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________________ सुबोधिनी टीका सु. १५७ सूर्याभदेवस्य पूर्वभवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् : ३४७ त्या नमस्यित्वा एतमर्थं भूयो भूयः सम्यग् विनयेन क्षामयितुम्, इति कृत्वा यामेव दिशं प्रादुर्भूतः, तामेव दिशं प्रतिगतः । ततःखलु स प्रदेशी राजा कल्यं प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां यावत् तेजसा .लति हृष्टतुष्ट यावद् हृदयः यथैव कूणिकः तथैव निर्गच्छति अन्तःपुरपरिपलाश-शुकमुख एवं-गुजा-रत्ती के अधस्तन का अर्घभाग जैसा लाल. तथा-सरोवरों में कमलिनी कुल का विकाशक, "उट्टियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलंते-" ऐसा सहसकिरणोंवाला एवं-दिनकर्ता सूर्य जब अपने तेज से प्रज्वलित होता हुवा आकाश में उदित हो जावेगा, तव-"अते उर परियालसद्धिं संपरिबुडे देवाणुप्पिए वंदित्तए 'नमंसित्तए एयमद्वं भुज्जो-२ सम्म विणएणं-खामित्तए ति कडे जामेव दिसि पाउन्भूए. तामेव दिसिं पडिगए". मैं अन्तःपुर परिवार से युक्त होकर आप देवानुग्रिय की वन्दना-नमस्कार औरपूर्वोक्त अपराध रूप अथे को विनय के साथ प्रशस्त नम्र भावसे बार-२ क्षमापना के लिये आऊंगा. इस प्रकार केशी स्वामी से निवेदन कर वह जिस दिशा से आया था-उसी दिशा की ओर चला गया. "तएणं से पएसी राया कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव तेयसा जलंते-" इसके बाद दूसरे दिन जब रजनी रात्री प्रभातप्राय समाप्त हो चुकी और- भात हो गया यावत् सूर्य अपने तेज से देदीप्यमान हो उठा-तब वह-"हट्ट तुट्ठ जाव हियए जहेव क्रूणिए तहेव निग्गच्छ-" हृष्टतुष्ट यावत् हृदयवाला होकर कूणिक नरेश की तरह अपने स्थान से निकला પલાશ, શુકમુખ અને ગુંજાના નીચેના અર્ધા ભાગ જેવો લાલ તેમજ સરોવરમાં કમલીની કુલને वीनाश 'उहियम्मि सूरे सहासरम्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलंते" गोवा सहस्त्र કરણવાળ અને દીનાઁ સૂર્ય જ્યારે પિતાના તેજથી પ્રજવલીત થતો આકાશમાં उदय पाम, त्या अंतेउरपरियालसद्धि संपरिबुडे देवाणुप्पिए वंदित्तए नम सिनए एयमट्ठ भुज्जो २ सम्म विणएण' खामित्तए त्ति कटु जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए" त्यारे मत:५२ परिवा२नी साथे मा५ धातुપ્રિયને વંદન અને નમસ્કાર કરવા માટે અને પૂર્વે કત અપરાધરૂપ અર્થને સવિનય પ્રશસ્ત નમ્ર ભાવથી વારંવાર ક્ષમાપના માટે આવીશ. આ પ્રમાણે કેશીકમારને વિનંતી કરીને તે જે દિશા તરફથી આવ્યું હતું તેજ દિશા તરફ જતો રહ્યો. "तएण' से पएसी राया कल्ल पाउप्पभाषाए रयणीए जाव तेयसा जलते" ત્યાર પછી બીજા દિવસે જ્યારે રાત્રિ પૂરી થઈ અને પ્રભાત થયું યાવતુ સૂર્ય પિતાના तेल्या प्रशित गयो. 'त्यां२ ते 'हट्टतुट्ट जाच हियए जहेव कूणिए तहेव । निग्गच्छई" हट तुष्ट यावत् इयवाणी ने अणि रागनी भ पाताना स्थानथी
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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