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________________ ९४ % 3 DC:-- राजप्रश्नीयसूत्र विज्ञापयेति कृत्वा विसर्जितः । ततः खलु स चित्रः सारथिर्जितशत्रुणा राज्ञा विसर्जितः सन् तत् महार्थ यावद् गृह्णाति, जितशत्रो राज्ञोऽन्तिकात् । प्रतिनिष्काति, श्रावस्त्या नगर्या मध्यमध्येन निगच्छति, यौव राजमार्ग: मरगाढ आवासः, तत्रौत्र उपागच्छति, तन्महार्थ यावत् स्थापयनि, स्तातो यावच्छरीरः सकोरण्टमाल्यदाम्ना छत्रोण नियमाणेन महाभटचटकरटन्दपरिक्षिप्तः. पादचारविहारेण महापुरुषत्रागुरापरिक्षिप्तो राजमार्गमवगाढात आवा.. प्राभृत को ले जाओ (मम पाउगहण जहा भणियं अवितहमसंदिद्धं वयण विनवेहि त्तिक विसजिएं) और उनसे मेरा प्रणाम कहो, तथा मेरी और से, यथोक्त अविनथ असंदिग्ध वचन कहो, इस प्रकार कह कर उसे विसर्जित कर दिया. (तएण' से 'चित्ते सारही जियसंनुणा रणा विसज्जिए समाणे त महत्थं जाव गिण्ड-जियसत्तस्स रणो अंतियाओं पडिनिवखमइ) इसके बाद जितशब राजा द्वारा विसर्जित किये गये चित्र सारथि ने उस महाप्रयोजन साधक यावत प्राभूत को उठा लिया और जितशत्रु राजा के पास से. चला आया. (सावत्थीएं नयरीए मज्झ मज्झेग निग्गच्छड) एवं श्रावस्ती नगरी के ठीक बीचों बीच के मार्ग से होकर निकला (जेणेवं रायमगमोगाढे श्रावासे तेणेव उवागच्छद) निकलकर वह जहां राजमार्ग पर स्थित आवासस्थान था, वहां पर आया (तमहत्यं नाव ठवेई) वहां आकरके उसने उस प्राभृत को एक ओर रख दिया. (हाए जाब सरीरे सकोरिंटमल्लदामेण छत्तण धरिजमाणेण महया भडचडगरविंद• महायान साध यावत् लेट सन्या .(मम पाउगवण जहा भणिय अवि तहमस'दिद्ध वयण विन्नवेहित्तिक विसजिए) मने तेभने भारा प्राम ४.या मने भारावती यथे॥४त मवित असहिग्य वयन ४डशा. (त्तिक विसजिए) सा प्रभारी डीन तेने त्यांची वानी माज्ञा ४२. (तएण से चित्ते सारही जिय सणो रण्णा विसज्जिए समाणे तं महत्थं जाद गिण्हइ जियसत्तस्स रणो अंतियाओ पडिनिक्खमई) त्या२पछी नितशत्रु २० पाथी माज्ञापित थईन त . ચિત્ર સારથીએ તે મહાપ્રયજન સાધક યાવત્, ભેટને લઈ લીધી અને જિતશત્રુ રાજા पासेथी मावतो रह्यो (सावत्थीए नयरीए मज्ज्ञ मज्झण निग्गच्छइ) भने श्रावस्ती नगीना मराभ२ मध्यभागथी थधन (जेणेव रायमगमोगाढे आवासे । तेणेव ‘उवागच्छइ) ते 'नयां भाग ५२ पातानु. निवासस्थान हेतु त्यो मा०या. (त महत्थ जावं ठेवेइ). त्यां मीन तेणे ते लेटने २४ २५ भूी सीधी. (हाए जाच सरीरे सकोरिटमल्लदामे णं छत्तण':धरिजमाणे णं महया महया
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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