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सबोधिनी टाका मू. १३५ मभदेवम्य पूर्व भवजोवप्रदेशिराजवर्णनम् २२३ मशरारम्. यस्माद भदन्त ! तम्या अयस्कुम्भ्याः नाम्ति किश्चित् छिन्द्रबा यावत् निर्गतः, तस्मात् सुप्रतिष्ठिता मे प्रतिज्ञा यथा -सजीव नत् शरो. रम, नो अन्यो जीवोऽन्यच्छरोरम् ।।मु० १३५॥ . टीका-तपणं से पएसी राया' इत्यादि-तत:-केशिकुमारवचनश्रवणानन्तर खलु म प्रदेशी राजा केशिन कुमारश्रमणम् एवम्-अवादितहे भटन्न ! एपा-जावशरीरयो में दरूपा प्रज्ञा-बुद्धिः उपमा उपमामात्र अस्त-विधते. यद् अनेन कारणेन देवो नो उपागच्छतोति । हे भदन्त ! एवं-पूर्वीक्तप्रकारेणान्यदपि वृत्तमस्ति यद् अहम्-अन्यदा-सदाचित-अन्यस्मिन् करिमश्चित् ममये-वाह्यायाम-उपस्थानशालायाम् अनेकगणनायक-दण्डनायकराजे-श्वर-तलब -माडम्बिक-कौटुस्विके-भ्य-श्रेष्ठेि-सेनापति- मार्थवाहनिकलना (तो ण अह सद्दडेजा पत्तिएज्जा-रोएजा जहा-अन्नो जीवो अन्न सरीरं नो त जीवो तं मरीर) तो मैं आपको इस बात पर विश्वास कर लेना. पतीति कर लेता, उसे रुचि का विषय बना लेना कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, जीव शरीर रूप नहीं है और शरीर जीवरूप नहीं है (जम्हा ण भाते ! तीसे अउकु'भीए णथि केइ छिड़े वा जाब निग्गए. तम्हा मुपटिया मे पइण्णा जहा-तं जीवो तं सरीरं, नो अन्नो जीवो अन्न सरीर) जिस कारण हे भदन्त ! उस लोहे की कोठी में कोई. छिद्र अथवा यावत् रेखा नहीं थी कि जिससे उसका जीव बाहर निकल जाता. अत:छिद्रादि के अभाव से निकलने में अशक्त होने के कारण मेरा ही यह मन्तव्य ठीक है कि जो जीव है, वही शरीर है, जीव शरीर से भिन्न नहीं है और शरीर जीव से भिन्न नहीं है। अहं सद्दहेज्जा पत्तिएज्जा रोएज्जा जहा-भन्लो नीवो अन्न सरीर नो तं जीवो त सीर) तातभारी मा पात ५२ विश्वास छरी देत. प्रतीति કરી લેત અને તેને મારી રૂચિને વિષય બનાવી લેત કે જીવ અન્ય છે અને શરીર मन्य छ, ०१ शरी२३५ नवी मने शरी२ ०१३५ नथी. (जम्हा ण मते ! तीसे अउकुभीए णस्थि के छिड़े वा जाब निग्गए, तम्हा सुपहडिया में पडणा जहा-न जीवो त सरीर, नो अन्नो जीत्रो अन्न सरीर) ने दी નદત! તે લેખંડના નળામાં કઈ છિદ્ર કે યાવત રેખા નથી કે જેથી તેને જીવ બહાર નીકળી જતો. રહે માટે છિદ્ર વગેરેના અભાવમાં બહાર નીકળવામાં અશક્ત હેવા બદલ મારી જ આ જાતની માન્યતા ઉચિત લાગે છે કે જે જીવ છે. તે શરીર છે, જવ શરીરથી ભિન્ન નથી અને શરીર જીવથી ભિન્ન નથી.
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