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________________ राजप्रश्नीयसो टित चेति द्विविध सुवर्णम्, रत्न कर्केतनादिकम्, मणिः पद्मरागादिरूपः, मौक्तिक मुक्ताफल, 'शङ्ख:-रत्नविशेषः, शिलापत्राला विद्रुमः, सत्सारस्वापतेय सद्-पितृपितामहादिपरम्परारूपेण विद्यमान' सार प्रधान यत, स्वा. पतेय मणिरत्नादिक द्रव्य तत् एतेषां समाहारस्तव, धनधान्यादि सत्सारः . स्थापतेयान्त सर्व विच्छ भावतः परित्यज्य, विगोप्य तानि सर्वाणि प्रकटी. कृत्य दान दत्त्वा दीनदरिद्रादिभ्यो वितीर्य, परिभाज्य=पुत्रादिषु विभज्य, र मुण्डा भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रव्रजन्ति-दीक्षां गृहन्ति, नो खलु मदन्तः! अह यावत् शक्नोमि-समर्थोऽस्मि त्यत्तवा हिरण्य, तदेव यावत् सुवर्णादिक सर्व त्यक्तवा-इत्यर्थः, प्रवजितुम्-दीक्षा ग्रहीतुम् । अहं खलु देवानुप्रियाणाम् अन्ति के समीपे पञ्चााणुव्रतिक' पञ्चपञ्चसंख्यकानि अनुव्रतानिस्थूलात माणातिपाताद् विरमणम१, स्थूलाद् मृषावादाद् विरमणम् २, स्थूलात् दोनों प्रकार के सुवर्ण को, क तनादिक रत्नको, पद्मरागादिकरूप मणियों को, मुक्ताफलों को, रत्नविशेषरूप शरवको शिलाप्रवालविद्रुम को, सत्-पिता पिता मह आदिकों की परपरारूप से विदमान सारप्रधान मणिरत्नादिकरूप स्वापते को, भावलः छोड करके, तथा प्रत्यक्षरूप में इन सबको दीन दरिद्रादिकों को दान देकर, एवं पुत्रादिकों में इन्हें विभक्त करके अर्थात पुत्रा दिकों को धन आदिका भाग देकर मुडित होकर आगारावस्था से परे हो दीक्षा धारण करते हैं, मैं इस प्रकार की परिस्थिति से युक्त हो कर अर्थात् मुवर्णादिक सब का परित्याग कर भागवती दोक्षा धारण करने में अपने आपको शक्ति संपन्न नहीं मान रहा हूं-असमर्थमान रहा। हूं. अतः आप देवानुपिय के पास मैं श्रावक व्रतों को धारण करना चाहता हूं-वश ऐसी ही इस समय मुझ में शक्ति है. अर्थात्-१स्थल प्राणातिपात नने, पारा वगैरे. ३५ माशुयान, भुतासान न विशेष शमन, शिक्षाप्रale'વિદુમને સત્-પિતા પિતામહ વગેરેની પરંપરાથી વિદ્યમાન સાર પ્રધાન-મણિરત્ન पो३ ३५ वापतयन, मापात: (अन्तरनी थी. ४) त्यसभा प्रत्यक्ष३५मा | દીન દરિદ્ર વગેરેને દાનમાં આપીને અને પુત્રાદિકમાં વિભાજિત કરીને એટલે કે પુત્રાદિકેને ધન વગેરેના ભાગ આપીને મુંડિત થઈને–અગારાવસ્થાથી પર એવી ભાગવતી દીક્ષા ધારણ કરે છે. હું પિતાની જાતને આવી પરિસ્થિતિથી ચુકત થઈને એટલે ॐ सुवर्ण वगेरे धी परतुआनो त्यास ना ..मरावती दीक्षा पा२९५ ४२वामा हु અસમર્થતા અનુભવી રહ્યો છું એથી આપ દેવાનુપ્રિય પાસેથી હું શ્રાવક વ્રતને ધારણ ४२१॥ २छुछु. मया भाराभा मालीशत छ, सोवे रेभा (१) २थूदा
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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