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- राजप्रश्नीयसूत्रे वाऽऽह-एवं खलु हे भेदात ! यावा-यावत्पदेन वायायामुपस्थानशाला यामनेकगण नायक-दण्डनायक-राजेश्वर-तलबर-माडम्बिक-कौटुम्बिकेभ्यः श्रेष्ठि-सेनापति-सार्थवाह-मन्त्रि-महामन्त्रि गणक-दौवारिकामात्य-चेट पीठमर्द नगरनिगमदूतसन्धिपालैः साई संपरितः" इत्येवा पदानां सङ्ग्री वोध्या, एपी व्याख्या पत्रिंशदधिकशतनममत्र गता। विहामि-तिष्ठाभि,'
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मैं कह रहा हूं उससे इन दोनों की अभिन्नता ही प्रकट होती है, यह बात इस प्रकार से है-मैं एक दिन गणनायक आदिकों के साथ अपनी बाय उपस्थान शाला में बैठा हुआ था. नगर रक्षक एक चोर को पकड.. कर मेरे समक्ष लाये-मैं ने उसे पहिले तो जीवितावस्था में तोला, बाद में उसे मार कर तोला. तोलने पर उसके भार में कुछ भी न्यूनाधिकता नहीं आई. अंतः इससे मैं इसी निष्कर्ष पर पहुँचा हूं कि उस चोर का वहीं जीव है और वही शरीर है. न जीव अन्य है और न शरीर अन्य है। यहां 'जाव नों उवागच्छड़' में जो यावत्पद आया है उससे 'एपा प्रज्ञात उपमा, अनेन पुनः वक्ष्यमाणकारणेन' इस पाठका संग्रह हुआ है। इनका विवरण १३८वें मूत्र में किया जा चुका है। "जा विहरामि' में आये हुए यावत्पद । से 'बाह्यायामुपस्थानशालाया अनेक गणनायक-दण्डनायक, राजेश्वर, तलवर. माडम्बिकेभ्य-श्रेष्ठि-सेनापति-सार्थवाह-मंत्रि-महामंत्रि गणक-दौवारिका मात्य-चेट-पीठमद नगर निगम-दूतसंधिपालैः साध संपरितृतः' इस पाठ का
જન્ય હોવાથી અવાસ્તવિક જ છે. એથી જે વાત હું કહું છું તેથી એઓ બન્નેની ममिन्नत 2 थाय छ. ये बात मा प्रभारी छोर हिवस मनाय વગેરેની સાથે મારી બાહ્ય ઉપસ્થાનશાળામાં બેઠા હતા ત્યાં નગરરક્ષકે એક ચોરને ५४ीन भारी सामे सा०या. में पडसा तेनु: Ouri ar rन यु त्या२ पछी तेने भाशन पछी तेनु वान यु. तो तेना वनमा ५५. तनी न्यूनाधिता x नहि. मेथी या निष्प ५२ माव्या.
छुते यारना, छશરીર છે. અને શરીર છે તેજ જીવ છે જીવ અન્ય નથી અને શરીર અન્ય નથી અહીં 'जाव नो उवागच्छ भांजे यावत् १६ मावेस छ तथी (एपा प्रज्ञातउपमा, अनेन पुनः वक्ष्यमाणकारणेन'' Pा पाइने! सय थये। छ. मानु स्पष्टी४२५५ १३८ मा सूत्र ४२वाम: माव्यु छ. (वाह्यायामुखस्थानशालायां अनेकगण . . नायक-दण्डनायक राजेश्वर, तलार माड विक, कौटुम्बकम्य श्रेष्ठिसेनापति-सार्थवाह-मत्रि-महामत्रि गणक-दौवारिकामात्य-चेट पीठ मई .