्माऽऽचार्यस्य तां कथयितुं प्रक्रमते-यत्रैच-यस्मिन्नेव स्थले धर्माऽऽचार्य पश्ये जाव वट्टित्ता मम एयमझं अक्खाभित्ता जेणेव सेयविया णयरी तेणेव पहारेत्य गमणाए-" हे प्रदेशिन ३ जब तुम इस प्रकार से विनयप्रतिपत्ति को जानते हो तब भी तुमने मेरे प्रति प्रतिकूलरूप व्यवहार से यावत् प्रवृत्ति करके उस प्रतिकूल व्यवहार जनित अपराध को क्षमा कराये विना जहाँश्वेतविका नगरीथी वहीं पर जाने का निश्चय किया ॥ सू० १५६ ॥ टीकार्थ-स्पष्ट हैं, "कल्लाणं-मंगलं-देवयं-चेइयं पञ्जुवासे ज्जा-" इन पदों की व्याख्या चतुर्थ सूत्रमें की जा चुकी है । “वामं वामेणं-" इस यावत् पदसे"दण्ड दण्डेन-प्रतिकूल प्रतिकूलेन-प्रतिलोम प्रतिलोमेन-विपर्यासं विपर्यासेन" इन पदों का संग्रह हुवा है, इन् पदोंकी व्याख्या पीछे की जा चुकी है. ॥सू० १५६॥ વિનય પ્રતિપત્તિ ને જાણે છે છતાં એ તમે એ મારા પ્રત્યે પ્રતિકૂલ રૂપ વ્યવહારથી યવત પ્રવૃત્તિ કરીને પ્રતિકૂલ વ્યવહાર જનિત અપરાધને ક્ષમા કરાવ્યા વગર ત્યાં શ્વેતાંબિકા નગરી છે ત્યાં જવાને તમે નિશ્ચય કર્યો. એ . ૧૫૬ . साथ-२पट छ. "कल्लाण मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासेज्जा" २ पहाना व्याच्या याथा सूत्रमा मावी छ. “वाम वामेण" भां मावेत यावत् पहथी “दण्ड दण्डेन प्रतिकूलप्रतिकूलेन प्रतिलोम प्रतिलोमेन विपर्यासं विपर्यासेन" मा पहाना સંગ્રહ થયે છે. આ પદની વ્યાખ્યા પહેલાં કરવામાં આવી છે. ૧૫૬ ! Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका स. १५७ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीप्रदेशिराजवर्णनम् ३४५ तत्रैव-तस्मिन्नेव स्थले वन्देत नमस्येत सत्कुर्यात् सन्मानयेत् कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्य पर्युपासीत" एतेषां व्याख्या चतुर्थसूत्रतो बोध्या, तथा तं धर्माचार्य प्रासुकै पणीयेन-अचित्तकल्पनीयेन अशन-पान-खादिम-खादिमेन-अशनादि चतुर्विऽऽधाहारेण प्रतिलभ्येत्-चतुर्विधाहार तस्मै दद्यादिति भावः, तथा. तं प्रातिहारिकेण-पुनः समर्पणीयेन पीठफलकशय्यासंस्तारकेण उपनिमन्त्रयेत् तद्ग्रहणे प्रार्थयेत् ३। एवं तावत प्रथम प्रदेशिन् ! ₹ मेवम्-अनन्तरोक्तप्रकारां विनयरूपां प्रतिपत्तिं जानासि, तथाऽपि खलु त्वं मम वामवामेन-प्रतिकूलतरेण व्यवहारेण यावत्-यावत्पदेन "दण्डदण्डेन, प्रतिकूलप्रतिकूलेन, प्रतिलोम-प्रतिलोमेन विपर्यासविपर्यासेन" इत्येषां पदानां साहो बोध्यः, व्याख्याऽपि तत्रैव विलोकनीया, वर्तित्वा-उक्तव्यवहारेण युक्तो भूत्वा मम एत-मया सह प्रतिकूलव्यवहारजनितम् अर्थमअपराधम् अक्षामयित्वा यत्रैव श्वेताविका नगरी तत्रैव गमनाय प्राधारयत्निश्चय कृतवान् । ॥ सू० १५६ ॥ भी मूलम-तए णं से पएसी राया केस कुमारसासणं एवं वयासी एवं खलु भंते ! मम एयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्थाएवं खलु अहं देवाणुप्पियाणं वामवामेणं जाव वहिए तं सेयं खलु मे कलं पाउप्पभाए रयणीए फुल्लुप्पलकमलकोमल्लुम्मिलियम्मि अहापंडुरे पभाए रत्तासोगकिसुय-सुयमुह-गुजद्ध-रागसरिसे कमलागरनलिणिसंडबोहए उठ्ठियम्मि सूरे सहस्संरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलंते अंतेउरपरियालसद्धिं संपरिवुडे देवाणुप्पिए बंदि. त्तए नमंसित्तए एयम? भुजो भुजो सम्म विणएणं खामित्तएत्ति कटु जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए ।। तए णं से पएसी राया कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव तेयसा जलंते हटतुट जाव हियए जहेव कूणिए । तहेव निग्गच्छइ, अंतेउरपरियालसद्धिं संपरिबुडे पंचविहेणं अभिगमेणं वंदइ नम.. सइ, एयमद्रं भुजो भुजो सम्म विणएणं खामेइ ॥सू०.१५७॥ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीयमत्र छाया-ततः खलु स प्रदेशी राना केशिनं कुमारश्रमणमेवमवादीत्-ए।' खलु भदन्त ! मम एतद्रूपः आध्यात्मिकः यावत् समुदपद्यत-एवं खलु अहं देवानुप्रियाणां वामवामेन यावत् वर्तितः, तन् श्रेयः खलु मे कल प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां फुल्लोत्पलकमलकोमलोन्मीलिते अथाऽऽपाण्डुरे प्रभाते रक्ताशोक-किंशुकशुकमुख-गुजार्द्धरागसदृशे कमलाकरनलिनीपण्ड-बोधके उत्थिते सूरे सहस्ररश्मी दिनकरे तेजसा ज्वलति अन्तःपुरपरिवारैः सार्द्ध संपरिवृतो देवानुपियान वन्दि मूलार्थ-"तए ण से पएसी राया-" इत्यादि "तएण से पएसी राया केसि कुमारसमण एवं वयासी-" ३५९ इसके बाद प्रदेशी राजाने केशी कुमारसमण से -सा कहा-"एवं खलु भंते !-- मम एयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था" हे भदन्त-३ मुझे ऐसा आध्यात्मिक यावत् संकल्प उत्पन्न हुवा. "एवं खलु अहं देवाणुप्पियाणं वाम वामेण जाव पट्टिए. तं सेयं खलु मे कल्लं पाउप्पभायाए रयणोए फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियम्मि अहा पांडुरे पभायाए रत्ता साग fसुय-सुयमुह गुंजाद्धरागसरिसे, कमलागरनलिणिसंडबोहए-" मैंने आप देवानुप्रिय के साथ प्रतिकूल रूप से यावत् व्यवहार किया है, अतः-मुझे यही श्रेयस्कर है कि-म कल जब रजनी प्रभातयुक्त हो जावेंगी, अर्थात-रात्रि समाप्त हो जावेगी. और कमल तथा हरिणविशेपके नेत्र ये दोनों विकसित हो जावेंगे, अर्थात् कमल जब खिल जावेगा. और-हरिणविशेप की आंखे शयन करलेने के बाद खुल जावेगी. तथा-प्रभातका रङ्ग जब पीत घवल हो जावेगा. रक्ताशोक-किंशुक 'तएणं से पएसी गया. इत्यादि। सूत्रार्थ -'तएणं से ५एसी गया केसि कुमारसमणं एवं वयासी ॥१५७॥ त्या२ पछी प्रदेश २ - शीशुभा२ श्रमाने आ प्रमाणे ४थु 'एव खलु भते ! मम एयारूवे अझथिए जाव समुप्पज्जित्था' 3 महत! मेवा मध्यात्म यावत् स४८५ 4-1 थयो. "एवं खलु अहं देवाणुप्पियाण चामं वामेण जाव वट्टिए तं सेयं खलु मे कनल पाउप्पभाग ए रयणीए फुल्लुप्पल कमलकोमलुम्मिलियम्मि अहापांडुरे पभाए रत्तासोगक्सुियसुयमुहगुजद्धरागसरिसे कमलागार नलिणिसंडवोह ए" में मा५ हेवातुप्रियना साथे प्रति ३५यी यावत् વ્યવહાર કર્યો છે. તેથી મારા માટે એજ વાત શ્રેયસ્કર છે કે હું આવતી કાલે જયારે રાત્રિ પ્રભાત યુકત થઈ જશે, એટલે કે રાત્રિ પૂરી થઈ જશે, અને કમળ તથા હરિણું વિશેષના નેત્રો વિકસિત થઈ જશે, એટલે કે કમળ જયારે વિકસિત થઈ જશે અને હરિણ વિશેષની આંખ નિદ્રા ત્યાગ કર્યા બાદ ઉઘડી જશે તેમજ પ્રભાતને રંગ જયારે પીત ધવલ. (પીળા અને સફેદ) થઈ જશે, રકતાશે, કિંશુક 1 Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सु. १५७ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् : ३४७ त्या नमस्यित्वा एतमर्थं भूयो भूयः सम्यग् विनयेन क्षामयितुम्, इति कृत्वा यामेव दिशं प्रादुर्भूतः, तामेव दिशं प्रतिगतः । ततःखलु स प्रदेशी राजा कल्यं प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां यावत् तेजसा .लति हृष्टतुष्ट यावद् हृदयः यथैव कूणिकः तथैव निर्गच्छति अन्तःपुरपरिपलाश-शुकमुख एवं-गुजा-रत्ती के अधस्तन का अर्घभाग जैसा लाल. तथा-सरोवरों में कमलिनी कुल का विकाशक, "उट्टियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलंते-" ऐसा सहसकिरणोंवाला एवं-दिनकर्ता सूर्य जब अपने तेज से प्रज्वलित होता हुवा आकाश में उदित हो जावेगा, तव-"अते उर परियालसद्धिं संपरिबुडे देवाणुप्पिए वंदित्तए 'नमंसित्तए एयमद्वं भुज्जो-२ सम्म विणएणं-खामित्तए ति कडे जामेव दिसि पाउन्भूए. तामेव दिसिं पडिगए". मैं अन्तःपुर परिवार से युक्त होकर आप देवानुग्रिय की वन्दना-नमस्कार औरपूर्वोक्त अपराध रूप अथे को विनय के साथ प्रशस्त नम्र भावसे बार-२ क्षमापना के लिये आऊंगा. इस प्रकार केशी स्वामी से निवेदन कर वह जिस दिशा से आया था-उसी दिशा की ओर चला गया. "तएणं से पएसी राया कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव तेयसा जलंते-" इसके बाद दूसरे दिन जब रजनी रात्री प्रभातप्राय समाप्त हो चुकी और- भात हो गया यावत् सूर्य अपने तेज से देदीप्यमान हो उठा-तब वह-"हट्ट तुट्ठ जाव हियए जहेव क्रूणिए तहेव निग्गच्छ-" हृष्टतुष्ट यावत् हृदयवाला होकर कूणिक नरेश की तरह अपने स्थान से निकला પલાશ, શુકમુખ અને ગુંજાના નીચેના અર્ધા ભાગ જેવો લાલ તેમજ સરોવરમાં કમલીની કુલને वीनाश 'उहियम्मि सूरे सहासरम्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलंते" गोवा सहस्त्र કરણવાળ અને દીનાઁ સૂર્ય જ્યારે પિતાના તેજથી પ્રજવલીત થતો આકાશમાં उदय पाम, त्या अंतेउरपरियालसद्धि संपरिबुडे देवाणुप्पिए वंदित्तए नम सिनए एयमट्ठ भुज्जो २ सम्म विणएण' खामित्तए त्ति कटु जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए" त्यारे मत:५२ परिवा२नी साथे मा५ धातुપ્રિયને વંદન અને નમસ્કાર કરવા માટે અને પૂર્વે કત અપરાધરૂપ અર્થને સવિનય પ્રશસ્ત નમ્ર ભાવથી વારંવાર ક્ષમાપના માટે આવીશ. આ પ્રમાણે કેશીકમારને વિનંતી કરીને તે જે દિશા તરફથી આવ્યું હતું તેજ દિશા તરફ જતો રહ્યો. "तएण' से पएसी राया कल्ल पाउप्पभाषाए रयणीए जाव तेयसा जलते" ત્યાર પછી બીજા દિવસે જ્યારે રાત્રિ પૂરી થઈ અને પ્રભાત થયું યાવતુ સૂર્ય પિતાના तेल्या प्रशित गयो. 'त्यां२ ते 'हट्टतुट्ट जाच हियए जहेव कूणिए तहेव । निग्गच्छई" हट तुष्ट यावत् इयवाणी ने अणि रागनी भ पाताना स्थानथी Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ गजपनीय सूत्र वारैः सार्द्ध संपरिवृतः पञ्चविधेन अभिगमेन वन्दने नमम्यति, एतमर्थ भृयोभ्यः सम्यग् विनयेन क्षामयति ॥ सू० १५७ ।। टीका--"तए णं पएसी राया" इत्यादि-ततः ग्वलु म प्रदेशी गजा केशिनं कुमारश्रमणम्, एवमवादात्-हे भदन्त ! ए ग्वलु मम एतद्रूपः-अनुपदं वक्षमाणस्वरूपः आध्यात्मिकः-आत्मगतः क्षमापनारूपोर्चाकुर इन, यावत्-गान्पदेन "चिन्तितः, कल्पितः, प्रार्थितः, मनोगतः, संकल्पः' इत्येषां पदानां सङ्ग्रहो बोट, तत्र "अंतेउरपरियालसद्धिं संपरिबुडे पंचविहेणं अमिगमेण वंद-नमंसह-" निकल ते ही वह अन्तःपुर परिवार से परिवेष्टित हो गया. इस तरह से प्रदेशी गजाने पांच प्रकारके अभिगम से केशीकुमार श्रमण की गन्दनाकी-उनकी स्तुति की. "एयमट्ठे भुज्जो भुज्जो सम्म विणएणं खामेइ-" स्तुति नमस्कार करके फिर उसने अपने प्रतिकूल आचरण से जनित अपराव की बार-२ अच्छी तरह से विनत्र भावसे युक्त हो कर क्षमा कराई, अर्थात-क्षमा मांगी ____टीकार्थ-प्रदेशी राजाने केशीकुमारश्रमण से इस प्रकार कहा-हे भदन्त ! अब मुझे इस प्रकार का यह आध्यात्मिक विचार उत्पन्न हुवा. कि-मैं अपने प्रतिकूल आचरण से जनित अपराध की आप से बार-बार क्षमा करावें, यहविचार आत्मगत होने से पहले तो अङ्कुर की तरह उत्पन्न हुग. अतः-उसे आध्यात्मिक रूपसे प्रकट किया गया है. बाद में यावत् पदसे चिन्तितः कल्पितःप्रार्थितः-मनोगतः इन विशेषणों वाला हवा है कि यह विचार स्मरणरूप बन नीज्या. "अंतेउरपरियालसाद्ध सपरिवुडे पंचविहेण अभिगमेण चदइनमसई" नीsudi ara पोताना त:५२ परिवारथी पीटा गयो. l પ્રમાણે તૈયાર થયેલા પ્રદેશી રાજાએ કેશી કુમારશ્રમણની પાસે જઈને પાંચ પ્રકારના અભિગમથી કેશી કુમારશ્રમણની વન્દના કરી તેમની રતુત કરી, નમસ્કાર કર્યા. "एगम भुज्जो २. सम्म विणएण खामेई" स्तुति तमा नभ२ रीने पछी તેણે પિતાના પ્રતિકૂળ આચરણથી થયેલ અપરાધની વારંવાર સારી રીતે વિન ભાવથી ચુકત થઈને ક્ષમા માંગી. ટીકાર્થ–પ્રદેશી રાજાએ કેશીકુમારશ્રમણને આ પ્રમાણે કહ્યું–હે ભદંત ! હવે મને આ જાતને આધ્યાત્મિક વિચાર ઉત્પન્ન થયે છે કે હું મારા પ્રતિકૂળ આચરણથી થયેલ. અપરાધ બદલ આપશ્રી પાસેથી વારંવાર ક્ષમા માંગું. આ વિચાર આત્મગત હોવાથી પહેલાં તે અંકુરની જેમ ઉત્પન્ન થયે. એથી તેને આધ્યાત્મિક ३थे ४८ ३२वाभा मा०यो छ.. त्या२ पछी यावत् पहथी - "चिन्तितः, कल्पितः, प्रार्थितः मनोगतः', २॥ विशेषणेथी युत थथे। छ, वियाग्ने वितित पहथी Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका स. १५७ सूर्य भिदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् (Kring", चिन्तितः-पुनः पुनः स्मरणरूपो विचारो द्विपत्रित इव, ततः कल्पितः स व्यवस्थायुक्तः 'क्षामयेगम्ः' इति परिण ने विचारः पल्लवित इव, स एव प्रार्थित:इष्टरूपेण स्वीकृतः पुष्पित इव, मनोगतः सः सि दृढरूपेण निश्चयः "इथमेन मया कर्तव्यम्' इति विचारः फलित इव समुदपद्यत समुत्पन्नः एवं खलु अहं देवानुप्रियाणां भवतां वामवामेन यावत् यावत्पदेन “दण्डदण्डेन प्रतिकूलमतिकून प्रलोम प्रतिलोमेन पयसविपर्यासन' इत्येषां स हो बोध्यः, एषां व्यारूळा पूर्वं गता, वर्तितः प्रवृत्तः तत् तस्मात्कारणात् मे मम श्रे :-प्रशस्तं यत् गया. अर्थात मुझे अपने अपराध की आपसे क्षमा कराना है. ऐसी स्मृति मुझे बार चार आने लगी. इसलिये - यह विचार द्विपत्रित अड्डर की तरह प्रथम अबस्था की अपेक्षा कुछ विशेष पुष्ट होने से चिन्तित प्रकट किया गया है । तथा ...वही विचार जब व्यवस्थायुक्त हो गया. कि मुझे अवश्य ही इस रूपसे क्षमा कराना है तो द्वितीय अवस्थाकी अपेक्षा और अधिक पुष्ट हो जाने के कारण यह पल्लवित हुवे अङ्कुर की तरह कल्पित पद से विशेषित किया गया है. तथा जब वही विचार इष्ट रूप से स्वीकृत कर लिया गया. तो वह पुष्पित हुवे अङ्कुर की तरह हो गया. और जब वही विचार मनमें दृढ रूपसे निश्चय की स्थिति में परिणत हो गया के ऐसा ही मुझे करना है. तो फलित हुबे अर्केर की तरह वह हो गया. क्या विचार उत्पन्न हुवा इसी बात को वह अब प्रकट करता है कि हे भदन्त ! मैंने आप देवानुप्रिय के साथ बहुत अधिक प्रतिकूलरूपसे. यावत् दण्ड दण्डरूपसे. अतिशय प्रतिकूलरूपसे व्यवहार किया है. વિશેષિત કરષામાં આવ્યા છે. તેનુ કારણ આ છે કે તે વિચાર મરણુરૂપ થઇ ગયા હતા. એટલે કે મને મારા અપરાધની આપશ્રીના પાસેથી ક્ષમા કરાવવી છે, એવી સ્મૃતિ વાર વાર આવવા લાગી, એથી આ વિચાર દ્વે પત્રિત અ’કુરની જેમ પ્રથમ અવસ્થા કરતાં કઇક વિશેષ પુષ્ટ હેાવાથી ચિંતિત રૂપમાં પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે. તથા તેજ વિચાર ર યા છે. વ્યવસ્થાયુકત થઈ ગયા કે મારે ચાક્કસ આવિને ક્ષમા યાચના કરવી છે તે દ્વિતીય અવસ્થા કતાં વધારે તે વિચાર પુષ્ટ થઈ જવાથી એ પલ્લવિત થયેલા અ'કુરની જેમ કલ્પિત પદ્મથી વિશેષિત કરવામાં આવ્યા છે. તેમજ જ્યારે તે જ વિચાર ઈષ્ટ રૂપથી સ્વીકૃત થઇ ગયા તે તે પુષ્પિત થયેલ અંકુરની જેમ થઇ ગયા અને જ્યારે તે વિચાર વનમાં દૃઢરૂપથી નિશ્ચયની સ્થિતિમાં પરિણત થઇ ગયા કે મારે કરવું છે થયા ? એજ વાતને હવે • येवु . ફલિત થયેલ અંકુરની જેમ તે થઇ ગયા. શે વિચાર स्पष्ट उरतो आहे छ -हे लहंत ! भें साथ देवा ४ ३४९. एक પાનાથે બહુજ પ્રતીકૂળ રૂપથી યાવત્. દડ દડ રૂપથી અતિશય પ્રતીકૂળરૂપથી અતિશય પ્રતિલામરૂપથી અને અતિશય વિપરીત રૂપથી વ્યવહાર કર્યાં છે, એથી મારા Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० राजप्रश्नीयमूत्र कल्य-श्वः प्रादुष्प्रभाता प्रकाशप्रकाशितायाम्, गजन्यां रात्रौ फुल्लोत्पलकमलकामलोन्मीलिते-फुल्ल विकसितं यद् उत्पलं-कमलं, तच्च कपलं च हरिणविशेषश्रेनि फुल्लोत्पलकमलौ, तयोर्यत् कोमलं मृदु उम्मीलनं तत्र फुल्लोत्पलपत्राणां विकसनं हरिणनयनयोः शन नन्तर पुटमोचनम् च यस्मिन नन फुल्लोत्पल कमलकामलोन्मीलितं तस्मिन्, अथ प्रभातानन्तरम् आ-समन्तात् पाण्डुरे पीतधवले प्रभान प्रा. काले रक्ताशोककिंशुक शुकमुरव गुञ्जारागसदृशे तत्र रक्तांशोकः रक्तवर्णो शोकः, fशुकः पलाशः, शुकमुखं, गुजाईरागः गुजायाअधातनाय रागः, एने रक्तवणेः सदृशे तुल्ये, अस्य "सूरे" इति परेण सम्बन्धः, एमिग्रेनानामपि, कम् लाकरनलिनीपण्डवोधके सरोवरगतकमलिनीकुलविकाशके सूरे सूर्ये उत्थिते इसलिये मेरा कल्याण अब इसी मे है कि में दूसरे दिन जबकि रात्रि प्रभात के रूप में परिणत हो जावे. अर्थात् प्रातःकाल हा जाय. और इसमें कमल उत्पल एवं हरिण विशेष की आंखें निद्राविगम के बाद प्रफुल्लित हो जाय कमल विकसित हो जाय. एवं हरिणों के नेत्र अच्छी तरह से खुल जाय तथा वह प्रभात समन्तात पीत धवल प्रकाशवाला हो जावे, एवं सहस्रकिरणों से सम्पन्न तथा दिवस विशयक मय जो कि कमलाकर सरोवर में नलिनी कुलकाबोधक विकाश करनेवाला होता है जब रक्ताशीकाकशुक शुकमुख और गुजार्ध गुंजा के सदृश उदित हो जावे तथा उसका काश अच्छी तरह से फैल जावें तव में अन्तःपुर परिजनों से परिवृत होकर आप देवानुपिय, की वन्दना के लिये नमस्कार के लिये आऊ और अपने पूर्वोक्त अपराधरूप अर्थकी आपसे वार २ विनम्र भाव युक्त हो कर क्षमा मांगू, इस प्रकार से वह प्रदशी राना केशीश्रमणकुमार के प्रति निवेदन कर अपने स्थान पर गया.। दूसरे दिन जब पूर्वोक्तरूप से प्रभात માટે હવે એજ શ્રેયસ્કર છે કે હું આવતી કાલે જ્યારે રાત્રે પ્રભાતમાં પરિણત થઈ જાય એટલે કે સવાર થઈ જાય, કમળ ઉત્પલ અને હરિ વિશેની આંખ નિદ્રા હિત થઈને પ્રફુલિત થઈ જાય. કમળો વિકસિત થઈ જાય અને હરિણાના નેત્રો સારી રીતે ઉઘડી જાય તથા પ્રભાત સમંતાતુ પીતધવલ પ્રકાશયુકત થઈ જાય અને સહસ્ત્ર કિરણોથી સંપન તેમજ દિવસ વિધાયક સૂર્ય કે જે કમલાકર સરોવર માં નલિની કુલને વિકસિત કરનાર છે. તાશક, કિશઠ, શક મુખ અને મુંજાઈની સદશ તે ઉદિત થઈ જાય તેમજ તેને પ્રકાશ સારી રીતે પ્રસરી જાય, ત્યારે હું અંતપુર પરિજનોથી પરીવૃત્ત થઈને આપ દેવાનુપ્રિયને વંદન તેમજે નમસ્કાર કરવા માટે અહીં આવું. અને પૂર્વોકત અપરાધ બદલ આપશ્રી પાસેથી વિનમ્ર થઈને વારંવાર ક્ષમા યાચના કરૂં. આ પ્રમાણે તે પ્રદેશ રાજા કેશીકુમારશ્રમણને વિનંતી કરીને સ્વસ્થાને ગશે. બીજા દિવસે જયારે પકિતરૂપથી પ્રભાત પૂર્ણરૂપે વિકસિત થઈ ગયું ત્યારે તે Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका स. १५७ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवनदेशिराजवणनम् ३५१ उदिते सति, पुनः कीदृशे तस्मिन ? सहस्ररश्मौ-किरणसहस्रसम्पन्ने दिनकरेदिवसकरणशीले तेजसा-दीप्त्या ज्वलति-देदीप्यमाने सति, अन्तःपुरपरिवारैः राज्ञीपरिवारैः संपरिकृतः- युक्तः सन् अहं देवानुप्रियान् वन्दितु नमस्यितुम्. एतमर्थ-पूर्वोक्तापराधरूपमथ भूयोभूयः-पुनः पुनः सम्यम विनयेन-प्रशस्तनम्रभावेन क्षामयितुम् । इतिकृत्वा-केशिस्वामिने इति निवेद्य यामेव दिशं समाश्रित्य प्रादुर्भूतः तामेव दिशं प्रतिगतः। ततः खलु स प्रदेशी राजा कल्यं-श्वः प्रादुष्प्रभातायो रजन्यां यावत्यावत्पदेन अनन्तरप्रोक्तोरितनपदानां फुल्लोत्पलादीनां सङ्ग्रहो बोध्यः, तदर्थश्च तत्रैव ज्ञेयः। तेजसा ज्वलति इष्टतुष्ट यावत्-यावत्पदेन चित्तानन्दितः, परमसौम स्थितः, हर्षवश विसर्पद्धद -:, इत्येतत्पदसङ्ग्रहो बोध्यः । यथा-येन प्रकारेण कूणिकः-तन्नामा श्रेणिकराजपुत्र औपपातिकसूत्रे वर्णितो निर्गतः, तथैव-तेनैव प्रकारेण निर्गच्छति-स्वभवनान्निःसरति, तन्निर्गमनवर्णनमौषपातिकमत्रतो बोध्यमिति तात्पर्यम् । निर्गत्य अन्तःपुरपरिवारैः संपरिवृतः-वेष्टितः पञ्चविधेनपञ्चप्रकारेण सचितानां द्रव्याणां व्युत्सर्जनेन १, अचित्तानां द्रयाणामव्युत्सर्जनेन२, काल का सूर्य उदित हो गया. तब वह हृष्टतुष्ट यावत् चित्तानन्दित हुवा. परमसौमयित हुवा हर्षवश विसर्पत् हृदयवाला (पत्म आनंदयुक्त हुवा) औपपातिकसूत्र में वर्णित श्रेणिक राजपुत्र कूणिक नरेशकी तरह अपने भवन से निकला. कूणिक नरेश के निकलने का वर्णन औपपातिक सूत्र में किया गया है। निकलते ही वह अन्तःपुर परिवार जनों से परिवेष्टित कर लिया गया. और पांच प्रकार के अभिगम से युक्त हो कर वह प्रदेशी राना केशीकुमारश्रमणकी वन्दना आदि करने के लिये चल दिया. वहां पहुंचकर उसने उनका वन्दना की नमस्कार किया. और स्वकृत तिकूल आचरणजनित अपराधों की बडे विनम्रभावयुक्त होकर क्षमा मांगी. । पांच प्रकारके अभिगम इस प्रकारसे ? सचित्तद्रव्योंका परित्यागकर હૃષ્ટ તુષ્ટ યાવત્ ચિત્તાનંદિત થયે, પરમસીમનાસ્મિત થયે, હર્ષ વિસર્પત હદયવાળા થયે. ઔયપાતિસૂત્રમાં વર્ણિત શ્રેણિક રાજપુત્ર કૃણિક નરેશની જેમ પોતાના ભવનથી તે નીકળે. કૃણિક નરેશના નીકળવાનું વર્ણન ઔપપાતિક સૂત્રમાં કરવામાં આવ્યું છે. બહાર નીકળતાં જ તે અન્તપુર પરિવાર જનેથી વીંટળાઈ ગયો-ઘેરાઈ ગયા અને પાંચ પ્રકારના અભિગમથી યુકત થઈને તે પ્રદેશ રાજ કેશી કુમારશ્રમણની વંદના વગેરે કરવામાં માટે નીકળી પડ્યો. ત્યાં પહોંચીને તેણે તેમને વંદન અને નમસ્કાર કર્યા અને વકૃત પ્રતિકૂળ આચરેણુજ જનિત અપરાધ બદલ તેણે વિનમ્રભાવ યુક્ત થઈને ક્ષમા માંગી. પાંચ પ્રકારના અભિગમ આ પ્રમાણે છે, ૧, સંચિત્ત દ્રવ્યને Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ राजश्री एकशा टिकोत्तरासङ्ग करणेन३, चक्षुःस्पर्शे अञ्जलिकरणेन ४, मनस एकत्वकरणेन५, चेत्येव रूपेण अभिगमेन - विनयविधिविशेषेग, वन्दते- स्तौति, नमस्यनि-नमस्करोति वन्दित्वा नमस्थित्वा च एतमर्थ - प्रतिकूलाचरणजनिता राधरूपं भूयोभूयः - चारवारम् सम्यग् विनयेन - प्रशस्तत रविनम्रभावेन श्रामयति मां कारयति । ॥ १५७॥ मूलम् - तए णं केसी कुमारसपणे पएसिस्त रण्गो सूरिकंतप्पहाणं देवीणं तीसे य मह महालयान परिसाए चाउज्जामं परि । तणं से पएसी राया धम्मं मोच्चा निसम्म के सिकुमारसमणं बंदह नर्मसह जेणेव संयविया नगरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए । सू० १५८ ॥ उट्टाए छाया - ततः खलु केशी कुमारभ्रमणः प्रदेशिनो राज्ञः सूर्यकान्ता-मुखानां देवीनां तस्यां च महाऽतिमहालय परिषदि चातुयोगं धर्म परिकथयति । ततः खलु स प्रदेशी राजा धर्मं श्रुत्वा निशम्य उत्याग उत्तिष्ठति केशकुमारश्रमणं वन्दते नमस्यति यत्रैव "वेतविका नगरी तत्रैव प्राधारयद् गमनाय ||घू. १५८॥ دا देना, ण अचत्त द्रव्यों का पढ़ित्याग नहीं करना, २ एक शाटिका उत्तरायङ्ग करना - विना सीये वस्त्रसे उत्तरासग करना, है - देखने ही हाथ जोड लेना, और- ५. मनकी एकाग्रता करना ॥ १५७॥ सूत्र - "तएण केसीकुमारसमणे - " इत्यादि ॥ १५८॥ मूलार्थ - "तएम" इसकेबाद "केसीकुमारसमणे" केशीकुमारश्रमणने "पएसिस्स रगोस्सू रिकंतप्पमुहाणं देवीगं तीसेय. महइ महाल गए परिसाए - " प्रदेशी राजा के समक्ष एवं उसकी सूर्यकान्ता आदि प्रमुख गवियों के समक्ष उस विशाल परिपदा में "चाउज्जाम धम्मं " अहिंसा - सत्य - अस्तेय, एवं - अपरिग्रह रूप चातुर्याम धर्मका उपदेय दिया. "तरण से पएसी रावा धम्म सोच्चा પરિત્યાગ કરવા, ૨, અચિત્ત દ્રવ્યેાના પરિત્યાગ નહિં કરવેા, ૩ એક શાટિકા ઉત્તરાસહગ કરવા, ૪ વગર સીવેલા વસ્ત્રોથી ઉત્તરાસગ કરવા. જોતાની સાથે જ હાથ જોડી લેત્રા અને ૫, મનની એકાગ્રતા કરવી ! સૂ. ૧૫૭ ॥ 'सूत्रार्थ - "तएण केसीकुमारसमणे इन्यादि" भूसोर्थ - "त एण" त्यार पछी "केसी कुमारसमणे" शी कुमार श्रम "पए सिस्स रणो सूरिकप्प मुहाणं देवीण तीसे महड़ महाकयाए परिसाए" પ્રદેશી રાજાની સામે તેમજ તેની સૂ કાન્તા વગેરે પ્રમુખ - રાણીએની સામે તે विशाण परिषद्याभां 'चाउज्जाम धम्म" अहिंसा, सत्य, अस्तेय मने अपरिग्रहड्य यातुर्याम धर्मना उपदेश आया. "तएण से पएसी राया धम्म सोच्चा निसम्म Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सु. १५८ सूर्याभिदेवस्य पूर्व भवजी प्रदेशिराजवर्ण नम् ३५३ टीका - "तए णं केशिकुमारसमणे" इत्यादि - ततः खलु केशिकुमारश्रमणः प्रदेशिनो राज्ञः सूर्यकान्ता प्रमुखानां देवीनां तस्यां तत्र स्थितायां च ...महातिमहा अतिबृहत्याम्, परिषदि चातुर्यामम् अहिंसा सत्या स्त्येयाऽपरिग्रहैर्विभक्त चतुर्महाव्रतरूपं धर्मं परिकथयति - परूपयति । उपलक्षणाद् द्वादशविधं गृहिधर्म परिकथयति ततः खलु स प्रदेशी राजा धर्मम्-नगराध सामान्यतः श्रवणगोचरं कृत्वा निशम्य विशेषतो हृद्यवधायें उत्थया - उत्थानप्रयासेन उत्तिष्ठति उत्थान केशिकुमारश्रमण वन्दते - स्तौति, नमस्यति नमः स्करोति, वन्दित्वा नमस्त्विा च यत्रैव श्वेतांधिका नगरी तत्रैव गमनाय धारयत्- निश्चितवान् । ।। १५८ ।। मूलम् - तणं केसी कुमारसमणे परसिराय एवं क्यासी-सा र्ण तुमं पएसी ! पुब्वि रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे भवि णहसालाइ वा इक्वाडएड़ वा वणसंडे पुवि रमणिज्जे भवि - पएसी ! जहा णं वणसंडे पत्तिए जासि, जहा से वणसंडेइ वा खलवाडएइ वा । कं णं भंते! त्ता पच्छा अरमणिजे भवइ ? - निसम्म उठाए उछेड़ - " इसके बाद प्रदेशी राआ धर्म सुन कर और उसे हृदय में धारणकर अपने आप वहां से उठा - "केसीकुमारसमणं वंदइ नमसह -" उठा. र उसने केशीकुमार श्रमण की बन्दनों की उन्हें नमस्कार किया. “जेणेव सेयंविया नयरी तेणेव पहारेत्थं गमगाए - वन्दना नमस्कार कर फिर वह अपनी नगरी की ओर चलदिया। टीकार्थ- स्पष्ट है - केशीकुमारश्रमणने चातुर्याम धर्म के उपदेश और- साथ-साथ १२ प्रकाररूप गृहस्थ धर्म का भी उपदेश दिया. ऐसा कथन उपलक्षण से जान लेना चाहिये ।। सृ. १५८ ।। लादया । टीक उट्ठाए उट्ठेइ" त्यार पछी अदेशी राम धर्म सांभजीने गने तेने हृध्यमां धाराशु श्रीने पोतानी भेणे ? त्यांथी लो थयेा: " केसी कुमारसभण व दइ नमस उला थने तेथे वैशी कुमारश्रभाणुनी वहना पूरी तेमने नमस्कार ४. जेणेव सेयचिया नगरी तेत्रैव पहात्रेथ गमणाए" वढना तेमन नमस्र ने छी ते पोतानी नगरी त२३ रवाना थह गया. साथै ટીકા-સ્પષ્ટ છેકેશીકુમારશ્રમણે ચાતુર્યામ ધર્મના ઉપદેશ અને તેની સાથે ૧૨ પ્રકારરૂપ ગૃહિધના પણ ઉપદેશ આધા હતા, એવું કથન ઉપલક્ષણથી लगी सेषु लेो. ॥ सू. १५८ ॥ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ राजप्रभीयसूत्रे पुष्फिए फलिए हरिए हरियगरेरिज्जमाणे सिरीए अईव उवसोभेमाणे चिंटू, तया णं वणसंडे रमणिजे भंवड़, जया णं वणसंडे नो पत्तिए नो पुष्फिए नो फलिए नो हरिए नो हरियगरे रिजमाणे णो सिरीए अईव उवसोमेमाणे चिटूइ जया णं जुन्ने झडे परिसडिय - पंडुपत्ते सुरु इव मिलायमाणे चिट्ठइ तयाणं वणसंडे अरमणिज्जे भवइ १ । जया णं णसाला वि गिज्जइ वाइजइ नच्चि - जइ होसज्जइ रमिज्जइ तयाणं णहसोला रमणिजा भवइ, जया णं नहसाला णो गिजड़ जाव णो रमिजइ, तया णं णसाला अरमणिजो भवइ २ | जया णं इक्वाडे छिनइ भिज्जइ पीलिजइ खज्जड़ पिजड़ दिजइ तया णं इक्खुवाडे रमणिजे भवइ, जया णं इक्खुवाडे णो छिज्जइ जाव तया इक्खुवाडे अरमणिज्जे भवइ ३, जयाणं खलवाडे उच्छुन्भइ मलिज्जइ खज्जइ दिग्जइ तया खलवाड रमणिज्जे भवइ, जयार्ण खलवाड नो इच्छुभइ जवि अरमणिज्जे भवइ ४ । से तेणं पएसी ! एवं वुच्चइ मा णं तुम पएसी ! पुवि रमणिज्जे भविता पच्छा अरमणिज्जे भविजासि जहा वणसंडे वा जवि खलवाडइ वा ॥ सू० १५९ ॥ छाया—–ततः खलु केशिकुमार श्रमणः प्रदेशिराजमेवमवादीत्- - मा खलु त्वं प्रदेशिन् ! पूर्वं रमणीयो भूत्वा पश्चाद् अरमणीयो भवेः, यथा स वनपण्ड इति "तए णं केसीकुमारसमणे - " इत्यादि । सू. १५९ ॥ मूलार्थ - "तए णं" इसके बाद "केसी कुमारसमणे" केशी कुमारश्रमणने पएसी रायं एवं वयासी " प्रदेशी राजा से ऐसा कहा - " मा णं तुमं पएसी ? सूत्रार्थ - "तए ण केसीकुमारसमणे" इत्यादि ॥ सू. १५९ ॥ भूसार्थ-“तएण" त्यार पछी "केसीकुमार समणे" शी हुभार श्रभो “६एसी राय एवं वयासी" प्रदेशी शन्नने या प्रभा - "माण तुम पएसी ! पुि Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका स. १५९ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् .. ३५५ वा नाटयशाला इति वा इक्षुवाटकम् इति वा खलवाटकम् इति वा कथं खलु भदन्द ! वनपण्डः पूर्व रमणीयो भूत्वा पश्चाद् अरमणीयो भवति ? । प्रदेशिन् ! यथा खलु बनषण्डः। पत्रितः पुष्पितः फलितः हरितः हरितकराराज्यमानः श्रिया अतीव उपशोभमानः तिष्ठति, तदा खलु वनषष्डो रमणीयो भवति, यदा खलु पुच्चि रमणीए भवित्ता पच्छा-अरमणिज्जे भविज्जासि-" हे प्रदेशिन्-! तुम पहले रमणीय होकर बाद में अरमणीय मत बनना. अर्थात्-धार्मिक होकर अधार्मिक मत बन जाना "जहा से वणसंडेइवा-गट्टसालाइवा-इक्खुवाडएइवाखलवाडएइ वा-" जैसे पूर्व में रमणीय होकर वनषण्ड अरमणीय बन जाता है, अथवा नाटयशाला, या इक्षु पीडन स्थान या-खलवाटक पूर्व में रमणीय होकर अरमणीय बनजाते हैं. अब प्रदेशी पूछता है-"कहं णं भंते ? वणसंडे पुचि रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे भवइ-" हे भदन्त ? वनपण्ड पूर्व में रमणीय होकर बाद में अरमणीय किस प्रकार से हो जाता है-३ "उत्तर में प्रभु कहते हैं-"पएसी-जहा णं वणसंडे पत्तिए-पुष्फिए-फलिए हरिया रेरिजमाणे सिरीए अईव उवसोभेमाणे-तयाणं वणसंडे रमणिज्जे भवइ-" हे प्रदेशिन् ? बनषण्ड जव पत्रों से युक्त होता है-पुष्प सम्पन्न होता है-फलित फली से सहित होता है, हरियाली से युक्त होता है. हरे हरे पत्ते आदि से अतिशय सुहावना होता है तब वनपण्ड अपनी शाभासे सुशोभित होता हुवा रमणीय होता है, रमणीए भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे भविज्जासि" उ प्रहशिन् ! तमे पाडला २मણીય થઈને પછી અરમણીય બનશે નહિ, એટલે કે ધાર્મિક થઈને અધામિક બનશે नाड, “जहा से वणसं डेइ वा णट्टसरलाइवा इवखुवाडएइवा खल गडइवा" म पडला રમણીય થઈને વનખંડ પછી અરમણીય થઈ જાય છે. અથવા નાટયશાળા કે ઈશ્નપીડનસ્થાન કે ઈક્ષનાટક પહેલા રમણીય થઈને પછી અમણુય થઈ જાય છે. હવે अशी ५१ ४३ छ."कहणं भते ! वणसंडे पुचि रमणिल्जे भरित्ता पच्छा अरमणिज्जे भवई महत! वनष पडता रमणीय थाने पछी मरमणीय ४४ शत थ य छ 3, उत्तरमा ४९ छ “पएसी जहाणं वणसंडे पत्तिए पुफिए फलिए हरिए हरियगरेरिज्जमाणे सिरीए अईव उपसोभेमाणे तयाण वणसंडे रमणिज्जे. भवइ" प्रशिन वन न्यारे पत्राथी युत सय छ, पुष्प સંપન્ન હોય છે, ફળ યુક્ત હોય છે. હરીતિમાથી યુકત હોય છે તેમજ લીલા પાંદડાઓ વગેરેથી આ અતિશય. સેહામણે હોય છે, ત્યારે તે વનખંડ પિતાની ભાથી સુશોભિત થતે રમણીય હોય છે. એટલે કે આ પ્રમાણે વનખંડ રમણીય કહેવાય છે. Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - राजप्रश्नीयसूत्र वनषण्डा नो पत्रितो नो पुष्पितो नो फलितो नो हरितः नो हरितकराराज्यमाना नो श्रिया अतीव उपशोभमानः तिष्ठति, यदा खलु जीर्णः शन्नः परिशटित पाण्डुपत्रः शुष्क वृक्ष इव म्लायन् तिष्ठति तदा खलु वनपण्डो नो खलु रमणीयो भवति ।। यदा खलु नाटयशालाऽपि गीयते वाद्यते नय॑ते हस्यते रम्यते तदा खलु नाटयशाला रमणीया भवति, दा खलु नाटयशाला नो गीयते यावत् नो रम्यते तदा खलु नाटयशाला अरमणीया भवति । अर्थात्-इस प्रकार से वनपण्ड रमणीय कहा जाता है. जयाणं वणसंडे नो पत्तिए-नो पुफिए-नो फलिए नो हरिए-नो हरियगरेरिज्जमाणे, णा सिरीए अईव उव सोममाणे चिट्टइ-परन्तु-जव वही वनपण्ड पत्रित (पत्रवाला) नहीं रहता है. पुष्पित (पुप्पवाला) नहीं रहता है-फलित नहीं रहता है-हरा नहीं रहता है, एवं-हरे-२ पत्तों आदिसे अतिशय सुहावना नहीं रहता है, तब अपनी शोभा से रहित हो जाता है, तथा-"जयाणं जुन्ने झड़े पडिसडियपंडुपत्ते सुकरुवखे इच मिलायमाणे चिट्ठइ-' जब वही वन जीर्ण पत्रादिकों से रहित हो जाता है, पत्ते आदि सब जब झर जाते हैं, विकृत पाण्डुवर्णवाले पत्र जब उसमें हो जाते हैं, तथा-शुष्क वृक्ष की तरह जब वह म्लान हो आता है. "तयाण वणसंडे अरमणिज्जे भवई-" तब वह वनखण्ड अरमणीय बन जाता है-? "जयाणं णट्टसाला विगिज्जइ-बाइज्जइ-नच्चि ज्जइ-हसिज्जइ रमिज्जइतयाणं गट्टसाला रमणिज्जा भवइ-' इसी तरहसे-हे प्रदेशिन ? जब तक नाटय शाला गानयुक्त होती रहती है, वादित्रों की ध्वनि से वाचालित होती है, "जयाणं णसंडे नो पत्तिए-न' पुफिए-नो फलिए नो. हरिए-नो हरियगरेरिजमाणे, णो सिरीए अईद उबसोभमाणे चिट्टई" પણ તેજ વનખંડ જ્યારે પત્રિત રહેતું નથી, પુષ્પિત રહત નથી, ફલિત રહેતું નથી, લીલે રહેતો નથી અને લીલા લીલા પાંદડાઓ વગેરેથી અતિશય શોભાયમાન રહેતું નથી ત્યારે તે પોતાની શોભાથી રહિત થઈ જાય છે તથા "जया णं जुन्ने झडे पडिसडियपंडुपत्ते सुक्करुक्खे इव मिलायमाणे चिटई" જયારે તે વન જીર્ણપત્રાદિકેથી યુકત થઈ જાય છે, પાંદડાઓ વગેરે બધા ખરી પડે પડે છે, તેમાં પાંદડાઓ વિકૃત તેમજ પાંડુવર્ણવાળા થઈ જાય છે તેમજ શુષ્ક વૃક્ષની म न्यारे दान थ य छ “तयाण वणसंडे अ'मणिज्जे भवइ" त्यात वन मभ२०ीय थ य छ. "जयाण गट्टसाला विगिजइ बाइज्जइ नच्चिज्जइ हसिज्जइ रमिज्जइ तयाणं णसाला रमणिज्जा भवइ' - प्रमाणे 3 प्रशिन જ્યાં નાટયશાળામાં સંગીત ચાલતું રહે છે, તેમાં વાજિંત્રે વાગતા રહે છે, તેમાં નાચ થતું રહે છે, પાત્રોના હાસ્યથા જયાં સુધી તે મુખરિત થતી રહે છે અને વિવિધ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सू. १५९ सूर्याभदेवत्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवनम् यदा खलु इझुवाटकं छिद्यते भिद्यते पीडयते खाद्यसे पीयते दीयते तदा खलु इक्षुबाट रमणीयं भवति, यदा खलु इक्षुवाटक नो छिद्यते यावत् तदा इक्षुवाटकम् अरमणीयं भवति। यदा खलु खलबाट म् अवक्षिप्यते मद्यते उड्डाय्यते खाद्यते दीयते तदा खलु खलवाटकं रमणीयं भवति तत् तेनार्थेन प्रदेशिन ! एवमुच्यते मा खलु त्व उसमें नच होता रहता है. पात्रों की हस्सी से जव नक. वह खिल खिलाती रहती है, एवं विवि र प्रकार की क्रीडाओं की क्रीडास्थला बनी रहती है. तब तक वह नाटः शाला सुहावनी लगती है. "जागंणसाला णा गिज्जइ, जावको रमिज्जइ. तयाणं गट्टसाला अर-णिज्जा भवइ-२" और-जब वह नाटयशाला गीतों से रहित हो जाती है, वादित्रों की तुमुल ध्वनि से विहीन हो जाती है. यावत्-विविध प्रफार की क्राडाओं से वह शून्य हो जाती है, तब वही नाटयशाला अरमणीक हो जाती है-२ । "जयाण इक्खुवाडे छिज्जइ - भिजइ-पीलिज्जाइ-खज्जइ-पिज्जइ-दिज्जइ. तयाण इक्खुबाडे रमणिज्जे सवइ, जयाण इक्खुवाडे णो-छिज्जइ-जाव तया. इक्खुवाडे अरमणिज्जे भवइ-३' इसी ताह जव त हे प्रदेशिन् ? इक्षु- सेलडी क्षेत्रमें इक्षु कटते रहते हैं पत्ते आदि उनसे दूर किये जाते रहते हैं उन्हें यन्त्रद्वा । पीडित कर उनका रस निकाला जाता ‘हता है बना हुवा गुड वहां चखा जाता रहता है लोग वहां निकाले हुवे सशे पीते रहते हैं, तथा-मिलने जुलने वालों को इक्षु दिया जाता __ रहता है. तब तक तो वह इक्षुबाट रमणीय बना रहता है और जब तक इक्षु પ્રકારની ક્રીડાઓની તે કીડા સ્થલી રહે છે. ત્યાં સુધી તે નાટયશાળા સહામણી લાગે છે "जयाणं णसाला पो गिज्जइ, जाव णो रमिज्जइ तयाणं णसाला अरमणिज्जा भवइ २" मने क्यारे नाटया भीतरहीत थ य छ, वामित्रानी तुमुद તુમુલ ધ્વનિ રહિત થઈ જાય છે યાવત વિવિધ પ્રકારની કીડાઓથી શૂન્ય થઈ જાય छ, सारे ते १ नाटयशाणा A२भी थ/ ४५ छ.२ "जयाणं इक्खुवाडे छि ज्जइ मिन्जइ, पीलिजाइ खजइ पिज्जइ, दिजइ, तयाण इवखुवाडे रमणिज्जे भवइ, जयाणं इक्खुवाडे णो छिज्जइ जाव तजा इक्खुवाडे अरमणिज्जे भवइ ३" २al પ્રમાણે હે પ્રદેશિન્ ! જ્યાં સુધી ઈશુ શેરડીના ખેતરમાં શેરડી કપાતી રહે છે, પાંદ* ડાઓ વગેરેની સાફસૂફી થતી રહે છે, યંત્રમાં નાખીને તેમાંથી રસ નીકળતો રહે છે, તૌયાર થયેલ ગોળ ત્યાં લેકે વડે ચખાતે રહે છે, ત્યાંથી પસાર થતા લેક શેરડીમાંથી નીકળેલ રસ પીતા રહે છે, તથા મળવા માટે આવનારાઓને શેરડી અપાતી રહે છે ત્યાંસુધી તે તે ઈશુવાટ રમણીય રહે છે અને જયારે તે ઈક્ષવાટમાં પૂર્વોકત Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ राजपनी सूत्रे प्रदेशिन् ! पूर्व रमणीयो भूत्वा पश्चाद् अरमणीयी भवेः यथा बनाण्ड इति वा यावत् खलवाटम् इति वा ॥म. १५९ ॥ ___टीका-"तए ण केसी कुमारसमणे" इत्यादि-ततः खलु केशी कुमारश्रमणः प्रदेशिरा नम एवमत्रादीत-मा खलु प्रदेशिन ! त्वं पूर्वम्-आदौ रमणीयः-धा मिको भूत्वा पश्चाद् अरमणीयः-अधार्मिको मा भवेः, यथा-येन प्रकारेण वन__पण्ड इति वा नाट्यशाला-नाटयभवनम् इति वा इक्षुवाटकम्-इक्षुपीलनस्थानम् वाटमें ये पूर्वोक्त सब काम बन्द कर दिये जाते हैं, अर्थात-इन कार्यों से वह रहित बन जाता है. तब वही इक्षुबाट अरमणीय लगने लगता है "जयाणं खलवाडे उच्छुभइ-मलिज्जइ उड्डिज्जइ खज्जइ-दिज्जइ, तयाण खल भाडे रमणिज्जे भवइ, जयाणं खलवाडे णो उच्छंभइ, जाव-अरमणिज्जे भवइ ४ ' इसी प्रकार से हे प्रदेशिन्-? खलिहान जबतक धान्य के ढेर लगे रहते हैं. दाय कण मर्दन होती रहती है, उडावनी होती रहती है, वहीं पर उसकी रक्षार्थ रक्षक के निमित्त लाया हुवा भोजन खाया जा रहा है. दूसों की वहीं पर जब तक अनान वगै ह दिया जाता रहता है. तबतक तो वह खलिहान रमणीय लगता रहता है, और-जब यह सब काम होना उममें बन्द हो जाता है तब वह अरमणीय लगने लगता है-४ "से तेगडेण पएसी-2 एवं बुच्चइ-मा णं तुम पए-सी? पुटिव रमणिज्जे भवित्ता पच्छा-अरणिज्जे भविज्जासि जहा वगसंडे वा जाव खलवाडेइ वा-" इसी लिये हे प्रदेशिन्–? मैंने ऐसा कहा है कि तुम पहले रमणीय होकर अरमणीय मत वन जावो, जैसे-कि वनपण्ड यावत् खलवाट हो जते हैंબધી ક્રિયાઓ બંધ થઈ જાય છે ત્યારે તે ઈક્ષુવાટ અરમણીય લાગવા માંડે છે. "जयाण' खलवाडे उच्छुब्भइ-मलिजइ, उड्डिजइ, खजइ, दिजइ, तयाण खलवाडे रमणिज्जे भवइ, जयाण खलवाडे णो उच्छन्भइ, जाव-अरमणिज्जे भवइ ४" આ પ્રમાણે છે પ્રદેશિન ! ખળામાં જ્યાં સુધી ધાન્યના ઢગલાઓ રહે છે, કણસલાં ગુંદીને અનાજ કઢાતું રહે છે. અનાજ ઉપણાતું રહે છે, ત્યાંના રખેવાળ માટે ત્યાં પહોંચાડેલું ભેજન જમાતું રહે છે, બીજાઓને ત્યાં જ્યાં લગી અનાજ વગેરે અપાતાં રહે છે ત્યાં સુધી તે ખળું રમણીય લાગે છે. અને જયારે આ બધું કામ બંધ થઈ तय छ, त्यारे ते १२भाय सा मांउ छ. ४ "से तेगटेण पएसी ! एवं बुच्चद-मा ण तुम पएसी ! पुराव्य रमणिज्जे भवित्ता पच्छा-अरमणिज्जे भविजासि जहा वणसंडेडवा जाव खलवाडे वा" मेटसा भाट उ प्रशन् ! में माम :घु છે કે તમે પહેલાં રમણીય થઈને પછી અરમણીય બનશે નહિ. જેવી રીતે વનખંડ યાવત ખળું થઈ જાય છે. Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सू. १५९ भदेवस्य पूर्वभ जी प्रदेशिराज पनम् ३५९ इति वा खलवाटकम् इति वा पूर्व रमणीयं भूत्वा पश्चादरमणीयं भवतीति ! तत्र प्रदेशी पृच्छति-हे भदन्त ! कथं-केन प्रकारेण बनषण्डः पूर्व रमणीयो भूत्वा पश्चादरमणीयो भवति ? । एवं नाटयशालेञ्जवाट-खलवाटविषयेऽपि प्रश्नय जना कर्तव्या। तत्र क्रमेण तेषां रमणीयत्वारमणीयत्वे प्रदर्शयितु केशी पाह-'पएसी' इत्यादि-हे प्रदेशिन् ! यथा वनदण्डः पत्रितः-पत्रसम्पन्नः, पुप्पिन:-पुष्पसम्पन्नः फलितः-फलसम्पन्नः, हरितः-हरितत्वसम्पन्नः हरितकराराज्यमानः-हरितवणे पत्रपल्लवादिभिरतिशयेन शोभमानः, अत एव श्रिया-शोभया, अतीव-अत्यन्तम् उपशोभमानः-शोमां प्राप्नुवन् यदा तिष्ठति-वर्तते, तदा-तस्मिन् काले च स अनपण्डो नो पत्रितः नो पुष्पितः नो फलितः नो हरितः नो हरितका राज्यमानः अत एच नो श्रियाऽतीवोपशोभमानो भवति, यदो च जीर्णः-जीर्णपत्र पल्लगदियुक्तः शन्नः-प्रपतितपत्रादिकः, अत्र शदा झडादेशः, परिशटितपाण्डुपत्र:विकृतपाण्डवर्णपत्रयुक्तः शुष्कवृक्ष इव म्लायन्-म्लानतां गच्छन् सन तिष्ठते, तदा खलु वनपण्डो नो रमणीयो भवति १। प्रदेशी पृच्छति-हे भदन्न ! नाटयशाला 'कथं रमणीया भूत्वा चारमणीया भवति ? केशी पाह-हे प्रदेशिन्! यदा खलु नाटयशालाऽपि गीयते-गानयुक्ता भाति वाद्यते-बाद्यवादनयुक्ता भवति नृत्यते-नृन्ययुक्ता भवति, हस्यते-हास्ययुना भवनि, रम्यते-क्रीडनयुक्ता भवति, तदा खलु सा रमणीया भवति, यदा खलु नो गीयते-यावत् नो वाद्यते 'ना नयेते नो हस्यते नो भ्यते, तदा खलु सा अरमणीया भवति २। अावाटविषय काश्ने केशी प्राह-हे प्रदेशिन ! यदा खलु इक्षुवाटम् इक्षुक्षेत्रे इक्षुः छिद्यते-द्विधा क्रियते, भिद्यते-बिदार्य ते, पीडयते-यन्त्रेण रसो निःसार्यते, खाद्यते-गुडादिकम्, पीयते-रसः, दीयते-इक्ष्वादिकं, तदा खलु इक्षुघाट रमणीय भवति । यदा खलु इक्षुबाट नो छिद्यते यावत् नो पीडयते नो खाद्यते नो पीयते नो दीयते, तदा इक्षुबाटम् अरमणीयं भवति । ३। टीकार्थ-स्पष्ट है, "झडे" यहाँपर शद् के स्थान में झड आदेश हुवा है. संस्कृत में इस की छाया "शन्नः" ऐसी होती हैं। केशाने-इस सूत्र द्वारा प्रदेशी राजा को पहिले रमणीय होकर अरमणीय बन जाने वाले वनपण्ड आदिचार को दृष्टांतरूप में रखकर यह समझाया. है कि-तुम ऐसे मत बन जाना. ॥१५९॥ ___ -२पष्ट ६. 'झेड' ही 'शदना स्थान 'झड' माहेश थयो छ. संस्कृत માં એની છાયા “શન હોય છે. કેશીએ આ સૂત્ર વડે પ્રદેશ રાજાને પહેલાં રમણીય થઈને પછી અરમણીય થઈ જનારા વર્ષડ વગેરેને દૃષ્ટાંત રૂપમાં આપીને આ સમજાવવામાં આવ્યુ છે કે તમે એવા થશે નહિ. સ. ૧૫લા Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० राजप्रश्नीयसूत्र अथ खलबाटविपयग्रश्ने केशी प्राह-हे प्रदशिन ! र दा खलु खलाट सस्यकणमर्दनपरि करणस्थानम् तत्र धान्यम्-अवक्षिप्यते-पुश्रीक्रियते, मद्यते-बलीबर्दादिभिः, उड्डाय्यते-प. ने पू. ते, ग्याद्यते, दीयते तदा खलु रयलबाट रमणीयं भवति । दा खलु नो अवक्षिप्ते यावत् नो मते नो उदारमते, नी ग्वाद्यते ना दीयते तदा अरमणीयं भवति । तत् हे प्रदेशिन ! तेन-दनपण्डादि दृष्टान्तरूपेण अर्थन एवम् उच्यते-करते-यत हे प्रदशिन ! त्वं पूर्व रमणीयो भूत्वा पश्चादरमणीया मा भवः, यथा वनपण्ड इति वा यावत्-नाट शालेति वा इक्षुबाटम् इति वा खलवाटम् इति वा ॥स. १५९॥ ____ मूलम---तए पं पएसी केसिं कुमारसमणं एवं क्यासी-जो खल भंते ! अहं पुच्चि रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणीजे भविस्सामि जहां वणसंडेइ वा जाव खलवाडेह वा, अहं सेयविया नयरीपमुक्खाई सत्त गामसहस्साई चारि भागे करिस्सामि, एगं भागं बलवाहणस्स दलइस्सामि, एणं भागं कुटीगारे भिस्लामि, एग भोगं अंतेउरस्त दलइस्सामि, एगेणं भागेणं महइमहालयं कूडागारसालं करिस्सामि, तत्थ णं वहहिं पुरिसेहि दिन्नभइभत्तवेयणेहिं विउलं असणं पाणं खाइमं उवकावडावेत्ता वहणं समणमाहणभिक्खुयाणं पंथियवहियाणं परिभाएमाणे वहहिं सीलव्वयगुणव्वयवेरमणव्वयपच्चरखाणपोसहोववाहि अप्पाणं भावेमाणे विहरिस्सामित्ति कटु जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए । ॥ सू० १६० ॥ . ____ छाया-ततः खलु प्रदेशी केशिनं कुमारश्रमणम् एवमवादीत्-नो रनलु भदन्त ! अहं पूर्व रमणीयो भूत्वा पश्चादरमणीयो भविष्यामि, यथा वनपण्ड इति वा यावत् खलवाटमिति वा, अहं खळु वेतविकानगरी प्रमुखानि सप्त ग्रामसहस्राणि चतुरो भागान् करिष्यामि, .एकं भागं बलवाहनस्य दास्यामि, एकं भाग कोष्ठागारे क्षेप्स्यामि, एकं भागमन्तःपुरोय दास्यामि, एकेन भागेन महाऽतिमहालयां कूटाऽऽकारशालां करिष्यामि, तत्र खलु बहुभिः पुरुपैः दत्तभृतिभक्त Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६१ सुबोधिनी टीका सू. १६० सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् "तए ण पएसी के-सिं" इत्यादि ॥१६० सूत्र।। सूत्रार्थ-'तएणं' इसके बाद 'पएसी' प्रदेशी राजाने-“केसि कुमारसमण एवं बयासी-" केशीकुमारश्रमण से ऐसा कहा-'यो खलु भंते-? अहं पुब्धि रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे भविस्सामि जहा वणसंडेइ वा जाव-खलवाडे चा-" हे भदन्त ? मैं पहले रमणीय होकर अव वनपण्ड, अथवा यावत खलबाट सेलडीका खेत की तरह अरमणीय नहीं बनूंगा. "अहं सेयविया नयरी पमुक्खाइ सत्त गामसहस्साइं चत्तारिभागे करिस्सामि-" मैं वेतांबिंका नगरी प्रमुख सातहजार ग्रामों को चार विभागों में विभक्त करूंगा. "एकं भागं बलवाहणस्स दल इस्सामि-" इन में से एक भाग तो बल-और वाहन के लिये दूंगा. “एगे भागे, कुठागारे छुभिस्सामि-' दूसरा भाग काष्ठागार में प्रजापालन के लिये रक्खूगा. “एगं भागं अंतेउरस्स दलइस्सामि-" एक भाग को तीसरेको मैं अन्तःपुर रक्षा के लिये दूंगा. "एगेणं-भागेणं महइमहालयं कूडागारसालं करिस्सामि-' एक भाग से चौथे से मैं एक बहुत ही विशाल कूटागारशाला बनवाऊंगा -"तत्थ ण वहहिं पुरिसेहिं दिन्नभइभत्तवेयणेहिं विउल असणं पाण" नाइमं साइम उवकरस्नडावेत्ता वहूर्ण समग-मारहण-भिकखुयाणं पंथिय पहियाण परिभाएमाणे-" उसमें जनेक पुरुषो को सवेतनिक रूपमें रक्खूगा. "तए ण पएसी केसिं " इत्यादि ॥१६॥ सूत्रार्थ-'तए ण' त्या२ पछी 'पएसी' प्रहेसन्तये 'केसि कुमारसमणं एवं वयासी' शी भा२ श्रमणुन मा प्रमाणे प्रयु. “णो खलु भते ! अहं पुचि रमणिज भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे भविस्सामि जहा वणसंडेइ वा जाव खलवाडेइ वा" 3 महत ! ( पडता रमणीय धन वे वनष 3 यावत् पानी म २०२भ||य नहि. "अहं सेविया नयरी पमुक्खाई सत्तगामसहस्साई चत्तारि भागे करिस्सामि" श्वेतवा नगरी प्रभु सात st२ ॥मान - यार मागोमा विभाति , “एकं भागं वलवाहणस्स दलंइस्सामि" मामांथी मे मा मस (सेना) मन वाईन भाट मापीश. "एगे भागे कुट्टागारे छभिस्साभि माने माम प्र पान माटे हो २१भीश. "एगं भाग अंतेउरस्स दलइस्सामि". alon मे भागने मन्त:पुरनी २क्षा भाटे ..मापाय, “एगेणं भागेणं महइमहालय : कूडागारसालं करिस्सामि" याथा - elkatथी हुने वि ॥२॥२ .avn ristी. "तत्थ णं वहूहिं पुरिसेहिं दिन्नभइभत्तवेयणेहिं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं - उवक्खडावेत्ता बहूणं समणमाहणभिक्खुयाणं पंथियपहियाणं परिभाएमाणे" तमा धा ५३वाने पा२ २माधान નીમીશ. તેઓ ત્યાંજ જમશે. તે માણસો પાસેથી હું વિપુલ માત્રામાં અશન–પાન Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपश्नीयमत्र ३६२ वेतनैः विपुलम् अशनं पानं खादिमं स्वादिमम् उपस्कार्य बहुभ्यः श्रमण ब्राह्मणमिक्षुकेभ्यः पथिकप्राघुणेभ्यः परिभाजयन् वहुभिः शीलवतगुणव्रतविरमणव्रतप्रत्याख्यानपोषधोपवासैः आत्मानं भावयमानो विहरिष्यामि, इति कृत्वा यामेव दिशं प्रादुर्भूतः तामेव दिशं प्रतिगतः ॥सू. १६०॥ टीका-"तए णं पएसी" इत्यादि-ततः खलु प्रदेशी राजा केशिनं कुमारश्रमणम् एवमवादीत्-हे भदन्त ! अहं पूर्व रमणीयो भूत्वा पश्चादरमणीयो नो भविष्यामि यथा-येन प्रकारेण वनपण्ड इति वा यावत् नाटयशालेतिवा इक्षुवाटमिति वा खलवाटमिति वा, वनपण्डादिवत् पूर्व रमणीयो भूत्वा पश्चादरमणीयो नो भविष्यामीति, तदेव स्पष्टयति अहं खलु श्वेतांविकानगरी प्रमुखानि सप्त ग्रामसहस्राणि-सप्त सहस्रपरिमितग्रामान् चतुगे भागान्-चतुर्धा विभक्तान् वही वे भोजन करेंगे. उनसे मैं विपुल मात्रा में अशन-पान-खादिम-स्वादिम रूप चारों प्रकारके आहार को तैयार कराऊंगा फिर-अनेक श्रमण माहण भिक्षुकों के लिये. तथा पथिकरूप प्राधर्णिकों के (अतःथविशेप) लिये उस आहार को देता हुवा, एवं-'बहूहिं सीलब्बयगुणचयवेरमणव्चयपच्चक्खाण पोसहोववांसेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरिस्सामि त्तिक? जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए-" अनेकशील व्रतों से गुणवतों से प्रत्याख्यान और-पौपधोपवासोंसे आत्मा को मैं वासित करता हवा. इस प्रकार कह कर वह प्रदेशी राजा जिस दिशा से आया थाउसी दिशा को चला गया. टीकार्थ-स्पष्ट है प्रदेशी राजाने जो इस सूत्र द्वारा अपना अभिप्राय प्रकटित किया है वह में वनषण्डादि कों की तरह पूर्वमें रमणीय होकर अरमणीय नहीं होने की पुष्टि के निमित्त प्रगट किया है इसी बात की पुष्टि अपने सात हजार ग्रामों को चार विभागों में विभक्त करने की है. इसमें एक-२ ખાદિમ-રવાદીમરૂપ ચારે પ્રકારના આહાર તૈયાર કરાવડાવીશ. પછી ઘણુ શ્રમણ भाड भिक्षु भाट तेभल पथि:३५ प्रालि अन ते माडा२ मारतो एवं वहहिं सीलव्ययगुणव्वयवेरमणव्ययपच्चक्खाणपोसाँववासेहिं अप्पाणं भावमाणे विहरिस्सामि त्ति कटु जामेव दिसं पाउव्भूए तामेव दिसं पडिगए" घण! शील તે થી ગુણવ્રતથી, પ્રત્યાખ્યાન અને પૌષધેપવાથી આત્માને હું વાસિત કરતા રહીશ. આ પ્રમાણે કહીને પ્રદેશી રાજા જે દિશા તરફથી આવ્યું હતું તે દિશાએથી જ જતો રહ્યો. ટીકાર્થ–સ્પષ્ટ જ છે. પ્રદેશી રાજાએ આ સૂત્રવડે જે પિતાને અભિપ્રાય પ્રકટ કર્યો છે તે વનખંડ જેમ પહેલાં રમણીય થઈને પછી અરમણીય થઈ જાય છે તેમ તે થશે નહિ એ વાતને સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે. પોતાના સાત હજાર ગામને ચાર ભાગોમાં જે રાજાએ વિભાજિત કર્યા છે તે પણ એ વાતને જ પુષ્ટ કરે છે એમાં Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सु. १६० सोमदेवस्य पूर्वभवजीव प्रदेशिराजवर्णनम् , करिष्यामि, तत्र भागान् इत्यत्र 'भज्यन्त इति भागाः' इति कर्मव्युत्पत्तिर्वोध्या, भावव्युत्पत्त्या तु कर्मणि षष्ठयापत्तिः स्यात् । तेषु चतुर्षु भागेषु एकं भाग पादोनसहस्रद्वयरूपं बलवाहनाय - तत्र वलाय - सैन्याय - वाहनाय - हस्त्यश्वाद्यर्थ दास्यामि १, एकं-द्वितीय भाग कोष्ठागारे - प्रजापालनाय कोशे क्षेप्स्यामि२, मूले क्षिपे छुभादेशः, एक-तृतीय भागम् अन्तः पुराय - अन्तःपुररक्षणाय दास्यामि३, चतुन भागेन महातिमहालयाम् - अतिमहतीं - परम विशालाम, कूटाऽऽकारशालां करिष्यामि, तत्र कूटाऽऽकारशालायां बहुभिः बहुसंख्यैः पुरुषैः कीदृशैः ? दत्तभृतिभक्तवेतनैः - दत्ताः भृतयो - जीविकाः, भक्तानि - आहाराः, वेतनानि - मासिक वृत्तयश्च येभ्यस्ते दत्तभृतिभक्तवेतनास्तैः पुरुषैरिति सम्बन्धः, विपुलं प्रचुरम् अशनं पानं खादिनं स्वादिमम्' इति चतुर्विधाऽऽहारम् उपस्कार्य - सम्पादय बहुभ्यः श्रमणब्राह्मण भिक्षुकेभ्यः, तथा पथिकप्राघुणेभ्यः पथिकरूपाः प्राणाः पथिकप्राघुणाः, न तु सम्बन्धमाश्रित्य प्राघुणाः, तेभ्यः, परिभाजयन्- ददत्, बहुभिः शीलवतगुणव्रत-विरमणव्रत- प्रत्याख्यान- पोषधोपवासैः आत्मानं भावयमानो विहरिष्यामि, इति कृत्वा - इति कथयित्वा यामेव दिशं समाश्रित्य प्रादुर्भूतः तामेव दिशं प्रतिगतः ।। सू० १६० ॥ ३६३ भाग में पाते दो-दो हजार ग्राम आते हैं । सैन्यका नाम-वल, और हस्ती अश्व आदिका नाम वाहन है । प्रजाओं की अच्छी तरह से पालन हो इस अभिप्राय से उसने एक भाग कोश - भण्डार में रखदिया "छुभिस्सामि" की संस्कृत छाया “क्षेप्स्यामि" है क्षिपू का प्राकृत में छुभादेश हुवा है. भृति शब्द का अर्थ जीविका. भक्त शब्द का अर्थ आहार एवं - वेतन शब्द का अर्थ पगार है । पयिक प्रघूर्ण से पथिकरूप से प्राण लिये गये हैं नकि - सम्बन्ध का आश्रित करके प्राघूर्ण लिये गये हैं । सू० १६०॥ તેણે એક ભાગ કાશ—ભડારમાં મૂકયા છે. દરેકે દરેક વિભાગમાં પાણા બે-બે હજાર ગામ છે. સૈન્યનું નામ ખલ અને હાથી ધાડા વગેરેનું નામ વાહન છે. પ્રજાનું સારી રીતે પાલન થઇ શકે તેટલા માટે "छुभिस्सामि" नी संस्कृत छाया "क्षेप्स्यामि " . क्षि ने प्राकृतंभां छुलाहेश थयो छे सृति राष्टनो अर्थ विश ભકત શબ્દના અર્થ આહાર અને વેતન શબ્દના અર્થ પગાર છે. પથિક પ્રાથૂ - (अतिथि३य महेमान)थी पथि४३५थी आघूर्ण (महेमान) सेवामां भाव्यां छे. सबंधने આશ્રિત કરીને પ્રાણ લેવામાં આવ્યાં નથી. už. ૧૬૦૫ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ ग़जप्रश्नीयमुत्रे . मूलम्--तए णं से पएसी राया कलं जाव तेयसा जलंते सेयावि पामोक्खाइं सत्त गामसहस्साइं चत्तारि भाए कीरइ, एगं भागं वलवाहणस्स दलइ जाव कूडागारसालं करेइ, तत्थ णं बहू हिं पुरिसे हिं जाव उवक्खडावेत्ता बहणं समण० जाव परिभाएमाणे विहग्इ । तए णं से पएसी राया समणोवालए जाए अभिगयजीवाजीवे जाव विहरइ, जप्पभिई च णं पएसी राया समणोवासए जाए तप्पभिई च णं रज च रटं च वलं च वाहणं च कोसं च कोटागारं च पुरं च अंतेउरच जणवयं च अणाढायमाणे यावि विहरइ । ॥ सू० १६१ ॥ छाया-ततः रनलु स प्रदेशी राजा कल्यं यावत् तेजसा ज्वलति श्वेतांविकाप्रमुखानि सप्त ग्रामसहस्राणि चतुरो भागान् करोति, एक भाग बलवाहनाय ददाति यावत् कूटाऽऽकारशालां करोति, तत्र खलु बहुभिः पुरुपैः यावत् उपस्कार्य बहुभ्यः श्रमण० यावत् परिभाजयन् विहरति । "तए ण पएसी राया-" इत्यादि । सूत्रार्थ-"तएणं" इसके बाद "पएसी' राया कलं" प्रदेशी राजाने दूसरे ही दिन "जाव तेयसा जलंते." यावत् नेनसे सूर्य प्रकाशित होजाने पर "सेयविया पामेाकखाई सत्तगामसहस्साई च नारि भाए किरह-" श्वेताविका प्रमुख सातहजार ग्रामों को चार विभागो में विभाजित कर दिया. “एगे भागे बलवाहणस्स दलयइ" इनमें एक भाग वल वाहन के लिये वितरण करदिया. "जाव-कूडागार सालं करेइ-" यावत् चतु र्भाग कूटागारशाला का बनवाने के निमित्त दे दिया. "तत्थ ण बहूहिं पुरिसे हिं जाव-उवकूखडावेत्ता बहूण समण जाव परिभाए माणे विहरइ-" जव "तएणं पएसी गया' इत्यादि. ____.. सूत्रार्थ-'तएणं' त्या२ मा (पएसी राया कल्लं) प्रदेशी साये bilal हिवसे जाव तेयसा जलं ते' यावत तेथी न्यारे सूर्य प्रशित 25 गया त्यारे "सेयंविया पामोक्खाइं सत्तगामसहस्साई चत्तारि भाए कीरइ" तilist प्रभु सात १२ गाभाने या भागाभा पईया नाण्या. "एगे भागे वलवाहण स्स दलयइ” मामा : मास--पाउन माटे मा०ये "जाव कूडागासालं करेह" यावत् याथो मा टा॥२॥ मनावा भाट मा०या. "तर बहूहिं पुरिसेहिं जाव उववखडावेत्ता बहूण समण जाव परिभाएमाणे विहाइ” Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सु. १६१ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवनम् ३६५ ततः खलु स प्रदेशी राजा श्रमणोपासको जातः अभिगत-जीवाजीवः यावद् विहरति, यत्प्रभृति च रनल्ल प्रदेशी राजा श्रमणोपासको जातः, तत्प्रभृति च रनलु राज्यं च राष्ट्रं च वलंच वाहन च कोशच कोष्ठागारं च अन्तःपुरं च जनपद च अनाद्रियमाणश्चापि विहरति । सू० १६१॥ टीका-"तए ण से पएसी" इत्यादि-ततः खलु स प्रदेशी राजा कल्प यावत् एकोनपष्टयधिकशततम १५९ सूत्रोक्तपाठानुसारेण सूर्ये तेजसा-दीप्त्या , ज्वलति-काशमाने सति श्वेतांबिकाप्रमुखानि सप्त ग्रामसहस्त्राणि-ग्रामाणां सप्त कूटागार शाला बनकर तैयार हो गई तब उसमें उसने अनेक पुरूषों द्वारा यावत् चारों प्रकार का अशन-आहार निष्पन्न कराकर उससे अनेक श्रमणादि जनोंको प्रतिलामित करता था याने देता था "तरण से पएसी गया समणोबासए जाए अभिगयजीजीवे जात्र विहाइ-" इसके बाद वह प्रदेशी राजा श्रमणोपासक हो गया. जीव तरा और अजीर तत्व के स्वरूप का भलीभांति से ज्ञाता बन गया. इत्यादि. जप्पभिइ च णपएसी राया समणोवासए जाए तप्पमियं च णं रज्ज च रच वलंच वाहणं च-कासं च काटागारं च-पुरं च अंतेउरं च जणवयं च अणाढायमाणे यावि विहरइ-" अन वह प्रदेशी राजा जिस दिन से श्रमणापासक बना. उसी दिन से अपने गज्य के प्रति. गष्ट्र के प्रति बल के प्रति. वाहन के प्रति, कोष के प्रति, काष्ठागार के प्रति अंत:पुर के प्रति और जनपद के प्रति उपेक्षा मात्र धारण करलिया. इस' सूत्र का टीकार्थ-स्पष्ट है. यहां यावत्पद से"कल्लं जाव" के इस यावत् पदसे १५९ वें सूत्र है जो पाठ इसके पिय में જ્યારે છૂટાગારશાળા તૈયાર થઈ ગઈ ત્યારે તેમાં તેણે ઘણા પુરૂષ વડે યાવત ચારે જાતનો અશન આહાર બનાવ મળ્યા અને તેનાથી ઘણા શ્રમણ વગેરેને પ્રતિલાભિત કર્યા. "तए ण से पएसी राया समणावास ए जाव अभिगयजीबाजीवे जाव विहाइ" ત્યાર પછી તે પ્રદેશ રાજા શ્રમણોપાસક થઈ ગયે, જીવતત્વ અને અજીવત્ત્વના २५३पने सारी ते ज्ञाता थ/ गया बगेर. "जप्पभिई च ण पएसी गया समणोवासए जाए तप्पभियं च ण रजच रटुं च, बलं च वाहणं च. कासं च, काहागारं च, पुरं अंतेउरं च, नणवयं च अणाढायमाणे यावि विहाई" હવે તે પ્રદેશી રાજાએ જે દિવસથી શ્રમણોપાસક થયે, તેજ દિવસથી પોતાના રાજ્ય १२५, २१ त२३, सेना त२३, वाडन त२३, म १२ (५) १२५ 31°४२॥२ प्रति, અંતાપુર પ્રતિ અને જનપદ પ્રતિ ઉપેક્ષા ભાવ ધારણ કરી લીધા. . . ___ -२मा सूत्रना स्पष्ट छ. माडी यावत् पहथी "कल्लं जाव" ना भ થાવત પદથી ૧૫૯ મા સૂત્રમાં જે પાઠ એના વિષે ગૃહીત થયે છે તે જાણવો. Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ राजप्रश्नीयसूत्र सहस्राणि चतुरो भागान्-चतुर्धा विभक्त.नि करोति, कृत्वा तेषु चतुर्यु भागए एकं प्रथम भाग बलवाहनाय ददाति, द्विपष्टयधिकशततम-सूत्रोक्तानुसारेण कुटाऽऽकारशालां करोति । तत्र खलु बहुभिः पुरुपेः यावत् उपस्कार्य बहुभ्यः श्रमण यावत् द्विपष्टयधिकैकशततमसूत्रोक्तानुसारेण श्रमणब्राह्मणभिक्षुकेभ्यः पथिकप्राघुणेभ्यः परिभाजयन् विहति ।। ततः खलु स प्रदेशी राजा श्रमणापासकः-श्रावको जातः कीदृशः ? इत्याह-अभिगतजीवाजीवः चतुर्दशोत्तरशततमसूत्रोक्तविशेषण विशिष्टो भूत्वा विहरति । यत्प्रभृति च-य दनादारभ्य ग्वलु प्रदेशी राजा श्रम गोपासको जातः, तत्तभृति-तदिनादारभ्य च खलु राज्यं-राष्ट्र, वलं, बाहनं, कोशं, कोप्ठागाग्म् पुरस् जनपदं च अनाद्रियमाणः-उपेक्षमाणः चापि विहरति ।।.० १६१॥ मूलम्त ए णं तीसे सूरियकताए देवीए इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था-जप्पभिइ च णं पएली रायो समणोवासए जाए त पभिई च ण रज च रटुं च जाव अते उरं च ममं च जणवयं च अणाढायमाणे विहरइ, त सेयं खलु मे पएसिं रायं केणवि सत्थप्पओगेण वा अग्गिप्पओगेण वा संतप्पओगेण वा विसप्पओगेण वा उद्दवेत्ता सूरियकंतं कुमार रज ठवित्ता सयमेव रजसिरिं कारेमाणीए पालेमाणीए विहरित्तएत्ति को एवं संपेहेइ, संपेहित्ता सूरियकंतं कुमार सदावेइ सदावित्ता एवं वयासी-ज पभिई च णं पएसी राया समणोवासए जाए तापभिइ च णं रज च जाव अंतेउरच जणवय च माणुस्सए च काम भोगे अणादायमाणे विहकहा गया है वह गृहीत किया गया है “जाव कूडागारसालं-" में आगत्त यावत् पद से १६२ सूत्र में जो पाठ कहा गया है वह यहां गृहीत किया गया है। इसी तरह से "पुरिसेहिं जाव-" में आगत यावत् पद से भी ३६२ ये सूत्र में कथित इस विषय का पाठ ग्रहण किया गया है ॥१६१॥ ''जाव कूडागारसालं" मां आवेस यावत् पहथी १६२ भां सूत्रमा २ पाठ छ तेनु डर ४२वामा मा०यु छु. २ प्रमाणे "पुरिसेहिं जाव" भां मावेत यावत् પદથી ૧૬૨માં સૂત્રમાં કથિત આ વિષે ના પાઠનું ગ્રહણ થયું છે. ૧૬ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सु. १६२ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ३६७ रइ त सेय खल तव पुत्ता ! पएसिं रायं केणइ सत्थप्पओगे। वो जाव उद्दवित्ता सयमेव रज्जसिरि कारेमाणस्स पालेमाणस्स विहरित्तए। तए णं सूरियक ते कुमारे सूरियकताए देवीए एव' वुत्ते समाणे सूरियकताए देवीए एयम णो आढाइ णो परियाणाइ तुसिणीए संचिटुइ, तए णं तीए सूरियकताए देवीए इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था-मा णं सूरियकंते कुमारे पएसिस्स रपणो रहस्सभेयं करिस्सइत्ति कह पएसिस्स रपणो छिद्दाणि य मम्माणि य रहस्लोणिय य विवराणिय अंतराणि य पडिजागरमाणी पडिजागरमाणी विहरइ ॥ सू० १६२॥ छाया-ततः खलु तस्याः सूर्य कान्ताया देव्याःअयमेतद्रूप आध्यात्मिकः यावत् समुदपद्यत-पत्प्रभृति च खलु पदेशी राजा श्रमणोपासको जातस्तत्प्रभृति च खलु रा य च राष्ट्रं च यावत् अन्तःपुरं च मां च जनपदं च अनाद्रियमाणो विहरति, तच्छ्रेयः खलु मे प्रदेशिन राजानं केनापि शस्त्रप्रयोगेण वा अग्निप्रयो "तएणं तीसे सूरियकंताए । देवीए'' इत्यादि । मूलार्थ-'तए णं-' इसके बाद 'तीसे सूरियकंताए देवीए- उस सूर्यकान्ता देवी को 'इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-' यह इस प्रकार का आध्यात्मिक यावत् विचार उत्पन्न हुवा-'जप्पमिइंच णपएसी राया समणोवासए जाए-' जिस दिन से प्रदेशी राजा श्रमणोपासक हुवे हैं 'तप्पभियं च ण रज्ज च- उसी दिन से उन्होंने राज्य के प्रति, राष्ट्र के प्रति. यावत् अन्तःपुर के प्रति, तथा-मेरे प्रति, और-जनपद देश के प्रति उपेक्षा "तएण तीसे सरियकताए देवीए” इत्यादि। भूदार्थ-"तए ण' त्या२ पछी "तीसे मरियकंताए देवीए" ते सूर्य प्रता हेवीने "इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था” २ तनेमाध्यामि यावत (क्यार उत्पन्न येो. "जभियं च ण पएसी राया समणाशसए जाए" हिवस था प्रदेशी २० श्रभावीपास* या छ, “तप्पभियं च ण रज्जं च” ते विसथा તેમણે રાજય પ્રતિ, રાષ્ટ્રના પ્રતિ, યાવત અંતપુર પ્રતિ તેમજ મારા પ્રતિ અને नय-देशना प्रति अपेक्षा धा२५१ ४३ वीधी. छ. "तं सेयं खलु मे पएसिं रायं Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ राजप्रश्नीयसूत्र 'गेण वा मन्त्रप्रयोगेण वा विपप्रयोगेण वा उपद्रून्य सूर्यकान्त कुमार राज्य स्थापयित्वा स्वयमेव राज्यश्रिय कारयन्त्याः पालयन्त्या विहतम, इतिकृत्वा एवं संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य सूर्यकान्तं कुमार शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-यत्प्रभृति च खलु प्रदेशी राजा श्रमणोपासको जातः, तत्प्रभृति च खलु राज्य च यावत् अन्तःपुरं च रनलु जनपद च मानुष्यकांश्च कामभोगान् अनाद्रियमाणो विहरति धारण कर रवखा है "त सेयं खलु मे पए सिं रायं केणवि सत्थप्पओगेण वाअग्गिप्पओगेण वा-मंतप्पओगेणवा-विसप्पओगेण वा-उद्दवेत्ता सूरियकंतं कुमार रज्जे ठवित्ता-" अतः-अब मुझे यही उचित है कि मैं प्रदेशी राजा को किसी अस्त्र के प्रयोग से अथवा-अग्नि के प्रयोग से. मारकर मूर्यकान्त पुत्र को राज्य में स्थापित करके "सयमेव रज सिरि कारेमाणीए पालेमाणीए विहरित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ-' अपने आप स्वयं ही राज्य लक्ष्मी का भोग करती हुई, उसका पालन करती हुई, आनन्द से रह-? इस प्रकार का उसने विचार किया-"संपेहित्ता-सरियकंतं कुमार सद्दावेइ-' ऐसा विचार करके फिर उसने अपने सूर्यकान्तः पुत्रको बुलाया. “सद्दावित्ता एवं वयासी-" बुलाकर उसस ऐसा कहा-"जप्पभिई च ण पएसी रोया समणोवासए जाए तप्पभिई च ण रज्ज' च जाव अंतेउर च जणवयं च मणुस्सए च कामभोगे अणाढायमाणे विहरइ-जिस दिन से प्रदेशी राजा श्रमणोपासक बने हैं उस दिन से उन्होंने रा य की ओर-यावत् अन्तःपुर की ओर-और जनपद की ओर, एवं-मनुप्य भवकेण कि सत्थप्पओगेण वा अग्गिप्पआगेण वा-मंतप्पआगेण वा विसप्पओगेणवा उद्दवेत्ता मृरियकंत कुमारं रज्जे ठवित्ता" मेथी भा२३ भाटे हवे ? ઉચિન છે કે પ્રદેશ રાજાને કેઈ શસ્ત્રના પ્રયોગથી કે અગ્નિના પ્રયોગથી કે મંત્રના પ્રયોગથી કે વિષના પ્રયોગથી મારી નાખીને સૂર્યકાંત પુત્રને રાજપાલને मेसाडीने 'सयमेव रज्जसिरिं कारेमाणीए पालेमाणीए विहरित्तइ त्ति कर्ट एवं संपेहेह" पोते. २०य सभीना उपाय शन तेतु रक्षा ४२तां मानव समय पसार ४३. मा प्रमाणे ते पिया२ . “सपेहित्ता सूरियकंतं कुमार सहावेह' मा ततविया ४शन पछी तणे पाताना सूर्यxid पुत्रने मादाव्या. "सद्दावित्ता एवं वयासी" मालावीन तेने या प्रमाणे यु. "जप्पभिच ण पएसी राया समणोवासए जोए तप्पभिह च ण रज्ज'च जाव अंतेउरं च जणवयं च माणुस्सएच कामभोगे अणांढायमाणे विहरइ २ हिवसथा प्रदेशी રાજા શ્રમણોપાસક થયા છે તે દિવસથી તેમણે રાજય તરફ ચાવત્ અંતાપુર તરંફ જનપદ તરફ, મનુષ્યભવ સંબંધી કમભેગો તરફ ધ્યાન આપવું બંધ કર્યું છે. Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका स. १६२ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजी व प्रदेशिराजवर्णनम् ३६९ तच्छ्रेयः खलु तव पुत्र ! प्रदेशिनं राजानं केनापि शस्त्रप्रयोगेण वा यावत् उपद्रुत्य स्वयमेव राज्यश्रिय कारयतः पालयतो विहर्तुम् । ततः खलु सूर्यकान्तः कुमारः सूर्यकान्तया देव्या एवमुक्तः सन् सूर्यकान्ताया देखा एतमर्थ नो आद्रियते नो परिजानाति तूष्णीकः संतीष्ठते । ततः खलु तस्याः सूर्यकान्तायाः देव्या अयमेतद्रूप आध्यात्मिकः यावत् समुदपद्यत - मा खलु सूर्यकान्तः कुमारः सम्बन्धी कामभोग की ओर लक्ष्य देना बन्द करदिया है, अर्थात् - इन सब बातों को अब वे आदर की दृष्टि से नहीं देखते हैं “त सेय खलु वि पुता ? पर्सि राय केड़ सत्थप्पओगेण वा जावं उदचित्ता सयमेव रज्जसिरिं कारेमाणस्स पालेमाणस्स विहरितए - " अतः - हे पुत्र - ३ अब यही योग्य है कि तुम प्रदेशी राजा को किसी भी शस्त्र के प्रयोग से अथवा अग्निप्रयोग से - यावत् विषय के प्रयोग से मारकर स्वयं राज्यश्री का भोग करो उसका पालन करो 'तणं सूरियकंते कुमारे सूरियकंताए देवीए एवं वृत्ते समाणे सूरियकंताए देवीए एयम णो आढाइ, णो परियाणाड़ तुसिणीए संचिट्ठछ - " इस प्रकार सूर्य कान्ता देवी द्वारा कहे गये सूर्यकान्तकुमारने उसकी इस बात को आद की दृष्टि से नहीं देखा और न तो उसकी उसने अनुमोदना ही की, किन्तु इस बात को सुनकर वह केवल चुपचाप ही रहा - "तपणं तीए सूरियकताए इमेयावे अज्झथिए जाव समुपजित्था - " इसके बाद उस सूर्यकान्ता देवी को इस प्रकार का यह आध्यात्मिक यावत् संकल्प - विचार उत्पन्न हुवा - " मा णं खेटले ! तेगो हुवे या घी वस्तुभने महरनी दृष्टिखे लेता नथी. "तं सेयं स्त्र वि पुत्ता ? एसिंग के सत्थप्पओगेण वा जाव उदवित्ता स मेव रज्जसिरिं कारेमा गग्स पालेमा गग्स विहरित्तए" मेथी हे पुत्र ! हवे मे ઉચિત જણાય છે કે તમે પ્રદેશી રાજાને કાઇ પણુ શસ્ત્રના પ્રયોગથી કે યાવત્ વિષ પ્રયાગથી મારી નાખેા અને પોતે રાજયલક્ષ્મીને ઉપલેાગ કરે, તેનું રક્ષણ કરે. "तएण सूरियकंते कुमारे सूरियकंताए देवीए एवंवुत्ते समाणे सरियकंताए देवीए एयमहं णो आढाइ, णो परियाणा, तुसिणीए संचिट्ठा " આ પ્રમાણે સૂર્યકાન્તા દૈવી વડે કહેવાયેલ સૂર્ણાંકાંત કુમારે તેની વાત પ્રત્યે આદર અતાવ્યા નહિ અને તેની વાતની તેણે અનુમેદના પણ કરી નહિ પણ તે તેની साभे भूगो थाने बुला ४ रह्यो “तएण तीए सूरियकंताए इमेयारूवे अज्झथिए जान समुप्पं ज्जित्था " त्यास पछी ते सूर्य अंता हेवीने या लता व्याध्यात्मिऽ यावत् सह्य- विचार - उत्पन्न थयो "माणं वरियकंते कुमारे 4 Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० राजप्रश्नी सूत्र प्रदेशिनो राज्ञः इमं रहस्यभेद करिष्यति, इति कृत्वा प्रदेशिनो राज्ञः छिद्राणि च- मर्माणि च रहस्यानि च विवराणि च, अन्तराणि च प्रतिजाग्रती प्रतिजाग्रती विहाति ॥ सू० १६२ ॥ "टीका-"तए णं तीसे" इत्यादि-ततः खलु तस्याः सूर्यकान्ताया देव्या प्रदेशिराजस्य पट्टराश्या अयमेतद्रूपः-वक्ष्यमाणप्रकारकः आध्यात्मिकः-आत्मगतो विचारः यावत्-यावत्पदेन 'चिन्तितः कल्पितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः" इति संग्राह्यम्, अर्थस्तु पूर्घसूत्रे गतः, समुदपद्यत-संजातः, तदेव दर्शयति-यत्नभृते-दिनादारभ्यः च : रनलु प्रदेशी राजा श्रमणोपासक:-श्रावको जानः, ततात तद्दीनादारभ्य च खलु : राज्यं-स्वाम्पमात्द-सुहृत्-कोप-राष्ट्र-दुर्गसरियकते. · कुमारे पएसि स रण्णो रहस्सभेयं करिसइ त्ति कटु पग सिस्स रप्णो छिंदाणिय-मम्माणिय-रहस्साणिय-विवराणिय-अंतराणिय पडिजागरमाणी पडिजागरमाणी विहरेइ--" सूर्यकान्तकुमार प्रदेशी राजा के पास, अर्थात्-प्रदेशी राजा से मेरी रस मन्त्रणा को.. प्रकाशित न करदे ? अतः वह इस विचार से प्रदेशी राजा के छिद्रों को, दो की, मर्मों को, कुकृत्यरूप लक्षणों को रहस्यों को एकान्तस्थान में सेवित निपिद्ध' आचरणों को, विवरों को. निर्जनस्थानों को, और अवकाश लक्षणरूप अन्तरों को बड़ी सावधानी के साथ वार-२ देखने लगी-अर्थात्-न सब पर वह कडी दृष्टि रख्नने लगी. ॥ . ' टीकार्थ-स्पष्ट है. "अज्झथिए जाव' में आगत इस यावत् पदसे-चिन्तित कल्पित प्रार्थित मनोगत संकल्प, इन पदों का संग्रह हुवा है। इन विचार के विशेषणों का अर्थ पहले प्रकट किया जा चुका है। "ज्ज च. जाव अंतेउर' च-" मैं आगत यावत् पद से-“वलं वाहनं कोप कोष्ठागार पएसि स. रणो रहस्सभेयं करि सह त्ति कटु पएसि स रणो, छिदाणिय मम्मर णिय रह साणिय, विवराणिय अंतराणिय पडिजागरमाणी पडिजागरमाणी विहरई" सूर्यरत भा२ प्रदेशी .यनी पासे-मेरो प्रशी. २ने- भारी. વાત કહી દે નહિ એથી તે પ્રદેશ રાજાના છિદ્રોને, દેને, મને, કુટ્ટ યરૂપ લક્ષણને, રહસ્યોને, એકાન્ત સ્થાનમાં સેવિત નિષિદ્ધિ આચરણાને, વિવોને, નિર્જન સ્થાને અને અવકાશ લક્ષણરૂપ અત્રેને બહેજ સાવધાનીપૂર્વક વારંવાર જોવા લાગી. मेटले. धारिदयाल ५२ हष्ट राभवा माडी. . . . . " Fitथप छ. "अज्झत्यिए जाव"भावसा यावत् पहथा "चिन्तितः कल्पितः 'पार्थितः मनोगतः संघल्पः" ! पहानी संग्रह थयो छ, पहानी मथः पद २५४४२वामां मां-ये। छ. . "रज्जच जाव अंतेउरं च" भi मावस यावत् पट्टेयी - Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका स. १६२ सू· भिदेवस्य पूर्वभवजीवप्र दे शिराजवर्णनम् ३७१ वाहनं - स्थादिपुरं - नगरम् f बलरूपेण सप्ताङ्गम् राष्ट्र - देशं यावत्-शवच्छब्देन "वलं- सैन्यं, कम्, कोपं-पत्नादिभाण्डागारम्, 'कोष्ठागार - घा' यग्थापन गृहम् इति संग्राह्यम्, अन्तःपुरम् - अन्नः पुरन्थपरिवारम् च पुनः मां च - तथा जनपदं - विजिनदेर्श च" अनाद्रियमाणः - तच्चिन्तामकुर्वाणा विहरनि तिष्ठति, तत् तर्हि मे मम श्रेय - समीचीन खलु प्रदेशिनं राजनं केनापि शस्त्र योगेण - खङ्गा दिप्रयोगेण, वा अथवा अभिप्रयोगेण - अग्निना दाहनरूपेण, - मन्त्रयोगेण - मन्त्रजापरूपेणे, वा- अथवा, त्रिपप्रयोग-विपदानरूपेण, उपद्रुत्य -मारयित्वा सूर्यकान्तं सूर्यकान्तनामकं, कुंमारं-मम पुत्रं राज्ये स्थापयित्वा संनिवेश्य स्वयमेव अहं स्यं राज्यश्रियं - राज्यलक्ष्मी कारं न्त्याः - बलवाहनादिभिः सः घयन्त्याः पालय त्यारक्षयन्त्याः विहर्तु - स्थातुम । इतिकृत्वा - इतेि वितकर्यं एवं पूर्वोक्तानुसारेण संप्रेक्षते - निर्धारयति निर्धाय सूर्यकान्तं कुमारं शब्दयति आह्वयति, शब्दयित्व एवमवादीत्-यं प्रभृति च खलु प्रदेशी. राजा श्रमणोपासको जात - : • पुर- " इन पदों का संग्रह हुवा है, । अन्तःपुर शब्द से अन्तःपुरस्थ परिवार का ग्रहण किया गया है । तथा जनपद से विजित देश लिया गया है, इस सूत्र का भावार्थ ऐसा है कि जब सूर्यकान्ता देवीने यह जान लिया कि प्रदेश राजा श्रमणोपासक बन चुका है, और अपने बल - वाहन आदि की संभाल : आदि की ओर उसका जैसा ध्यान होना चाहिये अब वैसा नहीं रहा और न वह मेरी भी अब कुछ चाहना करता है, तब उसके मनमें इस को दूर करने के लिये ऐसा विचार उठाकि जैसे भी बने, चाहे - अग्निप्रयोग से हो, या शस्त्रादि से हो, अवश्य ही इस प्रदेशी राजों का विनाश' 'कर देना चाहिये, तथा-- - सके स्थान पर सूर्यकान्त पुत्र को स्थापित कर देना चाहिये. इसी में अंब भलाई है। एसा विचार कर उसने पुत्र को बुलाया' , 2 " वाहन कोप कोष्ठागारं पुरं या पैहोनो: स अडथयो यान्तःपुर राष्ट्री અન્તઃપુરસ્થ પરિવારનુ ગ્રહણ થયુ" છે. તેમજ જનપદથી વિજિત (જીતેલા)દેશના અ લેવામાં આવ્યું છે. આ સૂત્રને ભાવાય આ પ્રમાણે છે કે જયારે સુર્યકાંતા દેવીએ આ વાત જાણી લીધી કે પ્રદેશી રાજા શ્રમણેાપાસક થઇ ગયા છે અને પેાતાના ખલવાહન વગેરેની સભાળ રાખતા નથી અને મારી તરફ પણ તેનુ ધ્યાન નથી રિ તેના મનમાં તે કાંટાને દૂર કરવાના વિચાર ઉત્પન્ન થયા કે ગમે તે રીતે અગ્નિ પ્રયાગથી, કે શસ્રાદિ પ્રયાગથી આ રાજાને મારી નાખવો જોઇએ તથા તેની ખાલી પડેલી જગ્યાપર સૂર્યકાંત પુત્રને ગાદીએ એસાડવા જોઈએ. આમાં જ હવે રાજયની ભલાઈ છે, આમ વિચાર કરીને તેણે પુત્રને ખેલાવ્યેા. અને પેાતાના આ જાતના Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ ....... राजप्रश्नीय सूत्रे स्तत्भृति च खलु राज्यं च यावत् अन्तःपुरं च जनपदं च तथा मानुष्यकान्मनुष्यसम्बन्धिनः कोमभोगान्-अनाद्रियमाण:-अनादरदृष्टया पश्यन् विहरति, तच्छ्रेयः खलु तव हे पुत्र ! प्रदेशिनं राजानं केनापि शस्त्रप्रयोगेण वा यावत् अग्न्यादिप्रयोगेण वा उपद्रुत्य-मारयित्वा स्वयमेव राज्यश्रियं कारयतः पाला तो विहर्तुम् । ततः खलु स सूर्यकान्तः कुमारः सूर्यकान्ताया देव्याः स्वमातुः एतमर्थं नो आद्रियते-कामपि स्वीकृतिचेष्टां न दर्शयति, नो परिजानाति-नानु-: मोदति । तर्हि किं करोति ? इत्याह-तूष्णीक:-किश्चिदप्यवदन्नेव सतिष्ठते । ततः खलु तस्याः मूर्यकान्तायाः देव्या अयमेतद्रूपः वक्ष्यमाणप्रकारकः आध्यात्मिकः-आं मगतो विचारः यावत् चिन्तितः कल्पितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपद्यत-समुत्पन्नः, तदेवाऽऽह-सूर्यकान्तः खलु कुमारः प्रदेशिनो राज्ञः समीपे इमं मत्कथितं रहस्यभेद-गुप्तमन्त्रणाप्रकाशनं मा करिप्यति-मा कुर्यात्, इति कृत्वा-इति विचार्य प्रदेशिनो राज्ञः छिद्राणि-दूपणानि, मर्माणि कुकृत्यलक्षणानि, एकान्तस्थानसेवितनिपिद्धाचरणानि, विवराणि-निर्जनस्थानरूपाणि, अन्तराणि-अकाशलक्षणानि प्रतिजाग्रती प्रतिजाग्रती-अन्वेषयन्ती २. विहरतितिष्ठति ॥सू० १६२॥ . . : मूलम्-तए णं सा सूरियकता देवी अन्नया कयाइं पएसिस्सः रपणो अंतरं जाणइ असण-पाण-खाइम-साइम-सव्ववत्थगंधमल्लालंकारेसु विसप्पओग पउजइ । पएसिस्स रपणो ण्हायस्त जाव सुहासणवरगयस्स ते विससंजुत्ते असण-पाण-खाइम-साइम-सव्ववत्थग धमल्लालंकारे निसिरेइ। तए णं तस्स पएसिस्स रणो तं विससंजुत्तं असणं-पाणं-खाइम-साइमं आहारेमाणस्स समाणस्त और अपने इस प्रकार के विचारों को उसे सुनाया, पर उस विचार को पुत्रने अच्छा नहीं समझा. तब-सूर्यकान्ता के हृदय को उस विचारने आलोडित करदिया की कहीं ऐसा न हो कि मेरे इस विचार को सूर्यकान्त, प्रदेशी राजा से प्रकट कर दे, अतः वह प्रदेशी राजा के छिद्रादिकों को देख्नने की ताकमें रहनेलगी.॥३६२ . વિચારે તેની સામે સ્પષ્ટ કર્યા. પણ પુત્રે આ વાતને સારી માની. નહિ ત્યારે સૂર્યકાન્તાના મનમાં આ જાતને વિચાર છે કે મારી આ વાત એ પ્રદેશી રાજા સામે પ્રકટ કરી દેશે તે શું થશે ? એટલા માટે તે હવે પ્રદેશ રાજાના છિદ્રો વગેરે नया सागा. ॥. १९२॥ ... Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सू. १६३ सूर्याभदेव य पूर्वभवजीवप्रदेशीगजवर्णनम् ३७३ सरीरंसि वेयणा पाउन्भूया उज्जला विउला पगाढो ककसा कडुया फरुसा निहरा चंडा तिव्वा दुक्खा दुग्गा दुरहियासा पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक ते यावि विहरइ ॥ सू० १६३ ॥ छाया-ततः खलु सा सूर्यकान्ता देवी अन्यदा कदाचित् प्रदेशिनो राज्ञः अन्तरं जानाति अशन-पान-खादिम-स्वादिम- सर्ववस्त्रगन्धमाल्यालङ्कारेषु विष प्रयोगं प्रयुनक्ति, प्रदेशिने राज्ञे स्नाताय यावत् सुखासनवरगताय तान् विपसंयुक्तान् अशन-पान-खादिम-स्वादिम-सर्ववस्त्रगंन्धमाल्यालङ्कारान् निसृजति । ततः खलु तस्य "तएणं मरियकंतादेवी" इत्यादि-- मूलार्थ–'तरणं' इसके बाद 'मूरियकं देवी' सूर्यकानादेवीने 'अन्नयाकयाइ" किसी एकदिन 'पएसिस्स रन्नो' प्रदेशी राजाके 'अंतर जाणइ' षष्ठपारणा के अवसररूप अन्तर को जान लिन और असण-पाणखाइम-साईम सःवस्थगंधमल्लालंकारेसु सिप्ट ओगं उजई-" अशन- पान खाद्यरूप आहारों में, तथा-वस्त्र-गन्ध-माला अलङ्कारों में विष का प्रयोग कर दिया. पएसिस्स रंगोण्ह ए जाव सुह.सणवरगयास ते दिससंजु-त्ते असण पाण खाइमसाइमसनवस्थगंधमल्लालंकारे निसिरेइ--" प्रदेशी राजा जब ग्नान करके यावत् सुनदरूप श्रेष्ठ आसनपर आसीन था. तब उसके लिये उसने-उन विषसंप्रयुक्त अशन पान-खाद्य-स्वाद्यरूप आहार को परेसा. तथा-पहिरने के लिये वस्त्र-गन्ध-मोला. एवं अलङ्कारों को दिया. 'तए णं तस्स पएसिस रणो ते विससंजुत्तं असण "तए णं सरियकंता देवी" इत्यादि। भूदार्थ-"तएणं" त्या२ पछी "मूरियकता देवी" सूर्य xiता वीमे"अन्नया कराई" मे हिवसे “पएसिस्स रन्नो" प्रशासन ने "अंतरं जाणई" १४ पारानी अवस२ ३५ मत२ (त) all सीधे। अने"असणपाणखाइमसाइमसव्वव थगंधमल्लालंकारेसु विसप्पओग' पउंजइ" मशन, पान, माघ અને રવાદ્યરૂપ આહારમાં તેમજ વસ્ત્ર ગબ્ધ માલા અલંકારોમાં વિષ સંપ્રયેાગ કરી દીધું. "८ एसिन्स रप्णो ण्हायरस जाव सुहासणवरगरास ते विमसंजुत्ते असणपाणखाइमसाइममन्ववत्थगंधमल्लालंकारे निसिरेइ" प्रदेशी रात न्यारे स्नान કરીને યાવત સુખદરૂપ શ્રેષ્ઠ આસન પર આસીન હતા ત્યારે તેમના માટે તેણે તે વિષસંપ્રયુકત અશન, પાન, ખાદ્ય, સ્વાદરૂપ બહાર પીરસ્યું, તેમજ પહેરવા માટે पक्ष-ध-भामने PRE | मायां. "ए णं तरस पएसिस्स रण्णो ते विस Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... गजप्रश्नीयसूत्रे ३७४ ...................................... .... : ताप प्रदेशिनो राज्ञः तद्विपसंयुक्तम् अशनं पान खादिमं स्वादिमम् आहरतः सतः शरीरे वेदना प्रादुर्भूता-उज्जवला विपुला प्रगाढा कर्कशा कटुंका परुपा. निष्ठुरा चण्डा'तीत्रा दुःखा दुर्गा दुरध्यासा पित्तज्वरपरिगतशरीरो दाहव्युत्क्रान्तश्चापि विहरति ॥ सू० १६३ ॥ पाणं-नाम-साइम-आहारेम.णरस समाणस्स सरीरंसि वे पणा पाउभूला. उज्जलाविउला-पगाढा-कक्कसा कड्या-फरुस-निग-चंडा-तिच्या दुवरना । दुग्गः-दुहियासा-पित्तज्जरपरिग सरीरे-दाहकते यावि विहाइ- इसके बाद उस प्रदेशी राजा के शरीर में उस विषसंग्रयुक्त अहार के करने से वेदन। उ पन्न हो गई । यह वेदना उज्ज्वलथी दुःखद ई होने से. सुख लेश से रहितथी-विपुलथी...सकल शरीर में व्याप्त होने से विस्तीर्ण थी, अनए:- गढ़ थी, वर्कशकठोर थी.। जैसे-कर्कशप.पण का संघर्ष शरीर की सन्धियों को तंड देता है, उसी प्रकार इसे कर्कश व हा गया है. अप्रीति जनक होने से यह कटुक . थी. मन में अति रूक्षता की जनक होने से.. दुर्भेद्य थी.. चण्ड-ौद्र थी तीव्रतीक्ष्ण थी. दुःनद स्वरूप होने से दुःख थी. चिकि सा से भी दुर्गम्य होने के कारणे दुर्गथीं. दुम्रह होने से दुराप.थी। इस प्रकार की वेदनाउत्पन्न हो ने के कारण वह राजा पित्तजार से. अक्रान्त शरीवाला हो ग. और-समस्त शरीर भर में उसको दाह. पड़ने लगी. । टीकार्थ-स्पष्ट है-॥१६३॥........ संजुत्तं अरुण पाण खाइम माइम आहाग्माण स समाणास सरिरंसि वेपणा पाउन्भू । उजला विउला पगाढा कक्कसा- डुया-परुमा-नि-चंडा तिवा-दुवरना-.. दुग्गा-दुहियामा-वित्तज्जरपरिग यसरीरे . दाहसकते. गवि हि इत्या२પછી તે પ્રદેશી રાજાને શરીરમાં તે વિષે સપ્રયુકત આહાર કરવાથી વેદના ઉત્પન્ન થઈ ગઈ. આ વેદના ઉજજવળ હતી,દુખદ હોવાથી સુખ રહિત હતી, વિપુલ હતી, समरत शरीरमा व्यापाथी विस्ती ती, प्रगाढता ; शકઠોર હતી જેમ કઠોર પથ્થરની રગડ શરીરના સંધિભાગોને તોડી નાખે છે, તેમ તે વેદના પણ આત્મ પ્રદેશને તેડતી હતી. એથી જ એને કર્કશ કહેવામાં આવી છે. અપ્રીતિજનક હોવાથી એ કટુક હતી, મનમાં અતિ રૂક્ષતાજનક હોવાથી પરૂષ હતી, ૨ નિષ્ઠુર હતી, અશકય હતી, ચંડ રોદ્ર તીવ્ર તીક્ષણ હતી, દુખદ સ્વય હોવાથી દુઃખરૂપ હતી, ચિકિત્સાથી પણ દુગમ્ય હતી એથી તે દુર્ગ હતી, સિહ હોવાથી દધ્યાસ હતી, આ જાતની વેદના ઉત્પન્ન થઈ હોવાથી તે રાજા પિત્તજવાનું आन्त-शरीरवाणी 25 गयी. शने तेना मामा शरीरमा तरा थवा. भांडी. हा-२५ ४ छ. ॥ स.. १६ ॥ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीम सु. १६३ सूर्याभदेव य पूर्वभवजीवप्रदेशीराजवर्णनम् ३७५ " टीका" "तएण सा" इत्यादि - ततः खलु सा सूर्यकान्ता देवी अन्यदा कदाचित् - कचित् काले प्रदेशिनो गज्ञः अंतरम् - अवकाश - पष्ठपार णावसरमित्वर्थः, जानाति, अशन-पान खादिम - सर्ववस्त्र - गन्ध-माल्यालङ्कारेषु - अशना दिसर्व-, वस्तुषु विषप्रयोगं - विषस योगं, प्रयुनक्ति-करोति एवं कृत्वा स्नाताय - कृतस्नानाय, यावत्–सुखास्पनवरगताय - सुनदरूपश्रेष्ठासनोपविष्टाय प्रदेशिने राज्ञे विषयुक्तान अशनपान खादिम स्वादिम-वस्त्र- गन्ध-माल्या ऽलङ्कारान् निसृजति-ददाति । ततः तदन्तरं खलु तस्य प्रदेशिनो राज्ञः तं विषसंयुक्तम् अशनं। पानं-खादिम स्वादिममिति चतुर्विधाऽऽहारम् आहरतः गृहतः सतः शरीरे वेदना प्रादुर्भूता - समुःपन्ना, सा कीदृशी ? इ याह-उज्वला - दुःखदतया उग्रा सुखलेशरहितेत्यर्थः, विपुला सकलशरी व्यापक विस्तीर्णा, अतएव प्रगाढा अतिशयिता, कर्कशा कठोरा, यथा कर्कशपापाण संघर्षः शरीरसन्धीखोटयति तथैवात्म प्रदेशांस्त्रोटयन्ती या वेदना जायते साः कर्कशेत्युच्यते, कटुका- अप्रीतिजनिका, परुषा मनोऽतीव रूक्षत्वोत्पादिका निष्ठुरा- अशकयाप्रती गरत्वेन दुर्भे द्या, अत एव चण्डा- रौद्रा, तीव्रा - तीक्ष्णा दुःखा- दुःखदस्वरूपा, दुर्गा - चिकित्सा दुर्गम्या, दुरध्यासा - दुःसहा, एवम्भूता वेदना समुद्भूता, तेन कारणेन स राजा पित्तज्वर परिगतशरीरः–पित्तज्वरेण परिगतम् - आक्रान्त शरीरं यस्य स तथा, दाहव्युत्क्रान्तः–दहिव्याप्तः सन् चापि विहरति- तिष्ठति । ॥ सु० १६३॥ मूलम--तए शं से पएसी राया सूरियकताए देवीए अचार्ण संपल जाणित्ता सूरियकताए देवीए मणसावि अप्पदुस्समाणे जेणेत्र पोसहसाला तेणेव उवागच्छड़, पोसहसालं पमज्जेइ, उच्चारपासवपाभूमि पडिलेहेइ दब्भसंधारणं संथुरे, दव्भसंधारगं दुरुहइ, पुरस्थाभिमुहे संपलियेकनिसन्ने करयलपरिग्गेहियं विरसावत्तं मत्थए अजलि कट्टु एवं बयासी - नमोत्थूणं अरहंताणं जाव संपताणं नमोत्थूर्ण केसिस कुमारसमणस्स मम धम्मायरियस्स धम्मो - वदेसगस्स वदामि णं 'भगवतं तत्थगयं, इहगए, पासउ मे भगवं तत्थगए इहगयं-त्तिकद्दु वंदइ नमसइ, पुव्विपि मए केसिस्स कुमारसमणस्स अंतिए थूलपाणाइवाए पच्चक्खाए जाव थूल - Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ ३७६ ... रानप्रश्नीयसूत्रे परिग्गहे पच्चक्खाए तं इयाणि पिणं तस्मेव भगवओ अंतिए सव्वं । पाणाइवोयं पच्चक्खामि जाव सव्वं परिग्गहं पच्चक्खामि सव्वं कोहं जाव मिच्छादसणसल्ले पच्चक्खामि अकरणिज जोगं पच्च-... क्खामि, सव्व असणं० चउब्विह पि आहार जावजीवाए पच्चक्खामि, जंपि य मे सरीर इट्ट जाव फुसंतुत्ति एवंपि य णं चरिमेहिं ऊसासनीसासेहिं वोसिरामि-त्ति कटू आलोइयपडिकंते सभाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सेहम्मे कप्पे सूरियाभे विमाणे उववायसभाए देवत्ताए उववन्ने । ॥सू० १६४॥ इति पएसिरायम्स वष्णणं समत्त । . छाया-ततः खलु प्रदेशी गजा सूर्यकान्ताया देव्या आत्मानं संपलब्धं ज्ञात्वा सूर्यकान्ताया देव्या मनसाऽपि अद्विपन् यत्रैव पोषधशाला तत्रैव उपागच्छति . पोपधशालां प्रमार्जयति, उच्चार स्रवणभूमि प्रतिलेखयति, दर्भमस्तारकं सतण ति, दर्भसरतारकम् दुरोहति पौरस्त्याभिमुखः संपल्यंङ्कनिषण्णःकर लपरिगृहीत "तए णं से पएसी राया" इत्यादि । ... .......... . मूलार्थ-"तए णं-" इसके बाद “से पएसी राया-" वह प्रदेशी राजा "सूरियकताए-देवीए अत्ताणं संपलखं, जाणित्ता-" सूर्य कान्ता देवी की यह उत्पात (करामत) है इस प्रकार जान कर भी-"सूरियकंताए देवीए मणसा वि अप्पदुस्समाणे जेणे व पोसहसाला तेण व उवागच्छइ-" उस सूर्यकान्ता देवी के प्रति मनसे भी द्वेषभाव नहीं करता हुवा जहां पौषधशाला थी वहां पर गया-"पोसहसाल' पमज्जेइ-" वहां जा करके उसने पोषधश ला की प्रमाज की "उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ-" उच्चार प्रस्रवण भूमि की प्रतिलेखना . "तए णं से पएसी गया' इत्यादि भृतार्थ - 'तएणं' त्या२ पछी ‘से पएसी गगते प्रदेशी २101 'सूरियकं ए देवीए अत्ताण सपलद्धं जाणित्ता सूर्यप्रान्ता वीमे मा ४. यु छ. माम ongqा छताये "सरियक'ताए देवीए मणसा वि अप्पदुस्समाणे जेणेव पोसह- . साला तेणेव उवागच्छइ" ते सूर्य iता हेवा प्रत्ये भनथी ५ षमा न ४२di orयां पौषधशा ती त्यां गया. (पोसहवाल पमज्जेइ) त्यां धन तेरे पाषधशापानी अभाई ना ४ी. "उच्चारपान व ण भूमि पडिलेहेइ प्यार-प्रसपाय भूभिना Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका स. १६४ सूधाम देवस्य पूर्वभ जीन्प्रदेशिराजर्णनम् शिर आवर्त मस्तके अञ्जलिं कृत्वा एवमवादीत्-नमोऽ'तु खलु अहँद्भयः यावत् संशप्तेभ्यः नमोऽस्तु खलु केशिने कुमारश्रमणाय मम धर्माऽऽचार्याय धर्मोपदेशयाय, वन्दे खलु भगवन्तं तत्रगतम् इहगतः, पश्यतु मां भगवान् तत्रगतः इह गतम्' इति कृत्वा वन्दते नमस्यनि, पू'मपि खलु मया केशिनः कुमारश्रमण. यान्तिके स्थूलपाणानिपातः पत्याख्यान: यावत् स्थूलपरिग्रहः प्रत्याख्यातः, की-“दव्मसंथारगं संथरेइ-" और फिर दर्भ का संथारा विछाया ‘दब्भसंथारगं दुरूहइ-" उसे विछा कर वह उस पर वेठ गया. "पुर-. स्थाभिमुहे संपलियंकनिसन्दे-" वहां आरूढ होर वह पूर्व दिशा की ओर मुह करके पर्यङ्कासन से बैठ गया. "करयलपरिग्गहिय सिरसावत्तं मत्थए अजलि कटु एवं वासी-'' और दोनों हाथे की अंजली बनाका एवं-उसे मस्तक पर घुमाकर इस प्रकार से कहने लगा. “नमो थुणं अरहताणं जाव संपत्ताणं; नमो थुणं केसिस्स कुमारसमणस्स मम धम्मायरि स्स धम्मोवदेसगस्स-" अन्ति भगवन्तों के लिये नमरार हो, मेरे धर्मोपदेशक धर्माचार्य केशीकुमार श्रमण के लिये नमस्कार हो, “वंदामि णं भगवंतं त थ य इहगए-" यहां रहा हुवा मैं वहां पर रहे हुवे भगवान् को वन्दना करता हूं, "-पासउ मे भगवं तत्थगए इहगय त्ति कटु वंदइ. नमसइ-" वहां पर रहे हुवे वे भगवान् यहां रहे हुवे मुझे देखें-इस प्रकार कह कर उस प्रदेशी राजाने उनकी वन्दना की नमस्कार किया. 'पुबि पि णं मए केसिस्स कुमारसमणस्स अंतिए थूलपाणाइवाए पच्चरखाए, जाव थूलपरिग्गहे पच्चवखाए " पहलेभी मैंने केशी प्रतिवेजना ४३. "दभमंथा गं संथरेइ' मने पछी मनु मासन त्या पाथ". "दभसंथारंग दलहइ' तेने पाथरीने ते तना ५२ मे थ६ गयो, “पुरत्थाभिमुहे पलियानिस ने" त्या मा३८ थने ते पूर्व हिशा त२५ भुप शन ५ सनथ: गेसी गयी. कर लपरिग्ग हथं सिरसावत्तं मथए अंजलिं की एवं वसी' मने पन्ने हाथोनी मele नावाने मने तेने भरत ५२ ३२वी ते भा प्रमाणे हेवा वायो. "नमोत्थुणं अरहना ण जाच संपत्ताण नमोत्थुण केसि स कुमारसमण स मम धम्मायरियम धम्मोवदेसगस" मई त मा. વંતને મારા નમસ્કાર છે, મારા ધર્મોપદેશક ધર્માચાર્ય કેશીકુમાર શ્રમણને મારા नभ२४।२ छ: “वंदामिणं भगवतं तन्थग इहगए" डी डीने त्या वर्तमान भगवान ने पहन ४३ छु. "पामउ मे भगवं तत्थगए इहगय त्ति कटु चंदइ, नम मह” त्यो २हेत. सापान भने मही तुओ. मा प्रमाणे डीन ते प्रदेश २०ीय तेमने पहन ४ा, नमा२ . "पुचि पि ण मए केसिम्मकुमारसमणत अंतिए थूलपाणाइवाए पच्चक्खाए, जाव थूल परिग्गहे पञ्चवखाए' Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ राजाश्नीयसूत्र तद् इदानीमपि खलु तस्यैव भगवतः अन्तिके सर्व प्राणानिपातं प्रत्याख्यामि यावत् मर्व परिग्रहम् प्रत्याख्यामि, सर्व शोध यावत् मिथ्यादर्शनशल्यं पायाख्यामि अकरणीयं योगं प्रत्याख्यामि, सर्वम् अशन० चतुर्विधमपि आहार यावज्जीवं प्रत्याख्यामि, यद पि च मे शरीरम् इष्टं यावत् स्पृशन्तु इति एतदपि च खलु चरमैः उच्छासनिःश्वासैः व्युत्सृजामि, इति कृत्वा आलोचितप्रतिक्रान्तः समाधिकुमारश्रमण के पास स्थूल प्राणातिपातका यावत् स्थूल परिग्रह का प्र-याख्यान किया है-'तं इयाणि पिणं त सेव भगवओ अंतिए सव्वं पाणाइवाय प.चक्वामि-" अब भी मैं उन्ही भगवान् के पास उसी सब प्रा तिपात वा प्राख्यान करता है, "जाव सव्वं परिग्गहं पच्चक्वामि-" यावत् समस्त परिग्रह का प्रख्यान २रता हूं। सच्चं कोहं जाव मिच्छासणसल्लं पच वखामि-” समस्त क्रोध का प्रयाख्यान करता हु . यावत् मिथ्यादर्शन शल्य का प्रयास न कता हूं। "अवरणिजजोगे पच्चवखामि- अरणीय योग (अशुभ ोगका) का प्रयाख्यान करता हूं, "सब असणं० चउव्विहं वि आहार जाव ज्जीवाए पच्चरवामि- ३..न-पान आतिस्पचार प्रकार के आहार वा यावज्जीव त्यागारता हूं "जं पिय मे सरीरं इट ज.व फुसंतु त्ति एवं पि य णं चरिमेहिं उसासनीसासेहिं बोसिरामि त्ति कटु-" मैंने पहले जिस इष्टादि विशेषण विशिष्ट शरीर की रक्षा की इस अभिप्राय से कि-इसे शीत उप आदि परिग्रह तथा-सादिकृत उपसर्ग आदिकी वाधा न पहुंचाये -जब मैं उसी शरीर का अन्तिम उच्छास-निश्वासों तक परि या। व.रता हूं. इस प्रकार वि र करके-"आलो-- પહેલાં પણ મેં કેશીકુમારશ્રમણની પાસે થુલ પ્રાણાતિપાતનું યાવત સ્થૂલ પરિગ્રહd प्रत्याभयान इणि पिणं तस्सेव भगवअं. अंतिए सव् पाणाइवायं पच्चक्खामि' वे पाहुते माननी पासे ते समस्त प्रा.पाति तु प्रत्याख्यान ४३ छ. "जाद सव्यं परिग्गहं पच्चक्खामि" यावत समस्त ५२. अनु प्रत्याान ४३ छु. "सध्वं वह जाब मिच्छादंसणसल्लं पच्चवखामि" સમરત કોધનું પ્રત્યાખ્યાન કરૂં છું યારત મિથ્યાદર્શન શલ્યનું પ્રત્યાખ્યાન કરૂં છું. "अवरणि जं जोगे पच्चक्खामि" म४२०ीय योगनु प्रत्याभ्यान ३३ छ. "सव्वं असणं० चउविह' वि आहारं जावजीवाए पञ्चा खामि" अशन-पान वगेरे ३५ यार प्रा२ना माहारने। यावत वन त्याग ४३ छु“ पि य मे सरीरं इष्टुं जाव फुसंतु त्ति एवं पिय णं चरिमेहिं उसासनीसासेहिं वोसिगमि ति कट्ट" में પહેલાં જે ઈષ્ટ વગેરે વિશેષણ વિશિષ્ટ શરીરની રક્ષા કરી તે આ પ્રોજનથી કે આને શીતઉણુ વગેરે પરીષહ તથા સર્પાદિકૃત ઉપસર્ગ વગેરે બાધા પહોંચાડે નહિ. હવે હું તે જ શરીરને અંતિમ ઉચ્છવાસ નિશ્વાસ સુધી પરિત્યાગ કરૂં છું. આ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवधिनी टीका सु. १६४ सूर्याभदेवस्व पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्ण नम् ३७९ प्राप्तः कालमासे कालं कृत्वा सौधर्म कल्पे सूर्याभे विमाने उपपातसभायाँ देवतया उपपन्नः ।। मू० १६४ ।।। इति प्रदेशिराजस्य वर्णन समाप्तम् । टीका-"तर णं से पएसी". इत्यादि-ततःस्खलु स प्रदेशी राजा सूर्यकान्ताया देव्या-स्वराज्या आत्मानं-स्व संपलब्धं-विषप्रदानेन वञ्चितं सूर्यकान्तया मा णार्थ महाविषं दत्तमिति ज्ञात्वा सूर्यकान्ताया देव्या मनसाऽपि-मनोमात्रेणापि अप्रद्विपन्-द्वेषमकुर्वन् यत्रैव पौषधशाला तत्रैवोपागच्छति, पौषधशालां प्रमाजयति, उच्चारप्रस्रवणभूमि प्रतिलेखयति, दर्भसं.तारकं संस्तृणाति दर्भसंस्तारकं दूरोहति-अधिरोहति दर्भसंस्तारकोपर्युपविशतीत्यर्थः, पौरस्त्याभिमुख:-पूर्वदिगमिइ पडिकंते समाहि पत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सूरियाभे विमाणे उबवाय भाए देवताए उववन्ने-" उसने पहले गुरू को सम्मुख करके जिन अतिचारों भयाख्यान किया था अब उ हैं पुनः अकरण विषय से अतिक्रान्त व रके, अर्थात्-आलो नापूर्वक मिथ्यादुप्कृत देकरके चित्त की समाधि प्राप्त. व रता हूं. और इसी स्थिति में वह कालमाप में काल करके सूर्याभविमान में उपत सभा में देव पयाय से उत्पन्न हो गया.॥ टीकार्थ-प्रदेशी राजाने जब जाना कि- मेरी रानी सूर्यकान्ताने ही मुझे मारने के लिये विप प्रदान कर इस स्थिति पर पहुचाने का निमित्त उपस्थित किया है तो वह इस हालत में भी उसके प्रति द्वेषभाव से रहित बना रहकर जहां पौपधशाला थी वहीं पर चला गया. वहां जाकर उसने पौषधशाला की प्रमार्जना की उच्चार प्रस्रवण भूमि की प्रतिलेखना की. और-दर्भ का संतारक विछाया. विछाकर फिर वह उसपर पूर्व दिशा की ओर मुँह करके प्रमाणे पियार ४२॥'आलोइयाडिकते समाहिपत्ते कालमासे कालं किया सोहम्मे कप्पे सूरियाभे विमाणे उववासभाए देवत्ताए उववन्ने" तेणे ei ગુરૂની સામે જે અતિચારોનું પ્રત્યાખ્યાન કર્યું હતુંહવે તેમને ફરી અકરણ વિષયથી અતિક્રાંત કરીને- એટલે કે આલેચનાપૂર્વક મિથ્યા દુષ્કૃત આપીને ચિત્તની સમાધિ પ્રાપ્ત કરું છું. અને આવી સ્થિતિમાં તે કાલમાસમાં કોલ કરીને સૂર્યાભવિમાનમાં ઉપપાત સભામાં દેવ પર્યાયથી જન્મ પામે. 1 ટીકાર્થ–પ્રદેશી રાજાઓ જ્યારે આ વાત જાણે કે મારી રાણી સૂર્યકાન્તાએ જ મને મારવા માટે વિષ આપ્યું છે અને મારી આ દશા કરી છે. તે તે પરિસ્થિતિ માં પણ સૂર્યકાન્તા પ્રત્યે અષભાવથી વ્યવહાર કરીને જ્યાં પૌષધશાળા હતી ત્યાં થયા. ત્યાં જઈને તેણે પૌષધશાળાની પ્રમાર્જના કરી. ઉચ્ચારપ્રસવણ ભૂમિની પ્રતિ લેખના કરી અને દર્ભ સસ્તારક પાથર્યો ત્યારપછી તે તેની ઉપર પૂર્વ દિશા તરફ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीयसूत्र सुरवः स पर यव निपाणः-पर्यङ्कासनेन समुपविष्टः रान करतलपरिगृहीतं शिरआवर्त भरतकेलिं कृत्वा एवमवादी-नमोऽस्तु खलु अर्हद्भयः यावत् संप्राप्त पः। अत्र यावर न नमोऽत्थु णं” पाठः सर्वो.पि वाच्यः । तथा नमोऽ तु खलु केशिने कुमारश्रमणाय मम मर्माचार्याय : मोपिय काय, को खलु भगवन्तं तत्र गतम् इह गतः-अत्र स्थितोऽहम्, पश्यतु मे-नम मामित्यर्थः, भगवान् केशिकुमारश्रमणरतत्रगत इहगतम्, इति कृत्वा वा दते नम यति, कथयति-पूर्वमपि रनल, मया केशिनः कुमारश्रमण य अन्तिक-समीप : शुलनाणातिपातः प्रत्याख्यानः ? यावत्-यावच्छ-देन “स्थूलम्पाबादः प्रत्याख्यातः२ - थूलादत्ताऽऽदानं प्रत्याख्यातम् ३, इति संग्राह्यम, स्थूलपरिग्रहः प्रत्याख्यातः४, तद् इदानीमपि स्खलु तस्येव - पल्यङ्कासन से बैठ ग . दोनों हाथो को जोड़ा-और-आवर्तकर इप्रा बहने लगा. अर्हन्तों को नमस्कार हो. यहां-यावत् शब्द से “नमो.थुणं " पाद पूरा उसने पढा ह । मझ लेना चाहिये । इस प्रा. कहते रहते उपन ऐसा भी कहा कि मुझे धर्म का उपदेश देने वाले जो मेरे धर्माचार्य केशी कुमा श्रमण हैं- उन्हें भी मेरा नमार हो, वे :द्यपि- हां घर मेरे पास वर्तमान में नहीं हैं अत. जहां पर भी वे विराजमान हों में यहां रहा हुवा उ हे नम: तर कता हूं. वहां रहे हुवे वे भ वान् केशीकुमा श्रमण र हां हे हुवे मुझे देखें इ प्र । वहार उम्में न को वन्दना की-नमस्कार किया, वन्दना-नमस्कार कर फिर वह इस प्रकार से व हने लगा- मेने पहले भी केशीकुमा श्रमग के समीप स्थूल प्राणातिगत म प्रत्याख्यान किया है-यावत् स्थूल मृपावाद का प्रारू न किया है. स्थूल अदत्तादान का प्रत्याख्यान किया है. औ-शूल परिग्रह का प्रत्यार न किया મુખ કરીને પર્યકાસનની મુદ્રામાં બેસી ગયા ત્યાર બાદ તેણે બંને હાથની અંજલિ બનાવી અને તેને મસ્તક પર ફેરવીને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા. અહીં તેને નમસ્કાર छ, माडी यावत् ५४थी "नमो थुण" ५३१५ ते माझ्या से पात सभापी न. આ પ્રમાણે કહેતાં કહેતાં તેણે આ પ્રમાણે કહ્યું કે મને ધર્મોપદેશ આપનાર મારા ધર્માચાર્ય કેશીકુમાર શ્રમણને મારા નમસ્કાર છે. તેઓ અહીં હમણ વિદ્યમાન નથી છતાંએ તેઓશ્રી જયાં વિરાજતા હોય હું અહીં રહીને તેમને નમસ્કાર કરે છું. ત્યાં રહેતા તે ભગવાન કેશીકુમારશ્રમણ અહીં રહેલા મને જુવે. આ પ્રમાણે કહીને તેણે તેમને વંદન કરી નમસ્કાર કર્યા. વંદન તેમજ નમસ્કાર કરીને તે આમ કહેવા લાગ્યું કે મેં પહેલાં પણું કેશીકુમારશ્રમણની પાસે રશૂલ પ્રાણાતિપાતનું પ્રત્યા ખ્યાન કર્યું છે. યાવત સ્થંલ મૃષાવાદનું પ્રત્યાખ્યાન કર્યું છે, સ્થૂલ અદત્તાદાનનું પ્રત્યાખ્યાન કર્યું છે અને સ્થૂલ પરિગ્રહનું પ્રત્યાખ્યાન કર્યું છે. હવે હું તેજ કેશી Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टी । सं. १६४ सूर्यभदेवाय पूर्वभवजीवप्रदेशीराजवर्णनम् ३८१ भगव :- केशिकुमारथ्रमणग्यैव अन्तिके तदाज्ञावर्तित्वेन तस्मिन् भगव तं विद्यमाने सति समीपे इन समीपे सम्प्रति सर्व प्रागातिपात प्रत्याख्यामि यात्-यावच्छब्देन .मृपावादं प्रत्याख्यामि, सर्वमदत्तादानं प्रत्याख्यामि, इति सग्राह्यम्, सर्व परिग्रहं प्रत्याख्यामि तथा को यावत् यावच्छन्देन-मान-मायां लोम राग द्वेपं कलहमभ्याख्यान पैशु-य परपरिवादं रत्यरती माया मृपा' इति संग्राह्यम्, मिथ्यादर्शनशल्यं प्रत्याख्यामि, सम् अशनामनि- अशन खाद्यं रबाद्यं चतुर्विधमाहारं यावज्जीव-प्राणधारणपन्तं प्रत्याख्यामि यदपि च मे शरीरम् इष्टं यावत् पृश तु अत्र यावच्छब्देन का तत्वादिविशेषणविशिष्टं शरीरं शीतोष्णादयः परीपहाः सादिकृता उप गर्गाः कर्कशकठोशदयः पश्चि मा स्पृश तु इत्यन्तं संग्राहै. अब मैं उसी केशीकुमारश्रमण के पास उनकी आज्ञा के वशवर्ती होने के वारण उन्हें अपने समीप रहा हुवा जेसा मान कर समात प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूं. सम त मृपावाद का प्रत्याख्यान करता हूं और सम-त अदनादान या प्रत्याख्यान करता हूं और समस्त परिप्रहरू न य रता हूं. । तथा क्रोधो यावत् मान मायो लोभा राग-द्वष, कलह का प्रत्याख्यान पैशून्य परिवाद अरति माया मृषा का, एवंमिथ्यादर्शनशल्य का प्रख्यान करता हूं। तथा समस्त अशनका पानका खाद्यका स्वाद्यका, याव ीव-प्राणवा ण पर्यन्त परित्याग करता हूं, तथा-कान्तत्वादि विशेपणों से युक्त जिस शरीर की मने शीतोष्ण आदिपरीपहों से सर्पादिकृत उपसर्गों से एवं-कर्कश कठोर आदि स्पों से ये सब इसे स्पर्श न करें इस ख्याल से रक्षा की इसका भी मैं अब अन्तिम श्वासोच्छास तक यावज्जीव तक परि याग करता हू । तात्पर्य इसका इस प्रकार से है-मैने इस शरीर કુમારશ્રમણની પાસે તેમની આજ્ઞાને વશ હોવાને લીધે તેઓ મારી પાસે જ છે એમ માનીને સમસ્ત પ્રાણપતતનું પ્રત્યાખ્યાન કરૂ છું. સમસ્ત મૃષાવાદનું પ્રત્યાખ્યાન કરું છું. સમસ્ત અદત્તાદાનનું પ્રત્યાખ્યાન કરૂં છું અને સમસ્ત પરિગ્રહનું પ્રત્યાધ્યાન કરૂં છું. તેમજ કોધનું યાવત્ માન માયા લેભ રાગ દ્વેષ કલહનું પ્રત્યાખ્યાન કરૂં છું. પૈશન્ય પરિવાદ અરતિ માયા મૃષા અને મિથ્યાદશનશલ્યનું પ્રત્યાખ્યાન કરૂં છું. તેમજ સમસ્ત અશનનું પાનનું, ખાદ્યનું, સ્વાદ્યનું, યાવત્ જીવન બાણ ધારણું પર્યત વિસર્જન કરૂં છે. તેમજ કાન્ત ઈત્યાદિ વિશેષણોથી યુક્ત જે શરીરની મે શીતાણ વગેરે પરીષહથી સર્પાદિત ઉપસર્ગોથી અને કર્કશ કઠોર વગેરે સ્પર્શથી-એએ આ શરીરને સ્પર્શે નહિ એ ઇચ્છાએ રક્ષા કરી આનો પણ હું હવે અંતિમ શ્વાસ છવાસ સુધી પરિત્યાગ કરું છું. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૮૨ राजप्रश्नीयसूत्र ह्यम, तथाहि-का-तं, प्रियं मनोज्ञं, मनाम, धर्य-धैर्यस्वरूपं वैश्वसिकं विश्वासयोग्यं, संमतम्, अनुमतं बहुमतं, भाण्डकरण्डकममानं, रत्नकरण्डकभूतमिदं शरीर मा खलु शीतं मा खलु उष्णं, मा खलु क्षुधा मा खलु पिपासा, मा खलु व्यालाः-सर्पाः, मा खलु चोराः, मा खलु दंशाः, मा खलु मशकाः, मा खलु वातिकः-वातसम्बन्धी रोगातङ्कः एवं पैत्तिकः श्लैष्मिकः सान्निपातिकः इत्यादि का विविधा रोगातङ्काः, तत्र रोगाः-ज्वगदयः, आतङ्काः-सद्योघातिशूलादयः, तथा परीपहा:-क्षुधादयः, उपसर्गाः - सादिकृता उपद्रवाः, स्पर्शा:-कर्कशकठोग दयः. मा स्पृशन्तु-मे शरीरे मा संलग्ना भव तु इति-इति बुद्धया संरक्षितम् एतदपि च खलु शरीरं चम्मैः-अन्तिमैः उच्छामनिःश्वासैः व्युत्सृजाभि-त्यजामि, को कान्त प्रिय-मनोज्ञ मन आम धैयस्वरूप विश्वासयोग्य, संमत-अनुमान, तथा बहुमत माना एवं रत्न रखने के पिटारे के जैसा बहुमूल्य माना। अतः-इस की तरह से मैंने संभाल रखी इसे शीन से बाधा न हो जावे, उण्णसे संताप न हो जावे, क्षुधा से कष्ट न हो जावे. पिपासा से यह आकुलित न हो जावे. सर्पादि कृत 'उपद्रवों से यह पीडित न हो जावे. चोरों द्वारा इसे आपत्ति में पडना न पडे, दंश-मशक इसे काट न लेवे. वात सम्बन्धी रोगातङ्को-ज्वरादि रोगों सद्योघाति शूलादिकों से यह दुःखित न हो जावे पैत्तिक-श्लैष्मिक-सान्निपातिक रोगातङ्क इसे मलिन न करदे कर्कश-कठोर आदि स्पर्श करके इसके सौन्दर्य का अपहरण न करे, इस प्रकार से मैने इसकी हरतरह के खूब ‘रक्षाकीथी, परन्तु-अब मैं ऐसे प्रिय इस शरीर के साथ अपना सम्बन्ध जीवन के अन्तिमक्षण तक यावज्जीव तक विच्छेद में' मा शरीरने iत, प्रिय, भनौ, भन भाभ, घ१३५, विश्वास योय, સંમત-અનુત્તમ તેમજ બહુમત જા અને રત્ન મૂકવાની પટની જેમ બહુ મૂલ્યવાન માન્યું એથી જ આની મેં બધી રીતે સંભાળ રાખી. આને ઠંડીથી પીડા ન થાય, ઉષ્ણતાથી સંતાપ ન થાય, સુધાથી કષ્ટ ન થાય, તરસથી વ્યાકુળ ન થાય સર્પાદિકૃત ઉપદ્રથી આ પીડિત ન થાય રે વડે આ આફતમાં ન ફેંસાઈ પડે, દંશ-મશક આને કષ્ટ ન આપે વાત સંબંધી રોગાતાકે-જ્વરાદિ રેગો, સદ્યઘાતિ ચૂલાદિકેથી આ શરીર દુ:ખિત ન થાય, પૈતિક લૈંબિક, સાન્નિપાતિક ગાતંક આ શરીરને મલિન ન કરે, કર્કશ કઠોર વગેરેના સ્પર્શથી એના સૌન્દર્યનું અપહરણ ન કરે અ. પ્રમાણે મેં બધી રીતે આ શરીરની ખૂબ રક્ષા કરી હતી. પણ હવે હું આ એવા પ્રિય શરીરની સાથે પિતાને સંબંધ જીવનના અંતિમ ક્ષણ સુધી છોડી દઉં છું. આમ વિચાર કરીને તે પ્રદેશી Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सु. १६४ सू. भिदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ३८३ इति कृ वा-इत्यालोच्य स प्रदेशी राजा आलोचितप्रतिक्रान्तः-आलोचिताः-पूर्व गुरुमभिमुखीकृत्य प्रकाशिताः अतिचा.: ते पश्चात् प्रतिक्रा ताः-पुनरकण विषयीकृता येनासौ तथा-आलोचनापूर्व कप्रदत्तमिथ्यादुष्कृत इत्यर्थः समाधि प्राप्तचित्त समाथिकः मन् कालमासे-कालावसरे कालं कृत्वा-मृत्युं प्राप्य मर्यामे विमाने उपपातमभायौं देवतया-देव वेन उपपन्नः- मुत्पन्नः । ॥सू० १६४॥ इति प्रदेशिराजस्य वनिं । माप्तम् ॥ अथ प्रदेशिराजजीवय सूर्याभव याऽऽगामिभववर्णनमाह मूलम्-तए णं सूरिया देवे अहुणोववन्नमए चेव समाणे पंच. विहाए पज्जत्तीए पज्जत्तिभावं गच्छइ, तं जहा-आहारपजत्तीए सरीरपज्जत्तीए इंदियपजत्तीए आणपाणपजत्तीए भासमणपजत्तीए, त एवं खलु भो ! सुरियाभेणं देवेणं दिव्या देविड्डी दिव्वा देवजुई दिवे देवाणुभावे लद्धे पत्ते अभिसमन्नागए । ।।सू० १६५॥ __ छ.या-ततः खलु स सूर्याभो देवः अधुन पपन्नक एव सन् पञ्चविधया पर्याप्ति भावं गच्छति, तद्यथा आहारपर्याप्त्या१, शरीरपर्याप्त्या२, इन्द्रियपर्याप्त्या३, आनकरता हूं. इस तरह विचार कर वह प्रदेशी राजा आलोचित प्रतिक्रान्त होकर समाधि में तल्लीन हो गया. और-काल मास में मरण प्राप्त कर सूर्याभविमान में-उपपात सभा में देव पीय से उत्पन्न हो गया. ॥सू० १६४॥ (प्रदेशी राना वर्णनसमाप्त.) "प्रदेशी राजा के जीव-मूर्याभ देव के आगामी भवका वर्णन "तए णं से मरियामे देवे अहुणोववन्नए-" इ-यादि मूलार्थ-"तए ण मरिमे देवे-" इसकेबाद तत्काल उपन्न हुवा ही वह मर्याभदेव पांच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्त हो गया. "तं जहा-आहार રાજા આલોચિત પ્રતિકાત થઈને સમાધિમાં તલ્લીન થઈ ગયે અને કાલ માસમાં મરણ પામીને સૂર્યાભવિમાનમાં ઉપપાત સભામાં દેવ પર્યાયથી ઉત્પન્ન થશે. સૃ.૧૬૪ પ્રદેશી રાજાનું વર્ણન સમાપ્ત. "प्रदेशी नाना १-सूर्याभवन भी मनु वर्णन." ___ "तएणं से सूरियामे देवे अहणोववन्नए" इत्यादि. भूतार्थ-"तएणं सूरियाभे देवे" या२ पछी उत्पन्न थतi. ते सूर्यालय पांय ७२नी परितमाथी त थ गयो. "तं जहा-आहार पज्जत्तीए, सरीर Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ राजप्रनीयसूत्र प्राणपर्याप्त्या४, भापाननःपर्याप्या ५, तद् एवं खलु भो ? सूर्याभेन देवेन दिव्या देवर्द्धिः दिव्या देवद्युतिः दिव्यो देवानुभावः लब्धः प्राप्: अभिसमन्वागतः ।। सू० १६५।। " टीका - "तए णं से सरिया देवें" इत्यादि - ततः खलु स सूर्याभो देवः अधुनोपपन्नक एव - तत्कालोत्पन्नक एवं सन् पञ्चविधा पर्याप्त्या पप्तिभाव गच्छति, पर्याप्तिपञ्चकस्यार्थः पूर्वं व्यशीतितमसूत्रे गतः । एवम् अनेन कारणेन प्रदेशिराजभव आरि. कभावपूर्व कथावकधर्माराधनरूपेण आलोचितप्रतिलोमत्वसमाधिमरणादिरूपेण च कारणेन भो-हे गौतम! सूर्यामदेवेन इयं दिव्या देवादि:- विमानादिरूपा दिव्या देवधुतिः- शरीराभरणादिकान्तिः, दिव्यों देवा नुभावः- देवप्रभावः, लब्धः- उपार्जि:, शप्तः - स्वातीभूतः, अभिसमन्वागत ःभोग्यत्वेन सम्म गभिरन्नमागतः || मू० १६५ ॥ पज्जत्तीए, सरीर जत्तीए. इंदि जत्तीए, आण- विजतीए, भासमणवळ - त्तीए - " वे पांच पर्याप्त इस प्रकार से हैं- आहार यति-शरी पर्याप्त इन्द्रः - पर्याप्त श्वासोच्छ्ास पर्याप्ति और भाषा मनःपर्याप्ति, "तं एवं खलु भो ? सरियाभेणं देवेगं दिव्या देवडी दिखा देवजुई- दिव्वे दे णुभावे लदे पत्ते अभिसमन्नागए- " इस तरह से इस सूर्याभदेवने प्रदेशी राजा के भवमें अन्तिम भवपूर्वक श्रावक धर्म की आराधना की थी. फिर आलोचित प्रतिक्रान्न होकर यह समाधि प्राप्त हुवा था. इन्ही सब कारणों से इसने मूभिदेव के पर्याय में यह दिव्य देवर्द्धि-विमानादि-दिन देवास शरीराभरणादि कान्ति औ दिव्यदेवानुभाव-देवप्रभाव उमात किया है प्राप्त किया है. अपने अधीन किया है. और उसे योग्यरूप होने के कारण अच्छी तरह से उसे भोगा है टीकार्थ- - स्पष्ट है. पांच प्रकार की पर्याप्तियों का स्वरूप पहिले ८३ - वें सूत्रमें प्रगट किया गया है ||० १६५ || पज्जत्तीए. इंदियपज्जत्तीए, आगपोण पज्जन्तीए, भांसमणपज्जत्तीए " ते चां पर्याप्तिमा प्रमाणे छ-माहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्त इन्द्रिय प्रर्याप्ति, श्वास२छपास पर्याप्ति भने लापा मनः पर्याप्त "तं एवं खलु भो ! सूरियाभे णं द वेगं दिव्यानि - दिव्या द े वजुई - दिव्वे देवाणुभावे लड़े पत्ते अभि सम नागए" मा प्रभाले તે સુયૅભદેવે પ્રદેશી રાજાના ભવમાં આસ્તિક ભાવપૂર્વક શ્રાવક ધર્મની આરાધના કરી હતી અને પછી આલેાચિત પ્રતિકાંત થઇને તે સમાધિ પ્રાપ્ત થયેા હતેા. આ બધા કારણેાથી તેણે સૂર્યાભદેવના પર્યાયમાં દિવ્ય દેવદ્ધિ વિમાનાદિ દિવ્યદેવદ્યુતિ શરીરાભરણાદિ ક્રાંતિ અને દિવ્ય દેવાનુભાવ દેવપ્રભાવ ઉપાર્જિત કર્યો છે, મેળવ્યાં છે. સ્વાધીન બનાવ્યાં છે. અને તેને ભાગ્યરૂપ હોવાથી સારી રીતે તેના ઉપભાગ કર્યો છે. ટીકા સ્પષ્ટ છે. પાંચ પ્રકારની પર્યાપ્તસ્મનું સ્વરૂપ પહેલા ૮૩ મા સુત્રમાં પ્રકટ કરવામાં આવ્યુ છે. ૧૬પા ÷ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका स. १६६ सूर्याभदेवस्य आगामिभववर्णनम् ___३८५ मूलम्-सूरियाभस्स णं भते ! देवस्ल केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि पलिओवामाईठिई पण्णत्ता। से णं भंते ! सूरियाभे देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतर चयं चइत्ता कहिं गमिहिइ ? कहि उववजिहिइ ? गोयमा ! महाविदेहे वासे जाणि इमाणि कुलाणि भवंति तं जहा-अढाइ दित्ताइ विउलाई वित्थिण्णविउलभवणसयणासणजाणवाहणाई बहुधणबहुजायरूवरययाई आओगपओगसंपउत्ताइ विच्छड्डियपउरभत्तपाणाइ बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूयाइ बहुजणस्त अपरिभूयाइ, तत्थ अन्नयरम्मि कुलम्मि पुत्तत्ताए पच्चायाइस्तइ ॥ सू० १६६ ॥ छाया-सू. भिस्य खलु भदन्त ! देवस्य कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! चत्वारि पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता । स खलु भदन्त ! सूर्याभो देवः तस्माद्देवलोकाद् आयुःक्षयेणं भवक्षयेण स्थितिक्षयेग अनन्तरं चयं त्यक्त्वा कुत्र हरियाभस्स णं भंते-? देवस्स केवयं कालं ठिई पण्णत्ता-" इत्यादि मूलार्थ-प्रश्न- "मुरियाभस्स णं भंते-? देवस्स केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता-" हे भदन्त ? सूर्याभ देव की स्थिति कितनी कही गई है-३ उत्तर-"गोयमा-? चत्तारि पलिओवमाइ टिई पत्ता -" हे गौतम-? चार पल्योपम की सूर्याभदेव की स्थिति कहीं गई है । प्रश्न-"से ण भंते-? सूर्यामे देवे ताओ देवलोगाओ आउखएणं भवक्रन एणं ठिइक्रन एणं अणंतर चय' चइत्ता कहिं गभिहिइ कहि उ वहिइ- हे भदन्त-? वह सूर्याभ देव उस देवलोकसे आयु क्षय _"मुरियाभस्स' ण भंते ! देवस्स केवइयं काल ठिई पण्णत्ता" इत्यादि. . भूतार्थ-प्रश्न "मृरियाम स णं भंते ! देवस्स केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता" 3 महन्त ! सूर्यामवनी स्थिति सी अवाम मावी छ ? उत्तर- 'गोयमा ? चत्तारि पलिओवमाई ठिई पण्णना-" गौतम! सूर्याभवनी स्थिति या२५८यो पभक्षी वाम मावी छ प्रश्न-' से ण भंते ! सूरियामे देवे ताओ देवलोगाओ आउरित्रएण भवक्त्रएण ठिइक्रन एण अणतर चयं चइत्ता कहिं गमिहिड़ कहिं उपवज्जिहिइ-" महत ! ते सूर्यामहेव ते वयोथी मायुक्षय-मपक्षय Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ राजप्रश्नीयसूत्रे गमिष्यति ? कुत्रोत्पत्स्यते ? महाविदह वर्षे यानि इमानि कुलानि भवति. तद्यथा-आढयानि दीप्तानि विपुलानि विस्तीर्णविपुलभवनश नासनयानवाहनानि बहुधन-बहुजातरूपरजतानि आयोगश्योगसं :युक्तानि छिर्दितमचुभक्तपानानि बहुदासीदास गोमहिपावेलकप्रभूतानि बहुजनस्य अपरिभृतानि, नत्र अन्य मस्मिन कुले पुत्रनया यास्यति ॥ सू० १६६ ॥ भक्षय, एवं-थितिक्षय के वाद अनन्तर देव शरीर को छोडकर यहां जावे गा-३ कहां उत्पन्न होवेगा-३ उत्तर-"गोयमा-? महाविदेहे वासे जाणि इमाणि कुल णि भवत, त जहा-अाइ दित्ताइ विउलाहिं वित्थिन्नविउलभषणसयणासणजाणवाहगाई बहुधाण बहुजावरूदययाइ'-" है गौतरा-? महाधिदेह क्षेत्र में जो ये कुल हैं, कि जो-आन है-दीप्त हैं-विपुल है, विस्तीर्ण पुल भवनवाले है विस्तीर्ण विपुलशयनासन ाले हैं वितीर्ण विपुल यानवाहनवाले हैं, बहुधनमाले है बहुतर बारूप ले है बहुग्जतवाले है 'अ.ओगपओगसंपउत्ताइ विच्छड्डियपउर मत्त बहु दासीदास गो महिस गवेलगप्पभूया', बहुजणस्स अपरिभृयाड -'' आग प्रयोग जिन से व्यापून हत रहते हैं, दीनजनों के लिये यहां से प्रचुः मात्रा में भक्तपान प्राप्त होता है, जिन के पास दासी-दास अनेक संद.1 में से करने के लिये उपस्थित रहता है, प्रचुर मात्रा में जहां गो-महिप, एवं-अजा मेप अदि पशु कायम बने रहते हैं, तथा-कोईभी जन जिनका तिरस्कार नहीं कर सकता है, "तत्थ अन्नयर सि कुलम्मि पुत्तताए पच्चायाइरसई-" उन कुलों में से किसी एक कुल में पुत्ररूप से उत्पन्न होगा. ॥ અને રિતિક્ષય પછી દેવ શરીરને ત્યજીને કયાં જશે? કયાં ઉત્પન્ન થશે ? ઉત્તર"गोयमा ! महाविदेहे वासे जाणि इमाणि कुलाणि भवंति, तं जहा-अाइं दित्ताई विउलाहिं वित्थिन्न विउलसवणसयणासणजाणवाहणाई बहुधण बहुजायरूव श्ययाई' હે ગૌતમ ! મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં જે કુલે છે-જે આઢય છે, દીત છે, વિપુલ છે, વિસ્તીર્ણ ભવનોવાળા છે, વિસ્તીર્ણ વિપુલ શયનાસનવાળાઓ છે, વિરતીર્ણ વિપુલ યાન-વાહન વાળાઓ છે, બહુધન સંપન્ન છે, બહુતર જાતરૂપવાળા છે, બહુરજતવાળા છે. "आओगपओगसंपउनाइ विछड्डियपउर भत्तपाणाई, बहुदासीदासगो महिसगवेलाप्पभूयाइ, बहुजणस्स अपरि भूयाइ" भनाथी माया प्रयोग વ્યાવૃત થતો રહે છે, દીનજને માટે જયાંથી પ્રચુર માત્રામાં ભકત-પાન પ્રાપ્ત થતાં રહે છે, જેમની પાસે દાસીદાસ ઘણી સંખ્યામાં સેવા-ચાકરી કરવા ઉપસ્થિત રહે છે, જ્યાં પુષ્કળ માત્રામાં ગાય મહિષ અને અન્ય, મેષ વગેરે પશુઓ વિદ્યમાન રહે छ, तम is पY भाणुस भनी मना२ ४१ शत! नथी. "तत्थ अन्नयरंसि कुलम्मि पुत्तत्ताए पच्चायाइरसई" ते समांथी ते ५ यसमा पुत्र३ उत्पन्न थ. Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका म. १६६ सूर्याभव य अगामिभववर्णनम् टीका-"मरियामस्स गं' इत्यादि-गौतमस्वामी पृच्छति-हे. भदन्त ! मर्याभस्य खलु देवस्य कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्तो ? । भगवानाह-हे गौतम ! मुभिस्य देवस्य सौधर्मदेवलोंके चचारि पल्योपमानि-चतुःपल्योपमपरिमिता स्थितिः प्रज्ञप्ता । गौतमस्वामी प्राह-हे भदन्त ! स खलु स्र्याभो देवस्तरमाद् देवलोकात् आयुःक्षयेण-देवसम्वन्ध्यायुः कर्मदलिकनिर्जरणेन, भवक्षयेण देवभवगन्यादिकर्मनिर्जरणेन थिति क्षयेण-सौधौ कल्पे सूर्याभे विसाने देवानां या दशसागरोपमथितिः प्रोक्ता तत्क्षयेग, अनन्तरं त पश्चात् चयं-देवशरीर त्य क् वा कुत्र गमिष्यति ? कुत्रोत्पत्स्यते ? भगवानाह हे गौतम ! स सूर्याभद वजीवः सौधर्मदवलोकाच्च्युत्वा महाविद हे वर्षे यानि इमानि-वक्ष्यमाणानि कुलानि भवन्ति, तद्यथा तान्येव दर्शयति आत्यानि-समृद्धानि, दीसानि-प्रशंसनीय वादुज्ज्व___टीकार्थ-गौतम स्वामीने प्रभु से ऐसा पूछा है कि हे भदन्त-? सूर्णभदेव की कितने काल की स्थिति कही गई है-३ इसके उत्तर में प्रभुने उन से वह-गौतम-? सूर्याभदेवकी चा पल्योषण की स्थिति सौधर्म देवलोक में कही गई है। उसके बाद गौतमने पुनः प्रभु से एसा पूछा है कि हे भदन्त-? जव सूर्याभदेव के देव सम्बन्धी आयुर्म के दलिकों की निर्जरा हो ज.वेगी, देव मरूप गत्य दि कर्म की निर्जरा हो जावेगी, तथा स्थितिक्षय-सौधर्म कल्प में सूर्याभविमान में कितनेक देवों की चार पल्योपम की स्थिति कहा गई है, उनमें-सूर्याभदेव की भी चार पल्योपम की स्थिति वह भी जब क्षपित हो जावेगी तब वह देव शीर से चवकर कहां जावेगा-३ कहाँ उत्पन्न होगा -३ इसके उत्तर में प्रभुने कहा-हे गौतम ? मुभिदेव जीव सौधर्म देवलोक से चवकर महाविदेह क्षेत्र में जो ये कुल हैं कि जो-आढय-समृद्ध हैं, दीप्त ટીકાર્થ...--ગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુને આ જાતને પ્રશ્ન કર્યો કે હે ભદત ! સૂયોભ દેવની સ્થિતિ કેટલા કાલની કહેવાય છે? એના ઉત્તરમાં પ્રભુએ કહ્યું–ગતમ! સા ધર્મ દેવલોકમાં સૂર્યાભદેવની સ્થિતિ ચાર પામ જેટલી કહેવામાં આવી છે. ત્યારપછી ગૌતમે ફરી પ્રભુને પ્રશ્ન કર્યો કે હે ભદંત ! જયારે સૂર્યાભદેવના દેવ સંબંધી આયુકર્મના દલિકની નિરાશ થઈ જશે. ભવક્ષય–દેવભવરૂપ ગત્યાદિ કમેની નિર્જરા થઈ જશે, તેમજ સ્થિતિક્ષય સૌધર્મ કર્ધમાં સૂર્યાભવિમાનમાં કેટલાક દેવીની ચાર૫લ્યોપમ જેટલી સ્થિતિમાં કહેવાય છે, તેમાં સૂર્યાભવની પણ ચાપલ્યોપમ જેટલી સ્થિતિ કહેવાય છે તે પણ જ્યારે ક્ષપિત થઈ જશે, ત્યારે તે દવ શરીર ત્યજીને કયાં જશે ? ક્યાં ઉત્પન્ન થશે? એના જવાબમાં પ્રભુએ કહ્યું હે ગૌતમ! સૂર્યાભદવને જીવ સો ધર્મ દેવ લોકથી ચવીને મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં જે કુલ આય-સમૃદ્ધ છે, Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ राजप्रश्नीयसूत्रे लानि, विपुलानि परिवादिना विशालानि, तथा विस्तीर्ण विपुलभवनशयनाऽऽसनयानवाहनानि, तत्र विस्तीर्णा नि-क्षेत्रण महान्ति, विपुलानि-संख्यया प्रचुराणि भवनानि-गृहाणि शयनानि-शयनीयानि, आसनानि-पीठफलकादीनि, यानानि-स्थ. शकटादीनि, वाहनानि गजाश्वादीनि येषु (कुलेषु) तानि, तथा बहुधनबहुजात रूपरजतानि-तत्र-बहूनि-प्रचुराणि धनानि-गरिम धरिम-गेय-परिच्छेद्यरूपाणि, बहुनि-प्रचुराणि जातरूपाणि-सुवर्णानि रजतान-रूप्पाणि येषु तानि, तथाआयोगप्रयोगसंप्रयुक्तानि, तत्र आयोगस्य-अर्थलाभ य प्रयोगाः उपायाः, संयुक्ताव्यापृा यै स्तानि, तथा -विच्छर्दितप्रचुरभक्तपानानि विच्छदि नि-उदारबुद्धया वहुपाचनेनावशिष्टानि, अथवा-विछर्दिानि-त्यक्तानि दीनेभ्यो दत्तानि प्रचुराणि बहूनि भक्तपानानि-यस्तानि, तथा- बहुदास दासगीमहि पगवेलकमभू. नि.-स्त्र वहवो दासी-दासाः प्रसिद्धाः, प्रभू-T:-प्रचुगः गो महिपगवेलकाः-तत्र गोमहिष्म प्रसिद्धाः गवलेका -अजा मेपाश्च येपा तानि, तथा बहुजनस्य अपरिभः तानि-अपरिभवनीयानि एतादृशानि पनि कुलानि सन्ति नत्र-तेषां कुलेषु मध्ये प्रशंसनीय होने से उज्ज्वल हैं, . पुल-परिवार आदि जनां की अपेक्षा विशाल हैं. क्षेत्र की अपेक्षा विस्तीर्ण, एव संग्टया की अपेक्षा प्रचुर गृहो भले हैं, विस्तीर्ण विपुल शयन शय्या-एवं-आसनों व ले है, पीठ-फलक दि ले हैं, स्थशकट-आदिरूप यानों वाले हैं-एवं-गज अवादिरूप वाहनों वाले हैं, तथा-प्रचुर गरिम धरिम मेय परिच्छेद्यरूप धनवाले हैं, प्रचुर जातरूप-सुवर्णवाले हैं, प्रचुर रजत-चान्दीवाले हैं, तथा-अर्थ के लाभरूप प्रयोग जिनसे व्याप्त हुवे हैं. उदार वुद्धि से जिनमें बहुतसा अन्न पान बनाया जाता है, और खाने के बाद अवशिष्ट वचता है। अर्थात्-दीनों को देने के लिये जिनमें प्रचुर अन्न-पान तैयार किया जाता है, जिस में बहुत दासी-दास हैं, बहुतही गो-महिप-और દીસ-પ્રશંસનીય હોવાથી ઉજજવળ છે, વિપુલ–પરિવાર વગેરેના લોકેની દૃષ્ટિએ વિશાળ છે. ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ વિસ્તીર્ણ છે, સંખ્યાની દષ્ટિએ પ્રચુર ગ્રોવાળા છે, વિસ્તર્ણ વિપુલ શયન શય્યા અને આસન વાળા છે, પીઠ ફલક વગેરેવાળા છે, ગજ અવ વગેરે રૂપ વાહન વાળા છે, તેમજ પ્રચુર ગરિમ ધરિમ મેય પરિછેદ્યરૂપ ધનવાળા છે, પ્રચુર જારૂપ-સુવર્ણવાળા છે, પ્રચુર રજત-ચાંદીવાળા છે, તથા અર્થલારૂપ પ્રયોગ જેમનાથી વ્યાકૃત થયેલ છે, ઉદાર બુદ્ધિથી જેઓ પુષ્કળ અનપાન બનાવડાવે છે અને જમ્યા પછી પણ ત્યાં અવશિષ્ટ રહે છે એટલે કે ગરીબોને આપવા માટે જેઓ પ્રચુર અન્નપાન તૈયાર કરાવડાવે છે જેમની પાસે ઘણાં દાસી Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८९ सुबोधिनी टी सू. १६७ सूर्याभदेव य आगामिभववर्णनम् अन्यतमग्मन्—कस्मिंश्चिदेकस्मिन् कुले पुत्रनया - पुत्रत्वेन पुत्रो भूत्वेत्यर्थः प्रत्या याम्यति प्रत्यागमिष्यति पुनर्मानुष्भवे जन्म ग्रहीष्यतीत्यर्थः ॥ १६६ ॥ मूलम् - तए णं तंसि दारगंसि गव्भगयसि चेव समाणंसि अम्मापिऊणं धम्मेदढा पइण्णा भविस्स । तए णं तस्स दारगस्स माया नवह मासाणं बहुपडि पुष्णाणं अडमाणं राईदियाणं वि* ताणं सुकुमालपाणपाय अहीणपडिपुण्णप चिंदियसरीरं लक्खवंजणगुणोववेयं माए, साप्माण पडिपुण्णसुजायसव्वंगसुदरंगं ससिलोम्माकार कतं पियरुण सुरूवं दारय पया हि स |सू०९६७।। छाया - ततः खलु तस्मिन् दारके गर्भगते एव सति अम्बात्रिोः धर्मे प्रतिज्ञा भविष्त । ततः खलु तम्य दारकस्य माता नवसु मासेषु बहुप्रतिपूर्ण अर्धाष्टमेषु रात्रिन्दिवेषु व्यतिका तेषु सुकुमालपाणिपादम् अहीनप्रति पूर्णगवेलक अजा-मेप हैं, एवं- जो अनेक जनों द्वारा भी अपरिभूत हैं ऐसे कुलों में से किसी एक कुल में पुत्ररूप से उत्पन्न होगा. | सू० १६६ ॥ “तणं तंसि दारगंसि गव्भगयंसि चैव समास" इत्यादि "" मूलार्थ - “तणं तेसिं दरगेसि गन्भगयंसि चेव समाणसि ” जब वह दारक गर्भ में आवेगा-तत्र इस को गर्भ में आते ही - "अम्मा पिउण धम्मे दहा पणा भविस्सद् - माता - पिताको धर्म में दृढ प्रतिज्ञा होगी "तएण तरस दारंग समाग नवहं मासा बहुपडिपुप्णाणं अट्टमाणं राइंदियाण चिह्न - कंताणं सुकुमालपाणिपायें - ' नौ मास साढे सात दिन जब पूरा हो जावेगे तब उस दारक की माता सुकुमार हाथ-पग वाले - " अहीण पडिपुण्णवंचिदियદાસેા છે, ઘણી ગાયે તેમજ મહિષ, ગવેલક અજા, મેષ છે અને જે ઘણા માણસે વડે પણ અપારિભૂત છે એવાં કુલેમાંથી તે કાઇ એક કુળમાં પુત્રરૂપે જન્મ પામશે. પ્રસૂ૦૧૬૬૫ “त एणं तेमिं दारगंसिं गन्नगयंसि चेव समासि इत्यादि । भूसा – “त एवं तंसि दारगंसिं गव्भगय सि चेत्र समाणंसि” न्यारे ते हा२४ गर्भभां यावशे-त्यारे तेने गर्भभां यावतां ? "अम्मा पिउणं धम्मे दहा पड़ण्णा भावि सड़" भातापिताने धर्मभां दृढ प्रतिज्ञा थशे. "तएणं तस्स दारगरस माया नचन्हं मासाणं बहुपडि पुष्णाणं अद्धमाण राई दिया विक्कणं सुकुमालपाणियाय" नव भास ने सादा सात हिवसो क्यारे पूरा था नী ત્યારે તે દારકની માતા सुड्डुभार हाथयगवाणा “अहीण परिपुष्ण पंचिदिय सरीर" Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गजमनीयमंत्र पञ्चेन्द्रिय शरीरं लक्षणव्यञ्जनगुणोपपतं मानोन्मानप्रमाणप्रतिष मुजात्सर्वान सुन्दराङ्ग शशिसौम्याऽऽकारं कान्तं निगदर्शनं सुरूपदारकं प्रजनिगते ॥ १६७।। टीका-"तए णं तंसि दारगंसि" इ गादि-याच्या निगासिदा ।स. १६७ मूलम् ---तए णं तस्स दारगस्स अम्मा-पियरे पढम दिवमे ठिइवडियं करेहिंति, तइयदिवसे चंद सरदेसावणियं करिस्मति, छ । दिवसे जागरियं जागरिरसंति, एकारलसे दिवसे बीते चपन वारसाहे दिवसे णिव्विले असुइजायकम्मकरणे चोक्व लमजिभोवलित्ते विउलं असणपाणखाइमसाइमं उबरबडाविस्संति, मित्तणाइणियशसयणसंबंधिपरिजणं आसंतेता तओ पच्छा पहाया कयवलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता सुद्धपावसाई संगालाई वत्थाइ पवरपरिहिया अप्पमहन्धासरणालंझियमीरा भोयणमंडसि सुहासणवरगया तेणं मित्तणाइणियगसबगसंवधिपरिजणणं सद्धि विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणा विसाएमाणा परिभुजेमाणा परिभाएमाणा एवं चेव विहरिस्संति, जिमियभुत्तत्त सरीर' अहीन परिपूर्ण पांचों इन्द्रियों से युक्त शरीराले-"लवर बंजण गुणोववेय, माणु-माणप्पमाणपडिपुष्णसुजायसव्यंगसुंदगं ससिसोमाकारकंत पियदसणं सुरूवं दारथं पयाहिसि-" लक्षणव्यञ्जन गुणों वाले, मानोन्मान प्रमाण प्रतिपूर्ण सुजात सर्वाङ्ग सुन्दर शरीराले, चन्द्रमा के जैसे सौम्य आगरवाले, कान्त-मिगदर्शनयुक्त, एवं सुरूप सम्पन्न ऐसे, पुत्र को जन्म देगी. टीकार्थ-स्पष्ट है. ॥सू० १६७॥ माहीन परि५पांये धन्द्रियोथी युत १२ पाप "लक्षणवंजणगुणोववेयं, माणुभ्माण प्पमाणपडिपुण्णसुजायसव्वंगसुदरगं ससिसोमाकार कंतं पियदसण सुरुवं दारयं पयाहिसि" सक्षप्य व्यन गुणा, भानान्मान પ્રમાણે પ્રતિપૂર્ણ સુજાત સર્વાગ સુંદર શરીરવાળા ચદ્ર જેવા સૌમ્ય આકારવાળા, કાંત–પ્રિયદર્શન યુક્ત અને સુરૂપ સંપન્ન એવા પુત્રને જન્મ આપશે. ટકાર્થ સ્પષ્ટ છે. સૂ૦ ૧૬ળા Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवो धनी टीका स. १६८ सूभि । आगामिभव र्णनम् रागयावि य र्ण समाणा आयंता चोवखा परमसुइयात मित्तणाइणियगसपणसंबंधिपरिजणं विउलेणं वत्थगंधमल्लालंकारेणं सकारिस्पति, सम्माणिस्तति, तस्लेव मत्तणाइ णिपगलयणसंबंधिपरिजणस्त पुरओ एवं वइस्लति-जम्हा गं देवाणुप्पियो ! अन्ह इमं सि दारगसि गब्भगय सि धम्मे दहा पइण्णा जाया तं होउ णं अम्हं एस दारए दढ पइपणे णामेणं। तए णं तस्ल दारगस्ल अम्मा पियरो नामधेज करिस्संति-दढपइ. पणेति । तए णं तस्स अम्मापियरो अणुपुव्वेण ठिइवडियं च १, चंदसूरियदंसणावणियं च २, धम्मजागरियं च ३, नामधिज्जकरणं च १, परंगमणं च ५, पचंकमणं च ६, पच्चक्खाणयं च ७, जेमंणगं च ८, परिवछावणगं च ९ पज पावणगं च १०, कन्नवेहणं च ११, सबच्छरपडिलेहणेगं ध १३ चूडाक्यायणं च १३, उवणयणं च १४, अन्नाणि च बहणि गव्भाहाण जन्मणाइयाइं कोउगाई महया इढिसकारसमुदएणं करिस्तंति ॥ सू० १६८ ॥ छाया-ततः खलु तस्य दारकस्य अम्बापितरौ प्रथमे दिवसे स्थितिपतितां वरिष्यतः, तृतीयदिबसे चन्द्रसूरदर्शनिकां करिष्यतः, षष्ठे दिवसे 'तएणं तस्स दारगम्स अम्मापियरो-'' इत्यादि मूलार्थ-"तएण-" उसके बाद "तरस दारगम्स--" उस दारकके, "अम्मापियरो-" मातापिता-"पढरे दिवसे-" प्रथम दिवस "ठिइवडिय-" कुलपरम्परा से आगत पुत्र जन्मोत्सव रूप क्रिया-"करेहिति-” करेंगे-तइयदिबसे "तृतीय दिवस-"चंदसर दंसणावणियं करिग्संति-" चन्द्रदर्शनरूप एवं-सूर्यदर्शनरूपक्रिया "तए णं तस्स दारगरस अम्मापियरो" इत्यादि। भूदाथ - "तए णं" त्यार पछी "तस्स दारगास" ते २४ना "अम्मापियरो" मातापिता हमे दिवसे" प्रथम हिवसे "ठिइपडिय" पुस ५२ ५२त पुत्र न्मोत्सव ३५ विधियो "करेहिति" ४२री. "तइयदिवसे' त्रीत से "चंद सूर दसणावणिय करिसंति" य-दर्शन ३५ मने सूर्यन३५ जियाग २ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - राजनीयमंत्र ३९२ जागरिकां जागरिष्यतः, एकादशे दिवसे : तिक्रान्ते, संग्राप्ते हादशाहे दिवस, निवृत्ते अशुचिजातकर्मकरणे चोझे संमार्जितोपलिप्ते (गृहे) विपुलम् अशनपानखाद्यस्वायम् उपरकारयिष्यतः, मित्रज्ञातिनिजकस्वजन म्बन्धिपरिजनम् आमन्य जो कि-पुत्र जन्मोत्सव पर की आती है-करेंगे. "छठे दिवसे जागरियं जागरि संति-' छठे दिन रात्रि जागरणरूप क्रिया करेंगे। "एक्कारसमे दिवसे बीड से संपत्ते वारसाहे दिवसे णिविते असह जायकम्मकरणे-" ग्यारहवां दिन जब व्यतीत हो जायेगा. और-१२-4 दिन जब प्रारम्भ होगा तब उस दिन जन्म सम्बन्धी अशुचिता की निवृत्ति हो चुकने के बाद-"चोक्खे समज्जि ओवलित्ते विउल असण पाण खाइम साइमं उवक्रवडाविस्संति-" गृह को शुद्धि क्रिया करेंगे। पहले उस वे सम्मानी-बुहारी से कूड़ा-कचरा निकाल कर साफ करे गे और फिर उसे गोमय-आदि से लीपे-पोत करेंगे। इस प्रकार शुद्धिक्रिया हो जाने पर फिर वे अशन-पान-खाद्य, एवं-स्वाध रूप चार प्रकार के आहार को पकावेंगे-"मित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरिजणं आमंतेत्ता, तओ पच्छा व्हाया कयवलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता-" इसके बाद वे मित्रजनों को ज्ञाति के जनों को-मातापिता आदिकों को, अपने पुत्रादिकों को. पितृव्यादिक स्वजनों को स्वश्वशुर-पुत्रश्वशुर आदिको दासी दास आदिम्प परिजनों को आमन्त्रित करेंगे, फिर-स्नानकर बलिकर्म-काक आदि को अन्न पुत्र मात्सव समये ४२वामां आवे छ ४२, "छठे दिवसे जागरिय. जागरिरसंति" ७४ हिवसे रात्रि २९५ ४२२. "एकारसमे दिवसे वीइक्कंते संपत्ते बार हे दिवसे णिचित्ते असुइ जायकम्म करण" या२मा विस न्यारे पूरा यश અને બારમે દિવસ પ્રારંભ થશે ત્યારે તે દિવસે જન્મ સંબંધી અશુચિતાની નિવૃત્તિ थ६ ४ ते पछी "चोवखे समज्जिओपलिते विउलअसणपाणखाइम साइम उवरनडा विस्संति' घरने शुद्ध ४२ान यो ४२. पडसा तमा સન્માર્જની-સાવરણ–થી કચરો સાફ કરશે અને પછી તેને ગમય વગેરેથી લીપીને સ્વચ્છ બનાવશે. આ પ્રમાણે શુદ્ધિ ક્રિયા થઈ જવા બાદ પછી તે અશન, પાન, पाय भने स्वाध३५ यार प्रा२ना माडाने मानावरा.. मित्तणाइ पियग सयण संबंधि परिजण आम तेत्ता, तओ पच्छा व्हाया करवलिकम्मा कय कोउय मगल पायच्छित्ता" त्या२ पछी नेमा भित्रानान शातिनान, मातापिता वगैरेने, पाताना પુત્રાદિકેને, પિતૃવ્યાદિક સ્વજનેને, સ્વશુર-પુત્ર-વસુર વગેરેને, દાસી દાસ વગેરે પરિજનોને આમંત્રિત કરશે. પછી સ્નાન કરીને બલિકર્મ-કાગડા વગેરે પક્ષીઓને भन्न योरेनौ, म . अतु: म प्रायश्चित्त ४२. सुद्धप्पावेसाई Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका स. १६८ याभिदेवस्य आगामिनववर्णनम् ततः पश्चात् स्नातौ कृतवलिकर्माणौ कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्तौ शुद्धप्रवेश्यानि माङ्गल्यानि वस्त्राणि प्रवरपरिहितौ अल्पमहाभिरणालई तशरीरौः भोजनमण्डपे सुखासनव गतौ । तेन . - मित्रज्ञातिनिजकस्वजनसम्बन्धिपरिजनेन साधः विपुलम् अशनं पानं खाद्य स्वायम् आस्वाद यन्तौ विस्वादयन्तौ परिभुञ्जानौ परिभाजयन्ती एवमेव खलु विहरिष्यतः। जिमितभुक्तोत्तरागतावपि च खलु सन्तौ आचान्तौ चोक्षौ परमशुचिभूतौ तं मित्रज्ञातिनिजकस्वजनसम्बन्धिपरिजनं विपुलेन वस्त्रगन्धमाल्यालङ्कारेण सत्करिष्यतः सम्मानयिष्यतः, तस्यैव मित्रज्ञातिनिजक वजनआदिका भाग करेंगे कौतुक-मङ्गलप्रायश्चित्त करेंगे-"सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई वत्थाई पवरपरिहिया अप्पमहग्धाभरणालंकियसरीरा भोयणमंडवसि-” फिर शुद्ध माङ्गलिकवस्त्रों को जो कि-राजसभा में जानेके लिये पहिरने योग्य होते हैं उन्हें पहिरेंगे, बाद में अल्प वजनवाले-और-विशेष. मूल्यवाले. ऐसे. अलं. ड्कारों को धारण करे गे, इस तरह सब प्रकोरसे सजधजकर, फिर-भोजनमण्डप में-भोजनशाला में-"सुहासणवरगया- अपने-अपने श्रेष्ठ आसन पर बैठ कर "तेण मित्तणाईणियगसयणसंबंधिपरिजणेणं सद्धि विउलं असणं पाणं खाइम - साइमं आसाएमाणा विसाएमाणा परिमुंजेमाणा परिभाए माणा एवं चेव णं विहरिस्सति-" उन मित्र ज्ञाति निजक स्वजन सम्वन्धिान एवं परिजन के साथ उस विपुल अशन-पान खाद्य, एवं-स्वाधरूप चतुर्विध आहार का पहले आस्वादन करेंगे-फिर विशेष आस्वादन करेंगे, उसे रुचिपूर्वक खायेंगे, एक दूसरे को देगे-"जिमियभुत्तुत्तरागया वि य णं समाणा आयंता चोक्खा, परमसुइभूया त मित्तणाइणियगसयगसंबंधिपरिजग विउलेणं वत्थगंधमल्लालंकारेणं सक्कारिस्संति, मगल्लाइ वत्थाई पवरपरिहिया अप्पमहग्धाभरणालंकियसरीरा मोयणमडवसि" પછી રાજ્યસભામાં જવા માટે પહેરવા ગ્ય શદ્ધ માંગલિક વસ્ત્રો ધારણ કરશે. ત્યાર બાદ અ૫ભારવાળાં અને વિશેષ કીમતી એવાં અલંકારો ધારણ કરશે. આ પ્રમાણે સર્વ રીતે સુસજ્જ થઈને પછી તેઓ ભજન મંડપમાં-ભેજનશાળામાં"सुहासणवरं गया" पातपाताना श्रेष्ठ मासना ५२ पसीने "तेणं मित्तणाइ णियगसयणसंबंधिपरिजणेणं सद्धि विउलं असणं पाणं खाइमं साइम' आसाएमाणा विसाएमाणा परिभुजेमाणा परिभाएमाणां एवं चेव णं विहरिस्संति" ते भित्र, શાતિ, નિજક, રવજને સંબંધિજનો અને પરિજનની સાથે તે વિપુલ અશન પાન ખાદ્ય અને સ્વાદ્યરૂપ ચતંવિધ આહારનાં પહેલાં આસ્વાદ કરશે પછી વિશેષ' વાદન કરશે. તેને સુરુચિપૂર્ણ થઈને જમશે. પરસ્પર એક બીજાઓને આપશે. जाम भुत्तुत्तरागया त्रियणं समागा आयंता चोक्खा, परमसुइया तमित्तणाणियग सयणसंबंधिः परिजणं विउलेणं वत्थगंधमल्लालंकारेणं स्ककारिस्तंति, Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ राजप्रश्नीयसूत्रे म्बन्धिपरिजनस्य पुरत एवं वदिष्यतः-यरमात् खलु देवानुप्रियाः ! आवयोः अभिमन् दारके गभंगते एवं सति धमे दृढा प्रतिज्ञा जाता तद् भवतु खलु आवयोः एप दार को दृढ तिज्ञो नाग्ना। ततः खलु तस्य दारकस्य अम्बापितरौ नामधेयं करिष्यतः दृढप्रतिज्ञ इति । ततः खलु तस्य अम्बोपितगै अनुपूर्वेण स्थितिपतितां च १, चन्द्रसूर्यदर्शनिकां च २, धर्मजागरिकां च ३, नाम समाणिस्संति-" भोजन कर चुकने के अनन्तर फिर वे अपने-अपने उपवेशन (वेटने के) स्थानपर बैठ कर शुद्ध जल से आचमन कर चोखे होंगे, इस तरह . परमशुचिभृत हुवे वे-मित्र, ज्ञाति, निजक स्वजन, सम्बन्धि परिजनों को विपुल वरन गन्ध माल्य अलङ्कारों से सत्कृत करेंगे । एवं-मानपूर्वक उनका आदर करेंगे-“त सेव मित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरिजणरस पुरओ एवं वइस्सति-" फिर वे-उन्हीं मित्र-ज्ञा त-निजक-स्वजन सम्बन्धी परिजनों के समक्ष इस प्रकार कहेंगे-"जम्हाणं देवाणुप्पिया ? अम्हं इमंसि दारगसि गभगयंसि चेव समाणसि धम्मे दृढा पडण्णा जाया-" हे देवानुप्रियो ? जिस कारण से इस दारक के गर्भ में आते ही हम लोगों की धर्म में दृढ प्रतिज्ञा हुवी, "ते होऊण अम्हं एस दारए दढपण णामेणं-" इस कारण यह हमारा दारक दृढप्रतिज्ञ इस नामवाला हो-"तएणं तस्स दारगास अम्मा पियरो नामधेनं करिस्संति दढपइण्णेत्ति-" इस तरह उन दारक के मातापिता उसका दृढ प्रतिज्ञ ऐसा नाम करेंगे। "तएणं तस्स अम्मापियरो अणुपुव्वेणं टिइडियं च-१ चंदसरियदसणावणियं च संमाणिरसति" लोन मा तया पातपाताना 6वेशन स्थान५२ मेसीन शुद्ध જળથી આચમન કરીને પવિત્ર થશે. આ પ્રમાણે પરમશુચિભૂત થયેલા તે મિત્ર, જ્ઞાતિ, નિજક, સ્વજન, સંબંધી પરિજનને વિપુલ વસ, ગંધ, માલ્ય અલંકારોથી सत्कृत ४२. अने सम्मानपूर्व तेमनी मा६२ ४२d "तस्सेत्र मित्तणाइणियग सयणसंबंधिपरिजणस्स पुरओ एवं वहस्संति" पछी तया ते भित्र ज्ञाति निxs स्वनी परिनानी सामे २॥ प्रमाणे शे-"जम्होणं देवाणुप्पिया ! अम्हं इमंसि दारगसि गभगयसि चेव समास घम्मे दृढा पइण्णा जाया." દેવાનુપ્રિયે ! આ દારક જ્યારથી અમારા ગર્ભમાં આવ્યું છે ત્યારપછી અમારી भनभा धर्म प्रत्ये ६८ प्रतिज्ञा भी छ. "तं हेऊणं अम्हं एस दारए दृढ़पण णामेण" माथी अभा। सौ १२५ १८ प्रतिज्ञ RA नामवाणी थाय. "तएणं तरस दारगास अम्मापियरो नामधेज्जं करिसंसि दढपइण्णोति" मा प्रभार) ते दा२४ना भातापिता तेनु प्रति मे नाम रामशे. "तएण• तस्स अम्मापियरो अणुपुव्वेण टिइवडियं च १ चंदमूरियदसणावणियं च २ धम्मजागरिय Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका स. १६८ सूर्याभदेवस्य आगामिभववर्णनम् ३९५ धेयकरणं च ४, परगमनं च (पर्यङ्गनं च) ५ प्रचङ्क मणकं च ६ प्रत्याख्यानकं च ७ जेमनकं च ८ प्रतिवर्धापनकं चं, ९ मजल्पनकं च १० कर्णवेधनं च ११ संवत्सर तिलेखनकं १२ चूडापनयनं च १३ उपनयनं च १४ अन्यानि च बहूनि गर्भाधानजन्मादिकानि कौतुकानि महता ऋद्धिसत्कारसमुदयेन करिप्यतः ॥ मृ० १६८ ॥ टीका-"तए णं तस्स" इत्यादि-ततः खलु तस्य दारकस्य अम्बापितरौ प्रथमे दिवसे-जन्मदिने स्थितिपतितां-स्थित्या-कुलमर्यादया पतिता-समागता -२ धम्मजागरियं च-३ नामधिज्जकरणं च-४ परंगमणं च-५ पचंकमणं च-६ पच्चरत्राणयं च-७ जेमणगं च-८ पडिबद्धावगणं च-९ पजपावणगं च-१० कन्नवेहंग च-११ संवच्छरपढिलेहणगच-१२" क्रमशः-जब वे स्थिति पतिज्ञ -१चंद्रसूर्यदर्शन-२.धर्मजागरण-३ नामकरण-४ इन उत्सवों को करचुके गेतब इनके वाद-परमगमन५ प्रचमण-६ प्रत्याख्यान-७ अन्नप्राशन-८ प्रतिवर्धापन-९ प्रजल्पनक-१० कर्णवेधन-११ संवत्सर प्रतिलेखनक-१२ "चूडावणयण-१३ उवणयणं च-१४ अन्नाणिय वहणि गम्भाहाणजम्मणाइयाइ कोउगाई महया इसिक्कारसमुदएणं करिसंति-" चूडानपयन, और-१४ उपनयन इन अवशिष्ट उत्सवों को करेंगे. तथा-इनके अतिरिक्त और भी बहुत से गर्भाधानादि सम्बन्धी अपनी ऋद्धि के अनुरूप सत्कार करने आदिरूप से करेंगे। टीकार्थ-उस दारक के बालक मातापिता प्रथम जन्मदिवस के समय कुल मयाँदासे चली आई पुत्रजन्मोत्सव क्रिया करेंगे, इसी के निमित्त तीसरे दिन वे च ३ नामधिज्जकरणं च ४, परंगमणं च ५, पचंकमणं च ६, पञ्चक्वाणय' च ७, जेमणगं च ८, पडिबद्धारगणं च ९, पजपावणगं च १०, कन्नवेहणं च ११, संवच्छरपडिलेहणग' च : १२." मनु मे न्यारे तो स्थिति प्रतिज्ञ १ ચન્દ્ર દર્યદર્શન ૨, ધર્મજાગરણ ૩, નામકરણ ૪, આ ઉત્સવો ઉજવી લેશે ત્યાર બાદ પરગમન ૫, પ્રચક્રમણ ૬, પ્રત્યાખ્યાન ૭, અન્ન પ્રાશન ૮, પ્રતિવર્યાપન ૯, प्रपन १० ४ वेधन ११, सवत्स२ प्रतिमन १२, "चूडारणपणं १३, उनणयणं च १४, अन्नाणिय बहणि गम्भाहाण जम्मणाइयाई कोउगाई महया इा? सक्कारसमुदएणं करिसति'' यूपनयन भने १४ उपनयन मा अवशिष्ट उत्सवो ઉજવશે. તેમજ બીજા પણ ઘણા ગર્ભાધાન સબધી સત્કાર કરવારૂપ કાર્યો પિતાની ऋद्धि मनुसार ४२शे. ટીકાર્થ –તે દારકના માતાપિતા જન્મને પહેલે દિવસે કુલપરંપરાગત પુત્ર જન્મોત્સવ ક્રિયાઓ કરશે. એ નિમિત્તે જ ત્રીજા દિવસે તેઓ ચન્દ્ર-સૂર્યદર્શન કરશે. Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीयसूत्रे ३९६ पुत्रजन्म सवरूपा क्रिया, तां करिष्ठतः, तृतीय दिवसे चन्द्रसूर्यदर्शनिकां-चन्द्रदर्शन-सूर्यदर्शनरूपां पुत्रज मोरूवविशेपलक्षणां प्रक्रियां करिष्यतः, पष्टे दिसे जागरिका रात्रिजागरणरूपां क्रियां जागरिष्यतः-करिप्यतः, एकादशे दिः से व्यनिकान्ते-उछ तीते सप्राप्ते-समागते द्वादशाहे-द्वादशम् अहो यस्मिन् तत्तस्मिन् तादृशे दिवसे हादशाहे दिवसे इत्यर्थः, अशुचिजातकर्मकरणे-अशुचीता-जन्माशौचचनां कुटुम्बितां जातकर्मणः-नवजातशिशुसम्बन्धिसंस्कारस्य करणं-विधानं, तस्मिन् निवृत्ते समाप्ते सति जन्माशौचनिवर्तनानन्तरमित्यर्थः, चोक्ष-स्वच्छ, संमाजितोपलिप्ते-संमार्जिते-मार्जन्या कचवरापनयनेन. संशोधिते उपलिप्ते-गोमयादिना कृतलेप गृहे, विपुलं-प्रचुरम् अशनपानखाद्यस्वायम् उपस्कारयिष्यतः-पाचयिप्यतः मित्र-ज्ञाति-निजक-स्वजन-सम्बन्धि-परिजन-तत्र मित्राणि-सुहृदः,ज्ञातयःमातापिताभ्रात्रादयः, निजका:-स्वकीयाः पुत्रादयः, स्वजना:-पितृ दिग: सम्बन्धिनः-वश्वशुरपुत्रश्वशुरादयः, परिजनो दासी-दासादिः, एतेषां समाहारे तत् आमन्त्र्य, ततः पश्चात् स्नातौ-कृतस्नानौं कृतवलिकर्माणौ-काकादिभ्यः कृताचन्द्र-सूर्य दर्शनरूप दिया करेंगे। अर्थात-नव जात शिशु को चन्द्र-सूर्यका दर्शन करावेंगे-'जब ग्यारहव दिन व्यतीत हो जावेगो, और-१२ वारहवां दिन प्रारम्भ हो जावेगा. तब वे जातकर्म ब्रिया करेंगे, इस निया में-नव जात शिशु के उत्पन्न हो जाने से अशुचिता कुटुम्ब के लोगों में मानी जाती है, अर्थात् जन्म सम्बन्धी अशुचिता इस दिन समाप्त हो जाती है, घर वगैरे ह की लिपाइ- पोताई की जाती है. वस्त्रों को धुलवाकर स्वच्छ कराया जाता है। इस तरह अशुचि व्यपरोपण करके फिर ने अशन आदिरूपचारों प्रकार के आहार को वनवावेंगे. और अपने मित्र-सुहृज्जनों को माता-पिता-भाइ आदिरूप ज्ञातिजनों को, पुत्रादिरूप निजजनों को, पितृव्य-आदिरूप-स्वजनों को, अपनेश्वशुर एवं-पुत्र श्वशुर आदि सम्बन्धिजनोंको, एवं-दासीदास आदि परिचारक એટલે કે નવજાત શિશુને ચન્દ્ર-સૂર્યના દર્શન કરાવશે. જ્યારે અગિયાર દિવસ પર થશે અને બારમે દિવસ પ્રારંભ થશે ત્યારે તેઓ જાતકર્મ વિધિ કરશે. આ વિધિમાં નવજાત શિશુના જન્મથી કુટુંબના લોકેમાં જે અશુચિતા મનાય છે તેને સાફ-સફાઈ વગેરે કરીને દૂર કરવામાં આવે છે. એટલે કે જન્મ સંબંધી અશુચિતા આ દિવસે મટી જાય છે, ઘર વગેરે લીપવામાં આવે છે. વસ્ત્રો ધોવડાવી સ્વચ્છ કરવામાં આવે છે. આ પ્રમાણે અશુચિ વ્યપરોપણ કરીને’ પછી તેઓ અશન-પાન વગેરે રૂપ ચાર પ્રકારના આહાર બનાવડાવશે અને પિતાના મિત્ર સહદ જન, માતા પિતા, ભાઈ વગેરે રૂપ જ્ઞાતિજનોને, પુત્રાદિરૂપ નિજજનેને, પિતૃવ્ય વગેરે રૂપ સ્વજનેને, પિતાના શુર અને પુત્ર વિશુર વગેરે સંબંધીજનેને અને દાસીદાસ વગેરે Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९७ सुबोधिनी टीका सू, १६८ सूर्याभदेवम्य आगामिभववर्णनम् नभागौ कृतकौतुकमङ्गल ायश्चित्तौं-कृतानि रम्पादितानि कौतुकानि-मपीतिलकादीनि मङ्गलानि-मङ्गलकराणि दुःरनप्नादिफलनिवारणार्थ सर्पपदध्यक्षतादीनि तान्येव प्रायश्चित्तानि अवश्यकरणीयत्वात् याभ्यां तौ तथा, शुद्धप्रवेश्यानि-शुद्धानि पवित्राणि स्वच्छानि च प्रवेश्यानि राजसभाप्रवेश योग्यानि, ' मङ्गयानि-मङ्गलजनकानि वस्त्रागि प्रचरपरिहितौ सुष्टुता र थारीति धारितवन्तौ, अल्पमहार्धा भरणालकृतशरीशे-तत्र अल्पानि-स्तोकभाराणि महार्याणि-महामूल्यानि आभराणिनिभूपणानि, तैः अलकृत-सृषितं शरीरं ययोस्तौ तथा, भो.नमन्डपे-भोजनशालायां, सुखासनवरगतौ--निजनिनश्रेष्ठासने सुखरूपे । समुपविष्टौ सन्तों तेन मित्र ज्ञातिनि.कम्य नरवन्धि परि नेन साधं विपुलम् अशनं पानं खाचं स्वाद्यम् आस्वादन्ती, परिशुञ्जानौ-रुचिपूर्वकं भुजानो, परिभाजयन्ती-अन्येभ्यः प्रयच्छन्तौ. एवमेव-अनयेव रीत्या खलु विहरिष्यतः-स्थाप्यतः । जिमितमुक्तोत्तरागतावपि-जिमिती भुक्तवन्तौ भुक्तोत्तरं-भोजनोत्तरकालम् आगतौं-निजनिजोपवेशन थाने समागतौ परि नों को जीमने के लिये आमन्त्रित करेंगे। फिर- नान से, काकआदि यो के लिये कृतान्न विभागसे मपीतिलकादिकरूप कौतुकों से, मङ्गलकर दुःस्वम आ द अवाञ्छनीय फल की निवृत्ति के लिये सरसों-दधि-अक्षतरूप प्रायश्चित से निपटकर राजसभा मे प्रवेश के समय पहनने योग्य स्वच्छ- पवित्र '-माङ्गलिक वस्त्रों को अच्छी तरह पहनव र, एवं अल्पभारवाले अमोल अलहारों से शरीर को सुशोभित करने के बाद भोजनशालामें आवेगे, और-वहांपर अपने योग्य रथापित श्रेष्ठ आसनपर बैठकर आमन्त्रित होव र आये हुवे उन मित्र-ज्ञाति-निजक -स्व.न-सम्बन्धीजन के साथ चिपूर्वक भोजन करेंगे, एक दु रे के लिये मन विनाद करते हुवे भोजन करलेने की क्रिया समाप्त हो जावेगी, तब वे हाथ मुख धोकर अपने स्थानपर आकर विराजमान हो जावेंगे, वहां शुद्धोदक ' પરિજનેને જમવા માટે આમંત્રિત કરશે. પછી સ્નાનથી, કાગડી વગેરેને અનભાગ આપવાથી મષતિલક વગેરેપ કૌતુકેથી મંગલ કરીને દુવપ્ન વગેરે અવાંછનીય ફળની નિવૃત્તિ માટે સરસવ, દધિ, અક્ષતરૂપ પ્રાયશ્ચિતથી નિવૃત્ત થઈને રાજસભામાં જવા ચાગ્ય વસ્ત્રો સારી રીતે પહેરીને અને અ૫ભાયુકત બહુ કીમતી અલંકારોથી શરીરને સુશોભિત કરીને પછી તે ભોજનશાળામાં જશે, અને ત્યાં પોતાને ગ્ય થાપિત શ્રેષ્ઠ આસન પર બેસીને આમંત્રિત મહેમાને-મિત્રજ્ઞાતિ-નિજક સ્વજનસંબંધીજન અને પરિજનની સાથે રૂચિપૂર્વક જમશે. મને વિનેદ કરતાં એકબીજાને પીરસાવશે. આ પ્રમાણે આનંદપૂર્વક જમવાનું કામ પુરૂ થઈ જશે. ત્યાર પછી તેઓ હાથ, મુખ પેઈને પિતાપિતાના સ્થાન પર આવીને વિરાજમાન થઈ જશે. ત્યાં શુદ્ધોદ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीयसूत्रे सन्ती आचान्तौ- शुद्धोदकयोगेन कृताऽऽचमनौं चोक्षौ-लेपसिस्थाद्यपनयनेन स्वच्छौ, अत एव परमशुचिभूतों अतीव पवित्रो, तं मित्रज्ञातिनिजकस्वजनसम्वधिपरि जनं विपुलेन प्रचुरेण, वस्त्रगन्धमाल्यालङ्कारेण-तत्र वस्त्राणि-क्षौ मक-कासिकदुकूलरूपाणि; गन्धाः- पुष्पनियाँ सामोदपरिमलरूंपाणि सुगन्धद्रव्याणि, माल्यानिपुप्पमालाः, अलङ्काराणि-कटककुण्डलाद्याभरणानि तेषां समाहारः, तेन सत्करिष्यतःतत्प्रदानेन सत्कार करिष्यतः, सम्मान यष्यतः-मानपूर्वकमादरिष्येते, ततः तस्यैव मित्रज्ञातिनि नकस्व जनसम्बन्धिपरिजनम्य पुरतः-अग्रे, एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण वदिष्यतः-कथ प्यतः, तदेवाह-हे देवानुप्रियाः ! मित्रादयः ! यस्मात् खलु कारणात् अस्मिन् नवजाते दारके शिशो गर्भगते एवसति-गर्भ गते सति आवयोः धमें-जिनप्ररूपिते धर्म प्रतिज्ञा-मतिः दृढा-निश्चला जाता, तत्-स्मात् कारणात् आवयोः एप दारको नाम्ना दृढप्रतिज्ञो भवतु । ततः-तदन्तरं खलु तस्य दृढ़प्रतिज्ञ य दारकस्य अम्बा पितरो अनुपूर्वेण-अनुक्रमेण स्थितिपतितां१, चन्द्रसे आचमन कर परमशुचि बने हुवे वे अपने मित्रजनों का, ज्ञातेिजनों का, निजकजनों का, स्वजनों का, सम्बन्धिजनों का, और परिजनों का विपुलप्रचुर वस्त्रसे, रेशमी-एवं-स्मृतीवस्त्रोंसे गन्धसे, पुप्परस के आमोद परिमल से, पुष्पमालाओं से, कटककुण्डल आदिरूप अलङ्कारों से सत्कारकरेंगे एवं मानपूर्वक उनका आदर करेगे.। फिर वे-उन्हीं मित्र-ज्ञाति-निजक-विजन-सम्बधी परिजनों के समक्ष ऐसा कहेंगे-हे देवानुप्रिय ? मित्रादिको ? जिस कारण से यह दारक जब गर्भ में आया था तब से हमलोगों की धर्ममें-जिन प्ररूपित मार्ग में म । दृढ-निश्चल हो गई थी, इस कारण हमलोगों का यह-पुत्र नाम से दहन तज्ञ हो" ऐसा कहकर वे ल उसका "द प्रतिज्ञ-' नाम रक्खेगे ___उस दृढप्रतिज्ञ बालक के मातापिता ब्रमशः-स्थिति पतिता-१ चन्द्र-सूय દકથી આચમન કરીને પરમશુચિ થયેલા તેઓ પિતાના મિત્રને, નિજજનોને સ્વજનેને, સંબંધીજનને અને પરિજનને વિપુલ પ્રચુર વસ્ત્રોથી, રેશમી અને સૂતી વસ્ત્રોથી, પુષ્પરસના આદ પરિમલથી; પુષ્પમાલાઓથી, કટક કુંડળરૂપ અલંકારોથી સત્કાર કરશે. અને સન્માનપૂર્વક તેમને આદર કરશે. પછી તેઓ પિતાના મિત્ર, જ્ઞાતિ, નિજક, સ્વજન, સંબંધી પરિજનોની સામે આ પ્રમાણે કહેશે કે હે દેવાનુપ્રિયે ! મિત્રવર ! ત્યારથી આ દરક ગર્ભમાં આવે છે ત્યારથી અમારી ધર્મમાંજિન પ્રરૂપિત માર્ગમાં મતિ દૃઢ નિશ્ચલ થઈ ગઈ છે. આથી અમારે આ પુત્ર દૃઢ પ્રતિજ્ઞ નામથી સંબંધિત થાય. આમ કહીને તે લોકે “ઢપ્રતિજ્ઞ’ એ પ્રમાણે તેનું નામ રાખશે. તે દઢ પ્રતિજ્ઞદારના માતાપિતા અનુક્રમે રિથતિ પતિતા ૧,ચન્દ્રસૂર્ય દર્શનિક ૨, Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका स. १६८ सूर्याभदेवस्य आगामिभववर्णनम् ३९९ सूर्य दर्शनिकां२, धर्मजागरिव ३, नामधेयकरणं४, ‘पर गमण' इत्यस्य परगमनं पर्यङ्गन चेतिच्छाया, तत्र पर गम्न-वगृहाद् बहिर्गमनम्, पर्यङ्गनम्,-अङ्गुलिग्रहणपूर्वकं भर नागणे भ्रामणं ५, प्रच, मणं-स्वतोभ्रमणम् ६, प्रत ख्यानकम्-आरोग्याद्यर्थं व्रतादिव रणम् ७, जेमन कम्-अन्नप्राशनम्८, प्रतिवर्धापनकम्-आशीर्वाददायकेभ्यो द्रव्यादिदानम्९ प्रजल्पनकं-'माता, पिता' इत्यादिशब्दपाठनम् १०, कर्णवेधनम्११, संवत्सरप्रतीलेखनकम् जन्मदिनोत्सवम्१२, चूडापन यनं-मुण्डनोत्सवम१३, उपनयनम्-अध्ययनार्थं व लाचार्यसमीपे नयनम्१४, एताश्चतुर्दशोत्सवान् करिष्यतः अन्यानि च वहनि गर्भाधानजन्मादिधानि गर्भाधानादिसम्बन्धीनि कोतुकानि-उल्-वजातानि महता ऋइसत्कारममुदयेन-ऋद्धिः वस्त्रसुवर्णादिसम्पत् त.ा सत्कार:-जनसत्कार करणं, तम्य र मुदय:-समूहः, तेन करिणतः।मु०१६८। मूलग--तए णं से दढपइण्णे दारगे पंचर्धाई परिरिखते, तं जहो खीरधारईए१, मज्जणधाई ए२, मडणधाई ए३, अकधाईए४, किलादर्शनिका-२ धर्म जागरिका-३ नामकरण-४ परंगमण-५ परगृहगमन-अपने घरसे बाहर निकलने रूप परगमन, अथवा-अलिग्रहणपूर्वक भवनाङ्गणमें फिरने रूप पर्यङ्गमन, प्रचंक्रमण-स्वतःनमण-६ प्रत्याख्यान-आरोग्य आदिके लिये प्रतादिकर ण-७ जेमनक-अन्नप्राशन-८ प्रतिवर्धापनक-आशीर्वाददाय के लिये द्रव्यादि देना-९ प्रजल्पनक-मातापिता-इत्यादि शब्दों का उच्चारण करानां-१० कर्णवेश्न-११ संवत्सर प्रतिलेखनक-जन्म दिनोत्सव-वर्षगांठ,१२.चूडा पनयन-मुंण्डनोत्सव-१३ और-उपनयन, अध्ययनार्थ कलाचार्य के पास ले जाना १४ इन चौदह प्रकारके उत्सवों को, तथा—इनसे भिन्न और भी अनेक गर्भाधानादि सम्बन्धी कौतुओं को उत्सवों को, ऋद्धि सत्कार समुदायसे करें गो. ।सू०१६८। ધર્મ જાગરિકા ૩, નામકરણ ૪, પરંગમણ ૫, પરગમન-પર્ય મન-પોતાના ઘરથી બીજા ઘેર જવું તે પરગમન; અથવા અંગુલિ ગ્રહણપૂર્વક ભવનાંગણમાં જ ફરવું તે પર્વગમન, પ્રચંક્રમણસ્વત:ભ્રમણ ૬, પ્રત્યાખ્યાન આરોગ્ય વગેરે માટે ગ્રતાદિકરણ છે, જેમનક અન્નપ્રાશન ૮, પ્રતિવર્ધાજનક આશીર્વાદ આપનારાઓને દ્રવ્ય વગેરે આપવું. ૬ પ્રજલ્પનક-માતાપિતા વગેરે શબ્દનું ઉચ્ચારણ કરવું. ૧૦, કર્ણવેધન ૧૧, સંવત્સર પ્રતિલેખનક જન્મ દિપોત્સવ–વર્ષગાંઠ, ચૂડાપનયન, મુંડનેત્સવ ૧૩ અને ઉપનયન અધ્યયન કલાચાર્ય પાસે લઈ જવું તે ૧૪, આ ચૌદ પ્રકારના ઉત્સવોને તેમજ એમનાથી ભિન્ન બીજા પણ ઘણા ગર્ભાધાન સંબંધી કૌતુકેને ઉત્સવોને દ્ધિ સત્કાર સમુદાયપૂર્વક કરશે. શરૂ૦ ૧૬૮ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० राजप्रश्नीयसूत्रे वणधाई ए५, अन्नाहि य बहुहिं खुजाहि चिलाइयाहिं वामणियाहिं१, वडभियाहि २, वव्यरिहिं३, चाउसियाहिट, जोण्हियाहिं५, पल्हवियाहिं ६, ईसिणियाहि७, वासिणियाहिं८, लासियोहिं९, ल उसियाहिं १०, दविडीहिं११, सिंहलीहिं१२, आरवीहिं १३, पक्कणीहिं १४, वहलीहिं १५, मुरुंडीहि १६, सबरीहिं१७, पारसीहिं१८, णाणादेसीहिं विदेसपरिमंडियाहिं सदेसनेवस्थगहियवेसाहिं इंगियचितियपत्थियक्यिाणिशहि निउणकुसलाहिं विणीयाहि चेडियाचकवालतरुणीवंदपरियालपरिवुडे वरिसधरकंचुइज्जमहत्तरगवंदपरिक्खिले हत्थाओ हत्थ साहरिजमाणे २ अंकाओं अंकं परिभुजमाणे २ उवच्चिजमाणे २ उवगाइजमाणे २ उवलालिज्जमाणे ५ उवगूहिज्जमाणे २ अक्यासिज्जमाणे २ परियं दिजमाणे २ परिचुबिजमाणे २ रम्मेसु मणिकुट्टिमतलेसु परंगिजमाणे २ गिरिकंदरमल्लीणेविव चंपगवरपायचे निव्वोधायलि सुहसुहेणं वरिवहिस्सइ ।। सू० १६९॥ . . . . . छागः-ततः खलु स दृढप्रतिज्ञो दारकः पअधात्रिभिः परिक्षिप्तः, तद्यथाक्षीरधाच्या१, मज्जनधान्या२, मण्डनधान्यो ३. अङ्कधान्या४ क्रीडनधान्या ५. "तए णं से दढपइण्णे दाग-इत्यादि- .. - मूलार्थ-"तए णं-" इसके वाद-"से ददपइण्णे-" दृढप्रतिज्ञ बालक"पंधाई परिविखत्ते-" इन पांच धायमाताओं से युक्त-'तं जहा-खीरधाइए-मन्जणधाइए-मंडणधाइए-अंकधाइए-किलावणघाइए-" , नैसे-क्षीरधायमांता से, दूध पिलानेवाली उप माता से, मजनधायमाता से; स्नान करानेवाली उप "तए णं से दढपइण्णे दारगे' इम्यादि। भूदार्थ-'तए " त्या२ ५छी “से दढपइण्णे" ते ४४प्रतिज्ञ मा "पंच धाई परिविखत्ते' मा पाय धाय भातामाथी "तं. जहा-खीरधाइए-मज्जणधाइएमंडणधाइए-अंकधाइए, किलावणधाइए" म क्षीरथाय भाताथी ५१वनार ઉપમાતાથી, મજનધાય માતાથી, સ્નાન કરાવનાર ઉપમાતાથી, મંડનધાયમાતાથી, - Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सू. १६९ सूयाभदेवस्य आगामिभववर्णनम् ४०१ अन्याभिश्च बहुभिः कुनाभिश्विला तकाभिःमिनिकाभिः १, वटमिकाभिः२, बर्वरी भः३. वकुशिका भः ४, यौनिकाभिः५, पल्हविकाभिः६, इसि नकाभिः७, वासिनिकाभि८ लासिकाभिः ९, लाकुशिकाभिः १० द्राविडीभिः ११. सिंहलीभिः । १२, आरवीभिः १३, पक्कणीभिः १४, वहलीभिः १५, मुरुण्डीभिः १६, शबरीभिः १७, पारसीभिः १८, नानादेशीयाभिः विदेशपरिमण्डिताभिः स्वदेशनेपथ्यगृहीतवेपाभिः इङ्गितचिन्तितप्रार्थित विज्ञायिकाभिः माता से, मण्डन धाय माता से-मपीतिलक आदि द्वारा मण्डन 'अलकैत' करानेवाली उपमाता से अङ्कधात्री माता से-उत्सङ्ग-गोद में लेकर खिलाने वाली-उपमाता से, क्रीडनधात्री माता से विविध प्रकार की क्रीडाएं करानेवाली उप माता से. इन पांच प्रकार की धात्रियों से युक्त हुवा-"अन्नाहिय वह॒हिं खुज्जाहिं चिलाइयाहिं वामणयाहिं वडभियाहिं बब्बराहि वाउसयाहिं जोव्हियाहिं पल्हवियाहि इसिणियाहिं वासिणियाहिं लासियाहिं-" तथा-इन से अतिरिक्त और भी अनेक प्रकार की वक्रपृष्ठवाली-एवं अनार्यदेशोत्पन्न ठुमकी-हदशरीरवाली-१ वटभिका-२ हीन एकपार्श्व भागवाली वर्वरा-३ वर्वरदेशोत्पन्ना चकुशिका-४ यौनिका-५ पल्हविका-६-ईसिनिका-७ वासिनिका-८ लासिका-९ "लउसियाहिं" लकुशिका १० “दविडीहिं-" द्राविडी-११ "सिंहलीहिं आरचीहिं-पक्कणीहिं-चहलीहिं-मुरुंडीहि-सबरीहिं-" पारसीहिं सिंहिली-१३ आरवी, पक्कणी-१४ वहली-१५ मुरण्डी-१६ शर्वरा-१७ पारसी-१८ 'णाणादेसीहिं-' अपने-अपने नामानुरूप देशों में उत्पन्न हुवी-तथा-"विदेसपरिमंडियाहिं-" મીતિલક વગેરે દ્વારા મંડન કરાવનાર ઉપમાતાથી, અંકધાત્રી માતાથી, ઉત્સંગ गोगामा मेसाडीने २भाउना२ माताथी युत थयेटी "अन्नाहिय बहूहिं खुजा हिं चिलाइयाहिं वामणियाहि वडभियाहिं बबराहिं वउसियाहिं. जोण्हियाहिं पल्हवियाहिं . ईसिणियाहिं वासिणियाहिं लासियाहिं" तेम०८ બીજી પણ અનેક પ્રકારની વક્રપૃષ્ઠવાળી અને અનાર્યશત્પન્ન ઠીંગણી ૧; વટમિકા ૨, હીન એક પાર્વભાગવાળી, બર્બરા ૩ બર્બર દેશત્પના, બકુશિકા ૪ યોનિકા ५, ५८-वि सिनिया ७, पासिनि ८, सामि . "लउसियाहिं" । १०, “६ विडीहिं! द्रव ११, “सिंहलीहिं आरवीहिं हवहलीहिंमुरुडिहिं सब्वरीहिं पारसीहिं" सिडिसी १३. २मा२०ी. ५४ी १४. वहुली १५. भा३१ १६. शम'२॥ १७. पारसी' १८. "णाणादेसीहि” पातपाताना.. शोभा S५न्न थयेही. तथा 'विदेसपरिमंडियाहि" वीशी वेशभूषामा सुस००४ “सदेसनवत्थगहियवेसाहि, : इंगियचिंतियपत्थियवियाणियाहिं, निउणकुसलाहि, Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ गजप्रश्नीयमत्र निपुणकुशलाभिः विनीताभिः चेटिकाचावालतरुणीवृन्दपरिवार-रिवृतः वर्षधकञ्चुकिमहत्ताकवृन्दपरिक्षिप्तः हस्ताद् हस्तं संहियमाणाः २ अङ्गाद् अङ्क परिभोज्यमानः २ उपनृत्यमानः २ उपगीयमानः २ पलाल्यमानः २ उपगृह्यमानः २ लिप्यमाणः २ परिवन्धमानः २ परिचुम्व्यमानः २ रम्येषु मणिकुट्टिमतले पु पर्यङ्ग्यमाणः २ गिरिकन्दरालीन इव चम्पकवरपादपः निर्व्याघाते सुखसुखेन परिवर्धिष्यते ॥ सू० १६९ ॥ विदेश के वेप से सजी हुवी, 'सदेसनेवस्थगहियवसाहिं, इंगिय चिंतियपथियविशणियाहिं निउणकुसलाहिं, विणीयाहिं-' और अपने देश में वस्त्राभूषणों को जिस तरह से पहिग जाता है, उस तरह से वेष को धारण करनेवाली, तथा-इगित-चिन्तित-प्रार्थित को अच्छी तरह से समझ लेने वाली, नारियों के बीच कुशल, विनय सम्पन्न, स्त्रियों से, तथा- "चेडिया चक्कवालतरुणीवंदपरियालपरिपुडे, वरिसघरकंचुइज्जमहत्तरगवंदपरिक्खिते-" और भी दासियों के समूह से एवं युवतियों के समूह से परिवेष्टित हुवा, तथा-वर्ष घर, कन्चुकी, और महत्तरक इन के समूह से परिवेष्टिन हुवा, एवम्-"हत्थाओ हत्थं साहरिजमाण-२ उपलालिज्जमाणे-२ उवगूहिज्जमाणे-२ अबयासिज्जमाणे-परियदिज्जमाणे २ परिचुविज्जमाणे-२ रम्मेसु मणिकुट्टिमतलेसु परंगिज्जमाण २” एक हाथ से दूसरे हाथों में बार बार जाता हुवां,' एक गोदी से दूसरी गोदी में बारवार नृत्य क्रिया दिखाने से संतुष्ट किया गया. वारवार-मधुर वचनादि द्वारा लाड लडाया गया, वारवार-२ दृष्टि दोष को दूर करने के लिये वस्त्रादिकोंद्वारा ढांका गया, बारबार हृदय से लगाकर आलिविणीयाहिं' भने पातपाताना देशमा वस्त्राभूषण र शत पहराय छतशत વેષ ધારણ કરનારી તથા ઈગિત ચિંતિત અને પ્રાર્થિત ને સારી રીતે જાણનારી સ્ત્રી भी शग. विनय संपन्न. स्त्रीमाथी तमा चेडियाचक्कवालतरुणीवंद परियालपरिवुडे, परिसधरकंचुइज्जमहत्तरगवंदपरिक्खित्ते" मील पY हासी: એના સમૂહથી અને યુવતીઓના સમૂહથી પરિવેષ્ટિત થયેલે -મજ વર્ષધર કંચુકી अने भत्त२४ अमना साथी परिवष्टित येसो भने "हत्थाओ हत्थं साहरिज्जमाणे २ उपलालिज्जमाणे २, उवगूहिज्जमाणे २,. अबपाहिज्जमाणे २, परियंदिज्जमाणे २ परिजुविज्जमाणे २, रम्मेसु मणिकुट्टिमतलेसु परगिज्जमाणे २" એક હાથેથી બીજા હાથમાં વારંવાર જ એકના ખળામાંથી બીજાના ખેળામાં વારંવાર લઈ જવાતે વારંવાર નૃત્ય ક્રિયા બતાવીને સંતુષ્ટ કરાયેલ, વારંવાર મધુર વચનો વડે લાડ કરીને, વારંવાર દૃષ્ટિ દોષને દૂર કરવા માટે વસ્ત્રાદિકાથી ઢાંકેલે, Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०३ सुबोधिनी टीका सु. १६९ सूर्याभदेवस्य आगामिभववर्णनम् टीवाः- "तए णं से दृढपइण्णे' इत्यादि-ततः रनलु स दृढप्रतिज्ञो दारकः पञ्चधात्रीभिः-बालस्य स्तन्यपानादिकारिकाभिः पञ्चभिर्धात्रीभिः रिक्षिप्तःपरिवृतः, मूले "पंचधाईपरिविरव्रत्ते" इत्यत्र 'पंचधाई' इति लुप्ततृतीयन्तं पदं, तेन 'पञ्चधात्रीभिः' इतिच्छाया, तद्यथा-क्षीरधात्र्या- स्तन्यपायिकया १, मज्जनधाच्या-स्नपनकारिकया २, मण्डनधाच्या-मपीतिलकादिभिर्मण्डन गारिकया ३, अङ्कवाच्या उत्सङ्गस्थापिकया ४, क्रीडनधान्या-क्रीडनदारिकया ५। एवं प्रकाराभिः पञ्चभिर्धात्रीभिः परिवृतः-युक्तः। तथा अन्याभिः-एतदतिरिक्ताभिरपि बहुभिः-बहुप्रकारामिः, कुञाभिः-चक्रपृष्ठाभिः, चिलातिभिः-अनार्यदेशोत्पन्नाभिः, काभिः ? इत्याह-बामनिकाभिः-हस्वकायाभिः१, वटभिकाभिः-मडहकोष्ठाभिः-हीने कपार्श्वभागाभिरित्यर्थः२, वर्वरीभिः चर्व देशोद्भवाभिः३, बकुशिकाभिः४, यौनिकाभिः ५, पल्हविकाभिः ६, इसिनिकाभिः ७, वासिनिकाभिः ८, लासि अभिः ९, लकुशिकाभिः १०, द्राविडीभिः ११, सिंहिलीभिः ९२, आरवीभिः १३, पक्कणीभिः १४, वहलीभिः १५ मुरुण्डीमिः १६. शबरी भः १७, पारसीभिः १८, एवमेताभिः तत्तन्नामानुरूपनानादेशीयाभिः-अनेकदेशोद्भवाभिः विदेशपरिमण्डिइन किया गया. "चिरकाल तक जीवित रहो-' इस तरह के शुभाशीर्वादो से वधाया गया, बारवार चुम्बन किया गग-"रमेसु मणिकुहिमतलेसु पगि माणे-२ गिरिकंदरमल्लीणे विव चंपगवरपायवे निव्वाघायंसि, सुह सुहेणं परिवरिसइ-" तथा रम्थ-रमणीय मणिकुट्टिमतलों में रत्न जडित- अङ्गणों में बार-२: चलता हवा. गिरिगुहा में स्थित चंपकवृक्ष की तरह निराबाध स्थान में सुनपूर्वक वृद्धि को प्राप्त करेगा. टीकार्थ-मूलार्थ जैसा ही है, परन्तु फिर भी जो विशेषता है वह ऐसी है-"पंचधाई परिक्खित्ते-' यहां-पंचघाई. पद लुप्त तृतीयाविभक्ति वाला है, अतः- इसकी छाया-पंच धात्रीभिः ऐसी करनी चाहिये। “विदेशपरमण्डिવારંવાર હૃદયને ચાંપીને આલિંગન કરેલ “ઘણું જીવો” આ જાતના શુભાશીર્વાદથી qधामा भायो पावार युमित ४२वी, "रमेसु मणिकुट्टिमतलेसु परंगिज्जमाणे २ गिरिकंदरमल्लीण विव चंगवरपायवे निव्वाधायंसि सुहंसुहेणं परिवढिस्सइ" તેમજ રમ્ય-રમણીય મણિકુદ્ધિમતલમાં, રત્નજડિત આંગણુઓમાં વારવાર ચાલો, ગિરિગુહામાં સ્થિત ચંપક વૃક્ષની જેમ સુખપૂર્વક મેટ થતું ગયો ટીકાર્થ....-મૂલાઈ પ્રમાણે જ છે. પણ છતાંએ જે વિશેષતા જણાય છે તે આ प्रमाणे छ. पंचाई परिक्तिते" मही "पंचधाई" ५६ दुसतृतीया (ausतयुत छ. यो "पंचधात्रीभिः" मेवी छाया ४२वी नये. "विदेशपरिमण्डिताभिः" Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 201 राजश्रीयसूत्रे ४०४ ताभिः:- विदेश इति विदेशवेप:, तेन परिमण्डिताभिः विभूपिताभिः स्वदेशनेपथ्यगृहीतवेषाभिः-वदेशे निजदेशे यन्ने पर्श्ववस्वाऽऽभूषणानां परिश्रानादिरचना तद्वद् गृहीतो बेपो याभिरताग् तथा, ताभिः इतिचिन्तितप्रार्थितविज्ञायिकाभिः तत्र इङ्गित निपुणमतिगम्यं अभिप्राय रूपं प्रवृत्तिनिवृत्तिसूचकमीपद् भूशिरः कम्पादिकं, चिन्तितं हृदयगतं प्रार्थितम् अभिलपितं च विजानन्ति छातास्तथा ताभिः निपुणकुशलाभिः निपुणानां चतुरनारीणां मध्ये याः कुशलाः-दक्षास्ताभिः, विनीताभिः विनयसम्पन्नाभिः परिक्षिप्त' इति पूर्वेण सम्बन्धः । पुनश्च चेटि+चिचालतरुणीवृन्दपरिवारपरिवृतः चेटिनाचक्रवालः दासी ममृहः, तरुणीवृन्द युवति मूहः तय परिवारेण परिवृतः परिवेष्टितः, पुन वर्षं धरकञ्चुकिमहत्तर कवृन्दपरिक्षिप्तः, तत्र वर्षधगः अन्तःपुरकार्यकारिणो नपुंसकाः, कञ्चुकिनः अन्तःपुरप्रयोजन निवेदकाःअन्तःपुरप्रतीहारा वा, महत्तराः अन्तःपुरकार्य चिन्तकाः, तेषां वृन्देन - समूहेन परिक्षिप्तः परिवृतः स ह ताद् हस्तम् एकं हस्ताद् अन्यहस्तं संहियमाण २= वीर बार् नीयमानः अत्र विप्सायां द्वित्वम्, एवमग्रेऽपि, एवम् अङ्काद् अङ्कम् एकस्या उत्सङ्गाद् अन्य या उत्सङ्गं परिभोज्यमानः - पाल्यमानः, उपनृत्यमानः, नर्तन दर्शनेन परितोष्यमाणः, उपगीयमान: गानं श्राव्यमानः, उप लाल्यमानः ललित मधुरवचनादि-ा लाल्यमानः उपगूहमान: दृष्टिदोपादिनिवारणार्थं वस्त्रादिभिराः "मानः, श्लिष्यमाणः हृदयसंलगनेन आलिङ्गयमानः परिचन्द्यमानः "चिरं जीव्याद्” इत्याद्याशीर्वचनैः स्तूयमानः परचुध्यमानः परिचुम्यमानः, रम्येषु ताभिः" में जों विदेश शब्द आया है वह “विदेश वेष अर्थ में है, इङ्गित वह चेष्टा विशेष है जो निपुणमतिद्वारा ही जाना जाता है, यह प्रवृत्ति निवृत्ति का सूचक होता है, तथा इस में थोडे से रूपमें शिरःकम्पाना द किया जाता है. । हृदयङ्गन अभिप्राय का नाम चिन्तित हैं, प्रार्थित है । अन्तःपुर में जो कार्य करने के लिये नियुक्त किये जाते हैं, एवं तथा - अभिलपि नामजो नपुंसक होते हैं इनका नाम चर्पी घर हैं । अन्तःपुर सम्बन्धी प्रयोजनों का निवेदक होते हैं, अथवा अन्तःपुर में जो प्रतिहारका काम करते हैं. वे कञ्चुकी भां विदृशमावेस छे ते 'विदेश' वेष' अथ भी वपराय: छे. 'गित-ते તે ચેષ્ટા વિશેષ સુચક હાય છે. તથા એમાં ધીમેધીમે શિરકમ્પનાદિ કરવામાં આવે છે. હૃદય મત જે નિપુણુમતિ વડે જ જાણી શકાય છે. આ પ્રવૃત્તિનિ અભિપ્રાય ને ચિતિત કહે છે. તથા અભિલષિતને પ્રાર્થિત કહે છે.. અંતઃપુરમાં જે કામ કરે છે અને જે નપુંસક હાય છે તે વષધર છે. અ ત:પુર સબધી પ્રયાજના ને જે નિષેદક હાય છે, અથવા અંત:પુરમાં જે પ્રતિહારનુ કામ કરે છે તે કંચુકી " Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुबोधिनी टीका मू. १६९, सूर्याभदेवस्य अगामिभववर्णनम् रमणियेषु मणिकुट्टीमनलेपु रत्नजटिताङ्गणेषु पर्यङ्गमाणः२=पुनः पुनश्चङक्रभ्यमाणः, सन् गिरीन्दालीनः गिरिगुहास्थितः चम्पव वर दिप इव श्रेष्ठ चम्पक वृक्ष इव __नीळधाते नीरावाये रथाने सुखपूर्वकं परिवर्धिष्यते वृद्धि प्राप्'यति ॥सू०:१६९।। .. मूलभ-तए णं तं दढपइपण दारगं अम्मापियरो साइरेग अटुवासजायगं जाणित्ता सोभसि तिहिकरणणखत्तमुहत्तंति पहायं कयवलिकम्मं कयकोउयमंगलपाच्छित्तं सव्वालंकारविभूसियं करेता महया रिकारसमुदएणं कलायरियस्स उवणेहिति । तए णं से कलायरिए तं दृढपण्णं दारग लेहाइयाओ गणियप्पहाणाओ सउणरुयपज्जवसाणाओ बावत्तरि कलाओ सुत्तओ-य अत्थओ य · गंथओ यकरणओ य सिवखावेहिइ य, सेहावेहिइ य तं जहा-लेहं १ गणियं २ रूवं ३ - ४ गीय ५ वाइयं सरगयं७ पुक्खरगय८ समतालं ९ जूयं १० जणवाय ११ पासग १२ अट्रो यं १३ पोरेवच्च १४ दगट्टियं १५ अन्नविहिं १६ पोणविहिं १७ वत्थविहिं १८ विलेवणविहि १९ सयणविहिं २० अज्ज २० पहेलिय २२ भागहिय २३ णिहाइयः २४ गाह २५ गीइय २६ सिलोग २७ हिरण्णजुत्ति २८ सुवण्णजुत्ति २९ आमरणविहिं ३० तरुणीपडिकम्म ३१ इतिथलवखणं ३२ पुरिसलखणं ३३ हयलक्खणं ३४ गयलक्खणं ३५ छुडलक्खणं ३६ छत्तलक्खणं ३७ चकलक्खणं ३८ डलक्खणं ३९ असिलकखणं ४०. मणिलक्खणं ४६ कोगणिलक्खणं ४२ वत्थुविज ४३ णगरमाणं ४४ कहलाते हैं, अत:-पुर में क्या क्या काय होता, है, इत्यादिका चिन्त्वन करने वाले होते हैं. वे-महत्तरक हैं ॥ सू० १६९ ॥ . .. .. .. કહેવાય છે. અંતપુરમાં શું શું કામ થવાનું છે, તેની વિચારણા કરનારા મહારક કહેવાય છે. સૂત્ર ૧૬૯ છે Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ राजप्रश्रीपत्र खंधावारमाणं ४५ चारं ४६ पंडेिचार ४७ वूह ४८ चकवूह ४९ गरुलवूह ५० सगडवूह ५१ जुद्धं ५२ नियुद्ध ५३ जुजु ५० अट्टिजुद्ध ५५ मुट्ठि ५६ बाहुजु ५७ लयाजुद ५८ ईसत्थ ५९ छरुष्पवाय ६० धणुवेयं ६१ हिरण्णपागं ६२ सुवण्णपार्ग ६३ मणिपागं ६४ धाउपागं ६५ सुत्तखेड ६६ वरखेड ६७ णालियाखेड ६८ पत्तच्छेनं ६९ कडगज्छेजं ७० सजीव निजीव ७१ सउणम्य ७२ इति । ॥सू० १७० ॥ छाया - ततः खलु तं ददप्रतिज्ञ दा कम् अम्वापितरौ सातिरे ष्टवर्षं जातकं ज्ञात्वा शोभने तिथिकरण नक्षत्रमुहूर्ते नातं कृतवलिकर्माणं कृतकौतुकमलप्रायचित्तं सर्वालङ्कारविभूषितं कृत्वा महना ऋद्धिसत्कार समुदयेन क्लाचार्यस्य उप"तएण तं दृढपण " इत्यादि w मूलार्थ - " तए णं” इसके बाद - "द पडणं - " दढ प्रतिज्ञ "दारगं" दारक बालक को –“अम्मापियरो” मातापिता "साइरेगअहवासजायगं जाणित्ता - " आठ वर्ष से कुछ अधिक का हुवा जानकर - "सोभणं सि तिहिकरणणकवत्तमुहुत्तसि हायं " शोभनतिथि नक्षत्र मुहूर्त में उसे स्नान कराकर ' कवलिकम्मं कयकोउयमंगलपायच्छित्त, सव्यालंकार विभूसिय करेत्ता -" उससे बलिकर्म काकआदि को अन्नादि का भाग देकर, कौतुकमङ्गलरूप ग्रायश्चित्तक कर, एवं उसे समस्त अलङ्कारों से विभूषितकर - " महया इसका समुद कलायरियस्स उवणेहिंति-" अपनी विशाल ऋद्धि के अनुरूप सत्कारपूर्वक कला "तए ण तं दढपणं" इत्यादि । ! भूसार्थ - 'तए णं' त्यार पछी 'दढपइष्णं' दृढप्रतिज्ञ 'दारगं' हार जाने 'अम्मा पियरो' मातापिताये “साइरेगअट्टवासजायगं जाणित्ता' आठ वर्ष ४२तां था। भोटो थयेस लगीने 'सोभणंसि तिहिकरणक्खत्तमुहुत्तंसि हाय ' शोलनतिथि नक्षत्र भुहूर्त'भां तेने स्नान उशवशे, 'कयवलिकम्मं; कयकोउयमंगलपायच्छित्तं, सव्वाल कारविभूसिय करेता' तेना वडे गतिर्भ - अगडा वगेरेने અન્ન વગેરેને ભાગ અપાવડાવીને, કૌતુક મંગલરૂપ પ્રાયશ્ચિત્ત કરાવીને અને તેને समस्त अल अशथी विभूषित रीने 'महया इढिसक्कारसमुदएणं कलायरियस्स उवणेहिंति' पोतानी विशाण ऋद्धिना अनु३य सत्हारपूर्व उसाचार्यानी पासे भोउसशे, Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०७ चोधिनी टी । सू. १६९ सूर्याभदेवाय आगामिभववर्णनम् ने । : । ता: खल स कलाऽऽचा : तं दढप्रतिज्ञ द्वारकं लेखादिका गणितप्रधानाः शकुनस्तापर्यवसानाः द्वासप्तति कलाः सूत्रतश्च अर्थतश्च क णतश्च शिक्षयिष्यति च साधयिष्यति च, तद्यथा-लेखं १, गणितं २ रूपं ३. नाटयं ४, गीतं ५, वादितं ६, स्वरगतं ७, पुष्करगतं ८, समतालं ९, द्यूतं १०, जनवादं ११, पाश कस् १२, अष्टापदं १३, पौंरकृत्य १४, दकमृत्तिकाम् १५, अन्नविधि १६, पानविधि १७, वस्त्रविधि १८. विलेपन विधिं १९, शयनविधिम् २०, आर्या २१, प्रहेलिका २२, मागघिका २३, निद्रायिका २४, गाथां ५५, चार्य के पास भेजेंगे। “तर"ण से कलायरिए तं ददपइण्णं दारग लेहाइ गओ गणि २८ हाणाओ सउणरुया. जवसाणाओ वायत्तरि व लाओ सुत्तओ य अत्थओ य गंथओ य करओ य सिरनावे हि इय सेहावेहि इय-" वह लाचार्य उस प्रतिज्ञ दा क को लेखादिक गणित प्रधाः बलासे लेकर शकुन रु। तक को ७२ घलाओं को सूत्र-अर्थ और-- भय, एवं-हणम्प सिनावेंगा, एवं इन्हें सिद्ध भी कगवेगा. "तं जहा-लेहं ५ गणि। २ व ३ नट्ट ४ गीय५-बायय-६ सरगयं-७ पुक्खरगयं-८ समतालं.-९-" वे वहत्त कला इस प्रकार स ह लेखन-१ गणित-२ रूप-३ नाटय-४ गीत-९ आदित्र-६ स्वरगत-७ पुष्करगत-८ समताल-९ "जयं-" द्यूत-१० "जणवाय" जन ३-११ "पासगं" पायक-"अद्यावय-" अष्टापद-"पोरेकच्च-" पौग्कृत्य-"दगमट्ठिय-" दकमृत्तिका-"अन्नविहिं" अन्नविधि- पाणविहिं- पानविधि-'वत्थविहि' वस्त्रविधि "विलेवण विहि-' विलेपनविधि-'सय. विहि-' शयनविधि-'अज्ज- आर्या-'पहेलिस-'. ग्रहलिका-'मागहिय-' मागधिका-णिदाइय-' निद्रायिका-'गाहं-' गाथा-'गीइय-' 'तए णं से कलाय ए त दढपडणं दाग लेहाइयाओ गणियप्पहाणाओ सउणरुयपज्जवसाणाओ वायत्तरि कलाओ सुत्तओय अत्थओय गंथओय करणओय सक्रवावेहिइय सेहावेहिडय' ते सायाय ते प्रतिज्ञा२४ने गणित થા1 લાથી માંડીને શકનરૂત સુધીની હર કલાઓને સુત્ર અર્થ અને તદુભય અને ३२३५थी शीशे. मन भने सिद्धपा ४२वशे. तं जहा लेह १, रणिय २ व ३, नर्से ४ गीयं ५, वाइय, सरगय ७, पुनरगय८, ममताल९, त ७२ साय। -२मा प्रमाणे छ-खेपन 1, अशित २, २५ 3, नाटय ४, भात ५, पान ६, २वगत ७, ४२गत ८, समता , 'जय' धत १०-, 'जणवाय" नवा -११, 'पामग' पाश, 'अद्रावय” अटापट 'पोरेकच्च' पौत्य 'दगमट्टिय' ४४भृत्तिा, 'अन्नविहिं सन्नविधि, 'पाणविहि' पानविधि : 'व थविहिं पत्रावधि, "विलेवणविहिं विलेपनविधि, सरणविहि' शयनविधि, 'अज्जं मार्या, 'पहेलियं' अडाला, 'मागहियं' भागधा, "णिदाइय नि. यिI, 'गाई' ॥था, गीइयं onlist, Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ राजप्रश्नीयमूत्रे गीतिका २६, श्लोकं २७, हिरण्ययुक्ति २८, सुवर्णयुक्तिम् २९, आभरणविधि ३०, तरुणीप्रतिकर्भ ३१. स्त्रीलक्षणं ३२, पुरुषलक्षणं ३३, हयलक्षणं ३४, गजलक्षणं ३५, कुकुटलक्षणं ३६. छत्रलक्षगं ३७, चक्रलक्षणं ३८, दण्डलक्षम् ३९, : असिलक्षणं ४०, मणिलक्षण ४१ काकिणीलक्षण ४२, वास्तुविद्या ४३, नगरमानं ४४, स्कन्धावारमानं ४५, चारं ४६, प्रतिचार ४७ व्यूह ४८, चक्रव्यूह ४९, गरुडव्यहं. ५०, शकटव्यूह ५१, युद्ध ५२ नियुद्ध ५३ युद्धयुद्धम् ५४, अस्थियुद्ध ५५ मुष्टियुद्ध ५६ पाहुयुद्ध ५७ लतायुद्धम् ५८, इण्वस्त्रं ५९, सरुप्रवाद ६० धनुर्वेदं ६१ हिरण्यपाकं ६२ सुवर्ण पाकं ६३ मणिपार्क ६४, गीतिया-'सिलोग-' श्लोक-'हिरण्णजुत्ति-' हिरण्ययुक्ति-'सुवण्णजुत्ति' सुवर्णयुक्ति 'आभरणविहि-' आभरणविधि-तरुणीपडिकम्म-' तरुणीप्रतिरम-'इथिलवखणं' स्त्रीलक्षण- पुरिसलक्खणं' पुरुपलक्षण 'हयलक्वणः' हयलक्षण-'गयलकरखण- ग़जलक्षण ‘कुकुडलक्खण'-' कुक्कुटलक्षण-'छत्तलक्षण-' छत्रलक्षण-'चक्कलक्षण! चक्रलक्षण-'दंडलक्षण-. दण्डलक्षण असिलवरवण-': असिलक्षण-'मणिलवखण - मणिलक्षण-'कागणिलक्त्रण- काकिणीलक्षण-'वःथुज्ज- वास्तुविद्या-'णगरमाण'-'नगरमानं-वधावारमाण- स्कन्धावारमान-'चार-पडिचार-बृह-चक्कवृह' चार-प्रतिचार-व्यूह-चक्रव्यूह, 'गरुडवूह-सगडवूह-जुद्धं-निजुद्धं जुद्धजुद्धे-अटिजुर्दमुट्ठिजुद्धं बाहुजुद्धं-लयाजुद्र'-इसन्थे-छरुप्पवाय- गरुडव्यूह-युद्ध-नियुद्ध-युद्रयुद्र-अस्थि युद्र-मुष्टियुद्ध-बाहुयुद्ध-लतायुद्ध-इण्वस्त्र-त्सरुप्रवाद, धणुव्वेय-हिरण्णपागं-सुवण्णपागं मणिपागं-धाउपाग -सुत्तखेडं-बट्टखेडं-जालियाखेडं-पत्तच्छेज्ज- धनुर्वेद-हिरण्यपाक'सिलोग' , 'हिरणज्जुत्ति डि२७ययुत 'सुवण्णजुत्ति सुवाणु युति, आभरणविहिं मानविधि, 'तरुणीपडिकम्म' ०३९ प्रतिभ' 'इस्थिलक्रवण' स्त्रीशक्षY 'पुरिमलकरत्रण'. ३५सक्षाणु, 'हयलवरवणं' यसक्ष. . 'गरलक्रनणं' सक्ष. 'कुक्कुडलवरखणं' ४४४टलक्षण. 'छत्त लकरत्रणं' छत्र सक्ष. 'चकालक्रवणं' यसक्षY. 'दंडलक्खा क्षण. 'असिलवखणं' असि सक्ष. 'मणिलक्वर्ण भसक्षY 'कागणिलवरत्रण left :समवत्थुविनं' वास्तुविधा. 'णगरमाणः नाभान. खंधावामागे धावा२ भान..'चार पडिचारं वृहं-चावह' या२-प्रतियारव्यू-१६व्यू, ‘गरुडवृहं'–सगडवूह-जुद्धं-निजुद्धं-जुद्ध जुद्धं-अद्विजुद्ध-मु हजुद्ध - वाहजुद्ध लयाजुद्वै-इसत्थे-छरुप्पवाय” १३७ ०५७. २४८ व्यूड. युद्ध. नियुद्ध. युद्ध युद्ध मस्थि युद्ध मुष्टियुद्धः: मायुद्ध, सतायु. ४०८५२त्र. ५३ प्रवाह.. "धणुव्वेय हिरण्णपाग सुवण्णपाग मणिपाग धाउपाग सुत्तखेडं चट्टखेडं णालियाखेडं पत्तच्छेज्ज" धनु .. २९यपा. सुवर्ण पा४. भापा. सूत्रत ::-- Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -:: सुबोधिनी टीका सू. १७० सूभिदेवस्य आगामिभवत्रणनम् ४०९ धातुपाकं ६५ सूत्रखेलं ६६ वर्तखेलं ६७ नालिकाखेलं ६८ पत्रच्छेद्य ६९, कटकच्छेद्यं ७० सजीवनिर्जीव ७१ शकुनरुतम् ७२, इति ॥ सू० १७० ॥ टीका-'तए णं तं दढपइण्णं' इत्यादि-ततः खलु तं दृढप्रतिज्ञ दारकम् अवा-पितरौं-तन्माता-पितरौ, सातिरेकाष्टवर्ष जातकंसंजातकिञ्चिदधिकाष्टवर्पकं ज्ञा-वा-परिभाव्य शोभने तिथिकरणनक्षत्रमुहूते-तिथिश्च करणं च नक्षत्रं च मुहूतं चेत्येतेषां समाहारः तिथिकरणनक्षत्रमुहूर्त, तत्र शोसनशब्दस्य सर्वत्र सम्बन्धात् शोभनायां तिथौ-नन्दा जथा पूर्णारूपायां, शोभने करणे-स्थिरसंज्ञके, शोभने नक्षत्रे-विद्याऽर नयोग्ये ज्ञानवृद्धिकारके मूगशीपीऽऽद्रांपुष्यः-अश्लेषा-मूल,-पूर्वाफाल्गुनी,-पूर्वापाढा,-पूर्वाभाद्रपद,हस्त-चित्रा-रूपे नक्षत्रदशकेऽन्यतसे-शोभने मुहूर्ते-शुभायां वेलायां स्नातं-कृत स्नानं. कृतवलिकर्माणं-काकादिभ्यः कृतान्नसागं. कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्तं-कृतानि-म्पादितानि कौतुकानि-सपीतिलकादीनि मङ्गलानि-मङ्गल विधायकानि दध्यक्षतादीनि तान्येव प्रायश्चितानि-दुःस्वप्नादि विधातार्थमवश्यकरणीयत्वात् प्रासुवर्णपाक-मणिपाक-धातुपाक-सूत्रखेल वर्त्तखेल-नालिकाखेल-पत्रच्छेद्य. 'कडग च्छेज्ज-सजीवनिज्जीवं-सउणरुयं-७२-त्ति-' कटकच्छेद्य सजीवनिर्जीव-और शकुनरुत.७२। टीकार्थ-जब दहप्रतिज्ञ दारक आठ वर्ष से अधिक वय का हो जावेगा-तब उसके मातापिता उसे शुभ तिथि में नन्दा-जया-पूरुप तिथि में, शुभकरग में-स्थिरनामके शुभकरण में, तथा-विद्याध्यनयोग्य-ज्ञानद्धिकारक मृगशी-आर्द्रा-पुष्य-अश्लेषा-मूल-फाल्गूनी-पूर्वापाढा-पूर्वाभाद्रपद-हस्त-और चित्रा रूप नक्षत्र दशकमें, और शुभवेलामें कलाचार्य के पास ले जायेंगे। इसके पहले वे उस बालक को स्नान करावेंगे, वायस-काक आदिकों को देने के लिये उससे अन्न का विभाग कराकर वितरित करावेंगे. वह मपी तिलक आदि रूप कौतुक को तथा-दुःस्वम्म आदिरूप अमंगल के विघातक होने से अवश्य करणीय ऐसे दध्यक्षतादिरूप प्रायश्चित्तको करेगा. और फिर वह समस्त स. नासि गेम पत्र-छा. "कडगच्छेज्ज सनी निज्जीवं सउणरुयं ७२ ति કટકછેદ્ય. સજીવનિર્જી અને શકુન રૂ ૭૨. ટીકાર્થ:–જ્યારે દટપ્રતિજ્ઞદારક આઠ વર્ષ કરતાં મોટા થઈ જશે ત્યારે તેના માતાપિતા તેને શુભતિથિમાં નંદા જયા પૂર્ણારૂપ તિથિમાં, શુભકરણમાં, સ્થિર નામના શુભકરણમાં, તથા વિદ્યાધ્યયન ગ્ય જ્ઞાનવૃદ્ધિકારક મૃગશીર્ષા-આદ્ર પુષ્ય અશ્વોઢા મૂલ-પૂર્વાફાલ્ગની-પૂર્વાષાઢા પૂર્વાભાદ્રપદ હસ્ત અને ચિત્રા એ નક્ષત્રદશકમાં અને શુભવેલામાં કલાચાર્યની પાસે લઈ જશે. અને પહેલાં તેઓ તે બાળકને સ્નાન કરાવશે, વાયસ વગેરેને આપવા માટે તેની પાસેથી અન્નવિભાગ કરાવીને વિતરિત કરશે. તે મીતિલક વગેરે રૂપ કૌતકને તેમજ દુ:ખસ્વપ્ન વગેરે રૂપ અમગલના વિધાતક હોવાથી અવશ્યકરણીય એવા દધ્યક્ષતાદિ રૂપ પ્રાયશ્ચિત્તને કરશે અને Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीयसूत्रे ४१० श्चित्तरूपाणि येन स तम्, सर्वालङ्कारविभूपितं-परिधृतकटककुण्डलाद्याभरणम् सवे-समस्ताः हस्तच णकण्ठादियमस्तावयवयोग्या अलङ्काराः-वस्राभरणरूपाः तैः विभूपित-सज्जितं परिहितशुद्धप्रवेश्यवस्त्र परिधृतकटककुण्डलाद्याभरणं च, एतादृशं सुसज्जित दृढतिज्ञ दारकं कृत्वा महता ऋद्धिसत्कारसमुदयेन-ऋद्धिः वस्त्रसुवर्णादिसम्पत् तथा सत्कारः रत्कारयुक्तः समुदयः-समागतजनसमुदायो यत्र स तेग-महोत्सवपूर्वकमित्यर्थः कलाचार्यस्य-कलाशिक्षकस्य समीपे उपनेप्यतः । ततः खलु स कलाऽऽचार्यः त दृढप्रतिज्ञदारकं लेखादिकाः गणितप्रधानाः शकुनस्त पर्यवमानाः द्वासप्तति कलाः सूत्रतः-मूलतः अर्थतः-अर्थोपदर्शनतः. ग्रन्थतःग्रन्थरूपेण तासां लेखनतः करणतः-प्रयोगतश्च शिक्षयिप्यते-अध्यापयिष्यति साधयिष्यति साध्याः कारयिष्यतिश्च । तद्यथा-ताः कला यथा-लेनम् लेख:-अक्षरविन्यासः तद्विपया कलाविज्ञानं लेन एवोच्यते त लेखम्-लेखविज्ञानम् कलाअलङ्कारों से कटक-कुण्डलादिरूप आभरणों से अपने को सुसज्जित करेगा. तत् पश्चात्-वह सभा में प्रवेश योग्य शुद्ध वस्त्रों को धारण करेगा. इस प्रकार से सुसज्जित हुवे उस दृढप्रतिज्ञ कुमार को वे मातापिता अपनी ऋद्धि के अनुसार वस्त्र सुवर्णादि सम्पत्ति के अनुरूप समागत जन-समुदाय के साथ सत्कारपूर्वक महोत्सव पूर्वक उसे कलाचार्य के पास ले जावेंगे। तब वह-कलाशिक्षक उस दृढप्रतिज्ञ दारक को गणितप्रधान लेखादिक ब.लाओं को शकुनिस्तान्त (पक्षिके शुकुन देखने तककी) कलातक यथावत् सिखावेगा. ये सब कलाएँ ७२-होती है। सूत्र से तथा अर्थोपदर्शन से, एवं तदुभय से अर्थात् सूत्र और अर्थ दोनों प्रकार से और प्रयोगरूप से वह इन सब कलाओं के। उसे पहोवेगा. पढाकर वह इन कलाओं में क्रियात्मकरूप से उसे निपुण भी करदेगा. । उन ७२ कलाओं के नाम इस प्रकार से हैं-लेख अक्षरविन्यास, इस विषय का પછી તે સમસ્ત અલંકારથી કટક કુંડલાદિ રૂપ આભરણથી પિતાના શરીરને સુસજિજત કરશે. ત્યાર પછી તે શુદ્ધ વસ્ત્રો ધારણ કરશે. આ પ્રમાણે સુરાજિત થયેલા તે દઢપ્રતિજ્ઞ કુમારને તેના માતાપિતા પિતાની અદ્ધિ મુજબ વસ્ત્રસુવર્ણ વગેરે સંપત્તિના અનુરૂપ આવેલ જનસમુદાયની સાથે સત્કારપૂર્વક, મહોત્સવપૂર્વક તેને કલાચાર્ય પાસે લઈ જશે. ત્યારે તે કલાશિક્ષક તે દઢપ્રતિજ્ઞદારકને ગણિત પ્રધાન લેખાદિક કલાઓથીશકુનિરૂતાર સુધીની સમસ્ત કલાઓને યથાવત શીખવાડશે. આ બધી કલાઓ ૭૨ છે. સૂત્રરૂપે, અર્થોપદર્શનરૂપે, ગ્રન્થરૂપે અને પ્રગરૂપે તે કલાચાર્ય તેને સમસ્ત કલાઓને અભ્યાસ કરાવશે. અભ્યાસ કરાવીને તે તેને ક્રિયાત્મક રૂપમાં પણ નિપુણ બનાવશે. તે ૭૨ કલાઓના નામ આ પ્રમાણે છે. લેખ-અક્ષરવિન્યાસ આ વિષયનું જે વિજ્ઞાન હોય છે તે પણ લેખ જ છે આ લેખમાં અક્ષર વગેરે લખ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका स. १६८ सूर्याभदेवस्य आगामिभववर्ण नम् ऽऽचार्यः शिक्षयिष्यतीति सम्बन्धः एवमग्रेऽपि संयोजना कर्तव्या । लेखो लिपि विषयभेदाद् द्विविधः तत्र लिपिः ब्रा-स्यादिभेदेनाष्टादशविधा. सा च समवायाङ्गसूत्रगताऽष्टादशसमवायोक्ता बोध्या। अथवा लाटादिदेशभेदतोऽनेकविधा भवति । पुनश्च वल्कलकाष्ठदन्तलोहताम्ररजतपापाणावाधारेपु लेखनोकिरणस्यूतव्यूतच्छिन्नभिन्नदग्धसंक्रान्तितोऽक्षरविन्यासरूपा लिपिरने कविधा भवति । विषयमाश्रित्य स्वामिभृत्यपितापुत्रकलत्रपतिगुरुशिष्यशत्रुमित्रादिविषया कार्य स्थौल्यंचैपम्यपतिवक्रत्वपदच्छेदादिभेदभिन्ना चानेकविधा भवति १. गणितम्पट्टिकादि प्रसिद्धमेकद्वयादि संकलनगुणभागादिरूपम् २. रूपम् लेप्यशिलासुवर्णरजतमणिवस्त्रचित्रादिलक्षणम् ३। नाटयम्-साभिनयनिरभिनयभेदभिन्न जो विज्ञान हो जाता है वह भी लेख ही है, इस लेख में अक्षरादिके लिखने में निपुण हो जाना यह-लेनकला है, यह लेख-लिपि, एवं-विषय भेदसे दो प्रकार का है. इनमें ब्राह्मी आदि के भेद से लिपि १८-प्रकार की है. यहविषय “समवायानसूत्र में १८-वें समवान में कहा गया है। अथवालाटादि के भेद से लिपि अनेक प्रकार भी होती है, पुनः वल्कल-काष्ठदन्तलोह-ताम्र-रजत-पापाण-आदि आधारों के ऊपर अक्षरों का लिखना, उन पर अक्षरों का टॉकी आदि से अङ्कित-(उकेरना) इत्यादिरूप से अक्षरविन्यासरूप लिपि अनेक प्रकार की है। विषय की अपेक्षा भी स्वामी-भृत्य-पितापुत्र-लत्र-पति-गुरु-शिष्य-शत्रु और-मित्रादि को विशय करने वाली जो लिपि है वहभी कृशता स्थलता आदिरूप से विन्यास की अपेक्षा अनेक प्रकार होती हैं १। गणितरूप कला गुणा-भाग, वीजगणित-रेखागणित आदि होती है २ । रूपकला-लेख्य, शिला, सुवर्ण, रजत-आदि के ऊपर चित्र को उतारनेरूप याવામાં કુશળતા મેળવવી તે લેખકલા છે. આ લેખ-લિપિ અને વિષયભેદથી બે પ્રકા२नी छे. मामा ग्राझी वगेरेना लेहथी १८ प्रारनी लिपि छ. • विषय 'समवायाङ्ग' સૂત્રમાં ૧૮ મા સમવાયમાં આવેલ છે. અથવા લાટાદિના ભેદથી લિપિના ઘણા પ્રકારે છે. भने १६४स, ४, तसोई, ताम्र, २०४त, पाषाण वगेरे आधा। ५२ अक्ष। લખવાં, તેમની ઉપર ઢાંકણથી ઢાંકવું વગેરે રૂપમાં અક્ષર વિન્યાસ લિપિ ઘણા પ્રકા२नी छ. विषयनी अपेक्षा ५५५ २वाभी, मृत्य, पिता, पुत्र, सत्र, पात, शु३, શિષ્ય, શત્ર અને મિત્ર વગેરેને વિશય કરનારી જે લિપિ છે તે પણ કૃશતા સ્થૂલતા વગેરે રૂપથી વિન્યાસની અપેક્ષાએ અનેક પ્રકારની હોય છે ૧,ગણિતકલા ગુણા–ભાગ-બીજ शशित; २ गणित वगैरे ४२नी हाय छ. २,३५४ा-ज्य, Aal, सुवर्ण, २०४d, વગેરેની ઉપર ચિત્રને ઉતારવારૂપકે લેખન રૂપ હોય છે. ૩નાટયકલા અભિનય સહિત,વગર Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ राजपनीयसत्रे नर्तनम् ४ । गीतम्-गन्धर्वकलाज्ञानविज्ञानरूपम् ५ । वादितम-ततविततादि भेदभिन्नं वाद्यम् ६। स्वरगतम-पड्जऋपभादिस्वरज्ञानम् ७। पुष्करगतम्-मृदनमुरजादिभेदयुक्तं विज्ञानए. अस्य वाद्यान्तर्गतत्वेऽपि यत्पृथक्कथनं तत् परमसङ्गीताङ्गदख्यापनार्थम् ८ । समतालम्-एमः-अन्यूनाधिकमात्रा: ताल:-गीतादिमानकालो यत्र तत् समताल विज्ञानमित्यर्थः ९। द्यूत-प्रस्जिदम् १० । जन वाद-यूनविशेपः ११ । पाश मम्-पाशैः खेलनरूपं घुतम १२ । अप्टापदम्-सारि फलातमेव १३ । पौरकृत्यम-पुरस्य कृतिः-निर्माणं तद्विपयं विज्ञानं पौरकृन्यपुरनिर्माण लेत्यर्थः. तत् अत्र त्रिविधः पाठ उपलभ्यते तयाहि-पोरेकच्च' 'पोरेवच्चं' 'पोरेकव्वं' इति । प्रत्येक स्य छायापि तदनुसारेणैव भवति-'पोरेकृत्यम्' पौरपत्यम् 'पुर काव्यम्' इति । तत्र पोरेकच्च' इत्यस्य व्याख्याऽत्र कृता 'पोरेवच्चं' पौरपत्यम्नगररक्षककला, 'पोरेकव्वं' पुरःकाव्यम्-पुरतःपुरतः काव्यरुपवाणी निस्मारणं शीघ्रकवित्वमित्यर्थः ।१४। दकमृत्तिकम् उदर संयुक्तमृत्तिका विवेर द्रव्यप्रयोगलिखने रूप होती है. ३। नाटयकला-अभिनयसहित, विना अभिनय के भेद से दो प्रकार की होती है ४ । गीतकला-गाने आदि में निपुणता प्राप्त करनेरूप होती हे. ५। वोदित्रकला-तत, वितत आदिरूप वादित्रों के बजाने रूप होती है ६। स्वरकलो-पड्ज, ऋपस-आदि के ज्ञान करानेरूप होती है ७ । पुष्करगतकला-मृदङ्ग, मुरज आदि के बजानेरूप होती है। यद्यपि यह कला वादित्रकला में अन्तसृत हो जाती है, फिर भी इसे जो स्वतन्त्ररूप से अलग कला कही गई है सो-यह सङ्गीतकलामें उसका उत्कृष्ट अङ्ग है. इस बात को प्रकट करने के लिये कहा गया है ८ । गीतादिकों का मान काल जहां होता है, उसका नाम ताल है, इस ताल का जो विज्ञान है वह समताल विज्ञान है ९। जूआ खेलने की चतुराइ का नाम धूतकला है १० । जनवाद-यह भी एक प्रकार का विशेष जूआ है, ११। पाशों से धृत खेलने की विशेषनिपुणता का नाम पाशकला है. १२। सारिफल धतरूप अष्टापद कला होती है १३ । नगर के निर्माण कग्ने की कला का नाम पौरकृत्यकलाઅભિનય આમ બે પ્રકારની હોય છે. ગીતકલા-સંગીત વગેરેમાં નિપુણ પ્રાપ્ત કરવી તે છે ૫. વાદિત્રકલા તત, વિતત વગેરે વાજિત્રને વગાડવા તે છે ૬. સ્વરકલા-ષડજ, ત્રષભ વગેરેનું જ્ઞાન મેળવવું તે છે ૭. પુષ્કરગત કલા-મૃદંગ, મુરજ વગાડવા તે છે, જો કે આ કલા વાજિંત્રકલાની અન્તભૂત થઈ જાય છે પણ છતાંએ આને જે સ્વતંત્ર રૂપમાં જુદી કલા ગણું છે તેનું કારણ આ છે કે આ કલાનું સંગીત કલામાં અતીવ મહત્ત્વપૂર્ણ સ્થાન છે ૮. ગીત વગેરેનો જે માનકાલ હોય છે તેનું નામ તાલ છે, આ તાલનું જે વિજ્ઞાન છે તે સમતાલ વિજ્ઞાન છે ૯. જુગાર રમવાની કુશળતાનું નામ ઉતકલાઈ ૧૦. જનવાદ પણ એક જાતને વિશેષ જુગાર છે ૧૧. પાસાએથી જુગાર રમવામાં વિશેષ નિપુણતા મેળવવાનું નામ “પાશકલા છે ૧૨. સારિકલ ધ્રતરૂપ અષ્ટાપદકલા હોય છે૧૩. નગરની નિર્માણકલા પરકૃત્યકલ છે ૧૪, ઉદક (પાણી)માં મળેલી માટીને જે Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका स. १७० सूर्याभदेवस्य आगामिभववर्णनम् ४१३ पूर्विश त पृथक्करणकलाऽप्युपचाराद् दकमृत्तिका ताम् १५ । अन्नविधिम्-अन्न पाककलाम १६ । पान विधि-जलोत्पादन कलां तत्संशोधनकला बा १७ । वस्त्रविधिम् - वस्त्रोत्पादन लौ तद्धारणय लां वा १८ । विलेपनविधि-शरीरोपरिचन्दनादिलेपरला यक्षकर्दमादिलेप परिज्ञानम् १९ । शयनविधिम् शयन-शय्या पल्यवादि. तद्विपया कला ताम् २० । आर्यास्-मात्राच्छन्दो विशेषनिर्माणकलाम् २१ । प्रहेलिकाम्-गूढाशयपद्यरूपाम् २२। मागधिकाम्-भाषाच्छन्दोविशेषाम् २३ । है. १४ । उदक में मिली हुई मिट्टी को दूर करनेवाले द्रव्य का ज्ञान होना, औरउसका सम्बन्ध कराकर पानी और मिट्टी को दूर कर देना यह-दकमृत्तिका कला है जैसे-निर्मली-फिटकिडी डालकर गन्दे पानी को निर्मल करदिया जाता है. १५ । भोजन बनाने की चतुराई का नाम अन्नविधि कला है, १६। भूमि का देनकर यहां जलनिकलेगा इस प्रकारके विज्ञान का नाम पानविधि कला है. १७ ॥ वस्त्रों का निर्माण करने की चतुराई का नाम, या-वस्त्रों को सुन्दर ढंग से पहनने की चतुराई का नाम वस्त्रविधि कला है. १८ । शरीर के ऊपर चन्दनादि का लेप करने की चतुराई का नाम-विलेपनविधि है, १९। पल्य आदि विषयक ज्ञान होना-अर्थात् इस प्रकारका पल्या शुभ होता है इस प्रकार का पत्यक शुभ नहीं होता है, ऐसा ज्ञान होना इसका नाम-शयनविधि कला है २० । मात्रावाले छन्दों का निर्माण करना. यह-आर्या कली हैं, २१॥ गूढ आशयवाले पद्यों की निर्माणका प्रहेलिका कला है. २२॥ भाषाछन्द विशेष का नाम-मागधिका है, इसके निर्माण की चतुराई का नाम मागधिकाकला है, २३। निद्रा लाने की विद्या દ્રવ્યથી જુદી પાડી શકાય તેનું જ્ઞાન થવું અને તેને સંબંધ કરાવીને પાણી અને માટીને જુદા જુદા કરવા આ દકમૃત્તિક કલા છે. જેમકે નિર્મલી-ફટકડી નાખીને ગંદા પાણીને સાફ કરવામાં આવે છે ૧૫. ભેજન હોયાર કરવાની કુશળતાનું નામ અન્નવિધિ કલા છે ૧૬ જમીનને જોઈને અહીંથી પાણી નીકળશે આ જાતના વિજ્ઞાનનું નામ પાનવિધિ કલા” છે. ૧૭ વસ્ત્રોના નિર્માણની કુશળતાનું નામ અથવા તે વસ્ત્રને સુંદર ઢંગથી પહેરવાની કળાનું નામ વસ્ત્રવિધિ કળા છે. ૧૮ શરીરની ઉપર ચન્દન વગેરેને લેપ કરવાની કુશળતાનું નામ વિલેપનવિધિ છે. ૧૯ પયંકાદિ વિષયકજ્ઞાન થવું એટલે કે આ જાતને પથરું શુભ હોય છે, આ જાતને પથંક શુભ નથી હોતે આવું જ્ઞાન થવું, આનું નામ શયનવિધિ કલા છે. ૨૦માત્રાવાળા છંદેનું નિર્માણ કરવું તે આર્યાકલા છે.૨૧ ગૂઢ આશયયુક્ત પદ્યોની નિર્માણકળા પ્રહેલિકા-કલા” છે. ર૨ ભાષા છન્દ વિશેષનું નામ માગધિકા છે. એની નિર્માણ કુશળતા માગધિક કલા છે. ૨૩ નિદ્રા આવવાની વિદ્યાનું Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ राजप्रश्नीयसूत्र निद्रायिकाम् - अगस्वापनी विद्यारूपां कलाम् २४ | गाथागीतिका चेति कलाइयमार्यां मेदरूपाम् २५ २६ | श्लोकम् - श्लोकरचनाकलाम् कवित्वकलामित्यर्थः २७ । हिरण्ययुक्तिम् - हिरण्यस्य- रजत हय युक्तिः- निर्माण विधिन्ताम् २८ । सुवर्ण युक्तिम्- सुवर्णस्य युक्ति:- निर्माणविधिस्ताम् २९ । आभरणविधिम्भूषणनिर्माणकलाम् ३० । तरुणीपरिकर्म - स्त्रीणां वर्णादिवृद्धिरूपाम् ३१ | बीलक्षणम्, पुरुपलक्षणम्, एतन्दयं सामुद्रिकशास्त्रप्रसिद्धं विज्ञान ३२ - ३३ । इयगज- कुक्कुट -च्छत्र-चक्र-दण्डानां प्रसिद्धानां सप्तानां तत्तल्लक्षणज्ञानकलाः ३४-४० । मणिलक्षणम् - रत्नादि - परीक्षणम ४१ । काकिणीलक्षणम् - काकिणी - चक्रवर्तिनो का ज्ञान होना उसका नाम - निद्रायिका कला है, इस कलावाला दूसरे का इस कला के प्रभाव से निद्रा में मग्न कर देता है २४ | गाथा - और गीतिका ये दोनों कलाएं आर्या का ही सेदरूप होती है, २५-२६ श्लोकरचना करने की चतुराई का नाम - लोककला है, इसका दूसरा नाम - कवित्वकला भी है २७ । हिरण्य युक्ति - चान्दी बनाने की कला २८ सुवर्णयुक्ति-सोना बनाने की कला २९ भूषणों के निर्माण की विधि का जानना. आभरणविधि कला है. ३०१ स्त्रियों के वर्णादिक में विधान का जानना. तरुणीपरिकर्मकला है. ३१। श्रीयों के शुभाशुभ लक्षणो को जानना. स्त्रीलक्षणका है. ३२ | पुरुषलक्षणों का जानना यह पुरुष लक्षणकलाहै. ३३ । दोनों कलाएँ सामुद्रिकशास्त्र से सम्बन्धित हैं । घोडा - हाथी - कुक्कूट -छत्रचक्र-दण्ड असि (तवार) इन सातों के शुभाशुभ लक्षणों को जानना इस का नाम उस उस नाम की कला है ३४-४०। रत्नादिकों की परीक्षा करना इसका नाम मणिलक्षण कला है. ४१ । काकिनी कल्ला में - चक्रवर्ती के रत्न विशेष की परीक्षा જ્ઞાન થવું” તે ‘નિદ્રાયિકા કલા છે. આ કલાને જાણનારને મીજાને આ કલાના પ્રભાનથી નિદ્રામગ્ન કરે છેર૪. ગાથા અને ગીતિકા આ બન્ને કલાએ આનાજ ભેદરૂપમાં છે. ૨૫–૨૬. શ્વાક રચનામાં કુશળતાનુ નામ બ્લેાક કલા છે. આદું ખીજું નામ કવિત્વકલા પણ છે ૨૭ હિરણ્ય યુકિત ચાંદીખાવવાની કલા, ૨૮ સુવર્ણ ને યુકિત-સાનું બનાવવાની કળા ૨૯ આભરણુવિધિ-આભૂષણાને અનાવવાની વિધીને જાણવી તે આભરણુવિધિ કલા છે ૩૦. સ્ત્રીઓના વર્ણાદિકમાં વૃદ્ધિવિધાન જાવું તે તરૂણી પરિક કલા છે૩૧. સ્ત્રીઓના શુભાશુભ લક્ષણા જાણવાં તે સ્ત્રીલક્ષણ કલા છે૩ર. પુરૂષ લક્ષણે જાણવા એ પુરૂષ લક્ષણ કલા છે૩૩. એ બન્ને કલાએ સામુદ્રિકશાસ્ત્રની સાથે सौंगंध राजे छे. घोडा हाथी - डुङ्कुट -छत्र-य-उ-मासि - (तरवार) मे सहितना शुलाશુભ લક્ષણે જાણવા તેના નામેા તે તે કલા વિશિષ્ટ સમજવા ૩૪-૪૦૨નાદિકાની પરીક્ષા તે મણિલક્ષણ કલા છે૪૧. કાકિણી કલામાં-ચક્રવતી ના રત્નવિશેષની પરીક્ષા તેના લક્ષણાના Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सू. १७० सूर्याभदेवाय आगामिभववर्णनम् ४१५ रत्नविशेषस्तस्य लक्षणम् ४२ । बास्तुविद्याद-गृहभूमेगुणदोपज्ञानरूपास् ४३ । नगरमानन्-नगरस्य दशीननाऽऽयाम-नवयोजनव्यासादि-प्रमाणज्ञानम् ४४ । स्कन्धाकारमानम् सेनानिवेशप्रमाणज्ञानम् ४५ । चार-चारो-जोतिश्चारः, तद्विज्ञानम् ४६। प्रतिचारम्-प्रतिचरणं प्रतिचार:-रोगिणः प्रतीकारकरणं, तद्विषयकज्ञानम् ४७ । व्यूहा-सामान्यतः सैन्दरचनं, तद्विषयज्ञानम४ ८ । चक्रव्यूहम्-चक्राऽऽकृतिक सैन्यरचना- ४९ । गरुडव्यूहम्-गरुडाऽऽकृतिकसैन्यरचनास् ५० । शकटव्यूहम-शकटाऽऽकृतिकसैन्यरचनाम् ५१ । युद्ध५-युद्धकलाम् ५२ । नियुद्धमल्लयुद्धकरणकलाम ५३ । युद्वयुद्धम्-खङ्गादिप्रक्षेपणपूर्वकमहायुद्धकलाम् ५४ । अस्थियुद्धम्-अस्थिभिः-कूपरादिभिः प्रहरणं, तत्कलास् । यद्वा 'दृष्टियुद्धप' इति करने के लक्षणों को जानना ४२ । गृहभूमि के गुण दोपों का ज्ञान होना इसका नाम वास्तु विद्या कला है,४३ नगरकी दशयोजन लम्बाई और नौ योजन चौडाई आदि प्रमाण का ज्ञान होना यह नगरमान कला है ४४। सेनानिवेश के प्रमाण का होना-स्कन्धावार मानकला है ४५। नक्षत्रादिक ज्योतिप्कों की चाल का ज्ञान होना चारककला है.४६ । रोगों के प्रतिकार करने के उपायों का ज्ञान होना प्रतिचारकला है. ४७। सामान्यरूप में सैन्यरचना का ज्ञान होना, यह व्यूह कला है. ४८॥ चक्राकाररूप में सैन्य की रचना करना चक्रव्यूहफला है. ४९। गरुड के आकार में सैन्य की रचना करना र ह गरुड व्यूहकला है. ५०। शकट के रूप में सैन्य की रचना करने का ज्ञान होना यह शकटव्यूह कला है ५१॥ युद्ध करने का ज्ञान होना यह युद्धकला है, ५२ । मल्लयुद्ध करने का ज्ञान होता यह मल्लयुद्ध या नियुद्ध का है ५३। तलवार आदि चलाते हुवे घमासान युद्ध करना यह युद्ध युद्ध फला है. ५४। अस्थि-टोहनी आदि से प्रहार करने की चतुराई का આધારે કરવામાં આવે છે ૪૨ ગૃહભૂમિના ગુણદોષેનું જ્ઞાન થવું તે વાસ્તુવિદ્યાકલા છે.૪૩ નગરની દશ જન લંબાઈ અને નવજન પહોળાઈ વિગેરે પ્રમાણનું જ્ઞાન થવું તે “નગરમાન કલા છે.૪૪ સેનાનિવેશના પ્રમાણનું જ્ઞાન થવું તે સ્કંધાવારમાન કલા છે.૪૫ નક્ષત્રાદિક જેતિષ્કની ગતિનું જ્ઞાન થવું તે ચાર કલા છે ૪૬ રેગોને મટાડવાના ઉપાયોનું જ્ઞાન તે પ્રતિચાર કલા છે.૪૭ સામાન્ય રૂપથી સૈન્યરચનાનું જ્ઞાન થવું તે ચર્ક મૂહ કલા છે. ૪૮ચક્રાકારકરૂપમાં સૌ રચના કરવી ચક્રવ્ય કલા છે, ૯ ગરૂડના આકારથી સૈન્યની રચના કરવી તેનું નામ ગરૂડયૂહ કલા છે. ૫૦ શકેટના રૂપમાં સન્યની રચના કરવાનું જ્ઞાન થવું તે શકટર્વ્યૂહ કલા છે. પ૧ યુદ્ધ કરવાનું જ્ઞાન થવું તે યુદ્ધ કલા છે.પર મલ યુદ્ધ કરવાનું જ્ઞાન થવું તે મ૯યુદ્ધ કે નિયુદ્ધકલા છે. ૫૩ તરવાર વગેરે ફેરવતાં ભયંકર યુદ્ધ કરવું તે યુદ્ધ રુદ્ધ કલા છે.૫૪ અસ્થિ-ટેની વગેરેથી પ્રહાર કરવાની કુશળતાનું નામ અસ્થિયુદ્ધ કલા છે. અથવા “ષ્ટિ ચુદ્ધ આ પાઠમાં Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ राजप्रश्नीयसूत्र पाठः प्रतिद्वन्द्विनोश्चक्षुपो निनिमेपावस्थानं, तत्कलाम ५५ । युष्टियुद्धम-मुष्टिभिः प्रहरण ५६ । बाहयुद्धम् बाहुभिः प्रहरणम् ५७ । लतायुकम्-लताक्षमिव शा. गाढं परिवेष्टय प्रहरणम् ५८। इण्वस्त्रम् नागवाणादिदिव्यास्त्रप्रक्षेपणम् ५९ । त्सरुवादम्-त्सरु:-नगमुष्टिः, अवयवे समुदायोपचागत् त्सरुशब्देनात्र खङ्गो गृह्यते, तस्य प्रवादो यत्र शास्त्रे तत् त्सरुप्रवाद-खन शिक्षाशास्त्रमित्यर्थः ६० । धनु - द-धनुःशिक्षणशास्त्र ६१ । हिरण पाक-सुवर्णपाको-रजत-सुवर्णयो रसायन क्रिया तद्वपयकर लाद्वयम् ६२-६३ । मणिपाकम्-मणिनिर्माण ला ६४। धातुपाकाम्रजत ताम्रादिधातुनिर्माण लाम् ६५ । सूत्रखेल-वर्त्तखेल-नालिकारखेलाः लोकतः प्रत्येतव्याः ६६-६८ । पत्रच्छेद्यम- अनेकपत्रेषु विवक्षित पत्रच्छेदन र लार ६९ । पटकनाम अस्थियुद्धकला है.। अथवा 'दृष्टियुद्ध' इस पाठ में प्रतिस्पर्धा फी आस्त्रों को अपनी चितवन से निमेपरहित कर देना सो दृष्टियुद्ध है. ५५ । मुष्टियों से प्रहार करना. इसका नाम मुष्टियुद्धकला है ५६ । बाहुओं से प्रहार करना. इसका नाम-वाह युद्धकला है. ५७। लता जैसे वृक्षा को लपेट लेती है. इसी प्रकार से शत्रु का घेरे में डालते हुवे गाढरूप से लपेटकर फिर उस पर प्रहार करना. लतायुद्ध है. ५८॥ नागवाण आदि दिव्यरत्नों का प्रक्षेपण करना, इसका नाम-ध्वस्त्रकला है. ५९॥ सरूशब्द का अर्थ तलवार की सूठ है. यहां अवयव में समुदाय के उपचार से त्सरुशव्द से खग का ग्रहण किया गया है। इस खङ्ग-तलवार को चलाने में निपुण होना इसका नाम--सरु प्रवाद है ६०। धनुप चलाने की क्रिया में निपुणता प्राप्त करना यह-धनुर्वेद कला है, ६११ रजत और सोना को रसायन क्रिया जानना वह हिरण्यरूप, सुवर्ण पाक कला है ६२-६३ । मणियों का निर्माण विधान का जानना मणि निर्माण कला है, ६४ अथवा-रजत ताम्रादि धातुओं का निर्माण શત્રુની આંખોને પિતાની દૃષ્ટિથી નિમેષ રહિત કરવી તે યુદ્ધ છે પપ. મુષ્ટિકાઓથી પ્રહાર કરીને લડવું તે મુષ્ટિ યુદ્ધ કલા છે. પ૬ બાહુઓથી લડવું તે બહુ યુદ્ધ કલા છે. ૫૭ લતા જેમ વૃક્ષેને પરિવેષ્ટિત કરી લે છે તેમજ શત્રુને ચારે તરફ ઘેરીને ગાઢરૂપથી તેને વચ્ચે લઈને તેના પર હુમલો કરે તે લતાયુદ્ધ છે ૫૮. નાગબાણ વગેરે દિવ્યરત્નનું પ્રક્ષેપણ કરવું તેનું નામ ઈધ્વસ્ત્રકલા છે ૫૯ સૂરૂ શબ્દનો અર્થ તરવારની મૂઠ છે. અહીં અવયવમાં સમુદાયના ઉપચારથી સરૂ શબ્દથી ખનું ગ્રહણ કર્યું છે. અને ચલાવવામાં કુશળતા મેળવવી તેનું નામ સરૂઢવાદ છે ૬૦. ધનુષ ચલાવવામાં નિપુણુતા મેળવવી તે ધનુર્વેદ કલા છે ૬૧. રજત અને સુવર્ણના રસાયણની ક્રિયા જાણીને રજત અને હિરણ્ય પાક કલા છે દર ૬૩. મણિઓના નિર્માણની કલા જાણવી તે મણિ નિર્માણકલા છે ૪. અથવા રજત તામ્ર વગેરે ધાતુઓનું નિર્માણ કરવું આ ધાતુપાકકલા છે ૬ વ. નટની જેમ સૂત્રપર Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सू. १७१ धोभदेवस्य आगामिभववर्णनम् ४१७ च्छेद्यम् शत्रुसैन्येषु विवक्षित शत्रुहननम् ७० सजीवनिर्जीव-सजीव' मृतधात्वादीनां सजीवकरणं सहजस्वरूपापादनम्, निर्जीवम् सुवर्णादिधातूनां प्रयोगविशेषेण मारणम्, पारदस्य मूर्छापापणं वा ७१ । शकुनरुतम-पक्षिशब्दम् :, पक्षिशब्दज्ञानम, यद्वा 'शकुनरुत'-शब्देन शकुनशास्त्रं गृह्यते, तेन वसन्तराजादिशकुनशास्त्रोक्तसर्वशकुनज्ञानं का ७२ । इति आसां द्वासप्ततिकलानां क्रमन्यासः, कुत्रचिन्नामनिर्देशोऽपि च संग्रहसमयविपर्यासेन पृथक् पृथगुपलभ्यतेऽतो यत्र यद्रूपः पाठो लभ्यते तत्र करना यह-धातुपाक कला है, ६५ । नटों की तरह सूत्रपर-वर्चपर, और-नालिका पर चढ कर खेलना-ये तत्-तत् नामवाली कलाएं हैं ६६-६८। अनेकपत्रों में से किसी विवक्षित पत्र का छेदन करना पत्रच्छेद्य कला है. ६९। शत्रु की सेना में रह कर फिर विवक्षित शत्रु को मार देना यह कटकच्छेद्य कला है. ७०। भस्मसात् किये गये सुवर्णादि धातुओं को निरुत्थ भस्म होने से पहले तक प्रयोजन विशेष के आजाने पर उस भस्म को पुनः सुवर्ण कर देना, तथा-एक राज्य से दूसरे राज्य में सुवर्ण को ले जाने का राजकीय प्रतिवन्ध रहने पर उन वाञ्छनीय सुवर्णादिधातुओं को प्रयोगविशेप से मारना, अथवा-पारे को मूच्छित करनाअर्थात-अजीर्णत्व-नपुंसकत्व आदि अट्ठारह दोषों को पारों से निकाल देना यह सजीव निर्जीव कला है. ७१। पक्षियों की बोली को पहिचान लेना. अर्थात्वसन्त राज आदि कृत शकुनशास्त्रदृष्टि से सब पक्षियों का ज्ञान होना यहशकुनरुत कला हैं ७२ । इन बहत्तर कलाओं का क्रम और कहीं कहीं उनका नाम निर्देश भी संग्रह समय की भिन्नसा से पृथक् पृथक् रूपसे उपलब्ध-प्राप्त વપર અને નાસીકાપર ચઢીને રમવું એ તત્ત્વતત્ નામવાળી કળાઓ છે.૬૬૬૮અનેક પત્રોમાંથી કોઈ ખાસ પત્રનું છેદન કરવું પત્રછેદ્યકલા છે. ૬ શત્રુની સેનામાં રહીને પછી કોઈ વિશેષ શ ને જ મારવું કટકચ્છવ કલા છે.૭૦ ભસ્મરૂપમાં પરિણત થયેલા સુવર્ણ ધાતુઓને નિરૂથ ભસ્મ લેવાથી પહેલાં પ્રયજન વિશેષને લીધે ફરી ભસ્મને સુવર્ણ વગેરે બનાવવું તેમજ એક રાજ્યમાંથી બીજા રાજયમાં સુવર્ણને લઈ જવાને રાજકીય પ્રતિબંધ હા છતાં એ તે વાંછનીય સુવર્ણાદિ ધાતુઓને પ્રયોગ વિષયથી મારવી કે પારાને મૂછિત કરે એટલે કે અજીર્ણત્વ વગેરે અઢાર દેને પારામાંથી કાઢવા આ સજીવ નિજીવકલા છે.૭૧ પક્ષીઓની બલીને સમજી લેવી એટલે કે વસંતરાજ વગેરે કૃત શકુન શાસ્ત્રની દૃષ્ટિએ બધા પક્ષીઓની બેલીને સમજવી શુભાશુભ જાણવું તે શકુનરુત કલા છે. ૭૨ આ બેતેર કલાઓને ક્રમ અને તેના નામ નિદેશ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ." - ___3; AT_ . ., . अज्ञानीया तद्रूपेण व्याख्या विधेयेति तत्त्वम् । पूर्वक्तिप्रकारा वास्ततिकलाः लाचार्यों हृदतिज्ञ. शिक्षयिष्यतीति भावः ॥ १७०.. . + . मूलम--तए णं से कलायरिए तं दृढपइण्णं दारगं लेहाइयाओ गणियामहापाओ संउणरुयपज्जवसाणाओ वाकार कलाओ सुत्तो य अत्थओं या गंथओ य करणऔ य सिक्खोवेत्ता सहावता अम्मापिऊणं उवणेहिइ । तए णं तस्स दढपईग्णस्स दारयस्स अम्मापियरो त कलायरियं विउलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थगंधमल्लालंकारेण सकारितति, सम्माणिसंति, विडलं. जीवियारि पीइदाणं दल इससंति, दलइत्ता, पडिविज्जेहिति ॥ सू.० १७१ ॥ छाया-ततः खलुः स कलाधर्मस्तं दृढातिज्ञ दारकं लेखादिकाः नणितप्रधानाः शकुनरुतपर्यसानाः द्वासप्तति कला सूत्रतश्च अर्थतश्च ग्रन्थतश्च करणतश्च शिक्षयित्वा साधयित्वा अम्बा-पित्रोः उपनेष्यति। ततः खलु तस्य दृढप्रतिज्ञस्य होता हैं इसलिये जहाँ जहां जिस जिस रूप से पाठ मिले वहां । उस उस रूपसे, व्याख्या समजनी चाहिए ।। सू० १७० ॥ ., ... . . .: "तए णं से दृढपइण्णे"-"दारए इत्यादि मूलार्थ—'तए णं' इसके बाद 'कलायरिय:'- कुलाचार्य ने 'ल.द्दढपइण्णउस दृढप्रतिज्ञकुमार को 'लेहाइयाओ गणियप्पहाणाओ-' गणित प्रधान लेखादिक कलाएं-'सउणरुयपज्जवसाणाओ चावत्तरि कलाओ सुत्तओ. अत्थओ गथओ य करणओ य-सिक्खावेत्ता सेहावेत्ता अम्मापिऊणं उवणेहिइ- पहली लेह कला से लेकर अन्तिम शकुनरुत कलातक जिन की संख्या ७२-प्रगट की जा चुकी है. પણ હું સમયના ભિન્નપણથી જુદાજુદા રૂપે પ્રાપ્ત થાય છે. જેથી જ્યાં જ્યાં જે જે રૂપથી પાઠ મળેલ છે ત્યાં ત્યાં તે તે રૂપથી તેની વ્યાખ્યા સમજવી. સૂ૦૧૭ના तएणं सें. कलायरिए-इत्यादि । . मृदार्थ--'तए , त्या२: पछी . 'कलायरिए' ४ायार्थे 'तं दढपइण्ण' ते १४ प्रतिज्ञ सुभाने 'लेहाइयाओ गणियप्पहाणाओ' onlyत प्रधान मा ४साया 'सउणरुयपज्जवसाणाओं वायत्तर्रि कलाओं सुत्तओ अत्थओ गंथओ य करणओ य सिकरवावेत्ता सेहावेत्ता अम्मापिऊणं. उनणेहि मतिम शनरत ४८॥ सुधानी સમસ્ત ૭૨ કલાઓને સૌથી પહેલા સુત્રરૂપમાં, ત્યારપછી અર્થરૂપમાં ગ્રંથરૂપમાં . . Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका. १७१ सूर्याभदेवस्य अगामिभव ४१९ 3 दारकस्य अम्बा - पित्रोः उपनेष्यति । ततः खलु तस्य दृढप्रतिज्ञस्य दारकस्य अम्बापितरौ तं कलाचार्य विपुलेन अशनपानस्त्रादिमस्त्रादिमेन क्त्रगन्धमाल्यालङ्कारेण सत्कारथिष्यतः, सम्मानधिष्यतः, विपुलं जीविकाई प्रीतिदानं दास्यतः देव प्रतिविसर्जयिष्यतः । सू० १७१ ॥ " • - " S टीका 'तणं इत्यादि - ततः खलुस - कलाचार्यः दृढप्रतिज्ञ दारकं लेनादिकाः- लेख :- अक्षर विन्यासः आदौ - प्राश्रम्ये यासां ताः- लेखप्रथमा इत्यर्थः, तथा - गणि- प्रधानाः - गणित प्रधान यासु ता- गणित मुख्या इत्यर्थः, तथा शकुन। रुतपर्यवसानाः शकुन - पक्षिशब्दः पर्यवसाने अन् यासां ताम्तथा-पक्षिशब्दपरिज्ञानान्ताः, द्वासप्नति-द्वामटतीसंख्यकाः पूर्वोक्ताः ' कला मुत्रतः शब्दतश्च, अर्थनच ग्रन्थतः ग्रन्थरूपेण तसि लेखन तश्थ, करणतः प्रयोगश्च शि क्षयित्वा - समाप्य साधयित्वा साध्याः कारयित्वा तस्य दृढप्रतिज्ञस्य, अम्वापित्रोरन्तिके उपपति: प्रापविष्यनि ततः खलु तस्य दृढप्रतिज्ञस्य दारकस्य अम्बा पितं कलाचार्य, विपुलेन प्रचुरेण अशनपानखादिमस्वादिमेन वस्त्रगन्धः माल्यालङ्कारेण च सत्कारयिष्यतः सम्मानयिष्यतः, विपुलं प्रचुरं जिवितर्ह यावज्जीवं जीवितयोगां प्रीतिदानम् उपहार, दास्यतः, दवा प्रतिविसर्जयिष्यतः ॥ म्रु. १७१ ॥ प्रथमतः सूत्र रूप से - बाद में अर्थ रूप से - ग्रन्थरूप से, एवं - तदुभय-सूत्र और अर्थ दोनों रूप से सिखलाकर, एवं - उन्हें पहले उन्हीं के हाथ से सिद्ध कराकर उसके माता के पास उसको ले आवेगातए णं तरस दढपइण्णस्स दारयस्स अम्मापय तं कलायरियं विउलेणं असाणखाइमसाइमेणं वत्थ-गंधमल्लाल कारेगं सक्कारिस्संति - ' तब उस दृढप्रतिज्ञ कुमार के मातापिता उस लाचार्य का विपुल अशन-पान - खादिम, एवं - स्वादिमरूप चार प्रकार के आहार से, तथा - वस्त्र - गन्ध - माला और - अलङ्कारों से सत्कार करेंगे- 'सम्माणेस्संति--' विउलं जीवियारिहं, पीइदाणं दलइस्संति, दलइत्ता पडिविसिज्जेहिंति - ' અને કરણરૂપમાં પ્રયાગરૂપમાં શીખવી અને તે કલાઓને પહેલાં તેના જ હાથવડે प्रयोग३थमां सिद्ध उरावीने पछी तेने तेना भातापितानी पासे सह शे. 'तए णं तस्स स्स दारयस्स अम्मापि तं कलायरियं विउले असणपाणखाइम साइमेणं वत्थगंधमल्लालंकारेणं सक्कारिस्संति" त्यारणाह ते दृढप्रतिज्ञ કુમારના માતાપિતા તે કલાચા ને વિપુલ અશન-પાન-ખાદિમ-અને સ્વાદિમરૂપ ચાર अारना आहारथी तेमन वस्त्र गन्ध भासा मने मत अरोथी स तद्वृत ४२. " सम्मापोरसंति विउलं जीवियारिहं, पीइयाणं दलइम्संति, दलइत्ता पडिविसिज्जेहिंति” T . A Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० - - - राजप्रश्नीयसूत्रे मूलम-तए णं से दढपइपणे दारए उम्मुक्कबालभावे विण्णायपरिणयमित्ते जोव्वणगमणुपत्ते वावत्तरिकलापंडिए णवंगसुत्तपडिवोहए अद्यारसविहदेसिप्पगारभासाविसारए गायरई गंधव्वणकुतले सिंगारागारचारुवेसे संगयगयहसियभणियचेष्ट्रिय विलाससलावुल्हावनिउणजुत्तोवयारकुसले हयजोही गयजोही रहजोही वाहुजोही बाहुप्पमद्दी अलंभोगसमत्थे साहस्सिए वियालयारी यावि भविस्सइ।सू.१७२। छाया-ततः खलु स दृढप्रतिज्ञो दारक उन्मुक्तवालभावो विज्ञातपरिणतमात्रो यौवनकमनुप्राप्तो द्वासप्ततिकलापण्डितो नवाङ्गसुप्तप्रतियो चकः अष्टादशसत्सम्मान करेंगे, फिर-विपुल प्रीतिदान जो कि-उनको जीवनभर के लिये जीविका का योग्य हो सकेगा-देंगे, यह सब कुछ करके, फिर वे उस कला चार्य को विसर्जित कर देगे, । टीकार्थ-पष्ट हैं ॥ सू० १७१ ॥ "तए णं से ददपइण्णे दारए-इत्यादि मूलार्थ - "तए णं से दढपइण्णे-" इसके बाद वह दृढप्रतिज्ञ कुमार जिसका "उमुक्कवालभावे विण्णायपरिणयमिते-" बालभाव व्यतीत हो चला है, और -विज्ञान जिसका शीघ्रता से परिपच अवस्था में पहुंच गया है. "जोव्वणगमणुपत्ते-"यौवनावस्थाशाली हुवा. “वायत्तरि कलापंडिए-णवंगसुत्तपडिवोहएअट्ठारसयिहदेसिप्पगारभासाविसारए-" ७२-कलाओं में विशेषरूपसे निष्णात हुवा. सुप्त अपने नवाङ्गों को दो कान-दो नेत्र-दो नासिकाछिद्र-एक जीभ સન્માનીત કરશે પછી તેમની જીવિકા માટે પર્યાપ્ત થાય તેટલું પ્રીતિદાન તેમને આપશે. આ બધું કરીને પછી તેઓ તેમને વિસર્જિત કરશે. ટીકાર્થ સ્પષ્ટ છે. સુ. ૧૭૧ "तए णं से दढपण्णे दारए" इत्यादि। भूदार्थ-तए णं से दवपणे" त्या२ पछी त प्रतिज्ञ भा२-३ मनु "उम्मुक्कवालभावे विण्णायपरिणयमित्ते' मा ५सा२ थ। आयु छ मने मनु विज्ञान मे४४म प२ि५४वा१२था सुधा पहाची आयु छ. "जोव्वणगमणुपत्ते" युवावस्था संपन्न थशे. “वावत्तरि कलापंडिए णवंगसुत्तपडिवोहए-अट्ठारसविहदेसिप्पगारभासाविसारए" ७२ ४सायमा विशेष३५थी नित थयेसो ते पाताना सुत નવાડીને-બે કાન, બે નેત્ર, બે નાસિકાછિદ્ર, એક જીભ, એક સ્પર્શન ઈન્દ્રિય, અને Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवे। घिनी टीका. १७२ मूर्याभदेवस्य आग मिभचवर्णनम् ४२१ विधदेशीप्रकारभाषाविशारदो गीतरतिः गान्धर्वनाट्यकुशलः शृङ्गारागार चारुवेपः संगतगतहसितभणितचेष्टितविलास संलापोल्लापनि पुगयुक्तोपचारकुशलो हययोधी रथयोधी । बाहुयोध बाहुप्रमर्दी अलंभोगसमर्थः साहस्रिको विकालचारी चापि भविष्यति । सू०१७२ एक स्पर्शन, एवं - एक मन - इनको व्यक्त- जागृत करता हुवा, अट्ठारह प्रकारकी भाषाओं में विशारद हुवा. "गीयरई -गंधव्वणट्टकुसले - सिंगारागार चारुवेसेसंगयगयहसियभणियचेद्दियविलास सं लावुल्लावनिउण जुत्तोबयारकुसले -" गीतएवं रति में अनुरागयुक्त हुवा, गान्धर्च गान में एवं नाटय क्रिया में पारङ्गत हुवा, तथा - शृङ्गारके गृह की तरह सुन्दर वेप से युक्त हुवा, समुचित गमनमें - समुचितहास में समुचित बोलने में बातचीत करने में समुचित चेष्टा में समुचित विकास में - नेत्र जनिन विकार में - समुचित संलाप में - एवं समुचित काकुभाषण में दक्ष हुवा, तथा - समुचित व्यवहारों में कुशल हुवा, तथा - "हय जोही गयजोही - रहजोही-बाहुजीही-बाहुप्पमद्दी - अलं भोगस मत्थे - साहसिए - वियालयारी यावि भविस्सs - " हययुद्ध करने में कुशल हुवा गजयुद्ध करने में कुशल हुवा, रथयोधी हुवा, बाहुप्रयोधी हुवा, बाहुप्रमद हुवा, बाहु से कठिन भी वस्तु को चूर-२ करने में समर्थ हुवा, भोग में समर्थ हुवा | अकेलाही सहस्र संख्यक भटों के साथ युद्ध करने में समर्थ हुवा, । अथवा - साहसिक - अधिक साहस से युक्त हुवा, मध्यरात्रि में भी विचरण करनेवाला होगा. । એકમત-વ્યકત જાગૃત કરતા અઢાર પ્રકારની દેશીય ભાષાઓમાં વિશારદ થશે. " गीयरई - गंधव्वणकुसले सिंगारागारचावेसे संग हसिय भणियचेट्टिय विलाससंलावुल्लावनिउणजुत्तोवयार कुस ले" गीत भने रतिमां अनुरागयुक्त थयेलेो, ગાંધગાનમાં અને નાટયક્રિયામાં પાર ગત થયેલા તેમજ શૃંગાર ગૃહની જેમ સુદર વેષથી સુસજ્જ થયેલા તે પ્રતિજ્ઞ સમુચિત ગમનમાં, સમુચિત હાલમાં સમુચિત એલવામાં વાતચીત કરવામાં, સમુચિત ચેષ્ટામાં, સમુચિત વિલાસમાં-નેત્રજનિતવિકારમાં, સમુચિત સલાપમાં અને સમુચિત કાકુ-ભાષણમાં પણ દક્ષ થઇ જશે. या प्रमाणे ते समुचित व्यवहारोभां दुशण थशे. तेभ४ " हयजोही-गयजोही-रहजोही - चाहुजोही बाहुप्पमदी - अलंभोग समत्थे - साहसिए विद्यालयारी याविभि स्सह" हुययुद्ध ४२वामां गल युद्ध अवामां दुशण थशे. ते स्थयोधी थशे, माहुयोधी થશે, માહુમી શે, ખાડુથી અતિ કઠોર વસ્તુને ચૂ` વિચૂર્ણ' કરવામાં સમથ થશે. ભાગમાં સમથ થશે. એકલા જ તે સહસ્ર સંખ્યક સટાની સાથે યુદ્ધ કરવામાં સમ” થશે. અથવા સાહસિક-અધિક સાહસયુક્ત થશે. આમ તે મધ્યરાત્રિમાં પણ વિચરણ કરનાર થશે. Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ... ... . . . . . 'राजप्रश्नीयसूत्रे टीका-"तए णं से' इत्यादि-ततः खलु सदृढप्रतिज्ञो नाम दारका उन्मुक्त'पालेभावः-व्यतिक्रान्तबाल्यावस्थो विज्ञातपरिणतमात्र:-विज्ञात"विज्ञान परिणतमात्रं-सद्या परिपक्व यस्य स तथा-परिपक्वविज्ञान इत्यर्थः, यौवनवम्- युवावग्याम् अनुप्राप्तः-अनुगतो। हासप्ततिकलापण्डित:- प्रवेक्तिवासप्ततिकलाऽभिज्ञो। नवाज सुप्तप्रतिबोधकः-द्वि-श्रोत्रे, द्वे. मैत्रे, द्वे, नासिके, एका जिह्वा एका त्वम् एक सनः' इत्येतेषां नवाना-नवसंख्यकानाम्-अङ्गानाम्-अवयावानां सुप्तानां माल्यादव्य ल.चेतनावचात् सुप्तसंदृशानां प्रतिबोधकः यौवनाऽऽगमेनः व्यक्तं चैतन्यं यस्य स, तथा स्व स्त्र विषयग्रहणसमर्थ नबाङ्गयुक्त इत्यर्थः, तथा-अष्टादशविध देशीप्रकारभाषाविशारदः अष्टादशविधायासू-अष्टादशभेदायों , देशीप्रकारायाँ-देशीरयरुपायां भापायां विशारदः-निष्णातः-अष्टादशभापाऽभिज्ञ इत्यर्थः, तथा-गीतरतिः गीते गाते रतिः अनुरागो यस्य स तथा गीतानुरागयुक्त, इन्यर्थः, तथा गान्धर्वनाटयकुशल:गान्धर्व-गन्धर्वस्येदं गा ,धर्व तस्मिन्-गाने, नाटथे नटकमणि च ; कुशल गान्धर्वविद्यायां च पारङ्गत इत्यर्थ , तथा-शृङ्गारागारचारुवेपः-शृङ्गारः-अलङ्कारादिकृता शोभा तस्य अगारमिव-गृहमिव चारुवेपः-रुचिरवेपो यस्य स तथा-सविच्छित्यलङ्कारालंकृतशरीर इत्यर्थः, तथा-संगतगतहसितभाणितचेष्टितविलाससंलापोल्लापनिपुणयुक्तोपचारकुशल-संग्रतेपु-तत्र गतं गमनं हसितं-हासः भणितम्-उक्तिः चेप्टित-चेष्टा, विलासः-नेत्रजन्यो विकारः, तदुक्तं-"विलासो नेत्रजो ज्ञेयः" इत, संलापः-परस्परमापाणम्, उक्तं च "संलापो. भापणं मिथः" इति, उल्लाप :काका भाषणम, उक्तं च–''उल्लापः काकुभापणम् इति, एतेषामितरेतरयोगन्द्रः , टीनार्थ-उसका स्पष्ट है. "नवाङ्गसुप्तप्रतिबोधक-" का मतलब ऐसा है कि बाल्यावस्था में जो-श्रोत्र-आदि अङ्ग अव्यक्त चेतनावाले होने से सुप्त जैसे रहते हैं, वेही-यौवन अवस्था में व्यक्त चेतनावाले हो जाने से जागृत जैसे हो जाते हैं। तात्पर्य कहने का यह है कि यौवनावस्था में अपने अपने विपूय को ग्रहण करने में ये समर्थ हो जाते हैं। "विलासो नेत्र जो ज्ञेयः-संलापो भाषण मिथ:-' इस कथन के अनुसार नेत्र विकार का नाम विलास, औरभाषण का नाम-संलाप है। "उल्लापःकाकुभापणम्" के अनुसार काकुभापण साथ-सा सूत्रन। अर्थ २५ट छ. "नवासुप्त पतिवोधकः" म मा છે કે બાળપણમાં શોત્ર (કાન) વગેરે અંગે સુસ જેવાં હોય છે તેજ યુવાવસ્થામાં જાગૃત જેવાં થઈ જાય છે. તાત્પર્ય આ છે કે યુવાવસ્થામાં એ અંગે તિપિતાના विषयने ५ ४२वामा समथ' ५४ लय छे. "विलासो नेत्रजो ज्ञेयः संलापो भाषणं मिथः" २ ४थन मु नेत्र वार नाम विलास भने साषाणु नाम समजाय छ. "उल्लापः काकुभापणम्” भु४५ लाभ सारगर्मित व्या वयनाने हे Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवेोधिनी टीका १७? भिदेवस्य आगामिभवणनम् ४२३ तेपु. निपुणः-दक्षः, तथा-युक्त पचारकुशल:-युक्तेपु-समुचितेप. उपचारेषु-व्यवहारेषु कुशलः-चतुरः, पद य य कर्मधारयः, तथा-हययोधी- हयेन युध्यते, इत्येवंशील:हययुद्धकलाकुशल इत्यर्थः, एवं गजयोधी-स्थयोधी बाहुयोधी-इतिपदत्रयमुन्नेयम्, तथा-बाहुप्रमर्दी बाहुभ्यां प्रमर्दतीत्येवंशील:-बाबाघातेन कठिनायापि वस्तुन ऋणीकरणशील इत्यर्थः, तथा-अजम्बोगसमर्थ:-अत्यर्थ भोगानुभवसमर्थ :. साहनिकः-सहस्रेण युध्यते इति-सहस्रसंख्यकमटैः सह एकाकये व युद्धकर्ता, 'साहसिकः इतिच्छायापक्षेतु, अतिसाहसयुक्तः, तथा-विकालचारी-विकालेऽपि मध्यरात्रेऽपि चरती लेचं शीलः अनिसाहसकवाद् मध्यरात्रेऽपि विचरणशीलश्चापि भविष्यतीति ।सू०१७२। - म्लम्-तए णं तं दढपइगं दारगं अम्मारियरो उम्मुक्कबालभाव जाब वियालयारिं च वियाणित्ता विउलेहिं अन्नभोगेहिब पाणभोगेहि य लयणभोगेहि य बत्थंभोगेहि य सयणभोगेहि य उवनिमंतिहिति। ॥ सू०१७३ ॥ छाश-ततः खलु तं दृढप्रतिज्ञा दारकम अम्बापितरौ उन्मुक्तबालभावं यावद् विकालचारिणं च विज्ञाय, विपुलैः अन्नभोगैश्च पानभोगश्च लयनभोगैश्च वस्त्रभोगैश्व शयन नोगैश्च उपनिमन्त्रयिष्यतः । ॥ सू० १७३ । । सजागर्भित व्यङ्गवचन को कहते हैं, या बच्चों के द्वार का-का, क-कु आदि तोतली बली को भी काक. भाषण कहते हैं । जामु० १७२ ॥ "तए णं दढपइण्णं दारगं-" इत्यादि-14 . .. मूलार्थ - "तए णं-" इसके बाद "तं दढपणं दारगं- उस दृद प्रतिज्ञ दारक को अम्मापियरो-" मातापिता “उम्मुक्कबालभावं जाव वियालचारिं च विथाणित्ता-" उन्मुक्तबालभाववाला यावत्-विकालचारी जानकर-"विउलेहिं अनभोगेहिंय-पाणभोगेहिं-" विपुल अन्न भोगों से विपुल पानभोगों से"लयणभोगेहिं य वत्थभोगेहिय सयणभोगेहिय उवनिमंतिहिति-" विपुल लयनછે. અથવા બાળકે વડે કાકા-કુ કે વગેરે જે તેતડી બલીને પણ કાકુ ભાષણ ४ छ. सू. ॥ १७२ । ' ___ "तए णं दढपइण्णं दारगं" इत्यादि । __ भूदार्थ-"तए णं" पा२ पछी "तं ढपइण्णं दारगं" ते प्रतिज्ञ हा२४ने. "अम्मापियरो” माता पिता 'उम्मुक्कवालभावं जाक वियालयारिं च वियाणित्ता" उन्भुत ॥ HIqयुत यावत् १५३यारी arela 'विइलेहिं अन्नभोगेहिं य पाणभोगेहिं' Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ राप्रश्नीयमत्रे टीका-"तए णं" इत्यादि-ततः खलु तं दृढप्रतिज्ञं दारकं अम्बा-पितरौ-मातापितरौ उन्मुक्तबालभावं-व्यतिक्रान्तबाल्यावस्थं यावत्-यावत्पदेन 'विज्ञातपरिणतभात्र यौवनकमनुप्राप्तं द्वासप्ततिकलापण्डितं-नवाङ्गसुप्तप्रतिबोधक म् अष्टादशविधदेशीप्रकारभापाविशारद' गीतरतिं गान्धर्वनाटयकुशल शृङ्गारागारचारुवेप सङ्गतगतहसितभणितचेष्टितविलाससंलापोल्लापनिपुणयुक्तोपचारकुशल हययोधिनं गजयोधिनं रथयोधिनं बाहुयोधिनं बाहुप्रमर्दिनम् अलम्भोगसमर्थ साहसिकम्' इत्येतानि पदानि संग्राह्याणि, तथा विकाल वारिणं च विज्ञाय विपुलैः-प्रचुरैः अन्नभोगैः-अन्नरूपभोग्यपदार्थ : पानभोगैः-पेयरूपभोगपदाथै, लयनभोगे:-प्रासादरूपभोग्य पदार्थः, वस्त्रभोगैः-वसनरूपभोग्यपदाथैः शयनभोगेः-श बनरूपभोग्पपदार्थं श्च उपनिमन्त्रयिष्यत इति । दृढप्रतिज्ञ दारकं यौवनोन्मुख दृष्ट्वा तन्मातापितरौ अन्नादिभोगानुभोक्तुंप्रेरयिष्यत इति सूत्राशय इति । ॥सू० १७३।। तनुभोगों से विपुलवस्त्ररूप भोग्य पदार्थों से उपनिमन्त्रित करेंगे । अर्थात् उसे अब अन्नादि भोग्य विषय के लिये स्वतन्त्रता देंगे। टीनार्थ-रपष्ट हैं, "उम्मुक्कवाभाव जाव-" में जो यह यावत पद आया है, उससे-"विज्ञातपरिणतमात्रं, यौवनकमनुप्राप्तम, द्वादश प्रतिफला पण्डितम, नवाङ्गसुप्तप्रवियोधकम, अष्टादशविधदेशी प्रकार भाषाविशारद गीतरति, गन्धर्वनाटय कुशलम्. शृङ्गारागारचारवेष, संगतगतहसितभणितचेष्टितविलाससंलापो-लाप निपुण युक्तोपचार कुशलं, हययोधिनम्, गजयोयिनम् रथयोधिन, वाहुयोधिन, बाहुप्रमार्दिनम् अलंभोगसमर्थम् , साहसिकम् साहसिकम, इन् पीछे के पाठों का ग्रहण हुवा है. ॥ सूं० १७३॥ विधुद मन्न लोगोथी, विYeो पान लोगोथी 'लयणभोगेहि य वत्थभोगेहिं य सयणभोगेहिं य उवनिमंतिहिति' विधुत सयन तनुमागीथी, विge १५३५ सोय પદાર્થોથી ઉપનિમંત્રિત કરશે એટલે કે તેને અન્ન વગેરે ભેગ્ય વિષયક પદાર્થોને सागवानी.ट मापशे. ____ ---२५५ छ. 'उम्मुकाबालभावं जाव' भ यावत् ५४ मा छ तेथी "विज्ञातपरिणतमात्र, यौवनकमनुप्राप्तम्, द्वादशप्रतिकलापंडितम् नवाङ्गसुप्तप्रतिवोधकम् , मष्टशविध हे प्रा२ मा विशा२४, जातति, गन्ध नाट्य કલમ શુંગારાગાર ચાવેષ, સંગતગતહસિત ભણિત ચેષ્ટિત વિલાસ સંલ્લાલાપ નિપુણ યુકત પચારકુશલ, હયાધિનમ, ગધિનમ, રથાધિનમ, બાધિનમ: બાહપ્રમાર્દિનમ, અલગ સમર્થમૂ, સાહસિકમૂ, સાહસિકમ્ આ પાછળનું ગ્રહણ થયું છે. ૧૭3 | Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सु. १७४ सूर्याभदेवस्य आगामिभववर्णनम् ४२५ मूलम्-तए णं दृढपइण्णे दारए तेहिं विउलेहिं अन्नभोएहि जाव सयणभोएहिं णो सजिहिइ णो गिज्झिहिइ णो मुच्छिहिइ णो अझोवजिहिइ । से जहा णामए पउमुप्पलेइ वा पउमेइ वा जाव सयसहस्तपत्तेइ वा पंके जाए जले संवुड्ढे गोलिप्पइ पंकरएणं, णोवलिप्पइ जलरएणं, एवासेव दपइण्णे वि दारए कामेहिं जाए भोगेहि संवुड्ढे णोवलिप्पिहिइ कामरएणं, णोवलिप्पिहिइ भोगरएणं, णोवलिप्पिहिइ मित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरिजणेणं । से णं तहारूवाणं थेराणं अंतिए केवलं बोहिं बुझिहिइ, मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगोरियं पव्वइस्लइ । से णं अणगारे भविस्सइ-ईरियो समिए जाव सुहबहुयासणो इव तेयसो जलंते । तस्स णं भगवओ अणुत्तरेणं णाणेणं, एवं दंसणेणं चरित्तेणं आलएणं विहारेणं अज्जवेणं महवेणं लाघदेणं खतीए गुत्तीए अणुत्तरेणं सव्वसंजमसुचरिय तवफलणिव्वाणमग्गेणं अप्पाणं भावमाणस्स अणंते अणुत्तरे कसिणे पडिपुण्णे निरावरणे णिव्वाघाए, केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्जिहिए। तए णं से भगवं अरहा जिणे केवली भविस्सइ, सदेवमणुयासुरस्त लोगस्स परियायं जाणिहिइ, तं जहा-आगई गई ठिइ चवणं उववायं तक कड मणोमाणसियं खइयं भुत्तं पडिसेविय आवीकम्स रहोकम्म अरहा अरहस्सभागी तं तं कालं मणवयकायजोगे वट्टमाणाणं सव्वलोए सव्वजीवाणं सव्वभावे जाणमाणे पासमाणे विहरिस्सइ । ॥ सू० १७४ ॥ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ राजप्रश्नीयमूत्रे छाया-ततः खलु स दृढप्रतिज्ञो दारक स्तेपु विपुलेषु अन्नभोगेपु यावच्छयनभोगेपु नो सङक्ष्यति, नो गर्विष्यति, ना मूच्छिष्यति, नो अध्युपपत्स्यते । तद्यथानाम-पद्मोत्पलभिति वा पद्ममिति वा यावत् शतसहस्रपत्रमिति वा पङ्क जातं जले वृद्ध नापलिप्यते पङ्करजसा, नापलिप्यते जलरजसा, एवमेव दृढ प्रतिज्ञोऽपि दारकः कामैर्जातो भोगैः संवद्धितो नोपलेप्स्यते कामरजसा, नों पलेप्स्यते भोगरजसा, नोपलेप्स्यते प्रियज्ञातिनिजक वजनसम्बन्धिपरिजनेन । "तए णं दढपइण्णे दारए-" इत्यादि मूलार्थ-'तए णं' उसके बाद- 'दढपइण्णे दारए तेहिं विउलेहिं अन्नभोगेहिं जाव सयणभोगेहि-" वह दढप्रतिज्ञ दारक उन विपुल अन्नरूप भोग्य पदार्थो में यावत्-शयनरूप भोग्य पदार्थों में-"णो सज्जिहिइ, णो गिझिहिइ, णो मुच्छिहिइ, णो अज्झोक्वज्जिहिइ-"आसक्ति नहीं करेगा, गृद्विभावको प्राप्त नहीं होगा, मूर्छाभाव को प्राप्त नहीं होगा, उनमें-एक मनवाला नहीं बनेगा। "से जहाणामए पउमुप्पलेइ वा, पउमेइ वा, जाब सयसहस्सपत्तेइ वा पंके जाए जले सबुद्ध णोवलिप्पइ पंकरयेणं णोवलिप्पइ जलरएणं-" जैसे-पद्म, अथवाउत्पल, यावत्-शत सहस्रपत्रोंवाला कमल पङ्क में पैदा होता है, जल में बढता है, परन्तु-वह कीचड से जरा भी अंश में लिप्त नहीं होता है, पानीसे लिप्त नहीं होता है, "एवामेव दढपइण्णे वि दारए कामेहिं जाए भोगेहिं संवुडू, णो. बलिप्पिहिइ-कामर एणं, णोवलिप्पिहिइ भोगरएणं, णोवलिप्पिहिइ मित्तणाइ णियगसयणसंबंधिपरिजणेणं-" इसी . तरह से वह दढप्रतिज्ञ दारक भी काम "तए ण दढपइण्णे दारए" इत्यादि । भूदाथ-'तए णं' ५ "दढपइण्णे दारए ते हिं विउलेहिं अन्नभोगेहिं जाव सयणभोगेहि" ते प्रतिज्ञ २४ ते विस मन्न३५ लाग्य पहाथों मां यावत् शय न३५ लाय पोंभा "णो सज्जिहिइ, णो गिझिहिड्, णो मुच्छिहिइ, णो अज्झोववन्जिहिई" मासहित मतावरी नहि, गृद्धमा प्राप्त ४२री नडि, भूमा प्राप्त ४२ ना, तेमा तीन थरी नहि. -'से जहाणामए पउमुप्पलेइवा, पउभेइवा जाव सघसहस्सपत्तेड्वा पंके जाए जले संवुड्ढे णोवलिप्पइ पंकर येणं णोवलिप्पड़ जलरएणं" भ प S५८, यावत् शत सश्नपत्र ४ ५ (४१)मा उत्पन्न હોય છે, પાણીમાં વૃદ્ધિ પ્રાપ્ત કરે છે, પણ તે સહેજ પણ કાદવથી Lab थतु नथी. "एवामेव दढपइण्णे वि दारए कामेहिं जाए भोगेहिं संखुड्डे, णावलिप्पहिइ कामरएणं, णावलिप्पिहिइ भोगरएण गावलिप्पिहिइ, मित्त णाइ-णियगसपणसंबंधिपरिजणेणं' मा प्रमाणे ते ४४प्रतिज्ञ हा२४५५४ मया Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका स, १७४ सूर्याभदेवस्य आगामिभववर्णनम् . ४२७ स खलु तथारूपाणां स्थविराणाम् अन्तिके केवलां वोधि भत्स्यते, मुण्डो भूत्वा आगारात् अगारितां प्रजिष्यति । स खलु अनगारो भविष्यति ईया मितों यावत् सुहुतहुताशन इव तेजमा ज्वलन् । त.य खलु भगवतोऽनुत्तरेण ज्ञानेन, एवं दर्शनेन चरित्रण आलयेन विहारेण. आर्जवेन मार्दवेन लाधवेन क्षन्त्या गुप्त्या मुक्त्या अनुत्तरेण सर्व संयमसुचरिततपः फल निर्वाणमार्गेण आत्मानं भावसे उत्पन्न होगा-भोगों से वर्धित होगा, फिर भी वह काम से लिप्त नहीं होगा, भोगों से लिप्त नहीं होगा, मित्र-ज्ञाति-निजक-सम्बन्धि जन, और-परिजनों में लिप्त नहीं होगा. । “से णं तहाख्वाणं थेराणं अंतिए केवल घोहिं वृज्झिहिइ मुंडे भवित्ता अगा"ओ अणगारियं पव्वइस्सइ-" वह तो केवल तथारूपवाले स्थविरों के पास केवल बोधि का प्राप्त होगा "सेणं अणगारे भविस्सई ईरियासमिए जाव सुहय हुयासणो इव तेयसा जलते-" इस अगारावस्था में वह ईर्यासमिति आदि पांच समिति का पालन करेगा, यावत् अच्छी तरह जलती हुवी अग्नि की तरह वह अपने तेज से चमकेगा "तस्स णं भगवओ अणुत्तणं णाणणं एवं दसणेणं चरितणं आलएण विहारेण अज्जवेणं मदवेणं लायवेणं खंतीए गुत्तीए मुत्तीए अणुत्तरेणं सव्वसंजम सुचरियतवफलणिब्वाणामग्गेण अप्पागं भावमाणस्स-" अनुत्तरज्ञान से-अनुत्तरदर्शन से-अनुत्तरचारित्र से-अप्रतिवद्ध विहार से-आजवसे-मार्दव से-लाधव से-क्षमा से गुप्ति से-त्यागसेअनुत्तर सर्व संयम से सुचरित्र से-तप से फल से एवं निर्वाण मार्ग से आत्मा को ઉત્પન્ન થશે, ભેગથી વિદ્વત થશે, છતાં એ કામથી લિપ્ત થશે નહિ, ભેગથી લિપ્ત થશે નહિ, મિત્ર જ્ઞાતિ, નિજક સંબંધિજન અને પરિજનોમાં લિપ્ત થશે નહિ” "से ण तहाख्वाणं थेराणं अंतिए-केवल बोहिं बुझिहिइ-मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइस्लाइ" ते त त तथा३५ स्थाविशनी पासे क्स मोधिने પ્રાપ્ત કરશે. મુંડિત થશે એટલે કે અગારાવસ્થામાંથી અનગારાવસ્થા પ્રાપ્ત કરશે. से ण अणगारे भविस्सइ ईरिया समिए जाच सुहुयद्यासणा इव तेयसा जलंते" આ અણગારાવસ્થામાં તે ઈસમિતિ વગેરે પાંચ સમિતિનું પાલન કરશે. યાવતુ सारी शत प्रचलित माननी म ते चोताना तथा यमशे, "तस्स णं भगव ओ-अणुत्तरेणं णाणेणं एवं दंसणे" चरित्तेणं आलएणं विहारेणं अज्जवेणं मदवेणं लाघवेण खंतीए गुत्तीए मुत्तीए अणुत्तरेण सव्वसंजमसुचरिय तव फल णिबाणभग्गेण अप्पाण भावेमाणस्स" मनुत्तर ज्ञानथी, मनुत्तर शनी, मनुत्तर ચારિત્રથી, અપ્રતિબદ્ધ વિહારથી, આર્જવથી, માર્દવથી, લાઘવથી, ક્ષમાથી, ગુપ્તિથી ત્યાગથી, અનુત્તર સર્વ સંયમથી, સુચરિત્રથી, તપથી, ફળથી, અને નિર્માણ માર્ગથી Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपश्नीयसूत्रे ४२८ यमानस्य अनन्तम् अनुत्तरं कृत्स्नं प्रतिपूर्ण निरावरणं निर्व्याघात केवलवरज्ञानदर्शनं समुत्पत्स्यते । ततः खलु स भगवान अर्हन जिनः केवली भविष्यति, सदेवमनुजा-सुरस्य लोकस्य पर्यायं ज्ञास्यति, तद्यथा- आगतिं गतिं स्थिति च्यवनम् उपपात तर्फ कृतं मनोमानसिक खादित भुक्तं प्रतिसेवितम् आविष्कर्म रहःकर्म अरहा अरहस्य भागी तस्मिंस्तस्मिन् काले मनोवाक्काययोगे वर्तमानानां लोके सर्वजीवानां सर्वभावान् जानन् पश्यन् विहरिष्यति । ॥ ० १७४ | अणुत्तरे कसि पडिपुण . भावित करते हुवे उस भगवान् दृढकुमार के - " अगं निरावरणे णिव्वाघाए केवलवर नागदं सोन समुप्यज्जिहि- अनन्त-अनुत्तर-कृत्स्नप्रतिपूर्ण निरावरण- निर्व्याघात ऐसे केवल ज्ञान, और केवलदर्शन उत्पन्न होंगे- 'नए णं से भगवं अरहा जिणे केवली भविस्म " तब ये दृढकुमार भगवान् अर्हन्त जिन केवली हो जायेंगे | "सदेवमाणुयासुररस लोगस्स परियायं जाणिहिद, तं जहा आगई, गई, ठिइ चवणं, उववायं, तर्क, कडं मणामाणसियं खाइयं-भुत्तं पडि सेवियं-" मनुज देव - असुर सहित लोक की पर्याय को जान लेंगे, जैसे- आगतिक कागति को स्थिति को च्यवन के उपपानको तर्क को कुतको मनोमा सिक को-खादित को भुक्त को प्रति सेवित का प्रत्यक्ष में कृत को एकान्त में कुन को, इस तरह से मनुज, देव, असुर सहित लोक की पर्याय को वे जानेंगे. । "अरहा अहस्स भागी तं तं कालं मणवयणकायजोगे वट्टमाणाणं सव्वलोए सव्वजीवाणं सव्वभावे जाणमाणे पासमाणे विहरिस्मड़- " इस तरह वे अनगा कि जिन का अप्रत्यक्ष कोई भी वस्तु नहीं रहेगी सावद्याचार से आत्माने लावित रतां ते भगवान् दृढछुभारने "अण ते अणुत्तरे व सिणे पडिपुणे निरावरणे णिव्वाधाए केवलवर नाणदंसणे समुपज्जिहिड़" अनंत अनुत्तर કૃત્સ્ન પ્રતિપૂર્ણ નિરાવરણુ નિર્વ્યાધાત એવાં કેવળજ્ઞાન અને કેવળજીન ઉત્પન્ન થશે. "तए ' से भगवं अम्हा जिणे केवली भविरस" त्यारे ते दृढड्डुभार लगवान अर्हत निन डेवली यह नशे. देवमणुया सुरस्त लोगस्स परियायं जाणिहिड् तं जहा आगई गई, ठि, चरण, उववायें, तक्कं कर्ड, मणे । मणसियं खाइयं भुत्तं एडिसेवियं" भडेल, हेव, असुर सहित दोउनी पर्यायने लगी बेथे, भेटले मांगतिने, गतिने, स्थितिने, व्यवनने, उपयातने, तने, इतने, भनाभानसिकने माहितने, लुम्तने, प्रतिसेवितने प्रत्यक्षमां तने, अन्तङ्कृतने, आम ते भनु देव, असुर सहित बोउनी पर्यायने लगुशे. "अरहा अरहरस भागी तं तं काल भणचण कायजोंगे बट्टमाणाणं सव्वलोए सव्वजीवाणं सदभावे जाणमाणे पासमाणे विहरिस्स" या प्रमांगे ते अनगार मंना भाटे प्रत्यक्ष खेवी Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका स. १७४ सूर्यासदेवस्व आगामिभववर्णनम् ४२९ टीका तए णं से" इत्यादि - ततः खलु स दृढप्रतिज्ञो दारकः तेषु पूर्वोक्तेषु विपुपु- प्रचुरेषु अन्नभोगेषु 'यावत्' - यावत्पदेन- पानभोगेषु लयनमोगेषु वस्त्रभोगेप इति सङ्गृह्यते, तथा शयनभोगेषु च नो सङ्घयति आसक्ति न करिष्यति नो गर्धिष्यति-गृद्धिमान् न मविष्यति, नोमूच्छिष्यति मूर्च्छाभावं नो करिष्यति नাअभ्युपपत्स्यते - तदेकमना नो भविष्यति । अमुमेवार्थ स दृष्टान् माह - " से जहा णाम" इत्यादि - यथा येन प्रकारेण उत्पलं लोकप्रसिद्धं 'नामक' इति वाक्शलङ्कारे, पद्मोत्पलमिति वा, पद्ममिति वा 'शवत्' - यावत्पदेन - ' कुसुममिति वा नलिनमिति वा सुभगमिति वा सुगन्धमिति वा पुण्डरीकमिति वा महापुण्डरीकमिति वा शतपत्रमिति वा सहस्रपत्रमिति वा' इति सङ्गृह्यते, तथा श सहरत्रमिति वा - अत्र इतिशब्दः स्वरूपनिर्देशे, वा शाब्दो विकल्पे, पड्डे - कर्दमे जातं - वर्जित होने के कारण सुस्पष्ट सकल आचारवाले होते हुवे उस उस काल में मन-वचन-काय योग में वर्तमान इस लोक के समस्त जीवों के समम्त भावों का जानते हुवे, और देखते हुवे भ्रमण्डल में बिहार करेंगे । टीकार्थ स्पष्ट है, परन्तु इस में जो विशेषता है, वह इस प्रकार से है - वे दृढप्रतिज्ञदारक उन पूर्वोक्त विपुल अन्नभोगों में यान्त - पानभोगों में, तथा-लयनयोगों में वस्त्रभोगों में आसक्ति नहीं करेंगे. गृद्धियुक्त नहीं बनेंगे, सूच्छभाव को नहीं धारण करेंगे, और न उन में तल्लीन मन चाले होंगे, इस बात को दृष्टान्त द्वारा यों समझाया गया है जैसे- पद्मोत्पल अथवा-पद्म, यावत्- कुसुम, अथवा नलिन या सुभग, यां-सुगन्ध, या- पुण्डरीक, था - महापुण्डरीक, या शतपत्र, या सहस्रपत्र, ये सब कमलजाति के भेदरूप कमल 1 વસ્તુ ખાકી રહેશે નહિં સાવદ્યાચારથી ર્જિત હાવા બદલ સુસ્પષ્ટ સકલ આચારાળા થઇને તે તે કાલમાં મનવચન, કાય, ચેાગમાં વર્તમાન આ લેાકના સમસ્ત જીવેને સમસ્ત ભાવાને જાણતાં અને જોતાં ભૂમડલમાં વિહાર કરશે. टीअर्थ: स्पष्ट छे. चाशु यामां ? विशेषता छे ते याप्रमाणे छे. ते दृढप्रतिज्ञ દારક તે વિપુલ અન્નèાગામાં યાવત પાનભોગામાં, લયભોગામાં, વજ્રભોગામાં તેમજ શયનભોગામાં આસક્ત થશે નહિ, નૃદ્ધિયુકત ખનશો નહિ, મૂર્છાભાવયુકત થશો નહિ અને તેમાં તલ્લીન પણ થશ નહિ. એજ વાતને દૃષ્ટાંત વડે આ પ્રમાણે સમજાવવામાં આવી છે કે જેમ પદ્મોત્પલ અથવા પદ્મ યાવત્ કુસુમ; અથવા નલિન કે सुभग, है सुगंध, ङेयुडरी, है महायुडरी, शतपत्र, सहस्रपत्र था. धा કમલ જાતિના કુમળા કમ (કાદવ)માં ઉત્પન્ન હાય છે; પાણીમાં વૃદ્ધિ પામે છે, Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीयसूत्र समुत्पन्न, जले संदृद्धं-वृद्धिं गतमपि नोपलिप्यते-ने पलिप्तं भवति, पङ्करजसा, नोपलिप्यते जलरजसा, इत्थ दृष्टान्तमुक्त्वा दार्टान्तिकमाह-'एवमेव' इत्यादि । एवमेव-अनेन प्रकारेणैव दृढप्रतिज्ञोऽपि दारकः कामः जाताऽपि भोगः संवृहो वृद्धि गतोऽपि कामरजसा नायलेप्स्यते-उपलिप्तो न भविष्यनि, भोगरजसा नोपलेप्स्यते-उ लिप्तो न भविष्यति, तथा मित्रज्ञातिनिजकस्वजनसम्बन्धि परिजनेन-तत्र मित्राणि-सुहृदः, ज्ञातयः माता-पिता भ्राबाद: निजकाः स्वकीयाः पुत्रादयः, स्वजना:-पितृव्यादयः सम्बन्धित:-स्वश्वशुरपुत्राश्वशुरादयः, परिजनगःदासीदामादयः एतेपां समाहारस्तेन सह नायलेपयते-उपलिप्ता नो भविष्यति । अपितु स खलु दृढलि ज्ञः अनगारा भविष्य नि, कीदृशोऽनगारो भविष्यति? 'ईरिया पमिए इत्यादि । ईर्ष्यासमिन ईसिमि ने युक्तः, 'यावत् यावत्पदेन-भासाममिए एपणा पमिए आयाणभंडमत्तनिक्खेवणाममिए उच्चारपासवणखेलसिंचाणजल्लपरिटायणि राममिए मणगुत्ते वयगुत्ते कारगुत्ते गुत्ते गुतिदिए गुत्तव भयारी अममे अकिंचणे छिण्णगधे यद्यपि-कीचड से उत्पन्न होते हैं, जल में वृद्धिपाते हैं, परन्तु फिर भी कीचड रज से लिप्त नहीं होते हैं। जलरज मे सम्बन्धित नहीं होते हैं, इसी प्रकार सेदृढप्रतिज्ञ भी दारक काम से उत्पन्न हुवा है भोगों से संवर्धित हुवा है, फिर भी वह काम ज से उपलिप्त नहीं बनेगा, मित्रजनों से ज्ञाति जनों से माना पिता, भ्राना आदि या से निजजनों से पुत्रादिकों से स्वजनों से पितृव्यादि कों से सम्बन्धित जनों से श्वशुर पुत्रग्वशुर आदि से, एवं परिजनों से दासीदास आदि कों से सम्बद्ध नहीं होगा. । किन्तु वह दृढप्रतिज्ञ अनगार होगा. । ईसमिति का पालन करेगा, यावत् भापा समिति का एपणा समिति का, आदानभाण्डमात्र निक्षेपणसमिति का उच्चारमस्रवण खेल सिंधाण जल्ल परिष्ठापनिका समिति का पालन करेगा, मनोगुप्ति का वचन गुप्ति का कायगुप्तिका पालन करेगा यहां ऐसा समझना चाहिये । हित मितप्रिय वचन बोलना इसका नाम भापासमिति है। इस પણ છતાં એ કાદવથી લિપ્ત થતાં નથી. આમ તે દઢપ્રતિજ્ઞ દારક પણ કામથી ઉત્પન થશે ભોગોથી સંવદ્વિત થશે છતાં તે કામરજથી ઉપલિપ્ત નહિ થશે, મિત્રજનોથી પુત્રાદિકથી સ્વજનોથી પિતૃભ્યાદિકથી સંબંધીજનેથી શ્વશુર, પુત્રશુર વગેરેથી અને પરિજનથી, દાસીદાસ વગેરેથી સમ્બદ્ધ થશે નહિ, પણ તે દઢપ્રતિજ્ઞ અનગાર થશે. ઇસમિતિનું પાલન કરશે, યાવત ભાષા સમિતિનું, એષણ સમિતિનું, આદાન લાડમાત્ર નિક્ષેપણુસમિતિનું ઉચ્ચાર પ્રસવણ-ખેલ, સિંધાણુ જલ-પરિસ્થાનિકા સમિતિનું પાલન કરશે. મને ગુપ્તિનું, વચેપ્તિનું, કાયગુપ્તિનું પાલન કરશે. આમ અહીં સમજવું જોઈએ, હિત–મિત પ્રિયવચન બોલવું તેનું નામ “ભાષા સમિતિ છે. Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सू. १७४ सूर्याभदेव य आगामिभववर्णनम् छिण्णसेए निरुवलेवे कंसपःईव मुक्कतोए संखे इव निरंजणे जीवे विव अप्पडिहयगई जच्चाणविव जायरूवे आदरिसफलग इव पगडभावे कुम्मे इब गुतिदिए, पुक्खरपत्तं व निरुवलेवे, गगणमिव णिरालंबणे, अणिलो इव निरालए, चंदोइव सोमलेसे, सूरो इव दित्ततेए, सागरो इब गंभीरे, विहग इव र व्यआ विष्पमुक्क, मंदरो इव अप्पकंपे, सारयलिलं इन सुहियए, खग्गिविसाग इव एगजाए, भारंडपक्वीव अप्पमत्ते, कुंजरो इव सोंडीरो, वसभो इव जायत्थामे, सीहो इव दुद्धरिसे, वसुन्धरा इव सव्वफासविसहे' इति संग्राह्यम् । एतच्छाया च-भाषासमित एपणासमित . आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणासमितः उच्चारप्रस्त्रवणखेलशिवाणजल्लपरिष्ठापनिकासमितो मनोगुप्तो वचोगुप्तः कायगुप्तो गुप्तो गुप्तेन्द्रियो गुप्तब्रह्मचारी अममः अकिञ्चनः, छिन्नग्रन्थः, छिन्नस्रोताः, निरुपलेपः, कांस्यपात्रीव मुक्ततोयः, शङ्ख इव निरञ्जनः, जीव इव अप्रतिहतगतिः, जात्रकनकमिव जातरूपः, आदर्शफलक उच प्रकटभावः, कूर्म इव गुप्तेन्द्रियः पुष्कर पत्रमिव निरुपलेपः गगनमिव निरालम्बनः अनिल इव निरालयः. चन्द्र डच सोमलेश्यः, सूर इव दीप्ततेजाः, सागर इन गम्भीरः, विहग इव सर्वतो विप्रमुक्तः, मन्दर इव अप्रकम्पः शारदसलिलमिव शुद्ध हृदय:, खजिविषाणमिव एकजातः, भारण्डपक्षीव अप्रमत्तः, कुञ्जर इव शोप्डीरः, वृपभ इच जातस्थामा, सिंह इच दुर्द्धषः, वसुन्धरेव स्पर्शविपहः-इति । तत्र भाषासमित -भाषासमितियुक्तः, एपणाममितः-एपणायां-भक्तायेपणायाम् उद्गमादिदोषवर्जनपूर्वक समितः-समिति युक्तः, विशुद्राहारादिग्रहणान्वेषणोपयोगयुक्त इत्यर्थः । तथा आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणासमितः-आदाने ग्रहणे-अस्य भाण्डामात्रयोरित्यनेन सम्बन्धः, प्रत्यासत्तिन्यायात् साहचर्यात देहली दीपन्यायाद् वा, भाण्डस्य-पात्रस्य मात्रस्य-वस्त्रायुपकरणस्य च निक्षेपणायाम्-अवस्थापने समितः-प्रतिलेखनप्रमार्जनपूर्वकं प्रवृत्तिसमिति से युक्त होना इसका नाम भाषासमिति युक्त है,। भक आदि की एषणा में उद्गमादि दोषवर्जनपूर्वक जा समित हे न. इमका नाम एपणासमिति है, अर्थात् विशुद्ध आहार आदि का ग्रहण करने और अन्वेषण करने में उपयोगयुक्त होना, उसका नाम-एपणासमित है। भाण्ड-पात्र मात्र वस्त्रादि उपकरण का निक्षेपण रखने में एवं-अवस्थापन में समित होना. इसका ભકત વગેરેની એષણામાં ઉદ્ગમાદિ દોષવનપૂર્વક સમિત થશે, તેનું નામ એષણ સમિતિ છે. એટલે કે વિશુદ્ધ આહાર વગેરે ગ્રહણ કરવા અને અન્વેષણ કરવામાં ઉપગ યુક્ત થવું તેનું નામ એષણ સમિતિ છે. ભાંડ-પાત્ર માત્ર-વસ્ત્રાદિ ઉપકરણના નિક્ષેપણમાં અને અવસ્થાનમાં સમિતિયુક્ત થવું તેનું નામ આદાનભાંડમાત્ર નિક્ષેપણ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ राजप्रश्नीयस्त्र युक्त इत् र्थः, तथा उच्चारप्रस्त्रवणखेलशिवाणजल्लपरिष्ठापनिकाममिन:-तत्र उच्चारः-पुरीप, प्रस्त्रवणं-मूत्र, खेल:-लेष्मा-उपलक्षणत्वान्निष्ठीवनस्यापि थूकइति भाषाप्रसिद्धस्यापि ग्रहणम् शिवाणं नासिकामलं, जल्ल:-वेदजमलम, एतेषां परिष्ठापनिका, परिष्ठापना-परित्यागः, सैव परिठापनिका, तस्या समितः-सम : गुपयुक्तः, तथा-मनोगुप्तः-मनोगुिप्तस्विधा-तत्र आतरौद्रध्यानानुवन्धि कल्पनाजालवियोगम्पा प्रथमा १, शास्त्रानुसारिणी परलोकसाधिका धर्मध्यानानुवन्धिनी माध्यस्थ्यपरिणतिद्वितीया २, मनोवृत्तिनिरोधन योगनिरोधावस्थाभाविनी आत्मरमणरूपा तृतीग ३, तदुक्त योगशास्त्रे "विमुक्तकल्पनाजालं समत्वे सुप्रतिष्ठितम् । आत्मारामं मनस्तज्ज्ञै मनेागुप्तिरुदाहृता ।१।" इति ।। नाम-आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणासमिति है, अर्थात्-प्रतिलेखन, प्रमार्जनपूर्वक प्रवृत्ति से युक्त होना. इसका नाम आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणा समिति है। उच्चार नाम-पुरिपका है, प्रस्रवण नाम-मूत्र का हैं, खेल नाम लेप्मा का है; उपलक्षण से थूक का मी यहाँ ग्रहण किया गया है. । शिवागनाम से यहां नासिका का मल गृहीत होता है, (नासामलं तु सिंधाणं इति अमरः)। स्वेदज मेल का नाम-जल्ल है. इनकी परिष्ठापनिका में त्यागमें समित होना, उसका नाम-उच्चारप्रस्रवणखेलशिवाणजल्लपरिप्ठापनसमिति है । मनोगुप्ति-तीन प्रकार की हैं, इनमें-आत रौद्र ध्यानानुवन्धी कल्पनाजाल · का परित्याग वरना इस नाम प्रथम मनोगुप्ति है-१ शास्त्रानुसारिणी-परलोक साधिका-धर्मध्यानानुवन्धिनी. एवं माध्यस्थ परिणतिरूप द्वितीय मनोगुप्ति. है-२. मनोवृत्ति के निरोध से योग निरोधकरनेवाली भाविनी जोआ मरमणरूप गुप्ति है. वह तृतीय मनोगुप्ति है.। योगशास्त्र में कहा हैસમિતિ છે. એટલે કે પ્રતિલેખન, પ્રમાર્જનપૂર્વક, પ્રવૃતિયુકત થવું તે આદાન-ભાંડ માત્ર નિક્ષેપણું સમિતિ છે. પુરીષનું નામ ઉચ્ચાર મૂત્રનું નામ પ્રસ્ત્રવણ, ક્ષેમાનું નામ ખેલ છે. ઉપલક્ષણથી ચૂકતું પણ અહીં ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે. શિંઘાણ नाभ मही नासि भर भाटे प्रयुत थयछे. (शिंघाण काचपात्रे च लोहनासिक्योर्मिले इति मेदिनी कोषः) स्व मसनु नाम स छ, समनी पश! પનિકામાં-ત્યાગમાં સમિત થવું તેનું નામ ઉચ્ચાર પ્રસ્ત્રવણ ખેલ શિંઘાણુ જલ પરિઝાપન સમિત છે. મને ગુપ્તિ ત્રણ પ્રકારની છે. આમાં આરીદ્રધ્યાનાકુબન્ધી કલ્પનાઓને પરિત્યાગ કરે તે પ્રથમ અને ગુપ્ત છે. શાસ્ત્રાનુસારિણી પરલેક સાધિકા ધર્મધ્યાનાનુબંધિની અને માધ્યસ્થ પરિણતિરૂપ દ્વિતીય અને ગુપ્તિ છે. ૨, મનોવૃત્તિ ના નિધાવસ્થાભાવિની જે આત્મરક્ષણ ગુપ્તિ છે તે તૃતીય અનેગુપ્તિ છે. યેગશાસ્ત્રમાં Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका . १७४ सूर्याभदेवस्य अगामिभववर्णनम् एवंविधया त्रिविधयाऽपि मनोगुप्त्या युक्त इत्यर्थः, तथा-वचोगुप्तः-वचनगुप्तियुक्तः, वचनगुप्तिश्चतुर्विधा, तथाहि सत्या १, मृषा २, सत्यामृपा ३, असत्यामृषा चेति । उक्तं च 4. "सच्चा तहेव मोसा य, सच्चा- मोसा तहेव य । उत्थी असच्चमोसाय, क्यगुत्ती चउब्विहा । (उत्त० २४२२ गा० ) ० ) इति, छाया - "सत्या तथैव मृपा च, सत्यामृपा तथैव च चतुर्थ्यासत्यमृषा च, चोगुप्तिचतुर्विधा । इति । तथा - काय गुप्तः कायगुप्तियुक्तः, काय गुप्तिस्तु गमनागमनप्रचलनादि क्रियाणां गोपन, सा द्विविधा - चेष्टानिष्टत्तिरूपं १, यथागमं जिसमें - -ल्पना जाल विमुक्त हों, और - समत्व में जो सुप्रतिष्ठित हो - ऐसा मन आत्माराम है- आत्मारूपी उद्यान (बाग) है. इसमें रमण करना मनोगुप्ति है । इस प्रकार की तीन गुप्तियों से मनका युक्त होना इसका नाम मनोगुप्ति से गुप्त होना है । इसी प्रकार से वचनगुप्ति से युक्त होना सो- वचनगुप्ति से गुप्त होना है, वचनगुप्ति चार प्रकार की है, -सत्याबचोगुप्ति - १ मृपावचोगुप्ति - २ सत्यामृपांवचोगुप्ति - ३ और असत्यामृपा चोगुप्ति है - ४ उक्तञ्च – “सच्चा तहेव मोसाय सच्चामोसा तहेवय. । ४३३ उत्थी असच्च मोसा-य वयगुत्ती चउव्विहा - ॥१॥ (उत्त० २४ - २२ गाथा ) कायगुप्ति से युक्त होना इसका नाम - काय गुप्त है -१ गमनाऽऽगमनादिरूप प्रचलनादि क्रियाओं का गोपन करना कायगुप्ति है-२ यह कायति चेष्टानिवृत्तिरूप एवं - यथागम चेष्टा नियमनरूप से दो प्रकार की કહ્યું છે કે જેમાં કલ્પનાજાલ વિમુક્ત હેાય અને સમત્વમાં જે સુપ્રતિષ્ઠિત હાય એવું મન આત્મારામ છે. આત્મારૂપી ઉદ્યાન છે. આમાં રમણુ કરવું તે મનેગુપ્તિ છે. “विमुक्त कल्पनाजाल समत्वे सुप्रतिष्ठितम् । आत्मारामं मनरतज्ज्ञैर्म गुप्तिरुदाहृता ||१|| या लतनी त्राशु गुतिमोथी मनयुक्त थवु तेनुं नाम मनोगुतिथी ગુપ્ત થવુ છે. આ પ્રમાણે વચનગુપ્તથી યુક્ત થવું તે વચનસિથી ગુમ થવું છે. વચનગુપ્તિ ચાર પ્રકારની છે. સત્યામને ગુપ્તિ ૧, મૃષા મનેષ્ઠિ ૨, સત્યાભ્રષામનેગુપ્તિ ૩, અને અસત્યાસૃષામના ગુપ્ત ૪. धुं ; - "सच्चा तहेव मोसाय सच्चा मासा तहेव य । चउत्थी असच्चमे साय वय गुत्तीचउव्विहा ॥१॥ (ઉત્ત૦ ૨૪–૨૨ ગાથા) કાયડુમિથી યુકત થવું તેનું નામ કાયગુપ્ત છે. ૧, गभनाગમન–વગેરે રૂપ પ્રચલન વિગેરે ક્રિયાઓનું ગેાપન કરવું કાયગુપ્તિ છે. ર. આ કાય-ગુસિ ચેષ્ટા નિવૃત્તિરૂપ અને યથાગમ ચેષ્ટા નિયમનરૂપથી એ પ્રકારની હોય છે, Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नीयसूत्रे ४३४ चेष्ठानिगमरूपा च २ । तत्र परीपहोपसर्गादि संभवेऽपि यत्कायोत्सर्गादिकरणादिना कायस्य निश्चलताकरणम् सर्वयोग निरोधावस्थायां वा सवथा यत् कायचेष्टानिरोधनं सा प्रथमा । गुरुमापृच्छय शरीरसंस्तारकभूम्यादिप्रतिलेखना प्रमाजनादिसमयोक्तक्रियाकलापपुरस्सरशयनासनादि विधेयम्, ततः शयनासननिक्षेपादानादिषु ग्वेच्छया चेष्टापरिहारेण नियता - शास्त्र नियमानुसारिणी या कायचेष्टा सा द्वितीयेति । उक्तं च "उपसर्गङ्गेऽपि कायोत्सर्गजुपो सुनेः । स्थिरीभावः शरीरस्थ कायगुप्तर्निगद्यते । १ ॥ शयनाssसन निक्षेपाऽऽदानस मणेषु च । स्थानेषु चेष्टानियमः कायगुप्तिस्तु सा परा । २ । इति, होती है। इनमें परीपह - और उपसर्ग के आने पर भी कायोत्सर्ग करणरूप क्रिया से शरीर को निश्चल कर देना होता है, अथवा - सर्वयोग निरोधावस्था में सर्वथा जो काय की चेष्टा का निरोध किया जाता है वह चेष्टा निवृत्तिरूप प्रथम काय गुप्ति है | गुरू को पूछ कर शरीर संस्तारक, भूमि आदि की प्रतिलेखना प्रमार्ज ना आदि के समय में उक्त क्रियाकलाप पुरस्सर जो - शयनआसन आदि करना होते हैं - सो उन शयनासनादिकों के निक्षेपन रखने में, एवंआदान आदि कों में अपनी इच्छा से चेष्टा के परिहार से नियत (रखने में ) अर्थात् गुरु को पूछकर के शयन आदि करना - शास्त्र नियमानुसारिणी जो काय चेष्टा है वह-यथागमचेष्टा नियमनरूप द्वितीयकायगुप्ति है. । २ उक्त भी है - " उपसर्गप्रसङ्गेऽपि" उत्यादि अर्थात् — “उपसर्ग आने पर कायोत्सर्ग में मनको स्थिर रखना यह कायगुप्ति है । तथा. આમાં પરીષહ અને ઉપસ'ની સ્થિતિમાં પણ કાયાત્સકરણરૂપ ક્રિયાથી શરીરને નિશ્ચલ કરવામાં આવે છે. અથવા સાગ નિરાધાવસ્થામાં જે સર્વથા કાયચેષ્ટાના નિરાધ કરવામાં આવે છે. અથવા સÀાગ નિરાધાવસ્થામાં જે સવ થા કાયચેષ્ટાના નિરોધ કરવામાં આવે છે તે ચેષ્ટા નિવૃત્તિરૂપ પ્રથમ કાયદ્ગુપ્તિ છે. ૧,ગુરુની આજ્ઞા મેળવીને શરીર સંસ્તારક, ભૂમિ વગેરેની પ્રતિલેખના, પ્રમાજના વગેરેના સમયે ઉપર્યુકત ક્રિયાકલાપ પુરસ્કર જે શયન આસન વગેરે વિધેય હાય છે તે તે શયનાસકિાના નિક્ષેપમાં અને આદાન આદિકામાં પોતાની ઈચ્છાથી ચેષ્ટાના પરિહારથી નિતતા-શાસ્ત્રનિયમાનુસારિણી જે કાયચેષ્ટા છે તે દ્વિતીય યથાગમ ચેષ્ટા નિયમનરૂપ द्वितीय अयगुप्ति छे, २. धुं छ:- उमर्ग प्रसङ्गेऽपि कायोत्सर्गजुषोमुनेः । स्थिरीभावः शरीरस्य कायनिंगद्यते || १ || Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सू. १७४ स्यामदेवस्य आगामिभववर्णनम् तथा-गुप्तः-अशुभयोगनिग्रहरूपगुप्त्या युक्तः, गुप्तब्रह्मचारी-गुप्तं नवभिब्रह्मचर्यगुप्तिभी रक्षितं ब्रह्म-मैथुनविरमणं चरति तच्छीलः, अममः-समत्वरहितः, अकिञ्चनः-धर्मोपकरणातिरिक्तवस्तुरहितः, छिन्नग्रन्था-ग्रश्नाति-बध्नाति आत्मानं कर्मणेति ग्रन्थः, स द्विविधो द्रव्यभावभेदात् द्रव्यतो-हिरण्यादि, भावतो मिथ्यात्वादिः, स द्विविधो ग्रन्थहिन्नो येन स तथा, छिन्नस्रोता:-छिन्नसंसारप्रवाहः, निरुपलेपः-कर्मवन्धहेतुरुपलेपो रागादिस्तेन रहितः, निरुपलेपत्वमेव सदृष्टान्तमाह-कांस्यपात्रीय मुक्ततायः-मुक्त-त्यक्त तोयमिव तोयं संसारबन्धशयनासन इत्यादि-शयन में, आसन में, लेने में रखने में, चलने में काय को यतना पूर्वक रखना यह कायगुप्ति है इस प्रकार से वे दृढप्रतिज्ञ अनगार इन पूर्वोक्त समितियों का तथा-गुप्तियों का पालन करनेवाले होंगे। तथा-वे गुप्त होंगे, अशुभ योगनिग्रहरूप गुप्ति से युक्त बनेंगे, गुप्तब्रह्मचारी होंगे, नौ वाटिका (पाड) द्वारा मैथुन विरमणरूप ब्रह्म की रक्षा करेंगे उत्तम-ममत्व रहित होंगे, वे अकिञ्चन होंगे, धर्मोपकरण से अतिरिक्त अन्य वस्तुओं से विहीन होंगे। जो आत्मा को कर्म के साथ वान्धता है. वह ग्रन्थ है, यह-ग्रन्थ द्रव्य-ग्रन्थ, और-भावग्रन्थ के भेद से दो प्रकार का है। हिरण्य-सुवर्ण आदि वाह्यग्रन्थ है, एवं-मिथ्यात्व आदि भावग्रन्थ है. इन दोनों प्रकार के नन्ध से वे रहित होंगे। संसारप्रवाह जिनका नष्ट हो चुका है. ऐसे होंगे, निरुपलेप होंगे, कर्मवन्धन का हेतु जो रागादिक उपलेप हैं उससे रहित होंगे। इसी बात को सूत्रकार दृष्टान्तद्वारा पुष्ट करते शयनासननिक्षेपादाऽऽनरामणेषु च । स्थानेषु चेष्टा नियमः कायगुतिस्तु सऽपरा ॥२॥ આ પ્રમાણે તે દઢપ્રતિજ્ઞ અનગાર આ પૂર્વોકત સમિતિઓ તથા ગુપ્તિઓનું પાલન કરશે. તેમજ તેઓ ગુપ્ત થશે. અશુભગ નિગ્રહરૂપ ગુપ્તિથી યુક્ત બનશે. ગુણ બ્રાચારી થશે, નવ વાટિકાદ્વારા મથુન વિરમણરૂપ બ્રહ્મની રક્ષા કરશે ઉત્તમ મમત્વરહિત થશે, તે અકિંચન હશે. ધર્મોપકરણતિરિકત વસ્તુઓથી રહિત થશે. જે આત્માને કર્મની સાથે બાંધે છે તે ગ્રન્થ છે. આ ગ્રંથ દ્રવ્યગ્રંથ અને ભાવગ્રંથના રૂપમાં બે પ્રકારનું છે. હિરણ્ય-સુવર્ણ વગેરે બાહ્ય ગ્રંથ છે અને મિથ્યાત્વ વગેરે ભાવગ્રંથ છે. આ બંને પ્રકારના ગ્રથી તે રહિત થશે. જેમને સંસારપ્રવાહ નાશ પામે છે એવા તેઓ થશે. નિરૂપલેપ થશે. કર્મબંધનના હેતુરૂપ રાગાદિક ઉપલાપોથી તેઓ રહિત થશે.એજ વાતને સૂત્રકાર દષ્ટાંત દ્વારા પુષ્ટ કરે છે કે Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ राजप्रश्नीयसूत्रे हेतुत्वात् स्नेहा येन स तथा । यथा कांस्यपात्र्यां पतितमपि जलं लिप्तं न भवति तथा संसारबन्धहेतुस्तस्मिन्नुपलिप्तो न भविष्यती यर्थः शङ्ख इव निरञ्जन:अज्ञ्जनमिवाज्जनं द्वेपादिकं तस्मान्निर्गतः - तद्रहितः, यथा - शहे किमपि कज्जलादिद्रव्यं स्थितिं न लभते तथैव तस्मिन्ननगारे द्वेपादिकं न स्थात्यतीत्यर्थः, जीव हा अप्रतिहतगतिः - जीवेो यथा अव्याहतगत्या सर्वत्र याति, तथाऽसौ देशनगरादिपु अप्रतिबन्धरिहारित्वेन वादादिषु कुतीर्थिकमतनिराकरणसामर्थ्यो पेतत्वेन च अस्खलितगतिर्भविष्यतीति । जात्यकनकमिव जातरूपः - तपः संयमादिसमुद्भूतनैर्मल्यः यथा शोधितं सुवर्ण निर्मलं भवति तथैवासौ रागादिरहितत्वेन निर्मला भविष्यतीति, आदर्शफलक इव प्रकटभाव:- आदर्श फलकेा यथा प्रतिविम्वितान् मुखाद्यवयवान् यथाऽवस्थितं प्रकटी करोति, तथा तत्कृतधर्मदेश है - " कांस्यपात्रीच मुक्ततोय: - " कांसे के पात्र में पडा हुधा पानी जिस प्रकार पात्र में लिप्त नहीं होता है-उसी प्रकार से संसार वन्धन का हेतु राग-द्वेष इनमें – उपलिप्त नहीं होंगे. । शङ्ख की तरह वे निरज्जन हांगे, जैसे- शङ्ख में कज्जलादि द्रव्य ठहर नहीं सकता है, उसी प्रकार से इनमें राग द्वेपादिक नहीं ठहरेंगे जीव की तरह ये अप्रतिहतगतिवाले होंगे, जीव जिस प्रकार अपनी अव्याहतगतिद्वारा सर्वत्र चला जाता है, उसी प्रकार से- देश नगरादिकों में अप्रतिबन्धविहारी होने से, एवं चादादिकों में कुतीर्थिक मत निराकरण करने की सामर्थ्य से युक्त होने से अस्खलित गतिवाले होंगे । वे जातिमान् कनक के प्रकार होंगे, जिस प्रकार जात्यकनक- श्रेष्ठ सुवर्ण निर्मल होता है - उसी प्रकार से ये तपः संयमादि से समुत्पन्न निर्मलतावाले होंगे, । आदर्श - दर्पण जिस प्रकार अपने में प्रतिविम्वित हुवे मुखादि अवयवों का यथाऽवस्थित प्रकट करता " कांस्यपात्रीव मुक्ततोय:" साना पात्रमां पडेलु पाणी नेम तेमां लिप्त थतु नथी. તેમજ સૌંસાર ખંધન હેતુ રાગદ્વેષમાં તેએ ઉપલિપ્ત થતા નથી શખની જેમ તે નિરજન થશો. જેમ શખમાં કાજલ વગેરે દ્રવ્યે સ્થિર થતાં નથી. તેમજ તેએમાં રાગ દ્વેષાદિક સ્થિર થશો નહિ. જીવની જેમ તેએ અપ્રતિહત ગતિવાળા થશે. જીવ જેમ પેાતાની અવ્યાહત ગતિદ્વારા સર્વાંત્ર ગતિશીલ હાય છે, તેમજ દેશનગરાટ્ઠિકામાં અપ્રતિબ`ધ વિહારી હાવાથી અને વાદ્યાર્દિકામાં કુતીકિમત નિરાકરણમાં સામર્થ્ય ચુકત હાવાથી તેએ અસ્ખલિત ગતિવાળા થશે. તે જાત્યકનકની જેમ થશે, જેમ જાત્ય સનક—શ્રેષ્ઠ સુવણુ - નિળ હાય છે, તેમ તેએ તપ સંયમ વગેરેથી સમુત્ત્પન્ન નિમાઁલતાયુકત થશે. આદ-દર્પણુ જેમ સ્વપ્રતિખિખિત મુખાદિ અવયવા તે યથાવસ્થિત પ્રકટ કરે છે તેમ તેઓશ્રીની ધ દેશનાથી મનુષ્યચિત્તરૂપ દર્પણમાં જીવાજીવારૢિ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वणम् ४३७ सुबोधिनी टीका. १७४ सुर्या भदेवग्य आगामिभचवर्णम् नया जनानां चित्तदर्पणे जीवाजीवादिसकलपदार्थाः प्रकाशिष्यन्ते, इत्यर्थः, कूर्म इव गुप्तेन्द्रियः-कूर्मः-कच्छपः. यथा कूर्मों भयकारणे समुपपागते संवृतसर्वेन्द्रियो भवति, तथैवासौ संसारभ्रमणभयाद् विषयकषायसंरक्षित सकलेन्द्रियो भविष्यतीति । पुष्करपत्रमिव निरुपलेपः-यथा कमलपत्रं जलसंयोगेऽपि जलेन लिप्तं न भवति, तथैवासौ जलतुल्यस्वजनविषये वसन्नपि तत्सम्वन्धरहितो भविष्यतीति, गगनमिव निरालम्बनः-यथाऽऽकाशो निरवलम्बस्तिष्ठति तथैवासौ कुलग्रामनगराधालम्बनवर्जितो भविष्यसीति, अनिल इव निरालयः पवन-इव गृहरहितः, अप्रतिवन्धविहारित्वात, चन्द्र इव सौम्यलेश्य:-अनुपतापपरिणामसम्पन्नः, सूर इव दीप्ततेजाः द्रव्यतः शरीरदीप्त्या, भावतस्तपःप्रभृतिना देदीप्यमानः, सागर इव गम्भीरःहै. उसी प्रकार उनकी धर्मदेशना से मनुष्यों के चित्तरूप दर्पण में जीग जीवादिरूप सकलपदार्थ प्रकाशित होंगे,। कूर्म-कच्छप जिस प्रकार भयकारणों के उपस्थित होने पर अपनी इन्द्रियों का गुप्त कर लेता है, उसी प्रकार से यह भी संसारपरिभ्रमणभयसे-विषय तापों से अपनी इन्द्रियों की रक्षा करने वाले होंगे. । जैसे-कमलपत्र जल के संयोग में भी उस से लिप्त नहीं होता है.उसी प्रकार से ये जल तुल्य स्वजनों के वीच में रहते हुवे भी उनके विषय में सम्बन्ध विहीन होंगे. । गगन की तरह ये निरालम्ब होंगे। अनिल-वायु की तरह ये निरालय होंगे, अनिल को जैसे कोई गृह नहीं होता है, उसी प्रकार से अपतिवन्धविहारी होंगे. । चन्द्र के समान ये सौम्यलेश्यावाले होंगे सूर्य की तरह दीप्ततेज हो गे तेज द्रव्य-और भाव की अपेक्षा दो प्रकार का कहा गया है. इनमें शरीरादि की दीप्तिरूप द्रव्य तेज, और तप-आदि से होनेवाला तेज भावतेज है.। सागर की तरह ये गम्भीर होंगे, हर्प-शोक રૂપ સકલ પદાર્થ પ્રકાશિત થશે, કર્મ-કચ્છપ જેમ ભય ઉપસ્થિત થાય ત્યારે પિતાના અને સંકેચી લે છે તેમ તેઓ પણ સંસાર-પરિભ્રમણ ભયથી વિષયતાપથી પિતાની ઇન્દ્રિયે ની રક્ષા કરનાર થશે. જેમ કમલપત્ર પાણીની સગાવસ્થામાં પણ તેથી લિપ્ત થતું નથી તેમ તેઓ પાણીની જેમ સ્વજનેની વચ્ચે રહેવા છતાં તેમના વિષયમાં સંબંધ વિહીન થશે, ગગનની જેમ તેઓ નિરાલંબ થશે. આકાશ જેમ અવલંબન વગર છે તેમ તેઓ કુલ, ગ્રામ નગર વગેરે અવલંબથી રહિત થશે. અનિલવાયુની જેમ તેઓ નિરાલય થશે ચનિલને જેમ કે ઈ ઘર નથી તેમ તેઓ પણુ અપ્રતિબંધ વિહારી થશે. ચન્દ્રની જેમ એઓ સૌમ્ય લેયાયકત થશે. સૂર્યની જેમ તેઓ દીપ્ત તેજવાળા થશે તેજ દ્રવ્ય અને ભાવની અપેક્ષાએ બે પ્રકારનું છે. આમાં શરીરાદિની દીપ્તિરૂપ દ્રવ્યતેજ અને તપ પ્રસૃતિથી જાયમાન તેજ ભાવતેજ છે. Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કરૂ૮ राजप्रश्नीयसूत्रे हर्प शोकादिकारणसंयोगेऽपि निर्विकारचित्तः, विहग इब सर्वतो विप्रमुक्तःपक्षिवत्सङ्गरहितः, परिवारपरित्यागात् नियतवासरहितत्वाच्च, मन्दर इच अप्रकम्पः-मेरुवत् परिपहोपसर्ग पवनेरविचलितः, शारदसलिलमिव शुद्धहृदयः-यथा शरतो जलं निर्मलं भवति तथा राग परहितत्वान्निर्मलचित्तो भविष्यतीति, खगिविपाणमिव एकजातः खड्गी-आरण्यजीवः तस्य विपाणं-शृङ्गं तद्वद् एकजातः-एकाकी रागादिसहायरहितः । तथा-भारण्डपक्षीव-भारण्डश्वासौ पक्षी च भारण्डपक्षी, अयं द्विजीव स्त्रिचरणशन द्वाभ्यां ग्रीवाम्मा द्वाभ्यां मुखाभ्यां च युक्तः, द्वयोर्जिवियोरेकमेवोदरं भवति, स चाप्रमत्त एव विहरति. तद्वत् आदि कारणों के मिलने पर भी इनके चित्त में काई क्षोभ उत्पन्न नहीं हो सकेगा. निर्विकार चित्तवाले होंगे। पक्षी की तरह सर्वतः विषमुक्त होंगे, सर्वसङ्ग से रहित रहेंगे, परिवार आदि के परित्याग से और-नियत आवास से रहित होने से इनका ममत्वरूप सम्बन्ध किसी के साथ नहीं रहेगा. । मेरू-मन्दर की तरह ये अप्रकम्प होंगे, अर्थात् परीपह-उपसर्गरूप पवन इन्हें विचलित नहीं कर सकेगा, शारद सलिल की तरह शुद्ध होंगे-जिस प्रकार शारदऋतु में जल निर्मल रहता है उसी प्रकार राग-द्वेप रहित से ये निर्मल चित्त रहे।. खगी विपाण-गेंडोंकागृङ्ग की समान ये एकजात होंगे रागादिरूप सहायकों से रहित होने के कारण एकाकी रहेंगे। तथा-भारण्ड पक्षी की तरह अप्रमत्त होंगे, भारण्डपक्षी दो जीववाला होता है. इसके चरण तीन होते हैं-दो ग्रीवाओं से-दो मुखों से यह युक्त होता है, इन दो जीवों का पेट एक होता है. यह अप्रमत्त होकर विचरणशील होता है, इसी સાગરની જેમ તેઓ ગંભીર થશે. હર્ષ શોક વગેરે કારણો હોવા છતાં એ તેમના ચિત્તમાં કેઈપણ જાતને વિકાર ઉત્પન્ન થશે નહિં. તેઓ નિર્વિકાર ચિત્તવાળા થશે; વિહગની જેમ તેઓ સર્વતઃ વિપ્રમુક્ત થશે. તેઓ સર્વસંગથી રહિત થશે. પરિવાર વગેરેના ત્યાગથી અને નિયત આવાસથી રહિત હોવાથી તેઓ મમત્વરૂપ સંબંધ કેઈની સાથે બાંધશે નહિ. મેરૂ-મંદરની જેમ તેઓ અપ્રકંપ થશે. એટલે કે પરીપહ ઉપસર્ગરૂપ પવન તેમને વિચલિત કરી શકશે નહિ. શારદ સલીલની જેમ તેઓ શુદ્ધ થશે. જેમ શરદઋતુમાં પાણી નિર્મળ રહે છે તેમ તેઓ પણ રાગદ્વેષ રહિત હોવાથી નિર્મળ ચિત્તવાળા થશે. ખફી વિષાણ-ગુંડાઓના શીંગડાની જેમ તેઓ એક જાત થશે. રાગાદિરૂપ સહાયથી રહિત હોવા બદલ એકાકી રહેશે. તેમજ ભારંડ પક્ષીની જેમ અપ્રમત્ત થશે, ભારંડપક્ષી બે જીવયુકત હોય છે. તેને ત્રણ પગ હોય છે, બી ગ્રીવાઓ, બે મુખેથી તે યુકત હોય છે. આ બને છનું પેટ એકજ હોય છે, Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवोधिनी टीका १७४ मूर्याभदेवस्य आगामिभववर्णनम् ४३९ अप्रमत्तः-तपासंयमादिधर्मरक्षणे प्रमादरहितः । कुञ्जर इव शौण्डीरः-हस्तीव शूरः-व.पाशदिरिपुभञ्जनशीलः । वृपस इव जातस्थामा-पभवत् संजानपराक्रमः। सिंह इव दुर्घर्ष:-सिंहवत् परीपहादि मृगै?रतिक्रमः । वसुन्धरेच सर्वस्पर्शविषहःवसुन्धरा-पृथ्वी यथा सर्व सामसह्य वा स्पर्श सहते तथैवाथम् अनुकूलप्रतिकूलपरीपहोपसर्ग सहनशीलः। तथा-सुहुतहुताशन इव तेजसा ज्वलल्-यथा घृतायाहुतिभिरग्निः प्रदीप्तो भवति तथेवायमपि तपःसंयमतेजसा ज्वलन्-दीप्यमानोऽनगारो भविष्यतीति पूर्वेण सम्बन्धः, तस्य-पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टस्य खलु भगवतोऽनगारस्य अनुत्तरेण-सर्वोत्कृष्टेन ज्ञानेन, एवम्-अनेन प्रकारेण-अनुत्तरत्वविशिष्टेन दर्शनेन 'अनुनर' शब्दस्य चारित्रादौ प्रत्येकत्र सम्बन्धः, ततश्च अनुप्रकार ये भी पसंयम आदिके संरक्षण में प्रसाद रहित होंगे। कृअर-हाथी के समान ये शूर होंगे, अर्थात्-ईप आदि रिपुपुजों का भजन शील होगे। पभ की तरह ये जान स्थामा होंगे-उत्पन्न पराक्रमवाले होंगे, सिह की तरह दुर्घ परीपहादिमृगों द्वारा दुर्थप हेगे, पृथवि की तरह सर्व स्पर्श सह होंगे-पृथ्वी जिस प्रकार सर्वसहा एवं-असह्य पर्श का भी सहन करती है-उसी प्रकार से अनुकूल-प्रतिकूल परीपह एवं-उपसर्ग का ये सहन कर्ता होंगे । सुहुन हुताशन की तरह ये तेज से सदा जाज्वल्यमान रहेंगे। जिस प्रकार घृतादिक आहुति से अग्नि अधिकाधिक प्रज्वलित हो जाती है. उसी प्रकार ये भी दप-संयम के तेज से देदीप्यमान अनगार होंगे, इस प्रकार से इन पूर्वोक्त विशेषणों से विशिष्ट हुवे उन अनगार भगवान् दृढप्रतिज्ञ के सर्वोत्कृष्ट ज्ञानस-सर्वोत्कृष्ट दर्शन से सर्वोत्कृष्ट चारित्र से-सर्वोत्कृष्ट આ અપ્રમત્ત થઈને વિયરણશીલ હોય છે. તેમ તેઓ પણ તપ સંયમ વગેરેનું રક્ષણ કરવામાં પ્રમાદ રહિત થશે, કુંજર-હાથી ની જેમ તેઓ શૂર હશે. એટલે કે કષાય વગેરે રિપુઓને નષ્ટ કરવામાં સમર્થ થશે. વૃષભની જેમ તેઓ જાતસ્થામાં થશે. ઉત્પન પરાક્રમવાળા થશે. સિંહની જેમ દુર્ઘ–પરીષહારિરૂપ મૃગ વડે દુર્ઘર્ષ હશે. વસુંધરાની જેમ સર્વસ્પર્શ સહ થશે, પૃથ્વી જેમ સર્વે સહ-અસહ્ય સ્પર્શને પણ સહન કરે છે તેમ અનુકલપ્રતિકૂલ પરીષહ અને ઉપસર્ગને તેઓ સહન કરતા થશે. સુત હુતાશનની જેમ તેઓ તેથી સદા જાજવલ્યમાન રહેશે. જેમ ધૃત વગેરેની આહુતિથી અગ્નિ વધારે અને વધારે પ્રજવલિત થઈ જાય છે તેમ તેઓ પણ તપ સંયમના તેજથી દૈદીપ્યમાન અનગાર થશે. આ પ્રમાણે આ પૂર્વોકત વિશેષણોથી વિશિષ્ટ થયેલા તે ભગવાન અન. ગાર દૃઢપ્રતિ સર્વોત્કૃષ્ટ જ્ઞાનથી, સર્વોત્કૃષ્ટ દર્શનથી, સર્વોત્કૃષ્ટ ચારિત્રથી સર્વોત્કૃષ્ટ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नीयसूत्रे ४४० त्तरेण चारित्रेण अनु नरेण आलयेन-स्त्रीपशुपण्डकादिरहितवसति सेनन, अनुतरेण विहारेण-विचरणेन, अनुत्तरेण आजवेन-सारल्येन, अनुसरेण मार्दवेन-मृदुत्वेन, अनुत्तरेण-लाघवेन द्रव्यतोऽल्पोप फर णरूपेण, भावतः-सपायननुन्यरूपेण, अनुत्तरया क्षान्त्या-समाशुणेन, अनुत्तरया गुप्त्या-मनोवाकायगुप्त्या अनुत्तस्या मुक्त्या निर्लोभनया, अनुत्तरेण सर्वसंयमसुनरिततपः फलनिर्वाणमार्गेण-सर्वसंयमस्य सर्वथा मनोवाकायानां निरोधस्य, तथा सुचरितम्य-आशंसादिदोपरहितम्य तपसो यत्कलं निर्वाणं-निर्वाणरूपं फलं तय मार्गेण आन्मानं भावयमानस्य अनन्तम्-निररवसानम् अनुत्तरम्-सर्वोत्कृष्टं कृतनं-सकलं, प्रतिपूर्ण-निश्शेपं, निरावरणम्-आवरणवर्जितम्. निर्व्याघानम्-अ ाहतम् केवलय ज्ञानदर्शनं केवलं-सर्योत्कृष्टत्वात् सहायवर्जितम् अनएव वर-श्रेष्ठं यद् ज्ञानदर्शन नत्-केवलज्ञानं केवल दर्शनं च समु पत्स्यते । लतः खलु स भगगन् अर्हन जिनः केवली भविप्यति, तथा साऽनगारः सदेवमनुजासुरस्य लोकस्य पर्यायं ज्ञास्यति, तद्यथा-आगति-देवलोका निखद्य स्थान से-पशु पण्ड कादि वर्जिन वसति के सेवन से-अनुत्तर विहार से अनुत्तर आर्जन से-सरलता से-अनुत्तर अल्पोपकरणरूप द्रव्य से, एवं-कपाय तनूकरणरूप भाव से-अनुनरक्षमागुण से -अनुनरगुप्ति से अनुत्तर निर्लोभतारूप मुक्ति से अनुत्तर सर्वसंयम के-मन वचन काय केविरोध के था-सुचरित-आशंसाद दाप गहित तप के निर्वाणरूप फलके मार्ग से आत्मा को भावित करने से अनन्त निर्जरा से उभयलोक की भावना रहित मोक्षामार्ग से आत्मा को भांवित करने से अनुत्तर, सर्वोत्कृष्ट, कृतान-सकल, प्रतिपूर्ण, आचरण वर्जित. और-अन्याहन ऐसा सर्वोत्कृष्ट होने से सहायवर्जित, अतएव-श्रेष्ठ केवलज्ञान औप-केवलदर्शन को प्राप्त करेंगे, तव-वे भगवान् अर्हच जिन केवली हो जावेगे, तथा सदेव मनुजासुर लोककी पर्याय का ज्ञाता हो जावेंगे, तथा वे आगति को देवलोकादि से मनुष्य गति આલાપથી, પશુપડકાદિ વર્જિત વસતિકાના સેવનથી, અનુત્તર વિહારથી, અનુત્તર આર્જવથી, સરલતાથી. અનુત્તર અપોપકરણરૂપ દ્રવ્યથી અને કષાય તનકરણરૂપ ભાવથી અનુત્તર ક્ષમાગુણથી અનુત્તર ગુપ્તિથી અનુત્તર નિર્લોભારૂપ મુકિતથી. અનુત્તર સર્વ સંયમથી. મન વચન કાયના વિરાધના તેમજ સુચરિત-આશંસાદિ દોષરહિત તેમના નિર્વાણુરૂપ ફળના ભાગથી આત્માને ભારિત કરવાથી. અનંત નિરવસાન, અનુત્તર, સર્વોત્કૃષ્ટ, કૃત્ન સકલ. પ્રતિપૂર્ણ. આવરણ વર્જિત અને અવ્યાહત એવા સ > હોવાથી સહાય વર્જિત એથી શ્રેષ્ઠ કેવળજ્ઞાન અને કેવળદર્શનને પ્રાપ્ત કરશે. ત્યારે તે ભગવાન્ અન જિન કેવલી જઈ જશે, તથા સદેવ મનુજાસુરલૅકની Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका सू. १७४ सूर्याभदेवस्व आगामिभववर्णनम् ४४१ दिभ्यो मनुजगताबागमनं, गति-मनुष्यलोकाद् देवादिगति गमनम्, स्थितिदेवलोकादिष्ववस्थितिम, च्यवनं-देवलोकादायुःक्षयेण पतनम, उपपातं-देवनारकयोजन्म, तर्क-विचारम्, कृत' विहितं, मनोमानसिकम्-मनस्येव व्यवस्थित मानसिकं-मनोगतं विचारं, क्षयितं-क्षयं प्राप्तं, भुक्तं-खादितं. प्रतिसेवितंभोग्य वस्तुजातसे नम्, आविष्कर्म-प्रत्यक्षे कृतम्, रहाकम-एकान्ते कृतम् । एवं स संदेवासुरमनुजस्य सर्वान् पयार्यान् ज्ञास्यतीति । अत एव सोऽनगारः अरहानास्ति रहः-अप्रत्यक्षं किमपि यस्य स तथा-सर्वज्ञः, तथा अरहस्यभागी-साबद्याचरणवर्जितत्वेन न रहस्यम्-ए-गन्तं भजते यः स तथा सुस्पष्टसर लाचारच सन् तस्मिंस्तस्मिन् काले मनोकाययोगवर्तमानानां सर्वलोके स्थितानां सर्व जीशनों सर्वभावान्-समस्तान् भावान् जानन् पश्यंश्च विहरिप्यति-विहारं करिष्यतीति । ॥सू० १७४॥ में आगमन को. गति को-मनुप्य लोक से देवादिगतियों में गमन को, स्थिति को-देवलोकादिका में अवस्थिति को च्यवन को-देवलोक से आयुःक्षय के वाद चवन को, उपपात को-देवनारकों के जन्म को, तके को-विचार को कृतकिये हुवे को, मनोमानसिक को, मन में व्यवस्थित विचारधारा को, क्षपित को क्षयप्राप्त को, भुक्त को-खादित को, प्रतिसेवित को-भोग्यवस्तु जात के सेवन को, आविष्कर्म को-प्रत्यक्ष में किये हुवे को, रहाकम को-एकान्त में किये गये को इस तरह से वे देव-मनुजाऽसुर सहित लोक की सब पर्यायों को जानेगे । अतएव-वे अनगार अरहाजिन की दृष्टि में अप्रत्यक्ष कुछ भी नहीं रहेगा. सर्वज्ञ अरहस्यभागी-सावद्याचरणवर्जित होने के कारण सुस्पष्ट सकलाचार के पालक बने हुवे, उस उप काल में मनोवाकाय यंग में वर्तमान इसलोक सम्बन्धी सर्वजनों के सर्व भावों को जानते हुवे और-देखते हुवे विहार करेंगे।सू०१७४। પર્યાયના જ્ઞાતા થશે. ત્યારે તે આગતિને-દેવ લોકાદિથી મનુષ્ય ગતિમાં આગમનને મનુષ્ય લેકમાંથી દેવદિ ગતિઓમાં ગમનને. સ્થિતિને-દેવકા,દમાં અવસ્થિતિને અવનને દેવકથી આયુક્ષપ પછી પતનને ઉપપાતને-દેવનારકના જન્મને-તનેવિચારને. કત- કહેલાઓને. મનોમાનસિકને મનમાં વ્યવસ્થિત વિચારધારાને. પિતને–ક્ષય પ્રાસને. ભકતને–ખાદિતને. પ્રતિસેવિતને–ભેગ્યવતુ જાતના સેવનને. આવિષ્કર્મને–પ્રત્યક્ષમાં કરેલા કર્મોને. રહા કર્મને, એકાન્તમાં આચરેલાં કર્મોને. આ પ્રમાણે તે દેવ મનુજ અસુર સહી લેકની સર્વ પર્યાય તે જાણશે તેથી તે અનગાર અરહાજીનની દૃષ્ટિમાં અપ્રત્યક્ષ એવું કંઈ રહેશે નહિ. તેમને સર્વ–પ્રત્યક્ષ થઈ જશે. સર્વજ્ઞ અરહસ્યભાગી સાવદ્યાચરણ વર્જિત હોવાથી સુસ્પષ્ટ અકલાચારાના પાલક થયેલા કાળમાં મને વાકકાય ચાગમાં વર્તમાન ઈહલેક સંબંધી સર્વજનના સર્વભાવેને જાણતાં અને જેમાં વિંહાર કરશે. ૧૭૪ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ राजप्रश्नीयमत्रे ____ मूलम्-तए णं दढपइन्ने केवली एयारूवेणं विहारेण विहरमाणे वहई बालाई केवलिपरियायं पाउणित्ता अप्पणो आउसेसं आभोएता बहूई भत्ताई पच्चक्खाइस्सइ, बहूई भत्ताई अणसणाए छेइस्सइ-जस्सट्टाए कीरइ णग्गभावे केसलोए बंभचेरवासे अण्हाणगं अदंतवणं अणुवहाणगं भूमिमेजाओ फलहसेजाओ परघरपवेसो लद्धावलद्धा माणावमाणाइं परेसिं हीलणाओ निंदणाओ खिसणाओ तज्जणाओ ताडणाओ गरहणाओ उच्चावया विरूवरूवा वावीसपरीसहा उवसग्गा गोलकंटगा अहियालिज्जति तम आराहिस्सह, चरिमेहिं ऊसासनीसासेहिं सिज्झहिइ, बुज्झिहिइ, मुच्चिहिइ परिनिव्वाहिइ सव्वदुक्खणमंतं करेहिइ । ॥ सू० १७५ ॥ छाया-ततः खलु दृढप्रतिज्ञः केवली एतपेण बिहारेण मिहान् गहुनि वाणि केवलिपर्यायं पालयिका आन्मन आयुश्शेपम् आभुज्य वहनि भक्तानि प्रत्याख्यायति बहूनि भक्तानि अनशनेन छेत्स्यति, यस्यार्थाय क्रियते नग्न "तए णं दढपइणो केवली-' इत्यादि मूलार्थ-"तए णं" इसके बाद-"दढपइन्ने केवली-" वे दृढप्रतिज्ञ केवली"एयाख्वेणं विहारेणं विहरमाणे-' इस प्रकार के विहार से विहार करते हुवे"वहूई वासाई केवलिपरियायं-" अनेक वर्षों तक केवलीपर्याय को"पाउणित्ता-" पालकर के-"अपणो आउसेसं आभोएत्ता-" एवं अपने आयु के अन्त को जान करके-"वहई भत्ताइ पच्चक्खाइस्सइ-" अपने अनेक भक्तों का प्रत्याख्यान करेंगे-"वहूई भत्ताई अणसणाए छेइासइइ-" अनेक भक्तो "तए णं दढपइण्णे केवली" इत्यादि। भृतार्थ-"तएणं" त्या२ पछी "दढपइन्ने केवली" ते ४४प्रतिज्ञ gaal "एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणे" 20 प्रमाणे पिडा२ ४२ai "बहूई वासाइ केवलि परियायं" घg| सुधी पक्षी पर्यायतु 'पाउणित्ता" पादन ४२२. "अप्पणो आउसेसं आभोएता" मने पाताना मायुप्यना मत समयने तीने "वहूइ भत्ताई पचक्खाइस्सई" पाताना ! मतानु प्रत्याभ्यान४२शे बहई भत्ताई अण Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीम सू. १७५ सूर्याभदेवग्य आगामिभववर्णनम् ४४३ भावः केशलोचो ब्रह्मचर्यासः अस्नाऋम् अदन्त र्णः अनुपान त्कम् भूमिशय्याः फलकशय्याः परगृहप्रवेशः लब्धापलब्धानि मानापमानाः परेषाहीलनाः निन्दनाः खिंसनाः तर्जनाः ताडनाः गर्हणाः उच्चावचाः विरूपरूपाः द्वाविंशतिः परीपहा उपसर्गाः ग्रामकण्टकाः अधिसह्यन्ते, तमर्थम् आराधयिष्यति, चरसैरुच्छासनिः श्वासैः सेत्स्यति भोत्त्यते मोक्ष्यते परिनिर्वास्यति सर्वदुःखानामन्तं करिष्यति।स.१७५। का अनशन द्वारा छेदन करेंगे-अर्थात् संथारा करेंगे “जरसहाए कीरइ, णग्गभावे केसलोए बंभचेरवासे-" इस प्रकार भक्तो का प्रत्याख्यान कर के, और-अनशन द्वारा उनका छेदन करके वे दृढप्रतिज्ञ केवली जिस अर्थ को सिद्ध करने के लिये साधुजनों द्वारा नग्नभाव-अचेलत्व-परिमित-वस्त्रधारणत्व-केशलुम्चन ब्रह्मचर्यवास-” “अण्हाणगं, अदंतवणं-अणुवहाणगं, भूमिसेज्जाओ, फलहसेज्जाओ, परघरपलेसो, लद्वावलद्धाई, माणावमाणाई-" स्नान नहीं करना-दन्तधावन करने का त्याग करना-पग में पगारखां मोझा आदि को नहीं पहनना-भूमिपर शयन करना-प्रसंगवश पाट पर सोना-मिक्षादिके निमित्त पर घर में प्रवेश करना लाभाऽलाभ-मानाऽपमान-"परेसिंहीलणाओ -निंदणाओ- खिसणाओ- तज्जणाओ- ताडणाओ- गरहणाओ-उच्चावयाविस्वरूवा-" दसगेमाराकृत हीलना-निन्दना-खिसना तर्जना-ताडना-गर्हणा-अनुकूल प्रतिकूल नाना प्रकार के -"बावीसपरीसहा उवसग्गा गामकंटगा अहिया सिज्जति-" वाइस परीपह, तथा-उपसर्ग एवं-इन्द्रियों के प्रतिकूल कटक के समान । शब्दादिक सहन किये जाते हैं-" तम आराहिस्सइ, चरमेहिं ऊसासनीसासेहिं सणाए छेडम्सई" घrji मतानु मनशन 43 छन ४२. "जस्सद्वाए कीरष्ठ णग्गभावे केसलोए, वेयचेरवाले” मा प्रमाणे मतानु प्रत्याज्यान ४ीने अने અનશન દ્વારા તેમનું છેદન કરીને તે પ્રતિજ્ઞા કેવલી જે અર્થની સિદ્ધિ માટે સાધુજને વડે નગ્નભાવ અચેલત્વ પરિમિત વસ્ત્ર ધારત્વ, કેશકુંચન, બ્રહ્મચર્ય વાસ, "अण्हाणगं अदंतवणं अणुवहाणगं, भूमिसैज्जाओ फलहसज्जाओ, परघरपवेतो. लद्धावलद्धाई, माणामाणाई-" स्नान त २२, तानने त्या ४२३, પગરખા પહેરવા નહિ, ભૂમિપર શયન કરવું ફલક પર સુવું ભિક્ષદ્ધિ માટે પર १२i v दाम मसाल, मान २५५मान-"परेसिं हीलणाओ निंदणाओ खिसणाओ तज्जणाओ ताडणाओ गरहणाओ उच्चावया विरूवरूवा" olon- ५ ४२शय હાલના-નિંદના, ખિંસના, તર્જના, તાડના. ગઈશું. અgફલ પ્રતિકૂલ અનેક જાતની "वावीसपरीसहा उपसग्गा गामकंटगा अहियासिज्जंति" भावी पीपातमा उस मन छन्द्रियोना प्रतिस श६ वगेरे सहन ४२वाम मावे छे, "तम आराहिस्सइ, चरमर्हि, ऊसासनीसासेहिं सिज्झिहिइ, बुज्झिहिइ, मच्चिहिए, Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजप्रश्नी सुत्रे टीका - "तए णं" इत्यादि - ततः खलु दृढप्रतिज्ञः केली एतद्रूपेणपूर्वोक्तविधेन विहारेण विहरन् - विचरन् बहूनि वर्षाणि केवलिपर्यायं पालयिश्चा आमनः - स्वस्य, आयुश्शेपम् - आयुपोर वसानम् आभुज्य - परिज्ञाय बहूनि भक्तानि प्रत्याख्यास्यति, ततो बहूनि भक्तानि अनशनेन छेत्स्यति । इत्थं भक्तानि प्रत्याख्याय अनशनेन छिचा च स दृढप्रतिज्ञः केवली, यस्यार्थाय - यन्मोक्षनिमित्तं क्रियते साधुभिः - नग्नभावः - अचेलत्वं - परिमितवस्त्रधारित्वं केशलोच:स्त्रपरहस्तेन केशोत्पाटनं, ब्रह्मचर्य वासः - ब्रह्मचर्यधारित्वम्, अस्नानकम्-स्नानामाषः अदन्तवर्णः - दन्तोज्ज्वलीकरणाभावः, अनुपानरकम् - उपानपरिधानाभावः, सिसिहि, मिहिर, मुच्चिहिह, परिनिव्याहिह, सव्यदु खाणमंतं करेहिह-" उसमोक्षरूपी अर्थ की आराधना करेंगे. और - आराधना कर के अन्तिमश्वासोच्छ्वास से सिद्ध हो जायेंगे, बुद्ध हो जावेंगे, मुक्त हो जायेंगे, परिनिर्वात शिथिलीभूत हो जायेंगे, एवं समस्त दुःखों का अन्त करेंगे । - टीकार्थ - इस प्रकार के विहार से विचरते हुवे वे दृढप्रतिज्ञ केवली अनेक वर्षो तक केवली पर्याय में विराजमान रहेंगे । जव उनके आयुकर्मका पूर्णरूप से अन्त होने का समय आ जावेगा, तब वे इस बात को जानकर अनेक भक्तों का प्रत्याख्यान करदेंगे, अनशन द्वारा अनेक भक्तों का छेदन क देगे । इस प्रकार भक्त प्रत्याख्यान करके - एवं अनशन द्वारा उसका छेदन करके, वे दृढप्रतिज्ञ केवी जिसके लिये साधुजन नग्नभाव धारण करते हैं । अर्थात्-परिमित वस्त्रों को रखते हैं - अपने हाथों से केशों का लुञ्चन करते हैं पूर्णरूप से ब्रह्मचर्यावस्था में रहते हैं. मनवचनकाय से स्नान करने का परित्याग करते हैं - दन्तधावन का सर्वथा परिहार करते हैं, पग रखे - मोजा का पहिरना परिनिव्याहि सव्वदुक्खाणमंतं करेहिइ" ते अर्थनी आराधना उरीने अंतिम શ્વાસેાચ્છવાસથી સિદ્ધ થઇ જશે. યુદ્ધ થઇ જશે. મુકત થઇ જશે. પરિનિર્વાંતશિથલીભૂત થઇ જશે. અને સમસ્તદુઃખાના અંત કરશે. ४४४ , ટીકા”—આ પ્રમાણે વિહરતા દૃઢપ્રતિજ્ઞ કેવલી ઘણાં વર્ષો સુધી કેવલી પર્યાવમાં વિરાજમાન રહેશે. જ્યારે તેમના આયુષ્યની સમાપ્તિના-સમય આવશે ત્યારે તેએ આ વાત જાણીને અનેક ભકતાનુ પ્રત્યાખ્યાન કરશે. અનશન વડે ઘણા ભકતેાનુ ઇંન કરશે. આ પ્રમાણે ભકતપ્રત્યાખ્યાન કરીને અને અનશન વડે તેમનુĐન કરીને તે દૃઢપ્રતિજ્ઞ કેવલી જેના માટે સાધુજન નગ્નભાવ ધારણ કરે છે એટલે કે પરિમિત વસ્ત્રો રાખે છે, પેાતાના હાથા વડે કેશલુચન કરે છે. પૂર્ણ રૂપથી બ્રહ્મચર્યાવસ્થામાં રહે છે. મન, વચન, કાયથી સ્નાન કરવાના પરીત્યાગ કરે છે. દંતધાવનના સર્વ થા Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका स. १७५ सूर्याभदेवस्य आगामिभववर्णनम् ४४५ उपलक्षणात् शकटाश्वादि वाहनराहित्यम्, भूमिशय्याः - भूमौ शयनानि फलकशय्या:फलकेषु शयनानि, आहाराद्यर्थं परगृहप्रवेशथ । 'भूमिशय्याः - फलकशय्याः' इति पदद्वये 'क्रियते' इति बहुत्वेन विपरिणमय्य समन्वेतव्यमिति । तथा तैः साधुभिः लब्धापलव्धानि-लाभालाभाः मानापमानाः -- सम्मानतिरस्काराः, तया-परेपाम्-अन्ये षाम्-परकृता इत्यर्थः, हीलना : - मर्मोद्घाटनानि, निन्दनाः - निन्दाः - जुगुप्साभाषणरूपाः, खिंसनाः - धिक् त्वां मुण्ड !' इत्यादिरूपाः, तर्जना:- अङ्गुलि-प्रदर्शन - पूर्वकं ' ज्ञास्यसि रे जाल्म !' इत्यादिक्वचनरूपाः, गर्हणाः - 'चौरोऽयं लम्पटोऽयम्' इत्यादिवचनरूपाः - तथा - उच्चावचा. - अनुकूलप्रतिकूलाः, विरूपरूपाः - नाना द्वाविंशतिः - द्वाविंशति संख्यकाः परीपहाः क्षुधादिरूपाः, उपसर्गा: प्रकाराः, छोड देते हैं । उपलक्षण से गाडी की सवारी करना, घोडे आदि वाहन पर बैठना आदि-आदि को छोड देते हैं, भूमि पर शयन करते हैं, अथवा काठ के पट्टियो- तकथा आदिपर शयन करते हैं, आहार आदि प्रयोजन से परघर प्रवेश करते हैं, लाभालाभ में जो समान भाव रखते हैं, मानापमान की जो थोडी सी भी अपेक्षा नहीं रखते हैं । तथा दूसरों द्वाग कृत हीलनाओं को ममेद्घाटन वचनों को निन्दाओं को जुगुप्सा भाषण रूप वचनों को- स्त्रिसनाओं को - "हे मुण्ठ - ? तुझे धिक्कार" इत्यादिरूप वचनो को तर्जनाओं को, अङ्गुली प्रदर्शनपूर्वक " हे जाल्म ? तुझे खबर पढेगी -" इत्यादि रूप वचनों को - गर्हणाओं को, "यह चोर है, यह - लम्पट है - " इत्यादिरूप वचनों को तथा - अनुकूल प्रतिकूल नाना प्रकार के क्षुधादिरूप २२ बाईस - परीषों को, तथा देवादिकृत उपसर्गों को, एवं ग्रामकण्टकों को ग्रामों को इन्द्रिय समूह ત્યાગ કરે છે. પગરખા મેાજા પહેરતા નથી. ઉપલક્ષણથી ગાડીની સવારી કરવી. ઘેાડા વગેરે વાહન પર બેસવુ વગેરેને ત્યજી દે છે. ભૂમિ પર શયન કરે છે. લાડાના પાટિયા વગેરે પર સૂવે છે. આહાર આદિ પ્રત્યેાજનાને લીધે જ પરઘરમાં પ્રવેશ કરે છે. લાભ અલાભમાં, સમાનભાવ રાખે છે. માન અપમાનની જે લગીરે દરકાર રાખતા નથી. તેમજ બીજા દ્વારા કરાયેલ હીલનાઓને, મર્માઘાટક વચનાને નિંદાઓને જુગુપ્સા ભાષણરૂપ વચનાને ખિસનાને હું મુણ્ડ તને ધિકકાર છે !” વગેરે રૂપ વચનેાને. તનાને 'ગુલી પ્રશ્નનપૂર્વક હૈ જામ ! પછી તને ખબર अमर पडशे” वगेरे ३५ वयाने गोने. "भा थोर है. भा पट " ઇત્યાદિરૂપ વચનોને તેમજ અનુકૂલ પ્રતિક્ષનાના પ્રકારની ક્ષુધાદિપ ૨૨ પ્રકારના પરિષહાને તથા દેવાકૃિત ઉપદ્રવાને અને ગ્રામકટકાને, ગ્રામાને ઇન્દ્રિયસમૂહને દુઃખોત્પાદક Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजमनीयत्रे देवादिकृतोपद्रवाः, ग्रामकण्टकाः - ग्रामः इन्द्रियस गृहस्तस्य कण्टका इव कण्टकाःइन्द्रियप्रतिकूलशब्दादयः दुःखोत्पादकत्वाः मुक्तिमार्गे विघ्नहेतुत्वादेषां कण्टकत्वम् क्षुद्रजनरूक्षाऽऽलापा वा यस्य कुते अधिसहन्ते तं - मोक्षरूपम् अर्थम् - आराधयियति, आराध्य चरमै अन्तिमैः उच्छासनिश्वासैः सेत्स्यति, सब लकार्यकारितया सिद्धों भवप्यति, भोत्स्यते - विमलके वालो केन सकललोकालोकं ज्ञास्यति. मोक्ष्-ते-पर्वो मुक्तो भविष्यति परिनिर्वास् ति समस्त कृर्तावक्ाररहितत्वेन स्वस्थो भविष्यति सर्वदुःखानां - शरीरमनः सम्बन्धि समर तक्लेशानाम् अन्तं नाश करिष्यति - अयाबाधसुखभाग् भविष्यतीत्थं । ।।५० १७५।। शास्त्रमुप ेत् प्राह मूलम - - सेवं भंते ! सेवं भंते ! भगवं गोयसे समणं भगवं महावीरं बंदइ नमसइ, वंदिता नमसित्ता संजमेणं तपसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ | ॥सू० १७६॥ छाया -देव भदन्त ! तदेवं भदना ! इति भगवान् गौतमः श्रमण भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा संयमेन तपसा आत्मानं भावयमानो विहरति ॥ १७६ ॥ ४४६ फिर वे- अन्तिम जाने से सिद्ध का - दुःखात्पादक होने से एवं- मुक्तिमार्ग में विन के हेतुभूत होने से कष्टकरूप प्रतिकुल शब्दादिकों को, अथवा क्षुद्रजनों के रूक्षालापों को, जिसके निमित्त सहते हैं उस मोक्षप अर्थ की आराधना करके श्वासोच्छ्वास से सकल कार्य को कर चुकने से - कृतकृत्य हो हो जावेगे, विमल केवल ज्ञानालाक से सकल लोकालोक का ज्ञाता जावेंगे, समस्त कर्मों से छूट जावेगे, स्वस्थ हो जायेंगे, और - शरीरसम्वधी एब-मन सम्बन्धी समरत स्लेशों का नाश करेंगे, अर्थात् - अव्यावाधसुख का मोक्ता वने गे ॥ ० १७५ ॥ बन હાવાથી અને મુકિતમાર્ગમાં વિઘ્નના હેતુભૂત હાવાથી અને કંટકરૂપ પ્રતિકૂલ શબ્દાફ્રિકાને અથવા ક્ષુદ્રજનાના રૂક્ષ આલાપાને જેના માટે સહન કરે છે તે મેરૂપ અર્થની આરાધના કરશે. આરાધના કરીને પછી તેએ અંતિમ ધાસાચ્છવાસથી સકલ કામેાને કરી લેવાથી કૃતકૃત્ય થઇ જવાથી સિદ્ધ થઇ જશે, વિમલ કેવલજ્ઞાનાલેાથી સકલ લેાલેકના જ્ઞાતા થઈ જશે સમસ્ત કર્મોથી મુક્ત થઇ જશે. સ્વસ્થ થઇ જશે અને શરીર સ`ખ'ધી અને મનસ''ધી સરસ્ત કલેશેાના નાશ કરશે. એટલે કે તે અન્યાષાધ સુખ ભાતા થઇ જશે. પ્રસ્॰ ૧૭પા Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुबोधिनी टीका स. १७५ सूर्याभिदेवस्व आगासिभव निम् ४४७ टीका - "सेव सते" इत्यादि - हे भदन्त । यद् भवद्भिरुक्तं तत् एवम्इत्थम्, वास्तविकमिति यावत् देवं भदन्त ? इति विप्सा भगवद्वचने श्रद्धातिशय प्रकटयति, इति-अनेन प्रकारेण उवच्चा भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमः य यदि वन्दित्वा नमस्त्विा संयसेन उपसा आत्मानं भावयमानो विहरतीति ॥ सू० १७६॥ श्री अथ गजप्रश्रीयसूत्र य प्रशस्तिःगुर्जराभिधदेशेऽरिमन् पुरं वीरमगामकम् । आरण-श्राव श्रेणिसौधमण्डि - वीथिकम् ग्रामाद् ग्रामान्तरं पङ्किः साधुभिर्विहरन्निह । निर्वोढुं सांसीं यात्रां परुद्वैशाख आगमम् ॥ २ ॥ ॥ १ ॥ 'सेवं भंते ? सेवं संते ?" भगवं योगमे - " इत्यादिमूलार्थ – 'सेव भंते ? सेव अंते ? ' हे भदन्त ? जैसा आपने कहा है वह वैसा ही है, अर्थात् - आपने जो अपनी दिव्यध्वनि द्वारा प्रकट किया है वह वास्तविक ही है सर्वथा सत्य ही है । इस प्रकार कहकर - "भगव ं गोसे - " भगवान् गौतमने "सम भगव वदइ नमसड़ - " श्रमण भगवान् को वन्दना की गुण' तुति की, और उन्हें नमस्कार किया- " वंदित्ता नमसित्ता संजमेण तपसा अप्पाणं भावेमाणे विहरड़ - " वन्दना नमस्कार वर फिरवे संयम से और तप से आत्मा को भावित करते हुवे अपने स्थान पर विराजमान हो गये । टीर्थ-स्पष्ट है- 'सेव सते ? सेव सते ?" ऐन जो दो बार कहा गया है वह भगवद्वचन में श्रद्धातिशय प्रगट करने के लिये कहा गया है. । ०१७६ 'सेवं भंते ? सवं भंते ? भगवं गोयमे इत्यादि । भवार्थ - " से भंते ! रोन भंते !" हे महंत ! नेप्रमाणे आपश्री से છે તે તેમજ છે એટલે કે આપશ્રીએ પેાતાની દિવ્યધ્વનિદ્વારા જે કંઈ કહ્યું છે તે वास्तवि४ छे. सर्वथा सत्य हे प्रमाणे उडीने "भगव' गोयमे" लगवान गौतमे समणं भगवं वद नम सड़" श्रमण भगवानने वहना पुरी; गुणु स्तुति डरी अने तेभने नमस्कार : “वंदित्ता नमसित्ता संज्मेणं तपसा अप्पाणं भावेमाणे विहरह" વદના તેમજ નમસ્કાર કરીને તેએ સંયમ અને તપશ્રી આત્માને ભાવિત કરતાં પેાતાના સ્થાને બિરાજમાન થઈ ગયા. टीडार्थ स्पष्ट छे. "सेव' अंते । सेवं भंते !" सास આવ્યુ છે તે ભગવદ વચનમાં અતિ શ્રદ્ઘા પ્રગટ કરવા માટે मे वयत उडेवामां છે. ॥ ૧૭૬ ॥ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ राजप्रश्नीयसूत्र पुरे वी मगामेऽस्मिन् सङ्घार्थ नया व्यधाम् । राजप्रश्नीय सूत्रस्य टीकामेता सुबोधिनीम् ॥ ३ ॥ वैशाखस्य सिते पक्षे तृतीयायां गुरोंदिने । त्रयोदशाधिके वर्षे द्विसहस्रच वैक्रमे ॥ ४ ॥ अत्रत्यः सदयो मिलत्समुदयः श्री जैनसको मिथःप्रेमाऽभक्तहृदः सदा निजकृतौ धौ च बद्धाऽऽदरः ।। शुद्धस्थानकवासिधर्म महिमप्रोद्भावकः श्रावकाऽऽचारैः ख्यातिमुपागतो विजयते सम्यक्त्वस शोभितः ॥५॥ " प्रशस्ति का अर्थ" गुजरात प्रा-त में वीरमगाम नामका शहर है, यहां के मोग दुकानों एवं श्रावकजनों के सुन्दर-सुन्दर घरों से युक्त हैं। एक गाम से दूसरे गाम में विहार करते हुवे छह मुनियों के साथ-यहां संयम यात्रा का निर्वाह करने के लिये गतवर्ष के वैशाख मास में अर्थात वि.संवत २०१२ के वैशाखमें आये। यहां के श्रीसंघ की यहीं पर विराजने की विनन्ती से यहां मैंने राजप्रश्नीय सूत्र की इस सुबोधिनी टीका को सम्पूर्ण किया. । यह समय वैशाख शुक्ला अक्षय तृतीया गुरुवार विक्रम संवत् २०१३ का था. । यहां का जैन श्रीसंघ शुद्ध स्थानकवासी धर्म में तत्पर है, धर्म के प्रति इसके हृदय से बहुत अधिक आदभाव है, औरयह श्री संघ प्रेमाल है, तथा शुद्ध स्थानकवासी धर्म का दिपाने वाला है. हृदय में इसके अति अधिक दयाभाव बना रहता है। श्रावक सम्बन्धी आचार विचार से यह प्रसिद्धि को प्राप्त कर लिया है, जैनधर्म के प्रति अधिक प्रशस्तिन। अर्थ:ગુજરાત પ્રાંતમાં વિરમગામ નામક એક નગર છે આ નગરની શેરીઓ અને દુકાનો શ્રાવકજનોના ભવ્ય મકાનેથી યુકત છે એક ગામથી બીજે ગામ વિહાર કરતાં કરતાં છ મુનિઓની સાથે વૈશાખ માસમાં અહીં સંયમયાત્રાના નિર્વાહ માટે આવ્યો અહીં. ના “શ્રીસંઘે આપશ્રીને અહીંજ બિરાજવાની વિનતી કરી તે અમયમાં જ મેં ત્યાં રહીને રાજપ્રશ્નીય સૂત્રની આ સુબોધિની ટીકા સ પૂર્ણ કરી આ સમય વૈશાખ શુકલ અક્ષય તૃતીયા વિક્રમ સંવત ૨૦૧૩ ગુરૂવારનો હતો અહીંને જૈન શ્રાસંઘ શુદ્ધ સ્થાનકવાસી છે; ધર્મ પ્રત્યે એના હૃદયમાં ખૂબજ આદરભાવ છે આ શ્રી સંઘ પ્રેમાળ છે તેમજ શુદ્ધ સ્થાનકવાસી ધર્મને દીપાવનાર છે એના હદય માં અત્યધિક દયાભાવ નિવાસ કરે છે શ્રાવક સંબધી આચારવિચારેથી આ જગતમાં પ્રસિદ્ધ છે જેનધર્મ પ્રત્યે અધિકાધિક અનુરાગી હવા બદલ સમ્યક વથી સુશોભિત Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 449 सुबोधिनी टीका सू. 175 सूर्याभदेवस्य आगामिभववर्णनम् देवाधिदेवे भुवनेकनाथे तीर्थकरे तत्कथिते च धर्म / श्रद्धां दधानं प्रतिवेश्म भाति सुश्राविकाश्रावकन्दमत्र // 6 // आचारपूताः समदृष्टिभूता जैनागमाऽऽचारनिदर्श रूपाः // अस्मिन् पुरे सन्ति मृदु स्वाभावा जैनाः ममस्ता गुरुभक्तिभाजः।।७।। इतिश्री विश्वविख्यात-जगहल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालाप -प्रविशुद्रगद्यपद्यनैकग्रन्थ-निर्मापक-बादिमानमर्दक श्री शाह छत्रपति-कोल्हापुररा नमदत्त 'नशास्त्राचार्य' पदभूपित-कोल्हापुरराजगुरु - वालब्रह्मवारि - जैनशास्त्राचार्य-जैनधर्म दिवाकर-पूज्यश्रीघासीलालव्रतिविरचितायां सुबोधिन्याख्यायां व्याख्यायां "राजप्रश्नीयसूत्रम्" सम्पूर्णम् अनुरागी होने के कारण यह मम्यक्तत्व से सुशोभित है.। भुवनैकनाथ देवाधिदेव तीर्थ कर के ऊपर, एवं तीर्थङ्कर प्रतिपादित धर्म के ऊपर श्रद्धाशील श्रावकएवं-श्राविकाएं हर एक घर में यहां हैं। इन सबों का आचार-विचार जैनमर्यादा के अनुरूप है दूसरों के लिये ये-इस विपय में सर्वथा अनुकरनीय हैं। इनका मनभाव मृदु है. यहां के श्रावको काचित्त गुरु की धर्मभक्ति में सदा प्रेमयुक्त बना रहता है. इन्ही सब कारणों से ये समदृष्टि हैं। श्री जैनाचार्य-जैनधर्म दिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजकृत राजप्रश्नीयसूत्र की 'सुबोधिनी' व्याख्या समाप्त // // राजप्रश्नीयमूत्र समाप्त // છે ભુવનેકનાથ-દેવાધિદેવ તીર્થકર પર અને તીર્થંકર પ્રતિપાદિત ઘર્મ પર શ્રદ્ધાશીલ શ્રાવક અને શ્રાવિકાઓ અહીં દરેકેદરેક ઘરમાં નિવાસ કરે છે આ સર્વનાં આચારવિચારે જૈન મર્યાદાનુરૂપ છે બીજાઓના માટે એઓ આ બાબતમાં સંપૂર્ણપણે અનુકરણીય છે એમનો સ્વભાવ મૃદુ છે અહીંના શ્રાવકેનું ચિત્ત ગુરૂની ઘર્મભક્તિમાં સદા પ્રેમયુકત બની રહે છેઆ બધા કારણથી એ બઘા સમદષ્ટિ છે " શ્રી જૈનાચાર્ય-જૈનધર્મદિવાકર-પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત રાજપ્રશ્નીયસૂત્રની સુબોધિની વ્યાખ્યા સમાપ્ત परुद्वैशाखो इति गतवर्षवैशाखे इत्यर्थः