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________________ -धिनी टीका सू. १५२ सूर्याभिदेवस्य पूर्व भवजीवप्रदेशिराजवर्णनम् ३१५ -समदीपः तद् इडरकम् अन्तरन्तः अवभासयति४, नो चेत्र खलु इडरकस्य वहिः, नो चैव खलु कूटाssकारशालायाः बहिः । एवं गोकिलिन्जेन, पक्षिपिट - केन, गण्डमाणिकया. आढकेन, अर्धाढकेन, प्रस्थकेन, अर्ध प्रस्थकेन, कुडवेन, अद्धकुडवेन, चतुर्भागिकया, अष्टभागिकया, पोडशिकया, द्वात्रिंशत्कया, दिखाने से उसे प्रभासित करता है | ( अहण से पुरिसे तं पईवं इंडरएणं पिज्जा, तरण' से पईवे व इरय अतोर ओमासेइ ४) यदि वह पुरुष 1. उस दीपक को किसी बडे ढक्कन से ढंक देता है तो वह दीपक उस बडे ढक्कन के भीतरी भाग को ही प्रकाशित करता है यावत् उसे प्रभासित करता है (णो चेत्र ण इरगस्स वाहिं णो चेव न कूडागारसाला वाहिं) उस बडे ढ़कन के बाहिरी भाग को एवं कूटाकारशाला के बाह्यदेश को ...प्रकाशित यावत् प्रभासित नहीं करता है । ( एवं गोकिलिंजेण, पच्छि पिंडणं, गडमणियार, आढएणं, अद्धाढएणं, पत्थपण, अद्धपत्थपूर्ण कुल वेण, वाउन्माइयाए, अट्टमाझ्याए, सोलसियाए) इसी तरह उस दीप को गोकिलिञ्ज से - गाय का खाना जिसमें रखा जाता है ऐऐसी कुण्डिका से, तथा पक्षी के आकरवाले वंशशलाका निर्मित पात्र विशेष से, गण्ड मणिका से- धान्य नापनिका से, आढक से, अर्धाढक से, प्रस्थक से, अर्धप्रस्थ से, कुडवसे, अर्धकुडव से, न सब देश विशेष में प्रसिद्ध धान्यमापक पात्र विशेषों से ढक देता है तथा चतुर्भागिका से, अष्टभागिका घटपट वगेरे पहार्थेने गतावीने तेभने प्रतिभाषित या १२तो नथी. (अहं णं. से रिसे तं पडणं पिज्जा, तप णं से पर्व त इडय तो २ ओभासेइ ४ ) वे ले ते पु३ष ते हीयने मोटा ढांडणाथी ढांडी हे तो ते द्वीप તે માટા ઢાંકણાના અંદરના ભાગને જ પ્રકાશિત કરે છે, યાવત્ તેને પ્રતિભાસિત કરે 79. (णो चेत्र णं इडरगस्स बाहि णो चेव णं कूडागारसालाए,बाहि) .. તે મોટા ઢાંકણાના બહારના ભાગને તેમજ તે ક્રાકાર શાળાના માહ્ય પ્રદેશને પ્રકાશિત यावत् तेने प्रतिलासित उरतो नथी, ( एवं गो किलिजेग पच्छिपिंडणगडमणियार, आढएण, अद्धहणं, पत्थएणं, अद्धपत्थरणं, कुलवेण, चाउ माइयाए, अडभाड्याए, सोलसियाए) मा प्रमाणे ते भाणुस ते ही चहुने गोड़ि सिन्थी - गायने मां मा भूस्वामां आवे छे. सेवा डुंडीथी, तेभक पक्षीना । આકારવાળા વશ શલાકાનિર્મિત પાત્ર વિશેષથી, ગંડ મણિકાથી-ધાન્ય માપનિકાથી, माढम्थी, अर्द्धाढस्थी, प्रस्थ थी, अर्धप्रस्थ थी, हुडवथी, अर्धउवथी, या मधा देश વિદેશમાં પ્રસિદ્ધ ધાન્યમાપક પાત્ર વિશેષાથી તેને ઢાંકી દે છે તેમજ ચતુર્ભાગીકાથી,
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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