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________________ ___. राजप्रश्नीयसो कृतो न . तु तिरश्चीनः कृतः परिघ: अर्गला येन :स संथा 'भिक्षुकादीनां सौकर्येण भिक्षार्थ गृहे प्रवेशो भवतु इति हेतोः कपाटपश्चाद्भागादपनीतार्गल इत्यर्थः । अथवा-उछिना=अपगनः परिधः अर्गला गृहद्वारे यस्यासौ तथा-औदार्याधिक्यादतिशयदानदातृत्वाद् भिक्षुकप्रवेशार्थ: मनर्गलितगृहद्वार : इत्यथ: । एतावदेव न किन्तु अपातद्वार: भिक्षुकादिप्रवेशार्थ कपाटानामपि पश्चात्करणात् सर्वथा समुद्घाटितद्वारइत्यर्थः । यद्वासम्यग्दर्शनलाभे सति कुंतश्चिदपि पाखण्डिकाद् भयाभावेन शोभनमार्ग परि. ग्रहेण च सर्वदा समुद्घाटिनशिरास्तिष्ठनोति भावः, ता-प्रीतिकरानापुर अर्गला को उसके रखने के स्थान से ऊपर कर दिया था, तिरछा नहीं किया था. अर्थात प्रवेशद्वार के किवाडों में इसने अर्गला नहीं लगाई किन्तु का ऊँची ही रही सो उसका कारण यह था भिक्षुक आदि जनों को प्रवेश घर में भिक्षा के निमित्त सरलता पूर्वक होता रहे। अथवा उच्छित शब्द का अर्थ 'इसने अर्गला बिलकुल नहीं लगाई ' ऐसा भी होता है क्यों कि यह उदारता वाला था,तथा अतिशय दान देने वाला था. इसलिये भिक्षुकादिकों के प्रवेश के लिये इसने अपने घर के द्वार को अर्गला से रहित ही कर दिया था उतना ही नहीं किन्तु उसने गृह द्वारके कपाटों को खुलाकर दिया इसीलिये वह 'अप्राकृतद्वार' ऐसा कहा है __ अर्थात वह सर्वथा समुद्घाटित द्वार वाला प्रकट किया है। अर्थात् दान पुण्य के लिये उनके घरके द्वार सदा खुले थे यद्वा--सम्यग्दर्शन के 'लाभ होने पर किसी भी पाखण्डिक से उसे भय नहीं था सो इमसे प२०, २०ी...त्रांसी की न तो यो प्रवेशद्वानी- ४भामा त ' સાંકળ લગાડી ન હતી પણ તેને ઉંચી જ રાખી હતી એની પાછળ આ હેતુ છે भिक्षु : वगैरे भिक्षा माटे मावे त्या समाथी घरमा प्रवेशी श. અથવા ઉસ્કૃિત શબ્દનો અર્થ આ પ્રમાણે પણ થાય છે કે તેણે અર્ગલા લગાડી જ નહોતી. તે-ઉદાર તેમજ અતિશય દાનદાતા હતે એથી ભિક્ષુક વગેરેના પ્રવેશ માટે પિતાના ઘરને. તેણે અર્ગલા વગર જ રાખ્યું હતું. આ પ્રમાણે અર્થ ન કરતાં આપણે એમ કહી શકીએ કે તેણે અર્ગલાને તેના स्थान परथी या पशु नहाती ४२. मेटदा माटे 'अप्राधनद्वार:' पहा સૂત્રકારે તેને સર્વથા સંમુદ્દઘાટિતદ્વારવાળો પ્રકટ કર્યો છે. અને સમ્ય, દર્શનના લાભ ધી હવે કઈ પણ પાંખડિકથી તે ભયભીત નહતો થતે એથી અને શોભનમાર્ગના
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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