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राजप्रश्नीयात्रे अप्येक के हयगता यावत् अध्येकके पादचार विहारेण महदिमहद्भिन्द वृन्दैर्निर्गच्छन्ति ?, एवं संप्रेक्षते संप्रेक्ष्य कञ्चुकीयपुरुष शब्दयति, शब्दयित्वा .. एवमवादीत-किं खलु देवानुप्रियाः ! अध श्रावस्त्यां नगर्याम् इन्द्रमह इति वा यावत् सागरमह इति वा, यत्खलु इमे बहव उग्रा यावत् निर्गच्छन्ति? ।१०८॥
'तएण' इत्यादिटीका--ततः खलु श्रवस्त्या नगर्या शृङ्गाटक-त्रिक-चतुष्क-चत्वर चतुर्मुख -महापथपथेपु-तत्र-शृङ्गाटक-शृङ्गाटकाकृतिकस्त्रिकोणो मार्गः, त्रिक-त्रिपथ जहा उववाइए तहेव अप्पेगइया हयगया) जो ये बहुत से उग्रवंश के मनुष्य, उग्रवंश के पुत्र, भोगवंश के मनुष्य, भोगवंश के पुत्र, राजन्यवंश के मनुष्य, इश्वाकुवंश के मनुष्य, ज्ञातवश के मनुष्य, कुरुवंश के मनुष्य, जैसा कि इसके आगे औपपातिक सूत्र में कहा गया है उसके अनुसार कितनेक घोडों पर चढ कर (जाव अप्पेगड्या पायचारविहारेण महयार चंदावदएहिं निगच्छति) यावत् कितनेक पैदल ही भिन्नर समूह में -होकर निकल रहे हैं। (एवं स पेहेइ) ऐसा उसने विचार किया-(सपे हित्ता कंचुइज्जपुरिस सदावेई) ऐसा विचार करके उसने कचुकीयपुरुष को चुलाया (सदावित्ता एवं यासी) बुलाकर उससे कहा-(किंण देवाणुप्पिया ! अन्न सावत्थीए नयरीए इंदमहेइ वा, जाव सागरमहेइ वा जे ण इमे बहवे
उग्गा, जाव निग्गच्छंति) हे देवानुप्रिय ! क्या आज श्रावस्ती नगरी में इन्द्र महो. -त्सव है या यावत् सागर महोत्सव है कि जिससे ये उग्रवश के मनुष्य यावत् जा रहे हैं। इ उववाइए तहेव अप्पेगया हयगया) थी ॥ अवशना पुत्रो; on
शना भाणुस, मावशता पुत्रो, न्यशना माणुसी, वाशना भायुसा, 'જ્ઞાતવંશના માણસે કુરુવંશના માણસે-પહેલાં પપાતિક સૂત્રમાં જે પ્રમાણે વર્ણન
४२वामा माव्यु छ ते भु०४५ ४ मा पर सवार थधन (जाव अपेगझ्या ...पायचारविहारेणं महया२ वदाव'दएहिं निग्गच्छति) यावत् ८६ पाया
नुहा नुहा समूडमा मेत्र न ४ २ह्या छ. (एवं संपेहेइ) AL तना तो विया२ ४.: (सपेहिता क'चुइज्जपरिसं सद्दावेड) मा प्रभारी विया२ ४३शन १ तेणे युधीय पुरुषने मालाव्या. (सदावित्ता) एवं वयासी) मालावीन तेने छु किणं देवाणुप्पिया! अज्ज सावत्थीए नयरीए इदमहेइ वा, जाव सागर महे वा जेणं इमें बहवे उग्गा, जाव निग्गच्छति) वाप्रिय ! शुभा શ્રાવસ્તી નગરીમાં ઈન્દ્રમહોત્સવ છે કે ચાવતું સાગર મહોત્સવ છે કે જેથી ઉગ્રવંશના मासे यावत १४ २६ा ? . .