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गंजप्रश्नीयसूत्र चतुष्षष्टथा, दीपचम्पलेन, ततः खलु स प्रदीपः दीपचम्पकस्य अन्तरन्तः अवभासयति४, नो चैव खल्लु दीपचम्पकम्य वहिः नो चैव खलु चतुष्पष्टिका, नो चैव खलु चतुप्पष्टिकाया बहिः, नो चैव खलु कूटाऽऽकारशालां, नो
चव खलु फूटाऽऽकारशालाया बहिः, एवमेव मदेशिन् ! जीवोऽपि यां यादृशी पूर्व कर्म निवद्धां बोन्दि निर्वतयति तामसंख्येयैर्जीवपदेशैः सचिनां करोति शुद्रिकांचा महतीं वा, तत् श्रद्धेहि खलु त्वं प्रदेशिन्! यथा अन्यो जीवः तदेव खलु १० ।म. १५२॥
से, पोडशभागिका से इन सब चतुर्भागिका से चतुप्पष्टिकापर्यन्त के मगधदेशप्रसिद्ध रसमापक पात्रविशेषण से ढक देता है तथा दीप के ढंकने 'से ढंक देता है (तए ण से पईवे दीवपंचगस्स अंतो २ ओभासेइ) ते। वह प्रदीप जिन २ से ढंका गया है उन्हीं २ के भीतरी को ही प्रका. शित करता है, उनके बाहिरी भाग को नहीं इसी तरह से वह दीपचम्पक के ही भीतरी भाग को प्रकाशित करता है, (जो चेव ण दीवचंगस्स बाहिं नो चेव ण चउसट्टिय', नो चेव ण चउसट्टियाए वाहि, णो चेव ण कूडागारसाल, कूडीगारसालाए बाहि) दीपचम्पक के वाहिरी भाग को नहीं-या दीपक के वाहिर के प्रदेश को नहीं, चतुष्पष्टिका को नहीं, चतुष्पष्टिका के बाहिर के प्रदेश को नहीं, कुटाकारशाला को,
और कूटाकारशाला के बाहर के प्रदेश को नहीं प्रकाशित करता है ' (एवामेव पएसी ! जीवे वि जे जारिसयं पुव्वकम्मनिबद्ध बोदि णिवत्तेह) मट ailuथी, पाश माथी (बत्तीसियाए, चउसट्टियाए, दीवचंपएणं) બત્તીસિકાથી, ચતુષ્પષ્ટિકાથી, આ બધી ચતુર્ભગિકાથી ચતુષષ્ટિક પર્યરતના મગધ “દેશ પ્રસિદ્ધ રસમાપક પાત્ર વગેરેથી ઢાંકી દે છે તેમજ દીપચંપકથી–દીપકના ઢાંક
थी - dil हे छ. (तए ण से पईवे दीवच पगस्स अंतो. २ ओमासेइ) તે તે પ્રદીપ જે જે વસ્તુથી ઢાંકવામાં આવે છે તે તે વસ્તુના અંદરના ભાગને ' જ પ્રકાશિત કરે છે. તેમના બહારના ભાગને પ્રકાશિત કરતો નથી. આ પ્રમાણે તે हीयय ५४ना मरना सामने प्राशित ४रे छ. (जो चेव ण दीवच पगस्स चाहिनो चेव ण चउसहिय, नो चेव ण चउसष्टियाए वाहि, णो चेव 'ण' कूडागारसाल, णो चेट ण कूडागारसालाए वाहि) दीपय पना "બહારના ભાગને નહીં, કે દીપક ચંપકના બહારના પ્રદેશને નહીં, ચતુષ્કટિકાને નહીં,
ચતુષષ્ટિકાના બહારના પ્રદેશને નહીં, કૂટકારી શાળાને નહીં, અને ફૂટકારશાળાના मरना प्रदेशने प्रशित ४२तो नथी. एवामेव-पएसी! जीवें वि जे. जारि- . सय पुवकम्मनिवद्ध वादिं णिवतोइ) मा प्रमाणे प्रदेशिन् ०१ ] पूर्व
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