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उधिनी टीका सू. ११५ सूर्याभदेवस्य पूर्व भवजोयप्रदेशिराजवण'नम् १०१ मपि तृतीयमपि एवमुक्तः सन् चित्र सारथिम् एवमवादीत्-चित्र ! स यथानामको वनषण्डः स्यात् कृष्ण कृष्णावभासो यावत्पतिरूपः । अथ तून चित्र! स वनषण्डो बहूनां द्विपदचतुष्पदमृगपशुपक्षिसरीसृपाणाम् अभिगमनीयः ? हन्त ! अभिगमनीयः । तस्मिंश्च ग्वलु चित्र ! वनपण्डे बहवो मिलका नाम पापशाकुनिकाः परिवसन्ति । ये खलु बहूनां द्विपदचतुष्पदमृगपशुपक्षिसरी सृपाणां स्थितानामेच मांसशोणितम् आहारयन्ति । अथ नून चित्र ! स वुत्ते समाणे चितसारहिं एवं वयासी) तव इस प्रकार दुबारा तिवारा भी चित्र सारथी के द्वारा विनन्ति किये जानेपर केशिकुमार श्रमणने उन चित्र सारथी से ऐसा कहा (चित्ता! से जहानामए वंणसडए सिया किण्हे किण्होभासे जाव पडिरूवे) हे चित्र ! जैसे कोई एक बनपड हो और वह कृष्ण-कृष्ण वर्णवाला हो, तथा कृष्ण जैसा दिखता हो (से जूण चित्ता से वणस डे बहूण दुपयचउप्पयमियपसुपवखीसरीसिवाण' अभिगमणिज्जे) तो हे चिो! कहो वह अनेक द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु पक्षी और सरीसृप सप इन सबके गमन के योग । होता है न ? (हता अभिगमणिज्जे) हां भदन्त ! वह इनके गमन के योग्य होता है. (तसि च ण' चित्ता वणससि बहवे भिलूगा पावसउणा परिवसति) यदि उस वनस्वड में हे चित्र ! अनेक पापिष्ठ भील लोग जो कि पारधी होते हैं रहते हैं (जे ण तेसि बहूण दुपयचउप्पयमियप. सुपक्खिसरीसिवाण ठियाण चेव मंससोणिय आहारंति) जो कि वहां रहे हुए उन बहुत से द्विपद . चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी और सरीसृपों के मांस शोणित चित्त' सारहिं एवं' वयासी) त्यारे ते प्रमाणे 00 quत मने त्री मत
हेली चित्रसाथिनी पाct सलगीन तेने २मा प्रमाणे पु (चित्ता ! से जहानामए चणसंडए सिया कण्हे किण्होभासे जाव पडिरूवे) यत्र ! म 15 पन५७ उाय मने ते पशुवर्णपाणी डाय, तेम ४५ो सागत राय (से जूण चित्ता से चणसडे बहण' 'दुपयचउप्पयमियपसुपवखोसरीसिवाण अभिगमणिज्जे) तर यिंत्र ! ४ ते वन घji द्विपो, यतुपहो, भृग, पशुओं પક્ષીઓ અને સરીસૃપ આ બધાને માટે ગમન કરવા એગ્ય હોય કે નહિ ? अभिगमणिज्जे) हालत ! ते तेमना भाटे गमन योञ्य गाय छ. (तसि च ण चित्ता वणसंडसि बहवे भिलूगा पावसउणा परिवसंति) मने ते वनमा & [यत्र ! ने ! पापिष्ट [AN लीयो २४ता डोय (जे ण तेसिं वहणं दुपय चउप्पयमियपसुपक्खिसरी सिवाण' ठियाण' चेव मर सणियं आहारैति) અને તેઓ ત્યાં રહેનારા તે ઘણું દ્વિપદે ચતુષ્પદે, મૃગ પશુઓ અને સરીસૃપના